तलाश (मराठी कहानी) : नीलकंठ नांदुरकर

Talaash (Marathi Story) : Nilkanth Nadurkar

सुबह छह बजे फोन की घंटी बजी। मैं बिस्तर पर लेटा हुआ था। वैजू ने फोन उठाया। बेडरूम के दरवाजे पर आकर उसने कहा, ‘‘नागेश भैया का फोन है।’’ मैं झट से उठ खड़ा हुआ। ‘‘हैलो सुमंत, पूरे जागे हो या अभी भी नींद में हो?’’ नागेश उत्साह में बोल रहा था।

‘‘हैलो नागेश, कब आए?’’

‘‘अभी-अभी एक घंटा पहले।’’

‘‘क्या खोज पूरी हुई?’’

‘‘अरे, पूरी हुई, मतलब? राज्यपाल से स्पेशल गोल्ड मेडल प्राप्त पुलिस अफसर हूँ। हारकर आ सकता हूँ भला!’’ नागेश की आवाज सुनकर लग रहा था कि वह बहुत खुश है। सीधी सी बात है, उसका काम सोलह आने पूरा हुआ होगा।

‘‘बधाई हो!’’

‘‘धन्यवाद! पर क्या तुम्हें विस्तार से सब जानने की इच्छा नहीं है?’’

‘‘यह तुम क्या कह रहे हो? सबकुछ जानने के लिए मैं बहुत उत्सुक हूँ।’’

‘‘तुम्हारी बातों से लगता है कि तुम्हें कहानी लिखने के लिए विषय मिलेगा, इसकी खुशी हो रही है।’’

‘‘अब तुम चाहे जो समझो, पर बताओ, कब आऊँ?’’

‘‘आज किसी भी समय आ सकते हो। वैसे भी मैं छुट्टी पर हूँ। ऐसा करो, भोजन के लिए आ जाओ, ठीक बारह बजे। कोई बहानेबाजी नहीं। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।’’ उसने फोन रख दिया।

चाय पीकर मैं अखबार देख रहा था। पहले पन्ने पर समाचार छपा था—‘पैसों के लिए माँ का खून!’ पेठ ताल्लुके में किसी शराबी ने माँ पैसे नहीं देती, इसलिए उसके सिर पर पत्थर मार दिया था। मैंने अखबार तिपाई पर रखा और सोफे पर आराम से बैठ गया। मुझे आठ दिन पहले की घटना याद आ रही थी।

ऐसे ही सुबह-सुबह नागेश मेरे घर आया था। ‘कुछ जरूरी बात करनी है।’ कहकर मुझे छत पर ले गया था। पहले ही दिन उसकी माँ की तेरहीं हुई थी। माँ के जाने से वह बहुत दुःखी था। और क्यों न होगा! वह पाँच साल का था, तब उसके पिताजी का देहांत हो गया था। नागेश इकलौती संतान था। माँ ने उसे बडे़ दुःख से पाला-पोसा था। उसे भी माँ की तकलीफों का एहसास था। उसने माँ की इच्छा पूरी की। राज्यपाल के हाथों बेटे का सम्मान हुआ, यह देखकर वृद्धा ने खुशी से आँखें मूँद लीं। नागेश की पत्नी, हमारी नंदा भाभी भी स्वभाव से ममतामयी हैं। उन्होंने सास को माँ समझकर उनकी सेवा की थी। नागेश मातृ-विरह से व्यथित है, यह तो मैं जानता था, लेकिन अब उसे अपना गम भुलाकर दुनियादारी की ओर ध्यान देना चाहिए। ऐसा मैं उसे समझाने जा रहा था। नागेश ने एकदम बम विस्फोट कर दिया। ‘‘सुमंत, पहले मुझे वचन दो, अब मैं जो कुछ तुम्हें बताऊँगा, वह तुम किसी को नहीं बताओगे। अपनी पत्नी को भी नहीं!’’

‘‘ठीक है, दिया वचन!’’

नागेश सामने के गुलमोहर वृक्ष की ओर देखते हुए बोला, ‘‘सुमंत, मैं भोंडे की जायज संतान नहीं हूँ।’’

‘‘ऐं? यह क्या बकवास है? होश में तो हो?’’

‘‘चीखो मत, वैजू, भाभी ऊपर आ जाएगी।’’

‘‘नागेश, तुम जो कुछ कह रहे हो, उस पर मुझे विश्वास नहीं हो रहा है।’’

‘‘मुझे भी नहीं हो रहा। लेकिन यह सत्य है शत-प्रतिशत! इसलिए मैं परेशान हूँ।’’

‘‘लेकिन तुम्हें कैसे पता चला?’’

‘‘आखिरी समय में माँ ने बताया।’’

‘‘तुम्हें, अकेले को?’’

‘‘नहीं, मैं और नंदा दोनों थे; और कोई नहीं था। तुम तो जानते हो न कि माँ को कैंसर था। आखिरी समय में साँस लेना मुश्किल हो रहा था, लेकिन वह होश में थी। मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर उखड़े शब्दों में उसने कहा, ‘नागेश, एक सत्य बताती हूँ। अगर मैंने यह नहीं बताया तो मैं चैन से मर नहीं सकूँगी। मुझे वचन दो कि मैं जो कुछ बताऊँगी, वह सुनने के बाद तुम मुझसे नाराज नहीं होगे!’

‘नहीं होऊँगा, बताओ!’

‘तुम्हें...तुम्हें हमने...गोद लिया था।’

‘क्या?’ मैं चीखा था।

‘हाँ बेटे, आखिरी समय में मैं झूठ नहीं बोलूँगी। सच कह रही हूँ। सच बताकर मेरे मन का बोझ हलका हो गया है। तुम्हें मैंने अपने बेटे की तरह पाला है। उसी रिश्ते से मेरा अंतिम संस्कार करो तो मुझे सद्गति मिलेगी।’ उसकी अवाज धीमी होती जा रही थी।

‘मुझे कहाँ से गोद लिया था? माँ, बताओ!’

‘अनाथ आश्रम वात्सल्य...’

‘कौन से गाँव से?’

‘श्री...श्रीराम...’ और उसकी साँस रुक गई।

पलभर को हम दोनों चुप हो गए। फिर मैंने पूछा, ‘‘नागेश, आखिरी पल माँ के मुँह में श्रीराम नाम था। वह भगवान् का नाम ले रही थीं या तुम्हें गाँव का नाम बता रही थीं?’’

‘‘वही समझ में नहीं आ रहा है।’’

अब समझ में आया कि नागेश इतना परेशान क्यों था। अचानक यह सत्य सामने आने के बाद कोई भी परेशान होगा ही!

‘‘नागेश, नाराज मत होना, लेकिन मैं जानना चाहता हूँ कि इस पर नंदा भाभी की क्या प्रतिक्रिया थी?’’

‘‘उसने इस बात को ज्यादा अहमियत नहीं दी, बल्कि गत तेरह-चौदह दिनों से वह मेरा समर्थन कर रही है। वह कहती है कि अब तुम इस बात पर सोचो मत। भूल जाओ सब! सुमंत, कैसे भूल जाऊँ? मेरे लिए यह जानना जरूरी है कि मैं किस जाति का, कौन से खानदान का, मेरे माता-पिता कौन हैं?’’

‘‘नागेश, नंदा भाभी ठीक कह रही हैं। तुम बहुत किस्मतवाले हो, इसलिए तुम्हें नंदा भाभी जैसी पत्नी मिली। और कोई होती तो हंगामा मचाती।’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो, लेकिन सुमंत, तलाश किए बिना मुझे चैन नहीं आएगा। मेरे माँ-बाप ने मुझे अनाथ आश्रम में क्यों रखा? गरीबी के कारण या नाजायज...?’’

‘‘अब तुम कुशंकाएँ मत निकालो।’’

‘‘कैसे न निकालूँ? एक नहीं, हजार कुशंकाएँ मन में आती हैं और मेरी परेशानी बढ़ाती हैं।’’

‘‘देखो नागेश, तुम्हारी छुट्टियाँ समाप्त हो गई हैं। अब तुम ड्यूटी पर हाजिर हो जाओ। काम में मन लगेगा तो सबकुछ भूल जाओगे।’’

‘‘नहीं सुमंत, यह सब इतना आसान नहीं है। मैंने एक महीने की छुट्टी बढ़वाई है।’’

‘‘यह भला किसलिए?’’

‘‘मैं कौन हूँ? इस सत्य की खोज के लिए कल ही निकल पड़ूँगा।’’

‘‘लेकिन नागेश, यदि यह सत्य कटु हुआ तो?’’

‘‘जैसा भी हो, मैं स्वीकार करूँगा।’’

‘‘अच्छा, अब चलता हूँ।’’

‘‘अरे, तुम लेखक हो, एक बात बताओ, अंत में माँ ने वात्स...वात्स कहा था। ठीक से कह नहीं पा रही थीं।’’

‘‘वात्स से शुरू होनेवाले दो-चार शब्द मैं जानता हूँ। ‘वात्सल्य’ मूल संस्कृत शब्द, अर्थ—प्यार, ममता। दूसरा ‘वात्सक’ यह भी संस्कृत शब्द है, जिसका मतलब है—बछड़ों का झुंड! ‘वात्सी’ संस्कृत, मतलब—ब्राह्मण और शूद्र की बेटी। चौथा शब्द ‘वात्सायन’, कामसूत्र के लेखक। यहाँ ‘वात्सल्य’ शब्द ही सही होगा। इस शब्द का अनाथ आश्रम से संबंध दिखाई देता है। अनाथ बच्चों की प्यार से, ममता से परवरिश करनेवाली संस्था। ठीक है न!’’

‘‘तुमने ठीक ही कहा। धन्यवाद! तुमने धागे का छोर हाथ में दिया है। उससे अब गुत्थी सुलझाऊँगा। चलता हूँ!’’

‘‘महान् लेखक सुमंतजी आइए।’’ नागेश ने मेरा स्वागत किया। मैं घर में गया। हॉल में टी.वी. के सामने सोफे पर एक बुजुर्ग महिला बैठी थी। वह गोरी थी। उसने लाल किनारेवाली सफेद नौ गज की साड़ी बाँधी थी।

‘‘सुमंत, मेरी माँ से मिलो, और माँ, यह मेरा खास दोस्त है—सर देशमुख, बड़ा लेखक है।’’

मैंने उन्हें प्रणाम किया।

‘‘अरे-अरे! मुझे क्यों प्रणाम कर रहे हो?’’ उन्होंने संकोच से कहा। फिर आशीर्वाद दिया, ‘‘आयुष्मान भव!’’

‘‘आप नागेश की माँ हैं, मतलब मेरे लिए माँ समान ही हैं। जैसा नागेश, वैसा ही मैं, आप मुझे ‘आप’ मत कहिए।’’ कुरसी पर बैठते हुए मैंने कहा।

नागेश की माँ की ओर देखते ही मुझे एहसास हुआ कि नागेश मातृमुखी है। वैसा ही चेहरा, नीली आँखें, सीधी नाक, फर्क इतना ही था कि उनकी चिबुक पर तिल था और कपाल पर गोदना।

‘‘सुमंत, खाने में अभी समय है, तब तक चाय तो पीयोगे न?’’ मैंने ‘हाँ’ कर दी।

‘‘मैं जानता था। माँ इसे बीच-बीच में घूँट-घूँट चाय पिलाती है। नंदा, सुमंत आया है।’’ उसने रसोई की ओर देखकर कहा।

‘‘मैंने भी चाय का पानी चढ़ा दिया है।’’ नंदा भाभी ने अंदर से जवाब दिया और मुसकराती हुई बाहर आईं। ‘‘बारा, मतलब ठीक बारह बजे आ पहुँचे, सुमंत भैया!’’ फिर उस बुजुर्ग महिला की ओर देखकर पूछा, ‘‘माँजी, आप भी थोड़ी चाय पीयोगी न? भैया को अदरकवाली चाय पसंद है। आप भी थोड़ी लीजिए। आपको जुकाम हो गया है। अदरकवाली चाय से कम होगा।’’

‘‘ले लूँगी आधा कप।’’ बहू का अपनापन देखकर महिला का कंठ भर आया था। नंदा भाभी की बातें सुनकर लगा कि उन्होंने अपनी नई सास को स्वीकार कर लिया है। नागेश की खोज-मुहिम सुनने के लिए मैं बेताब था। चाय पीने के बाद हम छत पर गए। वहाँ बैठने के बाद नागेश ने कहा, ‘‘सुमंत, सुबह मेरा फोन सुनकर तुम्हें लगा होगा कि मेरा अभियान सौ प्रतिशत सफल हुआ, लेकिन ऐसा नहीं है। उसमें एक बेचैनी, एक टीस है, जैसे गुलाब का फूल चुनते हुए काँटा लग जाए।’’

‘‘अब सीधे-सीधे बताओ भी!’’

‘‘ठीक है, उस दिन तुमसे वात्सल्य शब्द का क्ल्यू लेकर निकला, लेकिन सवाल यह था कि कौन से गाँव जाऊँ? तुम्हारी दूसरी आशंका से प्रेरणा मिली। अंत समय में माँ ने श्रीराम भगवान् का नाम लिया था या गाँव का नाम बताया था! तुमने पूछा था। सोचने पर लगा कि गाँव का ही नाम होगा। नंदा ने भी समर्थन दिया। उसने कहा, ‘‘माँजी सबकुछ बताना चाहती थीं। आपने पूछा था कि गाँव कौन सा था? तो उन्होंने यही बताना था, लेकिन पूरा नाम लेने से पहले ही वे चली गईं। फिर मैंने श्रीराम मतलब श्रीरामपुर तय किया। फिर भी सवाल था। भारत में रामपुर और श्रीरामपुर नाम के डेढ़ सौ गाँव हैं। अब कहाँ से शुरू करूँ? चलिए, करीब के गाँव से शुरू करते हैं। यह सोचकर अहमदनगर जिले के श्रीरामपुर गया। पुलिस डिपार्टमेंट का एक फायदा है कि किसी भी गाँव के पुलिस स्टेशन से संपर्क करके हम तलाश कर सकते हैं। हर गाँव में पुलिस के मुखबिर रहते हैं। उनसे सही जानकारी मिलती है।

‘‘श्रीरामपुर पुलिस स्टेशन पर वात्सल्य अनाथ आश्रम खोजने लगा। वहाँ का सब इंस्पेक्टर भोसले बहुत तत्पर आदमी है। उसने मेरे सामने सामाजिक संस्थाओं की सूची रख दी। उसमें कहीं भी वात्सल्य नाम नहीं था। पर भोसले इतनी जल्दी पीछे हटनेवाला नहीं था। उसने कहा, ‘‘सर, यहाँ काकासाहब काके नाम के पुराने सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनकी उम्र नब्बे के करीब है, फिर भी वे एक्टिव हैं। वे मेरे अच्छे परिचित हैं। हम उनसे मिलेंगे, चलिए!’’

‘‘सर, पास-पड़ोस के लोगों को गलतफहमी न हो, इसलिए हम साधारण ड्रेस में जाएँगे।’’

‘‘ठीक है।’’

एक पुराने मकान में काके का कमरा था। उन्होंने शादी नहीं की थी। समाज-सेवा में जीवन समर्पित किया था। पड़ोस की एक महिला उनके लिए खाना बना देती थी। श्रावण बाघमारे नाम का एक आधी उम्र का आदमी उनके सब काम करता था। बाघमारे ने ही दरवाजा खोला। सामने खाट पर काकासाहब बैठे थे। कटोरे में चम्मच से कुछ खा रहे थे। बुढ़ापे से चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं, लेकिन जवानी में प्रभावशाली व्यक्तित्व रहा होगा!

‘‘आइए भोसलेजी, कैसे आना हुआ?’’ उन्होंने कहा। श्रावण ने दो कुरसियाँ लाकर रख दीं। भोसले ने काकासाहब को प्रणाम किया। मेरा परिचय करवाया और पूछा, ‘‘क्या वे किसी वात्सल्य अनाथ आश्रम के संबंध में कुछ जानते हैं?’’ काकासाहब याद करने का प्रयास करने लगे। ‘‘वात्सल्य...वात्सल्य...अनाथ...आश्रम!’’ वे बुदबुदाने लगे। फिर कहा, ‘‘वात्सल्य न! याद आया, इस नाम का एक अनाथ आश्रम था, लेकिन वह केवल पंद्रह दिन में ही बंद हो गया था।’’

‘‘बंद हो गया? क्यों? कैसे?’’

‘‘बताता हूँ।’’ उन्होंने पानी पिया।

‘‘काकासाहब, पहले आप नाश्ता कर लीजिए।’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। खाने में थोड़ी देरी होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अब याद आया है तो भूलने से पहले बता देता हूँ। श्रावण, इनके लिए दूध ले आओ! हाँ, तो अनाथ आश्रम यहाँ से चार-पाँच घर आगे चाल में था। वत्सला बहन डोंगरे नाम की एक समाजसेविका थीं। आंबेवाड़ी में उनकी खेतिबारी थी। उनका इकलौता बेटा खेती देखता था। वत्सला बहन बहुत करुणामयी थीं। गरीबों के लिए उनके मन में आत्मीयता थी। मुझे वह गुरु मानती थी। एक बार उसने कहा, ‘‘काकासाहब, मैं अनाथ बच्चों के लिए आश्रम खोलना चाहती हूँ, अच्छा सा नाम बताइए?’’

‘‘वत्सला, तुम यह बहुत नेक काम करने जा रही हो। ‘वात्सल्य’ नाम रखो। वत्सला का वात्सल्य! उसे पसंद आया। मेरे ही हाथों औपचारिक उद्घाटन हुआ। वात्सल्य अनाथ आश्रम लिखे हुए बोर्ड पर माला चढ़ाई। नारियल चढ़ाया। दो-चार दिन बाद रास्ते पर भीख माँगनेवाले दो लड़कों को आश्रम में रख लिया। एक हफ्ते बाद एक लड़की आई। फिर एक महिला ने गरीबी के कारण एक छोटा बच्चा भरती किया। मैंने कहा था कि वत्सला, तुम्हारा आश्रम रजिस्टर करवा देते हैं। आगे-पीछे जब काम बढे़गा तो सरकारी अनुदान के लिए अरजी दी जा सकेगी। लेकिन उससे पहले ही आश्रम बंद हो गया। वत्सला का बेटा हार्ट अटैक से चल बसा। उसकी कोई संतान नहीं थी। आश्रम बंद करके वत्सला आंबेबाड़ी चली गई।’’

‘‘आश्रम के बच्चों का क्या हुआ?’’

‘‘कुल चार बच्चे ही तो थे। वत्सला उन्हें साथ ले गई।’’

‘‘क्या वत्सला बहन अब हैं?’’

‘‘शायद होगी! मेरी उससे फिर मुलाकात नहीं हुई, क्योंकि मैं पंद्रह-बीस साल विनोबाजी के ‘भूदान यात्रा’ में शामिल हुआ था। भारत भर पैदल घूमा था। आगे चलकर चुनाव भी जीता। काम का विस्तार हुआ था। अब अगर वह होगी तो करीब-करीब सत्तर साल की होगी। देखिए, मिलने का प्रयास कीजिए और अगर मिल जाए तो मेरी पहचान बताइएगा।’’

‘‘धन्यवाद, बाबासाहब।’’ हमने उन्हें प्रणाम किया और निकल गए। फिर जीप से आंबेवाड़ी गए। गाँव से बाहर पच्चीस-तीस किलोमीटर दूर वत्सला बहन की खोली थी। खेत के करीब पुराना घर था। तुलसी चौरे के चबूतरे पर एक वृद्धा बैठी थी। आँखों पर मोटे काँच का चश्मा था।

भोसले ने परिचय करवाया। पुलिस के आदमी देखकर वह थोड़ी घबरा गई थी। मैंने कहा, ‘‘वत्सला बहन, आप घबराइए नहीं, आपने कोई अपराध नहीं किया है। हमें वात्सल्य अनाथ आश्रम के बारे में जानकारी चाहिए। काकासाहब ने आपके बारे में बताया, इसलिए हम आए हैं।’’

‘‘काकासाहब!’’ कहकर उसने हाथ जोड़ दिए। ‘‘बहुत बडे़ आदमी हैं। वे ठीक से हैं न?’’

‘‘ठीक ही हैं। उम्र के हिसाब से तबीयत भी ठीक है।’’

‘‘अब हमें बताइए, आपके आश्रम में कितने बच्चे थे?’’

‘‘केवल चार, तीन लड़के और एक लड़की।’’

‘‘उनके बारे में कोई जानकारी?’’

‘‘जरा रुकिए। काकासाहब के कहने पर मैंने उनकी जानकारी एक नोटबुक में लिखकर रखी थी। आप बैठिए, मैं वह नोटबुक ढूँढ़ती हूँ। आप क्या लेंगे, चाय या दूध?’’

‘‘हमें कुछ नहीं चाहिए। आप नोटबुक ढूँढ़ लो।’’

दस-पंद्रह मिनट में वत्सला बहन एक नोटबुक लेकर आईं। मोटे कागज का हाथ से सिलाई किया हुआ नोटबुक मेरे हाथ में दिया। नोटबुक पुराना था, इसलिए कागज पीले पड़ गए थे। पहले पृष्ठ पर लाल स्याही से बडे़-बडे़ अक्षरों में लिखा था—‘वात्सल्य’ अनाथ बच्चों के लिए आश्रम। दूसरे पृष्ठ पर जानकारी थी—

(१) लड़का, नाम—बंडा, उम्र—पाँच साल। भिखारी का बेटा, माँ-बाप का पता नहीं। भरती की तारीख १५.८.१९६०।

(२) लड़का, नाम—चंदा, उम्र—चार साल, भिखारी, माँ-बाप का पता नहीं। भरती की तारीख—१५.८.१९६०।

(३) लड़की, नाम—जनी, उम्र—तीन साल, माँ का नाम लक्ष्मीबहन, व्यवसाय-मजदूरी, गाँव-देहरे, गरीबी के कारण आश्रम में भरती किया। तारीख—२०.८.१९६०

(४) लड़का, नाम—नागनाथ (चि. नागनाथ की याद में मैंने ही यह नाम रखा था।) उम्र—१५ दिन, माँ का नाम—कुंता बहन, खरोटे (गुमराह की गई), गाँव—राहाटा, भरती—२५.८.१९६०।

‘‘बस्स...! इतनी की जानकारी?’’ भोसले ने पूछा।

‘‘हाँ, इतनी ही साहब। इसके बाद मेरे परिवार का आधार-स्तंभ ढह गया! सबकुछ समाप्त हो गया।’’ वत्सला बहन की आँखें भर आईं। हमें भी बुरा लगा।

‘‘वत्सला बहन, हम आपका दुःख समझ सकते हैं। शांत हो जाइए। कुछ बातें अपने हाथ में नहीं होतीं। भगवान् की मर्जी समझकर सहनी चाहिए।’’

‘‘बहनजी, उन बच्चों का क्या हुआ?’’

‘‘बंडा और चंदा को मेरे भाई ने नगर के अनाथ आश्रम में भेजा। जनी को मैंने अपने पास रखा और नागनाथ को दत्तक दिया।’’

‘‘किसने दत्तक लिया था?’’ मैंने पूछा।

‘‘नासिक के कोई भोंडे थे। पति-पत्नी नेवासे आए थे। वहाँ उनकी मेरे भाई से पहचान हुई।’’

भोंडे कहते ही भोसले ने चौंककर मेरी ओर देखा। मैंने समय सूचक दिखाते हुए कहा। हमारे चचेरे चाचा थे। उन्हें संतान नहीं थी, इसलिए दत्तक लिया। संपत्ति के लिए कोर्ट में केस चल रहा है, इसलिए यह जानकारी चाहिए।’’ मेरी दी हुई सफाई से भोसले का समाधान हुआ। मैंने पूछा, ‘‘वत्सला बहन, कुंता बहन के बारे में कुछ जानकारी हो तो कृपया बताइए।’’

‘‘उसके बाद उससे मुलाकात नहीं हुई। उसने रोते-रोते जो जानकारी दी, उससे पता चला कि उसे किसी सिपाही से प्यार था। वे दोनों शादी करनेवाले थे। पता नहीं क्या हुआ कि सिपाही गायब हो गया। उसके साथ धोखाधड़ी हुई थी। वह बच्चा लेकर मेरे पास आई थी। मुझपर तो आसमान टूटा था। भाई भोंडे पति-पत्नी को लेकर आया। बातचीत से अच्छे लोग लगे। बच्चा गोद लेने के बारे में कहा और मैंने दे दिया।’’

‘‘क्या कुंता बहन अब जहान में होंगी?’’

‘‘यह तो मैं बता नहीं सकती, लेकिन अगर होगी तो मेरी ही उम्र की होगी। मुझे ठीक से याद है साहब, वह बहुत खूबसूरत थी। उसके चिबुक पर तिल था और भौंहों के बीच त्रिशूल का गोदना था।’’

‘‘ठीक है, वत्सला बहन, आपने जो जानकारी दी, उसके लिए धन्यवाद।’’

‘‘साहब, आपने चाय-वाय कुछ नहीं लिया। जरा रुकिए न।’’

‘‘नहीं वत्सला बहन, हम जरा जल्दी में हैं। बहनजी, उस लड़की का क्या हुआ?’’

‘‘मैंने उसे पाल-पोसकर बड़ा किया और उसकी शादी कर दी। अब वह नेवासा में रहती है। उसका पति, बाल-बच्चे सब अच्छे हैं।’’

‘‘अपका दिल बड़ा है, बहन। अच्छा, अब हम चलते हैं। वहाँ से हम राहाटा पुलिस स्टेशन गए। वहाँ पूछताछ करने पर एक सिपाही ने बताया कि गाँव की सीमा के पास कुंता बाई नाम की वृद्धा रहती है। लेकिन वह बस्ती अच्छी नहीं है। गुंडे-शोहादों का एरिया है।’’

‘‘रहने दो, हमारे पास पिस्तौल है। सादा ड्रेस में एक सिपाही हमारे साथ दे दो।’’

सचमुच वह गंदी बस्ती थी। सिपाही को हमने दूर खड़ा किया। हम आगे बढे़। एक घर के सामने रुके, ईंट की दीवारें और ऊपर टीन डाले हुए थे। वहाँ चबूतरे पर एक आदमी बैठा था। ‘‘क्या यहाँ कोई कुंता बहन नाम की महिला रहती है?’’ भोसले ने पूछा। उसने अनसुनी कर दी। शायद उसे ऊँचा सुनाई देता होगा, ऐसा सोचकर मैंने ऊँची आवाज में सवाल दोहराया। उस आदमी ने पच्च से थूक दिया और बोला, ‘‘वह रांड!’’ भोसले ने एक जोरदार थप्पड़ उसकी कनपटी पर जमा दिया। वह लड़खड़ाया। फिर अपने आपको सँभालकर उठ खड़ा हुआ और जेब से रामपुरी चाकू निकालकर भोसले की ओर दौड़ा। मैंने फौरन उसका हाथ पकड़कर मरोड़ दिया। चाकू गिर गया। भोसले ने दूसरा थप्पड़ लगाया, तब तक सिपाही दौड़ा-दौड़ा चला आया। पीछे से दो-तीन गुंडे आ रहे थे। मैंने पिस्तौल निकाला और दहाड़ा, ‘‘अगर किसी ने आगे आने की कोशिश की तो गोली मार दूँगा। हवलदार, इस कमीने को पुलिस स्टेशन ले जाओ। इसने पुलिस पर हमला करने की कोशिश की है। इसे पुलिस का झटका दिखाओ।’’ भोसले चरिया पुलिस का नाम सुनते ही गुंडे भाग खडे़ हुए। एक बुजुर्ग खाँसते-खाँसते आगे आया और नम्रतापूर्वक बोला, ‘‘माफ कीजिए साहब, आपको किसकी तलाश है?’’

‘‘कुंता बहन की।’’

‘‘इसी घर में रहती हैं साहब!’’ बंद दरवाजे की ओर इशारा किया। ‘‘लेकिन वह बीमार है। आप नाराज मत होइए साहब! लेकिन क्या कुंता बहन से कोई अपराध हुआ है?’’

‘‘नहीं भाई! अपराध-वपराध कुछ नहीं। थोड़ी सी जानकारी लेनी है।’’ फिर भोसले को अलग ले जाकर कहा, ‘‘भोसले, आपने अब तक मेरी बहुत मदद की, इसके लिए जितना भी धन्यवाद दिया जाए, वह कम है। अब मैं अकेला ही अंदर जाना चाहता हूँ। कुछ व्यक्तिगत सवाल पूछने हैं। आप साथ रहे तो वह महिला बात करने में हिचकिचाएगी, इसलिए आप बाहर ही...’’

‘‘रुक जाता हूँ न सर, इसमें कौन सी बड़ी बात है? उधर उस पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठता हूँ।’’

दरवाजा भिड़ा हुआ था। अंदर गया तो सामने ही खाट पर कुंता बहन लेटी थीं। दरवाजे की आवाज सुनकर उसने आँखें खोलीं। ‘‘कौन है?’’ उन्होंने पूछा। सुमंत, मैं केवल देखता ही रह गया। उस समय मन में क्या-क्या सवाल उठ रहे थे, बता नहीं सकता? खून की कशिश कहो या कुछ और, मुँह से शब्द निकाला—‘माँ’! वह चौंककर उठने का प्रयास करने लगीं तो उन्हें सहारा देकर बिठाया। उन्हें थोड़ा बुखार था।

‘‘आप कौन हैं? मुझे माँ क्यों कहा? आपका नाम?’’

‘‘माँ, मैं तुम्हारा बेटा हूँ, नागेश।’’ वह सर से पाँव तक थरथराई। ‘‘बेटा! मेरा बेटा?’’ वह चक्कर खाकर गिरने लगी तो मैंने उसे सहारा दिया।

‘‘हाँ माँ! होश में आओ माँ, मैं चाहे जिसकी सौगंध खाकर कहता हूँ, मैं तुम्हारा बेटा हँू।’’ वह सँभलकर बैठ गई। ‘‘पानी...’’ मैंने उसे पानी दिया। पानी पीकर वह बोली, ‘‘मेरा बेटा! मेरा बच्चा!’’ उसके झुर्रियाँ पडे़ हाथ मेरा चेहरा सहलाने लगे।

‘‘हाँ माँ, तुमने मुझे श्रीरामपुर के वात्सल्य अनाथ आश्रम में छोड़ा था।’’

‘‘हाँ बेटे!’’ अब उसकी आँखें भर आईं। ‘‘मैंने, मैंने, चुड़ैल ने अपना बेटा वहाँ दिया था। क्या करती, दूसरा कोई चारा नहीं था।’’ मेरे कंधे पर मस्तक रखकर वह आँसू बहाने लगी। मेरा भी दिल भर आया। मैंने उनकी पीठ सहलाते हुए कहा, ‘‘माँ, रो मत, अब तुम मिल गई तो मुझे सबकुछ मिल गया। चलो माँ, अब तुम अपने घर चलो। मैं तुम्हें लेने आया हूँ।’’

वह झट से परे हट गई। रोते-रोते बोली, ‘‘नहीं बेटे, मैं कैसे आ सकती हूँ।’’

‘‘क्यों? क्यों नहीं आ सकतीं?’’

‘‘मैं पापी हूँ। अभी मैंने शोरगुल सुना था। किसी ने रांड कहा था। भागमभाग, पुलिस का नाम सब सुना था। मैं डर रही थी। किसी ने कहा, वह झूठ नहीं है। मैं सचमुच वेश्या हूँ।’’

वह फिर से आँसू बहाने लगी। मैं भी सुन्न हो गया।

‘‘देखा, तुम भी चुप हो गए। यह शब्द ही ऐसा है, सुनते ही नरक में गिरने जैसा लगता है। मैंने उस नरक में तीस साल बिताए हैं। अब तुमसे क्या छिपाना? अपनी माँ का अतीत जान लो। फिर निर्णय लेना कि घर ले जाना है या नहीं।’’

‘‘मेरा नाम शकुंतला खरोटे, जात—सुनार, नवमी कक्षा में पढ़ती थी, उम्र सतरा साल, एक बार घर जाते समय एक मवाली ने मेरा हाथ पकड़ा। मैं चीखी! बाजू की गली से एक जवान सिपाही आया और उसने मुझे छुड़ाया। मवाली को पीटा, उसके दाँत तोड़ दिए। मुझे घर तक छोड़ा। उस दिन से हमारी जान-पहचान बढ़ती गई। हम एक-दूसरे से कब प्यार करने लगे, पता ही नहीं चला। वह बहुत खूबसूरत और रोबदार था। उसका नाम सोमनाथ कुलकर्णी था। मैं उसे नाथ कहती थी और वह मुझे कुंता। हमने एक-दूसरे को शादी करने का वचन दिया था। उसके घर में उसकी माँ थी। उसने कहा था कि तुम्हें लड़की पसंद है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मेरे माता-पिता नाराज थे। लड़का खूबसूरत है तो क्या हुआ? पढ़ाई दसवीं तक, नौकरी सिपाही की, अपनी जात-बिरादरी का नहीं। एक पुराना घर, यही कुल संपत्ति। लेकिन मेरा इरादा पक्का है। ऐसी ही एक मुलाकात में वह हुआ, जो नहीं होना चाहिए था। मेरा पाँव भारी हुआ, तब मैंने कहा कि हमें जल्द-से-जल्द शादी कर लेनी चाहिए। उसने कहा कि रजिस्टर्ड मैरेज करेंगे। नियमानुसार नोटिस दी। उसके तीसरे दिन किसी अपराधी की तलाश में पाथर्डी गया, वहाँ उसका खून...।’’ जिस मवाली से उसने मुझे बचाया था, उसी ने रंजिश में सुपारी देकर उसे मरवाया। मेरा सबकुछ लुट गया। नाथ की माँ हिम्मत हारकर पंद्रह दिन में चल बसी।’’

‘‘मेरे माता-पिता मुझसे कहने लगे कि अबॉर्शन करवा लो। मैंने इनकार किया। मुझे मेरे नाथ के प्यार की निशानी सँभालनी थी। मुझे कुलकलंकिनी कहकर घर से निकाल दिया गया। नाथ के घर से जाते हुए भावनाएँ उमड़ पड़ीं। उसी समय घर में से एक वृद्धा बाहर आई। चेहरे से ममतामयी लग रही थी। मुझे बुलाकर कहा कि आओ मेरी बच्ची! तुम मेरे सोमनाथ की पत्नी होनेवाली थीं न? मैं कमला बुआ, सोमनाथ के पिता की चचेरी बहन। अब शांत हो जाओ। भगवान् की मर्जी के आगे किसी का कुछ नहीं चलता। खैर, अब इतनी धूप में कहाँ जा रही हो?’’

‘‘सहारा ढूँढ़ने!’’ मैंने कहा।

‘‘मैं तुम्हें सहारा दूँगी। मेरा भी इस दुनिया में कोई नहीं है। मेरे साथ नेवासा चलो, वहाँ मैं घरेलू भोजनालय चलाती हूँ। मुझे तुम्हारी मदद मिलेगी।’’ बुढि़या इतने प्यार से कह रही थी कि मैं न नहीं कर सकी और उसके साथ नेवासा चली गई।

बुआजी ने मेरी अच्छे से देखभाल की। उनके भोजनालय में तुम्हारा जन्म हुआ। तुम्हारे जन्म के आठ दिन बाद बुआजी ने कहा, ‘‘शकुंतला, कामगाँव टोके के भगवंत राव आए थे। वे तुमसे शादी करने के लिए तैयार हैं।’’

‘‘क्या...शादी?’’ मैंने चौंककर पूछा था।

‘‘हाँ, अभी तुम्हारी पूरी जिंदगी पड़ी है। मैं कबतक रहूँगी, तुम अकेली कैसे जिंदगी गुजारोगी? भगवंतराव मेरे जान-पहचान के हैं। बडे़ जमींदार हैं। विपुल संपत्ति है। रानी जैसी रहोगी। लेकिन उनकी एक शर्त है। वे कहते हैं कि बच्चे के साथ स्वीकार नहीं करेंगे। बच्चे को अनाथाश्रम...’’

‘‘यह नहीं हो सकता।’’ मैं चीखी थी।

‘‘चीखो मत! मेरी जबरदस्ती नहीं है। तुम्हारी जिंदगी सँवर जाए, इसलिए कहा था। मुझसे गलती हो गई।’’

‘‘नहीं बुआजी, आपने कोई गलती नहीं की। आपने मेरी भलाई के लिए ही कहा था। लेकिन मुझे सोचने के लिए समय दो।’’

‘‘सोच लो। अच्छे से सोच-समझकर निर्णय ले लो। भगवंत राव परसों आनेवाले हैं।’’

मेरी बदकिस्मती से दूसरे ही दिन बुआजी जलकर मर गईं। चूल्हे पर से कड़ाही उतारने गई और चक्कर आकर चूल्हे पर गिर पड़ीं। सब तरफ तेल फैल गया और बुआजी बुरी तरह झुलस गईं। तुम्हें झूले में रखकर मैं नहाने गई थी। रोटी बनानेवाली बहन बुआजी को बचाने गईं तो वह भी झुलस गई। शोर मचा तो मैं साड़ी लपेटकर बाहर आई। दोनों को अस्पताल ले गई। रोटी बनानेवाली बच गई, पर बुआजी चली गईं। मैं फिर से निराधार हो गई। भगवंतराव आए। ‘हाँ’ कहने के सिवा मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। वे मुझे श्रीरामपुर ले गए। और बेटे, मैंने तुम्हें वत्सलाबाई के आश्रम में...’’ माँ की हिचकी बँध गई।

‘‘नाम भगवंत, लेकिन करतूत राक्षस की। उसने मुझसे शादी तो की नहीं, लेकिन धंधे पर लगा दिया। उसका चकला था। आगे का नरकवास बयान नहीं करूँगी। बाद में पता चला कि कमला बुआ सोमनाथ की रिश्तेदार नहीं थी। सोमनाथ के माँ की सहेली थी। मीठी-मीठी बातें करके लड़कियों को बहला-फुसलाकर भगवंतराव के चकले में भेजती थी। लेकिन दुनिया में अच्छे लोग भी होते हैं। जनु भैया के रूप में मुझे देवदूत मिला। उसने मुझे भाई जैसा सहारा दिया। अब वह भी थक गया है।’’

‘‘इसी घर में रहता है। कहनेवाला बुजुर्ग ही तुम्हारा भाई है न?’’

‘‘हाँ, वही।’’

‘‘सुमंत, मैं सुन्न हो गया था। क्या कहें, क्या करें? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मन में तूफान उठा था। अंत में खून की कशिश प्रभावी सिद्ध हुई। मन में विचार आया कि जो भी हो, जैसी भी हो, उसने मुझे जन्म दिया है। बदकिस्मती से आज उसकी यह हालत हुई है। उसे इस हालात में छोड़कर नहीं जाना चाहिए।’’ मैंने माँ को गले लगाया और कहा, ‘‘जो हुआ, उसे भूल जाओ। अब घर चलो। तुम्हारी बहू बहुत ममतामयी और दिलवाली है। दो पोते और एक पोती है। उनके साथ खुशी से रहो।’’

‘‘ऐसी कोई भी चीज साथ मत लेना, जो तुम्हारे अतीत की याद दिलाए। उठो, तुम थोड़ा चल सकोगी न? मैं गाड़ी मँगवाता हूँ।’’

मैंने बाहर आकर भोसले से कहा, ‘‘भोसले पुलिस स्टेशन फोन करके जीप भेजने के लिए कहो, मैं कुंता बहन को साथ ले जा रहा हूँ।’’

‘‘ओ.के. सर!’’

मैं माँ को लेकर बाहर आया। बूढ़ा जनु भैया दूर खड़ा था। माँ ने इशारे से उसे बुलाया। हाथ जोड़कर भरे गले से कहा, ‘‘जनु भैया, मैं मेरे बेटे के साथ जा रही हूँ। आशीर्वाद दीजिए।’’

‘‘जाओ बहन, कहीं भी जाओ, सुखी रहो!’’ फिर आँसू पोंछकर, हाथ जोड़कर मुझसे कहा, ‘‘मेरी बहन का खयाल रखना, बेचारी ने बहुत कुछ सहा है।’’ आगे कुछ कह नहीं पाया।

मैंने कहा, ‘‘जनु मामा, आप चिंता मत कीजिए। मैं माँ की हैसियत से ले जा रहा हूँ।’’ जीप आई। माँ को बिठाया। भोसले से कहा, ‘‘गाड़ी डॉक्टर के पास ले चलो। उससे पहले कोई कपडे़ की दुकान देखो तो...’’ दुकान नजदीक ही थी। वहाँ से शॉल खरीदी, माँ को ओढ़ाई। दवाखाने में ले गया। डॉक्टर ने बताया कि चिंता की कोई बात नहीं है, फ्लू है। दवाई देता हूँ। दो दिन में आराम मिलेगा।

भोसले आग्रह कर रहा था। दो-चार दिन श्रीरामपुर मेरे घर चलिए और माँजी की तबीयत ठीक होने के बाद जाइए। लेकिन चर्चा न हो, इसलिए बँगले पर रहा। भोसले दिलदार आदमी था, दिन में दो बार आता था। दवाइयाँ, फल ले आता था। तीन दिन में माँ ठीक हो गई और मैं मेरी सगी माँ को ले आया। नंदा ने अपनी माँ जैसा उसका स्वागत किया। माँ उसे गले लगाकर रो पड़ी थी।

‘‘नागेश, नंदा भाभी ने जिस तरीके से माँ को चाय के लिए पूछा था, उससे मैं समझ गया था कि सत्य कटु होता है। लेकिन बडे़ दिल से और दृढ़ निश्चय से स्वीकारने पर उसकी कड़वाहट कम हो जाती है। उसमें ममता की मिठास आ जाती है।’’

‘‘फिर भी एक टीस है। मैंने जो किया, क्या वह सही है?’’

‘‘तुमने बिल्कुल सही किया, नागेश। मैं तुम्हारी मुँहदेखी तारीफ नहीं कर रहा हूँ। फिर भी इतना जरूर कहूँगा कि तुम्हारे जैसा दिलवाला दोस्त मुझे मिला, इसकी खुशी है। नागेश, आई एम रियली प्राउड ऑफ यू...!’’

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