ताश की आदत (पंजाबी कहानी) : नानक सिंह
Tash Ki Aadat (Punjabi Story) : Nanak Singh
‘‘रहीम।’’
सब इंसपेक्टर शेख अब्दुल हमीद ने घर में दाखिल होते ही नौकर को आवाज़
दी–‘‘बशीर को मेरे कमरे में भेजना ज़रा,’’
और झट से अपने प्राइवेट कमरे में जाकर उन्होंने कोट और पेटी उतारकर अलगनी
पर टाँग दी और मेज़ के सामने जा बैठे। मेज़ पर बहुत-सी चीज़ें बिखरी पड़ी
थीं। एक कोने में मोटी, पतली, कानूनी और गैर-कानूनी किताबें और कागज़ों से
भरी कई फाइलें पड़ी थीं। बीचों-बीच क़लमदान और उसके पास ही आज की डाक पड़ी
थी; जिसमें पाँच-छः लिफाफे, दो-तीन पोस्टकार्ड और एक-दो अखबारें भी थीं।
पिनकुशन, स्याहीचूस, पेपरवेट,टैगों का गुच्छा और इसी तरह की बहुत-सी
छोटी-मोटी चीज़ें जगह-जगह पड़ी थीं।
शेख साहब ने बैठे ही दूर का चश्मा उतारकर मेज़ के सामने वाली जगह पर, जो
कुछ खाली थी, रख दिया और नज़दीक का चश्मा लगाकर डाक देखने लगे।
अभी उन्होंने मुश्किल से दो ही लिफाफे खोले थे कि पाँच बरस का एक लड़का
भीतर आता दिखाई दिया।
लड़का देखने में बड़ा चुस्त-चालाक और शरारती-सा था, लेकिन बाप के कमरे में
घुसते ही उसका स्वभाव एकदम बदल गया, चंचल और फुर्तीली आँखें झुक गईं, शरीर
में जैसे दम ही नहीं रहा था।
‘‘सामने वाली कुर्सी पर बैठ
जाओ,’’ एक लम्बा-सा खत पढ़ते हुए खेश साहब ने शेर की
तरह गरजकर हुक्म दिया।
लड़का डरता-डरता सामने बैठ गया।
‘‘मेरी तरफ देखो,’’ खत से ध्यान
हटाकर शेख साहब
कड़के–‘‘सुना है, आज तुम ताश खेले थे
?’’
‘‘नहीं अब्बा जी,’’ लड़के ने
डलते-डरते कहा।
शेख साहब ने अपनी आदत के खिलाफ कहा, ‘‘डरो मत। सच-सच
बता दो,
मैं तुमसे कुछ नहीं कहूँगा। मैंने खुद तुम्हें देखा था, अब्दुला के लड़के
के साथ, तुम उनके आँगन में ताश खेल रहे थे। बताओ, खेल रहे थे कि नहीं
?’’
लड़का मुँह से तो नहीं बोला, लेकिन उसने सर हिलाकर हामी भरी।
‘‘शाबाश !’’ शेख साहब नर्मी से
बोले,
‘‘मैं तुमसे बहुत खुश हूँ कि आखिर तुमने सच-सच बता
दिया।
बशीर, दरअसल मैंने तुम्हें खेलते हुए खुद नहीं देखा था, किसी से सुना था।
यह तो तुमसे क़बूल करवाने का एक तरीका था। हम बहुत-से मुलज़िमों को इसी
तरह बकवा लेते हैं। ख़ैर, लेकिन मुझे आज तुम्हें कुछ ज़रूरी बातें समझानी
हैं, ज़रा ध्यान से सुनो।’’
‘ध्यान से सुनो’ कहने के बाद उन्होंने बशीर की तरफ
देखा। वह बाप का चश्मा उठाकर उसकी कमानियाँ नीचे झुका रहा था।
उसके हाथ से चश्मा छीनकर साथ वाली फाइल में से वारंटों का मज़मून मन ही मन
पढ़ते हुए शेख साहब बोले–
‘‘तुम्हें मालूम होना चाहिए कि यह गुनाह बहुत-से
गुनाहों का
पेशखेमा होता है। इसकी ज़िन्दा मिसाल यह है कि ताश खेलने का गुनाह छिपाने
के लिए तुम्हें झूठ भी बोलना पड़ा, यानी एक की बजाय तुमने दो गुनाह
किए।’’
वारंट को फिर फाइल में नत्थी करते हुए शेख साहब ने लड़के की तरफ देखा।
बशीर पिनकुशन में से आलपीनें निकालकर मेज़पोश में चुभो रहा था।
‘‘मेरी बात की तरफ ध्यान दो !’’
शेख साहब ने उसके
हाथ से पिनें छीन लीं और एक अखबार के पन्ने पलटते हुए बोले,
‘‘ताश भी एक क़िस्म का जुआ है जुआ ! इसी से
बढ़ते-बढ़ते आदमी
को जुए की आदत पड़ जाती है, सुन लिया ? और यह आदत न सिर्फ अपने तक ही
महदूद रहती है, बल्कि एक आदमी से दूसरे आदमी को, दूसरे आदमी से तीसरे को
पड़ जाती है, जिस तरह खरबूज़े को देखकर खरबूजा रंग पकड़ता
है।’’
क़लमदान में से उंगली पर स्याही लगाकर बशीर एक कोरे कागज़ पर चील-घोड़े
बना रहा था। खरबूज़े का नाम सुनते ही उसने उंगली को मेज़ की निचली पट्टी
से पोंछकर बाप की तरफ इस तरह देखा जैसे कोई सचमुच हाथ में खरबूजा लिए बैठा
हो।
‘‘बशीर !’’ बच्चे के सामने से
क़लमदान उठाकर एक तरफ रखते
हुए शेख साहब बोले, ‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो
!’’
अभी वे इतनी ही बात कह सके थे कि टेलीफोन की घंटी बजी। शेख साहब ने खड़े
होकर रिसीवर उठाया, ‘‘हलो ! कहाँ से बोल रहे हैं ?...
बाबू
पुरुषोत्तम दास... ? आदाब अर्ज़... ! सुनाइए क्या हुक्म है, लाटरी की
टिकटें... ? आज शाम को मैं भरकर भेज दूंगा... कितने रुपए हैं पाँच टिकटों
के... पचास ? ...खैर... ! लेकिन आज तक कभी इनाम निकाला भी है आप लोगों ने
? ...पता नहीं क़िस्मत कब जाग पड़ेगी और आप किसी मर्ज़ की दवा हुए ?...
अच्छा आदाब अर्ज़।’’
रिसीवर रखकर वे फिर अपनी जगह आ बैठे और बोले, ‘‘देखो
!
शरारतें न करो ! पेपरवेट ज़मीन पर गिरकर टूट जाएगा। उसे रख दो, और ध्यान
से मेरी बात सुनो।’’
‘‘हाँ, तो मैं क्या कह रहा था
!’’ एक और फाइल का
फीता खोलते हुए शेख साहब बोले, ‘‘ताश की बुराइयाँ बता
रहा था।
ताश से जुआ, जुए से चोरी, चोरी के बाद, जानते हो क्या हासिल होता है
?’’ बशीर की तरफ देखते हुए वे बोले, ‘जेल,
यानी क़ैद की
सज़ा।’’
फाइल में से बाहर निकलते हुए एक पीले कागज़ में बशीर क़लम की नोक से छेद
कर रहा था।
‘‘नालायक, पाजी,’’ शेख साहब उसके
हाथ से क़लम
छीनकर बोले, ‘‘छोड़ो इन फिजूल कामों को और मेरी बात
ध्यान से
सुनो ! जानते हो हर रोज़ हमें कितने चोरों का चालान करना पड़ता है, और ये
सब लोग ताशें खेल-खेलकर ही चोरी करना सीखते हैं। अगर इनके सर पर इस कानून
का दंड न हो तो न जाने ये क्या क़यामत ढा दें।’’ और
शेख साहब
ने मेज़ के एक कोने में पड़ी किताब ताजीरात हिन्द की तरफ इशारा किया।
लेकिन बशीर का ध्यान किसी दूसरी किताब की तरफ था। उसकी जिल्द के ऊपर वाले
गत्ते का कपड़ा थोड़ा-सा उड़ गया था, जिसे खींच-खींचकर बशीर ने क़रीब आधा
गत्ता नंदा कर दिया था।
‘‘बेवकूफ, गधा !’’ बशीर के पास
से किताब उठाकर
दूर रखते हुए शेख साहब बोले, ‘‘तुम्हें यहाँ जिल्दें
उखेड़ने
के लिए बुलाया था ? ध्यान से मेरी बात सुनो !’’ और
कुछ समनों
पर दस्तखत करते हुए उन्होंने फिर अपनी बात की लड़ी जोड़ी,
‘‘हम पुलिस अफसरों को सरकार इतनी ज़्यादा तनखाहें और
पेंशनें
देती है, जानते हो किसलिए ? सिर्फ इसलिए कि हम मुल्क से जुर्म का खात्मा
कर डालें। लेकिन अगर हम लोगों के बच्चे ही ताशें और जुए खेलने लग गए तो
फिर दुनिया क्या कहेगी, और हम लोग अपना नमक किस तरह
हलाल...’’
अभी बात बीच में ही थी कि पिछले दरवाज़े से शेख साहब का एक ऊँचा, लम्बा
नौकर आया। यह एक सिपाही था। शेख साहब हमेशा इसी तरह के दो-तीन वफादार
सिपाही घर में रखा करते थे। इनमें से एक मवेशियों को चारा डालने और भैंसें
दुहने के लिए था, दूसरा कोई काम में मदद के लिए था, तीसरा, जो भीतर से
अभी-अभी आया था–उसे आसामियों से रक़में भरवाने के लिए रखा हुआ
था।
उसने झुककर सलाम करते हुए कहा, ‘‘जी, वे आए बैठे
हैं।’’
‘‘कौन ?’’
‘‘जी वही बुद्धी बदमाश के आदमी, जिन्होंने दशहरे के
मेले में जुआखाना लगाने के लिए अर्ज़ की थी।’’
‘‘तुम खुद ही उनसे बात कर
लेते।’’
‘‘मैंने तो उनसे कह दिया था कि शेख साहब ढाई सौ से कम
पर राज़ी नहीं हैं, लेकिन...।’’
‘‘तो फिर वे क्या कहते हैं ?’’
‘‘वे कहते हैं कि एक बार हम खुद शेख साहब की क़दमबोसी
करना
चाहते हैं। अगर आपको तकलीफ न हो तो दो मिनटों के लिए आप आ जाइए। वे लोग
बड़ी देर से इन्तज़ार कर रहे हैं।’’
‘‘अच्छा चलो,’’ कहकर जब शेख साहब
उठने लगे तो
उन्होंने बशीर की तरफ देखा। वह ऊंघ रहा था। अगर शेख साहब उसे फौरन घुड़ककर
जगा देते तो उसका माथा मेज़ से टकरा जाता।
‘‘जाओ, जाकर आराम करो,’’ शेख
साहब कोट और पैंट
संभालते हुए बोले, ‘‘बाकी नसीहतें तुम्हें शाम को
दूँगा। अब
कभी ताश मत खेलना।’’
शेख साहब बाहर चले गए। लड़के ने खड़े होकर एक-दो अंगड़ाइयाँ और उबासियाँ
लीं, आँखें मलीं और फिर उछलता-कूदता हुआ बाहर निकल गया।