तारसप्तक : ऐतिहासिकता और प्रासंगिकता (निबंध) : केदारनाथ सिंह

Taar Saptak : Etihasikta Aur Prasangikta (Hindi Nibandh) : Kedarnath Singh

'तारसप्तक' का पुनर्मुद्रण कोई घटना नहीं है- हालाँकि इस बीच उस पर जो चर्चाएँ हुई हैं, उनमें जाने-अनजाने उसे एक घटना का सा रूप दे दिया गया है। आज से लगभग चौबीस वर्ष पूर्व जब उसका पहली बार प्रकाशन हुआ था तो कदाचित् उसकी सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि वह बिल्कुल चुपचाप, इतिहास की एक सहज परिणति के रूप में सामने आया था अपनी सारी नई घोषणाओं के बावजूद तत्कालीन नारों से अलग और एक बदले हुए साहित्यिक तेवर के साथ। उसकी सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि वह अपने अभीष्ठ पाठक समुदाय के आगमन से पहले ही छपकर सामने आ गया था। एक हल्के आघात और कुछ विस्मय के साथ जिन लोगों ने उसके प्रकाशन की ओर पहली बार निगाह उठाई थी, उनकी संख्या बहुत सीमित थी। इस तरहू ‘तारसप्तक' स्वयं एक काव्यात्मक आन्दोलन का पुरस्कर्ता चाहे बन गया हो, परन्तु शुरू-शुरू में वह बिना किसी क्रान्ति या आन्दोलन के, हिन्दी- प्रकाशन के इतिहास में शायद पहली बार लेखकों के एक सहकारी प्रयास के रूप में सामने आया था। यह ‘सहकारी' या ‘सामूहिक' दृष्टि उसके ऐतिहासिक स्वरूप की एक ऐसी विशेषता थी जो स्वच्छन्दतावादी युग की समाप्ति के बाद सोचने-समझने और अनुभव करने के एक सर्वथा नए आयाम की ओर संकेत कर रही थी। बाद के सप्तकों के साथ यह बात नहीं रही। वे एक सुनियोजित साहित्यिक आन्दोलन के वाहक बनकर एक नाटकीय घटना की तरह प्रकाश में आये। परिणामतः उनके प्रकाशन के साथ पाठकों को एक सर्वथा अप्रत्याशित साक्षात्कार का वह 'ऐतिहासिक' अनुभव नहीं हुआ, जोकि 'तारसप्तक' के घटना- शून्य प्रकाशन के साथ हुआ था ।

सन् 1943 के आसपास एक रचनाकार के सम्मुख बिलकुल दूसरे प्रकार के प्रश्न थे, जिनका रुख साहित्य की ओर कम और साहित्येतर वास्तविकता की ओर अधिक था । 'तारसप्तक' ने उनका रुख फिर से साहित्य की ओर मोड़ दिया । 'अज्ञेय' ने अपने वक्तव्य में स्पष्ट शब्दों में कहा- “यथार्थ दर्शन केवल कुंठा उत्पन्न करता है।" मैं इसमें निहित काव्यात्मक सत्य के बावजूद इस कथन को आधुनिक कविता के विकास के संदर्भ में थोड़ा दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूँ। एक ऐसे समय में जबकि साहित्य को रोमांटिक भावुकता से छुटकारा दिलाने के लिए बिलकुल दूसरे प्रकार के नारों की आवश्यकता थी, 'तारसप्तक' के कुछ वक्तव्यों और विशेषतः सम्पादक के वक्तव्य ने उन प्रश्नों को रेखांकित करने का प्रयास किया जो जाने-अनजाने रोमाण्टिक संदर्भों को ही प्रतिध्वनित करते थे। परिणामतः 'रोमाण्टिक' और 'आधुनिक' के बीच जो स्पष्ट विभाजन अब तक हो जाना चाहिए था, वह अगली पीढ़ी तक के लिए स्थगित कर दिया गया। इस प्रकार 'तारसप्तक' अपने समय के अग्रिम दस्ते' का घोषणा पत्र न होकर एक नए प्रकार के सौन्दर्यशास्त्र का उद्घोषक बन गया। इसका एक कारण यह था कि 'अन्वेषण' और 'प्रयोग' की जिस धारणा को लेकर ये कवि चले थे, उसके ऐतिहासिक कारणों और दिशा का उन्हें ठीक-ठीक पता नहीं था। कलाकार सेजाँ कहीं कहा है कि प्रयोग की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि हम अपने मौलिक 'विश्वासों' को किसी अन्य प्रकार से सिद्ध कर ही नहीं सकते। ज़ाहिर है कि ये विश्वास यदि किसी अभौतिक प्रतीति या चमत्कार से सम्बन्ध न रखते हों तो उनकी उत्पत्ति का स्रोत तत्कालीन ऐतिहासिक वास्तविकता से परे कहीं हो ही नहीं सकता । प्रयोगवाद का 'अन्वेषण' निश्चित रूप से आध्यात्मिक नहीं था। कोशिश की गई होती तो उसके वस्तुगत स्रोत का भी पता लगा लिया गया होता और उस बाह्य दबाव का भी, जिसके चलते 'प्रयोग' एक अनिवार्यता बन गया था। परन्तु यथार्थ दर्शन से उत्पन्न होनेवाली कुण्ठा के मूल में जाने की किसी ने जरूरत ही नहीं समझी। दो-एक कवियों में यह चेतना जाग्रत जरूर थी, पर 'तारसप्तक' का जो सामूहिक व्यक्तित्व बना, उसमें वह दब-सी गई । अब चाहे कुछ भी कहा जाए, पर हिन्दी कविता के विकास में 'तारसप्तक' एक ठोस ऐतिहासिक वास्तविकता बन चुका है और अब कोई भी स्पष्टीकरण उसकी तत्कालीन स्थिति में ज्यादा फेर-बदल नहीं कर सकता। इसलिए यह आवश्यक है कि उसका अध्ययन उसकी इसी विलक्षण स्थिति के संदर्भ में ही किया जाए।

पिछले दशक में आधुनिक कविता के विकास पर जो कुछ लिखा-पढ़ा गया है, उसमें प्रायः 'तारसप्तक' को एक अलगाव का बिन्दु माना गया है- एक ऐसा मोड़ जहाँ से हिन्दी कविता की दिशा एकबारगी बदल जाती है। मेरा खयाल है कि तत्कालीन साहित्यिक तथ्यों की जाँच-पड़ताल की जाए तो ज्ञात होगा कि यह परिवर्तन न तो एकबारगी आया था, न ही अप्रत्याशित रूप में। 'रूपाभ' (1938 ई.) के प्रकाशन के आसपास ही उसके लिए भूमि तैयार हो गई थी। निराला, नरेन्द्र शर्मा और केदारनाथ अग्रवाल की कुछ कविताओं में अनुभूतियों के 'स्थानीकरण' के साथ-साथ एक सर्वथा नए प्रकार का शिल्प भी विकसित होने लगा था, जिसमें पूर्ववर्ती कविता के छन्दानुशासित शिल्प से कहीं अधिक लचीलापन था । 'तारसप्तक' की कम-से-कम दो प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं, जिनका सम्बन्ध निश्चित रूप से कुछ सप्तकपूर्व प्रवृत्तियों के साथ जोड़ा जा सकता है। (1) व्यंग्य और विद्रूप की प्रवृत्ति, जिसका उदाहरण भारतभूषण, माचवे और रामविलास शर्मा की कुछ कविताओं में मिलता है; और (2) अनुभूतियों के 'स्थानीकरण' की प्रवृत्ति, जिसका आग्रह ख़ास तौर पर रामविलास शर्मा और गिरिजाकुमार माथुर की स्थिर चित्रणवाली कविताओं में दिखाई पड़ता है। इनके अतिरिक्त एक खास किस्म की नवरोमाण्टिक प्रवृत्ति भी धीरे-धीरे विकसित हो रही थी, जिसकी चरम परिणति एक हल्की मध्यवर्गीय उदासी के साथ गिरिजाकुमार माथुर की कावताओं में हुई। इसलिए इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि 'तारसप्तक' एक नई काव्यात्मक क्रान्ति का अग्रधात्रक नहीं, बल्कि उसकी कुछ आरम्भिक प्रवृत्तियों की सामूहिक अभिव्यक्ति मात्र है। और यह तो एक आकस्मिक संयोग से अधिक कुछ नहीं है कि वह सन् 1943 ई. में ही प्रकाशित हुआ था। जैसा कि सम्पादकीय वक्तव्य से स्पष्ट है, यदि सब कुछ योजना के अनुसार ही होता तो वह शायद और कुछ पहले ही प्रकाशित हो गया होता। इसलिए हिन्दी कविता के विकास में सन् 1943 महज एक कामचलाऊ काल विभाजन की रेखा है। यदि उसे एक स्थिर बिंदु मानकर बाद में विकसित होनेवाली काव्यात्मक प्रवृत्तियों का विवेचन किया जाएगा, तो इससे गलत नतीजों तक पहुँचने का खतरा हमेशा बना रहेगा।

फिर सवाल उठता है कि 'तारसप्तक' की ऐतिहासिकता किस बात में है ? इसका उत्तर किसी एक कवि की कृतियों या वक्तव्य के आधार पर नहीं दिया जा सकता । सम्पादकीय वक्तव्य को कवियों का संयुक्त वक्तव्य मानने का कोई कारण नहीं है। फिर 'तारसप्तक' के सामूहिक व्यक्तित्व और एक ठोस ऐतिहासिक शक्ति के रूप में उसकी अर्थवत्ता की व्याख्या कैसे की जा सकती है ? मेरा खयाल है कि साहित्य का इतिहास केवल रचनाओं से नहीं, बल्कि उन रचनाओं को एक तात्कालिक और प्रवृत्तिमूलक अर्थ देनेवाले उन आन्दोलनात्मक प्रयासों से अधिक सम्बन्ध रखता है, जो बिखरे प्रयत्नों को जाने-अनजाने एक सामूहिक प्रयास का रूप दे देते हैं । आवश्यक नहीं कि उसमें भाग लेनेवाला प्रत्येक रचनाकार अनिवार्यतः उस तात्कालिक अर्थवत्ता या प्रवृत्ति का पोषक हो ही। परन्तु एक सीमा के बाद इतिहास की शक्तियाँ उसकी कल्पनात्मक शक्ति पर इस प्रकार हावी हो जाती हैं कि वह उस वृहत्तर सामूहिक प्रयास का अंग बनने के लिए अभिशप्त होता है। निस्सन्देह एक श्रेष्ठ मौलिक कवि की शक्ति की पहचान आगे चलकर इसी बात से की जाएगी कि वह अपने समय की रचना के सामूहिक व्यक्तित्व से किस हद तक अपनी स्वतन्त्रता को बनाए रखने में समर्थ हो सका है। पर सचाई यह है कि यह विरोधपूर्ण स्थिति एक आधुनिक रचनाकार के आत्म-विकास की एक अनिवार्य प्रक्रिया बन गई है और यदि वह अपनी चेतना को इस विरोध के दबाब से खण्डित होने से बचा ले जाए तो 'सामूहिक व्यक्तित्व' और रचनात्मक स्वतन्त्रता के बीच का यह द्वन्द्व उसके कृतित्व को एक शक्ति ही प्रदान करता है। मुक्तिबोध का काव्य इस द्वन्द्व की तीव्रता का सबसे ज्वलन्त प्रमाण है।

आज इतने लम्बे अन्तराल के बाद 'तारसप्तक' की कविताओं को पढ़ने पर कई तरह की प्रतिक्रियाएँ होती हैं। कवियों के नए वक्तत्व और बाद की कुछ रचनाओं को 'पुनश्च' के अन्तर्गत देकर समय के इस अन्तराल को भरने की कोशिश जरूर की गई है, पर इससे केवल कवियों के व्यक्तिगत विकास पर ही थोड़ा-बहुत प्रकाश पड़ता है। 'तारसप्तक' के सामूहिक व्यक्तित्व का विकास तो पूरी नई हिन्दी कविता के विकास के सन्दर्भ में ही देखा जा सकता है। इस दृष्टि से देखें तो उसका प्रभाव परवर्ती हिन्दी कविता पर निश्चित रूप से पड़ा है। पर विडम्बना यह है कि उसमें प्रकाशित रचनाओं की अपेक्षा उसकी भूमिका और उसके वक्तव्यों का प्रभाव शायद ज्यादा निर्णायक सिद्ध हुआ है। इसका एक कारण तो यह है कि कविताओं की अपेक्षा वक्तव्यों की भाषा अधिक साफ रही है और उनमें नई वास्तविकताओं के प्रति कवियों की तात्कालिक प्रतिक्रिया का अधिक स्पष्ट और निश्चित प्रमाण मिलता है। यहाँ तक कि कुछ कवियों ने अपने राजनीतिक आग्रहों को भी साहसपूर्वक सामने रखा है । दृष्टि का यह खुलापन 'तारसप्तक' के स्वरूप की एक बहुत बड़ी विशेषता है। अन्य दो सप्तकों में यह 'खुलापन' कम होता गया है। पर बाद में जो कुछ हुआ, उसके बीज निस्संदेह 'तारसप्तक' में मौजूद थे। उसने शुरू में ही 'प्रयोग' के क्षेत्र को साहित्य अथवा कला के क्षेत्र तक सीमित कर दिया था। अतः यह हिन्दी कविता का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उसे आधुनिकता के आरम्भिक बिन्दु पर 'सुर्रियलिज्म' या 'दादावाद' जैसा कोई क्रांतिकारी आन्दोलन नहीं, बल्कि 'तारसप्तक' के रूप में, नवीन परिवर्तनों से विक्षुब्ध संवेदना और नई सौन्दर्य दृष्टि का एक ऐसा प्रवक्ता मिला, जिसके भीतर नए सन्दर्भों से सम्पृक्त होने की रागात्मक क्षमता तो थी, पर इसके भीतर से उभरनेवाले प्रश्नों का साक्षात्कार करने का 'ऐतिहासिक' साहस नहीं। यह आकस्मिक नहीं कि आज की एकदम नई पीढ़ी सन् 60 से पहले की कविता का विरोध करते हुए इस 'साहस' नामक मूल्य पर सबसे अधिक बल देती है ।

जहाँ तक 'तारसप्तक' की कविताओं का प्रश्न है, उनमें आज की कुछ स्थितियों का पूर्वाभास या पूर्वछाया चाहे मिल जाती है, परन्तु अनुभव और सम्प्रेषण की वह ताजगी नहीं मिलती, जो आज के पाठक के भीतर संवेदना के नए स्तरों को खोल सके । वस्तुतः 'तारसप्तक' से इस बात की माँग करना भी एक प्रकार की ज्यादती होगी। उसका पहला प्रयास हिन्दी काव्य भाषा की नई सम्भावनाओं की खोज की दिशा में था और इसमें सन्देह नहीं कि उसने तुलनामूलक अलंकारों के स्थान पर वृहत्तर अर्थों को प्रतिध्वनित करनेवाले स्वतःस्फूर्त प्रतीकों और आधुनिक जीवन के संकेतों के प्रयोग द्वारा पहली बार भाषा को आज के वस्तुगत संदर्भ से जोड़ने की कोशिश की । इस दिशा में मुक्तिबोध, गिरिजाकुमार माथुर और 'अज्ञेय' की भाषा का अध्ययन अधिक महत्त्वपूर्ण हो सकता है। मुक्तिबोध की भाषा की आधुनिकता पर अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया गया है । पर आगे चलकर 'अकेलेपन की भयानकता की जो अनुभूति सन् '60 के आसपास या उसके बाद की कविता में प्रमुख रूप से व्यक्त हुई, उसे मुक्तिबोध ने बहुत पहले 'एकाकीपन का लौहवस्त्र' के रूप में अनुभव किया था । उनकी बाद की कविताओं में जो एक नाटक का-सा गुम्फित परिवेश मिलता है, उसकी पूर्व छाया भी 'तारसप्तक' की कुछ कविताओं में देखी जा सकती है। अपने नए विक्तव्य में उन्होंने व्यक्ति के व्यवसायीकरण' की जो बात कही है, उसके आन्तरिक दबाव का प्रभाव शायद सबसे अधिक उन्हीं की कविता पर पड़ा है। अपने अन्य समकालीन कवियों की परिधि से मुक्तिबोध का काव्य यदि कुछ अलग या कटा हुआ-सा दिखाई पड़ता है तो इसलिए कि उन्होंने सृजन के स्तर पर कला के संघर्ष को अस्तित्व के संघर्ष से एकाकार कर लिया था। आज का नया रचनाकार उनके काव्य के इस पक्ष को नई काव्यात्मक मान्यताओं के अधिक अनुकूल पाता है। नए कवियों के बीच मुक्तिबोध की बढ़ती हुई लोकप्रियता का कारण भी शायद यही है।

माथुर और 'अज्ञेय' के वक्तव्यों के आलोक में यदि उनकी नई-पुरानी कविताओं का अध्ययन किया जाए तो कुछ रोचक तथ्य सामने आ सकते हैं। दोनों ही कवियों की कविताएँ शिल्प की दृष्टि से ज्यादा साफ और एक हद तक अपने आसपास के जीवन के प्रति 'सतर्क' दिखाई पड़ती हैं। निश्चित रूप से उनकी काव्यात्मक प्रतिक्रियाएँ आज उतनी ताजा नहीं लगतीं माथुर की रूपानी कविताओं के सन्दर्भ में यह बात कुछ ज्यादा ही सच साबित होती है। इसके बहुत से कारण हो सकते हैं, पर एक सीधा और शायद महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि ये कविताएँ अधिकतर ‘आत्मग्रस्त’ (यह शब्द मुक्तिबोध का है) हैं और इनकी 'आत्मग्रस्तता' अपनी तात्कालिकता का अतिक्रमण नहीं कर पाती। एक विचित्र बात यह है कि जहाँ इस संग्रह के ज्यादातर कवियों ने अपनी मान्यताओं के पुनर्परीक्षण में अपने को आज की अपेक्षाकृत अधिक आसन्न समस्याओं तक ही सीमित रखा है, वहाँ माथुर और 'अज्ञेय' ने परम्परा और आधुनिकता जैसे बुनियादी प्रश्नों को भी नए सिरे से उठाने का प्रयास किया है। इससे भी विलक्षण बात यह है कि इन दोनों ही कवियों ने कहीं-न-कहीं 'आधुनिकता' को 'भारतीय संस्कृति' अथवा 'भारत की परम्परा' से जोड़ने की अनिवार्यता भी अनुभव की है। माथुर ने अपनी बाद की कविताओं में विकसित होनेवाली एक विशेष प्रकार की 'कास्मिक चेतना' की बात कही है और यह निष्कर्ष निकाला है कि यह “भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि के साथ आधुनिक वैज्ञानिकता के सम्बद्ध होने का उदाहरण है।" आज के पाठक को यह बात छायावादियों की उस चक्करदार कोशिश की तरह लग सकती है, जिसके चलते उन्होंने अपनी सीधी और सच्ची आत्म-प्रसार की भावना को उपनिषदों के सर्वात्मवाद के साथ सम्बद्ध कर लिया था । इतिहास का पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ना अच्छी बात है और यह प्रक्रिया स्वयं इतिहास की द्वन्द्वमूलक प्रकृति के विरुद्ध भी नहीं पड़ती। परन्तु इस प्रकार के सम्बन्ध-सूत्रों की खोज ठोस ऐतिहासिक आधार पर ही होनी चाहिए। 'पुनश्च' के अन्तर्गत माथुर के 'पृथ्वीकल्प' नामक काव्य का एक अश भी है जो सूक्ष्म कास्मिक तरंगों की लय, गति और वर्ण की व्याख्या करनेवाली टिप्पणियों के साथ प्रकाशित हुआ है। यदि ऐन्द्रिय प्रत्यक्षीकरण एक सच्ची और सफल कविता का अनिवार्य गुण है तो अमूर्त कास्मिक तरंगों की व्याख्या करनेवाली इस कविता के सम्बन्ध में कुछ बुनिवादी प्रश्न पाठक के मन में उठ खड़े होते हैं और फिर वह सारा कास्मिक ढाँचा ही अग्राह्य और अकल्पनीय हो उठता है। वस्तुतः उनकी आरम्भिक कविताओं में जो रूमानियत मिलती है, 'पृथ्वीकल्प' ने उसकी इतिहास निरपेक्ष अमूर्तता को अपनी तार्किक परिणतियों तक पहुँचा दिया है।

'अज्ञेय' की पुरानी कविताएँ आज भी अपनी अभिव्यक्ति सम्बन्धी विशिष्टता के कारण, एक हल्की 'नास्टेल्जिया' की-सी भावना के साथ पढ़ी जा सकती हैं- हालाँकि उनमें ऐसे तत्त्वों का अभाव है जो आज के वृहत्तर यथार्थ को समझने में एक नए रचनाकार की सहायता कर सकें। 'तारसप्तक' की जब भी आलोचना की गई है तो आलोचक का ध्यान अन्य संगृहीत कवियों के विचारों और कृतियों की अपेक्षा 'अज्ञेय' के वक्तव्य और कविताओं पर अधिक केन्द्रित रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि अन्य सभी कवियों की अपेक्षा 'अज्ञेय' के काव्य और चिन्तन की भाषा आधुनिक मुहावरे के सबसे अधिक निकट पड़ती है और एक समर्थ गद्यकार होने के नाते उन्होंने तत्कालीन काव्य की समस्याओं को अधिक निश्चित और प्रौढ़ अभिव्यक्ति भी दी है। इसी के चलते उनका वक्तव्य काफी समय तक नई हिन्दी कविता का घोषणा-पत्र-सा माना जाता रहा है। पर नए संस्करण की भूमिका में उन्होंने एक हल्के आत्मतोष के साथ यह स्वीकार किया है कि "बीस वर्ष पहले तारसप्तक में अपने वक्तव्य के रूप में जो कुछ मैंने लिखा था, उसमें से कुछ भी वापस लेना आवश्यक नहीं है।" उनके इधर के काव्य- विकास को देखकर लगता है कि यह रचनात्मक आत्मतोष का भाव धीरे-धीरे उनकी स्थायी मनोदशा का सूचक बनता जा रहा है। 'आँगन के पार द्वार' की रचनाओं में जो एक निर्वेद की सी गहन स्थिति पाई जाती है, उसके समानान्तर यदि 'तारसप्तक' की कविताओं को रखकर देखा जाए तो लगेगा कि यह विकास आकस्मिक नहीं है। बदलते हुए मानवीय इतिहास के भीतर किसी 'शान्त' और 'स्थिर' बिन्दु को खोजने और उस तक पहुँचने की कोशिश उनकी आरम्भिक कविताओं में भी दिखाई पड़ती है। यही कारण है कि उन्हें काव्य अथवा जीवन के प्रश्न शाश्वत लगते हैं। इस प्रकार वे मानवीय शान्ति और स्थिरता की खोज करते-करते 'शाश्वत' की सीमा छूने लगते हैं। उनकी कविता पर इस स्थिति का प्रभाव यह पड़ा है कि वह धीरे-धीरे अपने समकालीन परिवेश से कटकर अमूर्तता की ओर बढ़ती गई है । उनकी शुरू की कविताओं में यह अमूर्तता संवेदना की प्रखरता और तीव्र ऐन्द्रियबोध के कारण उतनी स्पष्ट नहीं थी। 'तारसप्तक' की पुरानी कविताओं में यह तीव्रता खासतौर पर पाई जाती है। इधर नई पीढ़ी के कवियों ने 'अज्ञेय' के विरुद्ध जो तीव्र प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की हैं, उनका लक्ष्य 'तारसप्तक- कालीन कविताएँ नहीं, बल्कि उनकी वे बादवाली कविताएँ हैं जिनसे समकालीन परिवेश धीरे-धीरे गायब होता गया है। अब शायद 'तारसप्तक' का मूल्यांकन करना ज्यादा आसान हो गया है, क्योंकि इस संस्करण तक आते-आते कवि अज्ञेय और सम्पादक-अज्ञेय का अलगाव बहुत साफ हो गया है।

नेमिचन्द्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल और प्रभाकर माचवे तो 'तारसप्तक' की मुख्यधारा के अन्तर्गत रहे हैं, पर रामविलास शर्मा का इस संकलन में सम्मिलित होना कुछ लोगों को विचित्र और एक हद तक विरोधाभासपूर्ण लगता रहा है। लेकिन मुझे वे अपनी जगह अनिवार्य से लगते हैं। हर विकसित भाषा के काव्य में आधुनिकता के साथ-साथ कभी उसकी प्रतिक्रिया और अक्सर उसके पूरक के रूप में एक ऐसी प्रवृत्ति का भी विकास देखा गया है, जिसका रुख नागरिक परिवेश से हटकर, जन-जीवन की स्थानिक विशेषताओं की और अधिक केन्द्रित रहा है। आधुनिक अमरीकी कविता में कार्ल सैण्ड बर्ग, एडगर ली मास्टर्स और राबर्ट फ्रास्ट की कविताओं में यह प्रवृत्ति अपनी चरम परिणति तक पहुँच चुकी है। आधुनिक हिन्दी कविता के विकास में रामविलासजी की ये कविताएँ मुझे उसी ऐतिहासिक 'रिक्तता' को भरती-सी लगती हैं और इस दृष्टि से उनमें से अधिकांश मुझे आज भी 'तारसप्तक' की दूसरी बहुत-सी कविताओं से ज्यादा ताजा और अर्थपूर्ण जान पड़ती हैं।

नेमिचन्द्र जैन और भारतभूषण अग्रवाल की कविताएँ आज के पाठक को शायद उतनी नई न लगें । परन्तु ये दोनों ही कवि काव्य तथा जीवन सम्बन्धी अपनी मान्यताओं में औरों की अपेक्षा अधिक खुले दिखाई देते हैं। नेमिजी का नया वक्तव्य कई महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को उठाता है और सप्तक-परम्परा में आनेवाले अनेक कवियों की दबी हुई भावनाओं और आक्रोश को व्यक्त करता है। आश्चर्य तो यह है कि उनका संयत आक्रोश नई पीढ़ी के क्षोभ और उत्तेजना का पूर्वाभास सा लगता है। यह आकस्मिक नहीं है कि इस संस्करण के नए वक्तव्यों में सबसे अधिक प्रतिक्रिया उन्हीं के निबन्ध की हुई है। भारतभूषण ने अपने पूर्ववर्तियों को चुनने में अधिक सतर्कता से काम लिया है। इसी के चलते वे अपनी काव्य-दृष्टि को छायावादियों की अपेक्षा पुनरुत्थानकालीन कवियों के अधिक निकट पाते हैं। आधुनिक इतिहास की क्षेत्र दानवीय शक्ति के साथ अपने को उखड़ते और पुनः जोड़ते चलने की पीड़ा को वे अच्छी तरह जानते हैं और इसलिए जब वे कहते हैं कि “नई परिस्थिति से संवेदना का सूत्र मिलाते न मिलाते परिस्थिति बदल जाती है" तो इसे एक आधुनिक वयस्क कवि के उस ईमानदारी भरे सृजनात्मक संघर्ष का ही सूचक मानना चाहिए, जो उसे अपने-आपको निरन्तर 'आधुनिक' बनाए रखने के लिए करना पड़ता है। इस दृष्टि से उनकी बाद की कुछ कविताओं का अध्ययन रोचक हो सकता है।

मुझे नई कविता और विशेषतः नई पीढ़ी के कवियों के बीच माचवे की स्थिति बहुत-कुछ वैसी ही लगती रही है, जैसी अंग्रेजी की नई पीढ़ी के 'मूवमेंटी' कवियों के बीच विलियम एम्पसन की। ये दोनों ही मूलधारा से कुछ अलग पड़नेवाले और व्यंग्य, विडम्बना तथा शाब्दिक विरोधों का भरपूर उपयोग करनेवाले कवि हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि कुछ दिनों पूर्व नई पीढ़ी के कुछ कवियों ने माचवे की कविता के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास किया था। उनके काव्य में जो स्थितियों का एक हल्का-फुल्कापन और काव्य के बुनियादी ढाँचे के साथ रचनात्मक खिलवाड़ का-सा भाव है, वह नई पीढ़ी की काव्यात्मक मनोदशा के अधिक निकट पड़ता है। माचवे की कविताएँ (तारसप्तक और उसके बाद की भी) यदि आज भी पढ़ी जा सकती हैं तो इसी संदर्भ में वे शायद इस संकलन के अकेले ऐसे कवि हैं, जिसने अपने नए वक्तव्य भी “ताजी प्रज्ञा के साथ नित्य नूतन नव-नवीन प्रयोगशीलता” को आज भी महत्त्वपूर्ण और आवश्यक माना है।

कुल मिलाकर 'तारसप्तक' का नया परिवर्द्धित संस्करण आज से दो दशक पूर्व लिखी गई कविताओं की ऐतिहासिकता के पुनर्मूल्यांकन का अवसर ही नहीं प्रदान करता, बल्कि अपने आलोक में बीच के सम्पूर्ण विकास को फिर से देखने और समझने की चुनौती भी देता है। इस दृष्टि से वह निश्चित रूप से एक 'ऐतिहासिक दस्तावेज़ को उपलभ्य' बनाने से ज्यादा महत्त्व रखता है और इन चौबीस वर्षों के बाद यदि सम्पादक एक गहरे आत्मतोष के साथ यह घोषित करता है कि "तारसप्तक ने अपने प्रकाशन का औचित्य प्रमाणित कर लिया" तो उस पर चकित होने या संदेह व्यक्त करने का कोई कारण नहीं।

[1967]

('मेरे समय के शब्द' में से)

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