टकराव (कहानी) : महीप सिंह

Takraav (Hindi Story) : Maheep Singh

गाड़ी चल दी, तो उसे अपनी गड्ड-मड्ड मनः स्थिति का फिर भान हुआ। इन कुछ दिनों में सब कुछ अस्त-व्यस्त रहा था, जैसे नमकदानी के अंदर के सब खानों की चीजें आपस में रल-मिल गयी हों। वह एक-एक करके सभी बातों को सोच रहा था निशा की बात, कुमुद की बात, लोचन की बात, अपनी पुरानी बिल्डिंग की बात और ज्योति की वह बात, जो गाड़ी पर चढ़ने के कुल एक घंटा पहले घटी थी और सारे गड्ड-मड्डपन में सबसे ऊपर उभरी हुई थी, सबसे ज्यादा अंतर तक धंसी हुई थी।

उसने ज्योति की फिर कितनी मिन्नतें की। नाराज हो जाने वाली मुद्रा बनायी, हंसाने वाली भाव-भंगिमा दिखायी। पर ज्योति ने ‘ना’ पकड़ी, तो पकड़े ही रही वह ज्योति, जो थोड़ी-सी नाराजगी के अभिनय से तरल हो जाती थी, जो उसकी एक भंगिमा पर हंस पड़ती थी हंस-हंस पड़ती थी।

इस घटना ने उसे कितना मथ दिया था। पर यही तो एक घटना थी, जिसने उसे मथा था। नहीं तो शेष सभी कुछ नीरव था, शांत, स्पंदनहीन।

कैसा था वह दृश्य। निशा ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी थी। उसे देखकर घबराहट से चौंक गयी थी-‘मोहन, तुम लखनऊ से कब आये?’

‘बस… आज सुबह ही।’ वह मुस्कराया था।

निशा बड़ी व्यस्मत-सी ड्रेसिंग टेबल से उठी थी। उसकी साड़ी-बड़ी अस्त-व्यस्त थी। ब्लाउज के नीचे का गहरा सांवला अनावृत्त भाग काफी लटक आया था। गालों पर अपनी उंगलियें रगड़ती हुई पलंग पर बैठकर उसने ऊपर कंबल डाल लिया था। उसने पूछा था- ‘कुछ बीमार रही हो क्या?’

वह बहुत उदाम हो गयी थी-‘अरे मोहन, क्या बताऊं तुम्हें। मेरे साथ तो बहुत बुरा हुआ, मेरे मुंह का बायां हिस्सा ही मारा गया था- पैरालिसिस। यह… कनपटी की बायीं नस एक्सपोज हो गयी थी। मेरा तो मुंह ही टेढ़ा हो गया था… वह तो कहो, बहुत भागी डाक्टरों के पास, नहीं तो पता नहीं क्या हो जाता… अभी भी नार्मल नहीं हुआ है… कुछ फर्क मालूम पड़ता है न?’

निशा ने अपना मुंह उसकी ओर बढ़ा दिया था। उसने देखा मुंह पर कितने चकत्ते-से पड़ गये हैं, गाल लटक गये हैं, और जगह-जगह से कालिमा फूट रही हैं।

‘नहीं… मुझे तो कुछ एबनार्मल नहीं लगता।’ वह सोच रहा था, एबनार्मल तो लग रहा है, लेकिन सिर्फ इसलिए कि इस आगे बढ़े हुए मुंह को कितनी बार उसने अपनी हथेलियों में समा लिया था… पर आज…

निशा बोली थी… ‘तुम्हें नहीं पता लग रहा है, पर मुझे महसूस होता है। बायीं ओर का हिस्सा मुझे अभी भी सुन्न-सुन्न-सा लगता है… डेढ़ महीने से दफ्तर भी नहीं जा पायी हूं।’

‘अच्छा…? पर तुम्हारी तबीयत इतनी खराब रही, और तुमने मुझे खबर तक नहीं दी।’

निशा बहुत गमगीन हो गयी थी- ‘क्या खबर देती तुम्हें… मेरी खबर लेनेवाला है ही कौन?’

फिर एक चुप्पी-सी थी।

‘गुड्डू स्कूल गया है?’

निशा ने हल्के से ऊपर-नीचे सिर हिला दिया।

फिर वह चुप्पी। वह अपनी बायीं कान-पटी के नीचे उंगलियां रगड़ रही थी।

उसने बहुत डरते-डरते-सा पूछा था- ‘सुदेश आया था?’

निशा ने गुमसुम दायें-बायें गर्दन हिलायी थी- ‘अब मुझसे वास्ता ही क्या है। दस साल तक वह मेरा पति था… अब हमदर्दी के दो बोल बोलने वालों में भी नहीं है।’

निशा साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें रगड़ रही थी। उसका चेहरा विकृत और डरावना हो गया था, अंधेरे खंडहर की तरह। और उसकी हथेलियां उस वातावरण में बार-बार भीग रही थीं, जिनमें उस मुंह को दबा लेने की आशा लेकर वह यहां तक आया था।

और जब वह वहां से बाहर निकला, तो उसकी इच्छा हुई थी कि जोर से भागे और भागता चला जाये।

इस बिछुड़े हुए शहर में उसके पास बस दो-तीन दिन ही थे। पांच साल की यादों वाले शहर को वह इस छोटी-सी अवधि में समेट लेना चाहता था। परंतु इतवार वाली वह एकमात्र शाम निशा के चेहरे-सी खंडहर हो चुकी थी।

नमकदानी-सी गड्ड-मड्ड मनःस्थिति में से उसने निशा की बात को छांटकर अलग किया। निशा ने कहा थö ‘जाने से पहले एक बार ज़रूर मिलकर जाना।’ परंतु लखनऊ से लिखे जाने वाले पत्र का मजमून उसके मस्तिष्क में साफ था- ‘कंपनी का काम इतना ज़्यादा था कि बहुत कोशिश के बावजूद तुमसे दुबारा मिलने का समय नहीं निकाल पाया। आशा है, तुम्हारा स्वास्थ्य अब काफी सुधर गया होगा। मुझे चिंता है। खबर देती रहना…’

और कुमुद भी कितनी कैजुअल थी। दफ्तर से तबादला हुए अभी पूरा एक साल भी नहीं गुजरा है। उसकी हर इच्छा पर नत हो जाने वाली, कुमुद इस बार उसे ऐसे मिली थी, मानो कह रही हो-हां आं आं आं, वह भी एक वक्त था। तुम बॉस थे, मैं तुम्हारी क्लर्क थी। तुम मुझे अच्छे लगते थे। तुम्हारे व्यवहार में बॉस होने की कोई बू नहीं थी। फिर मैं तुम्हारे परिवार से भी कितनी हिल-मिल गयी थी, और साथ-साथ तुम्हारे कितना नजदीक पहुंच गयी थी। परंतु अब मैं उस सम्बंधों को कहां तक घसीट पाऊंगी। फिर अब मैं तुम्हारी कंपनी में भी नहीं हूं। तुम इस ब्रांच में अगर फिर से आ भी जाओं, तो भी क्या फायदा है। जो ग्रेड मुझे इस नयी कंपनी में मिला है, वह तुम्हारे मालिक लोग सात जनम में भी नहीं दे पायेंगे … और यहां भी तो मेरा एक बॉस है, जिसकी मेहरबानी से मुझे एकदम अस्सी रुपये की बढ़ोतरी मिली है।

कुमुद ने उसे घर पर चाय पिलायी थी। उसकी मां उसी आत्मीयता से कह रही थी … ‘साहब, जब आप यहां थे, तो कुमुद को बहुत सुख-आराम था। आपके साथ तो इसका बिलकुल घर जैसा था। अब इस नयी कंपनी में इसे पैसा तो ज़्यादा मिलता है, पर वह बात नहीं है।’

कुमुद ने बात काटकर कहा था- ‘मां, धीरे-धीरे यहां भी ठीक हो जायेगा। अभी ज़रा मुझे काम समझने में दिक्कत हो रही है। हमारे बॉस हरीश बाबू तो बहुत अच्छे आदमी हैं।’

कुमुद की मां ने बहुत खुश होकर कहा था- ‘कुमुद की किस्मत बहुत अच्छी है। जहां भी जाती है, इसे बॉस बहुत अच्छा मिलता है… और फिर काम भी तो जी-तोड़कर करती है।’

कुमुद उसे बड़ी सड़क तक छोड़ने आयी थी। पहले वह गली का नुक्कड़ पार करते ही उसका हाथ पकड़ लिया करती थी। इस बार वह उस नुक्कड़ पर अपनी साड़ी संभाल रही थी। सड़क पर बस का इंतज़ार करते हुए उसने पूछा था- ‘कल किसी समय मिलोगी?’

कुमुद के मुंह से बेबाक निकल जाने वाला ‘नहीं’ उसे चुभ गया था- ‘कल? कल 6बजे तो दफ्तर से लौटूंगी और फिर शाम को… शाम को कुछ लोग मुझे देखने आ रहे हैं।’

‘अच्छा,… कहा से आ रहे हैं?’

‘यही इसी शहर के हैं। और देखने क्या, बल्कि बात पक्की करने आ रहे हैं। देख-सुन तो चुके ही हैं।’ ‘ओह… तो शादी की तैयारी है?’

‘वह तो होनी ही है देर-सवेर।’ कुमुद ने इस तरह कहा था, मानो यह इतना ही सहज है, जैसे शाम का भोजन।

‘आप कब जा रहे हैं?’ उसने पूछा था।

‘परसों रात को।’

‘फिर कब आ रहे हैं?’

‘कुछ पता नहीं।’

‘शादी में ज़रूर आइयेगा।’

सामने से बस आ गयी थी। वह चढ़ गया था और दोनों ओर से फीकी मुस्कराहटों के साथ हाथ हिलते रहे थे।

लोचन उसे स्टेशन पर लेने आया था, बोला- ‘तुम घर चलो। मैं सीधा दफ्तर भागूंगा। काफी लेट हो गया हूं।’

‘पर मैं तो हेड आफिस में ठहरूंगा। सभी ब्रांच मैनेजर वहीं ठहरते रहे हैं… खास हिदायत की गयी है।’

‘अच्छा…’ लोचन ने बस स्टॉप की ओर लपकते हुए कहा था- ‘शाम को घर आना।’

टैक्सी में वह कितना गुमसुम हो गया था- इतना पुराना दोस्त, इतने दिनों बाद मिले और इतनी जल्दी में… कैसा लगता है?

शाम को वह लोचन के घर गया और लोचन आया रात को दस बजे। वह कहीं डिनर पर चला गया था। वह बैठा ज्योति की मैट्रिक की किताबों से सिर मारता रहा। भाभी को रसोईघर से ही फुर्सत नहीं मिल रही थीं। और छोटे बच्चों से कोई कितनी देर बातचीत करे?

ज्योति कह रही थी-‘लोचन भैया एक बार घर से निकलते हैं, तो फिर भूल ही जाते हैं कि घर नाम की कोई चीज़ है, यहां सिर्फ साने के लिए ही वापस नहीं जाना है… वहां कुछ लोग रहते भी हैं।’

लोचन भी क्या करे। दफ्तर की भाग-दौड़ के बाद इतना समय ही कहां बचता है कि किसी की कुछ दिलजोई कर सके। पहले की बात और थी। दोनों एक ही बिल्डिंग में रहते थे। रात के नौ बजे से गपाष्टक शुरू करते, तो एक बजा देते। परंतु अब मोहन आया है सिर्फ चार-पांच दिनों के लिए। इतवार पड़ता है सिर्फ एक। लोचन अच्छी तरह जानता था कि इस एक दिन का उपयोग मोहन किनसे मिलने में करेगा।

वह महसूस कर रहा था, इतना बड़ा यह शहर बहुत चुप है। सारी खड़खड़ाहट और शोर-शराबा उसके कानों का हल्का-सा स्पर्श करते हुए निकल जाता है। उसके अंदर कुछ भी नहीं उतरता। लखनऊ में उसकी जिंदगी बहुत चुप थी, बहुत शांत थी। वह यहां आया था उस जिंदगी का मंथन करने, उसे हिलाने, उसे झकझोरने। यहां पांच साल उसकी जिंदगी कितनी थिरकती रही थी। अंदर-बाहर के शोर-शराबे उसे कितना व्यस्त किये रहते थे। परंतु इस बार यहां आकर वह झंकृत नहीं हुआ। कुछ भी ऐसा नहीं हुआ, जो उसकी पिछले साल की उबाऊ शांति को तोड़-फोड़कर रख देता। कुछ भी ऐसा नहीं हुआ कि वह तिलमिला उठता।

फिर ज्योति वाली वह बात घटी।

लोचन से तय हुआ था कि वह सामान लेकर शाम तक उसके घर आ जायेगा। फिर साथ-साथ खाना-वाना खाकर लोचन उसे गाड़ी पर बैठा देगा। घर में वह ज्योति, भाभी और बच्चों से घिरा बैठा लोचन को कोस रहा था,जो अभी तक नहीं आया था। एकाएक ज्योति बोली-‘मोहन भैया, आप आज जा रहे हैं और राखी है अगले हफ्ते। आइये, आपको एडवांस राखी बांध दूं।’

उसने थोड़ा चौंककर, फिर बड़े मोह से ज्योति की ओर देखा था। पहले तो ज्योति ने उसे कभी राखी नहीं बांधी। कभी ऐसी बात ही नहीं हुई। वह मुस्कराया। उसने अपनी पर्स से दस रुपये का नोट निकाला और ज्योति की ओर बढ़ाकर बोला-‘लाओ, बांध दो।’

ज्योति मोहन की इतनी तत्परता के लिए तैयार नहीं थी। वह थोड़ी घबरायी आवाज़ में बोली-‘पर अभी मेरे पास राखी कहां है?’

‘राखी नहीं तो रुपये भी नहीं।’ उसने नोट को पर्स में रखा और पर्स को जेब में। और ठहाका मारकर हंस पड़ा था।

बात आयी-गयी हो गयी। वह उठकर साथ के फ्लैट के मिश्रा बाबू से मिलने चला गया था। पंद्रह मिनट बाद आकर उसने पूछा था-‘लोचन नहीं आया?’ लोचन नहीं आया था। साढ़े सात बज रहे थे।

वह सुबह का अखबार उलट-पुलट रहा था कि ज्योति चुपचाप उसके पास आ खड़ी हुई थी। ‘चलिये, बंधवाइये राखी।’

उसके हाथ में राखी थी।

एक क्षण उसे लगा था, ज्योति ने उससे दस रुपये ऐंठने की साजिश की है। और उसके मुंह से शब्द फिसल पड़े थे-‘जाओ… जाओ… अब क्यों बंधवाऊं। दस का नोट देखर मुंह में पानी आ गया ना?’

ज्योति दो क्षण उसे बौरायी-सी देखती रही थी (लगा था जैसे किसी ने घसीटकर उसके मुंह पर थप्पड़मार दिया हो), फिर वह दूसरे कमरे में भाग गयी थी।

फिर एक तीखी-सी कसक उसके अंदर उतर गयी थी। उसे लगा था, पता नहीं कितनी चीजें एक दूसरे से टकरा गयी हैं। वह लपकता हुआ दूसरे कमरे में पहुंचा था। ज्योति औंधे मुंह पड़ी थी। उसने पुकारा था-‘जोती… जोती… पगली कहीं की… मेरी बात का बुरा मान गयी… ले बांध राखी… मैंने तो मज़ाक किया था… चल उठ।’

ज़्योति नहीं उठी थी। उसने माफी मांगी, वेरी-वेरी सॉरी कहा, नाराज हो जाने की धमकी दी, हंसा देने की भाव-भंगिमा भी बनायी। पर सब बेकार। ज़्योति उसी तरह औंधे मुंह पड़ी रही थी।

खाना-वान खाकर वह और लोचन स्टेशन जाने के लिए निकले, तो वह फिर ज़्योति के पास गया था-‘मैं जा रहा हूं जोती…’

ज़्योति ने सिर नहीं उठाया था। और वह तिलमिलाता हुआ टैक्सी में आ बैठा था।

एक-एक बात को उसने छांटकर अलग किया। एक मुस्कराहट से अंतर के मणिमय कोठों को तरंगित कर देवाली निशा कैसी टूटी-सी लग रही थी। बात-बेबात उसकी कैबिन के सैकड़ों चक्कर लगानेवाली कुमुद कितनी कैजुअल हो गयी थी। उसकी बिल्डिंग के लोग कितने औपचारिक हो गये थे और लोचन कितना व्यस्त हो गया था।

पर ज्योति की बात उसे रह-रहकर साल रही थी। फिर उसे महसूस हुआ, इस तरह साले जाने की पीड़ा उसे अंदर-ही-अंदर अच्छी लग रही है। यदि । ज्योति वाली यह बात भी न होती, तो वह लखनऊ से जितना ठहरा-ठहरा आया था, उतना ही ठहरा-ठहरा वापस चला जाता।

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