टर्र-टर्र (रूसी कहानी) : कोंस्तांतीन पाउस्तोव्स्की
Tarr-Tarr (Russian Story in Hindi) : Konstantin Paustovsky
(एक काल्पनिक कहानी)
पूरे एक महीने तक लगातार गर्मी पड़ती रही। बालिगों का कहना था कि गर्मी को देखा भी जा सकता है।
‘‘गर्मी कैसे देखी जा सकती है?’’ तान्या प्रत्येक से यह प्रश्न पूछती रही।
तान्या पाँच वर्ष की थी। वह उस आयु की थी जब प्रतिदिन नई बातें सीखी जाती हैं। ग्लेब चाचा सोलहों आने सही थे जब उन्होंने यह कहा कि यदि तुम तीन सौ बरस भी जीती रही तो भी सब बातें नहीं जान पाओगी।
‘‘ऊपर चली आओ, मैं तुम्हें गर्मी दिखाऊँगा। तुम उसे वहाँ से अच्छी तरह देख पाओगी,’’ ग्लेब ने कहा।
तान्या सीधी खड़ी सीढ़ी से ऊपर चढ़ी। अटारी प्रकाशपूर्ण, किन्तु धूप से जलती हुई छत के कारण गर्म थी। घर के बाहर उगा हुआ छायादार वृक्ष अपनी शाखाओं को खिड़कियों से अटारी के भीतर तक पहुँचाने का कठिन प्रयास कर रहा था। इसी कारण खिड़कियों को बन्द करना कठिन हो गया था। और सम्भवतः इसीलिए उन्हें गर्मी भर के लिए खुला छोड़ दिया गया था।
अटारी का एक छज्जा था जिसके जंगले पर खुदाई का काम किया हुआ था। ग्लेब तान्या को छज्जे में ले गया और उसे नदी के पार के चरागाहों और दूरवर्ती जंगलों को देखने के लिए कहा।
‘‘समोवार से निकलते धुएँ जैसे उसे पीले बादल को देखती हो? और उस काँपती हुई हवा को? वह गर्मी है। हाँ, तुम गर्मी, जाड़ा और जो भी चाहो, देख सकती हो।’’
‘‘जाड़ा तब होता है, जब बर्फ़ पड़ती है, है न?’’ तान्या ने पूछा।
‘‘केवल तभी नहीं। तुम उसे गर्मी में भी देख सकती हो। तुम केवल ठण्डे दिनों के आने का इन्तजार करो और तब मैं तुम्हें दिखाऊँगा कि ठण्डक कैसी होती है।’’
‘‘किसके जैसी होती है?’’
‘‘संध्या समय आकाश गीली घास की भाँति हरा होता है। तब आकाश ठण्डा होता है।’’
किन्तु इसी बीच तेज धूप से सभी कुछ झुलसा जाने लगा और जिसे गर्मी के कारण सबसे अधिक कष्ट हुआ, वह थी एक मेंढकी, जो अहाते में बड़ी झाड़ी के नीचे रहती थी।
धूप के कारण अहाता ऐसे तप उठा कि हर छोटे-से छोटा जीव भी कहीं छाया में जा छिपा। यहाँ तक कि चीटियाँ भी अपने बिलों से बाहर न निकलकर धैर्यपूर्वक संध्या होने की प्रतीक्षा कर रही थी केवल टिड्डे ही गर्मी के बारे में निश्चिंत दिखायी देते थे। ज्यों-ज्यों गर्मी बढ़ रही थी उनका फुदकना और उनकी टीं-टीं भी बढ़ती जा रही थी। उन्हें पकड़ पाना असम्भव था और आज मेंढकी यह जान रही थी कि भूखा कैसे रहा जाता है।
मेंढकी को तहखाने के दरवाज़े के नीचे एक सूराख मिल गया और उसे बस वहीं डेरा डाल दिया। उसने अपने सभी दिन तहखाने की, ईंटों की बनी ठण्डी पैड़ियों के पास ऊँघते हुए गुजारने शुरू किये।
जब भी अरीशा नौकरानी तहखाने में दूध लेने जाती, मेंढकी जाग उठती और एक तरफ़ को फुदकती हुई एक टूटे हुए गमले के पीछे जा छिपती और तभी अरीशा की चीख निकल जाती।
संध्या को मेंढकी रेंगती हुई अहाते में आ जाती और बहुत सम्भल-सम्भलकर फूलों की क्यारी में चली जाती जहाँ शाम के समय तम्बाकू के फूल खिलते थे और जहाँ गेंदे की शक्ल के रंग-बिरंगे फूलों के झुण्ड के झुण्ड उगे रहते थे। हर शाम को फूलों को पानी दिया जाता था और इसलिए भीगी हुई धरती इतनी बढ़िया और सीली होती थी कि वहाँ बड़े आराम से साँस ली जा सकती थीं और कभी-कभी तो तम्बाकू के पौधे की सफ़ेद पत्तियों से ठण्डे-ठण्डे पानी के कश्तरे भी ढुलक पड़ते थे।
मेंढकी अँधेरे में बैठकर लोगों को घूरती रहती। वह इस बात की प्रतीक्षा करती कि लोग चलना-फिरना बन्द करें, बातचीत ख़त्म हो, गिलासों की खनक और धोवन-तिपाई की छनक का अन्त हो और लैम्प बुझे। हर चीज़ अन्धकार और रहस्य की दुनिया में डूब जाये।
केवल तभी वह फूलों की क्यारी में थोड़ा फुदकती, गेंदे के समान फूलों की पत्तियों को कुतरती और धीरे-से सोये हुए भ् ौंरे को छूकर उसकी ऊँघ भरी बड़बड़ाहट को सुनती।
तब मुर्ग़ों की कुकुड़-कुकुड़ की आवाज़ और बाँग सुनाई देती और इस प्रकार आधी रात का सबसे सुहाना पहर आ जाता। जब ओस पड़ती तब गीली घास चमकने लगती। इस तरह ठण्डी और चुपचाप रात गुज़रती जाती और तब चरागाहों से सभी से एकदम अलग-थलग रहनेवाले जुनबगले की, खरखरी आवाज़ सुनाई देती।
ग्लेब चाचा को मछलियाँ पकड़ने का पुराना शौकश् था। हर शाम को वह मेजपोश उठा देता, भिन्न-भिन्न प्रकार के छोटे-छोटे डिब्बों में से मछली फँसाने के चमकते हुए काँटे, सीसे के लंगर, मछली पकड़ने की पारदर्शी और रंगदार रस्सियाँ निकालकर मेज़ पर रख देता और मछली पकड़ने की पतली छड़ियों की मरम्मत करने लगता। ऐसे समय में तान्या को मेज के पास आने की इजाज़त न होती ताकि कहीं कोई काँटा उसकी उँगली में न चुभ जाये।
मरम्मत करते समय ग्लेब सदा एक ही गीत गुनगुनाया करता था:
‘‘एक मस्त था मछियारा
वह छड़ें सुधारे दिन सारा
वह सदा तिरौंदे को ताके
जो पानी के ऊपर झाँके।’’
किन्तु ग्लेब के लिए इस बार की गर्मी कुछ अच्छी न रही थी। मौसम के खुश्क रहने के कारण एक भी कीड़ा नहीं मिलता था। चुस्त से चुस्त लड़के को भी उन्हें खोजने के लिए राज़ी करना मुश्किल था।
निराश होकर ग्लेब ने अपने घर के दरवाज़े पर बड़े-बड़े सफेष्द अक्षरों में लिखा:
‘‘यहाँ कीड़े ख़रीदे जाते हैं।’’
पर इससे भी कोई लाभ न हुआ। लोग रुकते, विज्ञापन को पढ़ते और सिर हिलाकर हँसते हुए कहते:
‘‘हज़रत को बहुत दूर की सूझी है!’’ फिर वे आगे चल देते। और अगले दिन किसी शैतान बच्चे ने उतने ही बड़े अक्षरों में उसके नीचे लिख दिया:
‘‘आलू के मुरब्बे के बदले में।’’
ग्लेब चाचा के लिए सभी कुछ मिटा देने के सिवा कोई और चारा न था।
अब वे तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक खड्ड की ओर कीड़ों की तलाश में जाने लगी। वहाँ घण्टे भर की सिरदर्दी के बाद उन्हें पुरानी छिपटियों के नीचे दबे लगभग एक दर्जन कीड़े मिले।
ग्लेब चाचा कुछ इस तरह उनकी रखवाली करते मानो वे सोने के बने हुए हों। उन्होंने उन कीड़ों को शीशे के मर्तबान में काई की सेज पर सुलाया, मलमल के छोटे-से टुकड़े से ढका और उस मर्तबान को अँधेरे तहखाने में रख आये।
वहीं पर मेंढकी ने कीड़ों को खोज निकाला। मलमल के टुकड़े को हटाने के लिए उसे काफ़ी परेशान होना पड़ा। पर इस काम में सफल होने के बाद वह रेंगती हुई मर्तबान में दाखिल हो गयी और कीड़ों से निपटने लगी। वह अपने काम में इतनी व्यस्त थी कि तहखाने की ओर आते हुए ग्लेब की पदचाप तक न सुन पाई। ग्लेब चाचा ने उसे उसकी पिछली टाँगों से जा पकड़ा और उठाकर अहाते में ले आये। वहाँ तान्या एक कुपित कानी मुर्गी को दाने चुगा रही थी।
‘‘अब लो,’’ ग्लेब ने मेंढकी को धमकाते हुए कहा, ‘‘हम तो पसीना बहाकर एक दर्जन कीड़े खोजकर लाये और यहाँ यह बेहया मेंढकी बेखटके उन सबको चुराकर खा गयी। कमबख़्त ने मलमल का टुकड़ा तक उतार लिया। हमें इसे पाठ पढ़ाना ही होगा।’’
‘‘कैसे?’’ तान्या ने व्यग्र होते हुए पूछा जबकि मुर्गी ने बैरभरी टेढ़ी नज़र से मेंढकी की ओर देखा।
‘‘मुर्ग़ी की नज़र करके, और कैसे?’’
मेंढकी बुरी तरह झटपटा रही थी मगर वह मुक्त होने में असमर्थ रही। मुर्ग़ी ने अपने पंख फड़फड़ाये, ऊपर को उड़ी और ग्लेब के हाथ से मेंढकी को लगभग छीन ही लिया।
‘‘ख़बरदार!’’ तान्या मुर्ग़ी पर झल्लायी और फूट-फूकर रो पड़ी।
‘‘मुर्ग़ी एक तरफ़ को हट गयी और एक टाँग पर विचारमग्न-सी खड़ी होकर आगे की घटना की प्रतीक्षा करने लगी।
‘‘ग्लेब चाचा, इसकी जान मत लीजिये। इसे मुझे दे दीजिये।’’
‘‘ताकि वह चोरी करती रहे?’’
‘‘नहीं मैं इसे शीशे के मर्तबान में रखकर खिलाती-पिलाती रहूँगी। क्या आपको इस पर रहम नहीं आता?’’
‘‘अच्छा,’’ ग्लेब ने हामी भरी, ‘‘यदि यही चाहती हो तो ऐसा ही सही। मैं इसे केवल तुम्हारी ख़ातिर क्षमा कर रहा हूँ। और इसलिए भी कि यह साधारण मेंढकी नहीं है।’’
‘‘क्या, सचमुच?’’ तान्या ने रोना बन्द कर दिया।
‘‘क्या तुम नहीं देख रही हो? यह टर्रानेवाली विशेष प्रकार की मेंढकी है जो वृक्षों पर चढ़ जाती है। यह सदा बरसात की पूर्व-सूचना देती है।’’
‘‘यह तो बहुत बढ़िया बात है,’’ और तान्याने चैन की साँस लेते हुए उन शब्दों को बुदबुदाया जो वह रात-दिन इगनात बढ़ई को कहते सुनती थी: ‘‘हमें थोड़ी बूँदा-बाँदी की बेहद ज़रूरत है, वर्ना फसलें और सब्जियाँ तबाह हो जायेंगी। फिर हमारा क्या बनेगा?’’
तान्या ने एक मर्तबान में कुछ घास डालकर मेंढकी को उस पर बिठा दिया ओर मर्तबान को खिड़की की ओटक पर रख दिया।
‘‘तुम्हें एक टहनी भी मर्तबान में रख देनी चाहिये,’’ ग्लेब ने सलाह दी।
‘‘किस लिए?’’
‘‘जब मेंढकी टहनी पर चढ़कर टर्राने लगे तो उसे बरसात के आने का संकेत समझना।’’
पर वर्षा का तो न कहीं नाम था न निशान। मेंढकी अपने मर्तबान में बैठी हुई लोगों से सूखे की चर्चा सुनती और आह भरकर रह जाती। मर्तबान के जीवन में मेंढकी को कुछ लाभ तो अवश्य थे। वह सुरक्षित थी और पेट भरकर खाने को मिल जाता था, मगर उसमें उसका दम घुटता-सा रहता था।
एक रात को मेंढकी उस टहनी के ऊपर चढ़कर मर्तबान से बाहर आ गयी और सावधानी से उछलती, कूदती और छलाँगें लगाती हुई नीचे बाग में जा गिरी। वहाँ एक कुंज में एक अबाबील ने अपना घोंसला बना रखा था।
मेंढकी धीमे-से टर्रायी तो अबाबील ने झट से अपना सिर घोंसले से बाहर निकाला।
‘‘यह क्या बदतमीजी है?’’ उसने खीझते हुए कहा। ‘‘दिन भर तो चुगे की खोज में इधर-उधर मारे-मारे फिरना पड़ता है। पागल बनाने के लिए वही काफ़ी होता है। तिसपर तुम थके-हारों को रात को भी आराम नहीं करने देतीं।’’
‘‘तुम पहले मेरी बात सुन लो, फिर बड़बड़ाती रहना,’’ मेंढकी ने जवाब दिया।
‘‘तुम यह तो कह नहीं सकतीं कि मैंने पहले भी कभी तुम्हें रात को आकर जगाया है।’’
‘‘अच्छा, जल्दी बोलो,’’ अबाबील ने जम्हाई लेते हुए कहा, ‘‘क्या मुसीबत है?’’
तब मेंढकी ने अबाबील को सारा किस्सा सुनाया कि कैसे तान्या नामक लड़की ने उसकी जान बचाई। कैसे वह बहुत दिनों से सोच रही थी कि इस नेकी का बदला चुकाये। अब अन्त में उसने एक मार्ग खोज निकाला है पर उसे सफल बनाना अबाबील की सहायता पर निर्भर करता है।
मेंढकी ने बताया कि अनावृष्टि के कारण लोग बहुत चिन्तित हैं। हर चीज़ सूखती जा रही है। दाने, बालों में ही सूख जायेंगे। यहाँ तक कि पक्षियों और मेंढकों के लिए भी बुरा समय आ गया है क्योंकि कीड़े और घोंघें मिलने कठिन हो गये हैं।
मेंढकी ने बताया कि सूखे के बारे में उसने तान्या के पिता की बातें भी सुनी हैं। तान्या के पिता कृषिशास्त्री हैं। उसने तान्या को रोते भी देखा है। तान्या को अपने पिता और सामूहिक कृषकों की दशा पर बहुत तरस आता है क्योंकि उन्हें बहुत कष्ट उठाना पड़ रहा है। मेंढकी ने कहा कि उसने तान्या की रसभरी की एक मुरझायी हुई लता के समीप खड़े होकर काले पड़े हुए भुरभुरे पत्तों को छूकर रोते भी देखा है। उसने तान्या के पिता को यह कहते भी सुना है कि शीघ्र ही लोग कृत्रिम मेंह बरसा लेंगे किन्तु जब तक ऐसा न हो, उनकी सहायता अवश्य की जानी चहिये।
‘‘हमें जरूर मदद करनी चाहिये,’’ अबाबील ने सहमति प्रकट की। ‘‘किन्तु कैसे? वर्षा यहाँ से कई किलोमीटर परे, दूर, बहुत दूर है। कल अपनी उड़ान करते हुए मैं वहाँ तक पहुँच तो नहीं पाई, पर मैंने जोर से बरसती हुई वर्षा को देखा अवश्य था। खेद की बात यह है कि वह यहाँ पहुँचने से पहले ही समाप्त हो जायेगी। वह यहाँ कभी नहीं पहुँच पायेगी।’’
‘‘तो उसे यहाँ लाया क्यों न जाये?’’ मेंढकी ने तर्क प्रस्तुत किया।
‘‘तुम जानती हो यह आसान काम नहीं। और जो भी हो कम से कम यह अबाबीलों के वश की बात नहीं। यह तो बेगिनी चिड़ियों के करने लायक काम है। वे हमसे कहीं अधिक तेज उड़ती हैं।’’
‘‘तो तुम बेगिनियों से बात करो।’’
‘‘यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही कठिन। तुम शायद उनसे परिचित नहीं। कहीं ग़लती से तुम उनके किसी बच्चे से जरा उलझ तो जाओ, बस फिर क्या है, कभी झगड़े का अन्त ही नहीं होगा। वे सदा झगड़े का बहाना ढूँढती रहती हैं। उनके पास शोर, चीख-पुकार और चीं-चपड़ के सिवा कुछ है ही नहीं।’’
मेंढकी ने अपना मुँह मोड़ लिया और उसकी आँखों से आँसू की एक बूँद नीचे घास में जा गिरी।
‘‘अगर तुम अबाबीलें वर्षा को यहाँ खींचकर नहीं ला सकतीं तो बेगिनियों से बात करना ही व्यर्थ है,’’ उसने फुसफुसाते हुए कहा।
‘‘तुम्हारा मतलब है, हम ला ही नहीं सकतीं,’’ चिड़िया जोश में आ गयी। ‘‘यह तुमसे किसने कहा? दुनिया में ऐसा कोई काम नहीं जो हम न कर सकें। हम बिजली को भी चकमा दे सकती हैं और हवाई जहाज को पीछे छोड़ सकती हैं। बरसात को यहाँ खींच लाना हमारे लिए उतना ही आसान काम है जितना मक्खियों को पकड़ना। किन्तु पूर्व इसके कि हम ऐसा कर पायें हमें सभी अबाबीलों को, इस प्रदेश की हर अबाबील को, इकट्ठा करना होगा।’’
अबाबील ने चोंच मार-मारकर अपने पंजों को साफ़ किया और वह देर तक इस समस्या पर गम्भीर विचार करती रही।
‘‘वह मारा! रोना बन्द करो। हम वर्षा को यहाँ खींच लायेंगी।’’
‘‘किन्तु कब?’’ मेंढकी ने पूछा।
अबाबील ने फिर अपने को सँवारना और सोचना आरम्भ किया।
‘‘ज़रा मुझे हिसाब लगा लेने दो। अबाबीलों को इकट्ठा करने में दो घण्टे लगेंगे। वर्षा करनेवाले बादलों तक पहुँचने में दो घण्टे और। वर्षा को साथ लेकर लौटने का काम और भी मुश्किल है। इसमें कम से कम चार घण्टे लग जायेंगे। तो इस तरह तुम सुबह 10 बजे हमारे लौटने की आशा कर सकती हो। अच्छा, तो फिर अलविदा!’’
अबाबील एक बार चहकी। वह पक्षियों के घोंसलों की ओर उड़ चली और तख़्तों की बनी छत के पीछे ग़ायब हो गयी।
मेंढकी घर वापस चली गयी। घर में हर कोई गहरी नींद में था।
वह मर्तबान में पहुँची और टहनी पर चढ़कर धीमी आवाज़ में टर्रायी। किसी ने भी उसकी आवाज़ नहीं सुनी। तब वह जोर से और अधिक जोर से टर्रायी और शीघ्र ही तमाम कमरे और फिर बगीचा भी उसकी टर्र-टर्र से गूँज उठा। गाँव के सभी मुर्गे जाग उठे और उन्होंने जवाब में ‘‘कुकड़ूँ-कड़ू’’ की आवाज़ लगाई। उन्होंने एक दूसरे से बढ़-चढ़क ऊँची आवाज़ में बाँग देने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया। इस यत्न में उनकी आवाज़ खरखराई, फटी तथा फिर ठीक हुई। ‘‘कुकड़ूँ-कुड़ू’’ करते हुए वे बड़े जोर से अपने पंख भी फड़फड़ाते थे। उन्होंने वह हल्ला-गुल्ला मचाया कि गाँव का हर व्यक्ति यह विश्वास करता हुआ जाग उठा कि गाँव में आग लग गयी है।
घर के सभी लोग जाग उठे।
‘‘क्या मामला है?’’ नींद की खुमारी में तान्या ने पूछा।
‘‘बरसात होने वाली है, बरसात!’’ साथवाले कमरे से उसके पिता ने जवाब दिया।
‘‘तुम सुनती हो? तुम्हारी बरसाती मेंढकी टर्रा रही है, खलियानों में मुर्गे बाँग दे रहे हैं। यह पक्की निशानी है।’’
ग्लेब मोमबत्ती लेकर तान्या के कमरे मे आया और मेंढकी के शीशे के घर के पास गया।
‘‘बिल्कुल सही है! जैसा कि मैंने सोचा था मेंढकी शाख पर चढ़ी हुई है और अपना पूरा जोर लगाकर टर्रा रही है। बिचारी जोर लगा-लगाकर हरी हुई जा रही है,’’ ग्लेब चाचा ने कहा।
सुबह हुई, सदा की भाँति आकाश साफ़ था, बादल का एक टुकड़ा भी कहीं नहीं था। किन्तु दस बजे के लगभग पश्चिम में खेतों के ऊपर बादलों की प्रथम गड़गड़ाहट सुनाई दी।
सामूहिक किसान नदी के समीप की एक पहाड़ी की चोटी पर चढ़कर, हाथों की ओट से अपनी आँखों को रोशनी से बचाते हुए, पश्चिम दिशा में देखने लगे। बच्चे मकानों की छतों पर चढ़ गये। अरीशा ने सभी परनालों के नीचे जल्दी-जल्दी डोल और टब रखने शुरू किये। तान्या के पिता बादलों को देखने के लिए आँगन में दौड़े और गड़गड़ाहट को सुनते हुए कहने लगे, ‘‘कहीं ये बिन बरसे ही आगे न निकल जायें-काश! कुछ कनियाँ ही बरस जायें।’’ अपने पिता के पीछे चिपटकर खड़ी हुई तान्या यह सभी कुछ सुन रही थी।
बादलों की गड़गड़ाहट पहले से अधिक स्पष्ट और गम्भीर होती हुई समीप आती गयी। पश्चिमी आकाश में काली घटा घिर आई। ग्लेब ने जल्दी-जल्दी मछली पकड़ने की छड़ियाँ इकट्ठी करनी शुरू कीं और अपने बूटों को तेल लगाकर नर्म किया। आँधी-पानी के बाद मछलियाँ पागलों की भाँति काँटों में मुँह फँसाया करती हैं, उसने घोषणा की।
हवा में वर्षा की ताजगी आ गयी। बाग़ में पत्ते धीमे-धीमे सरसराने लगे। घटाटोप बादल समीप आ गया और खुशी से भरी बिजली आकाश को चीरती हुई कौंध गयी।
टीन की छतों पर बरसाती बूँदों की पहली टप-टप सुनाई दी। तब गहरी खामोशी छा गयी मानो हर कोई साँस रोककर दूसरी बूँद के पड़ने की प्रतीक्षा कर रहा हो। स्वयं वर्षा भी शायद रुककर यह सोचने लगी थी कि पहली बूँद ठीक जगह पर गिरी है या नहीं। ज़ाहिर है कि वह सन्तुष्ट थी, क्योंकि सहसा हज़ारों बूँदें एक साथ गिरने लगीं और टीन की छतें जोर से ताल देने लगीं। खिड़कियों के बाहर चमकती हुई मूसलाधार झड़ी लग गयी।
‘‘जल्दी से यहाँ ऊपर आओ,’’ अटारी से ग्लेब चाचा की आवाज़ सुनाई दी।
हरेक सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। सबसे पीछे तान्या थी।
वहाँ ऊपर आकाश में सभी यह दृश्य देख सकते थे कि कैसे हज़ारों लाखों छोटे-छोटे पक्षी, बादलों को धरती की ओर खींचते ला रहे थे और उन्हें किसी अन्य दिशा में मुड़ने से रोके हुए थे। ऐसे अनगिनत पक्षी बादलों की ओर उड़कर अपने पंखों से बहुत तेज हवा पैदा कर रहे थे। यह हवा बादलों को अधिक, और अधिक धरती की ओर खींचे ला रही थी। बादलों का भारी जमघट गड़गड़ाता-बड़बड़ाता सूखे खेतों और सब्जी के बगीचों की ओर चला आ रहा था।
कुछ पक्षी अपने पंखों पर पानी की झड़ी को रोक लेते और फिर चमकती हुई जलधार अपने पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ते।
कभी-कभी पक्षी अपने परों को जोर से फड़फड़ा देते। उस समय बरसात से पैदा होने वाली टप-टप की आवाज़ इतनी ऊँची हो जाती कि अटारी में बैठे हुए लोग चीख-चीखकर बात करने पर भी एक शब्द तक नहीं सुन पाते।
‘‘यह क्या है, क्या पक्षी यह बरसात लाये हैं?’’ तान्या ने पूछा।
‘‘मैं तो नहीं जानता। क्या तुम कुछ अनुमान लगा सकते हो, ग्लेब?’’ तान्या के पिता ने पूछा।
‘‘नहीं, मैं तो कुछ नहीं बता सकता,’’ ग्लेब ने कहा। ‘‘ऐसा लगता है जैसे दुनिया भर की अबाबीलें आज यहीं इकट्ठी हो गयी हैं।’’
जब छत पर टपटपाती हुई वर्षा धीमी होकर हल्की फुहार में बदल गयी और सब अबाबीलें चली गयीं तो तान्या ने मेंढकी को मर्तबान से बाहर निकालकर ताजे और सरसराते बाग़ में जहाँ घास और पत्ते तिरछी फुहार के कारण झुके हुए थे, छोड़ दिया।
उसने धीरे से मेंढकी के ठण्डे और छोटे-से सिर को थपथपाते हुए कहा:
‘‘बरसात लाने के लिए धन्यवाद। अब तुम्हें डरने की जरूरत नहीं। कोई तुम्हें छुएगा भी नहीं।’’
मेंढकी ने तान्या की ओर देखा पर बोली कुछ नहीं, यों भी इंसानों की भाषा में तो वह एक शब्द भी नहीं बोल सकती थी। वह तो केवल टर्रा सकती थी। मगर उसकी आँखों में कृतज्ञता का भाव बिल्कुल स्पष्ट था और तान्या ने एक बार फिर धीरे से उसका सिर थपथपाया।
मेंढकी तम्बाकू के पौधे के पत्तों के नीचे फुदकने और अपने शरीर को हिलाने-डुलाने और काँपने लगी। बरसात में वह ऐसे ही नहाती है।
उस दिन के बाद हर कोई मेंढकी से बहुत शिष्ट व्यवहार करता है। अरीशा अब उसे देखकर चिल्लाती नहीं, और ग्लेब चाचा तो बहुमूल्य मर्तबान में रखे जानेवाले कीड़ों में से सबसे मोटे कीड़े प्रतिदिन उसके लिए अलग रख छोड़ते हैं।
थोड़े ही अरसे में वर्षा से धुली फसलें पक गयीं, भीगे हुए फूलों के उपवन प्रकाश में चमकने लगे और सब्जियों के बगीचों से रसदार खीरों, टमाटरों और जंगली साग-सब्जियों की सुगन्धि आने लगी। अब मछलियाँ चुगे पर इस बुरी तरह टूटती हैं कि प्रतिदिन वे ग्लेब की यत्नपूर्वक संचित सुनहरी हुकों के साथ भारी मात्रा में खिंची चली आती हैं।
अब तान्या बगीचे के इर्द-गिर्द शोर मचाती और मेंढकी से आँख-मिचैनी खेलती रहती है। ऐसा करती हुई वह ओस में अपनी पोशाक भी गीली कर लेती है। कौतूहल से भरी हुई मकड़ियाँ, दिखायी न देनेवले धागों में झूलती हुई यह जानने के लिए अपनी शाखाओं से नीचे उतर आती हैं कि बगीचे में इतनी हलचल और हँसी-खुशी का कारण क्या है। कारण मालूम होने पर वे अपने धागे सुई की नोक के बराबर छोटे-छोटे गोलों में लपेटती हुई ऊपर चढ़ती हैं और पत्तों की गर्म छाया में सो जाती हैं।
1951
हमारी कल्पना में रंग कभी फीके नहीं
पड़ते, गर्मी का कभी अन्त नहीं होता और
प्रेम कभी मरता नहीं। केवल हमारी कल्पना
में ही फूलों से लदी धरती से सदा मधुर
समीरण आया करता है; और नाव के समान
चाँद कभी अदृश्य नहीं हो पाता।
केवल कल्पना में ही हम पुश्किन के
साथ हँस सकते हैं या डिकेन्स के जादूभरे
हाथ को छू सकते हैं अथवा किसी जमी
हुई नदी की चमकती बर्फ़ में उन नीले फूलों
को देख सकते हैं जिन्हें ओफीलिया ने
गिराया था।
ज़िन्दगी की सतह पर कल्पना उसी
तरह लहराती है जैसे द्रुत गति से बहते
निर्झर के पानी पर सूर्य की किरणें।
('समय के पंख' में से)