तट की खोज (लघु उपन्यास) : हरिशंकर परसाई

Tat Ki Khoj (Novella in Hindi) : Harishankar Parsai

भूमिका

मैं आज भी नहीं समझ पाता कि 'तट की खोज' बहुत साल पहले मुझसे कैसे लिखा गया। यह एक ऐसी कहानी है जिसे लघु उपन्यास कहा जाता है। मूल घटना मुझे अपने कवि मित्र ने सुनाई थी। वे काफी भावुक थे। मेरी उम्र भी तब भावुकता की थी। कुछ रूमानी भी था। तार्किक कम था। तभी तगादा लगा था 'अमृत प्रभात' के दीपावली विशेषांक के लिए किसी लंबी चीज़ का। जल्दी का मामला था। मित्र ने जो घटना सुनाई थी वह मेरे मन में गूँज रही थी। मेरी संवेदना कहानी की उस लड़की के प्रति गीली थी। मैंने दो रात जागकर इसे लिख डाला।

लिखकर पछताया। छपा तब और पछताया। और अब जब यह वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हो रहा है तब भी मैं पछता रहा हूँ। अब मैं इस रचना का सामना नहीं कर सकता। मेरी एक तिहाई रचनाएँ ऐसी हैं जिनका सामना करते मैं डरता हूं। बहरहाल 'तट की खोज' फिर से प्रकाशित होने दे रहा हूँ।

-हरिशंकर परसाई

शीला

बच्चों की पुरानी स्कूली किताबें, जब किसी काम की नहीं रह जाती, तब पिता उन्हें आलमारी में बंद कर, 'होम लायब्रेरी' कहकर सन्तोष कर लेता है। सामान्य आदमी, जब बेटी का विवाह नहीं कर पाता, तो कालेज में दाख़िल करा, 'अभी पढ़ रही है' कहकर संतोष कर लेता है। हाँ, किताबें कभी-कभी मिट्टी के मोल कबाड़ी को भी बेच दी जाती हैं। लड़की का विवाह भी, घबड़ा कर, कभी-कभी ऐसे के साथ कर दिया जाता है, जिसकी लकड़ी मरघट पहुँच चुकी होती है। हमारे समाज में यदि कोई बूढ़ा इसलिए शादी करना चाहे कि उसके मरने पर अर्थी पर चूड़ियां फोडऩे की कोई हो, और ताजा सिंदूर किसी का पुछे, तो वह मरण-शय्या पर भी मजे में विवाह करने की सुविधा पा सकता है।

अपने कालेज में देखती, कि विद्या-प्राप्ति के लिए 100 में से 10 ही पढ़ती हैं। शेष इसलिए पढ़ती हैं, कि पढ़ना उनकी मजबूरी है। शिक्षा उस पॉलिश की तरह प्रयुक्त होती है, जो चीज़ को चमकदार बनाता है तथा ग्राहक को आकर्षित करता है। जब तक पिता कोई वर तलाश न कर ले, तब तक वे बेचारी कालेज के 'वेटिंग रूम' में बैठी बैठी इन्तज़ार करती रहती हैं। लड़की के कालेज में पढ़ने से पिता कुछ समय के लिए जिल्लत से बच जाता है। लोगों से यह कहने के बदले कि विवाह नहीं हो पा रहा है, वह यह कह सकने की सुविधा पा लेता है कि अभी पढ़ रही है। ऊपर से सुन्दर लगने वाला यह वाक्य जिस कलेजे से निकलता है, उसमें दमाड़ लगी रहती है। वह जानता है कि वह झूठ बोल रहा है। अगर ठीक इम्तहान के बीच कोई विवाह करने को कहे, तो पिता लड़की का इम्तहान छुड़ाकर तुरन्त शादी कर देगा।

मैं बी.ए. में पढ़ रही थी। मैं सोचती थी कि पढ़ रही हूँ, पर यथार्थ में किसी छोटे स्टेशन के मुसाफिर की तरह किसी गाड़ी का इन्तज़ार कर रही थी, जो मुझे उठा कर ले जावे। छोटे स्टेशनों पर बड़ी गाड़ियाँ तो रुकती नहीं; हरी झंडी दिखा कर उपहास की सीटी देकर, चली जाती हैं। छोटी गाड़ियाँ रुकती हैं, पर वे लेट होती हैं। उनमें भीड़ भी होती है, और धक्का-मुक्की में किसी को जगह मिलती है और कोई रह जाता है। कई गाड़ियाँ सामने से निकल गईं, सोचा कि प्लेट-फार्म पर कब तक बैठेंगे चलो मुसाफ़िरख़ाने में चल कर इन्तज़ार करें- याने मैंने कालेज में नाम लिखा लिया।

इतने वर्षों के बाद, जब आज उस समय की स्थिति को देखती हूँ, तब यह समझ में आता है। उस समय मेरे मन में किसी प्रकार की हीनता नहीं थी। वह ऐसी अवस्था थी, जब जीवन सतरंगी परिधान धारण किये आता है। ऐसी अवस्था, जिसमें हीनता और निराशा को कोई स्थान नहीं होता। मैं खूब मन लगा कर पढ़ती थी। बड़ी प्रतिभा-शालिनी मानी जाती थी। मैट्रिक और इंटर दोनों प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किये थे। अपने मित्रों तथा परिचितों में मेरी प्रतिभा का बड़ा आतंक था। मैं सुन्दरी भी थी, ऐसा मुझे लगता है, क्योंकि सहपाठी तरुणों से लेकर मुँहबोले काका, मामा, दादा सब मुझे बड़ी लोलुपता से घूरते थे। कुछ लोग पिता जी से मिलने आते, तो वे पिता जी से बातें करने में ध्यान कम लगाते, परदे तथा किवाड़ के छिद्र में से मुझे देख सकने का प्रयास करने में अधिक। मेरी माँ नहीं थीं, इससे इस सब का शिकार मुझे अधिक होना पड़ता था। बिना माँ की जवान लड़की ऐसी फसल होती है, जिसका रखवाला नहीं है और जिसे वासना के उजाड़ू पशु चरने को स्वतंत्र हैं। पिता जी सरकारी रिटायर्ड नौकर थे और थोड़ी-सी पेंशन पाते थे।

मुझे विश्वास है कि वे ईमानदार थे। इसका सबसे बड़ा सबूत हमारी ग़रीबी थी। भलाई को हमेशा मुसीबत की ही गवाही मिलती है। ईमानदारी का दंड हम भुगत रहे थे–मेरा विवाह नहीं हो रहा था और पिता को चिंता के कारण नींद नहीं आती थी। माँ की मृत्यु पहिले हो गई थी, फिर जवान भाई हमें एक दिन छोड़ गया। पिता ने हृदय पर पत्थर रखकर दोनों आघात सहे और मेरे प्रति माँ, भाई, पिता तीनों के कर्त्तव्य निभाये। इतना जहर उन्होंने किस तरह पचाया होगा ! जीवन में कोई रुचि नहीं रह गयी थी, कोई आकांक्षा नहीं थी। जीवन के अंतिम समय में आदमी जिस सुख और शांति की आशा करता है, वह बड़े भाई की मृत्यु के साथ छिन गई थी। उनका जीवन अब एक मशीन की तरह हो गया था। मशीन को भी एक सुभीता होता है- उसमें चेतना नहीं होती-उसे सुख दुख की अनुभूति नहीं होती; लेकिन चेतन की यही मजबूरी है, कि जीवन के हर आघात से कराहना होता है। पिता जी को अब केवल एक काम करना था और वह था, कहीं मेरा विवाह कर देना। यही एक चिंता उन्हें थी। मैं बाईस से तेईस बरस की हो गई, तो उनके हृदय पर एक मन वज़न और बढ़ गया। वे जगह-जगह विवाह की बात चलाते, पर हर बार लड़केवालों की मांग उनके सामर्थ्य की सीमा लाँघ जाती। वे सब लोग हाथ में तराजू लिये थे, जिसके एक पलवे पर बेटे को रखे थे। मुझे, मेरी समस्त विद्या, बुद्धि और सौंदर्य के साथ दूसरे पलवे पर रख कर देखते, तो हर बार मेरा ही पलवा हल्का पाते। तब पलवे बराबर करने के लिए, मेरे साथ रुपयों का वज़न रखने को कहते। पिताजी जब ऐसा नहीं कर पाते, तब वे अपनी तराजू लेकर दूसरे द्वार पर पहुँच जाते।

मैंने उस विडम्बना को अनुभव किया है। फोटो-ग्राफर के सामने जब मैं बैठायी जाती, तब मेरी अंतरात्मा क्रोध और ग्लानि से भर जाती। मैं जानती थी कि यह फोटो माल के नमूने की तरह किसी व्यापारी के पास भेजी जावेगी। परन्तु दूसरी ओर से कभी चित्र नहीं आया, क्योंकि खरीददार ही माल की परख करता है; माल खरीददार को नहीं देखता। स्त्री-पुरुषों के सम्बन्धों में यही दर्शन सब जगह चरितार्थ होता है।

एक दिन किसी विवाह के इच्छुक वर के पिता मुझे देखने आये। आशा और निराशा के बीच झूलते, पिताजी तीन दिन से घर की तैयारी कर रहे थे। मकान की सफाई की गई, सजावट की गई, साथ ही मुझे भी सजाया गया। ऐसे अवसर पर घर में किसी वृद्धा का होना आवश्यक है, इसलिए मेरी एक दूर के रिश्ते की फूफी को तीन दिन के लिए इस घर में बसाया गया।

मेरी परीक्षा का दिन आया। सबेरे से ही घर में बड़ी हलचल मच गई। वृद्धा फूफी ने मेरा श्रृंगार किया और मुझे उन लोगों के सामने कैसे चलना चाहिये, कैसे बात करनी चाहिए, यह सब सिखाया गया। कुल मामला ऐसा था, जैसे मदारी बन्दर को नाना प्रकार के हावभाव सिखाये, ताकि वह दर्शकों को प्रसन्न कर सके। जब वे लोग भोजन करने बैठे, तो पिता जी ने यह बताते हुए कि यह पकवान मेरे ही बनाये हुए हैं, मेरी पाक-विद्या की प्रशंसा की, उन्होंने टेबिल-क्लाथ की ओर देखा, तो उन्हें बताया गया कि यह मेरी ही कला है। द्वार की झालरों की ओर उनकी दृष्टि गई, तो उनसे तुरन्त कहा गया कि वह भी मेरी ही कला है। कोने में रखा हुआ सितार ऐसी जगह रख दिया गया, कि जहाँ उनकी दृष्टि उस पर सहज पड़ जावे और उन्हें यह विदित हो जावे कि मैं गान-विद्या में भी निपुण हूँ।

यह सब चलता रहा। स्वभाव से ही शांत, पिता जी बालक की तरह चंचल और वाचाल हो गये। उनकी यह हालत देख कर मेरा मन उनके प्रति करुणा से भर गया। उनका मुख उस समय बड़ा दयनीय हो गया था। थोड़ी देर बाद वे लोग अपने एक रिश्तेदार के यहाँ चले गये। शाम को पिता जी बड़ी आशंका से उनका निर्णय सुनने के लिए वहां गये, जैसे विद्यार्थी परीक्षा-फल सुनने से डरते हैं। बड़ी रात को वे लौटे और डबडबाये नेत्रों से फूफी को बताया कि उनकी आर्थिक माँग पूरी न कर सकने के कारण यह बात टूट गई। मुझे बात टूटने का कोई दुख नहीं हुआ, किन्तु पिता जी के हृदय के टूटने के कारण मेरा मन अत्यन्त क्षुब्ध हो गया और मैंने बड़े साहस से कहा, ''इतनी अड़चन से विवाह करने की अपेक्षा नहीं करना अच्छा है, मैं विवाह नहीं करूंगी।'' वे बोले, ''बेटी, कहीं बिना विवाह के रहा जाता है।'' मैंने उत्तर दिया, ''जो बचपन में विधवा हो जाती हैं, वे भी तो जीवित रहती हैं।'' उन्होंने यह कह कर बात टाल दी, कि वह बात दूसरी है।

मैं उनकी पीड़ा जानती थी, कि वे सदैव अँधेरे में ही उठ कर काँपते स्वर में 'हरे राम हरे राम' क्यों भजते हैं। उस स्वर में घायल पशु की कराह जैसी कातरता होती। वे मुझसे बोलना धीरे-धीरे कम करते जाते। घंटों बरामदे में बैठे शून्य आँखों से आकाश को देखते रहते। वे लोगों से मिलने-जुलने में बहुत हिचकते थे। एक प्रकार की विकृत मान्यता के शिकार वे हो रहे थे। जिसकी अविवाहिता पुत्री घर में हो, उसे कुछ इस दृष्टि से देखा जाता है, मानो उसने कोई घोर पाप किया हो, और समाज की यह हीन दृष्टि उस पिता को धीरे-धीरे अपनी ही नज़रों से गिराती जाती है। वह आत्मग्लानि और आत्म-पीड़न का शिकार होता जाता है।

मैं उनकी इस पीड़ा को देखती और उन्हें कुछ शांति देने के लिए कहती कि मैं विवाह नहीं करूँगी, पर वे मेरी बात नहीं मानते थे। और क्या मैं भी बिलकुल मानकर यह बात कहती थी ? मैं तर्क कर लेती थी, पर विश्वास नहीं कर पाती थी।
विमला से मेरी एक दिन इस बात पर चर्चा हो रही थी। मैंने कहा, ''हमें बिना पैसे के कोई लेने को तैयार नहीं है, तो हमें विवाह करने से इनकार कर देना चाहिये। अगर हमारी एक पीढ़ी इसी प्रकार विद्रोह कर दे, तो लोगों की अक्ल ठिकाने आ जाए।''

विमला ने कहा, ''ऐसा करने से तो जाति ही समाप्त  हो जाएगी।'' मैंने कहा, ''प्रकृति को अगर मनुष्य जाति चलानी होगी, तो वह उसका कोई और साधन खोज लेगी। वनस्पति जगत में जैसे वह वायु या अन्य साधनों से उत्पादन क्रिया सम्पन्न कराती है, वैसा ही कुछ यहाँ करा देगी। और यदि मनुष्य जाति अपने को अस्तित्व के अयोग्य सिद्ध कर चुकी होगी, तो चिन्ता क्या ?''

विमला मेरे तर्क के सामने ठहर न पाई। पर उसने एक ही जवाब दिया, जो बहुत मामूली था, पर जो मेरे समस्त तर्क-व्यूह को छिन्न-भिन्न करके हृदय तक पहुँच गया। उसने अजब स्वर में कहा, हाँ जी, जब तक कोई गुण-ग्राहक नहीं मिला, तभी तक बातें करती हो। जिस दिन कोई हृदय अर्पण करेगा, भाग्य सराहोगी और चुपचाप अनुगामिनी हो जाओगी।''
गुण-ग्राहक मुझे मिला। उसके लिए मेरे मन में पहिले प्रणय जागा, फिर तीव्र घृणा। प्रणय को मैं ठीक तरह प्रगट नहीं कर पायी, पर घृणा को शक्ति-भर प्रगट किया। कभी-कभी प्रेम की अपेक्षा घृणा का संबंध अधिक मज़बूत होता है। मैंने सम्पूर्ण मन से उससे घृणा की, परन्तु फिर भी अभी जब मैं विगत जीवन में आये व्यक्तियों की कल्पना करने लगती हूँ, तो वही मुझे सबसे पहिले स्मरण हो जाता है। लगता है, घृणा और प्रेम में कोई विशेष अंतर नहीं है। दोनों लगभग समानार्थी हैं। दोनों में एक सी तीव्र प्रतिक्रिया होती है। लेकिन प्रेम और घृणा के विवेचन से कहानी का पथ नहीं रोकूंगी।

गली के मोड़ पर वह रहता था। हाल ही उस मकान में आया था। उसकी प्रशंसा सब ओर हो रही थी। लोग कहते, 'बड़ा प्रतिभावान आदमी है; शुरू से आख़िर तक फर्स्ट क्लास ! यहाँ कालेज में पढ़ाता है।' मैं भी यह सब सुनती थी। अनेक पिता उसकी ओर अपनी लड़कियों से अधिक लालयित नेत्रों से देखते। वह किसी सम्पन्न घर का था।

जहाँ-तहाँ पत्रों में उसके लेख पढ़ती थी । उसके लेखों में बड़ा ओज, बड़ा विद्रोह होता । समाज की जर्जर रूढ़ियों पर, पाखण्ड पर, मिथ्याचार पर, वह बड़ा कटु प्रहार करता । उसके लेखन में बड़ी संवेदना, करुणा होती । ऐसा लगता था कि भावी सामाजिक क्रान्ति का वह अग्रदूत होगा । नये समाज की रचना उसके हाथों से ही होगी । ऐसे व्यक्ति के लिए मैं कोरे एकवचन का प्रयोग करूँ, यह ठीक नहीं है; अब आदर से नाम लूंगी । हाँ, उनका नाम महेन्द्रनाथ था ।

मेरे निकलने का रास्ता वही था । मैंने एक जगह नौकरी कर ली थी, और घर बी० ए० की तैयारी कर रही थी । दिन में कम से कम दो बार मुझे यहाँ से जाना ही पड़ता था । मैं उन्हें वहाँ बैठा देख लेती थी । मैं शुरू से ही सिर ऊँचा करके चलती हूँ । सिर नीचा करके चोरी की नज़र डालने की अपेक्षा, माथा ऊँचा करके, ईमानदारी की दृष्टि डालना, अधिक अच्छा है । परन्तु ऊपर देखना बर्दाश्त नहीं किया जाता । जो ऊपर देख लेती है, उसे कलंक से पोत देने के लिए लोगों के मन की कटोरी में काले रंग तैयार होते रहते हैं । फिर किसी दिन जीभ की कूची से उसका चेहरा पोत दिया जाता है । मैं कुछ दिनों से देख रही थी कि लोगों के मन में रंग तैयार हो रहे हैं ।

महेन्द्रनाथ को मैं दरवाज़े के पास आराम-कुर्सी पर पुस्तक लेकर बैठे देखती । मैं शीघ्र ही समझ गई कि वे किताब पढ़ने नहीं बैठते हैं, बल्कि बैठने के लिए किताब पढ़ते हैं । मैं वहाँ से निकलती, तो सहज आँखें उठ जातीं और मुझे उनकी आँखों में वह भाव दिखता, जिसकी पहिचान स्त्री को बिना सीखे आ जाती है ।

चार-छै माह बीत गये । इस बीच में कोई वार्ता - लाप हम दोनों में नहीं हुआ । यह अलबत्ता हुआ कि मेरा वहाँ से निकलना, दो की जगह कभी तीन और कभी चार बार हो जाता । यह वृद्धि कभी सकारण होती और कभी अकारण भी हो जाती ।

एक दिन एक छोटा लड़का मुझे एक पत्र दे गया । छोटा-सा पत्र था, जिसमें लिखा था :- ".........मेरे हृदय में तुम्हारे लिए जो स्थान है, वह तुम इतने दिनों में जान गई होगी । तुम्हारे नित्य- प्रति स्निग्ध नयनों से मेरी ओर देखने से मुझे विश्वास होता है कि वहाँ हृदय के किसी कोने में मैं हूँ । हमारे बीच वार्तालाप नहीं हुआ, पर प्रेम के राज्य में मुख की अपेक्षा नयनों को अधिक वाक् शक्ति प्राप्त है । प्रेम आत्मा का उज्ज्वल सत्य है और सत्य को छिपाना अपराध है । क्यों नहीं हम दोनों आत्माओं को एक होने दें ?

—महेन्द्रनाथ”

मुझे याद है, मैं पत्र को पाकर आत्म-विस्मृत-सी हो गई थी। मुझे वह न अप्रत्याशित लगा और न विचित्र । मैं मानो उसे प्राप्त करने के लिए तैयार थी । यह छोटा-सा पत्र मुझे बहुत अच्छा लगा । वह सामान्य प्रेम-पत्रों से भिन्न था। उसमें व्यर्थ का वाग्जाल नहीं था, पीड़ा की हल्की अभिव्यक्ति नहीं थी, हाय-हाय और आँसू की झड़ी नहीं थी । न उसमें निराशा थी, न विफलता । न उसमें बरसात की रात में मेघाच्छादित आकाश के तारे गिनने की झूठी बात थी और न इसका हिसाब था कि रात में कुल कितने करवट बदले । इस प्रकार के हल्के और झूठे प्रेम-पत्रों से मुझे बड़ी चिढ़ है । जब उपन्यासों में ऐसे प्रेम-पत्र पढ़ती, तो सोचती कि क्या कुछ कम मूर्ख रहकर प्रेम नहीं किया जा सकता ? क्या प्रेम करते ही आदमी मूर्ख हो जाता है ? या मूर्ख आदमी ही प्रेम करते हैं ? पर इस पत्र में कैसी अच्छी बात कही गई थी और कितने उच्च स्तर पर उसमें गम्भीरता थी, कला- त्मकता थी; एक 'डिगनिटी' थी । उसमें एक व्यक्तित्व बोल रहा था, उसमें लेखक का चरित्र प्रकट हो रहा था । उसमें से मन की सरलता और दृढ़ता झाँकती थी। मुझे वह पत्र बहुत अच्छा लगा । मैं उससे उससे बहुत प्रभावित हुई । मैं रात भर सोचती रही । रात-भर कहाँ सोचती रही ? सोचना तो 10-15 मिनट में समाप्त कर दिया; शेष रात मन उल्लास के लोक में विचरण करता रहा । बीच-बीच में भय व आशंका नीरव रात्रि में झींगुर की भाँति झनकार जाते । उस रात मैंने जाना कि लकीर कितनी गहरी उछली है । अब तक मैं अपने आप को ही न पहचान सकी थी । उस पत्र ने मुझे मेरे सामने ही प्रगट कर दिया । उस रात मैंने जीवन-भर की योजना निश्चित कर डाली । घर बनाया और कमरों की संख्या निश्चित हो गई । अध्ययन कक्ष कहाँ होगा, उसकी सजावट कैसी होगी, पर्दे का रंग, फर्नीचर की क्वालिटी, सुबह की चाय, शाम का भोजन । वे कॉफी पसंद करेंगे या चाय ? कौन-सी चीज़ उन्हें अधिक पसंद है ? वे मुझे नौकरी करने देंगे या नहीं ? पसंद न होगा, तो छोड़ दूंगी । यहाँ तक मैंने सोच लिया । मेरी गृहस्थी उस रात बस गई । मुझे लगा कि गृहस्थी हम लोगों की चरम साधना है । मन पर विज्ञान, कला, विद्या की परतें पड़ी हों, पर इनके नीचे गृहिणी, पत्नी, माता हमेशा जाग्रत रहती है ।

बच्चों को पहिले 'किंडरगार्टन' भेजेंगे या घर पर ही पढ़ायेंगे - यह निर्णय मैं कर ही रही थी, कि पिता जी का भजन शुरू हो गया- 'हे राम ! हे राम !' इस स्वर ने मुझे एक झटके से जगा दिया । मुझे ऐसा लगा जैसे गुलाब के बगीचे में घूमते-घूमते साँप ने डस लिया हो । मेरी कल्पना एक क्षण में ध्वस्त हो गई । इन शब्दों ने हमारी ग़रीबी, हमारी सामर्थ्य - हीनता मेरे सामने खोल दी । मैं अब काँटों पर चलने लगी । सोचा, आखिर इस प्यार का क्या होगा परिणाम ? हमारी तथा उनकी आर्थिक तथा सामाजिक परिस्थिति में कितना अन्तर है ? यह प्रेम चकोरी के चन्द्रमा के प्रति प्रेम से अधिक क्या होगा ? बेचारी रात-भर टकटकी लगाये देखती रहती है, पर वह अपने आकाश से उतर कर कहाँ मिलता है ? और इसमें सामर्थ्य नहीं है, वायु की सीढ़ियाँ चढ़ने की । चढ़ना कठिन हो, पर उतरना तो आसान है, वश की बात है । पर नहीं, अपने आसन से उतर सकना कहीं और कठिन है । अगर वे भी नहीं उतर सके तो ? अगर उनके माता-पिता 10 हज़ार माँगने लगे तो ? इतने में कोई 15 हज़ार वाला आ गया तो ? क्या वे इस प्रलोभन के सामने टिक पायेंगे ? यदि टिकना भी चाहा, तो परिवार वाले टिकने देंगे ? मैं काँटों पर चलने लगी ।

पर मेरा विश्वास नहीं टूटा । तर्क से यदि प्रेम टूटता हो, तो कभी किसी का प्रेम ही नहीं हुआ होता । भविष्य को देख कर तो व्यापार होता है, प्रेम नहीं होता । मेरे मन ने स्वयं विपरीत दिशा से तीर बरसाये । वह क्या सामान्य आदमियों जैसे हैं ? उनमें दृढ़ता है, वे स्वभाव से ही विद्रोही हैं । उनके लेखों को नहीं पढ़ा ? कितनी संवेदना है उनके मन में ! कितनी उदारता ! आवेग नहीं रहा, पर मन अपनी जगह से नहीं हटा।

सबेरे मैंने एक गोलमाल उत्तर लिख कर भेज दिया । 'गोलमाल' में छल-कपट नहीं है । प्रकृति ने हर प्राणी की नारी को गोलमाल की शक्ति दी है । यह है - मन को रोक रखने की शक्ति, एकदम समर्पण न करने की शक्ति । वह निर्मात्री हैं, माता है, जाति की वृद्धि करती है । उस पर बड़ा भारी उत्तरदायित्व है, इसलिए उसे यह शक्ति मिली है । नारी मन से खूब प्यार करके भी ऊपर से निरपेक्ष भाव बनाये रख सकती है । यह छल नहीं है, उसकी प्रकृति है । मैंने लिख दिया – “आपके प्रति मेरे मन में बड़ा आदर है । जहाँ तक देखने का सवाल है, आप जैसे प्रतिभा- वान व्यक्ति को तो समाज का प्रत्येक मनुष्य देखता है ।" 2-3 वाक्य लिखना मुझे ऐसा लगा, जैसे एक बड़ा ग्रंथ लिख दिया हो । कितने बार लिखा और फाड़ा !

यह मेरा पहिला और अंतिम पत्र था । इसे चाहे प्रेम-पत्र कहिये । मैंने चौबीस घंटे ही प्रेम के उल्लास में बिताये । चौबीस घंटे ही विश्वास की गोद में रही । फिर सब बदल गया । वे चौबीस घंटे अभी भी मेरे जीवन का सबसे मूल्यवान धन हैं । प्रणय की वह प्रथम अनुभूति; प्रथम बार हृदय हार कर उसमें जीत जैसा सुख ! चौबीस घंटे के उस प्रेम ने मेरे जीवन में विष- संचार कर दिया । चौबीस घंटे के उस विश्वास ने मेरे जीवन को भस्म कर दिया । चौबीस घंटे के उस उल्लास ने मेरे पथ पर काँटे बो दिये । फिर भी वे घंटे मुझे अभी भी प्रिय हैं । वह मेरी सम्पत्ति है । सँपेरा तो साँपों को ही अपनी सम्पत्ति मानता है, तो उसे क्या आप समझाने जावेंगे ? माना, कि साँप उसे कभी इस लेगा, पर क्या वह इसी आशंका से सम्पत्ति त्याग दे ? कभी घर सिर पर गिर कर प्राण ले लेता है, तो क्या कोई घर में नहीं रहेगा ?

चौबीस घंटे बाद -

रात के करीब साढ़े नौ बजे थे। मैं विमला के साथ सिनेमा देख कर लौट रही थी । उसका नौकर मुझे पहुँचाने आया था, पर मैंने गली के मोड़ से उसे लौटा दिया। वहाँ से थोड़ी ही दूर तो मेरा घर है । सोचा, अपना मुहल्ला आ गया, अब कोई डर नहीं । मैंने गली में पाँव बढ़ाया। सर्दी की रात थी । चारों ओर सन्नाटा छाया था । लोग अभी से बिस्तरों में दुबक गये थे । उस सुनसान में चलने में मुझे भय का अनुभव हुआ और मैं पछताई कि नौकर को लौटा कर मैंने अच्छा नहीं किया । अंधकार और आशंका का साथ है । हर कदम पर एक अज्ञात भय से मैं काँप जाती । पन्द्रह-बीस कदम ही चली थी कि बगल में खटका हुआ । मैं चौंकी और आस-पास देखा, फिर यह सोच कर तेज कदम बढ़ाने लगो, कि मन की आशंका के कारण मुझे ऐसा भ्रम हुआ है ।

मैं फुर्ती से, बिना आसपास देखे कदम बढ़ा रही थी । कुछ कदम चलने के बाद मुझे यह स्पष्ट आभास हुआ कि कोई पीछे से झपट रहा है । । मैं भय के कारण चेतना-हीन-सी हो गई । एक क्षण के लिए मुझे ऐसा लगा, जैसे मेरी देह जड़ीभूत हो गई हो । उसी क्षण मुझे महेन्द्रनाथ का दरवाजा खुला दिखाई दिया, जिसमें से प्रकाश की क्षीण रेखा बाहर आ रही थी। मुझे एकदम हिम्मत आ गई और मैं बड़े विश्वास के साथ झपट कर दरवाजे के भीतर घुस गई और धीरे से किवाड़ बन्द कर दिया । पीछा करने वाले गुंडे थे। मैंने देखा कि वे दरवाजे के सामने सड़क तक आ गये हैं । तनिक देर खड़े रहे और फिर वहाँ से चले गये कमरे में रोशनी जल रही थी और उसी के पास महेन्द्रनाथ कुर्सी पर पढ़ते-पढ़ते सो गये थे । गुण्डों का संकट टल जाने पर अब मुझे अपनी इस सुरक्षा की स्थिति से भय लगने लगा । बड़े दर्द के रहते, छोटा दर्द प्रभावहीन होता है; पर जब बड़ा दर्द समाप्त हो जाता हैं, तब छोटी-सी खरोंच भी पीड़ा देती है । रात्रि के समय घर में अचानक घुस गई हूँ, महेन्द्रनाथ सो रहे हैं, दरवाजे खुले हैं । अब मैं क्या करूँ ! पहले सोचा कि जैसे आई थी वैसे चुपचाप चली जाऊँ । पर वे सो रहे हैं और दरवाजा खुला है । कोई चोर घुस पड़े तो !

मैं इसी उलझन में थी कि सामने के मकान से एक आदमी ने आवाज़ लगाई, "अरे जगदीश, सो गया ! अरे देखो तो, मुहल्ले में क्या होने लगा ! मथुरा बाबू की लड़की महेन्द्रनाथ के घर में घुसी है ।"

मेरा खून सूख गया। उस घर में प्रवेश करते समय ही मेरे मन में कुछ इसी तरह की आशंका जागी थी । अब तो मैं बिलकुल ही घबरा गई। लोग बाहर इकट्ठे होने लगे थे । मैं बाहर निकलती, तो वे पशु की तरह मुझ पर झपटते और मेरी दुर्दशा कर देते । इस समय मुझे ऐसा लगा कि मेरी रक्षा भीतर चले जाने में ही है । महेन्द्रनाथ की उपस्थिति मुझे अज्ञात रूप से बल दे रही थी । मन में कुछ-कुछ अनजाने विश्वास ऐसा । आ गया, कि कोई चिंता की बात नहीं, महेन्द्रनाथ तो । मैं एकाएक भीतर के कमरे में चली गई । मेरी आहट और बाहर के शोर-गुल से उनकी आँख खुल गई । वे हड़बड़ा कर उठ बैठे और बोले, आईं ? और यह हल्ला कैसा है ?” "क्यों, तुम कैसे मैंने सारा हाल बताया । उनके चेहरे पर परेशानी की रेखायें बढ़ती गईं। अन्त में मैंने कहा, “गुंडों से तो मैं बच गई, पर ये शरीफ़ मुझे खा जायेंगे ।" वे एक क्षण मौन रहे, फिर बोले, "तो क्या किया जाय ?"

मैंने कहा, "आप बाहर निकलकर कह दीजिये कि मैं गुंडों के डर से यहाँ आ गई थी । "

वे बोले, “एकदम निकलकर घर क्यों नहीं चली जातीं ?"

मैंने कहा, "अब भागती हूँ, तो मेरा बिन किया पाप सिद्ध हो जायगा । इस समय केवल आप पी मुझे बचा सकते हैं ।"

" पर वे मेरी बात क्यों मानेंगे !" महेन्द्रनाथ खीझ उठे थे ।

मैंने कहा, "ज़रूर मानेंगे । आपका सब लोग बड़ा विश्वास और आदर करते हैं । फिर आपको सत्य का बल है । आप साहस- पूर्वक कह दीजिये, सबको विश्वास हो जायगा ।"

मैंने देखा कि महेन्द्रनाथ के पाँव मुझसे अधिक काँप रहे थे । यह ठीक है कि भीड़ का कुछ भरोसा नहीं, वह महेन्द्रनाथ को व्यभिचारी भी घोषित कर सकती थी और उन्हें एक नारी की रक्षा करने के लिए इनाम भी दे सकती थी । भीड़ का हृदय होता है, मस्तिष्क नहीं । फिर भी स्थिति का सामना करने का यही तरीका था कि जो सत्य है, उसे स्पष्ट कह दिया जाय और महेन्द्रनाथ की बात को सत्य माना जाता, ऐसा मुझे विश्वास था ।

पर महेन्द्रनाथ बड़ी परेशानी से बोले, "तुमने बड़ा बुरा किया | बड़ी बदनामी होगी।" चेहरे पर पसीने की बूंदें आ गईं। वह मकान बदनामी की आशंका के एक धक्के से भरभराने लगा । वे बोले, " एक तरकीब है— मैं पीछे के दरवाजे से निकल जाता हूँ । जब वे लोग मुझे नहीं पायेंगे, तो बदनामी भी नहीं होगी । दोनों साथ मिलेंगे, तो उनका संदेह पुष्ट ही होगा !"

मैं भी खीझ गई थी । बोली, "इसमें आप ही कलंक से बचेंगे; मैं नहीं बच सकती । लोग इतने मूर्ख नहीं हैं, जो इतना भी न समझ सकेंगे कि पीछे भी एक दरवाजा है, जिससे खिसका जा सकता है ।"

पर महेन्द्रनाथ ने मेरी एक न सुनी। बदनामी के भय का भूत उनके सिर पर सवार हो गया था और वे विक्षिप्त जैसे लग रहे थे । वे यह कहते हुए पीछे के दरवाजे से निकल गये कि यही ठीक है; मैं जाता हूँ । जो आदमी को अपने ही मकान से भगा दे, वह भय कितना बड़ा होगा । प्रतिष्ठा बड़ी भयंकर चीज़ है ! प्रतिष्ठा के बोझ के नीचे सत्य किस क़दर चीखता रहता है ! मेरे मुख से अस्पष्ट शब्द निकले, "मुझे क्या मालूम था कि आप इतने कायर हैं !"

घृणा और निराशा से मेरा मन भर गया । किस विश्वास से मैं यहाँ आई थी, और क्या हो गया ! आस्था खंडित हो गई । जिसे मज़बूत डाल समझकर सहारा लिया था, वह भीतर से खोखली निकली । जिसे दृढ़ चट्टान समझकर पैर रखा था, वह दलदल निकला। जिसे अमृत समझकर पी रही थी, वह हलाहल था । विश्वास के टूटने का दर्द बड़ा विकट होता है ।

बाहर भीड़ बढ़ रही थी, मुहल्ले के भले-बुरे सब इकट्ठे हो रहे थे । वे जो स्वयं मुझे लोलुपता से घूरते थे, वे जो स्वयं कलुषित थे, वे जो स्वयं रात की चादर ओढ़कर दूसरों के घरों में जाते थे, अब धर्म और पवित्रता के झंडे हाथ में उठाये थे- सब पवित्र थे, क्योंकि ये गोपन में कुशल थे । सच्चरित्र और दुश्चरित्र में कुल इतना फर्क है— पहला कलुष को छिपाने में समर्थ है, दूसरा असमर्थ । लोग मेरी निंदा कर रहे थे । दूसरे के मामले में हर चोर मजिस्ट्रेट हो जाता है । कह रहे थे, "रोज देखा-देखी होती थी । हम तो जानते थे कि कोई दिन ऐसा होगा । ऊँट की चोरी कहीं निहुरे निहुरे हुई है ?"

मैं बाहर निकलने का साहस बटोर रही थी । निराशा में भी एक ताकत होती है । हमारी बहुत-सी कमज़ोरी, हमारी आशाओं के कारण होती हैं । जब आशा टूट जाती है, तब आदमी निडर हो जाता है । इसी समय पिता जी आ गए। लोग कहने लगे, "लो भैया, अब मथुरा बाबू आ गये । अब वे जानें और उनकी लड़की।"

पिताजी सब सुन चुके थे । वे चुपचाप आकर खड़े हो गये । मैं बरामदे में आ गई। शोर-गुल कम हुआ, तो वे चिल्लाये "शीला, बाहर तो आ ।"

मैं बाहर निकली, तो सामने के मकान का वह धर्मध्वज-धारी बोला, "देख लो, हम झूठ तो नहीं कहते ?"

पिता जी अविचलित स्वर में बोले, "बेटी, क्या हुआ है ? बिलकुल सच-सच कह दे । किसी से डरने की बात नहीं है ।"

मेरी हिचकी बँध गई थी । बड़ी कठिनाई से कह पाई । " मैं विमला के साथ सिनेमा देख कर लौट रही थी । उसका नौकर गली के मोड़ तक छोड़ गया था । मैं आ रही थी, कि मैंने देखा मेरे पीछे गुण्डे लग गये हैं । यह दरवाजा खुला था । मैं बचने के लिए यहाँ घुस गई । इतने में लोगों ने हल्ला मचा दिया ।"

पिता जी ने बात सुनी । वे बहुत कम बोलते थे । बहुत धीरे-धीरे बोलते थे । पर इस समय उनमें एक अद्भुत तेज का उदय हुआ । वे क्रोध से काँपने लगे । उनके मुख पर घृणा छा गई । बड़े तीव्र स्वर में उन लोगों से बोले, "तुम लोगों को शर्म नहीं आती, दूसरों की लड़कियों को बदनाम करते हुए – तुम्हारी भी तो लड़कियाँ हैं । उन्हें सिखा देना कि यदि गुण्डे पीछा करें, तो उनके साथ चली जावें, मगर किसी शरीफ़ के घर में घुस कर बचाव न करें ।”

वे लोग इस चोट से तिलमिला उठे । अपनी स्त्री या बहन-बेटी की बात पर आदमी एकदम सचेत हो जाता है । उनका आहत अहंकार बोला, “हमें क्यों गाली देते हो ? उलटा चोर कोतवाल को डाँटे ! वाह ! बुलाओ न महेन्द्रनाथ को । वह क्यों छिपा है ? पूछो उससे !”

पिताजी ने जवाब दिया, “क्यों बुलाऊँ उसे ? तुम क्या मेरे मजिस्ट्रेट हो ? मैं क्या तुम्हारी अदालत में खड़ा हूँ ?"

मैंने कहा, "वे तो यह हो-हल्ला सुन कर बदनामी के डर से पीछे के दरवाज़े से निकल गये ।"

इस बात से उनके संदेह को बल मिल गया । एक आदमी बोला, "क्यों भाई, सच्चा आदमी कहीं पीछे के दरवाज़े से भागता है ? इसे निकालो मुहल्ले से । हमने तो पहले कहा था कि बिना बाल बच्चेदार आदमी को मकान नहीं देना चाहिये ।"

पिता जी ने मेरा हाथ पकड़ा और बोले, "चल घर चलें ।" घर पहुँचकर न मैं बोली और न पिताजी । दोनों जाग रहे थे । मेरी सिसकी उन्हें सुनाई दे रही थी और उनकी उसासें मेरे कानों में पड़ रही थीं। एक घंटे में ही हम एक-दूसरे के लिए अजनबी हो गये थे । दुख आदमियों को मिलाता है, पर दुख अलग भी करता है । दो दुखी आदमी आपस में इसलिए नहीं बोलते कि कहीं हमारे हाथों दुख के बंद डब्बे का ढक्कन नखुल जाय । वे इसलिए नहीं बोलते कि हर एक के सिर पर दुख का दुगना बोझ हो जायगा ।

रात को करीब दो बजे वे मेरे पास आये और सिर पर हाथ रख कर बोले, "बेटी, मुझे तेरे ऊपर विश्वास है । तुझसे ऐसा कुछ नहीं होगा, जिससे मुझे कलंक लगे । सो जा ।" मेरे धीरज का बांध टूट गया । मैं उनसे चिपट कर रोती रही ।

सुबह उठे, तो हमने अपने को दूसरी ही दुनिया में पाया । मनुष्य वही थे, पर उनकी दृष्टि बदल गई थी । संसार मांस-पिंडों का समूह तो है नहीं, मनुष्य का मनुष्य के प्रति व्यवहार का नाम ही तो संसार है । संसार हमारे लिए बदल गया था। हमारा उसका संबंध बदल गया था । कल तक जिन मुखों पर सद्भावना दिखती थी, उन पर घृणा जम गई थी । कल तक जो आँखें संकोच से नहीं उठती थीं, वे आज शैतानी से घूरने लगी थीं । कल तक जिन मुखों से शब्द नहीं निकलता था, आज उनसे उपहास झर रहा था । स्त्रियाँ मुझे झरोखे में से झाँकती थीं, हँसती थीं। पिंजड़े में बंद परिन्दे, आज़ाद पक्षी को घायल होते देखकर बड़े प्रसन्न होते हैं, क्योंकि उनकी घुटन से उत्पन्न हीनता की भावना को शांति मिलती है । लोग मुझे देख-देख कर व्यंग करते, आपस में कानाफूसी करते । निंदा में बड़ा रस होता है । निंदा बड़ी मिलाने वाली होती है । जिन में बरसों से बैर चला आता था, बोल-चाल बंद थी, उनमें सुलह हो गई थी, बोल-चाल शुरू हो गयी थी । ये सब पवित्रता और सदाचरण के हिमायती नहीं होते । स्त्री-पुरुष का मिलना भी ये बुरा नहीं मानते । बुरा इन्हें इस बात का लगता है कि 'हाय रे, वह हमारे साथ नहीं हुई ।' सौ में से नब्बे का तो यही हाल है । यह असफलता और अक्षमता एकदम उपदेशक बना देती है । कमज़ोरी नैतिकतावाद की माँ होती है; और फिर क्षुद्रता तो हमेशा से ही महत्ता का उपदेश देती आई है, पाप के हाथ में हमेशा पुण्य की पताका लहराती है।

मैंने सोचा कि डरूँगी तो जीना असम्भव हो जायगा । जीने के लिए प्रयास करना पड़ता है । वह मौत है, जो बिना प्रयास मिल जाती है । मैं अपनी दृष्टि में बिलकुल निष्कलंक और निष्पाप थी । यदि महेन्द्रनाथ की तैयारी होती, तो मैं स्पष्ट कह देती कि मैं उसके यहाँ रात को गई थी। इसे न मैं बुरा मानती, न अनैतिक । राधा और कृष्ण के यमुना के कुंज - मिलन के गीतों से भक्ति-विभोर हो जाने वाले लोग, आदमी के बारे में बड़े कंजूस होते हैं ।

मैं वैसा ही ऊँचा माथा कर निकली और पहिले ही मकान से 'रिमार्क' पाया, "वाह, पाप करके भी लोग कैसा माथा ऊँचा करके चलते हैं ! धन्य है !"

पिताजी बिलकुल टूट गये थे । वे दिन-दिन-भर मौन बैठे रहते थे । उनका स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया था । कहीं कुछ सुन लेते, तो लड़ पड़ते । कई लोगों से उनकी खटक गई थी। ऐसी तीखी बातें कहते कि सुनने वाले का मुंह काला पड़ जाता । झूठी मान-मर्यादा उन का मुख बन्द किये थी । अब, जब वह नहीं रही, तो बेखटके जो मन में आता स्पष्ट कह देते । न उनके पास कोई मिलने जाता था, न वे किसी के पास जाते थे ।

मेरे विवाह के सब रास्ते बंद हो चुके थे । मेरी बदनामी सर्वत्र फैल गई थी । पिताजी ने एक-दो जगह बात चलाई, तो कोरा जवाब मिल गया । एक दूर के रिश्तेदार ने 500 मील दूर रहने वाले किसी परिवार में, इस उम्मीद से विवाह की बातचीत शुरू की, कि वहाँ बदनामी न पहुँची होगी । पर किसी शुभचिंतक ने उन्हें भी ख़बर कर दी कि कुलटा को क्यों घर में लाते हो ।

एक दिन वे पिताजी के पास आये और बड़े हताश स्वर में बोले, "अब क्या करें ! अपना ही माल खोटा हो, तो परखैया का क्या कसूर !"

पिता जी उन पर बरस पड़े, “परखैया सब अंधे हैं, उनके कान ही कान हैं, न आँखें हैं, न दिमाग; और तुम भी वैसे ही हो। किसने कहा था तुमसे कि तुम मेरी लड़की की बात करो ?" वे बेचारे अपना सा मुँह लेकर चले गये ।

पिता जी की तबियत खराब रहने लगी थी । उन्होंने खाट पकड़ ली। मैं जानती थी कि क्या होने वाला है ।

आखिर एक दिन आधी रात को वह हुआ । अंतिम समय की उनकी प्राणों की वह छटपटाहट मुझे आज भी स्मरण है । उनके प्राणों को केवल मेरा बंधन पृथ्वी से बाँधे था । एक ही कारण था, उनके जीने का- मैं । कुछ दिनों से उन्हें अपने जीवन की निरर्थ- कता महसूस होने लगी थी । वे अनुभव करने लगे थे कि उनके रहने से मेरा कोई विशेष हित नहीं होने का । आत्म-पीड़न ने मृत्यु को और जल्दी ला दिया । बहुत दिनों से हम लोग एक ही घर में क्षीण- परिचय व्यक्तियों की तरह रहने लगे थे, जैसे सराय में एक दिन के लिए टिके हुए दो व्यक्ति, जिन्हें शीघ्र ही अलग हो जाना है । वे संसार से, मुझसे, सब नाते तोड़ चुके थे यह ज्ञान और तुष्टि से उत्पन्न वैराग्य नहीं था; मन की चरम निराशा और विफलता थी ।

अंतिम समय उनका मोह, आरोपित तटस्थता का आवरण चीरकर, उभर आया था । उनकी आँखों से अश्रु धार बहने लगी । उन्होंने मुझे पास बुलाया और मेरे सर पर हाथ रख कर बोले, "बेटी, तेरा कुछ ठिकाना नहीं कर पाया । तेरा क्या होगा !” उनके छटपटाते प्राणों को मैं सांत्वना के दो शब्द भी न कह पाई । मुझे नहीं सूझा कि मैं क्या कहूँ । सामान्य सांत्वना के बोल उनके लिये निरर्थक थे । उन्होंने जीवन का कटुतम स्वाद लिया था । शब्दों के पीछे की निरर्थ- कता को वे समझते थे । विश्वास में छिपा अविश्वास उन्हें ज्ञात था । उनका दुख, उनका पीड़न, इतना छोटा नहीं था कि शब्दों से शांत किया जा सके। मैं मौन हो रही ।

रात भर मैं उनके मृत शरीर के पास बैठी रही । और एक के बाद एक जीवन की समस्त घटनायें आँखों के सामने आने लगीं। उनका स्नेह, उनका त्याग, मुझे रह-रहकर याद आने लगा । मेरे आँसू सूख गये थे । मैंने उन्हें बचा कर रख लिया था। पूरी ज़िन्दगी पड़ी है, न जाने कब कितने आँसुओं की जरूरत पड़ जाय ।

सबेरा हुआ और मुझे बरबस रोना पड़ा । मृत्यु के बाद रोना इसलिए जरूरी होता है, कि पड़ोसी सुनकर, 'मिट्टी सुधारने' आ जाते हैं । जैसे विवाह में शहनाई, वैसे मृत्यु में रोना । लोग तो मृत्यु को महोत्सव का रूप दे देते हैं । घर-घर निमंत्रण दे आते हैं और पुत्र पिता की शव यात्रा में हज़ारों आदमियों को देखता है, तो पिता की मौत भूल जाता है और उसकी छाती गर्व से फूल जाती है । रोना मेरे लिए ज़रूरी हो गया था । मैं रोई । पड़ोसी आकर झाँक जाते, पर कोई भीतर न आता । कहते हैं, मृत्यु के बाद बैर समाप्त हो जाता है, पर जो घृणा के देवता के सच्चे भक्त होते हैं, वे मुर्दे से भी बैर भँजाते हैं । पर कुछ दिनों बाद समझ में आया, कि वे नीच नहीं थे, गुलाम थे, संस्कारबद्ध भावना के ! वे केवल दयनीय थे ।

थोड़ी देर में पड़ोस की एक विधवा आई । मैंने तय किया कि अकेली ही शव को ठिकाने लगाऊँगी । बाज़ार गई, बाँस, कफ़न आदि खरीदे और चौक से चार-छ: मजदूर ले आई। इस बीच विमला को ख़बर लग गई थी और वह अपने भाई को लेकर आ गई थी । मैं घर पहुँची तो दूसरा ही दृश्य देखा । वह विधवा द्वार पर खड़ी होकर मुहल्ले वालों को फटकार रही थी, "अरे, तुम भी तो कोई दिन मरोगे । मुहल्ले में मुर्दा पड़ा है, और तुम घर में मुँह छिपाये पड़े हो ! भगवान ने मेरे छः बेटे बुला लिये। आज वे होते, तो मथुरा बाबू के साथ तुम सबको भी मरघट पहुँचा आते । तुमको शर्म नहीं आती ! अरे मुर्दे से काहे का बैर !” आखिर कुछ आदमी लज्जित होकर आये । उनके आते ही, उस स्त्री ने कहा, "अभी तक क्यों नहीं आये ? सोचते होगे कि हम तो अमर होकर आये हैं ।" अर्थी बनी और पिता जी के अवशेष चल दिये ।

पिता जी की मृत्यु के बाद मुझे बहुत सूना तो लगा; परन्तु मेरा मन कुछ हल्का भी हुआ । मैं उनकी पीड़ा देख नहीं सकती थी । मेरे कारण उनकी आत्मा को जो कष्ट होता था, उसे देखकर मैं आत्म-ग्लानि से जली जाती थी । पिता की मृत्यु बिना माँ की लड़की के लिए कितना बड़ा कष्ट होता है ! संसार का एक- मात्र सहारा जो मुझ पर छाया किये था और जिसकी रक्षा में मैं अपने को आश्वस्त अनुभव करती थी, उठ गया था । परंतु एक प्रकार से मुझे उनका उठ जाना ही ठीक लगा | मृत्यु किसी-किसी के लिए हितकर है, ऐसा मुझे उस समय लगा था । वे मेरे कारण ही जीवित थे; मेरे जीवन को बनाने में वे अपने आपको दे डाल रहे थे । परन्तु जब मैंने ही उनकी सब आशाओं को खंडित कर दिया, जब मेरा अस्तित्व उनके लिए पीड़क हो गया, तो उन्हें चला जाना ही उचित था । हम दोनों में से एक तो दुख से बचा ।

मेरे सामने पूरी ज़िन्दगी पड़ी थी । कुछ रिश्तेदार आ गये; दस-पाँच दिन रहकर चले गये । मुझे अपनी नाव खुद खेनी थी। मुझे कुछ दिन तक सहानुभूति मिली, परन्तु फिर लोगों की दृष्टि में मेरा पूर्व रूप ही प्रधान हो गया और मुझे व्यंग और उपहास का शिकार होना पड़ा। मुझ से स्त्रियाँ बहुत कम बोलती थीं, मानो उन्हें भय हो कि मेरे संसर्ग से उन- की पवित्रता नष्ट न हो जाय । कुछ स्त्रियाँ सहानुभूति भी रखती थीं, पर लोक-निंदा के भय से मुझ से बोलती नहीं थीं । पुरुषों का व्यवहार तो विचित्र था । जो मेरे एक कटाक्ष पर मेरे चरणों की रज माथे पर रख सकते थे, वे मेरी ओर से ऐसा सुभीता न मिलने के कारण शत्रु हो गये थे ।

बदनामी के अब और मार्ग खुल गये थे । जिस आदमी से बात कर लेती, उसी के साथ बदनामी हो जाती । अभी तक लोग पुरुष को केवल 'नर' और स्त्री को केवल 'मादा' मानते हैं और उनका मिलन केवल प्रजनन की क्रिया हेतु मानते हैं । पशु-स्तर से ऊपर उठ कर सोच ही नहीं पाते । हमारे हज़ारों वर्षों से सभ्यता और संस्कृति की साधना कर रहे हैं, ज्ञान- विज्ञान-दर्शन-धर्म की उपलब्धि पर हम गर्व करते हैं, पर अनेक बातों में पशु से ऊपर कहाँ उठ पाये हैं ! हम उस बंदर की तरह हैं, जो आदमी की पोशाक पहिन- कर आदमी का अभिनय करता है ।

महेन्द्रनाथ से इस बीच कभी भेंट नहीं हुई थी । वे वह मकान छोड़कर तभी चले गये थे । मुझे आशा थी कि पिता की मृत्यु के बाद औपचारिकता के निर्वाह के लिए ही सही, वे आवेंगे ही। उस दिन की घटना से मुझे बड़ा आघात लगा था । परन्तु मैं मन ही मन उस बात को भूल जाने को तैयार थी । किसी घटना - मात्र से अथवा एकाध कमज़ोरी प्रगट हो जाने से ही, किसी व्यक्ति के बारे में निश्चित धारणा बनाना अन्याय होता है । मैंने महेंद्रनाथ से विरोध करने की भरसक कोशिश की, परंतु मन के किसी कोने में कहीं छिपी हुई मेरी उस प्रथम अनुभूति की भावना विद्युत- सौंध कर मुझे अभिभूत कर देती । मैं अपने आपको प्रतिकूल नहीं कर सकी ।

आहत सम्मान, उपेक्षा और अवहेलना के बावजूद महेंद्रनाथ को बिलकुल अपने से अलग मैं तब भी न कर पाई । एक दिन मैंने उनके यहाँ जाने का तय किया । मेरे इस निर्णय में न जाने कितनी भावनाओं और विचारों का योग था । सामान्यतः उनके उस दिन के व्यवहार और उसके बाद की अवहेलना के बाद मुझे उनके यहाँ नहीं जाना चाहिये था। पर मैं गई । शायद मुझे अब भी उनसे सहानुभूति की उम्मीद थी -- स्नेह और सहानुभूति की उस समय मुझे बड़ी चाह थी । मुझे उनकी प्रतिक्रिया देखने का कुतूहल भी था । सहारे की आवश्यकता भी मुझे मजबूर कर रही थी । मुझे लगा कि दुनिया में एक ही वह आदमी है, जो इस बात का साक्षी है कि मेरी झूठी बदनामी हुई है और वही एक आदमी है, जिसे मुझे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती । ये सब तर्क थे, जो मेरे मन ने आयोजित कर लिये थे, पर मुझे खींच ले जाने वाली एक अन्य शक्ति इस समय प्रबल थी और ये सब कारण उसी प्रबल पक्ष में सम्मिलित हो गये थे ।

एक दिन तीसरे पहर मैं उनके यहाँ पहुँची । वे कमरे में बैठे कुछ लिख रहे थे। मुझे देखते ही वे हड़- बड़ा कर उठ बैठे | चौंक कर पूछा, "अरे आप कैसे आईं ?" पूछने का ढंग मुझे अच्छा नहीं लगा । उस पूछने में बड़ी औपचारिकता थी, जो किसी अजनबी को अच्छी लग सकती है । स्पष्ट लग रहा था कि वे मेरे आने से खुश नहीं थे । लड्डु के डब्बे में चोरी से हाथ डालते हुए कोई बच्चे को देख ले, तब बच्चे के मुख पर पकड़ जाने की जो शर्म और घबराहट होती है, वही महेंद्रनाथ के मुख पर थी । दूसरों की दृष्टि में मैं अपराधिनी भले ही रहूँ, मेरी नज़रों में तो वे अप- राधी थे । इस बात को वे भली-भाँति जानते थे । फिर, मैं चलता-फिरता कलंक हो गई थी; जिसके पास बैठ जाती, उसे दाग़ लग जाता । वे बार-बार दरवाज़े की ओर शंकित दृष्टि से देखते थे कि कोई आ न जाय ।

मैं कुर्सी खींच कर बैठ गई । लगातार आघातों से मेरा मन कठोर हो गया था । मुसीबत का यही स्वभाव है कि आदमी को अपने ही से लड़ने के लिए शक्ति दे देती है । और कोई शत्रु ऐसा नहीं करता । पर मुसीबत को बराबरी से लड़े बिना मज़ा नहीं आता ।

बड़ी देर तक दोनों मौन रहे । उन्हें मौन से भय लगने लगा । जिसे मौन ढाँके है, वह कोई भयावह चीज़ न हो ! वे शीघ्र ही उसे खोल देना चाहते थे । बोले, "सब ठीक तो है ? मैं कुछ सहायता कर सकूँ तो बताओ ।" ये शब्द मुझे बहुत बुरे लगे । वे ओंठ से ही निकले थे, भीतर से नहीं । मैंने कह दिया, “अब तो सब ठीक हो गया है, याने बिगड़ने को कुछ बचा नहीं । मैं आपकी सहायता लेने नहीं आई हूँ । आपके ही काम से आई हूँ । देने आई हूँ !"

" मेरी क्या सहायता ? -- मेरा क्या काम है ? मैंने तो तुमसे कुछ माँगा ही नहीं ।" वे ज़रा घबड़ाये हुए थे ।

मैंने कहा, “आपने मुझे बुलाया था, मैं आ गई हूँ ।" उनके चेहरे पर परेशानी बढ़ रही थी । इ बुद्धिमान आदमी को शब्द नहीं मिल रहे थे । उनकी वाक्शक्ति पंगु हो गई थी । " मैंने तो तुम्हें नहीं बुलाया। मैंने कब बुलाया था ?" वे बोले ।

मैंने उनका वह प्रेम - निवेदन वाला पत्र खोल कर उनके सामने रख दिया और कहा, "आपने इसमें प्रेम प्रगट किया है, दोनों आत्माओं के मिलने की आकांक्षा प्रगट की है । अब मैं आ गई हूँ ।"

वे खिन्न हँसी हँसते हुए बोले, "तुम पागल तो नहीं हो गई हो ? अब इस पत्र का क्या मतलब रहा ?"

" मतलब क्यों नहीं रहा ? उस समय मैं इस स्थिति में नहीं थी । -- आज हूँ, इसलिए आ गई हूँ ।"

"लेकिन मेरी भी तो स्थिति बदल गई है ।" वे बोले ।

"क्या स्थिति बदल गई है ? बाहरी स्थितियाँ ही जल्दी-जल्दी बदला करती हैं; भीतरी स्थिति इतनी जल्दी नहीं बदलती।” मैंने जरा तेज़ स्वर में कहा ।

"बाहर की स्थिति ही तो बदल गई है । अब तुम ख़ुद सोचो कि ऐसा कैसे हो सकता है ।"

"क्यों ? इसलिए न, कि मैं कलंकिता हूँ । लेकिन आप से भी अधिक और कौन जानता है कि वह कलंक झूठा है ? आपको भी इस सत्य के लिए कोई गवाही चाहिये ? और किसी भी प्रकार सही, इस कलंक के कुछ कारण आप भी तो हैं । अब मुझे और कौन स्वीकार करेगा ?"

अंतिम बात से वे एकदम सचेत हो गये । उनके मुख पर की परेशानी कुछ कम हो गई और कुछ विचित्र सी मुस्कान उनके चेहरे पर आई । उनको उत्तर देने के लिए जैसे सूत्र मिल गया हो । बहते - बहते । जैसे चट्टान पर पाँव पड़ गया हो । कहने लगे, "यही तो बात है । तुम मजबूरी में आई हो; तुम्हें मेरे प्रति न प्रेम तब था, न अब । अब तुम्हारा ठिकाना नहीं है, इसलिए मेरी ओर मुड़ी हो ।"

इस बात से मेरे शरीर में आग सी लग गई । किसी की मुसीबत का कितना निष्ठुर उपहास है यह एकदम पाशविक, दानवीय ! मैंने घृणा और क्रोध को अब छिपाया नहीं, कहा, "किसी के दुख का उपहास करने में तो कुछ लज्जा आनी चाहिये। मजबूरी कुछ नहीं है | मजबूरियाँ तो सब चली गईं। जिनके कारण मजबूरियाँ आती हैं, वे सब विदा हो गये - सम्पत्ति, परिवार, महत्वाकांक्षा, प्रतिष्ठा । लेकिन अगर मैं कहूँ, कि मेरे मन में प्रेम तब भी था और अब भी - तो आप विश्वास करेंगे ? मेरे पत्र से ही यह प्रगट हो जाता था । उस दिन अग्नि कुण्ड में ढकेल कर आप खिसक दिये थे, फिर भी मेरे मन में वही भाव है । हम लोग इतनी जल्दी नहीं बदला करतीं । पर आप को विश्वास नहीं होगा । जिसे अपने आप पर विश्वास नहीं, वह दूसरे का विश्वास कैसे करेगा ? " मेरा मन भर आया था । आँसू निकलने को आतुर हो रहे थे । पर मैं वहाँ कोई कमज़ोरी प्रगट नहीं होने देना चाहती थी ।

महेंद्रनाथ का माथा कुछ झुक गया। वे धीरे से बोले, "लेकिन अब इस बात से कोई लाभ नहीं । मेरी भी तो कोई कम बदनामी नहीं हुई ।" मैंने कहा, "आप ने अपनी कमज़ोरी के कारण बदनामी उठाई । आप अगर उस तरह वहाँ से पलायन न कर जाते, दृढ़ता- पूर्वक झूठ का सामना करते, तो न आप की बदनामी होती और न मेरी ।"

महेन्द्रनाथ का धीरज टूट रहा था । उनके पास कोई तर्क नहीं था, जिसका उपयोग वे कर सकते । मन में शायद उन्हें मेरी बात ठीक लग रही थी, परन्तु कोई भय था, जो उन्हें यह बात स्वीकार नहीं करने देता था । वे मुझसे पीछा छुड़ाने के लिए, न चाहते हुए भी यह भय प्रगट कर गये, "मेरा भी तो परिवार है । वे लोग क्या कहेंगे ? फिर समाज है; हमें इसमें ही तो रहना है ।"

मेरी अप्रतिष्ठा मेरी मजबूरी थी, उनकी प्रतिष्ठा उनकी मजबूरी थी ।

मैंने कहा, "यह पत्र क्या आपने अपने परिवार से पूछ कर लिखा था ? व्यभिचार की छुट्टी परिवार ने दे रखी है; पर विधिवत् सम्बन्ध का विरोध परिवार करता है । यही आपकी परिवार नीति है ? झूठ के डर से आप सत्य को अंगीकार नहीं कर सकते । प्रतिष्ठा तो एक वाहन है, जिस पर बैठ कर आगे बढ़ना चाहिये । पर आप उसे माथे पर लादे हैं। उसके नीचे दबे जा रहे हैं । समाज-व्यवस्था के वदलने का आवाहन करने वाले आपके वे क्रांति-दर्शी लेख ! उनका क्या होगा ? वे आपने दूसरों के लिए लिखे होंगे । आप स्वयं उसी जगह पड़े रहेंगे । कीचड़ के डबरे में पड़े आप गंगा- स्नान का मंत्र जपते हैं । कितने पाखण्डी हैं आप ! कितने कायर ! कितने भीरु ! मैं मन की समस्त शक्ति से आप से घृणा करती हूँ । जितनी घृणा मेरे मन में है, वह सब मैंने आपको दे दी और अब किसी से घृणा नहीं करूँगी ।"

महेन्द्रनाथ बिलकुल हततेज हो गये । वे बहुत भयभीत थे । सिर नीचा किए हुए चुपचाप सुनते रहे; जैसे निर्लज्ज कर्ज़दार साहूकार की डाँट सुन लेता है । मैं आवेश में उठो और बिना कुछ कहे चल दी । द्वार पर देखा तो, उनकी आँखें मेरी ओर उठी पाईं । मुझसे दृष्टि मिलते ही उन्होंने सिर झुका लिया । मैं घर आते ही बिस्तर पर गिर गई। शरीर शिथिल हो गया था और घंटे भर से जिन आँसुओं को रोक रखा था, वे प्रवाहित होने लगे थे । नींद को मुझ पर दया आई होगी । उसने मुझे कम से कम सूर्योदय तक संताप से बचा लिया ।

महेन्द्रनाथ से इस प्रकार अंतिम बात हो जाने के कारण पहिले कुछ दिन विफलता और निराशा की बड़ी पीड़ा हुई पर उसके बाद ही मन की वृत्ति बदल गई । प्राप्ति की आशा जब बिलकुल छूट जाती है, तब मन एक निरपेक्ष वृत्ति धारण कर लेता है । यह एक प्रकार की नकारात्मक विरक्ति होती है, जो संतोष से न उत्पन्न होकर विफलता से उत्पन्न होती है । ऐसी ही मेरे मन की स्थिति हो गई थी । मनुष्य आशा का सूत्र पकड़े चलता जाता है, पर जब वह सूत्र टूट जाता है और आस-पास उसे खाइयाँ दिखती हैं, तब वह वहीं सिर पकड़े बैठ जाता है । मैं रास्ते पर ही बैठ गई थी ।

यह मुझे तब मालूम हुआ, जब मैं बीमार पड़ी । कठिन बीमारी का भय मुझे कुछ नहीं लगा । मुझे अपने लिए नाम मात्र की चिंता नहीं हुई । डाक्टर को दिखाने और दवा कराने की इच्छा ही नहीं हुई । जीवन के प्रति एक विचित्र निर्मोह पैदा हो गया था । क्या ज्ञानियों ने इसी को वैराग्य कहा है ? अगर यही वैराग्य है, तो इससे बढ़ कर पराजित भावना कहीं नहीं मिलेगी । मैं उस बीमारी में उठ जाती । मगर जब विमला ने मेरी हालत देखी, तो वह बड़ी भयभीत हुई । बोली, "शीला, तुम तिल-तिल करके अपने को मिटा रही हो । कोई भी आदमी इतना बड़ा नहीं है, कि उसके लिए दूसरे के जीवन की बलि हो । महेंद्रनाथ । तो और भी सामान्य है । एक व्यक्ति के चाहने और न चाहने पर अगर जीवन का स्थिति-नाश अव- लंबित रहे, तो हम जीवन को बहुत छोटी चीज़ बना दे रहे हैं, उसकी महत्ता कम कर रहे हैं ।" मैंने कहा, "विमला, यह तुम्हारे शब्द मालूम नहीं होते । तुम में बड़े-बड़े गुण हैं, पर इस तरह दार्शनिक-सी बातें तुमने कभी नहीं कीं । कोई किताब रट कर आई हो क्या ?"

वह जरा सकुचाई | फिर बोली, "तुम तो मुझे निरी बुद्धू समझती हो न । पर बात तुम्हारी है ठीक । यह बात आज सुबह भैया ने कही थी । "

मेरी निरपेक्षता एक क्षण में समाप्त हो गई । मैंने ऊपर सिर पकड़कर बैठ जाने की बात कही थी । आदमी वहीं पथ पर बैठा ज़िंदगी गुज़ार दे, अगर वही अकेला हो । पर अगर वह देखे कि कहीं कोई उसकी गति को देख रहा है, तो वह उठ कर थोड़ा-बहुत चलने का प्रयास जरूर करेगा । हमारी गति पर दूसरे के सापेक्ष अस्तित्व का कितना असर पड़ता है । काफ़िले के साथ चलने वाला इसलिए थकता नहीं है कि दूसरों के साथ है । मुझे यह बात अच्छी लगी, कि मेरा जीवन किसी के लिए विचार का विषय है; मेरा अस्तित्व बिलकुल अलक्ष्य नहीं जा रहा है । विमला ने ही मेरी दवा आदि का प्रबंध कराया । दूसरे दिन जब वह आई, तो अपने भाई मनोहरलाल को भी लेती आई । मुझे वह दृश्य याद है, मुझे अपनी बीमारी पर भी गर्व हुआ था । हम जब दुख भोगते हैं, तब दूसरों से उस दुख की मान्यता चाहते हैं । जब यह मान्यता मिलती है, तो दुख में भी हम गर्व का अनुभव करते हैं । कोई भोगे, और उसकी भुगतना अनदेखी चली जाय, तो उसका दुख दुगना हो जाता है । मृत के परिवार में मातमपुर्सी के लिए जाने में भी यही रहस्य है । इतने आदमियों को अपने दुख के प्रति सचित और सजग देख कर, आदमी गर्वित होता है । दूसरों के दुख को मान्यता देना ही तो सहानुभूति है ।

मनोहर ने उस दिन कुछ विशेष बात नहीं कही । उनकी आँखों में बड़ी करुणा थी । मेरे प्रति उनके हृदय में बड़ी दया उत्पन्न हुई थी । उन्होंने अस्त-व्यस्त घर की ओर देखा, उस अँधेरे घर में मेरे एकाकी जीवन की बात सोची, और तब कहा, "तुम कुछ दिनों के लिए अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ क्यों नहीं चली जातीं ? थोड़ा परिवर्तन हो जायगा । तुम्हारी एक बहिन है न ?'

बात तो बहुत ठीक कही गई थी, पर उससे मेरे हृदय को बड़ी ठेस लगी। मैंने सोचा, "क्या मैं इतनी दयनीय हो गई हूँ ? आदमी सहानुभूति चाहता है, दया नहीं । सहानुभूति में दूसरे की सामर्थ्य की अस्वीकृति नहीं होती, पर दया व्यक्ति की सामर्थ्यहीनता, विवशता और पराजय को मान कर ही होती है । इससे व्यक्ति के अभिमान को बड़ी चोट लगती है, उसका निजत्व टूटता है । अत्याचार को बरदाश्त करने में एक गर्व है, पर दया बरदाश्त करना बड़ी निर्लज्जता है । मनोहर के उस दयाभाव से मैं जाग्रत हो गई । किसी की दृष्टि में दयनीय होना बड़ा पाप है । मैंने उस दिन सामर्थ्य बटोरने का प्रयास किया । टूटे हुए व्यक्तित्व के टुकड़ों को जोड़ने का उपक्रम करने लगी । सावधानी से मैंने दवा ली और कुछ दिनों में अच्छी हो गई ।

मेरा शरीर बहुत कमज़ोर हो गया था; मन और भी । दोनों को परिवर्तन आवश्यक था । बहुत सोच- विचार कर तय किया कि मैं अपनी उस चचेरी बहिन के यहाँ जाकर कुछ दिन रहूँ ।

मैं गई और शीघ्र लौट आई। तब से लेकर आज तक की दूसरी ही कहानी है ऐसी कहानी जो मेरी - हो कर भी किसी दूसरे व्यक्ति की है । मैं आज भी निश्चित नहीं कह सकती, कि जहाँ थी वहाँ से चलकर जहाँ आ गई हूँ, वहाँ आना ठीक हुआ या नहीं । एक दूसरे सूत्र से मेरा जीवन संचालित होने लगा था । इसलिए आगे की कहानी वही कहे, जिसके कारण जीवन कहानी बनने के लिए गतिवान हो सका ।

मनोहर

शीला का पत्र मेरे सामने है । पढ़ते-पढ़ते मुझे बचपन की एक घटना याद आ गई । एक दिन मैं मिठाई की तश्तरी हाथ में लिए हुए मिठाई खा रहा था, कि द्वार पर भिखारी की आवाज़ आई । मैं झट भीतर गया और एक सूखी रोटी लेकर देने लगा । एक हाथ में मिठाई की तश्तरी थी, दूसरे में वह सूखी रोटी । उस समय भिखारी ने खिन्नता मिश्रित व्यंग से मेरी ओर देखा । मैंने उस छोटी अवस्था में भी उसकी आँखों के शब्द पढ़े, “तुम्हारे पास तो मिठाई है । मगर मुझे रूखी रोटी ?” मैंने उस समय बड़ी ग्लानि का अनुभव किया था। वह मेरी क्षुद्रता पर हँस रहा था, मेरी कृपणता पर खिन्न था ।

आज शीला का पत्र पढ़ा तो अनुभव हुआ कि इस उम्र में मैं फिर वही लड़कपन कर गया । इतने वर्षों के अनुभव, ज्ञान-विज्ञान मेरी उस मौलिक कृपणता को नष्ट नहीं कर पाये । भिखारी तो वह सूखी रोटी लेकर चला गया; वह भिखारी था, उसे पेट भरना था । पर शीला वह सब छोड़ कर चली गई, जो मैं उसे दे रहा था । वह भिखारिणी नहीं थी ।

मुझे याद है कि हमारे घर में महीने में एकाध बार बढ़िया मिठाई भी खिलाई जाती थी उन ब्राह्मणों को जो रेशमी वस्त्र पहिनकर आते थे, ललाट पर सुगंधित केशरिया चन्दन का लेप करते थे, जिनकी हवेलियाँ थीं । ये ऊँचे 'स्टैन्डर्ड' के भिखारी थे । जो हम चिथड़े में लिपटे भिखारी को नहीं देते थे, वह इन्हें देते थे । सोचता हूँ, जो मैंने शीला को नहीं दिया, और जो न मिलने के कारण वह मेरी सारी कृपाओं को ठुकरा कर चली गई, वह मैंने किस ऊँचे 'स्टैन्डर्ड' वाले के लिए बचा कर रख लिया था ?

छोटी बहिन विमला की वह मित्र थी । वह विमला के पास आती थी । मैं अपने पढ़ने के कमरे में ही रहता था । मकान के सिरे पर मैंने जानबूझ कर कमरा लिया था, क्योंकि भाभी पूर्वजन्म में जरूर कोई रानी - महारानी थीं, जिनकी दरबार लगाने की आदत अभी तक कायम थी। दिन भर उनके इस महिला - दरबार में ऐसी चें-चें मचती रहती थी कि मेरा माथा चकराने लगता । आखिर मैंने अपना डेरा उस कमरे में जमाया जहाँ उनका कोलाहल दूर के पार्श्व संगीत की ध्वनि जैसा सुनाई पड़ता था । शीला विमला के पास आती थी, पर बहुत कम । विमला ही अक्सर उसके यहाँ जाती थी । उसका कम आना और विमला का अधिक जाना घर में चर्चा का विषय बन गया था । भाभी यह हिसाब रखती थीं कि कौन कितने बार हमारे यहाँ आया और हम उसके यहाँ कितने बार गये। किसी के आने की संख्या से, वे अपने जाने की संख्या किसी कदर बढ़ने नहीं देती थीं, इसलिए विमला को अक्सर डाँट सुननी पड़ती थी- "जब देखो तब उस के द्वार पर खड़ी रहती है यह लड़की । वह इसके यहाँ आती ही नहीं । ऐसी अभिमानिनी है । वह तो बाप के पास कुछ नहीं है, जिस पर यह घमण्ड ! अगर धन होता, तो जमीन पर पाँव नहीं रखती ।" पर विमला सब अनसुनी करती जाती । उसके कम आने का कारण उसके सम्बन्ध की वह चर्चा भी थी, जो उसे सुना कर होती थी ।

उस दिन सबेरे सहसा छोटी बहिन विमला ने आकर कहा, “भैया, शीला के पिता की मृत्यु हो गई है । मुहल्ले वालों ने तो उससे बैर पाल रखा है । कोई नहीं आया अभी तक। तुम चलकर ज़रा उनकी अंतिम क्रिया तो कराओ।"

मैं चुपचाप विमला के साथ चल दिया । वहाँ पहुँचकर एक वृद्धा से मालूम हुआ कि शीला बाज़ार गई है । वृद्धा शव के पास बैठी- बैठी पड़ोसियों को जी भर गालियाँ दे रही थी। थोड़ी देर बाद शीला लौटी । उसके साथ चार-छः मज़दूर थे, जो बाँस, रस्सी, घट, कफ़न, घास आदि सामान लिए थे । त्रिमला ने कहा, " शीला, अब तू चिंता मत कर। भैया आ गये हैं, वे सब ठीक कर देंगे । अभी जाकर अपने दोस्तों को बुला लाते हैं ।" उसने एक बार मेरी ओर देखा और बोली, "नहीं, अब मुझे किसी की सहायता की जरूरत नहीं । मैं मज़दूर लेती आई हूँ ।" विमला एकदम सहम गई । उसे बुरा लगा। मैं उस कठोर नारी की ओर देखता रहा । उसकी आँखें अंगारों-सी जल रही थीं । मुख पर बड़ी कठोरता थी । उसके कसे ओंठ मन की दृढ़ता बतलाते थे । उसके भीतर जो ज्वालामुखी सुलग रहा था, उसकी एक लपट से विमला अभी मुरझा गई थी ।

उस वृद्धा के फटकारने से मुहल्ले के आदमी आये- बगलें झाँकते, खिसियाते, कंधों पर मुँह लगा कर निर्बल हँसी हँसते । कैसे क्षुद्र थे ये लोग ! कैसे कमज़ोर कि एक डाँट में बाहर आ गये, और कैसे निर्दयी कि पड़ोसी की लाश तक दफ़नाने नहीं आ रहे थे ! कितने परतंत्र, कि मन से घृणा तक अच्छी तरह नहीं कर पाते ! कितने रंक, कि हृदय में सहानुभूति का एक कण भी नहीं, और फिर भी कितने दंभी, कि अपने को परम पवित्र मानने वाले !

शीला ने उनकी ओर एक कठोर घृणा भरी दृष्टि फेंकी, तो सब के सब बगलें झाँकने लगे । सत्य की एक दृष्टि से पाखंड के पाँव लड़खड़ाने लगे ।

अर्थी बँधी । रोने वाली वही एक विधवा थी- वह भी अपने छः बेटों और पति की याद करके, नाम ले-लेकर रो रही थी । उसके आँसू भी मथुरा बाबू के हिस्से में नहीं आये । इतने बे-रोये किसी की अर्थी न उठी होगी । शीला की आँखों में बिलकुल आँसू नहीं थे । जब अर्थी उठने लगी, उसने पिता की ओर देखा । एक लम्बी साँस छोड़ी और भीतर चली गई । विमला की वह मित्र थी और विमला ही वह एक व्यक्ति है, जिसका सच्चा स्नेह उसे मिला । विमला लगभग रोज ही उसके घर जाती थी, और लौटती, तो उसका मुख क्षोभ से भरा रहता । वह जब-तब मुझे उसकी मुसी- बत सुनाया करती, “भैया, तुम कभी-कभी उसके घर हो आया करो । उस दुखिया का कोई नहीं है। रिश्तेदार कोई पूछते नहीं । और अकेली लड़की । लोग जैसे उसे खा जाना चाहते हैं ।"

विमला उसकी प्रशंसा भी बहुत करती, "भैया, उस जैसी बुद्धि किसी की नहीं देखी। कितनी प्रखरता है उसमें । हम लोग उससे बात भी नहीं कर पातीं । महेन्द्रनाथ से अगर उसकी शादी हो जाती, तो वह उनकी भी गुरु हो जाती ।" आखिर में एक दिन उसके यहाँ गया । वह बैठी कोई पुस्तक पढ़ रही थी । मेरे जाने से उसके मुख पर हर्ष, दुख या अचरज का भाव नहीं आया । दार्शनिक-सी चिंता और वृद्धा जैसी गंभी- रता उसके चेहरे पर थी । में बड़े संकोच में पड़ा-

शायद इसे मेरा आना पसंद नहीं आया हो । शायद इसने यह सोचा हो कि मैं बहिन की घनिष्ठता का लाभ उठाना चाहता हूँ । थोड़ी देर बाद वही बोली, "मैंने उन दिन आपको कटु बात बोल दी थी। आपको बुरा लगा होगा । पर उस समय की हालत तो आपने देखी थी । मैंने विमला से कहा था कि मेरी ओर से भैया से माफ़ी माँग लेना ।"

मैंने कहा, "उसके लिए तुम विमला से ही क्षमा माँग लेना । उसके भैया को कोई बुरा कहता है, तो पहले वही लड़ लेती है । मुझे बिलकुल बुरा नहीं लगा । ऐसी आपत्ति में बड़े-बड़े धैर्यवान् धैर्य खो देते हैं । फिर तुम तो स्त्री हो ।'

वह कुछ उत्तेजित स्वर में बोली, "हाँ, स्त्री होना बहुत-सी असमर्थताओं को भुगतना है । अबला कहा है तो उसे अबला बना कर ही छोड़ेंगे । जो अबला बनने से इनकार करेगी, उसे 'कुलटा' बनायेंगे । 'अबला' और 'कुलटा' में से एक नाम चुनना होता है हमें । मैंने 'कुलटा' ही चुन लिया ।" उसके मुख पर क्षीण हँसी आई और वह बाहर देखने लगी ।

मैंने सांत्वना के स्वर में कहा, “मुझे उस हो-हल्ले पर बिलकुल विश्वास नहीं है । तुमने उन लोगो को ठुकराया होगा । ठुकराई हुई धूल आँधी की राह देखती रहती है, जब वह सिर पर चढ़ सके । उस रात को वह आँधी आई, और उन सबने मन की जलन तुम्हें बदनाम करके निकाली । "

वह बोली, "लेकिन ज्यों-ज्यों सोचती हूँ, त्यों-त्यों समझ में आता है कि इन लोगों पर क्रोध करना व्यर्थ है | ये केवल दया के पात्र हैं, क्रोध के नहीं । इनके । विचार छिन गये हैं, दृष्टि छिन गई है, भावनायें छिन गई हैं । ये बेचारे सहायता तक देने के लिए स्वतंत्र नहीं । जिसके पाँव में बेड़ी पड़ी है, वह अगर पुकार पर सहायता के लिए न दौड़े, तो उसका क़सूर नहीं । क्यों, आपको ऐसा नहीं लगता कि इनके पाँव में न जाने कब से मिथ्या विश्वासों की बेड़ियाँ डाल दी गई हैं ?"

मैं सहानुभूति प्रगट करने आया था, पर वह मुझे व्यक्तिगत वार्तालाप से उठा कर कहीं और ले गई । मैंने कहा, "तुम्हारा कहना ठीक है । इन लोगों को पशु बने रहने देने में ही इनके शोषकों का लाभ है । तभी तो इस मिथ्या नैतिकता को सिखाने वाले मोटर में बैठ कर, क्लब पहुँच कर 'सोसाइटी गर्ल' के साथ विलास करते हैं और गरीब आदमी को सिखा देते हैं कि अगर कोई लड़की किसी लड़के से बात कर रही हो, तो हो-हल्ला कर देना, क्योंकि यह बड़ा पाप है । हज़ारों सालों से हमने संस्कृति और सभ्यता की साधना की है, पर भेड़िये सरीखा बर्ताव करते हैं । जैसे भेड़िये गाय को देख कर झपटते हैं, वैसे ही स्त्री को देख कर आसपास के लोग भड़कते हैं । कोई स्त्री हमारे बीच नहीं रह सकती ।”

वह थोड़ी देर मौन रह कर जैसे कुछ सोचने लगी । फिर एकाएक पूछने लगी, "आपको मेरे घर आने में भय नहीं लगा ?"

मैंने कहा, "भय काहे का ?"

उसका चेहरा फिर उदास हो गया । नीचे देखती हुई बोली, "यही कलंक का भय ! यह तो काजल की कोठरी है । जो आता है, दाग लेकर ही जाता है । मेरे यहाँ सहानुभूति प्रगट करने भी लोग इसी भय से नहीं आते। आप बाहर निकलेंगे, तो लोग घृणा की आरती सँजोए मिलेंगे । बाहर होते हो कलंक का टीका लगा देंगे ।"

मैंने तनिक उत्तेजित होकर कहा, "मुझे उनकी परवाह नहीं । अगर वे भेड़िये हैं, तो मैं आदमी हूँ वे अभी तक दाँत और नख ही लिये बैठे हैं, पर मैंने बन्दूक बना ली है । फिर हर आदमी के कहने का ख्याल किया जाय, तो जीना मुश्किल हो जाय ।"

"पर मैं तो उजागर निन्दा सुनती हूँ, और जीती हूँ ।"

"तुम्हारी बात अलग है । तुममें अद्भुत शक्ति है । इतनी जीवनी-शक्ति लेकर कम आदमी पैदा होते हैं । इतनी आँधी के बीच अविचल खड़े रहना मामूली बात नहीं है ।"

वह बड़े गिरे मन से बोली, "खड़े रहने से क्या होता है, चलना भी तो संभव होना चाहिये ।"

मेरे कुछ कहने के पहिले ही वह चाय बनाने चली गई और में बैठा-बैठा सोचता रहा कि शांत दिखने वाले इस धरातल के नीचे कितना लावा इकट्ठा होता जा रहा है ! कितनी ज्वाला सुलग रही है ! वह मुझे आरम्भ से ही दृढ़ ही दृढ़ लगती थी । भावुक वह अधिक नहीं थी । उस दिन अपने मृत पिता की अंतिम क्रिया का सामान स्वयं जुटा रही थी, तब मैं देख रहा था कि उसका हृदय दृढ़ चट्टान-सा था । वही अब कितनी भग्न-हृदया मालूम होती थी । पत्थर की यही कमज़ोरी है— मोमतो आघात से दब कर रह जाता है, पर पत्थर पर आघात पड़ने से दरार पड़ जाती है ।

चाय पीकर उससे विदा हुआ। वह द्वार पर खड़ी खड़ी मुझे देखती रही ।

एक दिन विमला ने कहा, "भैया, शीला बहुल बीमार है; परन्तु उसका स्वभाव कुछ विचित्र-सा हो गया है । मैंने उससे बहुत कहा, पर वह इलाज कराती ही नहीं ।" मैं कुछ दिनों से व्यस्त हो गया था और उसके संबंध में विमला ने भी कोई चर्चा नहीं की थी । इस समाचार से कुछ चिंतित हुआ । उसकी । ज़िन्दगी में मैंने जान-बूझ कर दिलचस्पी नहीं ली थी, क्योंकि वह स्वयं और अन्य लोग भी इसका दूसरा अर्थ लगा सकते थे । लेकिन वह ध्यान से उतरी भी न थी ।

विमला की बात से मुझे ऐसा लगा कि जैसे वह जीवन से उदासीन और जीवन प्रक्रिया में निश्चेष्ट हो गई हो। मुझे दुख हुआ । मुझे कुछ सूझा नहीं तो मैंने उपदेश के शब्द विमला से कह दिये । लेकिन विमला जब उसे देखकर घर लौटी, तो उसने बतलाया कि जब उसने वही शब्द उससे कह दिये, तो उसे कुछ आघात- सा लगा, ऐसा मालूम हुआ । उसने यह भी पहचान लिया कि वे शब्द विमला के नहीं हैं । मैंने सोचा कि दुखी व्यक्ति को उपदेश से इसलिए ठेस पहुँचती है, कि उसमें वह और उपदेशकर्ता दो भिन्न स्तर पर हो जाते हैं - एक असमर्थता के नीचे स्तर पर होता है, दूसरा शक्ति के ऊँचे आसन पर । गिरे हुए आदमी को उत्साह वर्धक भाषण देने की अपेक्षा सहारे के लिए हाथ देना चाहिये । यही सोच कर मैं उसके यहाँ गया ।

उस दिन कोई विशेष बात उससे नहीं हुई, लेकिन मैंने परिलक्षित किया कि मेरी उपस्थिति से उसमें कुछ चेतना अवश्य आई । कुछ देर में वह जीवन के प्रति सचेष्ट हो गई । मुझे लगा कि मेरी उसके जीवन में दिलचस्पी उसके हृदय में जीवनाशा का संचार कर रही है । पर दूसरा विचार यह भी आया कि उसका खंडित अभिमान हम लोगों के सामने विद्रोह में उठ खड़ा हुआ है । यह मुझे इसलिए अधिक सही मालूम हुआ कि मैं उसके मुख पर या व्यवहार में ऐसा कोई भाव पढ़ नहीं पाया, जो यह सूचित करे कि व्यक्ति- विशेष से उसकी भावनाएँ सम्बद्ध हैं और उसी आकर्षण -बिन्दु से वह संचालित हो रही है । अपनी ओर मैं इतना जानती हूँ कि उस दिन से मैं विमला से दिन में दो-एक बार उसके स्वास्थ्य का समाचार पूछ लेता था । कभी दो से तीन बार हो जाता, तो विमला मुस्कराहट से कहती, “दो बार तो पूछ चुके हो । अब वह नहीं मरेगी । मैं उससे पूछूंगी कि यह संजीवनी उसे कहाँ मिल गई ।" विमला के मन में चल रही बात मैं जानता था और विद्युत के जैसे एक वृत्त से दूसरा वृत्त अधिक शक्ति प्रवाह ग्रहण करता है, वैसा प्रवाह मैं अनुभव करता । मैं सप्ताह में एक-दो बार उसके यहाँ हो आता था । उसमें मुझे पहले से अधिक चेतना और उत्साह मालूम होते थे । मुझे विश्वास होने लगा कि अब यह जी गई ।

डाक्टर ने उसे स्थान परिवर्तन की सलाह दी । उस मकान में, उस वातावरण में उसका जी घबराता था । उसके साथ उसके जीवन की कटुता जुड़ी थी । बाहर जाने से उसका मन इस घुटन से निकलकर कुछ स्वस्थ वायु ले आवेगा, यह सोच कर हमने उसे इस बात पर राजी किया कि वह अपनी चचेरी बहिन के यहाँ कुछ दिन रहे ।

एक दिन हम लोग उसे गाड़ी में बिठा आये । बहिन के यहाँ जाने में लड़कियों को बड़ी खुशी होती है । पर वह तो अपना सब कुछ खोकर आश्रय के लिए जा रही थी । यह जाना, न स्नेह का प्रतीक था, न रिश्ते का । यह उसकी मजबूरी थी । अस्पताल में डाक्टर भी जाता है और मरीज़ भी; पर दोनों के जाने में कितना अन्तर है !

जाते समय वह विमला से लिपट कर बड़ी देर तक रोती रही । इतने दिनों से जो शक्ति उसमें दिख रही थी, वह इस समय चली गई थी । उसने कहा था, "विमला, मुझे भुलाना मत। मेरा तुम लोगों के सिवा कोई नहीं है ।"

स्टेशन से लौटते समय रास्ते भर न विमला बोली, न मैं । दोनों के हृदय एक ही दुख से बोझिल थे । पर उसे खोलने में उसकी महत्ता कम होती थी । मुझे बार-बार स्टेशन का वह दृश्य स्मरण हो आता था - उसकी डबडबाई हुई कातर आँखें और वह मुख ! जैसे घोंसले के आसपास फैली आग देखकर पक्षिणी प्राण-रक्षा के लिए छटपटाती और फिर विवश हो रह जाती है । जीवन - इच्छा के साथ विवशता कितनी विषम होती है ! उसकी अच्छी बनती ज़िदगी कैसी बिगड़ती जा रही थी ! धीरे-धीरे हम ईंट चुन-चुन कर दीवार उठाते हैं । फिर किसी दिन किसी अज्ञात दिशा से भूकम्प आता है और उसे ध्वस्त कर देता है ।

एक सप्ताह बाद ही एक दिन सुबह विमला ने कहा, "भैया, शीला तो कल लौट आई । वहाँ उसका मन नहीं लगा । वे लोग कुछ अच्छे आदमी नहीं हैं । बड़ी दुबली हो गई है, बेचारी !"

मैं दो-तीन दिन उसके यहाँ जा नहीं पाया । चौथे दिन विमला बड़ी परेशान लगी । मुझसे कहने लगी, "भैया, वह तो बड़ी विचित्र लड़की है । आज मुझे सड़क पर मिली तो मुझे उसमें अजब परिवर्तन दिखाई दिया | वह बड़ी चटकीली साड़ी पहने थी । बाल भी उसने नये ढंग से सँवारे थे, जो कुछ सुरुचि-पूर्ण नहीं थे । उसने ओंठ भी रँग लिये थे और ऊँची एड़ी के जूते पहने थी । मैं तो उसे देख कर दंग रह गई । उसमें कैसा परिवर्तन आ गया ! मुझसे तो उसकी ओर देखा नहीं गया । मैं तो उसे अच्छी लड़की समझती थी ।"

मैंने कहा, "अब उसे अच्छी समझने में क्या बाधा है ? वह अच्छे कपड़े पहनने लगी, शृंगार करने लगी है ?"

विमला ने उत्तेजित स्वर में कहा, "इसे शृंगार कहते हैं ? यह तो बाजारूपन है । जब मैंने उससे कहा कि यह तुमने क्या किया है, क्या स्वांग रचा है, तो उसने बड़ी अक्खड़ता से कहा, 'क्यों, इसमें क्या बुरा है ? जीना है, तो ठाठ से जीना चाहिये । भले रहने पर भी तो बुराई माथे पर लदती है । इसलिए भलेपन में कुछ विशेष लाभ नहीं है । अब जो मैं ऐसी हो गई हूँ, तो लोगों के कटाक्ष भी कम होते जा रहे हैं । आदमी सफेद पर ही काली कूची चलाता है, जो काला है उस पर कोई रंग बरबाद नहीं करता । तुम्हें अगर मेरे साथ रहना बुरा मालूम होता है, तो न आया करो। " मैं चली आई |

मैंने विमला को समझाया कि वह भीतर गिरी नहीं है । वह अपनी भावनाओं के दूसरे सीमांत पर पहुँच गई है । अब तक वह दूसरों की रुचि अरुचि तथा बुरे-भले का ख्याल करती थी; अब उसमें निरपेक्षता की भावना आ गई है । विमला ने मुझसे सीधा प्रश्न किया, " परन्तु तुम क्या उसका यह रंग-ढंग ठीक समझते हो ? पसंद करते हो ?” मैंने कहा, “नहीं !”

विमला एकदम खड़ी हुई । बोली, "मैं अभी जाकर उससे कहे देती हूँ तुम्हारी बात वह मानती है ।”

वह लौट कर आई तो कहने लगी, "मैंने कहा था न । वह जैसे तुम्हारे मना करने की राह ही देख रही थी । फिर जोगन बन गई है ।"

मैं दूसरे दिन उसके यहाँ गया । वह आँगन में कपड़े धो रही थी । मैं वहीं खाट पर बैठ गया । वह बहुत दुबली हो गई थी। रंग भी साँवला पड़ गया था । उसकी आँखों से पीड़ा फूटी पड़ती थी । उसके मुख पर इतनी वेदना मेंने उस दिन भी नहीं देखी थी, जिस दिन उसका एकमात्र सहारा - पिता संसार से उठ गया था ।

उसकी आँखें भर आईं। मैंने पूछा, "तुम इतनी जल्दी कैसे लौट आईं ? क्या वहाँ अच्छा नहीं लगा ?"

फीकी मुस्कान से वह बोली, "मेरे लिए क्या अच्छा लगना क्या बुरा लगना ! काँटों पर चलने वाले को एक-दो काँटे कम-ज्यादा चुभे, तो क्या फर्क पड़ा ? असल बात यह है कि मैं चलती-फिरतो आग हूँ - जिस घर में जाती हूँ वही जलने लगता है । अब आपसे क्या छिपाऊँ तीन प्राणी हैं उस घर में बहिन, बहनोई और बहिन की सास । मेरे पहुँचने पर तीनों पर तीन प्रकार की प्रतिक्रिया हुई । सास को तो लगा कि यह कहाँ की बला सर पर आ गई। मेरी बदनामी उन तक पहुँच गई है, क्योंकि बुराई के हज़ार मुख और हज़ार कान होते हैं । बहनोई का यह हाल कि बिना माता-पिता की संकट ग्रस्त लड़की का उपयोग कर लेने की उन्होंने ठान ली। दूसरे ही दिन से वे मेरे लिए गुलाब का फूल लाने लगे और एकांत में देने का मौका ढूंढने लगे । बेचारी बहिन मेरे रूप से घबराई । उसे उन गुलाब के फूलों की 'बदबू' आ गई होगी ! मैं अकुला कर वहाँ से चल दी ।"

बड़े आवेश में वह बोल गई। फिर मौन हो गई और दरवाजे की ओर देखने लगी । जो कह नहीं पाई थी, वह उसके अन्दर उमड़ रहा था ।

मुझे कुछ कहने लायक सूझ ही नहीं रहा था । हिम्मत दिलाने के लिए आखिर मैंने कहा, "खैर, छोड़ो उस बात को । अब तुम्हें कहीं भटकने की जरूरत नहीं । यहीं रहो । कुछ दिनों में नौकरी लग जायगी; नौकरी करो और खूब पढ़ो ।”

मेरे शब्द उसे छू नहीं सके । उसने बड़ी गहरी साँस छोड़ी और मेरी ओर बड़े कातर नेत्रों से देखा । उस दृष्टि में केवल वेदना नहीं थी, एक प्रकार की खोझ और तिरस्कार का भाव था - उस समय मैंने उसे नहीं समझा। अब मुझे स्पष्ट समझ में आता है कि मेरे कोरे वचनों से वह क्षुब्ध थी । उन आँखों में तिरस्कार-सा भाव था, जो यह कहता था कि मैं कितना बचकर, कितना डर कर उसकी मदद करना चाहता हूँ । बुझते दीपक को अंचल की ओट करना होता है, उसके आसपास तेल के पीपे उड़ेलने से वह नहीं बचता । मैं तेल को उसकी आवश्यकता समझता था; उसे ओट चाहिये थी । मेरे निरपेक्ष मानवी भाव मात्र से वह विकल हो गई थो ।

इसी समय उसे प्यास लगी । वह एकदम उठी, वहीं रखा टीन का डिब्बा उठाया और जिस बालटी में उसने कपड़ा निचोड़ कर धोया था, उसी में से डिब्बा भर कर पीने लगी । मैं एकदम उठा और डिब्बा हाथ से छीन कर फेंक कर बोला, "कैसी पागल हो गई ! वह धोती का धोवन है । गंदा पानी !” उसने बड़ी चुनौती और उद्धतता से मेरी ओर देखा और कड़े स्वर में बोली, "ठीक है । उसमें क्या खराबी है ? गंदा आदमी; गंदा पानी ।" वह हँसने का प्रयास करने लगी। दूसरे ही क्षण उसकी आँखें भर आईं और वह चीख मारकर मुझसे लिपट गई । मेरे वक्ष पर सर रख कर सिसकने लगी । मैं कुछ सोचने-समझने लायक नहीं रह गया था । नैसर्गिक प्रेरणा से उसके सिर पर हाथ फेरने लगा । वह बेहोश सी हो गई । बड़ी देर वह सिसकती रही; फिर एकदम हट गई । उसकी आँखों में लज्जा का भाव आ गया और वह अटपटे स्वर में बोली, "कैसा पागलपन है मेरा !" मैंने गंभीर स्वर से कहा, “पागलपन कह कर तुम बात को टालना चाहती हो । पर मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारी जीने की इच्छा सब भंग हो गई है ।"

उसने आँखें उठाई और बोली, “वाह, आपने कैसे जाना ? जीने की इच्छा न होती, तो जहाँ-तहाँ जगह क्यों खोजती फिरती ?" वह स्वयं इन शब्दों की निरर्थकता समझ रही थी ।

मैंने कहा कि, "तुम अपने को भुला रही हो और मुझे भी । तुम उस सीमा तक पहुँच गई हो, जब आदमी भले और बुरे का भेद करना बन्द कर देता है | बनने और बिगड़ने में कोई अन्तर नहीं मानता । जीवन से उसका विश्वास उठ जाता है । यह चरम निराशा की स्थिति है । जीवन से बढ़ कर कुछ नहीं है । वह इस तरह नष्ट नहीं किया जाता ।" वह उसी प्रकार देखते हुए बोली, "लेकिन जब जीना मरने से बदतर हो जाये, तब ? नहीं, अब मुझे जीने की इच्छा नहीं है।” मैंने कहा, “तुम्हारे पास विद्या-बुद्धि है, अटूट शक्ति है, जो मैंने देखी है । तुम बड़े विश्वास से जी सकती हो ।" वह उसी तरह निराश स्वर में बोली, "नहीं, अब नहीं जी सकती । अब मैं बिलकुल हार गई । कोई तो मेरा नहीं है । इस तरह बे-सहारे ज़िन्दगी कैसे चल सकती है ?"

मैं चुप हो गया । उस समय मेरे भीतर बड़ी हल-चल थी । कुछ ऐसी बात थी, जिसने मेरे पुरुष-विश्वास को जगा दिया था । मुझे वह लड़की एक चुनौती- सी लगी । मैंने उसी समय निश्चय कर लिया । कुछ अभिमान के स्वर में मैंने स्थिरता से उससे कहा, "शीला, तुम्हारा कोई नहीं है, ऐसा तुम क्यों सोचती हो ? विमला तुम्हारी मित्र है । और मैं-मैं तुम्हारा साथ दूंगा । मैं जीवन भर निर्वाह करूँगा ।"

वह चौंकी । माथा उठाया और बड़ी तीक्ष्ण दृष्टि से सीधे मेरी ओर देख कर कहा, "आप जल्दबाजी में कह रहे हैं । केवल निर्वाह के लिए निर्वाह करेंगे ?"

मुझे भूल खली । मैं भूल गया था, कि मैं बड़ी तीक्ष्ण बुद्धि की स्त्री से बात कर रहा हूँ । 'निर्वाह' शब्द उसने पकड़ लिया। मैंने कहा, "नहीं, केवल निर्वाह के लिए नहीं । मुझे तुम्हारी आवश्यकता है । मैं तुम्हें चाहता हूँ । तुम्हें अपनाऊँगा । तुम प्रतिष्ठा- पूर्वक मेरे घर में रहोगी ।" उसे विश्वास नहीं हो रहा था, बोली, "आप आवेश में कह रहे हैं ।" फिर दूसरे ही क्षण उसने बड़े स्निग्ध स्वर में पूछा, "आप सच कहते हैं ?" मैंने शब्दों की विफलता समझी, उसे उत्तर नहीं दिया । उसे खींच कर हृदय से लगा लिया । उसने एक बार मेरी ओर देखा, आँसुओं पर हर्ष की झलक आई और उसने चुपचाप मेरे कंधे पर सर रख दिया ।

शीला में एक अभूतपूर्व उत्साह और आशा के दर्शन होने लगे । जीवन के प्रति उसकी उदासीनता- विलीन हो गई । वह सहारे की बात करती थी । सहारा उसे मिल गया । पर वह वास्तव में सहारा लेना नहीं चाहती थी । उसने जैसे मेरे सम्पूर्ण हित को अपने हाथ में ले लिया हो । मेरे कपड़े-लत्ते, काम-काज, स्वास्थ्य -- सबकी चिता वह करने लगी । मेरे कोट का टूटा बटन मेरे पहिले उसे दिख जाता, मेरे काम के सम्बन्ध में मुझसे ज्यादा ध्यान उसे ही रहता । मैं क्या खाता हूँ, कब सोता हूँ, कितना आराम करता हूँ-- यह सब उसके फ़िक्र करने के विषय हो गये । वह स्वयं सहारा बन गई थी । सहारा नहीं बन सकना ही वह अभाव और कमज़ोरी थी, जिसका अनुभव उसे हो रहा था । अब उसकी शक्ति सफल और चरितार्थ हो गयी थी और इसी को वह सहारा कहती थी ।

हमारी दूरी धीरे-धीरे कम होती गई । वह मुझे अपने लिए बहुत आवश्यक मालूम होती थी । हम लोगों शीघ्र ही विवाह कर लेने का निश्चय कर लिया ।

हमारा सम्बन्ध छिपा नहीं रहा । मेरे परिवार में हल्ला मचा। इसकी मुझे आशंका थी । हमारे परिवार में शीला अच्छी लड़की नहीं मानी जाती थी । उसके बारे में हर अफ़वाह सत्य मानकर ग्रहण की जाती थी । भलाई को हम कितनी जाँच-पड़ताल के बाद स्वीकार करते हैं, लेकिन बुराई को एकदम मान लेते हैं ।

मेरी माँ थी, बड़े भाई थे और भौजाई । मेरे संबंध में उन्होंने बड़ी महत्वाकांक्षायें बना रखी थीं, जिनमें से एक यह थी कि मेरा विवाह किसी बड़े धनवान और प्रतिष्ठित घराने में किसी देवकन्या के साथ होगा । वह देवकन्या कैसी होगी, इसकी किसी को कल्पना भी न थी । उनकी यही धारणा थी कि उसका देवत्व इसी से आँका जायगा, कि कितना धन पिता के घर से पति के घर में खींच कर ला सकती है ।

शीला के साथ मेरी घनिष्ठता बढ़ते देख परिवार की आशंका बढ़ने लगी । सबसे मुखर और कटु मेरी भाभी थीं । वे बड़े और धनवान घराने की थीं, और हमारे घर में आ गई थीं, इसे वे अपनी मेहरबानी समझती थीं । मनुष्य का मूल्य करने के पहिले वे यह हिसाब लगाती थीं कि उसके पास कितना धन है । यदि वह उनसे कम होता, तो उसे वे आदमी मानने से साफ इन्कार कर देतीं । यदि बराबर होता तो वे उसका बड़प्पन नष्ट करने के लिए उसके सम्बन्ध में कोई कलंक ढूँढ़ लेतीं, उनके पास 'रेडीमेड' कलंक थे – 'उसका बाप किसी को रखे है, वह शराबी और व्यभिचारी है ।' अगर उनसे अधिक धनवान होता, तो वे उसकी भक्तिन हो जातीं । शीला के सम्बन्ध में मेरा इरादा वे समझ गई थीं । वे यह बरदाश्त करने को क़तई तैयार नहीं थीं, कि बिना माँ-बाप की ग़रीब लड़की उनकी बराबरी से आकर बैठे । वे जानती थीं कि उस लड़की को कोई वर नहीं मिल रहा है । उसे हम स्वीकार कर लें, इसे वे अपनी बड़ी हीनता मानती थीं ।

एक दिन शीला मेरे यहाँ थी । वह विमला के कमरे में बैठी बातें कर रही थी । भाभी वहाँ से निकलीं, तो उसे सुना कर कहा, "कैसी लड़कियां हैं ! पच्चीस-पच्चीस साल की हो गईं और बिना ब्याही घूमती हैं ।" शीला अक्सर उनकी बात मौन रह कर सह जाती थी । पर उस दिन उसने जवाब दे ही दिया, बोली, "भाभी, वे उनसे अच्छी हैं, जो बाप के हज़ारों रुपये खर्च कराके किसी शराबी, जुड़ी या दुष्ट आदमी के गले बँध जाती हैं और फिर जिन्दगी भर रोती हैं, घुटती रहती हैं ।" भाभी तुनक कर बड़बड़ाती चली गईं।

जब वह चली गई, तब भाभी ने बड़ा हल्ला मचाया। कहने लगीं, "अब हमारी इस घर में ऐसी हालत हो गई है । दो कौड़ी की लड़की कह गई कि तुमने शराबी - शादी की है । अरे, मुझे कुछ कहती तो कोई बात नहीं; उनको शराबी - जुआड़ी कह गई !" वे इस प्रकार भैया को अक्सर उभाड़ने का प्रयास किया करती थीं। अपनी घृणा में उन्हें भी साझीदार बनाना चाहती थीं । पर भैया बहुत शांत स्वभाव के थे । भाभी हल्ला- गुल्ला करके घर में शीला के विरुद्ध वातावरण तैयार करना चाहती थीं ।

उनकी यह चाल देख कर विमला ने कहा, "भाभी, उसने तो भैया को कुछ नहीं कहा, तुम्हीं कह रही हो । वह अगर भैया को कुछ कहती, तो तुम्हारे पहिले मैं ही उससे लड़ती । मैं उसे घर से बाहर ढकेल देती। भैया की सम्मान-रक्षा का सारा भार तुम अपने ऊपर क्यों लेती हो ?"

भाभी तिलमिला गईं । बोलीं, "हमें उससे कोई मतलब नहीं | हमसे उसकी कोई बात मत करो। हम ऐसी नीच लड़कियों से बातें नहीं करते । "

विमला को क्रोध आ गया । उसने बड़ी तीखी बात कह दी, “भाभी, वह तुमसे या मुझसे कम अच्छी नहीं है ।" उस दिन भैया के घर लौटने पर भाभी ने बड़ा बतंगड़ खड़ा किया ।

भैया वैसे शांत स्वभाव के थे । वे घर के मामलों में कम ही हस्तक्षेप करते थे । घर का सारा काम भाभी और माँ पर छोड़ रखा था । पर मेरा विवाह वे अपनी जिम्मे- दारी समझते थे । शीला के मामले में जब भाभी और मां को विरोध में देखा, तो वे किसी प्रकार अपने आपको इसके लिए तैयार नहीं कर पाये । वे नहीं चाहते थे कि घर में किसी प्रकार का भेद उत्पन्न हो । माँ, विमला को बहुत चाहती थीं । विमला ने उन्हें शीला के असली रूप से अवगत कराया था और वे उसके लिए दुखी थीं । मगर उसे वे बहू बना कर नहीं लाना चाहती थीं । 'लोग क्या कहेंगे' उनकी एक ही आपत्ति थी ।

यद्यपि भैया से मेरी इस संबंध में चर्चा नहीं हुई थी, पर उनके रुख से मुझे समझ में आता था कि वे प्रसन्न नहीं हैं । केवल विमला मेरे साथ थी ।

परिवार का विरोधी रूप मैंने चुनौती के रूप में स्वीकार कर लिया। मैं परिवार से विरोध करने को प्रस्तुत था । शीला के प्रति मेरा आर्कषण इसके लिए इतना बड़ा कारण नहीं था, जितनी मेरी विद्रोही प्रवृत्ति। इस मामले में परिवार के सामने समर्पण करना मैं रूढ़ि के आगे मानव-प्रगति की पराजय मानता था ।

मुझे वह दिन अभी भी स्पष्ट याद है, जब अंतिम बार शीला मेरे पास आई थी। इन दिनों वह कुछ अधिक गम्भीर हो गई थी । हमेशा कुछ विचार में मग्न-सी लगती थी । उस दिन शाम को वह मेरे कमरे में आकर बैठ गई। भाभी को शायद यह मालूम नहीं था अथवा, मालूम न होने का अभिनय कर रही थीं । बगल के कमरे में विमला से शीला की कोई बात लेकर गरम बहस छिड़ गई थी । विमला की किसी तीखी बात से चिढ़ कर वे झमाके के साथ वहाँ से उठीं और मेरे कमरे के द्वार तक आते-आते चमक उठीं, "अब इसका फ़ैसला हो जाना चाहिए। वह कुलटा हमारे घर आकर बैठे, और हमें ही गालियाँ खिलाए । अब अगर वह यहाँ आई - " द्वार पर पैर रखते ही उन्हें शीला दिखी, और वे एकदम 'अरे' कह कर सहम कर वहाँ से मुड़ीं । वे हिम्मत के साथ घृणा भी नहीं कर पाती थीं । मैंने उन्हें रोका, "भाभी, ठहरो । ऐसे नहीं जा सकतीं। जो तुम उसके पीठ पीछे कहने आई थीं वह सामने ही कहो ।" वे सकपकाईं पर फिर उद्धतता से बोलीं, “हाँ, हाँ, मैं क्या डरती हूँ ? हमें यह बिलकुल पसंद नहीं है ।"

"क्या पंसद नहीं है ?" मैंने पूछा । “मुझसे खोल कर पूछोगे ? दुनिया तो कह रही है । हमारे घर में यह नहीं हो सकता ।" वे बोलीं ।

मैंने कहा, "तो और किस घर में हो सकता है ? और किस घर में वह आ-जा सकती है ? वह विमला की मित्र है । तुम भले आदमियों के घर नहीं आयगी, तो क्या गुण्डों के बीच जाकर बैठेगी ?" भाभी तुनक कर बोली, "तुम्हें दिखे जहाँ उसे लेकर रहो । हमारे घर में वह नहीं आ सकती ।"

और कोई मौका होता, तो मैं सहजाता, पर वहाँ शीला बैठी थी, और उसके सामने भाभी उसका अपमान कर रही थीं । उसका तिरस्कार कर रही थीं। मैं यदि इस समय मौन रह जाता, तो शीला क्या सोचती ? उसने मेरी सामर्थ्य पर भरोसा किया था, कि मैं उसे संसार के आघातों से बचाऊँगा, उसकी मान-रक्षा करूँगा । मुझे पाकर वह सम्मान पूर्वक जी सकेगी। पर मेरे ही सामने मेरे परिवार द्वारा तिरस्कार होता देख, वह किस भरोसे पर आगे बढ़ेगी ! यदि मैं उसकी रक्षा करने में समर्थ नहीं हूँ, तो मैं क्यों उसे झूठी दिलासा देकर भ्रम में रखूं ? उसके प्रति होते प्रहारों से उसकी रक्षा करनी चाहिए। ऐसा नहीं करने का अर्थ होगा, कि मैं परिवार की धारणाओं में सम्मिलित हूँ । केवल मुझमें उनसे थोड़ी अधिक सद्भावना और उदारता है । यही सब मेरे मन में उस समय आया । मैंने तनिक रोष से कहा, "वह अधिकार - पूर्वक इस घर में आयेगी । तब मैं देखता हूँ, उसे कौन रोकता है ? घर तुम्हारा ही है मेरा नहीं ? "

यह सुन कर भाभी जरा देर सुन्न खड़ी रहीं । फिर बोलीं, “अरे बाप रे, बात यहाँ तक पहुँच गई है ! इस घर में हिस्सा - बाँट होगा । भाई से भाई छूटेंगे ! हे भगवान् !” भाभी इसी बात का प्रचार करती हुई माँ के पास पहुँच गईं, कि मेरा इरादा सम्पत्ति का बँटवारा कर लेने का है । अपनी ओर से यह मिला दिया कि मैं जल्दी ही इस सम्बन्ध में अदालती कार्यवाही करने वाला हूँ | वैसे सम्पत्ति कुछ भी नहीं थी, एक मामूली मकान था । पर माँ तो इस बात से विकल हो गई, कि उसके बेटों में मुकदमेबाजी होगी। भाभी इसी प्रकार अर्थ का अनर्थ करके घर में विप्लव पैदा कर दिया करती थीं ।

शीला नीचे देखती हुई चुपचाप बैठी थी । पूरा कांड बड़ा अशोभन था । मैं स्वयं बड़ा विक्षुब्ध था । बड़ी देर मैं भी मौन बैठा रहा । फिर धीरे-धीरे बोला, "शीला, यह जो कुछ हो रहा है, उसकी मुझे पहिले ही से आशंका थी । यह तो होना ही था । मैंने पहले ही इसका इन्तजाम कर लिया है । महेन्द्रनाथ उस कालेज की नौकरी छोड़कर चला गया है । मुझे वहाँ दो-चार दिनों में काम मिल जायगा । तब मैं अलग रहूँगा और शीघ्र ही हम विवाह कर लेंगे । हमें भयभीत या आशंकित होने की कोई बात नहीं है । हम जो कर रहे हैं, वह ठीक है, इसलिए यदि इस राह पर संघर्ष करना पड़ा तो हम-तुम मिल कर करेंगे। तुम तैयार हो न ?”

उसने नीचे देखते हुए ही कहा, "मैं क्या तैयार होऊँ ? तैयारी तो आपकी चाहिए ।"

वह वैसे ही बिना कुछ बोले नीचे देखती हुई बैठी रही । मैंने कहा, "देखो शीला, मेरी स्थिति तो तुम समझती हो । यह जो कुछ कांड घटित हो गया, वह बड़ा ओछापन है, यह मैं स्वयं सोच कर बड़ा लज्जित हूँ । परिवार मेरा है, उसके भले-बुरे की जिम्मेदारी मुझ पर है । इसलिए तुम मेरा ही अपराध समझ कर क्षमा कर देना ।"

अब उसने मेरी ओर देखा । उसकी आँखों में मैंने एक विचित्र भाव देखा- एक अजीब तटस्थता । ऐसा लगता था जैसे अपने समस्त आसपास से वह उठ गई है। और कहीं दूर से हम लोगों को देख रही है । उन आँखों में न हर्ष था, न विषाद, न प्रेम, न घृणा शून्य था । उसने कहा, "मुझे उस बात का बुरा नहीं लगा । इसमें न आपका अपराध है, न उनका । वे भी अपने विश्वास के प्रति सच्चे हैं और आप भी । जिस परंपरा में वे बँधे हैं, उसी के अनुसार तो उनकी गति होगी । क्या । पता वे दुराग्रह कर रहे हैं या हम ? आप बिलकुल चिंतित नहीं हों । आपका इसमें कोई अपराध नहीं ।"

उसके उत्तर से मैं चिंतित हुआ। वह बात को एक दम दूसरे स्तर पर ले गई थी। वह सारे कांड को दूर से देख रही थी, जैसे उसे कोई मतलब नहीं । उसका इस प्रकार उदारता बतलाना, दूर हट जाना, मुझे अच्छा नहीं लगा । अगर वह क्षुब्ध होती, बुरा मानती, रोती, तो मुझे संतोष होता । मैं तब उसे समझा सकता था, मना सकता था । पर उसकी इस मनःस्थिति में मैं क्या करूँ, यह नहीं सोच सका ।

थोड़ी देर बाद वह उठी और चल दी। मैंने पूछा, "तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न ?”

"हां, बिलकुल ठीक है ।"

" तो मैं शीघ्र ही कोई प्रबंध करता हूँ ।"

"हाँ, जैसा आप उचित समझें ।"

"कल तो मैं व्यस्त रहूँगा; परसों मैं ही आऊँगा ।"

"किस वक्त ?”

"यही छै बजे के लगभग ! घर पर ही रहोगी न ?"

"हाँ, मैं आपकी राह देखूंगी।"

वह चल दी ।

उस रात भैया लौटे तो मुझसे उन्होंने बात की। भाभी के द्वारा प्रचारित बात से वे बड़े दुखी हुए थे । जब उन्होंने संकेत से मुझ पर यह प्रगट किया, तो मैंने कहा, "आप स्वप्न में भी सोच सकते हैं कि ऐसी बात मेरे मन में आयेगी ? भाभी ने बात का बतंगड़ बना डाला है ।"

वे बोले, "लेकिन जिस कारण ये सब बातें उठती हैं, उस पर भी तो तुम्हें जरा शांति से सोचना चाहिए । अवस्था के आवेग में तुम लोग अकरणीय करने को तैयार हो जाते हो, लेकिन हम लोगों का भी लोगों पर कुछ अधिकार है, यह कभी नहीं सोचते । हम लोग भी तो तुम्हारे हितसाधक हैं । तुम काफी पढ़े-लिखे और बुद्धिमान आदमी हो। तुमसे क्या कहा जाय ।"

मैंने कहा, "मैंने बहुत सोच-विचार कर उसे वचन दिया है । उसे अब मैं धोखा कैसे दे दूँ ? वह बड़ी आपत्ति की मारी हुई है ।"

भैया ने कहा, "और सोच लो । वैसे तो तुम जो चाहोगे, वैसा ही होगा, क्योंकि तुम बड़े हो गए हो । फिर भी एक-दो रोज और सोच लो । मैं दो-चार दिन में इस बात का निर्णय कर देना चाहता हूँ, ताकि प्रतिदिन की चखचख खत्म हो जाए ।"

मैं उनके पास से उठकर चला आया और रात को बड़ी देर तक सोचता रहा ।

दूसरे दिन मेरी मुलाकात शीला से हुई नहीं । तीसरे दिन शाम को गया, तो उसका ताला बंद पाया । बिना हो-हल्ला मचाये जितना खोज सकता था, खोजा; पर कहीं पता नहीं लगा । चौथे दिन जब तरह-तरह की आशंकाओं से मेरा मन विचलित था, तब मुझे उसका यह पत्र मिला-

"....... मैं एकाएक चली आई | बिना कहे चली आई, क्योंकि कह कर कौन जा सकता है ? गौतम बुद्ध सरीखे मनस्वी जब कह कर नहीं जा पाये, तो मेरी क्या बिसात? मैं आपसे भागकर नहीं आई, अपने आपसे भाग कर आई हूँ । आपको बड़ी परेशानी होगी । परसों रात हमने जीवन की एक दिशा निश्चित कर ली थी । तब यह तय हो गया था, कि हम एक साथ ज़िन्दगी में चलेंगे । और मैं एकदम साथ छोड़ कर भाग दी यह विचित्र बात तो है ही । और मेरे पीछे तरह-तरह की अटकलपच्चियाँ लग रही होंगी । पहले तो लोगों ने आपको खोजा होगा । आप मिल गये होंगे, तो वे बड़े निराश हुए होंगे । न मिलते तो सहज ही मेरे भागने को खूब रंगीन बना सकते । कुछ सोचते होंगे, मैंने आत्महत्या कर ली। इनमें महेन्द्रनाथ प्रमुख होंगे, क्योंकि पुरुष को यह सोच कर बड़ा गर्व होता है कि नारी ने उसके प्रेम में आत्महत्या कर ली ।

सबसे उलझन में आप होंगे । इसलिए आपको मन का सत्य लिख रही हूँ । आप ही उसके अधिकारी भी हैं ।

उस रात को जब मैं आपके पास से उठ कर आई, तो बिस्तर पर पड़े-पड़े न जाने कब तक सोचती रही । सोचती रही कि क्या यह उचित है ? क्या

............
............

भी मुझे असह्य हो गई ।

इसलिए मैंने सोचा कि आपको मुक्त कर दूँ । अब मेरा क्या होगा ? छाया छोड़कर धूप में आ गई हूँ । बनते जीवन को ठुकरा कर चली आई हूँ । पर मैंने निराशा में ऐसा नहीं किया । जीवन के प्रति आज मेरी आस्था अधिक हो गई है, इसलिए मैंने सहारा त्याग दिया । यह सहारे की बात ही हमें मजबूर करती है । पुरुष और नारी एक-दूसरे के पूरक हैं, दोनों का स्वा- भाविक सम्बन्ध जरूरी है, जीवन के विकास का उत्तम मार्ग है । पर इस व्यापार में हम 'बेसहारे' मानी जाती हैं, और पुरुष 'सबल सहारा' । इसलिए हर कीमत पर हर परिस्थिति में नारी को पुरुष का सहारा चाहिये ही - ऐसी धारणा जम कर बैठ गई है - पुरुष से अधिक नारी के मन में । वृक्ष और लता का रूपक बन गया है। बस इसी हीनता ने हमारी ऐसी दुरवस्था कर दी है । अगर यह सहारा न मिले, तो ? तो क्या मेरी जैसी स्त्री मर जाय ? या जबरदस्ती दूसरे के जीवन को बिगाड़ कर, परिवार से छुड़ाकार, गालियाँ, ताने, घृणा, द्वेष, निंदा, अपमान और तिरस्कार सहकर केवल सहारे से चिपटी रहे ? केवल इसलिए कि यह जी सके ? मैंने अब इस बात को मन से निकाल दिया है । परस्पर सहारे की बात हो तो बहुत अच्छा है; लेकिन लता और वृक्ष ? नहीं, नहीं !

मैं जीवन को फिर से आरम्भ करने जा रही हूँ । यहाँ की परिस्थितियों में जीवन फिर से आरम्भ नहीं कर सकती । यहाँ की ज़मीन विषाक्त हो गई है, मेरे लिए । मैं दूसरी ज़मीन में जाकर जीवन का रोपा लगाऊँगी । मैं पलायन नहीं कर रही हूँ, नये जीवन की खोज में जा रही हूँ !

एक लहर मँझधार में ले जाकर डुबा देती है, तो दूसरी उछाल कर किनारे लगा देती है । मैं दूसरी लहर में जा रही हूँ। मैं तट की खोज में हूँ ।"

- शीला

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