तरक़्क़ी पसंद (कहानी) : सआदत हसन मंटो
Taraqqi Pasand (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto
जोगिंदर सिंह के अफ़साने जब मक़बूल होना शुरू हुए तो उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो मशहूर अदीबों और शाइरों को अपने घर बुलाए और उन की दावत करे। उस का ख़याल था कि यूं उस की शौहरत और मक़बूलियत और भी ज़्यादा हो जाएगी।
जोगिंदर सिंह बड़ा ख़ुशफ़हम इंसान था। मशहूर अदीबों और शाइरों को अपने घर बुलाकर और उनकी ख़ातिर तवाज़ो करने के बाद जब वो अपनी बीवी अमृत कौर के पास बैठता तो कुछ देर के लिए बिलकुल भूल जाता कि उस का काम डाकखाना में चिट्ठियों की देख भाल करना है। अपनी तीन गज़ी पटियाला फ़ैशन की रंगी हुई पगड़ी उतार कर जब वो एक तरफ़ रख देता तो उसे ऐसा महसूस होता कि उस के लंबे लंबे काले गेसूओं के नीचे जो छोटा सा सर छुपा हुआ है इस में तरक़्क़ी पसंद अदब कूट कूट कर भरा है। इस एहसास से उसके दिमाग़ में एक अजीब क़िस्म की एहमीयत पैदा हो जाती है और वो ये समझता कि दुनिया में जिस क़दर अफ़्साना निगार और नॉवेल नवेस मौजूद हैं सब के सब उस के साथ एक निहायत ही लतीफ़ रिश्ते के ज़रीया से मुंसलिक हैं।
अमृत कौर की समझ में ये बात नहीं आती थी कि उस का ख़ाविंद लोगों को मदऊ करने पर उस से हर बार ये क्यों कहा करता है। “अमृत, ये जो आज चाय पर आरहे हैं हिंदूस्तान के बहुत बड़े शायर हैं समझें, बहुत बड़े शायर। देखो इन की ख़ातिर तवाज़ो में कोई कसर न रहे।”
आने वाला कभी हिंदूस्तान का बहुत बड़ा शायर होता था या बहुत बड़ा अफ़्साना निगार । इस से कम पाए का कोई आदमी वो कभी बुलाता ही नहीं था। और फिर दावत में ऊंचे ऊंचे सुरों में जो बातें होती थीं उन का मतलब वो आज तक न समझ सकी थी। इन गुफ़्तुगूओं में तरक़्क़ी पसंदी का ज़िक्र आम होता था। इस तरक़्क़ी पसंदी का मतलब भी अमृत कौर को मालूम नहीं होता था।
एक दफ़ा जब जोगिंदर सिंह एक बहुत बड़े अफ़्साना निगार को चाय पिलाकर फ़ारिग़ हुआ और अंदर रसोई में आकर बैठा तो अमृत कौर ने पूछा। “ये मोयी तरक़्क़ी पसंदी क्या है?”
जोगिंदर सिंह ने पगड़ी समेत अपने सरको एक ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश दी और कहा। “तरक़्क़ी पसंदी.... इस का मतलब तुम फ़ौरन ही नहीं समझ सकोगी। तरक़्क़ी पसंद उस को कहते हैं जो तरक़्क़ी पसंद करिए। ये लफ़्ज़ फ़ारसी का है। अंग्रेज़ी में तरक़्क़ी पसंद को रीडीकल कहते हैं। वो अफ़्साना निगार, यानी कहानियां लिखने वाले, जो अफ़साना निगारी में तरक़्क़ी चाहते हों उन को तरक़्क़ी पसंद अफ़्साना निगार कहते हैं। इस वक़्त हिंदूस्तान में सिर्फ़ तीन चार तरक़्क़ी पसंद अफ़्साना निगार हैं जिन में मेरा नाम भी शामिल है।”
जोगिंदर सिंह आदतन अंग्रेज़ी लफ़्ज़ों और जुमलों के ज़रीया से अपने ख़यालात का इज़हार किया करता था। उस की ये आदत पक कर अब तबीयत बन गई थी। चुनांचे अब वो बिला-तकल्लुफ़ एक ऐसी अंग्रेज़ी ज़बान में सोचता था जो चंद मशहूर अंग्रेज़ी नॉवेल नवेसों के अच्छे अच्छे चुस्त फ़िक़्रों पर मुश्तमिल थी। आम गुफ़्तुगू में वो पच्चास फीसदी अंग्रेज़ी लफ़्ज़ और अंग्रेज़ी किताबों से चुने हुए फ़िक़रे इस्तिमाल करता था। अफ़लातून को वो हमेशा प्लेटो कहता था। इसी तरह अरस्तू को अरसटोटल। डाक्टर सैगमंड फ्राइड शो पिनहार और नित्शे का ज़िक्र वो अपनी हर मार्के की गुफ़्तुगू में किया करता था। आम बातचीत में वो इन फ़ल्सफ़ियों का नाम नहीं लेता था और बीवी से गुफ़्तुगू करते वक़्त वो इस बात का खासतौर पर ख़याल रखता था कि अंग्रेज़ी लफ़्ज़ और ये फ़लसफ़ी न आने पाइं।
जोगिंदर सिंह से जब उस की बीवी ने तरक़्क़ी पसंदी का मतलब समझा तो उसे बहुत मायूसी हुई क्योंकि उस का ख़याल था कि तरक़्क़ी पसंदी कोई बहुत बड़ी चीज़ होगी जिस पर बड़े बड़े शायर और अफ़्साना निगार उस के ख़ाविंद के साथ मिल कर बहस करते रहते हैं। लेकिन जब उस ने ये सोचा कि हिंदूस्तान में सिर्फ़ तीन चार तरक़्क़ी पसंद अफ़्साना निगार हैं तो उस की आँखों में चमक सी पैदा होगई। ये चमक देख कर जोगिंदर सिंह के मूंछों भरे होंट एक दबी दबी सी मुस्कुराहट के बाइस कपकपाए। “अमृत.... तुम्हें ये सुन कर ख़ुशी होगी कि हिंदूस्तान का एक बहुत बड़ा आदमी मुझ से मिलने की ख़्वाहिश रखता है। उस ने मेरे अफ़साने पढ़े हैं और बहुत पसंद किए हैं।”
अमृत कौर ने पूछा। “ये बड़ा आदमी कवी है या आप की तरह कहानियां लिखने वाला।”
जोगिंदर सिंह ने जेब से एक लिफ़ाफ़ा निकाला और उसे अपने दूसरे हाथ की पुशत पर थपथपाते हुए कहा। “ये आदमी कोई भी है अफ़्साना निगार भी है, लेकिन उस की सब से बड़ी ख़ूबी जो उस की न मिटने वाली शौहरत का बाइस है और ही है।”
“वो ख़ूबी क्या है?”
“वो एक आवारागर्द है।”
“आवारागर्द?”
“हाँ, वो एक आवारागर्द है जिस ने आवारागर्दी को अपनी ज़िंदगी का नस्ब-उल-ऐन बना लिया है.... वो हमेशा घूमता रहता है.... कभी कश्मीर की ठंडी वादियों में होता है और कभी मुल्तान के तपते हुए मैदानों में........ कभी लंका में कभी तिब्बत में........ ”
अमृत कौर की दिलचस्पी बढ़ गई। “मगर ये करता क्या है?”
“गीत इकट्ठे करता है.... हिंदूस्तान के हर हिस्से के गीत.... पंजाबी, गुजराती, मरहटी, पिशावरी, सरहदी, कश्मीरी, मारवाड़ी,.... हिंदूस्तान में जितनी ज़बानें बोली जाती हैं, उन के जितने गीत उसको मिलते हैं इकट्ठे कर लेता है।”
“इतने गीत इकट्ठे करके क्या करेगा।”
“किताबें छापता है, मज़मून लिखता है ताकि दूसरे भी ये गीत सुन सकें। अंग्रेज़ी ज़बान के कई रिसालों में उस के मज़मून छप चुके हैं। गीत इकट्ठे करना और फिर उन को सलीक़े के साथ पेश करना कोई मामूली काम नहीं। वो बहुत बड़ा आदमी है अमृत, बहुत बड़ा आदमी है और देखो उस ने मुझे ख़त कैसा लिखा है।”
ये कह कर जोगिंदर सिंह ने अपनी बीवी को वो ख़त पढ़ कर सुनाया जो हरिंदर नाथ त्रिपाठी ने उस को अपने गांव से डाकखाना के पत्ते से भेजा था। इस ख़त में हरिंदर नाथ त्रिपाठी ने बड़ी मीठी ज़बान में जोगिंदर सिंह के अफ़सानों की तारीफ़ की थी और लिखा था कि आप हिंदूस्तान के तरक़्क़ी पसंद अफ़्साना निगार हैं। जब ये फ़िक़रा जोगिंदर सिंह ने पढ़ा तो बोल उठा। “लो देखो त्रिपाठी साहिब भी लिखते हैं कि मैं तरक़्क़ी पसंद हूँ।”
जोगिंदर सिंह ने पूरा ख़त सुनाने के बाद एक दो सैकिण्ड अपनी बीवी की तरफ़ देखा और असर मालूम करने के लिए पूछा। “क्यों....?”
अमृत कौर अपने ख़ाविंद की तेज़ निगाही के बाइस कुछ झेंप सी गई और मुस्कुरा कर कहने लगी। “मुझे क्या मालूम........ बड़े आदमियों की बातें बड़े ही समझ सकते हैं।”
जोगिंदर सिंह ने अपनी बीवी की इस अदा पर ग़ौर न किया। वो दरअसल हरिंदर नाथ त्रिपाठी को अपने यहां बुलाने और उसे कुछ देर ठहराने की बाबत सोच रहा था। “अमृत, मैं कहता हूँ त्रिपाठी साहिब को दावत देदी जाये, क्या ख़याल है तुम्हारा.... लेकिन मैं ये सोचता हूँ क्या पता है वो इनकार करदे........ बहुत बड़ा आदमी है, मुम्किन है वो हमारी इस दावत को ख़ुशामद समझे।”
ऐसे मौक़ों पर वो बीवी को अपने साथ शामिल कर लिया करता था ताकि दावत का बोझ दो आदमियों में बट जाये। चुनांचे जब उस ने “हमारी” कहा तो अमृत कौर ने जो अपने ख़ाविंद जोगिंदर सिंह की तरह बेहद सादा लौह थी हरिंदर नाथ त्रिपाठी से दिलचस्पी लेना शुरू करदी। हालाँकि उस का नाम ही उस के लिए नाक़ाबिल-ए-फ़हम था और ये बात भी उस की समझ से बालातर थी कि एक आवारागर्द गीत जमा कर कर के कैसे बहुत बड़ा आदमी बन सकता है। जब उस से ये कहा गया था कि हरिंदर नाथ त्रिपाठी गीत जमा करता है तो उसे अपने ख़ाविंद की एक सुनाई हुई बात याद आगई थी कि विलायत में कई लोग तैतरीयाँ पकड़ने का काम करते हैं और यूं काफ़ी रुपया कमाते हैं। चुनांचे उस ने ख़याल किया था कि शायद त्रिपाठी साहिब ने गीत जमा करने का काम विलायत के किसी आदमी से सीखा होगा।
जोगिंदर सिंह ने फिर अपना अंदेशा ज़ाहिर किया। “मुम्किन है वो हमारी इस दावत को ख़ुशामद समझे।”
“इस में ख़ुशामद की क्या बात है। और भी तो कई बड़े आदमी आप के पास आते हैं। आप उन को ख़त लिख दीजीए, मेरा ख़याल है वो आप की दावत ज़रूर क़बूल करलेंगे और फिर उन को भी तो आप से मिलने का बहुत शौक़ है.... हाँ, ये तो बताईए क्या उन की बीवी बच्चे हैं?”
“बीवी बच्चे?” जोगिंदर सिंह ने ख़त का मज़मून अंग्रेज़ी ज़बान में सोचते हुए कहा। “होंगे.... ज़रूर होंगे.... हाँ हैं, मैंने उन के एक मज़मून में पढ़ा था, उन की बीवी भी है और एक बच्ची भी है।”
ये कह कर जोगिंदर सिंह उठा, ख़त का मज़मून इस के दिमाग़ में मुकम्मल हो चुका था। दूसरे कमरे में जा कर उस ने छोटे साइज़ का पेड निकाला जिस पर वो ख़ास ख़ास आदमियों को ख़त लिखा करता था और हरिंदर नाथ त्रिपाठी के नाम उर्दू में दावतनामा लिखा। ये इस मज़मून का तर्जुमा था जो उस ने अपनी बीवी से गुफ़्तुगू करते वक़्त सोच लिया था।
तीसरे रोज़ हरिंदर नाथ त्रिपाठी का जवाब आया। जोगिंदर सिंह ने धड़कते हुए दिल के साथ लिफ़ाफ़ा खोला। जब उस ने पढ़ा कि उसकी दावत क़बूल करली गई है तो उस का दिल और भी धड़कने लगा। उस की बीवी अमृत कौर धूप में अपने छोटे बच्चे के केसों में दही डाल कर मिल रही थी कि जोगिंदर सिंह लिफ़ाफ़ा हाथ में लेकर उस के पास पहुंचा। “उन्हों ने हमारी दावत क़बूल करली, कहते हैं कि वो लाहौर यूं भी एक ज़रूरी काम से आरहे थे.... अपनी ताज़ा किताब छपवाने का इरादा रखते हैं........ और हाँ, उन्हों ने तुम को परिणाम कहा है।”
अमृत कौर इस एहसास से बहुत ख़ुश हुई कि इतने बड़े आदमी ने जिस का काम गीत इकट्ठे करना है उस को परिणाम कहा है। चुनांचे उस ने दिल ही दिल में ख़ुदा का शुक्र अदा किया कि उस का ब्याह ऐसे आदमी से हुआ जिस को हिंदूस्तान का हर बड़ा आदमी जानता है।
सर्दियों का मौसम था। नवंबर के पहले दिन थे। जोगिंदर सिंह सुबह सात बजे बेदार होगया और देर तक बिस्तर में आँखें खोले पड़ा रहा। उस की बीवी अमृत कौर और इस का बच्चा दोनों लिहाफ़ में लेटे पास वाली चारपाई पर पड़े थे जोगिंदर सिंह ने सोचना शुरू किया। त्रिपाठी साहिब से मिल कर उसे कितनी ख़ुशी होगी और ख़ुद त्रिपाठी साहिब को भी यक़ीनन उस से मिल कर बड़ी मुसर्रत हासिल होगी। क्यों कि वो हिंदूस्तान का जवाँ अफ़्क़ार अफ़्साना नवेस और तरक़्क़ी पसंद अदीब है। त्रिपाठी साहिब से वो हर मौज़ू पर गुफ़्तुगू करेगा। गीतों पर देहाती बोलियों पर अफ़सानों पर और ताज़ा जंगी हालात पर.... वो उन को बताएगा कि दफ़्तर का एक मेहनती क्लर्क होने पर भी वो कैसे अच्छा अफ़्साना निगार बन गया। क्या ये अजीब सी बात नहीं कि डाकखाना में चिट्ठियों की देख भाल करने वाला इंसान तबअन आर्टिस्ट हो।
जोगिंदर सिंह को इस बात पर बहुत नाज़ था कि डाकखाना में मज़दूरों की तरह छः सात घंटे काम करने के बाद भी वो इतना वक़्त निकाल लेता है कि एक माहाना पर्चा मुरत्तब करता है और दो तीन पर्चों के लिए हर महीने एक अफ़साना भी लिखता है। दोस्तों को हर हफ़्ते जो लंबे चौड़े ख़त लिखे जाते थे, उन का ज़िक्र अलग रहा।
देर तक वो बिस्तर पर लेटा हरिंदर नाथ त्रिपाठी से अपनी पहली मुलाक़ात की ज़ेहनी तैय्यारीयां करता रहा। जोगिंदर सिंह ने उस के अफ़साने और मज़मून पढ़े थे और उस का फ़ोटो भी देखा था और किसी के अफ़साने पढ़ और फ़ोटो देख कर वो आम तौर पर यही महसूस किया करता था कि इस ने उस आदमी को अच्छी तरह जान लिया है लेकिन हरिंदर नाथ त्रिपाठी के मुआमले में उस को अपने ऊपर एतबार नहीं आता था। कभी उस का दिल कहता था कि त्रिपाठी उस के लिए बिलकुल अजनबी है उस के अफ़्साना निगार दिमाग़ में बाअज़ औक़ात त्रिपाठी एक ऐसे आदमी की सूरत में पेश होता था जिस ने कपड़ों के बजाय अपने जिस्म पर काग़ज़ लपेट रखे हों। और जब वो काग़ज़ों के मुतअल्लिक़ सोचता तो उसे अनारकली की वो दीवार याद आजाती थी जिस पर सिनेमा के इश्तिहार ऊपर तले इतनी तादाद में चिपके हुए थे कि एक और दीवार बन गई थी।
जोगिंदर सिंह बिस्तर पर लेटा देर तक सोचता रहा कि अगर वो ऐसा ही आदमी निकल आया तो उस को समझना बहुत दुशवार हो जाएगा। मगर बाद में जब उस को अपनी ज़ेहानत का ख़याल आया तो उस की मुश्किलें आसान होगईं और वो उठ कर हरिंदर नाथ त्रिपाठी के इस्तिक़बाल की तैयारीयों में मसरूफ़ होगया।
ख़त-ओ-किताबत के ज़रीये से ये तैय होगया था कि हरिंदर नाथ त्रिपाठी ख़ुद जोगिंदर सिंह के मकान पर चला आएगा। क्योंकि त्रिपाठी ये फ़ैसला नहीं कर सका था कि वो लारी से सफ़र करेगा या रेलवे ट्रेन से। बहरहाल ये बात तो क़तई तौर पर तय हो गई थी कि जोगिंदर सिंह सोमवार को डाकखाना से छुट्टी लेकर सारा दिन अपने मेहमान का इंतिज़ार करेगा।
नहा धो कर और कपड़े बदल कर जोगिंदर सिंह देर तक बावर्चीख़ाना में अपनी बीवी के साथ बैठा रहा। दोनों ने चाय देर से पी, इस ख़याल से कि शायद त्रिपाठी आजाए। लेकिन जब वो ना आया तो उन्हों ने केक वग़ैरा सँभाल कर अलमारी में रख दिए और ख़ुद ख़ाली चाय पी कर मेहमान के इंतिज़ार में बैठ गए।
जोगिंदर सिंह बावर्चीख़ाने से उठ कर अपने कमरे में चला आया। आईने के सामने खड़े होकर जब उस ने अपनी दाढ़ी के बालों में लोहे के छोटे छोटे कल्पि अटकाने शुरू किए कि वो नीचे की तरफ़ तअम्मुल हो जाएं तो बाहर दरवाज़ा पर दस्तक हुई। दाढ़ी को वैसे ही ना-मुकम्मल हालत में छोड़कर उस ने डेयुढ़ी का दरवाज़ा खोला। जैसा कि उस को मालूम था सब से पहले उस की नज़र हरिंदर नाथ त्रिपाठी की स्याह घनी दाढ़ी पर पड़ी जो उस की दाढ़ी से बीस गुना बड़ी थी बल्कि इस से भी कुछ ज़्यादा।
हरिंदर नाथ के होंटों पर जो बड़ी बड़ी मूंछों के अंदर छिपे हुए थे मुस्कुराहट पैदा हुई। उस की एक आँख जो क़दरे टेढ़ी थी ज़्यादा टेढ़ी होगई और उस ने अपनी लंबी लंबी ज़ुल्फ़ों को एक तरफ़ झटक कर अपना हाथ जो किसी किसान का हाथ मालूम होता था जोगिंदर सिंह की तरफ़ बढ़ा दिया।
जोगिंदर सिंह ने जब उसके हाथ की मज़बूत गिरिफ़्त महसूस की और उस को त्रिपाठी का वो चरमी थैला नज़र आया जो हामिला औरत के पेट की तरह फूला हुआ था तो वो बहुत मुतअस्सिर हुआ। वो सिर्फ़ इस क़दर कह सका। “त्रिपाठी साहिब आप से मिल कर मुझे बेहद होशी हुई है।”
हरिंदर नाथ त्रिपाठी को आए अब पंद्रह रोज़ हो चुके थे। उस की आमद के दूसरे रोज़ ही उस की बीवी और बच्ची भी आगई थीं। ये दोनों त्रिपाठी के साथ ही गांव से आई थीं मगर दो रोज़ के लिए मज़ंग में एक दूर के रिश्तेदार के हाँ ठहर गई थीं और चूँकि त्रिपाठी ने उस रिश्तेदार के पास उनका ज़्यादा देर तक ठहरना मुनासिब नहीं समझा था इस लिए उस ने उन को अपने पास बुलवा लिया था।
पहले चार दिन बड़ी दिलचस्प बातों में सर्फ़ हुए। हरिंदर नाथ त्रिपाठी से अपने अफ़सानों की तारीफ़ सुन कर जोगिंदर बहुत ख़ुश होता रहा। उस ने एक मुकम्मल अफ़साना जो कि ग़ैर मतबूआ था त्रिपाठी को सुनाया और दाद हासिल की। दो ना-मुकम्मल अफ़साने भी सुनाए जिन के मुतअल्लिक़ त्रिपाठी ने अच्छी राय का इज़हार किया। तरक़्क़ी पसंद अदब पर भी बहसें होती रहीं। मुख़्तलिफ़ अफ़साना निगारों की फ़न्नी कमज़ोरियां निकाली गईं। नई और पुरानी शायरी का मुक़ाबला किया गया। ग़र्ज़कि ये चार दिन बड़ी अच्छी तरह गुज़रे और जोगिंदर सिंह त्रिपाठी की शख़्सियत से बहुत मुतअस्सिर हुआ। उस की गुफ़्तुगू का अंदाज़ जिस में ब-यक-वक़्त बचपना और बुढ़ापा था जोगिंदर को बहुत पसंद आया। उस की लंबी दाढ़ी जो उस की अपनी दाढ़ी से बीस गुना बड़ी थी उस के ख़यालात पर छा गई और उस की काली काली ज़ुल्फ़ें जिन में देहाती गीतों की सी रवानी थी हरवक़्त उस की आँखों के सामने रहने लगीं। डाकखाने में चिट्ठियों की देख भाल करने के दौरान में भी त्रिपाठी की ये ज़ुल्फ़ें उसे न भूलतीं।
चार दिन में त्रिपाठी ने जोगिंदर सिंह को मोह लिया। वो इस का गरवीदा होगया। उस की टेढ़ी आँख में भी उस को ख़ूबसूरती नज़र आने लगी, बल्कि एक बार तो उस ने सोचा। अगर उन की आँख में टेढ़ापन न होता तो चेहरे पर ये बुजु़र्गी कभी पैदा न होती।
त्रिपाठी के मोटे मोटे होंट जब त्रिपाठी की घनी मूंछों के पीछे हिलते तो जोगिंदर ऐसा महसूस करता कि झाड़ियों में परिंदे बोल रहे हैं। त्रिपाठी हौलेहौले बोलता था और बोलते बोलते जब वो अपनी लंबी दाढ़ी पर हाथ फेरता तो जोगिंदर के दिल को बहुत राहत पहुंचती। वो समझता था कि उसके दिल पर प्यार से हाथ फेरा जा रहा है।
चार रोज़ तक जोगिंदर ऐसी फ़िज़ा में रहा जिस को अगर वो अपने किसी अफ़साने में भी बयान करना चाहता तो न कर सकता। लेकिन पांचवीं रोज़ इका एकी त्रिपाठी ने अपना चरमी थैला खोला और उस को अपने अफ़साने सुनाने शुरू किए और दस रोज़ तक वो मुतवातिर उस को अपने अफ़साने सुनाता रहा। इस दौरान में त्रिपाठी ने जोगिंदर को कई किताबें सुना दीं।
जोगिंदर सिंह तंग आगया। अब उस को अफ़सानों से नफ़रत पैदा होगई। त्रिपाठी का चरमी थैला जिस का पेट बनियों की तोंद की तरह फूला हुआ था इस के लिए एक मुस्तक़िल अज़ाब बन गया। हर रोज़ शाम को दफ़्तर से लौटते हुए उसे इस बात का खटका रहने लगा कि कमरे में दाख़िल होते ही उस की त्रिपाठी से मुलाक़ात होगी। इधर उधर की चंद सरसरी बातें होंगी, वो चरमी थैला खोला जाएगा और उस को एक या दो तवील अफ़साने सुना दिए जाऐंगे।
जोगिंदर सिंह तरक़्क़ी पसंद था। ये तरक़्क़ी पसंदी अगर उस के अंदर न होती तो वो साफ़ लफ़्ज़ों में त्रिपाठी से कह देता। “बस........ बस........ त्रिपाठी साहब बस........ बस अब मुझ में आप के अफ़साने सुनने की ताक़त नहीं रही।” मगर वो सोचता “नहीं नहीं........ मैं तरक़्क़ी पसंद हूँ। मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए। दरअसल ये मेरी कमज़ोरी है कि अब उन के अफ़साने मुझे अच्छे नहीं लगते। इन में ज़रूर कोई न कोई ख़ूबी होगी........ इस लिए कि उन के पहले अफ़साने मुझे ख़ूबीयों से भरे नज़र आते थे.... मैं.... मैं.... मुतअस्सिब होगया हूँ।”
एक हफ़्ते से ज़्यादा अर्से तक जोगिंदर सिंह के तरक़्क़ी पसंद दिमाग़ में ये कश्मकश जारी रही और वो सोच सोच कर इस हद तक पहुंच गया जहां सोच बिचार हो ही नहीं सकता। तरह तरह के ख़याल उस के दिमाग़ में आते मगर वो उन की ठीक तौर पर जांच पड़ताल न कर सकता। उस की ज़ेहनी अफ़रातफ़री आहिस्ता आहिस्ता बढ़ती गई और वह ऐसा महसूस करने लगा कि एक बहुत बड़ा मकान है जिस में बेशुमार खिड़कियां हैं। इस मकान के अंदर वो अकेला है। आंधी आगई है कभी इस खिड़की के पट बजते हैं, कभी उस खिड़की के, और उस की समझ में नहीं आता कि वो इतनी खिड़कियों को एक दम बंद कैसे करे।
जब त्रिपाठी को उस के यहां आए बीस रोज़ होगए तो उसे बेचैनी महसूस होने लगी। त्रिपाठी अब शाम को नया अफ़साना लिख कर जब उसे सुनाता तो जोगिंदर को ऐसा महसूस होता कि बहुत सी मक्खियां उस के कानों के पास भिनभिना रही हैं। वो किसी और ही सोच में ग़र्क़ होता।
एक रोज़ त्रिपाठी ने जब उस को अपना ताज़ा अफ़साना सुनाया जिस में किसी औरत और मर्द के जिन्सी तअल्लुक़ात का ज़िक्र था तो ये सोच कर उस के दिल को धक्का सा लगा कि पूरे इक्कीस दिन अपनी बीवी के पास सोने के बजाय वो एक लिम डढ़ील के साथ एक ही लिहाफ़ में सोता रहा है। इस एहसास ने जोगिंदर के दिल-ओ-दिमाग़ में एक लम्हा के लिए इन्क़िलाब बरपा कर दिया। “ये कैसा मेहमान है कि जोंक की तरह चिमट कर ही रह गया है। यहां से हिलने का नाम ही नहीं लेता.... और.... और.... मैं उन की बीवी साहबा को तो भूल ही गया था और उनकी बच्ची.... सारा घर उठ कर यहां चला आया है। ज़रा भर ख़याल नहीं कि एक ग़रीब आदमी का कचूमर निकल जाएगा.... मैं डाकखाने में मुलाज़िम हूँ सिर्फ़ पच्चास रुपय माहवार कमाता हूँ, आख़िर कब तक उन की ख़ातिर तवाज़ो करता रहूँगा और फिर अफ़साने.... उस के अफ़साने जो कि ख़त्म होने ही में नहीं आते। मैं इंसान हूँ। लोहे का ट्रंक नहीं हूँ जो हर रोज़ उस के अफ़साने सुनता रहूं.... और किस क़दर ग़ज़ब है कि मैं अपनी बीवी के पास तक नहीं गया........ सर्दियों की ये रातें ज़ाए तो हो रही हैं।”
इक्कीस दिनों के बाद जोगिंदर त्रिपाठी को एक नई रोशनी में देखने लगा। अब उस को त्रिपाठी की हर चीज़ मायूब नज़र आने लगी। उसकी टेढ़ी आँख जिस में जोगिंदर पहले ख़ूबसूरती देखता था अब सिर्फ़ एक टेढ़ी आँख थी। उसकी काली ज़ुल्फ़ों में भी अब जोगिंदर को वो मुलाइमी दिखाई नहीं देती थी और उस की दाढ़ी देख कर अब वो सोचता था कि इतनी लंबी दाढ़ी रखना बहुत बड़ी हिमाक़त है।
जब त्रिपाठी को इस के यहां आए पच्चीस दिन होगए तो एक अजीब-ओ-ग़रीब कैफ़ीयत इस के ऊपर तारी होगई। वो अपने आप को अजनबी समझने लगा, उसे ऐसा महसूस होने लगा जैसे वो कभी जोगिंदर सिंह को जानता था मगर अब नहीं जानता। अपनी बीवी के मुतअल्लिक़ वो सोचता “जब त्रिपाठी चला जाएगा और सब ठीक हो जाएगा तो मेरी नए सिरे से शादी होगी.... मेरी वो पुरानी ज़िंदगी जिस को टाट के तौर पर ये लोग इस्तिमाल कर रहे हैं फिर ओद कर आएगी.... मैं फिर अपनी बीवी के साथ सौ सकूँगा.... और.... और.... ”
इस के आगे जब वो सोचता तो जोगिंदर सिंह की आँखों में आँसू आ जाते और उस के हलक़ में कोई तल्ख़ सी चीज़ फंस जाती। इस का जी चाहता कि दौड़ा दौड़ा अंदर जाये और अमृत कौर को जो कभी उस की बीवी हुआ करती थी अपने गले से लगाले और रोना शुरू करदे। मगर ऐसा करने की हिम्मत उस में नहीं थी क्योंकि वो तरक़्क़ी पसंद अफ़्साना निगार था।
कभी कभी जोगिंदर सिंह के दिल में ये ख़याल दूध के उबाल की तरह उठता कि तरक़्क़ी पसंदी का लिहाफ़ जो उस ने ओढ़ रखा है उतार फेंके और चिल्लाना शुरू कर दे। “त्रिपाठी, तरक़्क़ी पसंदी की ऐसी तैसी। तुम और तुम्हारे इकट्ठे किए हुए गीत सब बकवास हैं........ मुझे अपनी बीवी चाहिए........ तुम्हारी ख्वाहिशें तो सारी गीतों में जज़्ब हो चुकी हैं मगर मैं अभी जवान हूँ.... मेरी हालत पर रहम करो.... ज़रा ग़ौर तो करो मैं जो एक मिनट अपनी बीवी के बग़ैर नहीं रह सकता था पच्चीस दिनों से तुम्हारे साथ एक ही लिहाफ़ में सौ रहा हूँ.... क्या ये ज़ुल्म नहीं।”
जोगिंदर सिंह बस घोल के रह जाता। त्रिपाठी उस की हालत से बेख़बर हर रोज़ शाम को उसे अपना ताज़ा अफ़साना सुना देता और उसके साथ लिहाफ़ में सौ जाता। जब एक महीना गुज़र गया तो जोगिंदर सिंह का पैमाना-ए-सब्र लबरेज़ होगया। मौक़ा पा कर ग़ुसलख़ाने में वो अपनी बीवी से मिला। धड़कते हुए दिल के साथ इस डर के मारे कि त्रिपाठी की बीवी न आजाए उस ने जल्दी से उस का यूं बोसा लिया जैसे डाकखाना में लिफाफों पर महर लगाई जाती हो और कहा। “आज रात तुम जागती रहना। मैं त्रिपाठी से ये कह कर बाहर जा रहा हूँ कि रात के ढाई बजे वापस आऊँगा। लेकिन मैं जल्दी आजाऊँगा। बारह बजे.... पूरे बारह बजे, मैं हौलेहौले दस्तक दूंगा तुम चुपके से दरवाज़ा खोल देना और फिर हम.... डेयोढ़ी बिलकुल अलग थलग है। लेकिन तुम एहतियात के तौर पर वो दरवाज़ा जो गुसलखाना की तरफ़ खुलता है बंद कर देना।”
बीवी को अच्छी तरह समझा कर वो त्रिपाठी से मिला और उस से रुख़स्त लेकर चला गया। बारह बजने में चार सर्द घंटे बाक़ी थे जिन में से दो जोगिंदर सिंह ने अपनी साईकल पर इधर उधर घूमने में काटे। उस को सर्दी की शिद्दत का बिलकुल एहसास न हुआ इस लिए कि बीवी से मिलने का ख़याल काफ़ी गर्म था।
दो घंटे साईकल पर घूमने के बाद वो अपने मकान के पास मैदान में बैठ गया। और महसूस करने लगा कि वो रूमानी होगया है। जब उस ने सर्द रात की धुंदयाली ख़ामोशी का ख़याल किया तो उसे ये एक जानी पहचानी चीज़ मालूम हुई। ऊपर ठिठुरे हुए आसमान पर तारे चमक रहे थे जैसे पानी की मोटी मोटी बूंदें जम कर मोती बन गई हैं। कभी कभी रेलवे इंजन की चीख़ ख़ामोशी को छेड़ देती और जोगिंदर सिंह का अफ़साना निगार दिमाग़ ये सोचता कि ख़ामोशी बहुत बड़ा बर्फ़ का ढीला है और सीटी की आवाज़ मेख़ है जो उस के सीने में खुब गई है।
बहुत देर तक जोगिंदर एक नए क़िस्म के रोमान को अपने दिल-ओ-दिमाग़ में फैलाता रहा और रात की अंधयारी ख़ूबसूरतियों को गिनता रहा। इका एकी इन ख़यालात से चौंक कर उस ने घड़ी में वक़्त देखा तो बारह बजने में दो मिनट बाक़ी थे। उठ कर उस ने घर का रुख़ किया और दरवाज़े पर हौले से दस्तक दी। पाँच सैकिण्ड गुज़र गए, दरवाज़ा न खुला। एक बार उस ने फिर दस्तक दी।
दरवाज़ा खुला, जोगिंदर सिंह ने हौले से कहा। “अमृत.... ” और जब नज़रें उठा कर उस ने देखा तो अमृत कौर के बजाय त्रिपाठी खड़ा था। अंधेरे में जोगिंदर सिंह को ऐसा मालूम हुआ कि त्रिपाठी की दाढ़ी इतनी लंबी हो गई है कि ज़मीन को छू रही है। उस को फिर त्रिपाठी की आवाज़ सुनाई। “तुम जल्दी आगए.... चलो ये भी अच्छा हुआ मैं ने अभी अभी एक अफ़साना मुकम्मल किया है.... आओ सुनो।”