स्वर्ण मृग (बांग्ला कहानी) : रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Swarna Mrig (Bangla Story in Hindi) : Rabindranath Tagore

आदिनाथ और बैजनाथ चक्रवर्ती दोनों की साझे में जमींदारी है। दोनों में बैजनाथ की हालत कुछ खराब है। बैजनाथ के पिता महेशचन्द्र में जमीन-जायदाद की रक्षा करने या उसे बढ़ाने की अकल तनिक भी न थी। वह अपने बड़े भाई शिवनाथ पर पूरा भरोसा रखते थे। शिवनाथ ने छोटे भाई महेशचन्द्र को स्नेह के बड़े दमदार झांसे दिए और उसके बदले उनकी सारी जायदाद हड़प ली। केवल थोड़े-से प्रामेसरी नोट उनके पास बचे थे। जिन्दगी के समन्दर में बैजनाथ को अब केवल अपने उन्हीं थोड़े-से सरकारी कागजों की नाव का सहारा था।

शिवनाथ ने बड़ी खोज के बाद एक बड़े आदमी की इकलौती बेटी के साथ अपने बेटे आदिनाथ का विवाह कर दिया। इस प्रकार वह सम्पत्ति बढ़ाने का एक रास्ता छोड़ गए। महेशचन्द्र ने सात-सात लड़कियों के से दबे एक गरीब ब्राह्मण पर दया करके, दहेज में एक पैसा भी न लेकर, उसकी बड़ी लड़की के साथ अपने बेटे का विवाह कर दिया। समधी की सातों बेटियों को वह इसलिए अपने घर न ला सके कि उनके केवल एक ही लड़का था। उस ब्राह्मण ने भी कोई खास आग्रह नहीं किया, फिर भी सुनते हैं कि शेष बेटियों के विवाह के लिए उन्होंने समधी को अपनी हैसियत से ज्यादा रुपये-पैसे से मदद की थी।

पिता की मृत्यु के बाद बैजनाथ अपने प्रामेसरी नोटों को लेकर बिलकुल निश्चिन्तता और सन्तोष के साथ जिन्दगी बिताने लगे। काम धन्धे की बात उनके मन में कभी आती ही न थी। उनका काम बस इतना ही था कि पेड़ की डाली काटकर बैठे-बैठे उसकी छड़ी बनाया करते। दुनिया भर के बच्चे और युवा उनके पास आते और छड़ी प्राप्त करना चाहते। वह उन्हें छड़ी बना-बनाकर दे देते। इसके अलावा उदारता की तेजी में मछली पकड़ने का डंडा और पतंग उड़ाने की चरखी वगैरह बनाने में ही उनका काफी समय लग जाता। ऐसा कोई काम हाथ में आ जाए कि जिसमें बड़ी होशियारी से बहुत दिनों तक छीलने-घिसने की आवश्यकता हो और दुनिया की उपयोगिता को देखते हुए उसमें उतना समय बरबाद करना व्यर्थ लगे, तो उनके उत्साह की सीमा ही न रहती।

प्रायः देखा जाता है कि मौहल्ले में जब दलबन्दी और षड्यन्त्र के पीछे बड़े पवित्र चंडीमंडप और चौबारे धुआंधार हो उठते, तब बैजनाथ एक कलम छीलनेवाला चाकू और एक डाली हाथ में लिए सवेरे से दोपहर तक और खाने-पीने के बाद शाम तक अपने चबूतरे पर अकेले अपनी धुन में मस्त बैठे रहते।

षष्ठी देवी की कृपा से बैजनाथ के दो लड़के और एक लड़की पैदा हुई, पर पत्नी मोक्षदा सुन्दरी का असन्तोष दिन- पर-दिन बढ़ता ही जाता है। उन्हें अफसोस है कि आदिनाथ के घर जैसा आयोजन है, बैजनाथ के क्यों नहीं? उस घर की विन्ध्यवासिनी के जैसे और जितने गहने हैं, बनारसी और ढाके की जितनी साड़ियां हैं, उनके यहां बातचीत का जैसा ढंग और रहन-सहन का जैसा ठाठ है, वैसा मोक्षदा के घर नहीं, इससे बढ़कर नाइंसाफी की बात और क्या हो सकती है! मजा यह कि एक ही कुनबा है। छल से भाई की जायदाद हड़पकर ही इतनी उन्नति की है उन लोगों न। ज्यों सुनती, त्यों मोक्षदा के दिल में अपने ससुर और ससुर के इकलौते बेटे पर अश्रद्धा और अवज्ञा की भावना बढ़ती जाती। अपने घर में उसे कुछ अच्छा भी नहीं लगता।

सभी बातों में उसे रुकावट और बेइज्जती दिखाई देती। सोने की खटिया है, वह भी ऐसी कि मुर्दा ले जाने की खाट से भी बदतर।जिसकी सात पीढ़ियों में अपना कहने को कोई नहीं ऐसा एक अनाथ चमगादड़ का बच्चा भी इस घर की टूटी- फूटी पुरानी दीवार में चिपटा रह सकता और घर की सजावट देखकर तो नहीं, महात्मा परमहंस की आंखों में भी पानी आ जाएगा। इन सब अत्युक्तियाँ का विरोध करना मर्दो जैसी कायर जाति के लिए सम्भव ही नहीं, इसलिए बैजनाथ बाहर के चबूतरे पर बैठकर दूनी लगन के साथ छड़ी छीलने में लग गए।

लेकिन चुप्पी आफत की अकेली अचूक दवाई नहीं है। किसी-न-किसी दिन पति की कारीगरी में बाधा डालकर मोक्षदा उन्हें अन्तःपुर में बुलवा ही लेतीं और बेहद गम्भीरता से दूसरी ओर ताकती हुई कहतीं,"ग्वाले से कह दो, दूध बन्द कर दे।”

बैजनाथ सन्नाटे में आ जाते और नमई से पूछते,“दूध बन्द करने से कैसे काम चलेगा? लड़के पीएंगे क्या?"

वह उत्तर देतीं,"मांड!"

किसी-किसी दिन इसका उलटा भाव भी दिखाई देता। मोक्षदा पति को बुलाकर कहतीं,“मैं कुछ नहीं जानती। जो करना हो, तुम्हीं करो।"

बैजनाथ उदास होकर पूछते,“क्या करना है, बताओगी भी?”

"कम-से-कम इस महीने का सामान तो ले आओ।"कहकर वह एक ऐसी सूची बनाकर देतीं कि जिससे राजसूर्य यज्ञ भी समारोह के साथ सम्पन्न हो जाता।

बैजनाथ साहस करके यदि पूछते भी कि “इतने का क्या होगा?"

तो उत्तर सुनते,“लड़कों को भूखे मरने दो और मैं भी मर जाऊं, तब तुम अकेले रह जाना और खूब सस्ते में काम चलाते रहना।"

इस तरह धीरे-धीरे यह बात बैजनाथ की समझ में आ गई कि अब छड़ी छीलने से काम नहीं चलेगा। पैसा पैदा करने का कोई रास्ता ढूंढ़ना ही पड़ेगा। नौकरी या रोजगार करना बैजनाथ के लिए सम्भव नहीं है, लिहाजा उन्होंने सोचा कि कुबेरों के भंडार में घुसने का कोई आसान रास्ता ढूंढ़ना ही इस मुसीबत से बचने का अकेला तरीका है।

एक दिन रात बिस्तर पर पड़े-पड़े वे बड़ी दीनता से प्रार्थना करने लगे,"हे माता जगदम्बे! सपने में यदि किसी दु साध्य रोग की पेटैंट दवा दो, तो अखबारों में विज्ञापन लिखने का भार मैं ले लूंगा।"

उस रात उन्होंने सपने में देखा कि उनकी पत्नी उनसे बिगड़कर झट से 'विधवा-विवाह' करने की प्रतिज्ञा कर बैठी है। धन की कमी के कारण काफी गहने कहां मिलेंगे?' कहकर बैजनाथ उनकी प्रतिज्ञा का विरोध कर रहे हैं और विधवा को गहने की जरूरत नहीं ' यह कहकर पत्नी उसका खंडन कर रही हैं. इसका मुंहतोड़ जवाब अवश्य है, पर उस समय उनके मस्तिष्क में नहीं आया। इतने में नींद उचट गई। देखा, सवेरा हो गया है। तब झट से उनके मस्तिष्क में आया कि उनकी पत्नी का विधवा-विवाह क्यों नहीं हो सकता। इसके लिए वे कुछ दुखी भी हुए।

दूसरे दिन सवेरे नहा-धोकर बैजनाथ अकेले बैठे पतंग में डोरा डाल रहे थे। इतने में एक संन्यासी ने आकर द्वार पर जयकार की। संन्यासी को देखते ही बिजली की तरह बैजनाथ को भावी ऐश्वर्य की चमकदार प्रतिमा दिखाई दी।संन्यासी का बड़ा आदर-सत्कार किया और बढ़िया भोजन से उसे तृप्त किया गया। बहुत साध्य और साधना के बाद इतना ही पता कर सके कि संन्यासी सोना बना सकता है और उस विद्या को दान करने में उसे कोई आनाकानी भी नहीं है।

पत्नी भी मारे खुशी के नाच उठीं। गुर्दे के रोग से जैसे पीला-ही-पीला दिखाई देता है, वैसे ही उन्हें तमाम दुनिया में सोना-ही-सोना दिखने लगा। कल्पना के कारीगर से पलंग, घर का सामान और दीवारों तक को सोने से मढ़वाकर मन-ही-मन उन्होंने विन्ध्यवासिनी को बुलावा दे दिया।

संन्यासी प्रतिदिन दो सेर दूध और डेढ़ सेर मोहनभोग उड़ाने लगा और बैजनाथ के सरकारी कागजों को दुहकर उनसे मनमाना मुद्रा रस निकालना शुरू कर दिया।

छड़ी और चरखी के भूखे लड़कों का झुंड आता और बैजनाथ के दरवाजे पर धमाधम घुसे बजाकर लौट जाता। घर में लड़के-बच्चे वक्त पर खाना नहीं पाते, कोई गिरकर अपने माथे पर गूमड़ा कर लेता तो कोई रो-रोकर जमीन-आसमान एक कर डालता। मां-बाप का कुछ ध्यान ही नहीं था। चुपचाप आग्नकुड के सामने बैठे कड़ाह की ओर टकटकी लगाए रहते, न आंखों की पलकें झपकर्ती और न मुंह से कोई बात ही निकलती। ऐसा लगा, जैसे प्यासी एकाग्र आंखों पर लगातार लौ की प्रतिच्छाया पड़ते रहने से आंखों की अनियों में स्पर्श मणि के गुण आ गए हों।

दो-दो प्रामेसरी नोटों की उस अग्निकुंड में आहूति हो चुकने के बाद एक दिन संन्यासी से दिलासा मिला,“ कल सोने में रंग आ जाएगा।"

उस दिन रात को दोनों में से किसी को भी नींद नहीं आई। वे मिलकर स्वर्णपुरी बनाने के काम में लग गए। इस विषय में कभी-कभी दोनों में मतभेद और बहस भी होने लगती, परन्तु खुशी के जोर में उसकी मीमांसा होने में देर न लगती। आपस में एक-दूसरे का खयाल रखकर अपने-अपने मत में कुछ-कुछ त्याग करने में किसी ने कंजूसी नहीं की। सचमुच उस रात दाम्पत्य एकजुटता इतनी घनी हो गई थी।

दूसरे दिन संन्यासी का पता ही नहीं चला। चारों तरफ से सोने का रंग जाता रहा, सूर्य की किरणें तक अंधेरे में डूबी दीखने लगीं। इसके बाद फिर घर की खाट, सामान और दीवारें चौगुनी दरिद्रता और जर्जरता प्रकट करने लगीं।

आगे से घर के काम-काज के बारे में बैजनाथ कोई बात कहते, तो पत्नी बड़े तेज और मीठे स्वर में कहतीं," बस , रहने दो, अकलमन्दी बहुत दिखा चुके हो, अब जरा कुछ दिन चुप बैठे रहो।"

बैजनाथ बेचारे एकदम ढीले पड़ जाते।

मोक्षदा ने अब ऐसा बढ़िया भाव धारण कर लिया कि इस मृग मरीचिका में उन्हें एक पल के लिए भी शान्ति नहीं मिली।

अपराधी बैजनाथ पत्नी को खुश करने के लिए बहुत-सी तरकीबें सोचने लगे। एक दिन एक चौखुटे कागज के डिब्बे में गुप्त उपहार लेकर पत्नी के पास पहुंचे और बड़े हंसकर चतुराई के साथ सिर हिलाते हुए, बोले,“बताओ, क्या लाया हूं?"

पत्नी ने कुतूहल को छिपाकर उदासीन भाव से कहा," कैसे बताऊं! मैं कोई जादू तो जानती नहीं।"

बैजनाथ ने बेकार में समय खराब करके पहले तो धीरे-धीरे उसकी गांठ खोली, उसके बाद फूंक मारकर कागज की धूल उड़ाई, फिर बड़ी सावधानी से एक-एक तह खोलकर ऊपर का कागज हटाकर आर्ट स्टूडियो की बनी दशमहाविद्या की पांच रंगोंवाली तस्वीर निकाली और प्रकाश की ओर घुमाकर पत्नी के सामने रख दी।

पत्नी को उसी समय विन्ध्यवासिनी के खास कमरे में लगे हुए विलायती तैल चित्र की याद आई। वह बहुत ही नाराजगी के साथ बोलीं,“ अहा, बलिहारी! इसे तुम अपनी बैठक में ही लगा लेना और बैठे-बैठे इसकी ओर ही देखा करना। मुझे इसकी आवश्यकता नहीं।"

बैजनाथ उदास हो गए और समझ गए कि विधाता ने उन्हें और और शक्तियों के साथ स्त्री को खुश रखने की दुर्लभ शक्ति से भी अलग कर रखा है।

इधर देश भर में जितने ज्योतिषी थे, मोक्षदा ने सबको हाथ दिखाया और जन्म-पत्री भी दिखाई। सभी ने यही कहा कि वह सधवा हालत में ही मृत्यु प्राप्त करेंगी, परन्तु उस भारी आनन्द भरे परिणाम के लिए वह बहुत उतावली न थीं। इसलिए इससे भी उनका अचम्भा न मिटा।

अबकी बार सुना कि उनका सन्तान-भाग्य अच्छा है। लड़के-लड़कियों से जल्द ही घर-भर जाएगा। सुनकर कोई खास खुशी प्रकट नहीं की।

अन्त में, एक ज्योतिष ने कहा," एक साल के अन्दर अगर बैजनाथ को देव-धन न मिल जाए तो हम अपनी पौथी-पत्रा सब जला डालेंगे।"

ज्योतिषी की इस दृढ़ प्रतिज्ञा को सुन मोक्षदा के मन में अब तक अविश्वास न रह गया था।

ज्योतिषी काफी भेंट-पूजा लेकर विदा हो गए, लेकिन बैजनाथ के लिए जिन्दगी मार-समान हो गई। धन पैदा करने के कुछ मामूली से प्रचलित रास्ते हैं भी, जैसे खेती, नौकरी, व्यापार, चोरी और धोखेबाजी आदि पर देव-धन पैदा करने का वैसा कोई बताया रास्ता नहीं है। इसीलिए मोक्षदा बैजनाथ को जैसे-जैसे उत्साह देतीं और फटकार बतातीं, वैसे-वैसे उन्हें किसी तरफ कोई रास्ता नहीं सुझाई देता। कहां खोदना शुरू करें, किस तालाब में खोज कराने के लिए पनडुब्बी को तैनात करें, मकान की किस दीवार को तुड़वाएं, कुछ फैसला नहीं कर पाए।"

मोक्षदा ने बहुत नाराज होकर पति से कहा,“ मर्दों के भेजे में मगज के बदले में गोबर भरा रहता है, यह मैं पहले नहीं जानती थी।" फिर बोली," जरा हिलो तो सही। ऊपर को मुंह उठाए बैठे रहने से क्या आसमान से रुपये बरसेंगे?"

बात ठीक है और बैजनाथ चाहते भी यही हैं, पर हिलें भी तो किस तरह और कहां? कोई बताता भी नहीं, इसलिए चबूतरे पर बैठकर फिर छड़ी छीलने लगे।

इधर आश्विन मास में दुर्गा पूजा नजदीक आ गई। चतुर्थी से ही ना आ-आकर घाट पर लगने लगीं। बाहर से आए लोग अपने घरों को लौटने लगे। टोकरियों में कुम्हड़ा, घुइयां, सूखे नारियल, टीन के बक्सों में लड़कों के लिए जूते, छाते, कपड़े और कहानियों की नई-नई किताबें आ रही हैं।

जाड़ों के सूरज की किरणें उत्सव के हास्य की तरह बिना बादलों के आकाश में व्याप्त हो रही हैं, अधपके धान के खेत थर-थर कांप रहे हैं, पेड़ों की वर्षा से धुली हुई तेजयुक्त हरी-हरी पत्तियां नए जाड़े की हवा से सिसकारी भर रही हैं और चायना टसर का कोट पहने, कन्धे पर तही हुई चादर लटकाए, सिर पर छतरी ताने परदेश से लौटते हुए यात्रीगण खेत के रास्ते से घर की तरफ जा रहे हैं।

बैजनाथ बैठे-बैठे यही देखा करते और उनके दिल से लम्बी सांसें निकलती रहतीं। खुशियों से शून्य अपने घर के साथ बंगाल के हजारों घरों के मिलन के उत्सव की तुलना करते और मन-ही-मन कहते, विधाता ने मुझे ही क्यों ऐसा निकम्मा पैदा किया?

लड़के सवेरे ही उठकर प्रतिमा निर्माण देखने के लिए आदिनाथ के घर के आंगन में जाकर बैठ गए। खाने का समय होने पर दासी उन्हें जबरदस्ती वहां से पकड़ ले गई। बैजनाथ उस वक्त चबूतरे पर बैठे आज के इस संसार-भर में फैले उत्सव में अपने जीवन की असफलता की याद के करके दुखी हो रहे थे। नौकरानी के हाथ से दोनों लड़कों को छुड़ाकर प्रेम से उन्हें अपनी गोद के पास खींचकर बड़े लड़के से पूछा," क्यों रे, अबकी बार पूजा में तू क्या लेगा, बोल ना "

अविनाश ने उसी वक्त उत्तर दिया,“एक नाव देना, बापू जी।"

छोटे लड़के ने भी सोचा कि बड़े भैया से किसी विषय में कम रहना ठीक नहीं, बोला," मुझे भी एक नाव दो, बापू जी।"

बाप के योग्य बेटे हैं। एक निकम्मी दस्तकारी मिल गई कि आप धन्य हो गए। बाप ने कहा," अच्छा, ठीक है।"

इधर ठीक समय पर पूजा की छुट्टियों में काशी से मोक्षदा के एक चाचा घर आए। वह वकालत करते थे। मोक्षदा ने कुछ दिनों उनके घर काफी आना जाना रखा।

अन्ततः एक दिन पति से कहने लगीं," सुनते हो, तुम्हें काशी जी जाना होगा।"

बैजनाथ को अचानक ऐसा लगा जैसे शायद उनका अब मौत का वक्त आ पहुंचा है। अवश्य किसी ज्योतिषी ने जन्म पत्री देखकर कहा होगा, इसीलिए पत्नी उनकी सद्गति के लिए उपाय कर रही है। बाद में पता चला कि काशी में एक मकान है, और वहां गुप्त धन मिलेगा। उस मकान को खरीदकर उसमें से धन निकालकर लाना होगा।

बैजनाथ ने कहा," यह तो बड़ी मुसीबत का काम है। मैं काशी नहीं जा सकता।"

बैजनाथ आज तक घर छोड़कर कभी बाहर नहीं गए। प्राचीन शास्त्रों के रचयिता लिखते हैं, गृहस्थ को किस तरह घर से निकाला जाता है, इस विषय में स्त्रियां अशिक्षित, परन्तु पटु होती हैं। मोक्षदा अपने मुंह की बातों से मानो घर में लाल मिर्च का धुआं भर देती थीं लेकिन उससे अभागे बैजनाथ सिर्फ आंसू ही बहाकर रह जाते, काशी जाने का नाम तक नहीं लेते।"

दो-तीन दिन इसी तरह बीत गए। बैजनाथ ने बैठे-बैठे कुछ लकड़ियों को कांट-छांटकर और जोड़-जोड़कर दो खिलौना नावें बनाईं, उनमें मस्तूल लगाए और कपड़ा काटकर पाल भी लगा दिए। लाल कपड़े का झंडा लगाया और पतवार आदि ठीक जगह पर लगा दी। एक गुड्डे को मल्लाह बनाया, फिर यात्री भी बैठा दिए। मतलब यह है कि इसमें उन्होंने बड़ी कुशलता का परिचय दिया। उन नावों को देखकर अपने मन को बस में रख सकें, ऐसे ठोस इरादेवाले बालक कम ही मिलेंगे। इसीलिए बैजनाथ ने सप्तमी से पहले छठ की रात को जब दोनों नावें उन लड़कों के हाथ में सौंपी थीं, तो वे मारे खुशी के नाचने लगे। एक तो केवल नाव ही काफी थी, उस पर लगे हुए थे पाल, मस्तूल, पतवार और मल्लाह आदि। यही उनके लिए भारी आश्चर्य की बात थी।

लड़कों की खुशी की धूम ने मां का ध्यान खींचा। उन्होंने आकर अपनी आंखों से गरीब बाप का दिया पूजा का उपहार बेटों के हाथ में देखा तो मारे गुस्से के रोना आ गया। माथे पर हाथ मारा और लड़कों के हाथ से खिलौने छीनकर खिड़की से बाहर फेंक दिए। सोने का हार तो दरकिनार रहा, साटन का कोट और जरीदार टोपी भी मिट गई। कैसा मनहूस आदमी है, दो खिलौने देकर खास अपने ही बेटों को धोखा देने आया है! उसमें भी कंजूस आदमी से दो पैसे खर्च नहीं किए गए, अपने हाथ से बनाई हैं नावें!

छोटा लड़का जोर से रो उठा।"

मूर्ख कहीं का," कहते हुए मोक्षदा ने उसके गाल पर कसकर एक चांटा लगा दिया।

बड़ा लड़का बाप के मुंह की ओर देखकर अपना दुख भूल गया। वह ऊपरी तौर पर खुशी दिखाते हुए बोला," बापू जी, मैं कल खूब सबेरे जाकर उठा लाऊंगा।"

बैजनाथ उसके दूसरे ही दिन काशी जाने को राजी हो गए, पर पैसे कहां थे? उनकी पत्नी ने गहने बेचकर पैसे एकत्र किए। बैजनाथ की दादी के जमाने के गहने थे। ऐसा पक्का सोना और इतनी चीजें आजकल देखने को भी नहीं मिलतीं।

बैजनाथ को ऐसा लगा, जैसे वह मरने जा रहे हों। बेटों को गोद में लेकर पुचकारा, खूब प्यार किया, फिर आंखों में आंसू भरकर घर से निकल पड़े। उस समय मोक्षदा भी रोने लगी थीं।

काशी का मकान मालिक बैजनाथ के चचिया सुसर का मुवक्किल था। इसलिए मकान खूब ऊंचे दामों में मिला। बैजनाथ उस मकान में अकेले रहने लगे। मकान बिलकुल गंगा के किनारे था। गंगा की धारा उसकी नींव को धोती हुई बहती रहती।

रात को बैजनाथ के रोंगटे खड़े हो उठे। सूने मकान में सिरहाने के पास दीया जलाकर चादर ओढ़कर सो रहे, पर नींद ही आई। आधी रात को जब सारा शोर थम गया, तब कहीं से झनझन की आवाज सुनकर बैजनाथ चौंक पड़े। आवाज बहुत धीमी थी, पर साफ सुनाई देती थी, जैसे पाताल में बलिराजा के कोषाध्यक्ष अपने भंडार में बैठे हुए रुपये गिन रहे हों।

बैजनाथ के मन में भय, अचम्भा और साथ ही जीती जा सकनेवाली आशा का भी संचार हुआ। कांपते हाथ से दीया उठा सारी कोठरियों में घूम आए। इस कोठरी में घुसते तो मालूम होता कि आवाज उस कोठरी से आ रही है और उस कोठरी में जाते तो पता चलता कि किसी और कोठरी से आ रही है। बैजनाथ सारी रात इसी तरह इस कोठरी से उस कोठरी में घूमते रहे। दिन में रात का वह पाताल भेदी शब्द अन्य शब्दों के साथ मिल गया, फिर वह पहचान में नहीं आया।

रात के जब दो-तीन पहर बीत चुके और दुनिया सो चुकी, तो फिर वही शब्द जाग उठा बैजनाथ का मन बहुत बेचैन हो उठा। वे शब्द का लक्ष्य ठीक करके किस तरफ जाना चाहिए, कुछ तय नहीं कर पाए। रेगिस्तान में पानी का शोर सुनाई दे रहा है, पर वह किधर से आ रहा है,जैसे कुछ फैसला करते नहीं बनता। डर यह था कि कहीं गलत रास्ता पकड़ लिया और गुप्त झरना अचानक अधिकार के बाहर चला गया तो प्यासा बटोही जैसे चुपचाप खड़ा खड़ा पानी के झरने की आवाज की तरफ बड़े गौर से कान लगाए रहता है और प्यास भी लगातार बढ़ती ही जाती है, ठीक वही स्थिति बैजनाथ की न हो।

बहुत-से दिन अनिश्चितता में ही कट गए। सिर्फ अनिद्रा और बेकार के भरोसे से उनके सन्तोष-भरे चेहरे पर बेचैनी का तीव्र भाव रेखांकित हो उठा। उनकी अन्दर धंसी आश्चर्य-भरी आंखों में दोपहर की रेगिस्तान की बालू तरह एक लपट दिखाई देने लगी।

अन्त में एक दिन दोपहर को सारे दरवाजे बन्द करके उन्होंने घर में साबर ठकठकाना शुरू कर दिया। बगल की एक छोटी कोठरी की जमीन पोली-सी लगी।"

आधी रात के करीब बैजनाथ अकेले जमीन खोदने लगे। जब रात खत्म होने को आई और पौ फटने लगी, तब कहीं गड्ढा पूरा खुद पाया।

उन्होंने देखा कि नीचे एक घर-सा बना है, पर रात के अंधेरे में बिना विचारे उसमें पैर डालने की उनकी हिम्मत न पड़ी। गड्ढे के ऊपर बिछौना बिछाकर पड़ रह, लेकिन आवाज इतनी साफ-साफ सुनाई देने लगी कि डर के मारे उनसे वहां ठहरना कठिन हो गया। वहां से वह उठ आए, लेकिन घर को यूं ही सूना छोड़कर दूर जाने की भी उनकी हिम्मत न हुई। लोभ और भय दोनों मिलकर उन्हें दोनों ओर से हाथ पकड़कर खींचने लगे। रात बीत गई।

आज दिन में भी आवाज सुनाई दे रही है। नौकर तक को उन्होंने घर के भीतर नहीं आने दिया। खाना-पीना भी बाहर ही किया था। खा-पीकर घर में घुसे और भीतर से ताला बन्द कर लिया।

दुर्गा नाम का जाप करते हुए उन्होंने गड्ढे के मुंह से बिस्तर हटाकर अलग कर दिया। पानी की छप छप और धातु की ठन-ठन आवाज बिलकुल साफ सुनाई देने लगी थी।

डरते-डरते गड्ढे के पास आहिस्ता से मुंह ले जाकर देखा, बहुत नीचे एक कोठरी-सी थी। उसमें पानी का सोता जोरों से चल रहा था। अंधेरे में और कुछ खास दिखाई नहीं दिया।

और फिर एक बड़ी लकड़ी डालकर आजमाया और देखा कि पानी घुटनों से ज्यादा नहीं है। एक दियासलाई की डिबिया और बत्ती लेकर उस कोठरी के अन्दर बड़ी आसानी से कूद पड़े। क्षण भर में ही कहीं सारी आशा बुझ न जाए, इसलिए बत्ती जलाने में हाथ कांपने लगे। बहुत-सी दिलासलाइयां बेकार करने के बाद बत्ती जली।

देखा कि लोहे की मोटी जंजीर से एक ताम्बे का भारी घड़ा बंधा है। जब भी सोते का पानी जोर से आता, जंजीर घड़े पर पड़ती और आवाज करती थी।

बैजनाथ पानी पर छप-छप शब्द करते हुए झटपट घड़े के पास पहुंचे, देखा तो घड़ा खाली था।

फिर भी अपनी आंखों पर विश्वास न कर सके। दोनों हाथों से घड़ा उठाकर उसे झकझोर दिया, फिर भी भीतर से कुछ नहीं निकला। औंधा करके हिलाया, कुछ भी नहीं गिरा। उसका गला उखड़ा हुआ था जैसे किसी समय घड़े का मुंह बिलकुल बन्द रहा हो और पीछे किसी ने तोड़ दिया हो।

अब बैजनाथ पागल की तरह पानी के अन्दर दोनों हाथों से टटोल-टटोलकर देखने लगे। कीचड़ में कोई चीज मालूम दी। उठाकर देखा, तो मुर्दे की खोपड़ी थी। उसे भी कानों के पास ले जाकर हिलाया, पर भीतर कुछ न निकला। खोपड़ी उठाकर फेंक दी। बहुत देर तक ढूंढ़ते रहे, पर किसी नर-कंकाल के सिवा और कुछ भी हाथ न लगा।

देखा कि गंगा की तरफ दीवार में एक जगह सूराख-सा हो रहा है। उसमें से पानी आ रहा है। सम्भव है, उनसे पहले जिस आदमी की जन्म-पत्री में देव-धन प्राप्ति की बात लिखी थी, वही शायद इस छेद से घुसा होगा।

अन्ततः बिलकुल हताश हो गए, तो' अरी मेरी मां!' कहकर एक गहरी सांस ली। उसके जवाब में मानो अतीत काल के और भी बहुत से हताश व्यक्तियों की सांसें भीषण गम्भीरता के साथ प्रतिध्वनि के रूप में पाताल में गूंज उठीं।

सारी देह में पानी और कीचड़ लपेटे हुए बैजनाथ ऊपर आए। लोगों के शोर-शराबे में डूबी धरती उन्हें आदि से अन्त तक झूठी और उसी जंजीर से बंधे हुए घड़े की तरह सूनी मालूम देने लगी।

फिर सारा सामान बांधना पड़ा, टिकट खरीदना पड़ेगा, गाड़ी पर चढ़ना होगा; घर जाना होगा, पत्नी के सामने उत्तर देना होगा, अपने निकम्मे जीवन के भार को फिर पहले की तरह ढोना होगा। मन हुआ कि नदी के कमजोर बालू के तट की तरह झट से टूटकर पानी में गिर जाएं। पर ऐसा न कर सके। फिर वही सामान बांधना पड़ा, टिकट खरीदना पड़ा और गाड़ी पर भी चढ़ना पड़ा।

एक दिन शाम के समय घर के द्वार पर जा पहुंचे। आश्विन मास में जाड़ों के सबेरे दरवाजे के पास बैठकर बैजनाथ ने अनेक बाहर के लोगों को घर लौटते देखा था और गहरी सांस लेकर मन-ही-मन परदेस से घर लौटने के इस सुख के लिए लालायित भी हुए थे, लेकिन तब आज की इस शाम की वह सपने में भी कल्पना नहीं कर सकते थे।

घर में आकर आंगन के तख्त पर भोलेपन से बैठे रहे, अन्दर नहीं गए। सबसे पहले महरी ने उन्हें देखा और देखते ही शोर मचा दिया। बेटे दौड़े आए। पत्नी ने बुलवा भेजा।

बैजनाथ का नशा-सा उतर गया। जैसे फिर वह उसी पुरानी गृहस्थी में सोते से जाग उठे। सूखे मुंह पर मैली-सी हंसी लिए एक बेटे को गोद में ले और एक का हाथ पकड़ भीतर पहुंचे। दीया जल चुका था। हालांकि रात नहीं हुई थी, तो भी जाड़े की शाम में रात की तरह का सन्नाटा छाया हुआ था।

बैजनाथ कुछ देर चुप रहे, फिर मीठे स्वर में पत्नी से पूछने लगे," कहो कैसी रहीं?

पत्नी ने कोई उत्तर न देकर पूछा," उसका क्या हुआ?"

बैजनाथ ने कुछ उत्तर न दे माथे पर हाथ दे मारा। मोक्षदा का चेहरा बहुत सख्त हो गया।

बेटे बेचारे किसी भारी विपत्ति की छाया देखकर अहिस्ता से हट गए। महरी से जाकर बोले,"उस दिनवाली नाई की कहानी सुनाओ ना।" और बिस्तर पर पड़ गए।

रात होने लगी, पर दोनों के मुंह से एक भी बात नहीं निकली। घर के अन्दर जाने कैसा सन्नाटा-सा छा गया और मोक्षदा के होंठ क्रमवार वज्र की तरह सख्त होने लगे।

बहुत देर बाद मोक्षदा बिना कुछ कहे उठकर अपने कमरे में चली गई और भीतर से सांकल लगा ली।

बैजनाथ चुपचाप बाहर खड़े रहे। चौकीदार 'सोनेवाले होशियार' आवाज लगाकर चला गया। थकी हुई दुनिया सुख की नींद सो रही थी। अपने नाते-रिश्तेदारों से लेकर अनन्त आकाश के नक्षत्र तक किसी ने इस लांछित नींद उड़े पुरुष बैजनाथ से एक बात भी न पूछी।

बहुत रात बीतने पर, शायद किसी सपने से जागकर, बैजनाथ के बड़े लड़के ने बिस्तर से उठ, बरामदे में आकर पुकारा," बापू जी!”

लेकिन तब उसके बापू जी वहां थे ही नहीं। बालक ने और भी जरा जोर से बन्द किवाड़ के बाहर से पुकारा,"बापू जी !" पर कोई उत्तर नहीं मिला। फिर वह डरता-डरता बिस्तर पर जाकर सो गया।

पहले की रीति के अनुसार महरी ने हुक्का भरकर बैजनाथ की तलाश की लेकिन वह कहीं भी दिखाई नहीं दिए। दिन चढ़ने पर पड़ोस के लोग उनकी खबर लेने पहुंचे पर बैजनाथ के साथ किसी की भी भेंट नहीं हुई।

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