ताश का खेल (कहानी) : दंडपाणी जयकांतन

Taash Ka Khel (Tamil Story in Hindi) : Dandapani Jayakanthan

अरगनी पर टंगी वायल साड़ी को झाड़कर पहनने के बद जानकी दीवार पर लटके आईने के सामने जा खड़ी हुई। उसने अपने सँवरे हुए बालों को हाथों से तनिक ठीक किया। माथे पर लगी कुंकुम की बिन्दी पसीने से कुछ फैल गयी थी। उँगली पर धोती का किनारा लपेटकर उसने बिन्दी को चारों तरफ से ठीक किया। बिन्दी का आकार कुछ छोटा हो गया। उसे मन-ही-मन इस बात का सन्तोष था कि छोटे आकार की बिन्दी भी उसके माथे पर अच्छी लग रही है। इसके बाद उसने चूड़ियों के डिब्बे में मोड़कर रखा दो रुपये का नोट निकाला और उसे धोती के पल्ले में बाँध लिया। पीछे मुड़ते ही उसे अपना डेढ़ साल का लड़का रवि दिखाई दिया। अपने अति नाजुक पैरों को घसीटते हुए किसी तरह वह उसके पास पहुँच गया और उसने उछलकर अपने दोनों हाथ उसकी ओर फैला दिये।

उसने बच्चे को खिड़की के पास बैठा दिया और उसे धोकर अरगनी पर सुखायी गयी कमीज पहनायी। उसके बालों को हाथों से सुलझाया और थोड़ा-सा तेल लगाकर उन पर कंघी फेरी। मुख पर पाउडर लगाया। गालों को चूमकर उस पर काला टीका लगाकर नजर उतारी। बच्चे को गोद में उठाकर जब उसने घर में पड़े पुराने टाइम-पीस की तरफ देखा तब दो बज रहे थे।

सरस्वती अम्माल ने उससे पूछा, "इस कड़कती धूप में बच्चे को लेकर सिनेमा जा रही है?"
प्रश्न सुनकर कहीं उसे गुस्सा न आ जाए, इस डर से वह मुस्कराने लगी। "हाँ, जा रही हूँ, इससे क्या!"
"तू खुशी से जा! मैंने सोचा, धूप है इसलिए कह रही थी। तू व्यर्थ ही गुस्सा हो रही है कि मैं सास की जगह खड़ी होकर तुझे डाँट रही हूँ..."
"आप सास की पदवी सँभाले रहिए...कौन मना करता है? पहले अपने लड़के को पति की तरह रहना तो सिखा दीजिए।"
जानकी के मुख से हमेशा इसी तरह के कटु शब्द निकलते थे। सरस्वती अम्माल यह सोचकर चुप रह जाती थी कि उसका इस तरह बोलना उचित ही तो है।
"मैं क्या करूँ? मैं अपने को कोस सकती हूँ...अपने दुर्भाग्य पर रो सकती हैं." कहकर सरस्वती अम्माल सिर पीटने लगी।
सरस्वती अम्माल ने एक बार पूछा था, 'उसमें क्या कमी है? तूने उसके साथ जीवन बिताते हुए एक पुत्र को भी पा लिया है। अब तू उसकी उपेक्षा क्यों करती है?' इसके बाद उसकी क्या दुर्दशा हुई, इसे वही जानती है। हे ईश्वर! शब्द क्या थे, विष-बुझे बाण थे।
"वह आपका पुत्र है इसलिए आपका दुखी होना उचित है। आपने उसका विवाह करके एक लड़की की जिन्दगी को बिगाड़ने का पाप अपने सिर पर ले लिया है। इसके लिए आप जी भरकर रोइए! आ बेटा, हम चलते हैं!" कहकर जानकी ने बच्चे को उठाया और चल पड़ी।

सरस्वती अम्मल ने कुछ कहना चाहा, 'कुछ भी हो, पति से एक बार...' परन्तु वह कुछ कह न सकी। शायद जानकी को भी इस बात का ध्यान आ गया था। वह मन-ही-मन बड़बड़ायी, "बड़ा आया महापुरुष कहीं का!" और चुपचाप गली की ओर बढ़ गयी।
सरस्वती अम्माल द्वार पर खड़ी हुई उसे जाते हुए देख रही थी।
मई की कड़कती धूप में, आग के समान धधकती हुई तारकोल की सड़क पर, बच्चे को गोद में लिये हुए वह नंगे पाँव जा रही है। क्या उसमें सिनेमा देखने की इच्छा इतनी बलवती है?

कभी-कभी उस पर इस तरह का पागलपन सवार हो जाता था। उसकी दशा किसी अंगहीन, अभावग्रस्त या बीमार व्यक्ति के समान हो जाया करती थी। अपने मनोभावों को किसी-न-किसी रूप में व्यक्त करके ही वह शान्त होती थी। जानकी के जीवन में एक बहुत बड़ा अभाव था।
वह अभाव क्या था?

जानकी के दृष्टि से ओझल होने तक सरस्वती अम्माल द्वार पर खड़ी रही। एक दीर्घ निःश्वास लेकर जैसे ही वह कमरे में प्रविष्ट हुई, उसकी दृष्टि दीवार पर टंगी जानकी और अपने पुत्र शिवसामी की विवाह के समय ली गयी तस्वीर पर पड़ी।
शिवसामी उसका अपना लड़का था परन्तु विवाह के समय ली गयी उसकी उस तस्वीर को देख वह विशेष प्रसन्न नहीं हुई।

सौन्दर्य की प्रतिमा जानकी की बगल में खड़ा नाटे कद का, ऊँचाई में कठिनाई से ही जानकी के कन्धे तक पहुँचनेवाला, आँखें जैसे बाहर को निकली हुईं, दाँत मुँह से बाहर झाँकते हुए, पागलों के समान मुस्कराता हुआ वह व्यक्ति कितना कुरूप था!
बेचारी जानकी!
विवाह से पहले उसने कैसे-कैसे सपने संजोये होंगे! भीतर ही भीतर बनकर नष्ट हुए कितने मनोराज्यों के खंडहरों का भार ढोती हुई वह उसकी बगल में खड़ी हुई होगी?

'मैं पापिन हूँ। महापापिन हूँ! मैंने अपने बेटे के लिए इस सुन्दर बच्ची के जीवन को नष्ट कर दिया,' यह सोचकर सरस्वती अम्माल ने आँचल से अपने आँसू पोंछ लिये।

शिवसामी की पत्नी को देखकर नगर के सभी लोग चकित थे। नगर के छोटेछोटे बच्चे भी शिवसामी को मात्र उसका नाम लेकर नहीं पुकारते थे। वह उसे मूर्ख शिवसामी, पागल शिवसामी, काना शिवसामी, जापानी शिवसामी आदि नामों से पुकारते थे। इसे सुनकर सरस्वती अम्माल का मात-हृदय पीडा से छटपटा उठता था।

इतने कुरूप शिवसामी का अत्यन्त सुन्दर किन्तु निर्धन कन्या जानकी से विवाह कराकर सरस्वती अम्माल पहले तो बहुत खुश हुई कि उसने नगर के सभी लोगों से बदला ले लिया है परन्तु बहुत शीघ्र ही वह जान गयी कि उससे भयंकर भूल हो गयी है। अब वह अपने अपराध के विषय में निरन्तर सोचती हुई आँसू बहाने लगी।

शिवसामी कुरूप और मूर्ख ही नहीं अपितु अत्यन्त क्रोधी और उद्दण्ड स्वभाव का है—अपने अनुभव के बल पर इस बात को अच्छी तरह जान लेने के बाद जानकी को अपना जीवन नरकवत् लगने लगा। उसने कई बार आत्महत्या करने का विचार भी किया। ऐसे अवसरों पर सरस्वती अम्माल के प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण शब्दों ने ही उसे जीवित रहने की प्रेरणा दी थी।

उसके गर्भ से उत्पन्न रवि ने भी उसे निरन्तर जीवित रहने की प्रेरणा दी। पुत्र के जन्म के बाद जानकी के स्वभाव में अहंकार और जिद्दीपन का समावेश हो गया। उसे लगता था कि उसने अपने सूने जीवन के अन्धकार को दूर करने के लिए स्वयं ही एक दीपक को खोज लिया है।

उसके जीवन में जो अभाव थे, जिनका उसने मन-ही-मन अनुभव किया था और जिसे दूसरे व्यक्ति भी अनुभव द्वारा ही जान सकते थे, बदला लेने के लिए उसने सबकी उपेक्षा करना आरम्भ किया, पति की भी। उसने इसकी ओर कभी ध्यान नहीं दिया था। अतः इसके उपेक्षापूर्ण व्यवहार का परिचय उसे कहाँ मिल सकता था? वह तो सोचता था कि कभी-कभी पत्नी पर अधिकार जमाना ही पुरुष का लक्षण है। ऐसे अवसरों पर जानकी बिना थके हुए उस पर कटु शब्दों की वर्षा करती थी। शिवसामी उसके अन्तर्मन से निकलते हुए उन शब्दों को सुना-अनसुना कर देता था। उसे बराबर यही लगता था कि वह उसका विरोध कर रही है अतः वह क्रोध में आकर उसे पीटने लगता।
और तब जानकी सरस्वती अम्माल को देखकर चिल्ला उठती थी, "यही सब-कुछ देखने के लिए ही तो आपने अपने प्यारे बेटे का ब्याह रचाया था... देखिए...जी भरकर देखिए..."
सरस्वती अम्माल मन-ही-मन कह उठती थी, 'इसका कहना ठीक है...इसका कहना ठीक है।' इनकी लड़ाई के खत्म हो जाने तक वह घर के किसी कोने में जा बैठती थी।
घर में लड़ाई-झगड़े की यह नौबत कभी-कभार ही आती थी। प्रायः शिवसामी पागलों के समान बकता रहता था और घर के लोग उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देते थे।

शिवसामी के दफ्तर से लौटते ही उसके घर के बरामदे में ताश खेलनेवालों की मण्डली जम जाती थी। शिवसामी के सभी मित्र दूसरी गलियों में रहते थे। उनमें एक था रामभद्रन। वह शिवसामी के दफ्तर में काम करता था। उसका घर ताँबरम में था। वह जब भी आता था, बेसुध होकर ताश खेलता था। आखिरी इलेक्ट्रिक ट्रेन के छूटने में केवल दस मिनट बाकी हैं इस तरह की सूचना पाकर ही वह उठता था और ताश के खेल की सभा समाप्त होती थी।

आठ बजते ही जानकी बिना किसी की प्रतीक्षा किये खाना खाकर बच्चे को अपने से चिपटाकर सो जाती थी। सरस्वती अम्माल अपने बेटे की प्रतीक्षा में, देहरी पर सर रखकर अर्द्धनिन्द्रा में पड़ी रहती थी। 'शिवसामी, पौने ग्यारह बज गये।' माँ के इन शब्दों को सुनकर ही वह उठकर आता था। अपने दोस्तों को विदा कर जब वह खाना खाने बैठता था, तब भी इस प्रकार बड़बड़ाता रहता था, "माँ! मैंने तुरुप से उसके पान के नहले को काटकर बड़ी गलती की। परन्तु मैं क्या करता? मेरे पास पान को छोड़ बाकी रंग के ही पत्ते थे। हुकुम के छोटे पत्ते थे अतः हुकुम की बारी आने पर भी 'सर' मुझे नहीं मिलता। तुरुप भी एक था—नहीं काटता तो क्या करता? मुझे कहाँ पता था कि वह गुलाम फेंकेगा? इसी से मैं बाजी हार गया।

"अम्मा!...फोटो को इतने ध्यान से क्यों देख रही हो? क्या तुम सोच रही हो कि तुम्हारा बेटा फिर एक बार बारात सजाकर जाएगा? मैं भी यही चाहता हूँ...खैर, इस समय कॉफी ला दोगी? चार कप कॉफी चाहिए!" शब्दों को सुनते ही सरस्वती अम्माल ने पीछे मुड़कर देखा। बरामदे में ताश-मण्डली जमी हुई थी।

उसने पुत्र की विनोदपूर्ण बातों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। वह एकाएक बोल उठी, "ओहो! तो आज शनिवार है? अभी कॉफी लाती हूँ। दूधवाला अभी तक नहीं आया...बस, आता ही होगा," ऐसा कहकर मुँह बनाते हुए सरस्वती अम्माल रसोईघर की ओर चल पड़ी।

"जानकी कहाँ है?"
"सिनेमा देखने गयी है।"
"किससे पूछकर गयी है?"
"किससे पूछकर जाती? मुझसे पूछकर गयी है।"

"देख रहा हूँ कि उसकी उद्दण्डता दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। इतनी कड़कती धूप में उस लूले लड़के को लेकर गयी है। हूँ...। आने दे उसे..." शिवसामी गुर्राने लगा।
"क्यों भई! इसमें गलती क्या है? घर में तो हवा भी नहीं है। इस घोर दुपहरी में घर में पड़े सड़ने से अच्छा यही है कि तू बाहर घूम आ, यह कहकर मैंने ही उसे बाहर भेजा है।"
"अच्छा-अच्छा...वह कहीं जाकर मरे, मुझे क्या?" कहकर शिवसामी ताश की गड्डी और दो चटाइयाँ लेकर बरामदे की ओर चला गया।
बरामदे की ओर से एक आवाज आयी, "क्यों रे, रामभद्रन को क्या हुआ? वह आज यहाँ क्यों नहीं आया?"
"खेलने के लिए हम चार लोग काफी हैं। जो यहाँ नहीं है, उसकी चिन्ता क्यों करें? तू पत्ते बाँट।"
शिवसामी ने ताश के पत्ते बाँट दिये और खेल शुरू हो गया।
'क्या सिनेमा में ही जोड़ी ठीक बैठती है? वे दोनों कितने खुशी से नाचते-गाते जा रहे थे...क्या यह सब सिनेमा में ही सम्भव है?' बच्चे को गोद में लिये चलती जानकी का स्पर्श करती हुई एक रेशमी साड़ी आगे बढ़ गयी। जानकी ने सिर उठाकर देखा।
सामने एक युवा जोड़ा दिखाई पड़ा। लोगों की उस भीड़ में भी सूटधारी वह युवक अपनी बाँहों से युवती की कमर को घेरे हुए चल रहा था। युवती रेशमी साड़ी पहने अपने गालों से उसकी भुजाओं का चमकीले रेशमी बुश-शर्ट का स्पर्श करती हुई आगे बढ़ रही थी।

'वह कितनी सुखी है!...सिनेमा की नायिका की तरह...जीवन में भी बहुत-से लोग सुखी होते हैं। मैं ही दुर्भाग्यशालिनी हूँ...मुझे जीवन ने इस बात पर विश्वास करने का अवसर भी नहीं दिया कि संसार में बहुत-से लोग सुखी जीवन बिताते हैं,' सोचकर उसका मन रो उठा। सिनेमा हॉल में बैठे हुए उन प्रेमपूर्ण दृश्यों को देखकर, जिनको देख सभी लोग प्रसन्न हो रहे थे और आगे की सीटों पर बैठे हुए लोग सीटी बजा-बजाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे, जानकी का हृदय ईर्ष्या, दुःख और शोक की भावना से भर उठा। एकाध बार दु:ख के सीमातीत हो जाने पर वह रो पड़ी। हाँ...यही तो उसके जीवन का बहुत बड़ा अभाव था। दूसरों को देख मिलता था। इसी से उस पर सिनेमा देखने का भूत सवार हो गया था।
थियेटर से बाहर निकलकर वह सामने के होटल की ओर चल पड़ी।
होटल के भीतर जाकर वह एक कोने की मेज के पास जाकर बैठ गयी और उसने मिठाई का ऑर्डर दिया।

उसने थोड़ा-थोड़ा करके बच्चे को पूरी इमरती खिलायी। जब वह कॉफी को ठण्डा कर रही थी तब उसे लगा कि कोई बहुत देर से उसकी तरफ एकटक देख रहा है। उसने मन-ही-मन सोचा, 'कहीं वे तो नहीं आये?' दृष्टि उठाते ही उसे सामने रामभद्रन बैठा दिखाई दिया।
'इसकी सूरत तो जानी-पहचानी लगती है,' यह सोच उसने उसे गौर से देखा। कुछ देर बाद उसे याद आया कि वह उसके पति के साथ ताश खेलने के लिए आनेवालों में से है।
रामभद्रन उसे देख मुस्कराया।
जानकी भी मुस्करा दी।

उसने आज पहली बार रामभद्रन को गौर से देखा था। वह कितना सुन्दर है, सभ्य है! जानकी के सौन्दर्य और बुद्धिमानी की प्रशंसा रामभद्रन बहुत दिनों से करता आ रहा था।
हाथ धोने के लिए उठते ही वह उसकी मेज के पास आ गया और अत्यन्त परिचित व्यक्ति के समान पूछने लगा, "क्या सिनेमा देखने जा रही हो?"
"नहीं...देखकर लौट रही हूँ।"
"क्यों भई!...सिनेमा देखा?" इस तरह बच्चे को सम्बोधित करते हुए उसने बच्चे को मेज पर खड़ा किया। बच्चे के दोनों पैर मुड़ गये।
"यह खड़ा क्यों नहीं होता?"
"पता नहीं क्यों...डेढ़ साल का हो गया है...अब भी खड़ा नहीं हो पाता है। उसे दवाई, टॉनिक आदि बराबर दे रहे हैं...शरीर में शायद किसी चीज की कमी है। इसके पिता तो इसे 'लूला' कहकर ही पुकरते हैं।"
"आप घबराइए नहीं, छह महीने में ही यह चलने लगेगा। इसका शरीर कमजोर है। वह मूर्ख इसे लूला कहता है? भैया, अब यदि तेरे पिता तुझे लूला कहें तो तू कहना कि मैं तेरी तरह लूला नहीं हूँ। क्यों, ठीक है न?" बच्चे को इस तरह समझाकर रामभद्रन जानकी की ओर देखकर हँसने लगा।
जानकी के हृदय में कोई बात चुभ-सी गयी परन्तु हँसकर उसे टाल दिया।

बैरे ने बिल लाकर मेज पर रख दिया। जानकी ने उसे उठाने के लिए हाथ बढ़ाया, तभी 'मैं पैसे दिये देता हूँ' कहकर रामभद्रन ने भी बिल की ओर हाथ बढ़ा दिया। अचानक ही दोनों के हाथ एक-दूसरे से टकरा गये। बड़ी तेजी से दोनों ने अपने हाथों को पीछे कर लिया। इस बीच मेज पर पड़ा बिल उड़कर नीचे गिर पड़ा। रामभद्रन ने उसे उठा लिया।
क्षणभर के लिए जानकी का मुख लज्जा से लाल हो गया। इतनी जल्दी वे दोनों एक-दूसरे के इतने निकट कैसे आ गये, इस बत पर चकित होते हुए और उसकी ओर देख मुस्कराते हुए उसने बच्चे को गोदी में उठा लिया।

होटल से बाहर आने तक उसके मुख की लालिमा मिटी नहीं। पीछे से रामभद्रन की आवाज सुनाई दी, "आप चिन्ता क्यों करती हैं? आप प्रतिदिन समुद्र के किनारे जाकर कमर तक गहरे रेत के गड्ढे में बच्चे को सिर्फ एक घण्टे के लिए खड़ा करके देखिए...एक महीने में ही वह चलने लगेगा।"
"ऐसी बात है?"

"हाँ! आप चाहें तो ऐसा करके देखिए। क्या आप इस समय घर जा रही हैं? अभी जाकर...क्यों बेटा, समुद्र के किनारे चलेगा?" बच्चे को पुचकारते हुए रामभद्रन ने जानकी की ओर देखा।
पहले उसने सोचा कि उसे मना कर दूँ, लेकिन उसकी बतों में, उसकी आवाज में, उसकी मुस्कान में एक आकर्षण था—सुख देने की शक्ति थी।
"बेटा आओ, समुद्र-तट पर चलें," कहकर वह उसके साथ चल दी।
छह बज चुके थे। अभी धूप कम नहीं हुई थी। एक नौका की छाँह में कमर तक गहरे रेत के गड्ढे में रवि को खड़ा करके जानकी और रामभद्रन एक-दूसरे के सामने मौन बैठे हुए थे।

जानकी को रह-रहकर रोना आ रहा था। पर-पुरुष के सामने वह रो भी नहीं सकती थी। रामभद्रन भी कुछ सोचता हुआ शून्य दृष्टि से आकाश की ओर देख रहा था। वह बीच-बीच में लम्बी साँसें छोड़ रहा था तथा माथा खुजला रहा था।
"अरे हाँ! आज तो शनिवार है। आपकी दफ्तर से सीधे घर जाने की इच्छा नहीं हुई?" जानकी ने पूछा।
"दो दिन से परेशान हूँ...न तो घर गया और न ही दफ्तर..."
"हाय!...ऐसा क्यों? क्या पत्नी घर में नहीं है?" कहकर जानकी हँस पड़ी।
"कहीं जाकर मर जाती तो चैन से रहता...वह दुष्य जीवित रहकर मेरी जान खा रही है।"
"उसे गाली क्यों दे रहे हैं?...उसे एक दिन हमारे घर लेकर आइए न!"
"हे ईश्वर! तू मेरी परीक्षा क्यों ले रहा है?" कहकर उसने अपना सिर पीट लिया।

"क्या हम आपकी पत्नी के दर्शन नहीं कर सकते? क्या आपको डर है कि हम उसे आपकी ताश की बाजियों के बारे में बता देंगे? आप मत घबराइए। हम उसे कुछ भी नहीं बताएँगे..." कहकर जानकी हँस पड़ी।
"यदि आप उसे अवश्य देखना चाहती हैं तो एक काम कीजिए...अपने पति शिवसामी को साड़ी पहनाकर देख लीजिए...साक्षात मेरी श्रीमतीजी का रूप दिखाई देगा। हाय रे मेरे दुर्भाग्य! हाय रे मेरे दुर्भाग्य!"
जानकी एक क्षण जड़वत् खड़ी रही। "आपने उससे शादी क्यों की?"
"यह सब नियति का खेल है। उसके पिता ने ही मुझे पढ़ाया-लिखाया था। उसके पास अपार सम्पत्ति थी...यह लड़की उसकी एकमात्र उत्तराधिकारिणी थी..."
"कोई बात नहीं...आपको किसी तरह का सन्तोष तो है!" वह और भी कुछ कहना चाहती थी परन्तु दाँतों से जीभ दबाकर चुप हो गयी।
"कहिए! जो कुछ कहना चाहती हैं, कहिए। मैं बुरा नहीं मानूँगा।"
"नहीं, कुछ नहीं।"

"आप अवश्य ही अपनी बात छिपा रही हैं। आप जो चाहें, कह सकती हैं। आप शायद कहना चाहती हैं कि हम दोनों की स्थिति बिलकुल एक-सी है। जब मैं पहली बार आपके घर आया था तब आपको देखते ही मेरा मन रो उठा था। मुझे लगा कि आपकी स्थिति मेरे समान ही है। यही तो शायद आप भी कहना चाहती थीं?"

"हाँ...नहीं...मेरी स्थिति तो आपसे भी बदतर है। आप पुरुष हैं और मैं स्त्री!...आपने तो उपकार का बदला चुकाने के लिए, भविष्य में मिलनेवाले धन का ध्यान करके यह काम किया...परन्तु मुझे क्या मिला? मैं इस तरह का कष्ट क्यों झेल रही हूँ?" जानकी की जबान लड़खड़ा रही थी। उसका एक शब्द स्पष्ट सुनाई पड़ता था तो दूसरा भावों के भार से दब जाता था।
इसके बाद दोनों रेत पर रेखाएँ खींचते हुए मौन बैठे रहे।
दोनों मन-ही-मन अपने-अपने जीवन-चित्र में अपने पास खड़ी आकृति को मिटाकर उसके स्थान पर सामने बैठी आकृति को फिट करके देख रहे थे...
जानकी ने पिक्चर में नायक-नायिका की जो जोड़ी देखी थी, उससे कहीं अधिक सुन्दर और भव्य जोड़ी उसे दिखाई दी।
रामभद्रन ने उससे पूछा, "आपकी आयु क्या है?"
"चौबीस साल...आपकी?"
"सत्ताईस साल," कहकर रामभद्रन ने गहरी साँस ली।

जानकी भीतर-ही-भीतर गहरी साँसें ले रही थी। दोनों बहुत देर तक मौन बैठे हुए रेत में लकीरें खींचते हुए जैसे मन में चल रही भावनाओं के संघर्ष को व्यक्त कर रहे थे।

सहसा जानकी खिलखिलाकर हँस पड़ी। क्षणभर के लिए रामभद्रन भय से काँप उठा। हँसते हुए जानकी बोली, "देखिए...हमारा जीवन कितने अनोखे ढंग से बदल गया है।..आप जो ताश का खेल खेलते हैं...बिलकुल उसी खेल की तरह!"
"वह कैसे?"
"यदि आपके पास वे सभी पत्ते हों जिनकी आपको जरूरत है और मेरे पास वे सभी पत्ते हों जिनकी मुझे जरूरत है, तो खेल कैसे चलेगा?"
"जानकी!...तुम कितने सुन्दर ढंग से बातें कर रही हो।..."
'यदि वे ऐसा कहते तो?' यह सोच जानकी मन-ही-मन प्रसन्न हुई।

"जानकी...!" पुकारते हुए वह उसके पास आ गया। आँखों से आँसू बहाते हुए भर्राये स्वर में वह बोला, "हम दोनों भी ताश के पत्ते हैं ! खेलनेवाले शिवसामी और लक्ष्मी हैं। परस्पर एक-दूसरे से ताश के पत्तों को बदल लेना ही तो खेल है। जानकी! तू बुद्धिमती है। मेरे शब्दों का अर्थ समझ रही है न?"

जानकी के नेत्र मुँद-से गये थे। वह उस काल्पनिक सुख में मग्न हो अपने को लगभग भुला चुकी थी। तभी उसके बेटे रवि ने रामभद्रन का कोट पकड़कर तोतली वाणी में कहा, "अप्पा!"
जानकी ने आँखें खोलकर बच्चे को, अपने-आपको और चारों तरफ के वातावरण को ध्यान से देखा।

"वह तेरे अप्पा नहीं हैं बेटे, मामाजी हैं। अप्पा घर में तेरा इन्तजार करते होंगे। आ, घर चलें," कहकर उसने रेत के गड्ढे में खड़े अपने बच्चे को उठाकर छाती से लगा लिया। "आपकी बात मुझे बिलकुल ठीक लग रही है। यदि मैं एक महीने तक बच्चे को रेत के गड्ढे में खड़ा करूँगी तो तो यह अवश्य ही चलने लगेगा। कल से मैं उन्हें भी यहाँ ले आऊँगी। आजकल वह ताश के पीछे पागल हो रहे हैं," कहकर जानकी उठ खड़ी हुई।
रामभद्रन की समझ में कुछ नहीं आया। वह चुपचाप उसके पीछे चलने लगा। सहसा उसने उसके पास आकर धीरे से पूछा, "क्या आप मुझसे नाराज हैं?"

"आपसे नाराज होने का मुझे अधिकार कहाँ है? अरे हाँ, मैंने आपको ताश के खेल के बारे में पूरी बात नहीं बतायी। आपने कहा था कि खेलनेवाले मेरे पति और आपकी पत्नी हैं। वस्तुतः आपकी यह बात गलत है। वे भी हमारी तरह ताश के पत्ते हैं। हाँ...आप कह सकते हैं कि उनका कोई 'प्वाइण्ट' नहीं है। खेलनेवाला मनुष्य नहीं, ईश्वर है। वह गलत खेल रहा है, ऐसा कहने का हमें अधिकार कहाँ है?"
रामभद्रन ने चकित होकर पूछा, "जानकी, आप क्या कह रही हैं?" ।
"कल इतवार है न? आप लक्ष्मी को लेकर आइए। हम खूब बातें करेंगे। उसे भी मैं बोलना सिखा दूँगी। बेटे! मामाजी को नमस्ते कर। अच्छा, हम चलते हैं," कहते हुए जानकी तेजी से घर की ओर बढ़ गयी।
दिन और रात को मिलानेवाली मदमाती शाम समाप्त हो चुकी थी। समुद्र के किनारे जलती हुई बत्तियों की तेज रोशनी रात्रि के आगमन की स्पष्ट सूचना दे रही थी।
चारों ओर प्रकाश फैला हुआ था। क्या यह प्रकाश बाहर ही फैला हुआ था?