स्वर्णकेशी : नेपाली लोक-कथा
Swarnkeshi : Nepali Lok-Katha
एक ब्राह्मण था। उसकी दो स्त्रियां थीं। पहली स्त्री मर चुकी थी। उसके दो बच्चे
थे-एक लड़का, एक लड़की । दूसरी स्त्री की एक लड़की थी। वह लड़की बदसूरत
और कानी थी, पर सौतेली लड़की बहुत सुंदर थी। उसके बाल सुनहरे थे। इसलिए
पास-पड़ोस के लोग उसे 'स्वर्णकेशी' कहकर पुकारते थे। उसकी मां मर चुकी थी।
इसलिए सौतेली मां का व्यवहार उन दोनों भाई-बहनों के प्रति बहुत बुरा था।
स्वर्णकेशी के भाई को तो उसने मार-मारकर भगा दिया था। स्वर्णकेशी को भी वह
चैन से नहीं रहने देती थी। उसने एक मेंड़ा पाल रखा था। स्वर्णकेशी को रोज मेंडा
चराने के लिए भेज देती लेकिन उसकी अपनी लड़की मौज मारती।
स्वर्णकेशी सौतेली मां के इस व्यवहार को समझती थी। प्यार तो दूर रहा,
सौतेली मां उसे भरपेट खाना भी न देती थी। कभी स्वर्णकेशी सोचती-“मेरी मां
जिंदा होती तो” और उसकी आंखों में आंसू आ जाते। एक दिन वह यों ही रो
रही थी कि मेंड़े ने उसे देख लिया।
उसने पूछा, “तू रोती क्यों है, बहन?”
“अपने दुर्भाग्य पर!” वह और भी रोने लगी, “मेरी सौतेली मां मुझे प्यार
नहीं करती। अपनी बेटी को खाना देती है, मुझे नहीं देती ।”
“कोई बात नहीं!” मेंड़ा बोला, जैसे कि पहले से ही वह बात समझता हो,
“मेरा कहा मानो। उस पेड़ की जड़ को खोदो, नीचे एक डंडा मिलेगा। उस डंडे
से मेरे सींग पर चोट करो।"
स्वर्णकेशी की समझ में नहीं आया, पर मेंड़े ने बाध्य किया। आखिर उसने
पेड़ के नीचे खोदना शुरू किया। डंडा मिला, एक चोट मेंड़े के सींग पर मारी तो
फल, मेवे, मिठाई आदि कई खाने की चीजें निकलीं। स्वर्णकेशी ने खूब छककर
खाया । बस, तब से वह रोज ऐसा ही करती और खूब खुश रहने लगी। फिर तो
वह कुछ-कुछ तंदुरुस्त भी होने लगी। रूप भी निखरने लगा।
'बात क्या है?' एक दिन उसकी सौतेली मां ने सोचा- “मैं इसे खाना भी
नहीं देती, इससे इतना काम भी लेती हूं, फिर भी यह इतनी मोटी होती जा रही
है।' फिर उसने अपनी लड़की को बुलाया और बोली, “तुझे क्या हो रहा है? इतना
खिलाती हूं, फिर भी तू मरने को होती जा रही है। स्वर्णकेशी को तो देख” और
दूसरे दिन से उसने अपनी बेटी को भी उसके साथ लगा दिया और समझा दिया
कि मालूम करना कि वह क्या खाती है, और क्या करती है।
स्वर्णकेशी सब समझती थी। सौतेली बहन हर वक्त साथ रहती थी।
इसलिए मेंड़े के पास जाने की उसे हिम्मत न पड़ती थी-शिकायत का डर जो था।
फिर तीन-चार दिन ऐसे ही बीत गए। आखिर जब एक दिन भूख ने उसे बहुत
सताया तो स्वर्णकेशी ने सौतेली बहन को टालने की बहुत कोशिश की और एक
बार किसी बहाने उसे दूर भेज ही दिया। वह चली तो गई, पर थी बहुत
होशियार-आंखें उसकी पीछे ही लगी रहीं। उसने केशी को मेंड़े के सींग पर डंडा
मारते और मिठाई खाते देख लिया। लौटते ही बोली, “केशी दीदी, तू क्या खा रही
है? मुझे भी दे न!” केशी ने थोड़ी मिठाई उसे भी दे दी।
संध्या को दोनों घर लौटीं। मां ने हमेशा की तरह अपनी बेटी से पूछा,
“कुछ मालूम हुआ?”
"हां, मां!” बेटी तो पहले से ही कहने को तैयार थी। बोली, “केशी मिठाई
खाती है ।” और उसने सारी बात बता दी कि किस प्रकार मेंड़े के सींग पर डंडा
मारकर वह मिठाई खाती है। सौतेली मां मेंड़े पर बिगड़ी, “उसे जिंदा नहीं
छोडूंगी ।” उसकी बेटी इस पर बहुत खुश हुई।
स्वर्णकेशी तभी से उदास रहने लगी। वह मेंड़े को सदा की भांति चराने तो
ले गई पर दिनभर पेड़ के नीचे बैठी रोती रही। उस दिन उसने मिठाई नहीं खायी।
मेंड़े ने उससे पूछा, “तू उदास क्यों है, बहन?” स्वर्णकेशी बोली, “भैया, मैं
अभागिन हूं। सौतेली मां को सब कुछ मालूम हो गया है। वह तुम्हें मार डालना
चाहती है।”
मेंड़े ने कहा, “मारने भी दो, केशी! तेरे लिए मैं तब भी नहीं मरूंगा। ये सब
मेरा मांस खाएंगे पर तू न खाना। तू मेरी हड्डियों को उठाकर एक जगह पर गाड़
देना। जब किसी चीज की जरूरत हो, उसे खोदना-तेरी मनचाही चीज़ तुझे
मिलेगी ।"
मेंड़ा मारा गया। स्वर्णकेशी ने वैसा ही किया। अब उसकी जिंदगी और भी
बुरी हो गई। पहले तो वह मेंड़े के साथ वन में जाकर मन बहला लेती थी, अब
उसे घर में ही काम करने पड़ते थे । खाने-पीने का भी वही हाल था-रो-रोकर अब
उसके दिन बीतते थे। उसका कोई अपना न था।
उसकी सौतेली मां और बहन तो मजे से बैठी रहती थीं और उसको
कोई-न-कोई काम दे दिया जाता था। एक दिन की बात है पास ही शहर में मेला
लगा। दोनों मां-बेटी सजकर मेले में चल दीं किंतु केशी के लिए खूब सारे चावलों में
कंकड़ मिलाकर साफ करने को छोड़ गईं। मेले में जाने की केशी की भी इच्छा थी
पर उसके वश की बात न थी। वह चावल साफ करती और रोती रही। इतने में कूछ
गोरैया उड़ती हुई उधर आयीं, उन्होंने उसे रोते देखकर पूछा, “बहन, रोती क्यों है?"
केशी ने उत्तर दिया, “आज इतना बड़ा मेला लगा है। मेरी सौतेली मां और
बहन तो मेले में चली गई हैं पर मुझे इतने चावल साफ करने का काम दे रखा है।”
चिड़ियों ने कहा, “तू फिक्र न कर। तेरे बदले का काम हम कर देंगी।'
गौरैयों का झुंड कंकड़ अलग करने लगा। स्वर्णकेशी मेले में जाने को तैयार
हुई पर उसके पास अच्छे कपड़े न थे। तभी उसे मेंड़े का कहा याद आया। वह
दौड़ती हुई गड्ढे के पास गई। खोदा तो उसमें से सुंदर-सुंदर कपड़े, गहनें, सोने के
जूते और एक घोड़ा निकला। केशी ने जी-भरकर श्रृंगार किया और घोड़े पर
बैठकर मेले में चल दी।
राजकुमार भी उसी मेले में आया हुआ था। उसने स्वर्णकेशी को देखा तो
देखता ही रह गया। उसकी कमल की पंखुड़ियों-सी आंखें, गुलाब-से गाल और
सुनहरे बाल राजकुमार के हृदय पर छा गए। उसने अपने सिपाहियों को बुलाया
और हुक्म दिया, “मालूम करो यह लड़की कौन है? हम उससे व्याह करेंगे।”
सिपाही दौड़े। केशी घबराई। सोचा- “कहीं इन्हें सौतेली मां ने तो नहीं भेजा ।"
उसने घोड़ा घर की ओर दौड़ाया। पर इसी बीच उसका सोने का एक जूता उसके
पैर से छूट गया। सिपाही उसे तो नहीं पा सके पर उसका एक जूता उठाकर वापस
चले आए। राजकुमार ने उन्हें बहुत डाटा और फिर हुक्म दिया, “जाओ, सारे नगर
में घूमो। जिसके पैर में यह जूता ठीक आए, उसी के साथ मेरी शादी होगी।"
सिपाही जूता लेकर चल पड़े। वे घर-घर में जाते और जूता हर लड़की के
पैर में पहनाते। पर वह किसी के पैर में ठीक ही न आता। स्वर्णकेशी के घर में
भी सिपाही पहुंचे। सौतेली मां ने अपनी बेटी के पैरों में जूता पहनाया पर वह
उसके पैरों में आया ही नहीं। केशी को जान-बूझकर” जूता नहीं पहनाया। पर
सिपाहियों ने उसे देख लिया। उन्होंने कहा, “इसे भी पहनाओ!”
सौतेली मां ने कहा, “इसके पैर में नहीं आएगा। और रानी होने की इसकी
लियाकत कहां! यह तो हमारी नौकरानी है।” पर सिपाही नहीं माने। डरते-डरते
स्वर्णकेशी ने जूता पहना और वह उसके पैर में ठीक आ गया। सिपाही बहुत खुश
हुए-किसी के पैर में तो जूता ठीक आया। चलो, जान बची ।
स्वर्णकेशी का विवाह राजकुमार से हो गया। सौतेली मां कुढ़कर रह गई।
फिर भी उसे चैन न मिला। वह हर रोज उसे मारने के उपाय सोचती रही। आखिर
उसने अपनी बेटी को पट्टी पढ़ानी शुरू की और एक दिन केशी को संदेश भेजा
कि मुझे और तेरी छोटी बहन को तेरी याद सता रही है, एक बार मिलने आ जा।
स्नेहवश केशी मायके आयी। अबकी बार सौतेली मां उससे विशेष प्रेम
दिखाने लगी। उसकी बेटी भी हमेशा केशी के पीछे-पीछे लगी रहती, उसकी बड़ाई
करती और उसे फुसलाती। एक दिन वे साथ-साथ घूमने निकलीं। रास्ते में एक
ताल था। दोनों वहां बैठ गईं। फिर बातों-ही-बातों में सौतेली मां की लड़की ने
कहा, “केशी दीदी, तू कितनी सुंदर है! ज़रा पानी में अपनी परछाईं तो देख, तू
कैसी लग रही है, जैसे आकाश में चन्दा!”
केशी मुस्कराई । मालूम हुआ जैसे फूल झड़े हों।
सौतेली मां की लड़की बोली, “ये कपड़े, ये गहने तुझ पर कैसे सोहते हैं!
जरा मुझे दे, दीदी! तू मेरे कपड़े पहन ले, और मैं तेरे! देखूं मैं कैसी लगती हूं?”
इसे विनोद-मात्र समझकर केशी ने अपने कपड़े उसे पहना दिए, उसके
कपड़े आप पहन लिए। सौतेली बहन फिर भी सुंदर नहीं लग रही थी। केशी के
लिए सौंदर्य की क्या कमी थी!
“केशी दीदी!” उसने कहा, “तू मेरे कपड़ों में भी कितनी सुंदर लग रही है!
जरा देख तो पानी में अपनी सूरत!”
स्वर्णकेशी पानी में परछाईं देखने के लिए जैसे ही झुकी, पीछे से सौतेली मां
की बेटी ने उसे धक्का देकर डुबा दिया और खुद राजमहल में चली आयी, जैसे
वह ही स्वर्णकेशी हो। वहां घूंघट निकालकर बैठ गई। राजकुमार ने देखा तो
ताज्जुब में पड़ गया। बोला, “तू बोलती क्यों नहीं, केशी? रूठी-सी क्यों बैठी है?”
पर कुछ उत्तर न मिला। केवल वह कुछ क्षणों तक सकपकाती रही । राजकुमार को
संदेह हुआ तो उसने घूंघट खींचा । एक दूसरी ही शक्ल दिखाई दी। कुछ देर तक
वह भ्रम में पड़ गया।
“तू काली कैसे हो गई, केशी ?” उसने पूछा।
उत्तर मिला, “धूप सेंकने से ।”
फिर राजकुमार ने उसकी कानी आंख देखी तो पूछा, “और आंख में क्या
हुआ?"
“कौवे ने चोंच मार दी।'"
राजकुमार सारी बात भांप गया। उसने उसे खूब पीटा और पूछा, “बता,
स्वर्णकेशी कहां है?” आखिर उसने सारा भेद बता दिया। राजकुमार ने स्वर्णकेशी
की खोज में जगह-जगह सिपाही भेजे। उन्होंने उसे ताल के किनारे बेहोश पड़ा
पाया। सिपाही उठाकर राजमहल में ले आए। दवा-दारू हुई और केशी ठीक हो
गई। राजकुमार ने राजधानी में खूब खुशियां मनाईं।
इसी बीच स्वर्णकेशी का भाई ताल के पास पानी पीने आया। उसने पानी में
हाथ डाला तो हाथ में सोने कं बाल आए। उसने बाल देखे और वर्षों की याद ताजा
हो उठी। 'ये बाल तो मेरी बहन के जैसे हैं।' उसने सोचा-'ये यहां कहां से आए ?
कहीं वह मर तो नहीं गई । वह बहन की याद में बावला हो उठा। रोता-कलपता
सौतेली मां के पास गया और बोला, “मेरी बहन कहां है?” सौतेली मां ने जवाब
दिया, “मर गई।” भाई को विश्वास आ गया। उसने मेंढक की ख़ाल की डफली
बनाई और उसे बजाते हुए जगह-जगह बहन के विरह में गाना गाने लगा-
“मेंढक मारकर मैंने डफली बनाई,
अपनी बहन स्वर्णकेशी को कहां जाकर देखूं?”
वह गली-गली, कूचे-कूचे गाता फिरा। एक दिन वह बहन के राजमहल के
पास से इसी तरह गाता हुआ गुजरा। बहन ने भाई की आवाज पहचान ली। उसने
उसे लेने के लिए बांदी भेजी। बांदी ने कहा, “रानी ने बुलाया है।” भाई बोला,
“मुझे क्यों ले जाते हो? मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है?” खैर, उसे पकड़कर लाया
गया। भाई ने बहन को देखा, बहन ने भाई को । दोनों एक-दूसरे के गले लग गए।
राजकुमार इस मिलन से बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने स्वर्णकेशी के भाई को
उसी दिन से अपना मंत्री बना लिया और वे प्रेम से रहने लगे।