तअपोइ : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Tapoi : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
ओड़िआ सौदागरों के बीच नामजादा वणिक और सात जहाज़ों का मालिक तनयवंत की तरह अमीर उमराव उस इलाक़े में कोई और नहीं था। उसके परिवार में पत्नी शकुंतला, सात बेटे, सात बहू और इकलौती बेटी तअपोइ थी। माता-पिता व भाइयों की लाड़ली तअपोइ की बात को कोई नहीं टालता था। लाड़-दुलार का यह आलम था कि वह रूठ जाती तो पूरा घर हिल जाता। वह दूध-मलाई खाती और सोने-चाँदी से खेलती थी।
मंत्री की बेटी उसकी सहेली थी। दूसरे सौदागरों की बेटियों में कोई उसकी सखी थी तो कोई मीता, कोई आली थी तो कोई गुइयाँ। सहेलियों के साथ वह कभी कौड़ी से खेलती तो कभी झूला झूलती। कभी 'पुची' (ओड़िशा में लड़कियों के बीच प्रचलित एक खेल) खेल में मग्न हो जाती। पर मिट्टी में खेलना उसे ज़्यादा सुहाता था। मिट्टी का चूल्हा बनाकर झूठमूठ का खाना बनाती, कोचई के पत्तों में खाना परोसकर झूठमूठ का खाती तो कभी टोकरी, सूपा लेकर खेलती। एक दिन ऐसे ही वह खेल रही थी कि तभी एक बूढ़ी वहाँ आई। तअपोइ को इस तरह खेलते देखकर मुँह बनाकर बोली, इतने बड़े घर की बेटी होकर बाँस की टोकरी और सूप लेकर खेल रही हो? मैं तुम्हारी तरह बड़े घर की होती तो सोने के सूप से खेलती, सोने से बने चाँद के लिए पिता-भाइयों के पास ज़िद करती। अरी, तेरे पास किस चीज़ की कमी है भला? फिर भी ना जाने क्यों तू ऐसे खिलौने से खेल रही है, जैसे तू कोई अनाथ है?
उसकी बात सुनकर तअपोइ का मन उदास हो गया। वह न नहाई और ना ही खाना खाया। जाकर रत्नपलंग पर मुँह ढाँपकर सो गई। बाबा ने पास जाकर पुकारा, क्यों रूठी हो बेटी? जाकर नहा लो। किस बात की कमी हो गई तुझे? किसने तुझे मारा? किसने डाँटा? पर तअपोइ ने कुछ न कहा।
माँ ने पूछा, क्या हुआ बेटी? खो गया है कुछ, तो ढूँढ़वा दूँगी, टूट गया है तो गढ़वा दूँगी। तू बता तो सही। पर तअपोइ ने माँ की बात का भी कुछ जवाब नहीं दिया।
भाइयों ने मनाया, भाभियों ने मनाया, आख़िर में सबसे छोटी भाभी नीलेंदी ने पुकारा। कहा, “अपने सारे गहने दे दूँगी, जो भी माँगोगी दूँगी। तुम्हें सात बार मेरी क़सम है, आकर खाना खा लो।
सातों भाभियों के साथ तअपोइ की ख़ूब पटती थी। वह रुआँसी आवाज़ में बोली, चारों तरफ़ हीरा लगा हुआ सोने का चाँद अगर बनवाकर दोगे तभी उठूँगी। नहीं तो बिना खाए-पिए ऐसे ही पलंग पर पड़े-पड़े कमज़ोर होकर मर जाऊँगी।
नीलेंदी ने कहा, क्या नहीं है हमारे घर में? इतनी छोटी सी बात के लिए तू रूठ गई? चल उठ। तअपोइ उठकर आई।
तनयवंत ने दूसरे दिन सुनारों को बुलाकर सोने का चाँद बनाने के लिए कहा। बड़े छतरी के आकार का चाँद बनवाने में काफ़ी सोना लगा। पर काल से सहा न गया। चाँद आधा बना था, तभी पिता का दहांत हो गया। चारों तरफ़ हीरे की गोटी लगाकर खाँटी सोने का चाँद तैयार हुआ। काम पूरा हुआ, तब तक माँ परलोक सिधार गई। ख़ूब धूम-धाम से श्राद्ध का कार्य पूरा हुआ। घर की सारी व्यवस्था करके तअपोइ के भाई व्यापार करने निकले। तअपोइ की भाभियों से उसकी हर पल देखभाल करने का तक़ाज़ा किया। उसके पैरों में जैसे एक भी काँटा न चुभे, इसका ध्यान रखने के लिए कहा। उसकी माँ नहीं है, बाबा नहीं है, हम भी विदेश जा रहे हैं व्यापार करने के लिए, यानी अभी यहाँ उसका सगा कोई नहीं है, इसलिए ध्यान रखना कि वह रोए नहीं, उदास ना हो। उसका सारा इंतज़ाम ख़ूब अच्छे से करना। उसके लिए फूल गूँथ देना, उसकी चोटी बना देना, ना खाए तो खिला देना, न पिए तो पिला देना। कहानी बोलकर सुलाना, झूले में झुलाना।
सौदागर के लड़कों ने विदा लेने से पहले सबसे पूछा, कहो, किसके लिए क्या लेकर हम आएँ?
बड़ी बोली, मेरे लिए रत्न जड़े सोने का कंगन लाना। दूसरी बोली, मेरे लिए नथनी लाना। इसी तरह किसी ने अष्टरत्न तारा लाने के लिए तो किसी ने हीरे का कान का झुमका तो किसी ने सिंहल का मोती का हार मँगाया। जावा द्वीप से पन्ने के कान की बाली किसी ने मँगाई तो किसी ने बालिद्वीप की काले सिल्क की साड़ी मँगाई। इस तरह जिसका जो मन चाहा मँगाया। आख़िर में तअपोइ बोली, मेरे लिए हीरे की गुड़िया और हाथी दाँत के पिंजरे में बैठी पद्मराग की चिड़िया लाना।
जहाज़ पर मंगला माता की पूजा की गई। दूब, बेर का पत्ता, अरूआ चावल और घी के दीये से बहुओं ने वणिक के बेटों को बिदा किया। शंख-शहनाई बज उठी। पुरुषों के हरिबोल और औरतों के नंदिघोष से पूरा परिवेश गूंज उठा। एक-एक करके जहाज़ समुद्र में उतरने लगे। मंगल यात्रा के समय रोना नहीं चाहिए, फिर भी अनजाने ही बूँद-बूँद आँसू आँखों से झरने लगे। सबको विदा करके वणिक बहुएँ घर को लौटीं।
भाइयों के जाने के बाद तअपोइ की देखभाल में भाभियों ने कोई कमी नहीं रखी। मलाई, मक्खन, पिन्नी, पंजीरी, पनीर खाने में तअपोइ ना-नुकार करती। थोड़ी-सी भी धूप में उसका शरीर मुरझा जाता। मोगरे के फूल से भी कोमल उसके तन पर निशान पड़ जाते। शिरीष फूल की तरह कोमल, शिशु हिरण की तरह चपल थी वह। भाभियों की बाँहों के झूले में सखी-सहेलियों के मेल में उसके दिन बीत रहे थे। पर नियति से उसका इतना सुख, इतना प्यार देखा नहीं गया।
एक दिन एक बूढ़ी भिखारिन द्वार पर आकर गुहार लगाने लगी। माँ एक मुट्ठी भीख मिल जाए पुकारते-पुकारते बूढ़ी का गला बैठ गया। पर कोई भी भीख लेकर बाहर नहीं आया। ऐसा क्यों? जब घर-संसार है तो कामों का झंझट भी लाख है, ऐसे में फ़ुरसत किसे है जो भीख दे जाए? आख़िर में बड़ी बहू भीख लेकर आई।
भिखारिन ने कहा, अब तक क्या कर रही थी?
बड़ी बहू बोली, अरी! किसे फ़ुरसत है? घर-परिवार है तो कितने काम हैं। उस पर ननद का नख़रा ऐसा कि राजकुमारी के ठसके पर भी भारी पड़े।
भिखारिन बोली, कौन है तुम्हारी ननद? उसके इतने नाज़-नख़रे क्यों उठा रहे हो तुम लोग? अरी, जितना भी कर लो उसके लिए, बदले में तुम लोगों को मिलेगा क्या? भाइयों के सामने वह तुम्हारे विरुद्ध जाने कितनी लाई-लुतरी लगाएगी, तुम्हारे नाक-कान मोड़ेगी। अरी, वक़्त रहते ही कुछ उपाय कर लो। जैसा भी हो, है तो वह तुमसे छोटी ही। फिर क्यों तुम सब उसके लिए चंदन घिसोगी, फूल गूँथोगी, झूला झुलाओगी? उसे बकरी चराने भेजो। बाघ खा जाए, चाहे साँप डस ले, काँटा जड़ से ही निकल जाएगा। उसके भाइयों से कह देना कि बीमार थी, मर गई।
बड़ी बहू के मन को भिखारिन की बात भा गई। उसने अपनी देवरानियों को समझाया। तअपोइ का झूला निकाल दिया। उसके गले से फूलों का हार तोड़कर फेंक दिया। माथे से चंदन की बिंदी पोंछ दी और उसे फटे-पुराने कपड़े पहनाकर कहा, जा बकरियों को चराने ले जा। देख, घरमणि बकरी सब बकरियों में श्रेष्ठ है, वह खो जाएगी तो तेरे भाग फूट गए जानना। तेरे एक गाल में कालिख एक गाल में चूना पोतकर, नाक-कान काटकर जंगल में छोड़ दूँगी।
उसके दूसरे दिन तअपोइ बकरियों को लेकर रोते-रोते जंगल में गई। बड़ी बहू ने पत्तल में भात रखकर, गुहाल पोंछने वाले कपड़े में बाँधकर उसे दिया कि बकरी चराते भूख लगेगी तो वहीं जंगल में खा लेगी।
तेज़ धूप में तअपोइ को अपना शरीर जलता हुआ लगा। भूख से उसका पेट जलने लगा। खाने के लिए उसने जब पोटली खोली तो चूहे के बिल की मिट्टी में सने हुए भात के कुछ दानों को देखकर बिना खाए रोते-रोते पेड़ के नीचे सो गई।
दूसरे दिन उसकी दूसरी भाभी ने उसे खाना बाँधकर दिया। उसने भी वही चूहे के बिल की मिट्टी-राख और थोड़ा भात मिलाकर पोटली बाँध दी।
तीसरे दिन भी वही बात दुहराई गई। ऐसा करते-करते छह दिन बीत गए। सातवें दिन छोटी भाभी नीलेंदी ने ख़ुशबूदार चावल का भात, छह तरह की तरकारी और नौ तरह की भुजिआ बनाकर पोटली में बाँधकर दिया। तअपोइ ने उसमें से थोड़ा खाया और बाक़ी बचाकर रख लिया। इस तरह से उसके दिन बहुत दुःख-तकलीफ़ से बीतने लगे।
एक दिन हुआ यूँ कि घरमणि बकरी कहीं खो गई। आँधी-तूफ़ान में कहीं चली गई और तअपोइ को मिली नहीं। रात में बड़ी भाभी जब बकरियों को गिनने गई तो देखा कि 'घरमणि' नहीं है। उसने चिल्लाकर पूछा कि, कहीं छुपाकर रखी है या बेच दी? ला रुपया ला। नहीं तो तेरा लाड़-प्यार सब छुड़ा दूँगी। देखूँगी कौन भाई या पिता तुम्हें बचाने आते हैं।
इतना कहकर बड़ी भाभी तअपोइ की नाक काटने के लिए छुरा ढूँढ़ने लगी। तअपोइ जान बचाकर भागी। नदी के किनारे, पहाड़ की तलहटी में, झाड़-झंखाड़ में ढूँढ़ते हुए 'घरमणि' का नाम लेकर बहुत पुकारा, पर वह नहीं आई। माँ मंगला को याद करके फिर से पुकारा “घरमणि' आ जा।” तभी घरमणि मिमियाई—में...में...
'घरमणि' को सहलाते-पुचकारते तअपोइ घर वापस ले आई। बड़ी बहू का ग़ुस्सा थोड़ा शांत हुआ, पर उसने तअपोइ को खाना नहीं दिया। छोटी भाभी छुपाकर कुछ खाने को दे गई, उसी को खाकर उसकी जान में जान आई। उसके दूसरे दिन बकरियों के झुंड को लेकर तअपोइ फिर जंगल की तरफ़ गई। बड़ी भाभी ने फिर वही मिट्टी-राख भरा भात उसे दिया। तअपोइ ने रास्ते में ही भात को फेंक दिया और रोने लगी
पिता मरे आधा चाँद बनने पर
माँ मरी पूरा चाँद बनने पर
सातों भाई गए व्यापार करने
भाभी नार ने दिए कष्ट अनेक
तअपोइ रोई, दिनभर रोई, उसके दुःख में वन के पेड़-पौधे रोए, पशु-पक्षी रोए। चारों तरफ़ रोने का स्वर गूँजने लगा। आधी रात को सातों भाइयों का जहाज़ किनारे आकर लगा। उन्होंने रोने की आवाज़ सुनी। इतनी रात में कौन रो रहा है? किस पर विपदा पड़ी? सब सोचने लगे। आवाज़ का पीछा करते हुए छोटा भाई तअपोइ के पास पहुँचा। “तू कौन है? ऐसे क्यों रो रही है? उसने पूछा।
तअपोइ बोली, “बाघ या साँप कोई भी मुझे नहीं मार रहे हैं। मैं बहुत अभागिन हूँ।
छोटा भाई बोला, तू क्यों मरना चाहती है?
तअपोइ बोली, पिता आधा चाँद बनने पर मरे, माता मरी पूरा चाँद बनने पर। भाई गए व्यापार करने, भाभियों ने दिया दुःख अनेक, तो फिर मैं क्यों ज़िंदा रहूँ?
उसकी बात सुनकर छोटे भाई ने पूछा, “क्या तू तअपोइ है? तेरे भाग में फिर इतना दुःख बदा था! हम सात भाई व्यापार करके अभी लौटे हैं। चल तू हमारे पास चल।
तअपोइ को लेकर छोटा भाई जहाज़ के पास पहुँचा। जहाज़ में दीया जल रहा था। भाइयों ने देखा कि बहन के शरीर में काँटे चुभे हुए हैं। रो-रोकर आँखें सूख गई हैं। जाने कब से सिर पर तेल नहीं लगा है। बालों का रंग भूरा हो गया है। तन पर फटे-पुराने कपड़े हैं। भाइयों को यह बात भला कैसे गवारा होती? सब ग़ुस्से से आगबबूला हो गए। विदेश में ख़रीद-फ़रोख़्त करते वक़्त हमेशा आँखों के सामने तअपोइ का ही चेहरा तैरता रहता था।
सातों भाइयों ने अपनी-अपनी पत्नियों को ख़बर भिजवाई कि जहाज़ की आरती-वंदना करने के लिए तअपोइ को साथ लेकर नदी के किनारे पहुँचें।
सातों बहू पूजा की थाल लेकर आईं। भाइयों ने पूछा, तअपोइ कहाँ है?
बड़ी बहू बोली, “उसके सिर में दर्द है, इसलिए साथ नहीं आ पाई।
सातों भाई बोले, जहाज़ पर माँ मंगला विराजमान है, जाकर उनकी पूजा-अर्चना करो।
तअपोइ नहा-धोकर लाल सिल्क की ज़रदोज़ी साड़ी और गहने पहनकर सजी- धजी बैठी थी। वह इस रूप में माँ मंगला जैसी दिख रही थी। उसके हाथ में एक तेज़ धार वाला छुरा था। पहले बड़ी भाभी आरती उतारने आई, तब तअपोइ ने उसकी नाक काट ली। इस तरह से छह भाभियों की नाक उसने काट दी। आख़िर में छोटी भाभी आई। तअपोइ ख़ुशी से उससे लिपट गई और उसके गले में रत्न का हार पहनाकर बोली, “आपके कारण मेरी जान बची। आप ही मेरी माँ हैं।”
छह भाभियों की नाक से झर-झर ख़ून बह रहा था। कटी नाक लेकर किसे मुँह दिखातीं? शर्म से सब जंगल की तरफ़ चली गईं। वहाँ था महाबली बाघ। वह एक-एक करके छह बहुओं को खा गया। कुछ दिन बाद बिरंचि नाम के एक व्यापारी के साथ तअपोइ का विवाह हुआ। तअपोइ राजझूले में बैठी। उसके सिर पर वही सोने से बने चाँद वाली छतरी टाँगी गई। बहुत सम्मान के साथ ढेर सारा दान-दहेज़ लेकर तअपोइ अपने ससुराल गई।
मेरी कहानी यहीं ख़त्म हुई।
(साभार : अनुवाद : सुजाता शिवेन, ओड़िशा की लोककथाएँ, संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र)