टपके का डर : हरियाणवी लोक-कथा
Tapke Ka Dar : Lok-Katha (Haryana)
टपके का डर-एक था धोबी, मस्तराम। मस्तराम केवल नाम का ही मस्तराम नहीं था बल्कि तबियत का भी मस्तराम था। अफीम का अँटा चढ़ाता तो कभी किसी छायादार पेड़ के नीचे सोता तो सोता ही रह जाता। कभी निखट्ट लोगों के साथ ताश खेलता तो खेलता ही रह जाता। अब आप जानते हैं कि जैसे राजा के साथ रानी होती है, वैसे ही धोबी के साथ उसकी धोबिन रहती है। मस्तराम धोबी की धोबिन का नाम करमो था। जो शायद कर्मवती का बिगड़ा हुआ रूप था। इस तरह मस्तराम नाम, रूप, गुण और स्वभाव से मस्त था। उसी तरह करमों भी अपने नाम के अनुरूप बड़ी कर्मठ धोबिन थी। लोगों के घरों से मैले-कुचौले कपड़े इकट्ठा करना और अपने सुस्त गधे पर उनकी गठरी बाँधकर, उन्हें धोबी-घाट लेकर जाना। वहाँ बड़ी मेहनत से कपड़े धोना, नील देकर उनको सुखाना इत्यादि सारा काम वह अकेली ही कर डालती थी। यहाँ तक कि ग्राहकों के घर धुले हुए कपड़े पहुँचाना भी उसका ही काम था।
मस्तराम तो किसी तीज-त्योहार पर ग्राहकों से बख्शीश के नाम पर पैसे लेने के लिए पहुँच जाता था। इस अफीम की बीमारी को छोड़कर वह भला मानस था। उसने करमों को कभी कोई कष्ट नहीं पहुँचाया था। जो गरमी का मौसम दुनिया-जहान के लिए जानलेवा होता है, वहीं गर्मियों का मौसम धोबियों कि लिए प्रकृति के आशीर्वाद जैसा होता है। गर्मी के मौसम में पानी में खड़े रहकर काम करने से गर्मी नहीं लगती। कपड़े जल्दी सूखते हैं। दिन बड़े होते हैं इसलिए दोपहर सुस्ताने का वक्त भी मिल जाता है। सर्दी में धोबी दुखी रहते हैं। एक तो कपड़े कम धुलने आते हैं, ऊपर से सूखने में कई दिन लग जाते हैं, परन्तु बरसात का मौसम तो धोबियों के लिए कमबख्ती का मौसम होता है। कपड़े धोकर सुखाए नहीं कि बरसात आ गई। न केवल कपड़े मैले हो जाते हैं अपितु उन्हें दोबारा भी धोना पड़ता है और इस वजह से ग्राहकों की झाड़ भी सुननी पड़ती है कि कपड़े गीले हैं, साफ भी नहीं धुले हैं, और समय पर नहीं पहुँचाए गए हैं।
बात इसी बरसात के मौसम की है। धोबी और धोबिन कस्बे से बाहर झोपड़ी में रहते थे। तीन दिन से बरसात की झड़ी लगी थी। झोपड़ी की छत टपक रही थी। करमों सूखते कपड़ों को कभी इस कोने तो कभी उस कोने में डालती। अपनी किस्मत, मस्तराम तथा बरसात तीनों को कोसते हुए बड़बड़ा रही थी। उधर चूंकि झोपड़ी गाँव से बाहर थी। बरसात की वजह से जंगल के सारे जानवर अपने-अपने बिलों में दुबके पड़े थे। एक शेर जो तीन दिनों से भूखा था, वह शिकार की तलाश में कस्बे की तरफ निकल आया था। शायद किसी बाड़े से कोई पशु चुराकर पेट भरे। जिस समय शेर करमों की झोंपड़ी के बाहर पहुँचा, अंदर करमों बड़बड़ा रही थी कि हे राम! मैं शेर से उतना नहीं डरती, जितना इस टपके से डरती हूँ। यह सुनकर बाहर खड़े शेर के कान खडे हो गए। क्योंकि वह अब तक स्वयं को जंगल का सबसे भयंकर जीव मानता था। अब शेर सोच रहा था कि यह टपका क्या बला है? रात उतर आई थी, अँधेरा हो चला था। अपने मस्तराम को भी अफीम का नशा हल्का होने से घर की याद आ गई थी। अतः वह घर की और लौट रहा था और करमों अंदर से बड़बड़ा रही थी कि मैं शेर से नहीं डरती, जितना इस टपके से डरती हूँ। बाहर शेर असमंजस में घबराया खड़ा था कि यह टपका क्या बला है? उधर अफीम की आधी-अधूरी पिनक में मस्तराम ने शेर को झोपड़ी के बाहर खड़ा देखकर मन ही मन कहा कि करमों भी बड़ी बेवकूफ है जो बरसात में गधे को बाहर ही छोड़ दिया। उसने आगे बढ़कर शेर का कान पकड़ा और कहा, “चल बेटे अंदर” शेर घबराया हुआ तो पहले ही था। उसने सोचा यही टपका होगा। वह मुझसे बहादुर है, वरना तो डरकर दूर भाग जाता। उधर मस्तराम ने शेर को पेड़ के नीचे खूटे से बाँध दिया और जाकर अपनी टपकती कोठरी में सो गया। सवेरा होने पर मस्तराम सोया हुआ था, परन्तु लोगों ने जब शेर को मस्तराम की झोंपड़ी के बाहर देखा तो भीड़ इकट्ठी हो गई।
लोग बड़े अचंभित थे कि यह कौन बहादुर है, जिसने इस नरभक्षी को इस तरह बाँध दिया? कस्बे के लोग इस नरभक्षी से काफी घबराए हुए थे क्योंकि वह कई बच्चे और जानवर उठा ले गया था। कस्बे के राजा ने भी इस नरभक्षी को मारने के लिए इनाम की घोषणा कर रखी थी। शेर सुनकर मस्तराम बाहर आया और भीड़ को धमकाने लगा, “भागो क्या शेर-शेर कर रखा है? लोग मस्तराम की जय-जयकार करते हुए, उसे कंधों पर उठाकर राजा के पास ले गए। राजा ने न केवल मस्तराम को इनाम दिया बल्कि शेर को चिडियाघर में पहुँचाकर मस्तराम को अपना सिपहसालार भी रख लिया।
मस्तराम अब और भी मस्त रहने लगा। जैसा कि उस जमाने का रिवाज था। पड़ोसी राजा ने मस्तराम के राजा पर चढ़ाई कर दी। मस्तराम जो कि अब सेनापति था, उसको कहा गया कि वह जाकर शत्रु सेना का मुकाबला करे। मस्ती मारते हुए मस्तराम के अब पसीने छूटने लगे, उसने करमों से कहा कि चलो रातों-रात भाग चलते हैं, परन्तु करमों ने उसे फटकार लगाई कि इस तरह नाम डुबोने से तो मरना अच्छा। तुम सो जाओ, मैं कोई जुगत लगाऊँगी। सुबह उसने सेनापति मस्तराम को सेनापति की पोशाक और हरबे पहनाए और उसके दोनों पाँव घोड़े के पेट के नीचे बाँध दिए। जैसे ही मस्तराम सेना के आगे-आगे चला, घोड़े को एड़ लगाई। घोड़ा पैर पेट से बँधे होने के कारण घबरा गया था और जोर से भागकर शत्रु सेना के नजदीक जा पहुँचा। स्वयं को अकेला जानकर मस्तराम और भी घबरा गया। रास्ते में दीमक लगा एक ठूँठ खड़ा था। घबराकर मस्तराम ने उस लूंठ को पकड़ लिया। दूँठ क्योंकि खोखला और हलका था। अतः जड़ से उखड़कर वह मस्तराम के हाथ में आ गया। शत्रु की सेना यह सब देख रही थी। वह सोचने लगी कि जो पेड़ को जड़ से उखाडकर लडने आ रहे हैं. उनसे मुकाबला कैसे करेंगे और शत्रु-सेना पीठ दिखाकर भाग गई। उधर ठूँठ मस्तराम के हाथ से छूटा और घोड़ा थक गया। उसके अपने सैनिक उसे घेर कर जय-जयकार करते हुए, उसे राजा के पास ले आए। राजा ने मस्तराम का बहुत सम्मान किया और उसने इनाम माँगने को कहा।
मस्तराम हाथ जोड़कर बोला, “महाराज, अब मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूँ, अतः अब मुझे सेवानिवृत कर दें। और इस तरह इनाम और पेंशन लेकर मस्तराम टपके की कृपा से आनंद का जीवन बिताने लगा।
(डॉ श्याम सखा)