स्वप्नभूख (उड़िया कहानी) : सरोजिनी साहू

Swapnabhookh (Oriya Story) : Sarojini Sahu

उसकी मां दोनों के बाल बना रही थी। बहुत दिनों से तेल नहीं लगाने से उनके बाल भूरे हो गए थे। मां ने संवारी के पास जाकर एक रुपए का तेल मांगा था। संवारी अरंडी कूटकर तेल बनाती थी। साहू की दूकान में बेचती थी। उसमें से थोड़ा- सा बचाकर रख देती थी वह।

उसकी मां के पास पैसे नहीं थे। कहने लगी, “यह गिलास रख। मेरे हाथ में पैसे आने से छुड़ा लूंगी।” संवारी ने मुंह मोड़ लिया, “गिलास मेरे क्या काम आएगा? स्टील गिलास तो भंगार के बराबर है।”

उसकी मां ने कहा, “मेरा पास कांसे का एक बर्तन है। वही तो मेरा जीवन है। उसको देख लेने से ही मेरी भूख मिट जाती है। तुम उस कांसे पर अपनी नजर मत डालो।”

"अगर कांसे को देख लेने से पेट भर जाता है तो क्यों अपने गिलास मेरे पास गिरवी रखवा रही हो? जा, जा, तुम्हारी बात कौन सुनेगा?, तेरी बेटी क्या मेरी बेटी नहीं है? दे तेरी कटोरी"। संवारी ने तीन टिपनी तेल डाल दिया।

उसकी मां बहुत खुश हो गई थी। उस अरंडी तेल में पानी मिलाकर उनके सिर पर लगा दिया था। लकड़ी की कंघी से खींच-खींचकर कंघी करते समय एकाध जुएं नजर आ जाती थी, तो कंघी के ऊपर मार देती थी।

उसकी मां को चोटी बनाना नहीं आता था। उसने तो आजन्म चोटी नहीं गूंथी थी। फिर भी, पता नहीं क्यों, उसकी मां का चोटी उसे पसंद नहीं आई। दो बार उस चोटी को खोलकर फैला दिया। उसकी दीदी कहने लगी, “मां, तुम छोड़ दो ! मैं चोटी गूंथ लेती हूं।” उसकी दीदी इधर बरामदे में बैठ गई उसकी मां की जगह पर। मां उठकर भीतर चली गई। दीदी कहने लगी, “मां को कुछ नहीं आता है। देखो न, नारियल का तेल साहू के पास लाने के लिए कहा था, वह अरंडी का तेल संवारी के पास से ले आई। तेरे बाल चिपक गए हैं इसलिए कंघी नहीं चल रही है। प्रधान की नतिनी के बालों को देख, किस तरह से दोनों कानों के पास से बाल को खींचती है, दोनों तरफ से दो चोटियां निकालकर बीच में एक चोटी साथ में जोड़ देती है? मुझे भी वैसी चोटियां बनानी आती है। मगर मां जो तेल ले आई, उससे सारे बाल मुड़ -मुड़कर चूहें की पूंछ की तरह हो गए हैं।

चूहे की पूंछ का नाम सुनकर उसका मन खूब खराब हो गया। वह दौड़कर जाकर एक छोटा दर्पण ले आई और अपने चेहरे को उसमें निहारने लगी। होंठ को टेड़ा कर, गाल को फुलाकर। सारे बाल चिकनी पिच रोड़़ की तरह हो गए थे। उसका कपाल बड़ा दिख रहा था। पिछली बार हाट से लाए हुए बेणीबंध रबर को बढ़ाते हुए कहने लगी, “इसको चोटी की जड़ में बांध, चोटी की जड़ में बांधने से शो आएगा।”

“और नीचे?” उसकी दीदी ने पूछा।

“एक रिबन से तुम अपनी बांध लो।”

“तुम अगर सब ले लोगी तो मैं क्या बांधूंगी?”

उसने कुछ भी नहीं कहा। वह जानती है दीदी नहीं जाएगी। अगर यह बात मुंह खोलकर कहती तो कल मां डाटेंगी, इसलिए उसने कुछ नहीं कहा।

अच्छे से चोटी गूंथकर मोती वाली रबर को चोटी की जड़ में दबा दिया था दीदी ने। और आगे एक रिबन बांधकर फूल बना दिया था।

आंचल को गीलाकर मुंह पोंछ लिया था। दर्पण में चेहरा देखकर मुस्कराने लगी वह और रास्ते की तरफ भाग गई।

उसकी दीदी कंघी लेकर अपने बाल संवार रही थी। बालों के तीन हिस्से कर चोटी गूंथ ली थी। खप्पर के खोसे से एक काला धागा लाकर चोटी को बांध दिया था। उसकी मां घर के भीतर से बाहर आकर चिल्लाने लगी “तुमने उस लाल फीते का क्या किया? ये मैला धागा क्यों पहनी हो?” उसकी मां को पसंद नहीं आया उसकी बहिन का बाल संवारना। मगर चोटी गूंथना न आने की वजह से वह चुप रही।

उसकी मां ने सिगड़ी में से एक जली लकड़ी पकड़ाते हुए कहा, “जा दांत साफ करके आ।” एक ही बार में नहा धोकर साफ सुथरे कपड़े पहनकर आने का आदेश भी दिया।

पेटी में से छापे वाली लाल साड़ी बाहर निकालते समय वह छोटी बहिन को खोजने लगी। छोटी बहिन रास्ते में दो लड़कियों के साथ बातचीत कर रही थी। जोर से पुकारने के कारण वह दौड-दौडकर आकर पूछने लगी, “क्यों बुला रही हो?”

“चल, नाले पर नहाने चलें। ” उसकी छोटी बहिन भीतर आकर पेटी से एक कपड़ा पकड़कर कहने लगी, “चल।”

दोनों बचपन से साथ-साथ पले बढ़े। बड़ी लड़की का चेहरा बाप से मिलता था, थोडा रूखा दिखता था। छोटी पूरी तरह से मां पर गई थी। थाली की तरह एकदम गोल मुंह। हंसमुख चेहरा। बचपन से दोनो जंगल के अन्दर से महुली फूलों के गुच्छे, झाडू के तिनके, केंदूपत्तों को तोड़ने और कभी- कभी साल के बीजों को इकट्ठा करने साथ- साथ जाती थी।उसकी मां महुली के फूलों को देकर साहू के पास से नमक लेती थी। चावल लेती थी। दोनो बहिन मिलकर झाडू के तिनकों को कतारबद्ध रास्ते में सुखाती। धर्मगढ़ के बाजार में एक झाडू पांच रूपए में, वही झाड़ू उसके गांव में दो रुपए में मिलता है। सौ केंदूपत्तों का दाम एक रुपया। ये सब हर दिन का रोजगार नहीं था।

फिर दिन-ब-दिन जंगल कम होता जा रहा था। न महुली फूल मिलते थे न केंदूपत्ता। दोनो बहुत दूर तक चली जाती थी फिर भी खाली हाथ घर लौटती थीं।

उसकी मां उन्हें बहुत गाली देती थी। खाली हाथ लौटता देख पीटने के लिए दौड़ती थी। दोनो अस्तव्यस्त होकर कंदमूल के लिए दौड़ जाती थी। उस समय पेट में भूख से चूहे कूद रहे होते थे। बीच- बीच में चूहे कूदने की आवाज सुनाई पड़ रही थी। अपनी बहिन को उसने कहा था, “सुन रही हो दीदी, कान दे, .... चूहे चूं चूं कूद रहे हैं। उसकी बहिन बैठकर उसके पेट पर कान लगाकर सुनकर खूब हंस रही थी। वह कहने लगी, रूको,रूको, तुम्हारे पेट में चूहे कूद रहे हैं,मैं सुनना चाहती हूँ। उसकी बहिन के खड़े होने के बाद वह सावधानी से चूहों की आवाज सुनने लगी। दोनो हंस-हंसकर लोट-पोट हो गई। कुरैई फूलों की पंखुडिया खोलकर बालों में लगाकर कंदमूल खोजने लगी।

उनकी मां ने आज सुबह-सुबह उनको कंदमूल खोजने नहीं भेजा। वे जंगल या नाले के उस तरफ नहीं गई। उसकी मां कहने लगी, “मैने बात कर ली है, सब ठीक हो जाएगा। देखोगी, कैसे हमारे दुख दूर होते हैं।”

उसके बाप ने भी बिल्कुल वैसा ही कहा था, देखोगी हमारे दुख दूर हो जाएंगे। कहकर दोनो भाइयों को साथ में लेकर भरी दुपहरी में वह बाहर निकल गया। और फिर नहीं लौटा। उसकी मां कह रही थी उसके बाप में बुद्धि नहीं है। चालाक होता तो रायपुर जाता। इस गांव से बहुत सारे लोग रायपुर गए हैं। वह भी रायपुर में नजर आता।

तुम्हारा बाप किस प्रदेश की तरफ गया है, कौन जानता है? वह कहीं नजर नहीं आया। वह गया सो गया फिर लौटा नहीं। उसकी मां कहती है, कहीं उसके भाई वहीं शादी करके रह तो नहीं गए। पांच साल से वह यही बात सुनती आ रही थी। उस समय तो वह छोटी थी। उसके पिता से पहले भी कई लोग इस गांव से जा चुके थे। उसकी मां उन्हें छोड़ने के लिए गांव के अंतिम छोर तक गई थी। “दोनो बच्चों का पालन पोषण अच्छे से करना, काम खत्म करके जल्दी लौट आऊंगा।” उसकी मां ने कहा था। मगर तब भी उसके पिता और भाई नहीं लौटे थे।

उसकी मां ने एक-एक सामान को गिरवी रखा, बेचा पर उसका बाप और भाई नहीं लौटे। इस खेत, उस खेत में काम करके बकरी चराकर अपना जीवन गुजारने लगी। फिर भी बाप और भाई नहीं आए। पुरंदर माझी, सनातन नाग एक दिन गांव को लौट आए थे। गांव का हरेक आदमी उसके घर दौड़कर मिलने गया था। पुरंदर माझी का बाप उस समय तक सूखकर मर गया था। और सनातन की औरत कातायनी गांव छोड़कर चली गई थी, और सनातन का बाप गिद्ध की तरह दिखाई देने लगा था। और पुरंदर लंगड़ाते -लंगड़ाते चल रहा था।उनका मालिक उनको कहां से खाना देता। उसके बाप को उन्होंने देखा नहीं, कहने लगे।

नाले से पांव तक पानी आ गया था। उसकी बहिन ने उसे रगड-रगड़कर नहला दिया था। लोटा भर-भरकर उसके शरीर पर पानी डाला था। स्नान पूरा करके उसने कहा, “दीदी ! मैं तो लाल कपड़े पहनूंगी।”

उसकी बहिन हंसकर कहने लगी, “तुम्हारा कुर्ता क्या मैं पहन पाऊंगी? अगर तू लाल कपड़े पहनना चाहती हो तो पहन लो।” उसकी बहिन भीगे कपड़ों को निचोड़कर चिपके शरीर घर को लौटी। दोनो बातें करती हुई लौट रही थी। उसने अपनी बहिन से पूछा, “आज कौन आएगा, मां कह रही थी?”

“रवि नाहक आएगा।

“बहिन ! मेरे पेट में तो फिर चूहे कूदने लगे।”

“धत्, अब मैं कान लगाकर नहीं सुनूंगी।” इस बार उसकी बहिन विरक्त हो गई।

“देख तो बहिन, प्रधान के घर की बाड़ी में ककड़ी झूल रही है।”

“तुम उधर मत देखो।”

“देखने से क्या हो जाएगा?”

उसकी बहिन ने गुस्से में कहा, “तुम रुको, मैं जा रही हूं।”

वह और वहां नहीं रूकी। उसकी बहिन पीछे- पीछे चली गई। घर में उसकी मां ने लाल कपड़े पहने देख बहुत डांट डपट की। उसके लिए उसकी बहिन को भी गाली सुननी पड़ी। बाद में उसकी बहिन ने लाल कपड़े पहने और उसने एक फ्रॉक। वे बरामदे में बैठी रही। उसकी मां पता नहीं किसका इंतजार कर रही थी।

“नहीं, चूहे पेट में नहीं कूद रहे हैं। मां को बुद्धि नहीं है जो संवारी को गिलास देकर तेल लाई है ! साहू से दो दाने चावल नहीं ला सकती थी? तुम बैठो, मैं आ रही हूं।”

वह गांव की पगडंडी पर दौड़ने लगी।

उसकी बहिन ने पीछे से आवाज लगाई - “प्रधान की बाड़ी में मत जाना।” उसको सुनाई दिया या नहीं, क्या पता।

उसकी मां दीवार पर गोबर लेप रही थी और रवि को गाली दे रही थी। उसकी बहिन ऐसे ही लाल कपड़े पहनकर बैठी हुई थी, वह अपने हाथ में चार-छः कुमुद के फूल लेकर लौटी थी। उसकी बहिन ने पूछा- “तुझे कुमुद के फूल कहां मिले?” उसने कोई जबाव नहीं दिया।

“तू उसके तालाब पर गई थी, किसी ने तुझे देखा तो नहीं?”

“मैं उसके तालाब पर नहीं गई। वह साइकिल पर फूलों को रखकर मंदिर की तरफ जा रहा था। मैं उनमें से चार फूल लेकर आई हूं।

उसकी मां उसके हाथ से झट से फूल लेकर भीतर चली गई। कुमुद की डंडी उबालकर खाने से अच्छा लगता है, उसने एक बार पहले भी खाई थी।

दिन खत्म होकर सांझ होने लगी, रवि नहीं आया। उसकी मां रवि की चौदह पुश्तों को गालियां देने लगी।

उसने डर के मारे बहिन से पूछा नहीं कि उसकी मां क्यों उसे गाली दे रही है।

रात में भी कुछ खाया नहीं। मां-बेटी तीनों दरवाजा बंद करके सो गए थे। रात खत्म होने के समय उसकी बहिन की आवाज से उसकी नींद टूटी थी।

“उठ, उठ।” उसकी बहिन आवाज दे रही थी।

“चलो देखकर आते हैं सुबह-सुबह मां कहां चली गई?”

“मैदान की तरफ गई है मां।” उसने अपनी बहिन को जवाब दिया।

“नहीं, इस समय कोई मैदान करने जाता है? मैं तो बहुत पहले से उठी हूं। मां पास में नहीं थी।”

“जंगल की तरफ गई होगी।” उसने कहा।

दोनों बहिनें दुखी मन होकर बैठी थी। उनकी मां नहीं आई थी। उसकी बहिन झाड़ू पकड़कर घर बुहारने लगी। रंगीन मिट्टी और गोबर मिलाकर चूल्हा लीपने लगी। फिर भी उनकी मां नहीं आई। वह कहने लगी, “चलो, बहिन ! मां को खोजने जाते हैं।” उसकी बहिन का चेहरा रुआंसा हो गया।

कहने लगी, “बड़ी मां को कहें?”

दोनों क्या करें, समझ नहीं पा रही थी। अंत में दरवाजा खिड़की बंद कर दोनो बहिनें बाहर निकल गई।रास्ते में उन्हें उनकी बड़ी मां मिल गई, पूछने लगी, “तुम्हारी मां किधर हैं? सुबह से दिख नहीं रही हैं?”

“जंगल गई थी, कंदमूल खोजने।”

यद्यपि जंगल अब बचे नहीं थे, जिन्हें वे जंगल कहते उधर कंदमूल भी नहीं थे। वे स्वयं चिंतित थे। सुबह-सुबह मां कहां चली गई?

रात को उन्होंने कुछ भी नहीं खाया था। इसलिए उनकी मां कहां चली गई, दोनों सोचने लगी। प्रधान घर की बाड़ी की लकड़ी पर फिर उनकी निगाहें पड़ी। वह कहने लगी, “देखो, बहिन, कल से लटक रही है किसी ने भी नहीं तोड़ी।” उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया कि बहिन ने उसे पीट दिया। वह चिंहुक उठी, “तुमने मुझे क्यों मारा?”

“उधर की तरफ तुम हाथ मत लगाना। प्रधान घर के मजदूर तुम्हें नंगा करके पीटेंगे।”

बहुत दूर से उसकी मां खेत के किनारे के ऊपर से शरीर हिला-हिलाकर आ रही है, उन्होंने देखा।

“मां आ गई।” कहकर वह अपनी बहिन का साथ छोड़कर मां की तरफ दौड़ पड़ी।

उसकी मां की कमर में आधा किलो चावल, और पॉलिथीन की जरी में छोटी-छोटी दो मछलियां थी। चावल और मछली देखकर उसे इतनी खुशी हुई कि वह बहिन, बहिन कहते हुए एक ही सांस में दौड़ गई अपनी बहिन के पास। आज हमारे घर में भोज होगा।

उसकी बहिन ने उसके मुंह पर थप्पड़ मारा, “चुप ! कोई सुनेगा तो।”

“उससे क्या होगा? सुनो, मां चावल और मछली लेकर आ रही है।” उसकी बहिन की आंखों में जो चमक आई थी, वह निस्तेज हो गई। निस्तेज इसलिए हो गई कि उन चीजों के लिए मां को पैसा कहां से मिला? फिर सुबह- सुबह कहां गई थी?

उसकी बहिन और आगे न जाकर पीपल के पेड़ के नीचे इंतजार करने लगी। मगर वह दौड़ -दौडकर मां के पास गई। उसकी बहिन घास के तिनके को मुंह में लेकर चबाने लगी, घर में कांसे का बर्तन था मगर नहीं तो?

जो भी हो, उसकी मां आने के बाद तीनों चली गई। उसकी बहिन कहने लगी- "तुमने कांसे का बर्तन साहू के दे दिया क्या "?

“वही तो एक चीज बची थी, उसे भी साहू को दे दिया ?”

“सुबह- सुबह कहां गई थी? कहकर तो जाती?”

”उस तरफ के गांव को गई थी। सुबह-सुबह नहीं जाने से क्या इस समय लौट आती? देर होने से और उसको नहीं मिल पाती?”

“किसको मिलने गई थी, मां?” उसने पूछा।

“रवि को। यहां के लोग बड़े बदमाश है ! कल हमारे गांव आया था, देखा,बिना मिले कैसे चला गया, कल शहर चला जाएगा सोचकर मैं जल्दी सुबह उसे मिलने चली गई।”

उसकी दीदी ने और घुमा -घुमाकर कुछ नहीं पूछा। उसकी मां कहने लगी, “जल्दी-जल्दी घर चलो। बहुत काम बाकी है।” तीनो मां- बेटी के घर लौटते समय पगडंडी पर बड़ी मां नहीं थी।

उसकी मां ने उसे पड़ोसी के घर आग लाने के लिए भेजा। उसके घर में रात को चूल्हा नहीं जला था, उसमें अंगार का एक टुकडा भी न था। वह लोहे की कड़सी लेकर पडोसी के घर जा रही थी, पीछे से मां ने जोर से चिल्लाकर बुलाया और घर के अंदर आने पर उसे गंदी-गंदी गालियां देते हुए कहने लगी, “हवा की तरह उड़ने से नहीं होगा, अंगार लाते समय अगर किसी को कुछ कहा तो तुम्हारा गला घोंट दूंगी।”

वह रोते-रोते कहने लगी, “मैं नहीं जाऊंगी। तुम अंगारों के लिए मुझे क्यों डांट रही हो।”

मां की लाड़ली होने के कारण थोड़ी सी बात होने से या कड़क आवाज सुनने से उसे सहन नहीं होता था। वह जोर-जोर से रोने लगी।

उसकी बहिन हंसकर कहने लगी, “बड़ी दुलारी है !”

उसकी मां अपने पास बुलाकर कहने लगी, “सुन, हमारे घर आज भात-मछली होने से पड़ोसी तुझे इधर-उधर की दस बात पूछेंगे। कहां से आया? कौन लाया? तुम्हारी बड़ी मां देखकर सहन नहीं कर पाएगी। यहां खाने के समय आकर बैठ जाएगी।” मां की बात सुनकर वह समझ गई। फिर वह नाचते-नाचते अंगार लेने गई। नहीं, उससे तो वह खुशी छुप नहीं पा रही थी। चार- पांच घर घूमने के बाद उसे मिल गए चार-छ- अंगारें।

उसकी मां चूल्हा कुहुलाकर भात बैठाते समय उसकी बहिन को थोडा-सी हल्दी और थोडा-सा तेल निकाल कर देकर कहने लगी, “जा जल्दी नहाकर आ। कल के ही कपड़े पहन लेना।”

उसकी बहिन सारे दिन वही कपड़े पहनकर बैठी रही, रात को बदल दिए थे। फिर वापस वे ही कपड़े पहनने को क्यों कह रही थी मां?

बहिन नाले की तरफ चली गई थी, वह भी साथ में चली गई थी। कल की तरह उसकी बहिन का मुंह इतना सूखा दिखाई नहीं दे रहा था। नाले में कुछ ज्यादा पानी आ गया था। पहाड़ के उस पार कहीं जरुर बारिश हो रही होगी। उधर वर्षा होने से इधर नाले में पानी बढ़ जाता है। पानी बढ़ने से मछली की गंध आने लगती। पानी का रंग भी बदल जाता है।

उसकी बहिन खुश मन से. घुटनो तक पानी में डूबकर नहाते समय कहने लगी, “मछली को अंगार-राख में सेंककर लहसुन, नमक, मिर्च मिलाकर खाने से भूख से ज्यादा भात हम खा लेते हैं। ”

फ्रॉक खोलकर पानी के भीतर घुसते समय उसकी बहिन कहने लगी, “तू अभी तक बड़ी नहीं हुई है? बुद्धि नहीं है? कुर्ता खोलकर सीधे पानी में घुस गई हो?” वह पानी में बैठकर पूछने लगी, “बहिन, तुमने लहसुन, मिर्च मिली हुई मछली खाई हो?”

उसकी बहिन मुंह पर हल्दी लगा रही थी। पूछने लगी, “सच कह रही हो, मां को कहां से पैसे मिल गए, जिससे वह इतना सामान खरीद लाई।”

“तुमने उस कांसे के बर्तन को घर में देखा था?”

“पहले कहो, तुम लहसुन मिर्च वाली मछली खाती हो या नहीं?”

“खाई है। तुमने भी तो खाई है। कई बार।”

“मैने कब खाई ?”

“पिताजी जब थे। तुम बच्ची थी।”

उसने पानी से बाहर निकलकर कुर्ता बदल दिया। उसकी बहिन कहने लगी, “तुम्हारे कुर्ते की सिलाई फट गई है। बगल में हाथ घुस जाएगा इतना बड़ा छेद हुआ है। देखा है ?

“यह तो मां मांगकर लाई थी प्रधान के घर से। पुराना था।”

दोनो नहाकर घर लौटी। कालेमगुनी पत्थर जैसे चेहरे पर हल्दी लगाकर आई थी उसकी बहिन। उसकी मां ने एक थैली में से ब्लाऊज निकालकर देते हुए उसे कहा था, “इस को पहन लो।”

नानी का एकदम नया ब्लाउज देखकर वह मुंह फुलाकर चली गई।

“तुम तो उसके लिए नया लाई हो, मेरे लिए नहीं।”

देख, मैंने फटा हुआ पहना है, देख उसने वह हाथ अपनी मां को दिखा दिया और रोने लगी।

उसकी मां क्या कहकर दुलारी को समझाती। वह कहने लगी, “पहले बहिन का काम खत्म होने दो फिर तुम्हारे लिए ले आऊंगी।”

उसकी मां ने बहिन को बरामदे में बैठाकर अच्छी तरह बाल गूंथ दिए। एक सुनहरे और काले रंग का मोतियों का हार लाकर पहना दिया। बिंदी का पैकेट उसने बांध लिया अपनी कमर में, बाहर निकालकर उसने केवल डिजायन की बिंदी भौहों के बीच लगाकर एक बार देखा। नहीं, उसे पसंद नहीं आई। साँप के डिजाईन की बिंदी लगाई, तब भी नहीं मानी।एकदम गोल बिंदी लगाकर कहने लगी," हां, यह ठीक लगती है"।

इतने समय तक मां को बहिन को सजाते देख उसके दांत कटकटाने लगे। वह अपने पैरों को जमीन पर फेंककर कहने लगी, “केवल उसको सजाती रहोगी या मुझे खाने को भी दोगी?”

“रुको, इस तरह क्यों कुलबुला रही हो?” उसकी मां उठकर जाते-जाते बहिन को कहने लगी, “काजल थोड़ा लगा लो।” उसे और खराब लगने लगा, उसकी मां केवल उसकी बहिन को ही खूब प्यार करती है। उसकी बहिन ने उसको काजल लगवाने के लिए बुलवाया, मगर वह नहीं गई। वह इतनी नाराज हो गई कि उसकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली। उसकी बहिन ने उसको छाती से चिपकाकर आश्वासन देते हुए कहा, “चल, खाना खाएंगे।”

उसकी मां ने गीला भात स्टील थाली में डाल दिया और कंटिया मछली को राख में भूनकर मिर्च लगाकर दिया तो वह पूछने लगी, “मां लहसुन नहीं है क्या?” “नहीं है। कहां से लाऊंगी?” तीनो खाना खाने बैठ गए। खाना खाने के बाद पेट भारी- भारी लगने लगा था उसको। उसकी आँखों में नींद आने लगी। वह बिस्तर के ऊपर लोटते-लोटते सो गई।

केवल सपना ही सपना, नाला सारा भात।सारा घर मछली। नहीं, यह भोज कहां हो रहा था। प्रधान के घर बेटी की शादी में हुए भोज की तरह बाल्टी चम्मच पकड़कर सभी दौड़ भाग कर रहे हैं। वहां भी मछली और भात। नहीं, नहीं, नाले में चमकती मछली और पत्तल में रखा हुआ भात। सभी केवल दौड़ रहे हैं। प्रधान के घर के बाहर कोई एक बडी मछली काट रहा है। वह ककड़ी भी लटक रही है प्रधान के बगीचे में। बाहर कई लोग भात लेकर बैठे हैं।

उसके सपने के भीतर उलझ रही मां की आवाज सुनकर नींद टूट गई। उसने देखा उसके घर एक आदमी बैठा था। आंख मचलते-मचलते उसने सोचा, यही रवि है? उसकी मां ने तीन दिन हो गए थे उसकी दीदी को सजाकर रखा है इस आदमी के लिए? अधेड़ आदमी? उसकी मां कहने लगी, “जाओ, बाहर जाकर खेलो।”

यह सुनकर उसकी आंखें विस्मित रह गई। क्या बात कह रही हो? आगे बस्ती में खपरा खेल खेलने जाने से उसको पीठ पर मुक्का मारा था मां ने। गार काटकर खपरा कूदते, स्कूल जाने पर भी दो बार खाना नहीं मिलता था उसे। उस समय उसको स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता था। मास्टर कुर्सी बनाकर सजा देते थे। जमीन पर नाक रगड़ने को कहते थे। अब वह और स्कूल नहीं जाती थी। बड़ी लडकी हो गई थी तो ! स्कूल छोडे हुए दो साल हो गए थे। वह तो अपनी पढाई भी भूल गई थी। एक कक्षा में तीन बार फेल होने पर मास्टर ने कहा था, “और स्कूल मत आना। पढ़ाई छोड दे।” स्कूल जाने पर दोपहर का खाना मिलने से मां ने जिद्द पकड ली थी, “स्कूल जा, स्कूल जा।”

एक दिन उसकी मां ने जाकर मास्टर को हाथ जोड़कर प्रार्थना की थी, “उसका स्कूल से नाम मत काटिए।” मास्टर उसकी मां के ऊपर गुस्सा हुआ था, तुम्हारी बेटी एक कक्षा में कब तक रहेगी जब तक सरकार उसको बूढ़ी होने तक दाल-भात खिलाती रहेगी। तू इसकी पढाई बंद करवा दे,वह नहीं पढ़ पाएगी। उसको भी छोटे बच्चों के साथ पढ़ना अच्छा नहीं लगेगा?” मास्टर हर समय मां को अपमानित करता था।

बहुत दिन बीत चुके थे उसे खपरा खेल खेले। बहिन के साथ जाती थी, झाडू बांधती थी, केंदूपत्ते खूटने जाती थी। उसकी मां ने बहुत दिन बाद खेलने जाने को कहा, यह सुनकर वास्तव में उसे आश्चर्य होने लगा। वह घर के भीतर से बाहर आ गई, बाहर आकर बरामदे में बैठ गई अपनी बहिन के पास।

“यह कौन है जो घर के अंदर बैठा है? रवि है?”

उसकी बहिन ने उसके मुंह पर हाथ रखते हुए कहा, “चुप।” घर के भीतर उसकी मां और रवि के बीच किसी बात को लेकर मोलभाव हो रहा था। बहुत जोर से झगड़ा हो रहा था।

“हजार में नहीं, कम से कम बारह सौ।” उसकी मां कह रही थी।

“इतने सस्ते में क्यों ले जाओगे?”

वह आदमी कह रहा था, “रेट चल रहा है हजार का। तू और दो सौ मांगेगी, मैं कहां से दूंगा? मैं भी तेरी तरह गरीब हूं, बहिन। तू सोच रही है, मुझे इसमें कोई फायदा है।”

उसकी मां कह रही थी, “तू दो महीने में बारह सौ क्या कमा नहीं लोगे? क्या कह रहे हो?” अंत में ग्यारह सौ में बात खत्म हुई।

उसकी मां कहने लगी, “आते समय तो तुमने देखा है और एक बार अब क्यों देखोगे?”

उसकी तो जमीन जायदाद नहीं, गाएं नहीं, एक घर है।क्या बात देखकर यह आदमी आया? मन ही मन सोच रही थी वह, उसने बहिन को डरके मारे पूछा नहीं। नहीं तो फिर मुंह पर थप्पड पड़ेगा। उसने नींद से उठते समय अब तक पेशाब नहीं किया था। उसको बहुत जोर से पेशाब लगने लगा। वह बरामदे की बाड़ी की ओर पेशाब करने गई। इसी आदमी के इंतजार में बैठी थी मां तीन दिन से। उसने पेशाब करते समय देखा, दो छोटे-छोटे करेले झूल रहे हैं। करेलों को पकड़कर प्यार से हाथ लगाया। अपनी खुशी को छिपा न पाकर दौड़कर आकर कहने लगी, “बहिन..”

बहिन ने अपने होठ पर अंगुली रखते हुए ईशारा किया, " चुप... चुप। वह पास में आकर कहने लगी, दो करेले लगे हैं देखी हो" उसकी बहिन खुश नहीं हुई। उसे आश्चर्य होने लगा कि उसकी बहिन क्यों नहीं खुश हुई। वह घर के अंदर जाकर माँ को खबर नहीं दे पा रही थी। उसकी मां और वह आदमी बैठकर बातें कर रहे थे।

उसकी मां कह रही थी," देख, दोनो में बराबर ताकत नहीं है। बड़ी ताकतवर,मांसल शरीर,, ज्यादा काम वह कर सकती है। ज्यादा आमदनी उससे होगी"।

“वह बात तो ठीक है," कह रहा था रवि नाम का वह आदमी " देख रही हो,तुम्हारी बड़ी बेटी के चेहरे पर कभी हंसी आती है? हर समय मुंह उतरा हुआ नजर आता है। ठेकेदार देखकर बिदक जाएगा। कहेगा, किसको लेकर आया है वह ? पुलिस की नजर पड़ने पर कहेगी, हमने पीड़ा देकर उसके चेहरे की हंसी छीन ली है। मुझे छोटी पसंद है, तू जो भी कहे। चंचल लडकी है। हाथ- पांव सुडौल है। आंखें बहुत सुंदर है। उसका चेहरा तो गोल मटोल है। खाना- पीना मिलने से और ज्यादा सुंदर दिखेगी।"

उसने बहिन की तरफ देखकर प्रश्न किया “वह आदमी क्या कह रहा है, बहिन?”

बहिन बिन उत्तर दिए करेले के पास आ गई। उसका चेहरा एकदम मुरझा गया। क्या कहेगी , वह समझ नहीं पाई। पत्तों के पीछे दो करेले देख कर वह फिर से हंस पड़ी। बड़ा नखरा दिखा रही है, मन ही मन सोच रही थी, उसकी बहिन हर समय मुंह उतारकर क्यों रह रही है? वही बात कर रहा है क्या वह आदमी?


मां ने बाहर आकर उसको आवाज लगाई। माँ की आवाज सुनते ही वह दौड़कर उसके पास गई। मां को ग्यारह सौ मिलेगा, वह आदमी कह रहा था। वह मां को कहेगी तेरे लिए कुर्ता खरीद लेगी। बहिन का ब्लाऊज भी खरीदेगी वह। उसको देंगे क्या? उसकी मां ने उसको पुचकारकर बहुत प्यार किया। रोते-रोते कहा, “तू जा उसके साथ। दिन में भर पेट खाना मिलेगा। मेरी और बहिन की याद आएगी तो उसको कहूंगी वह तुझे गांव घुमाने ले आएगा।

वह जोर-जोर से रोने लगी। वह अपनी मां को छोड़कर, बहिन को छोड़कर, गांव को छोड़कर कहां जाएगी? उसकी बाड़ में दो करेले के फूल आ गए थे, वह अपनी मां को नहीं कह पाई।उस आदमी ने बीड़ी सुलगाई और दो कश मारे। उसके बाद वह कहने लगा, “चल,चल जल्दी, नहीं तो वहां पहुंचते-पहुंचते शाम हो जाएगी।”

उसकी मां कहने लगी, “बेटी के बाल बना देती हूं।”

“नहीं, नहीं देर हो जाएगी।”

उसकी बहिन कहां चली गई, पता नहीं, उसकी मां रो-रोकर उसे पुकारने लगी।

उसकी बहिन मुंह पोंछकर सिर झुकाकर पास आकर खड़ी हो गई। इस बार आदमी ने धमकाते हुए कहा, “इस तरह मां-बेटी तीनों रोना- धोना करोगी तो दस लोगों को पता चलेगा। मैं जा रहा हूं, तुम कुछ नहीं कर सकोगी। दे, मेरे पैसे लौटा।”

“ऐसे क्यों कर रहे हो? ये रख अपने पैसे। कह रही हूं, तुम जाओ आ रही हूं,पीछे-पीछे तुम्हारे। गांव के अंतिम किनारे तक मैं उसको छोड़ने आती हूं। तुम जाओ.....।”

वह आदमी मां के हाथ से पैसे न लेकर बीड़ी फूंकते-फूंकते बाहर चला गया।

उसकी मां खिड़की दरवाजे बंद करने लगी।

वह पूछने लगी, “उसके पैसे नहीं लौटाए?”

उसकी मां आंचल को मुंह में दबाकर कहने लगी, “तू जा इधर से, खाएगी,पीएगी, आराम से रहेगी।”

“और बहिन?”

(अनुवादक : दिनेश कुमार माली)

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