तलाश (कहानी) : कमलेश्वर

Talash (Hindi Story) : Kamleshwar

उसने बहुत धीरे-से दरवाज़े को धक्का दिया। वह भीतर से बंद था। जब तक वह सोई थी, तब तक बीचवाला दरवाज़ा बंद नहीं किया गया था। भिड़े हुए दरवाज़े की फाँक से रोशनी का एक आरा-सा गिरता रहा था, रोशनी मोमिया कागज़-सी झिलमिलाती रही थी।

अपना दरवाज़ा खोलकर वह बरामदे में निकल आई। उसने उनके कमरे के बाहरवाले दरवाज़े को हल्के से छुआ। वह खुला हुआ था। खामोशी से वह जीने से उतरी... गली का दरवाज़ा भी बंद नहीं था। उसे कुछ शंका हुई। ममी बिना कुछ कहे, इतने सवेरे कहाँ निकल गई। ममी के पास काम भी बहुत था। ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे वह खुद सोई थी।

ज़ीने से वह फिर ऊपर बरामदे में आ गई। आहिस्ता से उसने उनके कमरे का दरवाज़ा खोला। नीचे कालीन पर रजिस्टर बिखरे हुए थे। लाल-नीली पेंसिलें पड़ी हुईं थीं। कार्बन का डिब्बा पड़ा था। नीली और लाल दवातें और होल्डर रखे थे। कॉफी के एक प्याले में जली हुई तीलियाँ, राख और सिगरेटों के बदरंग टुकड़े पड़े थे।

ममी शायद बहुत थक गई थीं। वह पलंग पर बेखबर सो रही थीं। जूड़े के पिन सिरहाने रखे हुए थे। दाहिनी तरफ़ वाले तकिए पर एक हल्का-सा गड्ढा था। पलंग की सिरहाने वाली पाटी पर एक सिगरेट दबाकर बुझाई गई थो। टुकड़ा नीचे पड़ा था।

उनके चेहरे पर बेहद मासूमियत थी। उतना ही धुला-धुला-सा चेहरा था, जितना सुबह उठकर मुँह धोने के बाद निखर आया करता था। साथ-साथ चाय पीते वक्‍त वह अक्सर बहुत लगाव से उनके चेहरे को देखा करती थी... ओस में धुले हुए कमल-सी ताज़गी उभर आया करती है... ममी के चेहरे पर। पता नहीं ऐसा क्या था ममी के चेहरे में कि वह डूबी-डूबी-सी देखती रह जाती थी!

वह चुपचाप उनके कमरे से निकल आई थी। अपने कमरे में आकर उनके जागने का इंतजार करती रही थी। कुछ ही देर बाद उनके कमरे में कुछ आहट हुई थी और उसे लगा कि ममी ने बरामदेवाले दरवाजे की चटखनी बहुत आहिस्ता से बंद की थी और उतने ही धीमे से बीचवाले दरवाज़े की चटखनी खोली थी। चटखनी खोलने के बाद वह एकदम उसके कमरे में नहीं आई थीं। कुछ क्षणों तक चुपचाप वहीं खड़ी रहीं। फिर उन्होंने हल्के से आवाज दी थी, “सुमी, जाग गई" और वह कमरे से होती हुई बाथरूम की तरफ चली गई थीं। उनके साथ ही कमरे में एक ठंडा- सा झोंका आया था... शीतल-सी गंध फैल गई... जैसे वह बिस्तर से नहीं, गुसलखाने से नहाकर निकली हों।

जब तक वह बाथरूम से आईं, सुमी ने चाय तैयार कर ली थी। वह रोज की तरह ही चाय पीने के लिए बैठी थीं। साड़ी उन्होंने जरूर कंधों से कुहनियों तक लपेट रखी थी। सलवटें कुछ ज्यादा ही थीं। साड़ी के नीचे उनकी भरी-भरी संगमरमरी बाँहें झिलमिला रही थीं। आँखों में अथाह गहराइयाँ थीं। उनके बैठने में भी रोज जैसा फैलाव न था, शालीन तनाव था।

“शायद मुझे दो रोज के लिए बाहर जाना पड़े... ग्रांट बाकी पड़ी है। साल खत्म होने से पहले सांइटिफिक इन्स्ट्रमेंटस खरीदने हैं," ममी ने निहायत आसानी से कहा था।

“मैं बनी रहूँगी... आप हो आइएगा,"” सुमी ने दूसरा प्याला बनाकर उनके सामने रख दिया था।

“किसी दाई को कह दूँगी। वह यहाँ सो जाया करेगी। दो दिन की बात है।" उन्होंने कहा, तो सुमी ने उतनी ही आसानी से स्वीकार कर लिया, “जैसा आप ठीक समझें। दिन को तो कोई दिक्कत है नहीं, ऑफिस से आने में ही छह बज जाते हैं।”
“इस मामले में यह घर बहुत सेफ है!” उन्होंने कहा, तो सुमी ने उत्साह से जोड़ दिया, “यह तो सही है। डर बिल्कुल नहीं लगता।"

और वे दोनों अपने-अपने काम पर जाने के लिए तैयार होने लगी थीं। अपने कपड़े निकालते हुए वह देख रही थी कि ममी कुछ उलझन में हैं। बार-बार वह ब्लाउज़ों को निकालकर देख रहो थीं। आखिर उन्होंने बाँहवाला एक ब्लाउज निकाल लिया था। उनके पास वह शायद इकलौता था। उसके साथ की कोई साड़ी भी नहीं थी। वह हमेशा सलीवलेस ही पहनती थीं। जैसे-तैसे उन्होंने कंट्रास्ट बना लिया था। उसे कुछ अटपटा-सा लगा। ममी की खुली हुई बाँहें सचमुच बहुत खूबसूरत और सुडौल लगती थीं... कभी-कभी तो उसे स्वयं उनकी बाँहों से ईर्ष्या होती थी।

फिर बह ड्रेसिंग-टेबल पर चली गई। और उसने देखा था कि वह एक सिम्त से बैठकर बाँहों की पिछली ओर एक निशान पर बेसक्रीम लगा रही थीं... शायद बाँह पर कोई नील था और उन्होंने बाँहोंवाला ब्लाउज़ पहन लिया था।

एक क्षण के लिए सुमी को वह कुछ ज्यादा उम्र की दिखाई दी थीं। पर वह टोकना नहीं चाहती थी। तैयार होकर वह बस के आने का इंतजार करने लगी थीं। कॉलेज की बस में स्टाफ के लोग भी जाया करते थे। वह बारजे पर कुछ इस तरह खड़ी इंतज़ार कर रही थीं, जैसे स्कूली बच्चे करते हैं।

सुमी वह सब देखती रही। वह जब छोटी थी, तब भी उसे अपनी ममी बहुत सुंदर लगती थीं। उनके सुडौल हाथ-पैर, तराशे हुए नक्श और ताज़गी! उनमें ऐसी ताज़गी थी, जो उम्र के साथ खिलती आई थी। उसकी किसी मित्र ने उन्हें देखकर माँ नहीं समझा था। ज़्यादा से ज़्यादा बड़ी बहन ही माना था। उनका रख-रखाव भी ऐसा था कि अपने तक को उन्होंने बिगड़ने नहीं दिया था... उसमें वही लोच और नर्मी थी, जो सुमी को अपने में लगती थी। उनके तन से ऐसी अछूती गंध फूटती थी, जो सबको अपनी तरफ खींचती है।

महीने में एक बार तो उनका तन इतना तेज़ महकता था कि सुमी बार-बार किसी-न-किसी बहाने से उनके कंधों पर अपना सिर रख देती थी। तब जैसे गंध का एक झरना बहने लगता।

दो कमरों का घर उस घाटी-सा गमकने लगता था, जिसमें कस्तूरी मृग आ गया हो। फिर दो-तीन दिनों बाद वह गंध धीरे-धीरे डूबने लगती थी।

बस आई और ममी चली गईं। सुमी उन्हें जाते हुए देखती रही। बस में स्टाफ के लोग थे और कॉलेज की कुछ लड़कियाँ भी।

उनके जाते ही वह अकेली रह गई थी। एकाएक उसे लगा था, जैसे सुमी ही बाहर चली गई थी और वह ममी की तरह घर में रह गई हो। अकस्मात उसने अजीब तरह की ज़िम्मेदारी महसूस की और उनके कमरे में जाकर उसने सब सामान करीने से लगाना शुरू कर दिया था। रजिस्टर और कापियाँ बटोरकर एक ओर छोटी मेज़ पर रख दीं। बिस्तर झाड़कर कवर कर दिया था। बिस्तर झाड़ते वक्‍त जरूर एक अव्यक्त-सी तकलीफ उसे हुई थी और लगा था कि ममी की चीज़ें छूने का उसे कोई अधिकार नहीं है... फिर कमरे में खड़े-खड़े फ्रेम में वह तस्थीर देखती रही थी, जिसमें पापा और ममी के साथ नन्‍ही-सी वह बैठी हुई है। न जाने क्यों उस तस्वीर को वह उठा लाई और उसे अपने कमरे में रखकर, उसी जगह ममी के कमरे में वह वाली तस्वीर रख आई थी, जिसमें सागर उमड़ रहा था और ऊँचे आसमान में जलपक्षी उड़ रहे थे।

उसे वक्‍त का खयाल भी नहीं रहा था। एक बक्सा खोलकर उसने पापा की वह डायरी निकाली थी, जिसमें वह हर महत्वपूर्ण घटना को नोट किया करते थे। उसमें रिश्तेदारों के कुछ पते, कुछ हिसाब और जन्मतिथियाँ लिखी हुई थीं। ममी की जन्मतिथि भी थी और उसकी भी... देखा, तो एकाएक देखती रह गई... ममी कुल उन्नीस बरस बड़ी हैं। बीस की वह और उन्तालीस की ममी।

ममी का जन्मदिन तब से मनाया ही नहीं गया... सचमुच ममी को कितना सूना लगता होगा! आठ बरस निकल गए... पर लगता है, पापा जैसे अभी-अभी उठकर चले गए हों। उनके मरने की बात अब बहुत पुरानी-सी लगती है। एक बीती हुई बात की तरह। लोग ठहर जाते हैं; पर कुछ बातें हैं, जो बीत जाती हैं... पापा की बातें तो जैसे बीत गई हैं; पर वह खुद अभी तक रुके हुए हैं। लेकिन अब कुछ-कुछ ऐसा लगता है, जैसे पापा डगमगा गए हों और चुपचाप घर चले जाना चाहते हों। जैसे वह अपनी गलती महसूस कर रहे हों। यूँ चुपचाप आठ बरस तक खामोश बैठे रहकर उन्होंने अच्छा नहीं किया।

वह आहिस्ता से पापा को उठाकर अपने कमरे में ले आईं। बहुत देर वह चुपचाप बैठी रही और उन्हें ताकती रही। वह खामोश थे। उन्होंने कुछ नहीं कहा।

शाम को ममी पहले लौट आती हैं। वह वापस आई, तो उन्होंने चाय बना ली थी। घर आकर ममी ने साड़ी तो बदली थी, पर ब्लाउज़ नहीं। मन में आया था कि पूछ लें, पर लगा था कि ब्लाउज़ न बदलनेवाली बात पूछने का अधिकार सिर्फ पापा को है... पर वह खामोश बैठे हुए थे।

“मम्मी, तुम कहीं घूम आया करो। तुमने तो अपने को एकदम बाँध लिया है... इतना काम करती हो..." सुमी बोली, तो अपनी ही आवाज बहुत बूढ़ी-सी लगी।

ममी ने उसे गौर से ताका था। सचमुच उसका वह मतलब नहीं था, अपनी बात को सहज बनाने के लिए उसने आगे जोड़ दिया था, “तुम्हारे साथ-साथ मैं भी निकल चला करूँगी... कभी-कभी मन बहुत ऊबता है।”
ममी के होंठों पर हल्की-सी मुस्कराहट आ गई थी।
“चल, आज पिक्चर देख आएँ... वहीं कुछ खा-पी लेंगे," ममी ने कहा था।

उसने प्रस्ताव मंजूर कर लिया था। ममी फिर साड़ी के चुनाव में उलझ गईं, तो उसने अपनो साड़ी उनके सामने रख दी, “यह पहन लो, ममी... बहुत अच्छी लगेगी।" एक क्षण के संकोच के बाद उन्होंने सुमी की साड़ी बाँध ली थी और तितली की तरह तैयार हो गई थीं।

घर से निकलते वक्त सुमी ने बत्तियाँ बुझाईं और ताला लगाया था। ज़ीने उतरते वक्‍त ममी ने धीरे से कहा था, “शायद बिजली का बिल अभी तक पड़ा हुआ है!"
“मैं कल जमा करवा दूँगी।”

और फिर धीरे-धीरे उसने सब हिसाब-किताब संभाल लिया था। अंडे वाले ने इस बार जब उससे पूछा था, “मेम साहब, क्रीम तो नहीं चाहिए ?” तो उसे कुछ अटपटा-सा लगा था।

घर-खर्च की सारी परचियाँ, बिल और कैशमेमों उसके कमरे में जमा हो गए थे। धोबी की किताब उसकी अलमारी में आ गई थी। दूधवाले की पर्ची उसके पर्स में पहुँच गई थी।
उसकी चार साड़ियाँ और ब्लाउज ममी के कपड़ों में जा मिले थे।

वह हर सुबह ममी के तैयार होने की राह देखती। उन्हें जो चप्पल पहननी होती, पहन लेतीं। उसके बाद वह कोई-सी भी चप्पल पहनकर चली जाती।

वह खुद ज़िद करके भी ममी को पहनाती थी। उसने ज़बर्दस्ती उनका शाल उतरवाकर कार्डिगन पहना दिया था।
“यह क्या तमाशा करती है, सुमी... तू क्या पहनेगी, बता ?” ममी ने प्यार से झिड़कते हुए कहा था।
“मेरे पास कोट है।”
“वह पुरानी..."
“इतनी जल्दी कपड़े पुराने नहीं होते... कल ड्राइक्लीन करवा लिया था, एकदम नया निकल आया है।” वह बोली थी।
“पुरखिन हो गई!” ममी ने प्यार से कहा था।

और शाम को जब वह लौटी, तो ममी के कमरे में फिर रजिस्टर और कापियाँ फैली थीं। ट्रे में चाय के खाली बर्तन पड़े थे। लाल-नीली दवातें थीं, पेंसिलें थीं और एक प्लेट में सिगरेट के टुकड़े, राख और तीलियाँ थीं। ममी बारजे पर झुकी हुई दूर कुछ देख रही थीं। शायद कुछ ऐसा, जो सड़क की भीड़ में उन्हें कतई अलग दिखाई दे रहा था।
सुमी का आना उन्हें पता चला। कुछ क्षणों के बाद बारजे में ही वह कुछ सोचती-सी खड़ी हो गई थीं।

“ममी... चाय पी ली...” उसने पुकारा तो वह कुछ चौंक-सी गईं, "मुझे पता ही नहीं चला, तू कब आ गई। चाय भी बना ली... मैं जरा थक गई थी... आजकल कॉलेज में काम बहुत बढ़ गया है। एक भी घंटा फ्री नहीं मिलता... डिमॉन्सट्रेटर भी छुट्टी पर है...” तमाम टूटी-फूटी बातें कहती हुई वह सुमी के कमरे में आ गई थीं।

उनके माथे पर लाल स्याही से एक गोल बिंदी बनी हुई थी। स्याही की किनारियाँ सुखकर गोटे की लकीर की तरह झिलमिला रही थीं। ममी उतनी ही सुंदर लग रही थीं, पर वह बिंदी उसे खल रही थी। शायद ममी को कुछ उलझन होने लगे या वह बर्दाश्त न कर पाए।
मुझे आज बहुत काम करना है," सुमी ने धीरे से कहा था।
“कुछ मैं करवा दूँ ?” ममी ने सहारा पकड़ा था।...

“हमारे यहाँ एक और एक्सचेंज खुल रहा है... 'कोड मैसेजेज़' के लिए। उसकी क्लासेज़ शुरू हुई हैं, उन्हीं लेसन्‍ज़ को दुहराना है।" सुमी ने सब समझा दिया था।
“तो तू अपना काम कर... खाना मैं बना लेती हूँ।"
“सूप बना लो, ममी, ज्यादा भूख भी नहीं है। सलाइसेज़ तल लेंगे, बस हो जाएगा।"
“अच्छा।” कहकर वह उठ गई थीं।

फिर खामोशी छा गई थी। दोनों कमरे दो अलग-अलग दुनियाओं में बदल गए थे। उसके कमरे में पापा-अब भी रुके हुए थे। ममी शायद उनसे कुछ बात करना चाहती थीं। शायद उन्हें लग रहा था कि पापा की तरफ से अब सुमी ही बात कर सकती है। और सुमी को लगा कि यहाँ से निकलकर अगर चल दें, तो पापा भी नहीं रुक पाएँगे। वह उसके साथ पीछे-पीछे चले आएँगे। चुपचाप।

अपने कमरे में जाकर ममी ने पुराने कागजों और सामान को उलटना-पुलटना शुरू कर दिया था। उन्हीं में पापा के कुछ पुराने खत निकल आए थे। कुछ देर बाद उसने ममी को बाथरूम की तरफ जाते देखा। लौटकर वह आई तो मुँह धुला हुआ था। बिंदी मिटी हुई थी। चेहरा बहुत ताज़ा-ताज़ा लग रहा था।

“सुमी, जरा बड़ी वाली अलमारी खिसकाना है। उसके पीछे कुछ कागज गिर गए हैं। आ तो ज़रा..." ममी ने कहा, तो वह उठकर गईं थी। अलमारी खिसकाई, तो कागजों का एक अंबार लुढ़क पड़ा और वह छड़ी भी, जो पापा ने पहाड़ पर खरीदी थी। एक बार उनके पैर में मोच आ गई थी। धूल का एक बगूला गिरे हुए कागजों से उठा था और ममी बेतरह खाँसने लगी थीं।

“तुमने अपने कमरे में क्या-क्या जमा कर रखा है, ममी ? इतने सामान के बीच दम नहीं घुटता? कुछ उधर जीनेवाली अलमारी में रख देती हूँ।” उसने कहा, तो उन्होंने प्रतिवाद नहीं किया। दोनों ने मिलकर बहुत-सा सामान जीनेवाली अलमारी में लगा दिया।

“छड़ी मैं अपने कमरे में रखूंगी," सुमी ने कहा, तो बात में अजीब-सी विसंगति दिखाई दी, पर वह धीरे से फिर बोली, “कभी-कभी रात में उधर बिल्ली आती है..."

और ममी जब सूप बनाने के लिए चली गईं, तो जीनेवाली अलमारी से वह पापा की फाइलें चुपचाप उठा लाई और उन्हें पलंग के नीचे रख लिया था।

पापा का वह बचा-खुचा सामान जैसे हर वक्‍त इधर-उधर चलता रहता था। वह छड़ी और वह सामान अपना ठिकाना नहीं खोज पा रहे थे। तीसरे दिन उसने सारे सामान को मेज की नीचेवाली पटरी पर सँभालकर रख दिया था, पर सफाई करते वक्‍त वह वहाँ से लुढ़क पड़ा। अलमारी के भीतर वे बड़ी-बड़ी फाइलें किसी भी सिम्त से समाती नहीं थीं। अलमारी बहुत सँकरी थी। हारकर उसने एक गठरी बाँध ली और उसे फिर पलंग के नीचे रख लिया था। पापा भी रुके हुए थे।

उसी दिन ममी ने कहा था, “मैं आज रात को गाड़ी से जाऊँगी। वो कॉलेज के लिए सामान खरीदना था न... मार्च खत्म होने से पहले-पहले पेमेंट करना होगा... तीसरे दिन आ जाऊँगी। दाई से मैंने कह दिया है। वह रात को होस्टल से आ जाएगी, यही दस-साढ़े दस बजे।"
“तुम्हारी गाड़ी किस वक्त जाती है?”
“आठ बजकर पाँच पर..."
“चपरासी आएगा न?" सुमी ने कहते ही अपनी गलती भाँप ली, तो उसे ठीक कर लिया, “तुम्हारा सामान ठीक कर दूँ...”
“दो दिन की तो बात है, कौन बहुत-सा सामान ले जाना है।" ममी ने कहा और वह सूटकेस खाली करने लगी।

सुमी ने जिद करके अपनी साड़ियाँ और पर्स उन्हें दे दिया था। वह अपने कमरे में कपड़े बदलने चली गईं। सुमी ने रूमालों का एक सेट रखने के लिए सूटकेस खोला, तो जेब में चपटा-सा पैकट पड़ा देखकर वह बेहद सकुचा गई थी। सूटकेस बंद करके उसने रूमाल ऊपर रख दिए थे।

ममी साड़ी बदलकर आईं, तो उनके तन से गंध फूट रही थी... पर उनके कंधे पर सिर रखते हुए संकोच हो रहा था। तब एक क्षण के लिए उसने महसूस किया था कि वह गंध पिछले दो-तीन दिन से घर-भर में समाई हुई थी।

ठीक सवा सात बजे नीचे टैक्सी का हॉन बजा। ममी एकाएक घबरा-सी गईं। उतावलेपन में वह अपना सूटकेस उठाकर खुद ही सीढ़ियाँ उतरने लगीं। तभी टैक्सीवाला सरदार ऊपर आ गया। सुमी ने बिस्तर उसके लिए लुढ़का दिया और उनके हाथ से सूटकेस लेना चाहा, तो उन्होंने बड़ी आसानी से कहा था, “वह ले जाएगा।"

जब तक टैक्सीवाला सरदार दुबारा नहीं आया, वह वहीं सीढ़ियों पर रुके- रुके उससे बात करती रहीं, “दाई ज़रूर आ जाएगी... इधर का दरवाजा बंद रखना... रुपए हैं न... दाई से कहना, वह शाम का खाना भी बना देगी।"

और वह ज़रा तेज़ी से सीढ़ियाँ उतर गई थीं। सुमी बारजे पर आ गई। टैक्सी . की खिड़की से उन्होंने ऊपर देखते हुए धीरे से हाथ हिलाया था। टैक्सी चल पड़ी थी। उधरवाली खिड़की से सिगरेट का एक सुलगता हुआ टुकड़ा सड़क पर गिरा था। सुमी वहीं खड़ी-खड़ी उस टुकड़े को ताकती रही थी।

बहुत-सी पेटियों में सामान आया था। ममी रात को वापस आई थीं, इसलिए पेटियाँ घर पर ही उतारी गई थीं। वह बहुत खुश थीं, “हमारे कॉलेज में जो-जो इंस्ट्रूमेंट्स अब आ गए हैं, किसी भी कॉलेज की लैब में नहीं हैं।"

और गंदे कपड़े निकालने के लिए जब उन्होंने होल्डाल खोला था, तो सबसे पहले रूमाल निकालकर सुमो को दिए थे, “एक भी नहीं खोया... पाँच ये रहे, एक पर्स में है। ठीक है न..."

मलगुजे रूमालों में उड़ा-उड़ा सेंट महक रहा था... एक साड़ी के साथ ऊनी मोजा झाँक आया, तो ममी ने वह साड़ी होल्डाल की जेब में दबाते हुए कहा, “फिर निकाल लेंगे जब धोबी आएगा।” और उसे लपेटकर पलंग के नीचे सरका दिया था।

उन दिनों के बीच पानी का एक रेला आ-गया था। वे सिर्फ किनारों की तरफ समानांतर खड़ी रह गई थीं। और कभी-कभी ममी उसे देखकर ऐसे घबरा उठती थीं, जैसे पापा आ गए हों। और वह ममी को देखकर ऐसे अकुला, उठती थी, जैसे पापा चले गए हों। पर पापा थे कि न आते थे, न जाते थे... वह सिर्फ रुके हुए थे।

आखिर सुमी ने दिल कड़ा करके एक दिन कह दिया था, “ममी, यहाँ से मुझे ऑफिस बहुत दूर पड़ता है... अगर दो-तीन महीने में तुम्हें कॉलेज का काटेज मिल गया, तो ऑफिस और भी दूर हो जाएगा... इस वक्‍त वर्किंग गर्ल्स होस्टल में जगह मिल सकती है... अगर तुम कहो तो मैं यहाँ सीट ले लूँ?”

ममी एकाएक गंभीर हो गईं थीं। उन्होंने गौर से सुमी को देखा था। पर उसके चेहरे पर कहीं भी विक्षोभ नहीं था। आँखों में कोई दूसरा रंग नहीं था और लहजे में भी कटुता नहीं थी। सबकुछ सहज था।
“वहाँ तुम्हें दिक्कत होगी।” ममी के स्वर में प्यार था।
“तो घर भाग आऊँगी।” सुमी के लहजे में बहुत अपनापन था। बात बहुत आसान-सी रह गई थी। उसमें कोई पेंच या मरोड़ नहीं था।

पहली तारीख को सुमी होस्टल में पहुँच गई। ममी उसके साथ आईं और कमरे में सामान सजा गईं थीं। कुछ चीजें खरीदकर दे गई। बहुत-सी हिदायतें दे गई। शुरू- शुरू में कुछ दिनों तक तो वह हर शाम को कुछ देर के लिए आती रहीं, कभी-कभी सुमी जाती रही; फिर धीरे-धीरे टेलीफोन पर मुलाकात होने लगी... और फिर उसमें भी व्यवधान पड़ने लगा।

पर यह अच्छा हुआ था कि पापा उसके साथ चले आए थे। अब उसे पापा पर भी उतना तरस नहीं आता था। वह ममी के मोहताज नहीं रह गए थे। उसने उन्हें मुक्त कर लिया था। पर होस्टल का अकेलापन खाने दौड़ता था। सनकी लड़कियों के बीच दम घुटता था। लगता था कि ये सब भी पापा की तरह ही कहीं-न-कहीं रुकी हुई थीं।

एक दिन वह बहुत अकेली थी, तो पापा के कागज़-पत्तर खोलकर बैठ गई। डायरी खोली, तो देखते-देखते नजर पड़ी--ममी के जन्मदिन पर... पापा ने बड़े प्यार से ममी के बारे में कुछ लिखा था, जीवन-भर सुख देने की शपथ खाई थी। ग्यारह बरस पहले उन्होंने वह सब लिखा था... उसे बड़ी शांति मिली थी। पापा की तरफ से उसने उन्हीं की इच्छा पूरी कर दी थी। उसने तारीख देखी। तीन दिन बाद ममी चालीस की हो रही थीं।

और वह ममी के जन्मदिन पर बहुत सुबह-सुबह ही नरगिस के फूलों का गृच्छा लेकर पहुँची थी। वहाँ पहुँचकर एकाएक वह असमंजस में पड़ गई थी। इस वक्‍त आकर उसने अच्छा नहीं किया। शायद ममी को उलझन हो। उसका इस तरह आना खल जाए। उसे कल फोन कर देना चाहिए था। लेकिन लौटते भी बन नहीं रहा था।
उसने धीरे से दरवाज़े पर दस्तक दी।
“आई।” ममी की आवाज़ थी।

उन्होंने दरवाजा खोला, तो सुमी ने नरगिस के फूल लिए-लिए ही उन्हें प्यार से बाहों में कस लिया था। फिर हाथों में पकड़ा दिए थे।
ममी ने एक बार सुमी को देखा था, फिर फूलों को, और सोचती-सी बोली थीं, “तेरे पापा भी यही फूल लाते थे..."

फिर अपने को सँभालते हुए वह जल्दी-जल्दी गईं और चाय बना लाई थीं। प्याला बनाकर उन्होंने सुमी के आगे बढ़ा दिया था। चाय पीते हुए, दोनों ही अपनी- अपनी जगह बहुत अलग-अलग-सी एक-दूसरे को देख लेती थीं। आखिर ममी ने धीरे से पूछ लिया था, “सुमी, वहाँ कोई दिक्कत तो नहीं?”
“न ममी... बस, कभी-कभी बहुत सन्‍नाटा-सा लगता है।”

“यहाँ भी बहुत लगता है," ममी ने कहा था। फिर वह कुछ सकुचाई-सी देखती रही थीं और अपने में उलझती हुई बोली थीं, “घर में नाश्ता भी तो नहीं है... तुझे क्या कराऊँ ?"
“अंडेवाला अभी नहीं आया?"

“उसे छुड़ा दिया था।” ममी की आँखें शायद हल्के-से नम हो आई थीं। वह इधर-उधर देखने लगीं। फिर अपने पर ही हँसती हुई-सी उठी थीं, कुछ और सहारा न पाकर मेज पर रखे कैलेंडर को देखने लगी थीं। हँसते-हँसते ही बोली थीं, “जब से तू गई, तारीख ही नहीं बदली। खयाल ही नहीं रहा।"

और सुमी चाहते हुए भी कुछ कह नहीं पा रही थी। उसे लग रहा था कि चलने के लिए उठने से पहले वह ज्यादा-से-ज्यादा पूछ पाएगी, तो यही कि 'ममी, कितना बज गया है...'

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