तलाक (कहानी) : गुरुदत्त

Talaaq (Hindi Story) : Gurudutt

" तो जाती क्यों नहीं न्यायालय में ? "
" वहाँ क्या करने के लिए जाऊँ ? "
" मुझे तलाक देने । "
" क्यों दूँ तलाक ? "
" मैं दुराचारी हूँ, मैं तुम्हें खर्चा नहीं देता , तुम्हारे बच्चे को मिठाई लाकर नहीं देता और भी जो - जो कुछ तुम चाहती हो, उस सबके लिए । "

ऐसी चुनौती सुनकर तो सदारानी टुकर- टुकर मुख देखती रह गई । उसका पति सुरेंद्र मोहन मुसकराते हुए अपनी आरामकुरसी पर बैठा था । सिगार का कश लगा धुआँ छोड़ते हुए और छत की ओर देखते हुए वह बोला, " क्या मजे में कह दिया , मत लाया करो इन लड़कियों को घर में । घर में न लाऊँ , तो कहाँ ले जाऊँ ? "

" मैं तो यह कह रही थी कि आप मेरे खाने -पीने और वस्त्रादि के लिए तो कुछ देते नहीं और जब ये लड़कियाँ आती हैं , तो घर में लहर- बहर लग जाती है । "

" यह तो तुम ठीक कह रही हो , पर मैं विचार करता हूँ कि तुमको मैं क्यों दूं? दो लकड़ियाँ जलाकर उसके चार चक्कर काट लेने से क्या मैं तुम्हारा देनदार हो गया हूँ ? "

" आप इस बेटे के बाप हैं । इस पर ही दया कर इसकी माँ को कुछ दे दिया करें । मैं अपनी सौगंध खाकर कहती हूँ कि कल से एक भी दाना मेरे पेट में नहीं गया । "

" दाने तो मेरे पास बहुत हैं , पर तुम्हें क्यों खाने को दूँ? तुम अपना ठिकाना कहीं अन्यत्र क्यों नहीं बना लेती ? घर छोड़ोगी, तो फिर तुमको दूसरी लड़कियों के यहाँ आते और खाते -पीते देख दुःख नहीं होगा । "
" पर जाऊँ कहाँ? "
" अपने बाप के घर जा सकती हो । "
" और यह बच्चा ? "
" इसकी मुझे आवश्यकता नहीं । "
" तो विवाह क्यों किया था ? "
" पत्नी पाने के लिए किया था , किंतु यह तो अपने आप बिना इच्छा किए ही आ पहुँचा है । "

अपने पति की इस जीवन- मीमांसा का उत्तर पत्नी नहीं दे सकी । सुरेंद्र उसको कई बार कह चुका था कि उसे वह पसंद नहीं है और जहाँ उसके सींग समाएँ, वह जा सकती है । आज उसने यह भी कह दिया था कि भारत सरकार की कृपा से उसके लिए अपने इस नालायक पति को छोड़ देने का मार्ग प्रशस्त हो चुका है ।

सुरेंद्र अपने काम पर जाने के लिए तैयार था और उसकी पत्नी अपने खाने - पीने के लिए उससे पैसे माँगने आई थी । उस समय उनमें उक्त वार्तालाप हुआ था । सुरेंद्र मोहन जाने लगा, तो उसे एक बात स्मरण हो आई । उसने कहा, “ अच्छा, एक काम करो । मैं तुमको पचास रुपए देता हूँ । इन रुपयों में तुम चार व्यक्तियों के खाने के लिए सामान तैयार करना। एक बोतल व्हिस्की , दो मुर्ग, नान , प्याज, टमाटर , खीरा, चुकंदर की सलाद, मेज पर सफेद चादर और पलंग पर धुला बिस्तर, कुछ फूल इत्यादि भी । बताओ कर सकोगी? "

" चार में कौन- कौन होगा ? "
" मैं , सरोज, मनोज और चौथी तुम । "
" दोनों , एक साथ ? "
" हाँ । "
" परंतु पचास रुपए पूरे हो जाएँगे क्या ? "
" देखो, पैंतीस की बोतल , दस रुपए के दो मुर्ग, एक रुपया सलाद के लिए, घी -मिर्च, नमक - मसाला आदि के लिए चार रुपए । "
" और इस समय पेट भरने के लिए? यदि कुछ खाऊँगी नहीं , तो यह सब तैयार कैसे करूँगी? "
" अच्छा, पाँच रुपए और ले लो , परंतु देखो, हिसाब देना होगा ? "
सदारानी चुप रही । सुरेंद्र ने पचपन रुपए उसके सम्मुखफेंके और सीढियों से नीचे उतर गया ।

सदारानी ने पिछले मास एक चूड़ी बेचकर मास भर निर्वाह किया था । इस बार वह दूसरी चूड़ी बेचनेवाली थी , जबकि उसके मन में विचार आया कि जीवन बहुत लंबा है । इस प्रकार कब तक चलेगा और जब सब चूड़ियाँ बिक जाएँगी और पतिदेव को पता चलेगा, तो वह चोरी करने का आरोप लगा सकता है । तब वह किस-किस को बताती फिरेगी कि उसने अपना पेट भरने तथा बच्चे के दूध के लिए यह सब किया था । आज वह अपने पति को बतानेवाली थी कि वह चूड़ियाँ बेचकर अपने खाने का सामान खरीद रही है । उसके ऐसा कहने के पूर्व ही तलाक की बात चल पड़ी थी और फिर सरोज , मनोज के आने का प्रस्ताव हो गया ।

जब उसके पति ने उसके सामने पचपन रुपए फेंके तो उसने उठाए नहीं । सुरेंद्र मोहन नीचे उतर गया तो उसने रुपए उठाए और गिन डाले । अब वह विचार करने लगी कि क्या वह इन रुपयों से अपने पति के भोग-विलास का प्रबंध करे ? एक बार पहले भी उसने ऐसा किया था । तब उसके मन में यह भावना थी कि वह अपने खाना बनाने तथा दावत का प्रबंध करने में योग्यता दिखाकर अपने पति को प्रसन्न कर लेगी, परंतु ऐसा हुआ नहीं । उसने पुनः ऐसा करने से इनकार कर दिया था । प्रायः सप्ताह में एक बार उसका पति इस प्रकार की दावतें किया करता था और पीछे कई बार , जब सदारानी ने इस प्रकार की दावत के प्रबंध करने से इनकार कर दिया, तो उसने घर का सब खर्च बंद कर दिया और जब भी वे लड़कियाँ आतीं, तो वह किसी होटलवाले से प्रबंध करवा लेता और पचास के स्थान पर सत्तर - पचहत्तर व्यय कर देता । इस प्रकार अधिक व्यय होने पर वह और भी चिढ़ जाता और घरखर्च न देने के लिए उसका संकल्प दृढ़ होता जाता ।

सदारानी ने अपने मन में निश्चय किया कि वह अपने पति के इस प्रकार के भोग -विलास की प्रबंधिका नहीं बनेगी । आज जब सुरेंद्र मोहन ने उसको रुपए दिए , तो उसने इनकार नहीं किया । वह चुप रही । उसके पति ने इसको स्वीकृति मान लिया और निश्चित हो अपने कार्यालय चला गया ।

सदारानी ने रुपए उठाए तो इस निश्चय के साथ कि वह अब इस घर को छोड़ देगी । उसके पिता लखनऊ में रहते थे। बहुत साधारण वृत्ति के व्यक्ति थे और एक बहुत बड़े परिवार के बोझ के कारण वह लड़की की सहायता करने में असमर्थ थे। यदि सदारानी अभी तक वहाँ नहीं गई थी , तो इसी कारण कि वह उनके दु: ख का कारण बनना नहीं चाहती थी ।

परंतु जब पानी नाक से भी ऊपर आ गया, तो डूबने से बचने के लिए अंतिम उपाय यही प्रतीत हुआ और वह लखनऊ जाने के लिए तैयार हो गई ।

जब जाने का विचार पक्का हुआ, तो यह समझकर कि वह जीवन भर के लिए जा रही है, उसने अपने सब आभूषण एकत्रित किए, उन्हें अपने तथा बच्चे के कपड़ों के साथ संदूक में रखा और ताँगे में बैठ स्टेशन जा पहुँची ।

दिन के ग्यारह बजे शाहजहाँपुर से गाड़ी में बैठकर साढ़े सात बजे सायं वह अपने पिता के घर जा पहुँची।

सदारानी का पिता अपने कार्यालय से आकर पड़ोस के दो बच्चों को पढ़ाने के लिए जाया करता था । वह वहाँ गया हुआ था । उसका भाई बी . ए. में पढ़ रहा था । वह भी आठवीं कक्षा के एक छात्र को पढ़ाया करता था । उसके चार और बहन - भाई तथा उसकी माँ उस समय घर पर थे। लड़की को बिना किसी प्रकार की सूचना दिए आती देख माँ मुख देखती रह गई । उसके भाई - बहन भी उसको विस्मय से देख रहे थे ।

पार्वती ने पूछा, " सदा, क्या बात है, इस प्रकार किस कारण आई हो? "
" माँ , मैं पति का घर छोड़ आई हूँ । पिताजी कहाँ हैं ? "
" वे पढ़ाने गए हैं , आते ही होंगे । "
" और विनोद ? "
" वह भी पढ़ाने गया है । आजकल महँगाई इतनी बढ़ गई है कि एक आदमी की कमाई एक के लिए ही पर्याप्त नहीं होती । "

सदारानी ने अपना संदूक माँ के कमरे में रख दिया और अपने सबसे छोटे भाई जगदीश को बाजार भेजकर बच्चे के लिए दूध मँगवाया ।

पार्वती विचार कर रही थी कि यह एक और बोझ सिर पर आ पड़ा है । भगवान् जाने क्या कर आई है , जो एकाएक इस प्रकार आ धमकी है । छह मास पूर्व आई थी, उस समय भी अपने पति के व्यवहार से संतुष्ट नहीं थी , परंतु वहाँ से सदा के लिए चले आने का तो उस समय कोई विचार था ही नहीं ।

पार्वती रात का खाना बना रही थी । अतः अनुमान से उसने एक व्यक्ति के लिए और आटा छान लिया । एक चतुर गृहिणी की भाँति इस महँगाई के युग में वह एक दाना भी व्यर्थ गँवाना नहीं चाहती थी ।

बाजार से दूध आया, तो गरम कर बच्चे को दिया गया । वह दूध पीकर सो गया । सदारानी ने अड़तालीस घंटों से भोजन नहीं किया था । अब वह उत्सुकता से रोटी बनने की प्रतीक्षा कर रही थी । इस कारण वह उठी और माँ से बोली, " माँ, हटो तो , आज मैं पका देती हूँ । "

सदारानी का पिता जब पढ़ाकर आया, उसने अपनी बेटी को रसोई में रोटी सेंकते देखा, तो अपनी पत्नी को पृथक् ले जाकर पूछने लगा, " कैसे आई है सदा ? "

" मालूम होता है , पति से लड़कर आई है । "
" लड़कर आना तो विचित्र नहीं हो सकता । भय तो इस बात का है कि कहीं घर से निकाल न दी गई हो ? "
" यह आप ही उससे पूछ लीजिए । मुझे तो बहुत ही बुरी बात सुननी न पड़ जाए, इससे भय लगता है। "
" क्या बुरी बात हो सकती है ? "
" लड़की पर कोई झूठा- सच्चा आरोप न लग गया हो और घरवाले ने धक्के दे- देकर निकाल दिया हो । "
" अच्छा, बच्चे सो जाएँ, तो बात करेंगे । उनके सामने इस प्रकार की बातें ठीक नहीं होंगी। "

रात के भोजनोपरांत सदारानी ने अपनी पूर्ण बात अपने माता -पिता को सुना दी । सब छोटे बच्चे अपनी - अपनी पढ़ाई कर रहे थे। केवल विनोद उनके पास बैठा सुन रहा था । वह अब घर की समस्याओं को सुन, समझकर उनमें सहायता किया करता था । पिता ने उसको सदा की बात सुनने के लिए बुला लिया था ।
" तो अब क्या करोगी? "
" वहाँ अकेली रहती तो व्यर्थ में बदनाम हो जाती, इस कारण यहाँ चली आई हूँ । "

" ये पाँच आभूषण पूर्ण जीवन भर साथ दे सकेंगे क्या ? तुम जानती ही हो कि मैं तुम्हारी अधिक सहायता नहीं कर सकता । यहाँ तो सब सज्ञान प्राणी मेहनत करते हैं और जीवन चलाते हैं । सबके यत्न करने पर भी पेट पूरा नहीं भरता । "
"पिताजी , मैं यह सब जानती हूँ । यह जानती हुई भी मैं यहाँ आई हूँ । आप पर बोझ बनने के लिए नहीं । मैं भी जीवनयापन के लिए कुछ- न- कुछ करूँगी। "

विनोद कहने लगा, “ पर बहिन, जीजाजी ने ठीक ही तो कहा था कि उनको तलाक दे सकती हो ? "
" दे तो सकती हूँ , परंतु मैं देना नहीं चाहती । "
" क्यों ? "

" विनोद, तुम समझ नहीं सकोगे । मैं अब दूसरा विवाह नहीं करूँगी। जब विवाह ही नहीं करना , तो तलाक देने से क्या लाभ होगा ? एक बार तलाक हो जाने के बाद पुनः सुलह के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता। "
" परंतु तुम इस प्रकार कितने दिन तक जीवन चला सकोगी? "

सदारानी इस प्रश्न पर मुख देखती रह गई । इसका उत्तर जानती तो थी , परंतु भविष्य के विषय में कुछ भी कहने और उसमें किसी प्रकार का दावा करने का उसमें साहस नहीं था । तो भी वर्तमान पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हुए उसने कहा , "विनोद , धन - वैभव और अकिंचनता का संबंध विवाह करने अथवा न करने के साथ नहीं है । तुम लोग भी तो जीवन - संघर्ष कर रहे हो । यहाँ तो माता-पिता में झगड़ा नहीं । दोनों परस्पर प्रेम से रहते हैं । "

" पर बहिन , हम तो आशा करते हैं कि कुछ ही वर्षों में हमारी स्थिति बदल जाएगी । दो वर्ष में मैं बी. ए. कर लूँगा और फिर मोहन और जगदीश भी तैयार हो जाएँगे । सब मिलकर रहेंगे, तो घर में संपन्नता हो जाएगी । "

" यह आशा ही तो मनुष्य के जीवन का आश्रय है । इसी के भरोसे तो मनुष्य दुर्गम- से- दुर्गम कठिनाइयाँ पार करने की क्षमता प्राप्त करता है । विनोद, यह मुझमें भी विद्यमान है । पिताजी ने कुछ पढ़ा दिया था, उसके भरोसे मैं जीवनयापन तथा आगे उन्नति करने की आशा रखती हूँ । मैं भी तुम्हारी भाँति आशा कर रही हूँ कि यह बच्चा बड़ा होगा , पढ़-लिखकर विद्वान् बनेगा और फिर घर में संपन्नता का आगमन होगा । "
" और तब तक तुम बूढ़ी हो जाओगी । "
" तो फिर क्या हुआ ? यह तो सुखी हो जाएगा । उसकी सुख- सुविधा से मेरे मन को तुष्टि होगी । "
" क्या तुष्टि होगी ? "
" यही कि मैंने अपने परिश्रम से अपने पुत्र को संसार में सिर ऊँचा करने के लिए अवसर उपलब्ध कराया है । विनोद ! गरीबी और अमीरी की बातें विवाह से संबंधित नहीं हैं । इसका संबंध भाग्य और पुरुषार्थ से है । "
" क्यों पिताजी, " विनोद ने निरुत्तर होते हुए और अपने पिता की बात को आगे ले चलने के लिए पूछा, “ आप क्या समझते हैं ? "

" बेटा, सदारानी ठीक कहती है । विवाह के साथ दारिद्र्य चला ही जाएगा, यह निश्चित नहीं । यह भाग्य की बात है , परंतु विवाह तो किसी अन्य बात के लिए किया जाता है । बड़े- बड़े ऋषि - महर्षि भी अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं रख सकते, इस कारण समाज ने इस नियंत्रण में सुविधा के लिए ही विवाह - प्रथा बनाई है । मैं तो सदारानी को इस दिशा में विचार करने की बात कह रहा हूँ । क्या वह जीवन को अकेली चला सकेगी ? "

यह फिर भविष्य में होनेवाली संभावना की ओर संकेत था । सदारानी ने व्यर्थ का अभिमान और शौर्य दिखाने की अपेक्षा कहा, “पिताजी! आप बड़ों का आशीर्वाद और संरक्षण प्राप्त होता रहा, तो वह दुस्तर सागर भी पार हो ही जाएगा । कौन व्यक्ति है, जो भविष्य के संभावित भय से त्रसित वर्तमान को विकृत करने का यत्न करेगा । इस प्रकार विचार करना भी मैं ठीक नहीं समझती । मुझको यत्न करने दीजिए और कहीं मार्ग से विचलित होने लगूं तो आप सचेत कर दीजिए । "

विनोद ने पुनः वार्तालाप में हस्तक्षेप करते हुए कहा, “ परंतु इस दुर्घटना का पूर्ण बोझ और कष्ट तो तुम केवल अपने ही कंधों पर उठाने की योजना बना रही हो । उस दुष्ट को क्या दंड मिलेगा ? उसे तो तुमने स्वतंत्रता से गुलछर्रे उड़ाने के लिए मैदान खाली छोड़ दिया है ? "

" भैया , मैं उनके विषय में नहीं सोच रही । मेरी अनुपस्थिति में वे आनंद में होंगे अथवा दुःख में , मैं विचार कर चिंता करने की स्थिति में नहीं हूँ । मैं उनकी सुख - सुविधा में सहायक होने की स्थिति में भी नहीं हूँ । मैं तो अपने विषय में ही विचार और उपाय कर सकती हूँ । "

मैं तो चाहता हूँ कि कोर्ट में तलाक की प्रार्थना कर दी जाए और यत्न किया जाए कि बच्चे के पालन- पोषण के लिए उनसे खर्चा मिल जाए । "

उसके पिता ने कहा, " इस प्रक्रिया में कम - से - कम एक वर्ष लग जाएगा । उसमें सदारानी को अपने पति के दुश्चरित्र होने की कहानी सुनानी पड़ेगी । साथ ही केवल सुनाने से तो काम बनेगा नहीं । अपने कथन के लिए प्रमाण

और साक्षी भी प्रस्तुत करने होंगे । मैं समझता हूँ कि मुकदमेबाजी में व्यर्थ का धन और शक्ति का व्यय नहीं करना चाहिए । यदि सदारानी को तलाक के बाद भी विवाह नहीं करना है, तो फिर इस सब झंझट की आवश्यकता ही क्या है । "
" परंतु पिताजी, जीजाजी को शिक्षा किस प्रकार मिलेगी? "

“ शिक्षा तो उसका शिक्षक ही उसको देगा । सदारानी को मैंने उसका शिक्षक बनाकर नहीं भेजा था । विनोद, एक बात और समझ लो । तलाक देने से जो दंड मिलता है, वह पति को नहीं , वरन् पत्नी को मिलता है । इस अवस्था में तो सुरेंद्र मोहन को अपनी पत्नी को तंग करने अथवा मारने- पीटने का पुरस्कारमिलेगा । नहीं, मेरी सम्मति में तलाक के लिए आज के कार्यक्रम में झगड़ा करना लाभ की बात नहीं । "
" परंतु तलाक का कानून बनानेवालों का तो यह कहना है कि स्त्रियों के सुख -वर्धन के लिए इसका निर्माण किया गया है । "
" कहते होंगे, परंतु अनुभव तो इसके विपरीत ही प्रमाण प्रस्तुत कर रहा है । "

सुरेंद्र मोहन की मित्रता अपने ही कार्यालय में काम करनेवाली दो लड़कियों से हो गई थी । पहले तो वह एक - एक से पृथक् - पृथक् संबंध रखता था । बाद में जब उन लड़कियों को पता चल गया, तो फिर दोनों से इकट्ठा व्यवहार रखने लगा । उनको बारी- बारी से निमंत्रण देता था । जब सदारानी को उसके उनसे अनुचित संबंधों का ज्ञान हुआ, तो वह उनको घर पर लाने लगा । समय व्यतीत होता गया और सुरेंद्र मोहन अपने विकृत मार्ग पर आगे बढ़ता चला गया ।

पत्नी से उसकी तनातनी रहने लगी और उसने उसको खर्चा देना बंद कर दिया । जब स्थिति असह्य हो गई, तो घर में ताला लगा सदारानी अपने पिता के घर चली गई ।

उस दिन सुरेंद्र मोहन ने सरोज और मनोज दोनों को एक साथ ही रात के भोजन पर आमंत्रित किया था । वह पैसेवाला आदमी था । तीनों ही अपने - अपने उद्देश्य में लीन थे। सुरेंद्र सुख भोग में और लड़कियाँ उसका धन शोषण में ।

सायंकाल अपने कार्यालय से उठ सुरेंद्र मोहन किसी निश्चित रेस्तराँ में उनमें से एक से मिलता था । वहाँ चाय पीकर प्रायः सिनेमा देखने के लिए चला जाता था । तदनंतर किसी अन्य रेस्तराँ में भोजन के लिए जाया करता था , फिर घर पर ले आता और रात भर घर में रख प्रातः वापस उसके घर भेज दिया करता था ।

आज के कार्यक्रम में कुछ अंतर था । दोनों को एक साथ आमंत्रित किया गया था । सिनेमा से वह उनको सीधा घर पर लानेवाला था । भोजन का प्रबंध घर पर ही था , परंतु रात के साढ़े नौ बजे जब वह घर पर आया, तो मकान को ताला लगा देख वह भौंचक्का हो गया ।

ताला बहुत मजबूत था , उसे तोड़ने में कठिनाई हुई । आधे घंटे से अधिक तो ताला तोड़ने में लग गया । अंदर जाकर उसने देखा कि भोजन के तो कहीं चिह्न तक नहीं थे और साथ ही उसकी पत्नी के वस्त्रों तथा आभूषणों का संदूक भी खाली पड़ा था ।

अब सुरेंद्र मोहन देख रहा था कि घर में से क्या - क्या गया है तो बड़ी लड़की सरोज ने पूछ लिया , " क्या हुआ है ? "

" देवीजी सबकुछ लेकर भाग गई हैं । "
" सबकुछ से क्या मतलब? "
" अपने वस्त्राभूषण और... और न जाने क्या - क्या! "
" आपके पतलून- कोट तो नहीं ले गई? "
सुरेंद्र मोहन ने मुसकराते हुए कहा, " नहीं । "
" और आपका पर्स ? " मनोज ने पूछा ।
" नहीं , वह भी है । "
" आपकी चैक - बुक ? "
मेज का दराज खोल सुरेंद्र ने कहा, " वह भी है । "
" तो फिर चिंता की कोई बात नहीं । " सरोज ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा ।
मनोज कहने लगी, "मुझे तो भूख लगी है । "
सरोज कहने लगी , " हाँ , अब बताइए, खाना कहाँ होगा । दस बजे तो होटल बंद हो जाते हैं । "
" मैं बाजार जाता हूँ , यदि कुछ मिल गया तो ले आऊँगा । "
" यदि कुछ न मिला तो क्या होगा ? "
" कुछ नहीं, ठंडा पानी पीकर सो जाएँगे । "

यह कह वह मकान के नीचे उतर गया । प्रायः सभी दुकानें बंद हो चुकी थीं । एक भटियारिन की दुकान खुली थी । वह बहुत प्रात: काल रेल की वर्कशॉप को जानेवालों के लिए चबेना भून रही थी । सुरेंद्र मोहन उसकी दुकान पर खड़ा हो गया । वह विस्मय में बाबू की ओर देखकर पूछने लगी, " क्या चाहिए बाबू? "
" चार आने का चबेना दे दो । "

भटियारिन ने आधा सेर चने - मूंग इत्यादि तौलकर दे दिए । सुरेंद्र मोहन ने उन्हें रूमाल में बाँधा और घर आ गया । जब उसने रूमाल खोलकर लड़कियों को दिखाया , तो सरोज के मुख से निकला, " सब मजा किरकिरा हो गया । मैं तो घर जाती हूँ । माँ को कहूँगी , तो खाना मिल जाएगा। "
मनोज ने भी उठते हुए कहा , " हमको दीजिए, जो देना चाहते हैं । मैं भी जाऊँगी। "
" मैं तो मिठाई लेने के लिए गया था । किसी हलवाई की दुकान खुली ही नहीं थी । मैं क्या करता ? "
" करना क्या है, आप चबेना खाइए और सो जाइए । हमसे तो इसे चबाकर रात भर गुजर नहीं हो सकती । "
मनोज ने पुनः सुरेंद्र से कहा , " मुझे तो विदा करिए , नींद आने लगी है । "
" क्या विदाई दे दूं? "
" साधारण रूप से हमको पचास रुपए मिलनेवाले थे। इस विशेष परिस्थिति में तो हम पचहत्तर से कम नहीं लेंगी। "
" पचहत्तर ? "
" हाँ, आज खाने- पीने को कुछ नहीं मिला न? "
" जितना तुमको कष्ट हुआ है, उतना तो मैं तुम्हारे मनोरंजन पर व्यय कर चुका हूँ । "
" बात यह है कि हमारे कष्ट का नाप- तौल आपके पास नहीं है । यह तो हम जानती हैं कि इस प्रकार पूर्ण शाम को आवारागर्दी के बाद सूखे चने सामने देखने पर क्या दशा होती है मन की ? "
" परंतु इसमें मेरा तो कोई दोष नहीं है ? "
" तो हमारा दोष है ? "
" नहीं , यह भाग्य की बात है । जैसे मैं सहन कर रहा हूँ, वैसे ही तुम लोगों को भी करना चाहिए । "

मनोज यह सुन क्रोध से जल- भुन उठी । उसने कहा, " भले इनसान की भाँति हमारे रुपए हमको दे दो । नहीं तो ठीक नहीं होगा । पिछले एक घंटे में जो कष्ट हमको हुआ है, उसका कोई पारावार है भी ? "

अब सुरेंद्र ने क्रोध दरशाते हुए कहा , “ ऐ छोकरी! हल्ला क्यों करती है ? चुपचाप नीचे उतर जाओ। तुम मेरी विवाहिता नहीं हो । झगड़ा कर तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा । चुपचाप चली जाओ यहाँ से । " ।

सरोज अभी भी मिन्नत - खुशामद से जो मिले , ले लेने के लिए तैयार थी, परंतु मनोज तो क्रोध के घोड़े पर सवार थी । उसने सरोज की बाँहों -में - बाँह डाली और उसको मकान की सीढियों की ओर खींचते हुए कहा, “ छोड़ो , इस कमीने को । हमारी तुलना अपनी पत्नी से कर रहा है । यह गधा तो पत्नी और प्रेमिका में अंतर ही नहीं जानता । "

सदारानी को छोटे बच्चों की ट्यूशन पाने में दस - बारह दिन लग गए , परंतु भाग्य की बात थी , जब ट्यूशन मिली तो कई वर्ष के लिए काम मिल गया । राजा अंबिका प्रसाद की चार लड़कियाँ थीं । तीन तो स्कूल जाती थीं । एक अभी छोटी ही थी । चारों - की - चारों ही सदारानी की देख -रेख में रख दी गई और उसको छह मास के कार्य की परीक्षा के उपरांत का काम पक्का करने की आशा दिलाई गई ।

सदारानी को अपने पिता के घर आए दो वर्ष हो चुके थे। न तो इसकी सूचना अपने पति को भेजी थी और न ही उसके पति ने उसके विषय में जानने का यत्न किया था । सदारानी ने अपना पूर्ण मन अपने संरक्षण में रखे गए बच्चों पर लगा दिया था । प्रातः ही अपने बच्चे को खिला-पिलाकर वह राजा साहब की कोठी पर चली जाती । तीन बड़ी लड़कियाँ गंगा, यमुना और गोदावरी तो स्कूल की पाँचवीं, तीसरी और दूसरी श्रेणी में पढ़ती थीं । वे प्रायः सदारानी के आने से पूर्व उठ स्नानादि कर स्कूल जाने के लिए तैयार हो जाया करती थीं । वह उनको वस्त्र पहना पुस्तकें देख , विधिवत् उनके थैलों में रख और उनको ले स्कूल छोड़ने के लिए चली जाती । यह उसका काम था कि लड़कियों की अध्यापिकाओं से मिलकर उनके विषय में कोई सूचना हो तो घर पर ले आया करे ।

घर पहुँचकर सबसे छोटी लड़की को , जो इस समय तीन वर्ष की थी, स्नानादि करा, वस्त्र पहना, उसको अल्पाहार कराती । रानी नीलमणि तो प्रायः रुग्ण ही रहा करती थी । वह बच्चों की देखभाल नहीं कर सकती थी । इसलिए बच्चों का सब काम सदारानी को ही करना पड़ता था । इस काल में सदारानी के व्यवहार और बच्चों की प्रसन्नता से नीलमणि संतुष्ट हो गई थी । अब तक नीलमणि को सदारानी के इतिहास का भी ज्ञान हो गया और वह उसको अपना बच्चा भी वहीं ले आने के लिए कहा करती थी ।

इस समय तक यह उसका स्वभाव बन गया था और सदारानी अपने पति के विरुद्ध अपनी भावना को विस्मरण कर चुकी थी । न तो उसको अपने उस काल की बात स्मरण कर उस पर विचार करने का अवकाश था और न ही वह उस व्यर्थ के जीवन पर विचार करने की आवश्यकता समझती थी ।

परंतु जीवन एक सार नहीं चल सका । एक दिन उसने राजा साहब के घर जाते हुए अनुभव किया कि कोई व्यक्ति साइकिल-रिक्शा पर उसके पीछे-पीछे आ रहा है । वह स्वयं भी रिक्शा पर ही थी । उसे संदेह हुआ, तो उसने घूमकर पीछे देखा । पीछे वाली रिक्शा में सुरेंद्र मोहन बैठा हुआ था ।

सदारानी में यह भाव बना कि उसने उसे देखा ही नहीं, वह आगे चलती गई । इस पर भी मन - ही - मन वह भय अनुभव करने लगी थी । वह उसके इस प्रकार पीछा करने का अर्थ नहीं समझ पा रही थी । नहीं जानती थी कि वह क्या करने आया है और क्या कर सकता है ।

इसी उधेड़- बुन में वह राजा साहब की कोठी पर पहुँच गई । उसका रिक्शा कोठी के अंदर गया तो उसने पुनः घूमकर देखा । सुरेंद्र मोहन का रिक्शा चौकीदार ने द्वार पर रोक लिया था । इससे उसको कुछ सांत्वना हुई । अपने रिक्शेवाले को पैसे दे सदारानी भीतर चली गई ।

भीतर जाकर उसने नीलमणि को द्वार पर रोके गए रिक्शा के बारे में बता दिया । वह कहने लगी कि उसका पति उसका पीछा करता हुआ यहाँ तक आया है, भगवान् जाने उसके मन में क्या है ?

रानी ने कहा, " तुम अपना काम करो । मैं पता करती हूँ । " उसने घंटी बजा चपरासी को बुलाया और उसको द्वार पर भेज वहाँ पर रुकी रिक्शा में बैठे व्यक्ति को बुलाकर बैठक - घर में बैठाने के लिए कह दिया ।
द्वार पर चौकीदार ने रिक्शा रोक सुरेंद्र मोहन से पूछ लिया था , "किस काम से आए हो ? "
" यह किसकी कोठी है ? " उसने चौकीदार से प्रश्न किया ।
" राजा साहब की । "
" अरे भाई, कौन राजा साहब? "
" राजा साहब छतरपुर । "
" मैं उस औरत से मिलना चाहता हूँ , जो अभी उस रिक्शा में आई है । "
" ओह , मास्टरायनजी से ? "
" मास्टरायन , हाँ, उससे ही । "
" आप अपना नाम-धाम और काम लिख दें , यदि उनको मिलना स्वीकार होगा, तो भीतर ले जाऊँगा। "

सुरेंद्र मोहन मुख देखता रह गया । चौकीदार उसका मार्ग रोके खड़ा था । उसने जेब टटोलकर एक कागज का टुकड़ा निकाला और अपना फाउंटेन - पेन खोल रिक्शा की सीट के सहारे लिखने लगा था कि चपरासी ने आकर चौकीदार से कहा, " इनको आने दो, रानी साहिबा बुला रही हैं । "

चौकीदार एक ओर को हट गया और चपरासी ने सुरेंद्र मोहन से कहा, " चलिए, आपको रानी साहिबा बुला रही सुरेंद्र मोहन का मुख लाल हो गया । उसने अपने होंठों में कहा, " रानी साहिबा । सदारानी , रानी साहिबा! क्या गड़बड़ है । " फिर कुछ विचार कर चपरासी के साथ चल दिया । रिक्शा वहीं द्वार पर खड़ी रही ।

उसको ले जाकर कोठी के बैठकघर में बैठा दिया गया । एक गद्देदार कुरसी पर बैठते हुए वह विचार कर रहा था कि सदारानी जैसी कुरूप स्त्री को कोई राजा अपनी रानी बना सकता है क्या ? तभी उसको स्मरण हो आया कि वह रिक्शा पर सवार होकर आ रही थी , यदि राजा साहब की प्रिया होती , तो मोटर में आती- जाती ।

सुरेंद्र मोहन वहाँ प्रतीक्षा कर रहा था कि बाहर एक मोटर के भर्र - भर्र का शब्द हुआ । उसने विचार किया कि कौन आया है । उसने बैठकघर से झाँककर देखा । बाहर कोठी की ड्योढ़ी में खाली मोटर खड़ी थी । उसी समय सदारानी तीन पुस्तकों के थैले उठाए हुए आई । लड़कियाँ भी साथ में थीं । सब मोटर में बैठी और चल दीं ।

इस दृश्य से तो सुरेंद्र मोहन समझ गया कि उसको भीतर बुलानेवाली सदारानी नहीं अपितु राजा साहब की रानी हो सकती है । इससे उसका क्रोध शांत हुआ और वह उत्सुकता से रानी साहिबा के आने की प्रतीक्षा करने लगा । परंतु उससे मिलने के लिए राजा साहब स्वयं आए । सूरत - शक्ल से ही सुरेंद्र मोहन समझ गया कि आनेवाला व्यक्ति इस मकान का स्वामी है । साथ ही बैठक के बाहर बैठे चपरासी ने उठकर और झुककर उसको सलाम किया था ।

राजा साहब बैठक में आए तो अनायास ही सुरेंद्र मोहन अपने स्थान से उठा और हाथ जोड़कर नमस्कार करने लगा । नमस्कार करते हुए वह स्वयं ही अपने व्यवहार पर विस्मय कर रहा था । अपने कार्यालय में तो वह अपने अधीनस्थों को सिर हिलाकर अभिवादन करता था और उच्चाधिकारियों का हाथ मिलाकर स्वागत किया करता था ।

सुरेंद्र मोहन ने हाथ जोड़े तो राजा साहब ने मुसकराते हुए कहा, “ बैठिए । "
वह बैठ गया ।

राजा साहब बैठे और जेब से सिगरेटकेस निकालकर सुरेंद्र मोहन की ओर बढ़ाया । सुरेंद्र मोहन ने केस में से सिगरेट निकाली तो राजा साहब ने लाइटर जलाकर आगे कर दिया । उसने सिगरेट सुलगाई और एक लंबा कश लेकर स्वस्थचित्त हो बैठ गया ।
" तो आप श्रीमान सुरेंद्र मोहन हैं ? "
" जी । "
" सदारानी के पति ? "
" जी । "
" वह मेरे बच्चों की गवर्नेस है । आप किसलिए आए हैं ? "
" वह मेरी स्वीकृति के बिना नौकरी करने के लिए आ गई है । "
" हम उसके जीवन- वृत्तांत को जानते हैं । आप यह बताइए कि वह बालिग है या नाबालिग । "
" उसकी आयु इस समय बाईस - तेईस वर्ष की होगी । "
" इस पर भी आप समझते हैं कि अपने जीविकोपार्जन के लिए उसको आपसे पूछना चाहिए ? "
" वह मेरी पत्नी है । "
" पत्नी का अर्थ क्रीतदासी नहीं होता। "
"मैं उसे अपने घर ले जाने के लिए आया हूँ । "
" वह अभी आती है , उससे कहना और यदि वह जाना चाहेगी, तो एक मास का नोटिस देकर जा सकती है । आप यहाँ बैठिए । वह आधे घंटे में लौट आएगी । "
राजा साहब ने घंटी का बटन दबाया , चपरासी भीतर आया तो राजा साहब ने कहा, " बाबू साहब के लिए चाय ले आओ। "

चपरासी के जाने पर उन्होंने सुरेंद्र मोहन से एक बार फिर कहा , " सदारानी के आने पर उससे बात करने के बाद आप मुझको बुला लीजिएगा । उसके जाने की शर्त मैंने बता दी है । "

सुरेंद्र मोहन अभी इस विषय में विचार ही कर रहा था कि क्या कहे, इतने में राजा साहब उठे और जिस दिशा से आए थे, उसी ओर चले गए ।

सदारानी आई तो रानी साहिबा से मिल, बैठकघर में चली गई । उससे कहने लगी, " बोलिए, किस कार्य से आए हैं ? "

" तुमको घर वापस ले चलने के लिए । "
" न तो मैं आपकी इच्छा से आई थी और न ही आपकी इच्छा से जाऊँगी। "
" तो किस प्रकार चलोगी? "
" जब मेरा मन करेगा। "
" तुम्हारा मन कब करेगा? "
" जब वहाँ सुख- सुविधा मिलने की आशा प्रतीत होगी। "
" वह कैसे प्रतीत होगी? "
" जब मेरे पास इतनी सामर्थ्यहोगी कि मैं आपका भरण -पालन कर सकूँ । "
" वह तो कभी नहीं होगी । "
" तो मैं कभी भी नहीं आऊँगी। "
" तुम मेरी पत्नी हो । "
" वे सरोज, मनोज कहाँ गई ? "
" सरोज का तो विवाह हो गया है, मनोज मुझसे विवाह करने के लिए कह रही है, किंतु मैं कर नहीं सकता । "
" क्यों नहीं कर सकते ? "
“ एक पुरुष दो स्त्रियाँ नहीं रख सकता । "
" एक पत्नी और एक रखैल तो रख सकता है ? "
" हाँ , यह कानून से वर्जित नहीं है । "
" तो आप ऐसे मूर्खतापूर्ण कानून को मत मानिए । "
" परंतु कानून ने नई पत्नी रखने के लिए पुरानी को तलाक का नियम भी तो बनाया है । "
" तो आप एक को तलाक दे दीजिए । "
" मैं तलाक देने के लिए जाऊँगा तो तुम्हारी निंदा करनी पड़ेगी। "
" तो फिर क्या करेंगे? "
" या तो तुम मेरे साथ मेरे घर चलकर रहो अथवा मुझे तलाक दे दो । "

" अभी तो इनमें से एक भी बात नहीं कर सकती । आपके घर जाकर मुझे सुख तो क्या भोजन मिलने की भी आशा नहीं । तलाक देने में मुझे कोई लाभ प्रतीत नहीं होता । सबसे बड़ी बात यह है कि मैं किस बिना पर तलाक दूँ । "
" गुजारे के बिना पर । "
" उसकी मुझे अब आवश्यकता नहीं है । "
" क्या मिल जाता है यहाँ से ? "
" दो समय चाय और अल्पाहार । मध्याह्न का भोजन और एक सौ रुपया प्रतिमास । "
" कुटकू क्या करता है ? "
" माँ के पास खेलता रहता है । "
" मैं कोर्ट में प्रार्थना करूँगा कि कंजुगल राइट्स मुझको मिलने चाहिए। "
" मैं स्वीकार नहीं करूँगी। "
" तब विवाह -विच्छेद हो जाएगा । "
" तो कर लीजिए । "
" पर क्या हुआ है, पहले तो तुम इसी बात के लिए सरोज इत्यादि से ईर्ष्या करती थीं । "
" हाँ , पर अब उन बातों से अरुचि हो गई है । "
" क्यों, बूढ़ी हो गई हो । "

" ऐसी कोई बात नहीं । केवल रुचि का केंद्र बदल गया है । कभी किसी की रुचि गाने सुनने से हटकर सुंदर दृश्य देखने की हो जाती है अथवा किसी की स्वादिष्ट भोजन करने से रुचि बदलकर वैराग्य की होने लगती है । "
" यह सब वाग्जाल है, बोलो, मेरे साथ चलोगी कि नहीं ? "
" नहीं। "
" तो बल प्रयोग करना पड़ेगा? "
" कर सकते हैं , पर इतना स्मरण रखना कि यह राजनियम के विपरीत होगा और दंडनीय भी । "

इस समय राजा साहब वहाँ आ गए । उनके साथ एक लट्ठबंद सेवक भी था । उसे और राजा साहब के माथे पर चढ़ी त्योरियों को देखकर सुरेंद्र मोहन डर गया । वह उठा और नमस्कार कर बैठक से बाहर निकल गया । राजा साहब उसके पीछे-पीछे बाहर आए और सुरेंद्र मोहन को बुलाकर कोठी के लॉन में ले गए ।
" क्या यहीं फौजदारी करने लगे थे न ? "
" जी नहीं, मेरा मतलब यह नहीं था , मैं तो केवल धमका रहा था । "
" अच्छा, जाओ इतना ध्यान रखना कि अब इस औरत की रक्षा का प्रबंध मैं करूँगा। "

समय व्यतीत होता गया और दो वर्ष और निकल गए । सुरेंद्र मोहन ने अपना काम लखनऊ में बदल लिया । वहाँ उसने मनोज को अविवाहिता पत्नी के रूप में रखा हुआ था । वह एक दिन उसे छोड़कर भाग गई । अब सुरेंद्र मोहन पुनः पत्नी की खोज करने लगा । यह बात कठिन नहीं थी । बिना विवाह के तो पैसे के बल पर नई पत्नी मिल सकती थी, परंतु वह अब स्थिर जीवन में विश्वास करने लगा था । उसकी आयु तीस वर्ष की होने जा रही थी, परंतु अत्यधिक भोग -विलास और मद्य - सेवन से उसका यौवन ढल रहा था । विवाह का विचार आया , तो वह फिर सदारानी की खोज में चल पड़ा । इस बार वह उसको उसके पिता के घर पर ही मिला ।

रात के समय वह अपने श्वसुर के घर जा पहुँचा । उसने अपने साले से कहा, " क्यों विनोद! बहिन घर पर है? " " है । "
" भाई, उसको बुला दो । "
" वह नीचे नहीं आएगी, आप ऊपर आ सकते हैं । "

सुरेंद्र मोहन यही चाहता था । वह ऊपर चला गया। सदारानी अपने बच्चे को खाना खिला रही थी । सुरेंद्र मोहन को द्वार पर खड़ा देख वह विस्मय करने लगी ।
" पहचाना है ? " सुरेंद्र मोहन ने पूछा ।
" कुछ- कुछ , थोड़ा अंतर आ गया है । "
" हाँ , लखनऊ की जलवायु अनुकूल नहीं आ रही है । "
" तो वापस शाहजहाँपुर चले जाइए । अपना काम करते हैं , किसी की नौकरी तो है नहीं । "
" तुम भी चलोगी ? "
"मुझे लखनऊ का जलवायु अनुकूल बैठ रहा है । "
" तो मेरी खातिर ही चली चलो । "
" मनोज भाग गई है , इसलिए ? "
" तुम्हें कैसे मालूम ? "
" बैठ जाइए । इसे पहचानते हैं ? " उसने बच्चे की ओर संकेत किया ।
" इसका कुछ नाम भी रखा है कि नहीं ? "
" हाँ , रखा है , कल्याणस्वरूप । "
" नाम तो चुनकर रखा है । "
" हाँ, वैसे तो इसके बाप को भी चुनकर ही पसंद किया था, परंतु... "
" परंतु क्या ? "
" मनोज आई थी और बता गई कि आप... "
" क्या बात है ? बात आधी ही क्यों छोड़ देती हो ? "
" उसने विवाह कर लिया है । "
" और अपना लड़का कहाँ रख गई है? "
" वह उसके साथ ही है । उसने अपने पति को समझा दिया है कि उसको त्यक्ता पत्नी मानकर उसके साथ विवाह करे और उसके पुत्र को उसके पहले पति का पुत्र माने । "
" बिना विवाह के ही त्यक्ता बन गई है ? "
" हाँ, कहती थी कि बिना विवाह के विवाहिता थी और अब बिना तलाक के त्यक्ता बन गई है । "

" देखिए, जिस समाज में यह सबकुछ हो सकता है , उसमें मैंने तलाक की आवश्यकता नहीं समझी। विवाह देश के कानून का क्षेत्र हो गया है । इससे इसका मूल्य एक ठेकेदारी के वचन - पत्र के बराबर रह गया है , कभी वचन पत्र के विपरीत कार्य हुआ, तो उसका प्रतिकार रुपयों में आँका जाता है । जहाँ संतान के माता -पिता का इतना मात्र मूल्य हो, वहाँ उस संबंध के लिए विवाह जैसे आडंबर के करने की आवश्यकता ही क्या है और फिर उसको तोड़ने के लिए मजिस्ट्रेट के सम्मुख एक वर्ष तक नाक रगड़ने की मुझे आवश्यकता अनुभव नहीं हुई । "

" मुझे अब अनुभव हो रहा है कि तुम ठीक कहती थीं । "
" आपकी प्रकृति देख विश्वास नहीं हो रहा । "
" तो एक बार फिर परीक्षा कर सकती हो । "
" और एक कुटकू और बना लूँ? "
" हो सकता है । "
" एक शर्त है । "
" क्या ? "
" कुछ रुपया मुझे पृथक् दे दीजिए । मैं उसके ब्याज से अपना निर्वाह करूँगी। आप पर आर्थिक रूपेण निर्भर नहीं रहना चाहती । जब आप खाना नहीं देंगे, तो पेट में घुटने देकर सोने की आवश्यकता नहीं रहेगी। "
"कितना धन देना होगा ? "
" इतना कि जिसकी आय से दो सौ रुपया मासिक मिलता रहे । "
" तुम मेरे घर में आकर भी तो अपनी नौकरी कर सकती हो ? "
" मैं करूँगी नहीं और कदाचित् कर भी नहीं सकूँगी । "
" सदारानी , सरोज, मनोज...मैं इस सूची को लंबी बनाना नहीं चाहता । इसलिए इसे पुनः सदारानी पर ही समाप्त करना चाहता हूँ । "

" विचार कर लीजिए । जब विवाह - धर्म का संबंध था , तब धर्म - पालन के लिए श्रद्धा पर विश्वास कर लिया जाता था । अधिकांश हिंदूस्त्रियों में तो इसमें धर्म की सी निष्ठा अब भी है, परंतु पुरुषों में लोप हो रही है । आप में तो इसको इस प्रकार समझने का कोई चिह्न भी नहीं दिखाई देता । इसीलिए आपसे गारंटी माँग रही हूँ । "

सुरेंद्र मोहन विचार करता हुआ चला गया ।
इसके एक मास बाद सदारानी को एक पत्र मिला और उसके साथ ही उसको हजरतगंज की एक इमारत के कागजात मिले, जिसकी आय ढाई सौ रुपया मासिक थी ।
इसके एक मास बाद सदारानी सुरेंद्र मोहन की कोठी में चली गई । कल्याण उसके साथ था ।
एक दिन सुरेंद्र ने उससे पूछा, " सदा, अब प्रसन्न हो ? "
" प्रसन्न नहीं, पत्नी के पद से गिरकर ठेकेदार की पदवी पर पहुँच गई हूँ । यह पतन है , इसमें प्रसन्नता कैसी ? "
" हाँ, इस पतन से अंग -भंग नहीं हुए, इसका संतोष तो है ही । "

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