स्वर्ग का एक कोना (निबंध) : महादेवी वर्मा

Swarg Ka Ek Kona (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

उस सरल कुटिल मार्ग के दोनों ओर अपने कर्त्तव्य की गुरुता से निस्तब्ध प्रहरी जैसे खड़े हुए और आकाश में भी धरातल के समान मार्ग बना देने वाले सफेदे के वृक्षों की पंक्ति से उत्पन्न दिग्भ्रांति जब कुछ कम हुई, तब हम एक दूसरे ही लोक में पहुँच चुके थे, जो उस व्यक्ति के समान परिचित और अपरिचित दोनों ही लग रहा था, जिसे कहीं देखना तो स्मरण आ जाता है; परंतु नाम-धाम नहीं याद आता।

उस सजीव सौंदर्य में एक अद्भुत निस्पंदता थीं, जो उसे नित्य दर्शन से साधारण लगने वाले सौंदर्य से भिन्न किए दे रही थी।

चारों ओर से नीले आकाश को खींच कर पृथ्वी से मिलाता हुआ क्षितिज, रुपहले पर्वतों से घिरा रहने के कारण बादलों के घेरे जैसा जान पड़ता था। वे पर्वत अविरल और निरंतर होने पर भी इतनी दूर थे कि धूप में जगमगाती असंख्य चाँदी-सी रेखाओं के समूह के अतिरिक्त उनमें और कोई पर्वत का लक्षण दिखाई न देता था। जान पड़ता था कि किसी चित्रकार ने अपने आलस्य के क्षणों में रुपहले रंग में तूलिका डुबाकर नीले धरातल पर इधर-उधर फेर दी है।

जहाँ तक दृष्टि जाती थी पृथ्वी अश्रुमुखी ही दिखाई पड़ती थी। जल की इतनी अधिकता हमारे यहाँ वर्षा के अतिरिक्त कभी देखने में नहीं आती; परंतु उस समय के धरातल और यहाँ के धरातल में उतना ही अंतर है, जितना धुले हुए सजल मुख और आँसू भरी आँखों में मार्ग इतना सूखा था कि धूल उड़ रही थी; परंतु उसके दोनों किनारे सजल थे, जिनमें कहीं-कहीं कमल की आकृति वाले छोटे फूल कुछ मीलित और कुछ अर्धमीलित दशा में झूम रहे थे।

रावलपिन्डी से 200 मील मोटर में चलने से शरीर अवसन्न हो ही रहा था, उस पर चारों ओर बिखरी हुई अभिनव सुषमा और संगीत के आरोह-अवरोह की तरह चढ़ाव उतार वाले समीर की सरसर ने मन को भी ऐसा विमूर्च्छित-सा कर दिया कि श्रीनगर में बद्रिकाश्रम पहुँच कर बड़ी कठिनता से स्वप्न और सत्य में अंतर जान पड़ा। वह आश्रम जहाँ हाउस बोट में जाने तक हमारे ठहरने का प्रबंध था, सहज ही किसी जंतुशाला का स्मरण करा देता था। कारण, वहाँ अनेक प्रांतों के प्रतिनिधि अपनी-अपनी विशेषताओं के प्रदर्शन में दत्तचित्त थे। कहीं कोई पंजाबी युवती अपने वीरवेश में गर्व से मस्तक उन्नत किए देखने वालों को चुनौती-सी देती घूम रही थी। कहीं संयुक्त प्रांत की कोई प्राचीना घूँघट निकाले इस प्रकार संकोच और भय से सिमटी खड़ी थी, मानों सब उसी के लज्जा रूपी कोष पर आक्रमण करने को तुले हुए हैं और वह उसे छिपाने के लिए पृथ्वी से स्थान माँग रही है। कहीं कोई महाराष्ट्र सज्जन शिखा का गुरुभार सिर पर धारण किए लकड़ियों को धोते हुए दूसरों के कौतूहल का कारण बन रहे थे। कहीं कोई धर्म - दिग्गज धर्मपालन और उदरपूर्ति में कौन श्रेष्ठ है, इस समस्या के समाधान में तत्पर थे। प्रकृति की चंचलता की कमी की पूर्ति मनुष्य में हो रही थी।

अधिकारियों ने हमारे कमरे, नौकर आदि की जैसी सुव्यवस्था थोड़े समय में कर दी, वह सराहने योग्य थी; परंतु वहाँ के वास्तविक जीवन का परिचय तो हमें अपने हाउसबोट में जाकर मिल सका। नीले आकाश की छाया से नीलाभ झेलम के जल में वे रंगीन जलयान वर्षा से धुले आकाश में इंद्रधनुष की स्मृति दिलाते रहते थे।

जिसने इस प्रकार तरंगों के स्पंदित हृदय पर अछोर अंतरिक्ष के नीचे रहने का इतना सुंदर साधन ढूँढ निकाला, उसके पास अवश्य ही बड़ा कवित्वमय हृदय रहा होगा जीना सब जानते हैं और सौंदर्य से भी सबका परिचय रहता है; परंतु सौंदर्य में जीना किसी कलाकार का ही काम है।

हमारे पानी पर बने घर में एक सुंदर सजी हुई बैठक, सब सुख के साधनों से युक्त दो शयनगृह, एक भोजनालय और दो स्नानागार थे। भोजन दूसरे बोट में बनता था, जिसके आधे भाग में हमारा माँझी सुलताना सपत्नीक, चीनी की पुतली सी कन्या नूरी और पुत्र महमूद के साथ अपना छोटा-सा संसार बसाए हुए था। साथ ही एक तितली जैसा शिकारा भी था, जिसे पान की आकृति वाली छोटी-सी पतवार से चला कर छोटा महमूद दोनों कूलों को एक करता रहता था।

हम रात को लहरों में झूलते हुए, खुली छत पर बैठ कर तट के एक एक दीपक को पानी में अनेक बनते हुए तब तक देखते ही रह जाते थे, जब तक नींद भरी पलकें बंद होने के लिए सत्याग्रह न करने लगती थीं और फिर सबेरे, तब तक कोई काम न हो पाता था, जब तक जल में सफेद बादलों की काली छाया करुण हो कर फिर सुनहरी न हो उठती थी। उस फूलों के देश पर रुपहले-सुनहले रात दिन बारी-बारी से पहरा देने आते जान पड़ते थे। वहाँ के असंख्य फूलों में दो जंगली फूल मज़ारपोश और लालपोश मुझे बहुत प्रिय लगे ।

मज़ारपोश अधिक से अधिक संख्या में समाधि पर फूल कर अपनी नीली अधखुली पंखड़ियों.. से, अस्थिपंजर को ढँकनेवाली धूलि को नंदन बना देता है और लालपोश हरे लहलहाते खेतों में अपने आप उत्पन्न हो कर अपने गहरे लाल रंग के कारण हरित धरातल पर जड़े पद्मराग की स्मृति दिला जाता है।

फूलों के अतिरिक्त उस स्वर्ग के बादल भी स्मरण की वस्तु रहेंगे। उनकी मज़ारपोश जैसी आँखें, लालपोश जैसे होंठ, हिम जैसा वर्ण और धूलि जैसे मलिन वस्त्र उन्हें ठीक प्रकृति का एक अंग बनाए रखते हैं। अपनी सारी मलिनता में कैसे प्रिय लगते हैं वे मार्ग में चलते-चलते न जाने किस कोने से कोई भोला बालक निकल आता है। 'सलाम जनाब पासा' कहकर विश्वास भरी आँखों से हमारी ओर देखने लगता है। उसकी गंभीरता देख कर यही प्रतीत होता था कि उसने सलाम कर के अपने गुरुतम कर्त्तव्य का पालन कर दिया है, अब उसे सुनने वाले के कर्तव्य पालन की प्रतीक्षा है। शीत ने इन मोम के पुतलों को अंगारों में पाला है और दरिद्रता ने पाषाणों में प्रायः सबेरे कुछ सुंदर-सुंदर बालक नंगे पैर पानी में करम का साग लेने दौड़ते दिखाई देते थे और कुछ अपना शिकारा लिए 'सलाम जनाब, पार पहुँचाएगा' पुकारते हुए ऐसे ही कम अवस्था वाले बालकों को कारखानों में शाल, रेशम आदि पर गंभीर भाव से सुंदर बेल-बूटे बनाते देख कर हमें आश्चर्य हुआ ।

काश्मीरी स्त्रियाँ भी बालकों के समान ही सरल जान पड़ीं। उनके मुख पर न जाने कैसी हँसी थी, जो क्षण-भर में आँखों में झलक जाती थी और क्षण-भर में होंठों में वे एड़ी चूमता हुआ कुरता और उसके नीचे पायजामा पहन कर एक छोटी-सी ओढ़नी को कभी-कभी बीच से तह कर के तिकोना बना कर और कभी-कभी वैसे ही सिर पर डाले रहती हैं। प्रायः मुसलमान स्त्रियाँ ओढ़नी के नीचे मोती लगी या सादी टोपी लगाए रहती हैं, जो देखने में सुंदर लगती है ।

प्रकृति ने इन्हें इतना भव्य रूप दिया; परंतु निष्ठुर भाग्य ने दियासलाई के डिब्बे जैसे छोटे मलिन अभव्य घरों में प्रतिष्ठित कर और एक मलिन वस्त्र मात्र देकर उनके सौंदर्य का उपहास कर डाला और हृदयहीन विदेशियों ने अपने ऐश्वर्य की चकाचौंध से उनके अमूल्य जीवन को मोल ले कर, मूल्यरहित बना दिया । प्रायः इतर श्रेणी की स्त्रियाँ मुझे कागज में लपेटी कलियों की तरह मुर्झाई मुस्कराहट से 'युक्त जान पड़ीं। छोटी-छोटी बालिकाओं की मंद स्मृति में यातना, प्रौढ़ाओं की फीकी हँसी में विवशता और वृद्धाओं की सरल चितवन में असफल वात्सल्य झाँकता रहता था ।

इसके अतिरिक्त सफेद दुग्धफेनिल दाढ़ी वाले, आँखों में पुरातन चश्मा चढ़ाए, पतली उँगलियों में सुई दबा कर कला को वस्त्रों में प्रत्यक्ष करते हुए शिल्पकार भी मुझे तपस्वियों जैसे ही भव्य लगे । इस सुंदर हिमराशि में समाधिस्थ पर्वत के हृदय में इतनी कला कैसे पहुँच कर जीवित रह सकी, यह आश्चर्य का विषय है। कोई काठ जैसी नीरस वस्तु को सुंदर आकृति दे कर सरस बना रहा था। कोई कागज कूट कर बनाई वस्तुओं पर छोटी तूलिका में रंग भर-भर कर उसमें प्राण का संचार कर रहा था और कोई रंग-बिरंगे ऊन या रेशम से सूती और ऊनी वस्त्रों को चित्रमय जगत् किए दे रहा था। सारांश यह कि कोई किसी वस्तु को भी ईश्वर ने जैसा बनाया है, वैसा नहीं रहने देना चाहता था। काश्मीर के सौंदर्य-कोष में सब से मूल्यवान मणि वहाँ के शालमार और निशातबाग माने जाते हैं और वास्तव में सम्राज्ञी नूरजहाँ और जहाँगीर की स्मृति से युक्त होने के कारण वे हैं भी इसी योग्य । शालमार में बैठ कर तो अनायास ही ध्यान आ जाता है कि यह उसी सौंदर्य प्रतिमा का प्रमोदवन रह चुका है, जिसे सिंहासन तक पहुँचाने के लिए उसके अधिकारी को स्वयं अपने जीवन की सीढ़ी बनानी पड़ी और जब वह उस तक पहुँच गई, तब उसकी गुरुता से संसार काँप उठा। यदि वे उन्नत, सघन और चारों ओर वरद हाथों की तरह शाखाएँ फैलाए हुए चिनार के वृक्ष बोल सकते, यदि आकाश तक अपने सजल उच्छ्वासों को पहुँचाने वाले फौवारे बता सकते तो न जाने कौन-सी करुण-मधुर कहानी सुनने को मिलती ।

जिन रजकणों पर कभी रूपसियों के रागरंजित सुकोमल चरणों का न्यास भी धीरे-धीरे होता था, उन पर जब यात्रियों के भारी जूतों के शब्द से युक्त कठोर पैर पड़ते थे, तब लगता था कि वे पीड़ा से कराह उठे हैं।

किंवदंती है कि पहले शालामार का निर्माण और नामकरण श्रीनगर बसाने वाले द्वितीय प्रवरसेन द्वारा हुआ था। फिर उसी के भग्नावशेष पर जहाँगीर ने अपने प्रमोद उद्यान की नींव डाली। अब तो उसके अनंत प्रतीक्षा से जीर्ण वृक्षों की पंक्ति में किसी परिचित पदध्वनि को सुनने के लिए निस्तब्ध पल्लवों में भू पर क्षणिक वितान बना देने वाले फौवारों के सीकरों में और भंगिमामय प्रपातों में पारस्य देश की कला की अमिट छाप है। हमारे, अजस्र प्रवाहिनी सरिताओं से निरंतर सिक्त देश ने, जल को इतने बंधनों में बाँध कर नर्तकी के समान लास सिखाने की आवश्यकता नहीं समझी थी; परंतु मुसलमान शासकों के प्रभाव ने हमारे सजीव चित्र से उपवनों को सजल विविधता-युक्त बना दिया। जिस समय फौवारे सहस्रों जल-रेखाओं में विभाजित हो कर आकाश में उड़ जाने की विफल चेष्टा में अपने तरल हृदय को खंड-खंड कर पृथ्वी पर लौट आते हैं, सूखे प्रपातों से अश्रु पात होने लगता है, उस समय पानी के बीच में बनी हुई राजसी काले पत्थर की चौकी पर किसी अनंत अभाव की छाया पड़ कर उसे और भी अधिक कालिमामय कर देती है।

डल झील की दूसरी ओर सौंदर्यमयी नूरजहाँ के भाई आसफ अली का, पहाड़ के हृदय से चरण तक विस्तृत निशातबाग है, जिसकी क्रमबद्ध ऊँचाई के अनुसार निर्मित 12 चबूतरों के बीच से, अनेक प्रकार से खोदी हुई शिलाओं पर से, झरते हुए प्रपात अपना उपमान नहीं रखते। इसकी सजलता में शालामार की सी प्यास छिपी नहीं जान पड़ती, वरन ! एक प्रकार का निर्वेद मनुष्य को तन्मय सा कर देता है। मनुष्य ने यहाँ प्रकृति की कला में अपनी कला इस प्रकार मिला दी है कि एक के अंत और दूसरी के आरंभ के बीच में रेखा खींचना कठिन है। अतः हमें प्रत्येक क्षण एक का अनुभव और दूसरे का स्मरण होता रहता है। उसके विपरीत अंतःपुर की सजीव प्रतिमाओं के लिए, इन प्रतिमाओं के आराधक और आराध्य बादशाह के लिए तथा इनके कौतुक से विस्मित सर्वसाधारण के लिए तीन भागों में विभक्त शालामार के पत्ते पत्ते में मनुष्य की युगों से प्यासी लालसाओं की अस्पष्ट छाया, मदिरा की अतृप्त मादकता लिए झूमती-सी ज्ञात होती है; परंतु दोनों ही अपूर्व है इसमें संदेह नहीं ।

इस चिर-नवीन स्वर्ग ने, सुंदर शरीर के मर्म में लगे हुए व्रण के समान हृदय में कैसा नरक पाल रखा है, यह कभी फिर कहने योग्य करुण कहानी है।

('क्षणदा' से)

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