तन्हा-तन्हा (कहानी) : इस्मत चुग़ताई

Tanha-Tanha (Story in Hindi ) : Ismat Chughtai

“अच्छा रशीद?"
“उफ! तौबा करो!"
"नईम?"
“बालिश्तिया!"
"मगर बाप की ढेरों जायदाद..."
“मगर डार्लिंग, मैं पाँच इंच की हील पहनती हूँ।"
“अच्छा, अच्छा, मगर दिलशाद मिर्जा..."

“मम..." शहज़ाद के गुलाबी होंठ भीग गए। काली-काली पुतलियाँ सिमटीं और फैल गई। एक चुलबुली शोख़ लट ने फिसलकर बाएँ गाल को चूम लिया। मुँहज़ोर उमंगों ने उसूलों का एक पल के लिए दौराने-खून रोक दिया। दिलशाद मिर्जा का छह फ़ीट दो इंच का क़द पाँच इंच की हील के बावुजूद कुतुब मीनार की बुलन्दी की तरह जेह्न पर छा गया। फिर मीनार ने अनगिनत बाँहें फैलाकर उसके पिघलने, एहसासे-सुपुर्दगी से मगलूब वुजूद को समेटकर पी लिया। उबटन और ताज़ा पिसी हुई मेहँदी की महक नपाक के डबल पैग की तरह दिमाग में चढ़ गई। शहनाइयों के सुर पर नागिन मस्त होकर झूम उठी।

मगर दूसरे ही लम्हे उसने उस मदहोशकुन समन्दर की तह पर ऊँची एड़ियों से ठोकर मारी और तीर की तरह सतह पर उभर आई। उसने चंचल लट को गाल पर से नोचकर जूड़े में उड़स दिया। हाथ की पुश्त से रसीले होंठों को रगड़ा और बिफरते समन्दर को तमाचा मारकर गर्म खुश्क रेत पर दोनों पाँव जमा दिए।

"कंगाल!"

“होश में आओ!” फ़रीदा झल्ला उठी। वह कॉलेज की उन लड़कियों में से थी, जो अपनेआपको आदमी का बच्चा होने की क़ाइल होते हुए दिलशाद मिर्जा को तख़य्युल में भी नज़र भरकर देखने का हक़दार नहीं समझतीं। उन्हें कॉलेज के तरहदार तलबा' के जोड़े लगाने में ही इश्कबाज़ी के सारे मज़े मिल जाते हैं। इश्क़ दूसरे करते हैं और सोज़ो-गुदाज़ यह सहती हैं। अक्सर पैगाम-बरी की सआदत पाकर सुलगते, झनझनाते मुहब्बतनामे भी रिश्वत में पढ़ने को मिल जाते हैं।

“थीसिस मुकम्मल करते ही लेक्चरर हो जाएगा।"

"लेक्चरर और फिर एक दिन प्रोफ़ेसर और अगर बहुत क़िस्मत ने यावरी की तो प्रिंसिपल!"

"यक़ीनन...दिलशाद बहुत प्रोमजिंग..."

“मगर डार्लिंग, यह कॉले स्टूडेंट, लाइब्रेरी का कॉमन-रूम, सालाना जलसे, तक्सीमे इनामात, सेमिनार, कॉन्फ्रेंस, सच बताओ, कभी तुम्हारा दिल नहीं चाहता कि टेस्ट-बुक धड़ से प्रोफ़ेसर के सिर पर मारकर भाग निकलो...और बहत दूर जाकर पतंग उड़ाने लगो..."

"बाई गॉड! यू आर ए बिट मैड!"

“ए बिट नहीं, डियर! क्वाइट ए बिट..."

“अच्छा छोड़ो दिलशाद मियाँ को! ज़्यादा हसीन मर्द भी रास नहीं आते। कोहेनूर हीरे के लिए बड़े-बड़े कुफ़्ल कौन ढूँढ़ता फिरे। तो अब बचा अपना तमीजुद्दीन, मगर तुम कहती हो, निहायत खूसट, घिसा-पिटा, बदतमीज़ नाम है।"

“ऊपर से शेर कहता है और फिर तरन्नुम से पढ़ने पर मुसिर। एक तो शाइर, ऊपर से बजता हुआ..."

“आवाज़ तो बुरी नहीं!"

“यही तो रोना है। अगर आवाज़ बुरी होती, तो भीम-प्लासी में तोड़ी न घुसेड़ पाता...साफ़ पकड़ लिया जाता!"

“ऊँह! अब क्लासिकल म्यूज़िक की भी उस्ताद बन गईं। हाँ, हाँ! मालूम है। तुमने उस्ताद आशिक़ हुसैन से तालीम ली है," फ़रीदा ने शहज़ाद की मुस्कराहट पर चिढ़कर कहा, "तो यों कहो, तुम्हें रशीद जैसा क्रिकेट का बैट्समैन, नईम जैसा लखपति, शहज़ाद मिर्जा जैसा सजीला और.."

“मँझली आपा के दूल्हा जैसा हंसमुख!" शहज़ाद ने लुकमा दिया।

"और तसनीम के मियाँ जैसा जोरू का गुलाम, और तिलक जैसा कौमपरस्त,” और भगत सिंह जैसा जाँबाज़और टैगोर जैसा..."

गुस्ताख़ लट फिर बाएँ या दाएँ रुख्सार को चूमने के लिए उछल पड़ी और शहज़ाद के होंठों पर फिर शहद फूट आया।

"देखने में तो गावदी हो, मगर दिमाग के किसी कोने में है तो कुछ मसाला!"

"और...और गामा पहलवान जैसा..."

"बस...बस...फुल-स्टाप के बाद मजीद कुछ कहने की गुंजाइश नहीं..."

अचानक एक पुरानी, छकड़ा मोटर चिंघाड़ती अहाते में दाखिल हुई। पूरे ग्यारह मुसाफ़िर बरामद हुए। शायद इसीलिए बेचारी मोटर आहो-ज़ारी कर रही थी। उनके बाद ड्राइवर यानी दिलशाद मिर्जा लडखड़ाते हुए बरामद हुए और बोनट पर गश खाकर गिरे...मगर बिलबिलाकर उछल पड़े। बोनट क्या, पूरी मोटर चिंगारियाँ छोड़ रही थी।

उफ़! क्या-क्या हँसते-खिलखिलाते रंगों में डूबे थे। ज़िन्दगी क्या थी, एक ला-मुतनाही कहकशाँ थी। दिन और रात की कैद से आज़ाद!

उन दिनों फ़िल्मों की यह इफ्रात न थी। तलबा फ़िल्म-स्टार्ज़ के पीछे दीवाने नहीं बने थे। आजकल की मार-धाड़ और नाच-गानों से भरपूर फ़िल्में बड़ी तहक़ीर की निगाह से देखी जाती थीं। सिर्फ नौकर-चाकर ही सुलोचना, बिलीमोरिया की फ़िल्मी तस्वीरें बावर्चीखानों की ज़ीनत बनाते थे। न्यू थियेटर, प्रभात या बम्बई टाकीज़ की फ़िल्में ही तलबा की इनायत की हक़दार समझी जाती थीं और नौजवान फ़िल्मी सितारों के परवाने नहीं थे। लाइब्रेरियों, कॉमन-रूम में सियासी बहसें चलती या अदब और शायरी के चर्चे होते। अंग्रेज़ उस वक़्त गासिब और मुल्क के लीडर हरदिल-अज़ीज़ हीरो थे। दूसरी जंगे-अज़ीम के बाद मुल्क की आज़ादी के साथ-साथ बँटवारे की ज़रूरत का एहसास नहीं पैदा हुआ था। आज़ादी और बँटवारे का मस्अला कुछ मुब्हम-सा था। उन दर्जन भर लड़कियों में शम्सा भी थी, और सुशीला भी, कमला भटनागर भी और तमीजुद्दीन भी। एलिस टोम्स भी और दिलशाद मिर्जा भी शुस्ता उर्दू के साथ नपे-तुले पुरतकल्लुफ़ अंग्रेज़ी के अल्फाज़ और जुमले उस चंडूखाने के मनचले गिरोहों की खास पहचान थे। यह तब्का तअल्लुक़ादारों, ओहदेदारों के आला अंग्रेज़ी स्कूलों और मशहूर कॉलेजों से निकले हुए, ख़ुशनसीब नौजवानों का, जिनके मुस्तक्बिल रौशन थे और आइन्दा ज़िन्दगी के ख्वाब खुशगवार! उनमें कमोबेश कमतरी का शिकार, जिन्सी1 बीमार मुस्तक्बिल के धुंधलकों से फनफनाता, ज़हर उगलता नौजवान पहुँच ही नहीं पाता था, और अगर किसी तरह भेस बदलकर बाप-भाई के किसी बारुसूख वसीले या अपनी ज़हानत के बल-बूते पर पहुँच भी जाता, तो वह अपने वुजूद पर केंचुली चढ़ाए रहता और अपनी जड़ का सुराग किसी को न बताता।

दिलशाद मिर्जा आगरे के एक उजड़े हुए मुग़ल ख़ानदान के पौन दर्जन बच्चों में से पाँचवें नम्बर पर था। उसके वालिद नवाब महमद अली शेरवानी के यहाँ मुंशी थे। मुहल्ला पंजा शाही में एक अँधेरे घने, गन्दी तंग गलियों से घिरे नीम-शिकस्ता मकान में उनके खानदान के साथ कई खानदान लश्तम-पश्तम रहते थे। बड़े चार भाइयों को स्कूल से ज़्यादा पतंगबाज़ी और कबड्डी के अखाड़ों से शौक़ था। तीन दिलशाद से छोटी बहनें कुरान मजीद पढ़ने और उर्दू की शुद-बुद हासिल करने के बाद दूल्हों के इन्तिज़ार में बैठी थीं। दिलशाद मिर्जा की किस्मत अच्छी थी कि नवाब साहब के लड़कों की सुहबत मिली और अपनी ज़हानत के बलबूते पर उसने नवाब साहब की ख़ास तवज्जुह हासिल कर ली। उन्होंने उसे अलीगढ़ भेज दिया, जहाँ वज़ीफ़े के सहारे उसने फ़स्ट डिवीज़न का रिकॉर्ड कायम कर लिया,यों अच्छी गजर हो जाती। उसके ठाठ देखकर तो उसे वाकई चचा जान यानी नवाब साहब का अज़ीज़ समझा जाता।

खुदा समझे दामाद के मुतलाशी' वालिदैन को। आगरा अलीगढ़ से दूर नहीं, चुनाँचे बहुत जल्द यह बात खुल गई कि दिलशाद मिर्जा नवाब साहब के एक मुफ़लिस कारिन्दे का लड़का है। दिलशाद एम.ए. और फिर पी-एच.डी. करने के लिए लखनऊ चला आया और अपने माजी को बहुत दूर अँधेरे में दफ़्न कर आया। वालिदैन को पता भी न था कि वह कहाँ गायब हो गया, क्योंकि जब वह एफ़.ए. में नुमायाँ तौर पर कामयाब हुआ, तब ही उसकी ख़ाला और फूफी में उस पर जूता चल गया, मगर दिलशाद को अपनी दधियाल और ननिहाल मुसमुसी, हिस्टीरिया के दौरे डालती मरगिल्ली लड़कियों से घिन आती थी। अलीगढ़ में उसका राज़ फ़ाश हो गया था और लखनऊ में उसे पनाह मिल चुकी थी। वह अच्छा मुक़र्रर था। अख़बारों में कॉलम लिखकर कमा लेता था। उसके इतने बहुत से आसूदा-हाल1 दोस्त थे, जिनके खानदान उसकी आवभगत में पेश-पेशा रहते थे। महँगाई निस्बतन बढ़ गई थी, मगर लखनऊ में ठाठ से रहना दिलशाद मिर्जा जैसे होनहार नौजवान के लिए मुश्किल न था, मगर वह अजीब बद-दिमाग इनसान था, जिसने इश्को-आशिक़ी को कभी कोई अहमीयत न दी, बस अपना मुस्तक्बिल सँवारने की धुन में लगा रहता था।

कुदरत का मस्खरापन देखिए...सख़्त कोशिशों के बाद भी दिलशाद मिर्जा खुद को शहज़ाद हसन के सिह से महफूज़ न रख सका। कॉलेज के अक्सर लड़के और नौजवान प्रोफ़ेसर तक शहज़ाद से मुतअस्सिर थे। वैसे शहज़ाद के परस्तारों" में उम्र की कोई कैद न थी, मगर दिलशाद मिर्जा तो पहले उन सब आशिक़ों को गधा समझता था, फिर क्यों इस शिद्दत से शहज़ाद पर मर मिटा? शहजाद पले-पलाए तब्के की पली-पलाई बुर्जआ लड़की, इन्तिहाई नकचढ़ी और तर्रार, अपने हुस्न और ज़हानत पर मुकम्मल भरोसा रखनेवाली मग़रूर और दिलफेंक! मुँहज़ोर, फड़कते हुए मद्दाहों को ठंडा करने में माहिर। जब अकेले में किसी मोड़ पर एक दूसरे के सामने आ जाते, तो सारी दानाई उड़न-छू हो जाती। दीदा-दिलेर शहज़ाद की पलकें भारी हो जाती, एक शोख़-चंचल, नमदार लट रुख्सार को चूमने लगती और होंठ भीग जाते। अकलखुरा, मैटर ऑफ़ फैक्ट, धारदार ज़बान वाला मिर्जा दिलशाद अहमक़ों की तरह गुद्दी खुजाता, आँख मसलने लगता, जैसे कंकड़ पड़ गया हो। एक हाथ को तो किसी किताब का सहारा मिल जाता, दूसरे हाथ की बाबत समझ में न आता कि इसका क्या मस्रिफ़ है।

उनके दिल बोलते, जिस्म पुकारते, मगर मुंह से बस बेमानी, रूखे-अधूरे जुमले उबलते और फिर किसी के कहकहे या पाँव की चाप सुनकर दोनों कन्नी काटकर तेज़ी से गुज़र जाते, जैसे बड़े ज़रूरी काम से जाना है।

लाइब्रेरी में कोई मोटी-सी किताब खोलकर शहज़ाद कोई निहायत अहम चीज़ तलाश करने लगती। दिल की उलटी-सीधी धड़कन को जी चाहता, ऊँची एड़ी से कुचल दे...यह जाहिल मुसमुसी, झेंपू लड़की उसके वुजूद में कहाँ छुपी बैठी है और सिर्फ दिलशाद की ताक में रहती है। उसे देखकर पाँव फैलाने लगती है और शहज़ाद के अपने वुजूद को कुचलती, हँसी उड़ाती ठंडा पसीना बन जाती है। वह शहज़ाद नहीं, किसी बेवकूफ़ नामुराद बन्दिशों में कैद नादान लड़की का भूत है, जो मौक़ा-बेमौक़ा उस पर हावी हो जाता है।

वह बड़े जोर-शोर से कोई चुभता हुआ जुमला, कोई बर्फ का छींटा, कोई नुकीला वार अपने ज़ेन में तामीर करती। यह क्या हिमाकत है! क्या वह उसे खा जाएगा? जब चंडूखाने के मनचले जुड़ते हैं, खूब फब्तियाँ कसी जाती हैं। धड़ल्ले से बैतबाज़ियाँ होती हैं, तो वह बुज़दिल हमज़ाद कहाँ दुबक जाता है? दिलशाद मिर्जा भी अच्छे-भले होशमन्द नौजवान की तरह जुमलेबाज़ी से नहीं चूकते। शायद इन्तिक़ामन कुछ ज्यादा ही उलझते हैं, और वह भी उसकी हर बात की काट करती है और रोमांटिक फ़रीदा दिल ही दिल में कुढ़ती है।

हाय! क्या प्यारी जोड़ी है। इधर यह छह हाथ का मुग़ल। उधर यह बूटा-से क़द की सैयदानी! वह मैदा-शिहाब, तो यह पिघला सोना, जिसमें एक चुटकी सिन्दूर की। लोगो, इनका मेल न हुआ, तो धरती प्यासी रह जाएगी।

बी.ए. करते ही शहज़ाद के लिए पैग़ामों की भरमार होने लगी, मगर शहज़ाद को एक न जॅचा! उसने आइस कॉलेज ज्वाइन कर लिया, मुसव्विरी से उसे हमेशा दिलचस्पी रही थी। स्कूल के कई मुकाबलों में उसने इनाम भी हासिल किए थे और फिर जब तक शादी न हो, कुछ तो मश्गला चाहिए। किसी स्कूल में टीचरी करने के ख़याल से ही दम बौलाता था।

फिर मश्ग़ला ज़िन्दगी का अस्ल मक़सद साबित हुआ। दिल में घुटे हुए प्यार, नफ़रत, झुंझलाहट, रूह में छुपे हुए नामालूम से अनजान जज़्बे कैनवस पर रंगों में तहलील हो गए। दो माह उसने मुख्तलिफ़ आर्ट-गैलरियों, मन्दिरों, मस्जिदों, ख़ानक़ाहों, एलोरा-अजन्ता की गुफाओं, खजुराहो की पथराई हुई धड़कती ज़िन्दगी से याराना गाँठा। गोवा के चर्च, जुनूबी हिन्द के गूंजते-गरजते घंटे, बम्बई का धुआँधार समन्दर। समन्दर की मौजों ने उसके नंगे पैरों को चूमा और वह रो पड़ी। क्यों? अनगिनत क्यों' का उसके पास जवाब नहीं था। दिलशाद मिर्जा क्यों याद आता है? वह उसका कौन है? उससे किस जन्म का नाता है? या दुश्मनी है कि उसका ख़याल एक टीस के सिवा कुछ नहीं।

मुल्क का बँटवारा पुरानी बात बन चुका था। दुनिया बिखर चुकी थी। माँ के बाद वह उस ज़मीन को छोड़कर दूसरे मुल्क न जा सकी। कुछ पेंटिंग्ज़ की नुमाइश के सिलसिले में फ्रांस जाना हुआ। यूरोप के दर्शन हुए। आर्ट गैलरियों में कुछ सुकून भी मिला और बेचैनी भी। वक़्त बेपाँव रेगता रहा। चौंक के वह आईने के सामने झुक गई। नामम्किन! शायद तकिये के पुराने गिलाफ़ के डोरे बालों में उलझ गए हैं। जल्दी से उसने बालों में कंघा फेरा। डोरे क़ायम रहे। यह कैसे हो सकता था? यह कैलेंडर उलटा लटका है? 1975 नहीं, शायद 1957 है। सत्तावन! या खुदा दुनिया बिखरे दस बरस हो गए! नहीं! यह उसकी भूल है। कैलेंडर सीधा ही लटका है। तीस बरस! उसे हिसाब लगाते डर लगने लगा। उसने कब से आईना नहीं देखा! ज़रूर कोई घपला है।

आप ही आप उसके क़दम हेयर-ड्रेसिंग सैलून की तरफ़ उठ गए। घंटा भर बाद जब वह निकली, तो पुराने तकिये के सफ़ेद डोरे उसके बालों से गायब हो चुके थे। उसका जिस्म अब भी नर्म, नाजुक और मुतनासिब2 था। बगैर ऐनक के चेहरे पर बेवक़्त की पड़ी झुर्रियाँ भी मिट जाती हैं।

उसके आर्ट की मुल्क में क़द्र बड़ी तेज़ी से बढ़ी। चोटी के फ़नकारों63 में उसका शुमार होता था। उसके फ़नपारों64 में देश का हसीन और पुरवक़ार माज़ी अपनी पूरी ताबानी से जलवागर था। उसने रंगों में मन्दिरों की घंटियों की आवाज़, मस्जिदों से उठती हुई अज़ान की गूंज समो दी थी। हाल और मुस्तक्बिल, माज़ी का निचोड़ हैं। माज़ी कभी नहीं मरता, जिन क़ौमों का माज़ी फना हो जाए, उनका हाल और मुस्तक्बिल मुहह्मल और बौखलाए रहते हैं।

माजी जिन्दा है। बालों में उलझे हए पराने तकिये के डोरे गायब हो गए। माज़ी लौट आया। माज़ी हर ज़िन्दा शै में रचा-बसा है।

“बीबी, दो कौड़ी का लेक्चरर, माई गॉड!” मॅझली ख़ाला ने दिलशाद मिर्जा के बारे में उड़ाई ख़बरें सुनकर कहा था।

और फिर नईम, अहमद जमाल, आई.सी.एस....अनवार-उल-हक़ तअल्लुकादार.....

हाँ, ज़रा उम्र ज्यादा है, मगर बेहद स्मार्ट। जावेद ज़ैदी...सबके सब खरे सैयद, पोतड़ों के रईस, मगर उसे एक भी फूटी आँख न जँचा।

नईम ठिगना!

अहमद जमाल काले भट! उलटा तवा। बिहारी है, तो क्या हुआ?

अनवार-उल-हक़ को तो सारे खानदान की मुखालिफ़त हासिल थी। पन्द्रह-बीस साल का फ़र्क था उम्र में। रहे जावेद जैदी, तो निहायत दकियानूसी ख़ानदान। अभी औरतों ने पर्दा भी नहीं छोड़ा। सोसाइटी मूव करने का तो सवाल छोड़ दो!

और दिलशाद मिर्जा!

लेक्चरशिप तो मिल गई थी अलीगढ़ में, मगर क्यू बहुत लम्बा था, इसलिए 1953 में ही पाकिस्तान चला गया था। वहाँ कुछ कदम जमते न दिखाई दिए, तो इंग्लैंड चला गया। जानेवाले क्या लौटकर आते हैं?

नहीं, अब तो लट को रुख्सार चूमने का भी शौक़ नहीं रहा। न दिलशाद मिर्जा के ख़याल से पलकें बोझिल होती हैं, मगर दिल में टीस तो उठती है। ख़ुदा का शुक्र कि दिल ज़िन्दा है। मर जाता, तो किसी का क्या कर लेती? दिल की टीस को ही उसने रंगों में डुबो दिया था। वह टीसें जब उसने डस्टबिन से सेब के छिलके खाते बच्चों को देखा था, और चौपाटी पर चाट के जूठे पत्ते चाटते नन्हे बच्चों की आँखों में भूख देखी थी, फ़ारस रोड पर सलाखों के पीछे ग्यारह बरस की बच्ची को गाहक को लुभाने के लिए जाली का कुर्ता पहने पाउडर-लिपस्टिक थोपे देखा था। जाली के कुर्ते में से उसकी मटर बराबर छातियाँ झलक रही थीं। उसने उस माँ को भी देखा था, जो अपने बच्चों को नाकाफ़ी भीख माँगकर लाने पर कोस-पीट रही थी।

"क्यों मार रही हो?" उसने पूछा।

"बड़ा हरामी है यह बच्चा लोग, मेम साहब! दिन भर इधर-उधर खेलता है और अक्खा पैसा चाट-मसाला में खा जाता है।” वह पूरे दिनों से थी और बुरी तरह हाँफ रही थी।

"तुम इनसे भीख मँगवाती हो?"
“और क्या करें मेम साहब?"
"इनका बाप कहाँ है?"
"भाग गया एक हलकट के संग!"

उसने रुख्सार पर गिरी हुई लट को वापस नहीं उड़सा, क्योंकि वह धीरे-धीरे उसे डस रही थी। शिवजी ने जब धरती के नसीब का ज़हर पी लिया था, तो उनका कंठ नीला पड़ गया था, मगर उसका गला नीला न हो पाया। सारा ज़हर दिल में उतर गया, जो उसने कैनवस पर उड़ेल दिया।

“तो यह है ममता!” उसने ब्रश को नीले रंग में डुबोते हुए सोचा। कहते हैं, जब औरत गर्भवती होती है, तो उसका अंग-अंग कुन्दन की तरह दमकने लगता है, मगर कभी गर्भ कैंसर भी साबित होता है, लेकिन जिसने मर्द के जिस्म को न जाना, वह क्या जाने गर्भवती का दुखसुख! शहज़ाद एक बंजर जज़ीरा थी, जहाँ कोंपल फूटने का भी खतरा न था। लोगों की निगाहों में अपने लुटते हुस्न की परछाइयाँ देखकर वह सहम जाती।

वक्त के रेले में टेलीफ़ोन की घंटी बज उठी।

“मैं...शहज़ाद हसन से बात करना चाहता हूँ!"
"आपका नाम?"
"दिलशाद मिर्जा!"
वह पत्थर की मूरत बन गई।
"हैलो, हैलो...” उधर से आवाज़ आई।
“मैं शहज़ाद बोल रही हूँ।" उसे हैरत थी कि उसकी आवाज़ में लरज़िश क्यों नहीं थी।
"ओहो! आदाब अर्ज!"
“आदाब अर्ज!...आपको कैसे मालूम हुआ? मैं यहाँ हूँ!"

"इंग्लैंड सात समन्दर पार सही, मगर इसी कुरए-अर्ज़ पर है। और आपकी शुहत देखते हुए अब तो मुझ जैसे जाहिले-मुत्लक़ भी ऐसे गए गुज़रे नहीं कि.."

"अच्छा, तो निशानेबाज़ी की मश्क जारी है।"

"आपकी दुआ से अपनी टोली के कई अफ़राद' यहाँ तलाशे-मुआश की ख़ातिर जलवाअफ़रोज़ हैं।"

"खूब!...अच्छा...यह बताइए, आपसे मुलाक़ात का वक़्त लेने के लिए आपके सैक्रेटरी से बात करनी होगी?"

“अरे, आप न जाने किस मुगालते में पड़े हैं। मैं इतनी तोप हस्ती हरगिज़ नहीं हूँ, जो सैक्रेटरी वगैरा रखूँ?"
"आपसे किस वक़्त मिला जा सकता है?"
“जो शुभ घड़ी आपको सूट करे!"
“यानी कि अभी...इसी वक़्त?"
“क़तई..."
"वह...मेरा मतलब है, मेरे साथ बीवी भी होगी!"

कुतुब मीनार की अनगिनत बाँहें नमकोलियों की तरह टप-टप गिरने लगी, मगर उसने जल्दी से कहा, “ज़रूर...अभी..."
"बच्चे तो हैं..."
“मतलब साथ नहीं आए!"
"ओह! सॉरी!"
“कोई बात नहीं। अच्छा, तो हम आते हैं।"

थोड़ी देर तो वह टेलीफ़ोन का ख़ामोश रिसीवर थामे पत्थर की मूरत की तरह बैठी रही। फिर जैसे एकदम आज़रे-काइनात ने तकमील80 से गैर-मुत्मईन होकर छेनी पर हथौड़ा दे मारा।

कमरा गुदड़ हो रहा था। रंगों के ट्युब, ब्रश, कशन, रात के उतारे हए कपड़े, चाय की प्याली...उसने जल्दी-जल्दी लीपा-पोती शरू की। कड़ा जो सिमट सका, उठाकर दूसरे कमरे में पटका। पहले ऊदी काँजीवरम की साड़ी निकाली। बड़ी मुर्दा-सी लगी। फिर ताऊसी तनचोई को टटोला। हाँ, यह ठीक रहेगी। न जाने दिल का कौन-सा कोना पुकार-पुकारकर कह रहा था, दिलशाद मिर्जा को उस पर तरस खाने का मौक़ा नहीं मिलना चाहिए। वह अपनी बीवी के साथ अकड़ता हुआ अपनी कामयाब ज़िन्दगी का ढिंढोरा बना आएगा, मुझ अकेली पर तरस खाएगा। हिश्त! मैं...

घंटी बजने पर उसने एक बार आईने पर नज़र डाली। हलकी लिपस्टिक और मस्कारा से चेहरे पर शगुफ्तगी पैदा हो गई थी।

दरवाज़ा खोलकर वह फिर पत्थर की मूरत में जमने लगी।

सूखा, चरमरख, लम्बा ताइ-सा, बिल्कुल गंजा, एक मरियल-सा अंग्रेज़ मस्नूई दाँत निकोसे उसके सामने खड़ा था। उसके हाथ में हाथ डाले एक मिनी-सी बुढ़िया खड़ी थी, जो मुश्किल से उसकी कमर से ज़रा ऊँची होगी, हालाँकि वह हाई हील पहने हए थी।

"दिलशाद मिर्जा और सिलविया मेरी बीवी," बातें अंग्रेज़ी में हुईं।

“शहज़ाद...आइए...आइए..."

“यह तो अब भी हसीन है!" सिलविया ने मियाँ से कहा। वह उनसे चन्द साल बड़ी होगी। थोड़ी देर सन्नाटा छाया रहा।

"या खुदा! क्या अब भी ज़बानें बन्द रहेंगी। सिर्फ दिल धड़केंगे," शहज़ाद ने सोचा, मगर उसका दिल न धड़का, न उछला।

"मुझे अल्सर के मरज़ ने परेशान कर डाला। दरअस्ल मेरी और सिलविया की मुलाक़ात और शादी भी पेट के अल्सर की वजह से हुई। हम दोनों एक ही डॉक्टर के ज़ेरे-इलाज थे। फिर मलाक़ातें बढ़ीं। सिलविया का मरज़ मझ से भी पुराना था। उसकी राय पर अमल करके मुझे बहुत फ़ायदा हुआ।"

"डली इन्तिहाई बेपरवाह इनसान हैं। शराब ने इन्हें तबाह कर डाला था।"
"सिलविया ने मुझे नई ज़िन्दगी दी!”
"आपकी शादी..."
"हमारी शादी को यह चौथा साल चल रहा है। अक्तूबर में पूरे चार साल हो जाएँगे।"
"डली को तुम से प्यार था।" सिलविया शरारत से मुस्कराई और चाय बनाने लगी।
"प्लीज़ सिलवी!" दिलशाद मिर्जा के ज़र्द चेहरे पर नीलाहट छलकने लगी।
"नॉनसेंस! मिस हसन, क्या तुम्हें भी इनसे प्यार था?"
"सिलवी!"
"हमारे यहाँ औरत मुहब्बत का इकरार करे, तो बेहया समझी जाती है।" शहज़ाद ने मज़ाक़ में बात टालना चाही।

“मगर ज़रूर तुम्हें इनसे मुहब्बत होगी। नामुम्किन है कि डली ने एकतरफ़ा मुहब्बत की हो और इस शिद्दत से की हो-इम्पॉसीबल!"

“इन बातों से फ़ायदा?" दिलशाद मिर्जा ने सोफे की पुश्त पर सिर टिकाकर आँखें बन्द कर लीं।

“हाऊ सिल्ली! फिर तुम दोनों ने शादी क्यों नहीं की? पुराने ख़यालात के बुजुर्गों के दबाव से मजबूर हो गए?"

"नहीं!"
"तो फिर?"
“आप नहीं समझ सकेंगी!"
"क्यों?"
“बड़ी मुश्किल-सी बात है। हम हिन्दोस्तानी लड़कियाँ आज़ाद भी हैं और महबूस भी!"
"वह कैसे?"

"हमारे रौशन ख़याल बुजुर्ग हमें जीवन-साथी के चुनाव की पूरी आज़ादी भी देते हैं। फिर बड़ी नर्मी और होशियारी से हमारे इन्तिख़ाब के बारे में दिल में शुब्हा डाल देते हैं।"

"इन्तिहाई जुल्म...गैर-इनसानी हरकत!” सिलविया भिन्नाई।
"मगर उन्हें मुजरिम नहीं करार दिया जा सकता!"
"क्योंकि वो बहुत चालाक हैं!"
"नहीं, वो जो कुछ करते हैं, हमारी बेहतरी समझकर करते हैं।"

“सिलविया, किस क़दर हिमाक़त है। हम तीनों ने वालिदैन को भुगता है, मगर औलाद के बारे में हम कुछ नहीं जानते, इसलिए यह बस फजूल है। कोई काम की बात करो।"

“अच्छा, यह इतने दिन बाद हिन्दोस्तान किस सिलसिले में आना हुआ?" शहज़ाद ने मौजू बदला।

"वतन की याद खींच लाई!"
"मगर आप तो पाकिस्तान चले गए थे!"
"पाकिस्तान भी मेरा वतन है। वहाँ तो साल दो साल बाद जाना होता रहा!"
“और हिन्दोस्तान?"

“हिन्दोस्तान मेरा आबाई वतन है, जहाँ मैं पैदा हुआ, जहाँ मेरे जद्दे-अम्जद दफ़्न हैं। जिस मिट्टी में मैं खेल-कूदकर बड़ा हुआ। जम्ना के पानी को भूल सकता है, जहाँ मैंने तैरना शुरू किया। वह आगरे की पेच-दर-पेच गलियाँ, मुहर्रम के ताज़िये, होली के रंगीन जलवे, दीवाली की जगमगाती फ़िज़ा। यों तो मैं बरतानवी बाशिंदा हूँ, तो क्या अनारकली की गहमागहमी, कराची की ज़िन्दगी से भरपूर महफ़िलें, इल्मी और अदबी जलसे। हाक्स-बे, सेंडज़ पिट, पिकनिक पार्टियाँ, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मेहँदी हसन, मेरे अपने नहीं? सोचता हूँ, तो सारी दुनिया अपनी ही लगती है!"

फिर अजीब उदास-सी खामोशी छा गई-डसनेवाली तन्हाई।

“और अब..." दिलशाद मिर्जा ने कहा, “उम का तकरीबन निस्फ़ हिस्सा इंगलिस्तान में गजारने के बाद वह भी तीसरा वतन हो गया है। वहाँ मेरी पेट की बीमारी काबू में रहती है। मुझे इस जिन्दगी की ऐसी आदत हो गई कि कहीं जी नहीं लगता। क्या वह जो ईरान, तुरान और अरबिस्तान से हिज्रत कर गए, सदियों के बाद भी अपने आबाई वतन को भूल सके हैं? क्या हमें उन लोगों से दिली लगाव नहीं है, जो हमने विरसे में अपने बुजुर्गों से पाया है। मुझे इन तीनों वतनों से प्यार है। इसका यह मतलब नहीं कि एक मुल्क से प्यार करके दूसरे मुल्क से ग़द्दारी कर रहा हूँ। कितने लोग हिन्दोस्तान और पाकिस्तान से दूसरे मुल्कों में जा बसे। वहाँ से निकाले गए, तो जहाँ सींग समाया, वहाँ जा बसे। मुझे ऐसे लोग मिले, जो खुद को हिन्दोस्तानी कहते हैं और अफ्रीक़ा जहाँ से निकाले गए हैं, उसकी याद में रोते हैं और इंगलिस्तान में आकर बसने के बाद वहाँ के आदी हो गए हैं।"

"जैसे सदियों से हिन्दोस्तान में बसे हए चीनी खुद को चीनी ही मानते हैं। चीन से जंग भी हुई, वो गद्दार नहीं साबित हुए। वो चाहे भी, तो अपने आबाई वतन नहीं जा सकते। यहाँ बम्बई में सदियों के बसे हुए ईरानी अपने आबाई मुल्क को नहीं भूले, मगर हिन्दोस्तान की सलामती उनकी सलामती है।"

“उफ़! बड़ी बोर बातें कर रहे हो तुम लोग! तुम्हारे जवाब से मुझे तसल्ली नहीं हुई," सिलवी बिगड़ उठी।

"किस जवाब से?" शहज़ाद ने पूछा।

"कि वालिदैन, ज़बरदस्ती नहीं करते, फिर भी तुम लोग अपने प्यार का गला घोंट लेते हो। तुम दोनों भाग क्यों नहीं गए?"

"क्या बेरहम बीवी है कि शौहर को भगवाने पर मुसिर है।"

“उस वक़्त मैं तुम्हारी बीवी थोड़ी थी। तुम भाग जाते, तो मुझे तो ख़बर भी न होती!" सिलवी बोली।

"क्या आपके मुल्क में जो लड़कियाँ वालिदैन की मर्जी के ख़िलाफ़ भागकर शादी कर लेती हैं, वो कामयाब ज़िन्दगी गुज़ारती हैं?"

“ओ माई गॉड नो...बड़ी मज़हकाखेज़ बात है। कोई गारन्टी नहीं।"

"यह कही अब तुमने समझ की बात," दिलशाद हँसे, “वालिदैन जबरन शादी कर दें और नाकाम हो, तो वालिदैन मुजरिम,और औलाद अपनी मर्जी से करे, तो वालिदैन कहते हैं, देखा, हमारा कहा मानते, तो सुख-चैन से रहते।"

सिलवी ज़िद करके चाय बनाने के लिए उठ खड़ी हुई, और दिलशाद मिर्जा और शहज़ाद फिर मुजरिमों की तरह गुमसुम बैठे रहे।

“फ़ॉर गॉड सेक, कुछ बातें करो। शरमाओ नहीं। मैं कुछ नहीं सुन रही हूँ।” सिलवी ने किचन से हाँक लगाई।

एकदम दिलशाद ने गौर से शहज़ाद की आँखों में आँखें डाली और करख्त आवाज़ में कहा, “मैंने तुम्हारी मुहब्बत में ज़िन्दगी को तमाशा बना डाला। खुदा-रा, एक बार अब तो कह दो कि मैं अहमक नहीं था। मेरा जुनून एक तरफ़ा नहीं था, थोड़ी-सी आँच तुम तक भी पहुँची थी।"

“क्या इकबाले-जुर्म से ही जुर्म साबित होगा? “शहज़ाद की पलकें भारी हो गईं। शरीर, चुलबुली लट मचलकर दाएँ या बाएँ रुख्सार को चूमने लगी और न जाने कितनी सदियों के बाद होंठ कॉपकर नम हो गए। ऐसा लगा, उसके बालों की लट नहीं, दिलशाद मिर्जा के होंठ हैं। उसने लट जूड़े में नहीं उड़सी!

“मगर बख़ुदा, ज़िन्दगी का हर लम्हा तुम्हारे तसव्वुर से रंगीन रहा। सोज़ो-साज़ से पुर!"

“जो शायद दूसरी सूरत में न रह पाता!"

“और जो तुम बेज़ार होते, अब तक तो तलाक़ हो चुका होता,” सिलवी ने चाय की ट्रे लाते हए कहा, “सॉरी, मैं सब सुन रही थी। इतनी उर्दू समझ लेती है।"

“अच्छा सिलवी, आपने इतनी देर में शादी क्यों की?"

"क्या तुम हिन्दोस्तानी समझते हो, तुम ही इश्क करने का सलीका जानते हो!"
“मतलब?"
“मतलब यह कि मेरा मंगेतर फैक्टरी के हादसे में मर गया!"
“अब आपने उसकी याद में ज़िन्दगी के बेहतरीन लम्हे तन्हाई की भेंट चढ़ा दिए!"

“लो भई, पतीली भी बोली कि चूल्हे का मुँह काला! माई डियर, तुमने मुझ से कम हिमाकत नहीं की!" तीनों जी खोलकर हँसे।

"हम कितने अहमक हैं?"

"फिर भी जिन्दा हैं।”

"दरअस्ल हमारे दिल ज़िन्दा हैं," शहज़ाद चहकी।

“अच्छा शहज़ाद! मुझे सिलवी से बड़ा प्यार है। उसके बगैर मैं ज़िन्दा नहीं रह सकता। तुम्हें एतिराज़ तो नहीं?" - "तौबा!” शहज़ाद बौखला गई, “अच्छा, मैं कहूँ, मुझे भी सिलवी पसन्द आई, तो आपको कुछ एतिराज़ है?"

उन दोनों के जाने के बाद भी शहज़ाद पर एक अजीब-सा नशा तारी रहा।

क्या औलाद सिर्फ रहम में परवान चढ़ती है? दिल और दिमाग में भूसा भरा रहता है? आज मेरा दिल और दिमाग़ नए जज़्बे से 'हामिला' हो रहा है। यह मेरे बच्चे, जिनसे मेरे क़द्रदानों की भी मुहब्बत वाबस्ता है, क्या मेरी औलाद नहीं। उसने बनी अध-बनी पेंटिंग्ज़ को प्यार से निहारा।

"क्या मैं अकेली हूँ? सात समन्दर पार सही, मगर मुझे कोई दिल में बसाए जी रहा था। मैंने जब चाहा है, उसकी बाँहों में पनाह ले ली है। मेरी आज़री, मेरी कैद, मेरी अपनी तमन्ना है, मेरी अपनी आरजू है। मेरे अपने बस में है और फिर जिन कमरों में मेरी पेंटिंग्ज़ सजी हुई हों, उनसे भी तो मेरा एक नाता है। यह बुलन्दो-बाला समन्दर, सनमख़ाने, मीनार, सड़क पर खेलते बच्चे, हवा में उड़ते परिन्दे, हरे-भरे खेत, आहे और कहकहे, दूर बिजली, रेल की सीटी, इन सबको मैंने अपने ब्रश में कैद करके कैनवस पर सजा दिया!

"क्या मैं अकेली हूँ? पगली शहज़ाद हसन, जवाब दो?"

और यकायक कमरा उबटन और ताज़ा पिसी मेहँदी की महक से भर गया और शहनाइयाँ सुहाग के गीत गुनगुनाने लगीं।

दूर कोई नन्हा-सा बच्चा किलकारी मारकर हँसा। आसमान पर शफ़क फूट रही थी। शहज़ाद ने ब्रश निकाला और नारंगी रंग की प्याली में डुबो दिया।

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