स्वामी सारदानंदजी महाराज और मैं (कहानी) : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

Swami Sardanandji Maharaj Aur Main (Hindi Story) : Suryakant Tripathi Nirala

उन दिनों १९२१ ई॰ थी। एक साधारण-से विवाद पर विशद महिषा दल-राज्य की नौकरी नामंज़ूर-इस्तीफ़े पर भी छोड़कर मैं देहात में अपने घर रहता था। कभी-कभी आचार्य पं॰ महावीरप्रसादजी द्विवेदी के दर्शनों के लिये जुही, कानपुर जाया करता था। इससे पहले भी, जब १९१९ में हिन्दी और बँगला के व्याकरण पर लिखा हुआ मेरा लेख शुद्ध कर, 'सरस्वती' में छापकर १९२० में उन्होंने साहित्य-सेवा से अवसर ग्रहण किया, दौलतपुर में उनके दर्शन कर चुका था। साहित्य में द्विवेदी जी का गुरुत्व मैं उन्हीं के गुरुत्व के कारण मानता था (मानता भी हूँ), अपने किसी अर्थ-निष्कर्ष या स्वार्थ-लघुत्व के लिये नहीं। पर इष्ट तो निर्भर भक्त की भुक्ति की ओर देखता ही है—द्विवेदीजी भी मेरी स्वतन्त्रता से पैदा हुई आर्थिक परतंत्रता पर विचार करने लगे। आज ही की तरह उन दिनों भी हिन्दी की मसजिदों पर मुरीद द्विवेदीजी की नमाज़ पढ़ते थे, लिहाज़ा उनकी कोशिश—मैं किसी अख़बार के दफ़्तर में जगह पा जाऊँ—कारगर हुई। दो पत्र उन्होंने अपनी आज्ञा से चिह्नितकर गाँव के पते पर मेरे पास भेज दिए, एक काशी के एक प्रसिद्ध रईस राजनीतिक नेता का था, एक कानपुर ही का। काशीवाले में आने-जाने का ख़र्च देने के विवरण के साथ योग्यता की जाँच के बाद जगह देने की बात थी, कानपुरवाले में लिखा था—इस समय एक जगह २५) रुपए की है, अगर वह चाहें, तो आ जायँ। मालूम हो कि यह सब उदारता पूज्य द्विवेदीजी अपनी तरफ़ से स्नेह-वश कर रहे थे। अवश्य मेरे पास शिक्षा का जो प्रमाण-पत्र इस समय तक है, उस योग्यता की पूरी-पूरी रक्षा जगह देनेवालों ने की थी, तथापि सिपहगरी के समतल क्षेत्र से सुबेदारी तक के सुस्तर उन्नति-क्रम पर अविचल श्रद्धा न मुझे पहले थी, न अब भी है। फलतः उन पत्रों ही को मेरी अशिक्षा के कारण अस्यान-प्राप्ति हुई, मेरी जेब में प्रमाण के तौर पर अपने सुलेखकों के पास वापस जाने का सौभाग्य उन्हें न मिला। मेरे अन्दर मर्यादा का ज्ञान अत्यन्त प्रबल है, इसकी जानकारी पूज्य द्विवेदीजी को स्वतः उत्तरदायी पद दिलाने की ओर फेरने लगी। पर द्विवेदीजी करते भी क्या, प्रमाण जो न था? जो कुछ भी साहित्य-सेवा की प्रबल प्रेरणा से मैं लिखता था, वह एक ही सप्ताह के अन्दर सम्पादक महोदय की अस्वीकृति के साथ मुझे पुनः प्राप्त हो जाता था। केवल दो लेख और शायद दो ही कविताएँ तब तक छप पाई थीं, सो भी जब हिन्दी के छन्दों में बड़ी रगड़ की और लेखों में क़लम की पूरी ऊँची आवाज़ से हिन्दी की प्रशंसा। अस्तु, इन्हीं दिनों स्वामी माधवानन्दजी, प्रेसिडेंट, अद्वैत आश्रम (रामकृष्ण-मिशन), मायावती, अल्मोड़ा, हिन्दी में एक पत्र निकालने के विचार से पत्रों में विज्ञापन करते हुए सम्पादक की तलाश में द्विवेदीजी के पास, जुही, आए। उस समय मेरी एक कविता, वह 'परीमल' में 'अध्यात्म-फल' के नाम से छपी है, 'प्रभा' में प्रकाशित हुई थी। उतने ही प्रत्यक्ष आधार पर आचार्य द्विवेदीजी स्वामीजी के पत्र के लिये मेरी योग्यता की सिफ़ारिश कर चले। उनकी तकलीफ़ आप समझ सकते हैं। स्वामीजी ने मेरा पता नोट कर लिया, और मुझे एक चिट्ठी योग्यता के प्रमाण-पत्र भेजने की आज्ञा देते हुए लिखी। बंगाल में रहकर परमहंस श्रीरामकृष्णदेव तथा स्वामी विवेकानन्दजी के साहित्य से मैं परिचय प्राप्त कर चुका था, दो-एक बार श्रीरामकृष्ण-मिशन, वेलूड़, दरिद्र-नारायणों की सेवा के लिए भी जा चुका था, श्रीपरमहंस देव के शिष्य-श्रेष्ठ पूज्यपाद स्वामी प्रेमानन्दजी महाराज को महिषादल में अपना तुलसी-कृत रामायण का सस्वर पाठ सुनाकर उनका अनुपम स्नेह तथा आशीर्वाद प्राप्त कर चुका था; स्वामी माधवानन्दजी को पत्रोत्तर में अपनी इसी योग्यता के हृष्टपुष्ट प्रमाण दिए। स्वामीजी का वह पत्र अँगरेज़ी में था और मेरा उत्तर बँगला में। कुछ दिनों बाद मैं द्विवेदीजी के दर्शनों के लिये फिर गया तो मालूम हुआ कलकत्ता में एक सुयोग्य साहित्यिक स्वामीजी को सम्पादन के लिये स्वयं प्राप्त हो गए हैं। घर लौटने पर उनका एक पत्र मुझे भी बँगला में लिखा हुआ मिला कि धैर्य धारण करो, प्रभु की इच्छा होगी, तो आगे देखा जायगा।

इसी समय महिषादल-राज्य से मुझे तार मिला कि जल्द चले आओ। मैंने सोचा, जब नामंज़ूर इस्तीफ़े पर हठवश चले आने का दोष ही हटा दिया गया, तो अब जाने में क्यों द्विधा करूँ? मैं महिषादल गया। पर, राजा, जोगी, अगिन, जल की उल्टी रीतिवाली याद न रही। यहाँ 'समन्वय' के सार्थक नाम से एक सुन्दर पत्र प्रकाशित हुआ। मेरे पास भी वह लेख के तक़ाज़े के साथ गया। मैंने उसमें 'युगावतार भगवान् श्रीरामकृष्ण' ऐसा एक लेख लिखा। जब वह प्रकाशित हुआ, तब मैंने द्विवेदीजी की राय माँगी। उन्होंने उस लेख को पढ़कर बधाई दी। मैं मौलिक लेख लिख सकता हूँ, आचार्य द्विवेदीजी के इस आशीर्वाद का सदुपयोग मैं अपने ही भीतर तब से अब तक करता जा रहा हूँ। कई और भी मेरे साहित्यिक पूज्यपादों ने उस लेख की विचारणा और भाषा-शैली के लिये मुझे प्रोत्साहन दिया। 'समन्वय' को एक बड़ी अड़चन पड़ी, और यह हिन्दी और बँगला बोलनेवालों में, मेरे विचार से, शायद अभी बहुत दिनों तक रहेगी। इधर मेरे सामने भी राजावाली उल्टी रीति पेश हुई। इसी समय 'समन्वय' के मैनेजर स्वामी आत्मबोधानन्दजी ने मुझे लिखा कि बंगालियों के भावों को समझने के लिए यहाँ ऐसा आदमी चाहिए, जो बँगला जानता हो, हमें अड़चन पड़ती है, तुम चले आओ। मैंने जाकर देखा, 'समन्वय' के आठ ही महीने में दो सम्पादक बदल चुके थे। सम्पादक की जगह नाम स्वामी माधवानन्दजी का छपता था, वह हिन्दी भी बहुत अच्छी जानते हैं, काम तथा हिन्दी की विशेषता की रक्षा के लिये 'समन्वय' में एक हिन्दी-भाषी सम्पादक रहता था। इस तरह मैं 'समन्वय' में जाकर स्वामीजी महाराजों के साथ, 'उद्वोधन' कार्यालय, बाग़बाज़ार में रहने लगा। यही पहले-पहल आचार्य स्वामी सारदानन्दजी महाराज के दर्शन किये। यह १९२२ ई॰ की बात है।

स्वामी सारदानन्दजी इतने स्थूल थे कि उन्हें देखकर डर लगता था। यद्यपि डरवाली बात मेरे पास बहुत पहले ही से कम थी, भूतों से साक्षात्कार करने के लिये रात-रात-भर श्मशानों की सैर करता रहा था, और आधी रात को घर से निकलकर पैदल आठ-नौ कोस ज़मीन चलकर सुबह आचार्य द्विवेदीजी के दर्शन किए थे, फिर भी स्वामी सारदानन्दजी की ओर बहुत दिनों तक मैं देख नहीं सका। पर मैं आँखें झुकाकर, प्रणामकर उनकी सभा में कभी-कभी बैठ जाता था—बातचीत सुनने के लिये। किसी दर्शन या धर्मग्रंथ का पाठ होने पर उठकर चला आता था, क्योंकि दार्शनिकता की मात्रा यों भी दिमाग़ में बहुत ज़्यादा थी, जी घबरा उठता था। स्वामीजी की वार्तालाप-सभा में महीनों मैंने संयम रक्खा; कुछ बोलकर बेवकूफ़ न बनूँगा, सिद्धान्त कर लिया था। बाहर के आये हुए विद्वानों को देखता भी था, अंट-संट बकते जा रहे हैं; न सर, न पूँछ; उनको आवाज़ की किरकिराहट अर्थ से पहले अनर्थ व्यंजित करती थी। स्वामीजी मेरी 'यावात्किंचिन्नभाषते' नीति पर प्रसन्न होकर मुस्कराते थे। एक रोज़ धैर्य जाता रहा। मैंने पूछा—"यह संसार मुझमें है, या मैं इस संसार में हूँ?" उन्होंने बड़े स्नेह से कहा—"इस तरह नहीं।"

हमारे यहाँ की जैसी संस्कृति थी, मैं बचपन से सन्तों की सूक्तियों पर भक्ति करता हुआ विशेष रूप से ईश्वरानुरक्त हो चला था। इसलिए सो जाने पर देवताओं के स्वप्न बहुत देखता था। जो देव जाग्रत् अवस्था में कभी नहीं बोले, मैं ही बातचीत करता थकता था, वे सो जाने पर दम न भरते थे। इसे धर्म-ग्रंथों में शुभ लक्षण कहा है। पर मेरे लिये यह उत्तरोत्तर अशुभ हो चला। क्योंकि बराबर यह प्रश्न जारी रहा कि मूर्त्तियाँ जाग्रत् अवस्था में क्यों नहीं बोलतीं? रात की अनिद्रा और दिन की उधेड़-बुन के शुभ लक्षण सहज ही अनुमेय हैं। क्रमशः दार्शनिकता प्रबल हो चली। धीरे-धीरे देवताओं के कथोपकथन के फलस्वरूप घोर नास्तिक, शंकितचित्त हो गया। जब 'समन्वय' के सम्पादन के लिये गया था, तब यही दशा थी। आस्तिकता पहले के उपार्जित संस्कार या धूप-छाँह की सार्थकता की तरह आती थी। एक दिन मैंने स्वामीजी से कहा, सो जाने पर मेरे साथ देवता बातचीत करते हैं। वह सस्नेह हँसकर बोले, बाबूराम महाराज से भी करते थे (स्वामी प्रेमानन्दजी का पहला नाम श्रीबाबूराम था। इनका ज़िक्र मैं कर चुका हूँ कि श्रीरामकृष्ण के शिष्यों में पहले इन्हीं के दर्शन मैंने महिषादल में किए थे)। इस प्रसंग के कुछ ही दिनों में, मैं अपने एक बंगाली मित्र के बिस्तरे पर सो रहा था, दुपहर को सोने का मुझे अब भी अभ्यास है, देखता हूँ कि "स्वामी सारदानन्दजी महाध्यान में मग्न हैं, ईश्वरीय विभूति से युक्त ऐसी मूर्त्ति मैंने आज तक नहीं देखी—कमलासन बैठे हुए, ऊर्ध्वबाहु, मुद्रितनेत्र, मुख-मंडल पर महानन्द की दिव्य ज्योति, जो कुछ है, सब ऊपर उठा जा रहा है। इसी समय उनके सेवक एक सन्यासी महाराज उन्हें खिलाने के लिये रसगुल्ले ले गए; उसी ध्यानावस्थित अवस्था में स्वामीजी ने मेरी ओर इशारा किया। सेवक महाराज ने लौटकर मुझे रसगुल्लों का कटोरा दे दिया। मैं गया और एक रसगुल्ला खिलाकर लौट आया। कटोरा सेवक सन्यासी महाराज को दे दिया।

बस, आँख खुल गई। मेरा मस्तिष्क हिम-शीकरों-सा स्निग्ध हो गया। उनमें महाज्ञान का कितना बड़ा प्रत्यक्ष प्रमाण मैंने देखा है, मैं क्या कहूँ।

पर मेरी विरोधी शक्ति बराबर प्रबल रही। तीव्र तीक्ष्ण दार्शनिक वज्र-प्रहारों से बराबर मैं मन से उनका अस्तित्व मिटाता रहा—मिटा देता था, तभी काम कर सकता था, पर वह काम—जो घर के लिये, संसार के लिये बन्धनों से मुक्त होनेवाला सामाजिक और साहित्यिक उत्तरदायित्व लिए हुए था। पर आकाश से सीमावकाश में आकर भी मैं आकाश में ही रहता हूँ, ज्यों-ज्यों लड़ता गया—जुदा होता गया, यह भाव प्रबल होता रहा। जीवन्मुक्त महापुरुष क्या हैं, मैं अब और अच्छी तरह समझने लगा। मैं प्रहार करता हुआ जब थक जाता था, तब मेरे मनस्तत्त्व के सत्य-स्वरूप स्वामी सारदानन्दजी मुझे रंगीन छाया की तरह ढककर हँसते हुए तर कर देते थे। इन महादार्शनिक, महाकवि, स्वयंभू, मनस्वी, चिर-ब्रह्मचारी, सन्यासी, महापंडित, सर्वस्वत्यागी साक्षात् महावीर के समक्ष देवत्व, इन्द्रत्व और मुक्ति भी तुच्छ है। मैंने भी देश तथा प्रदेशों के बड़े-बड़े कवियों, दार्शनिकों, पंडितों तथा पुरुषों के साथ एक सर्वश्रेष्ठ उपाधि से भूषित किए हुए अनेकानेक लोगों को देखा है, पर वाहरे संसार, सत्य की कितनी खरी जाँच तूने की—महाविद्या ओर महापुरूष-चरित्रों का कितने पोच मस्तिकों में तूने पता लगाया! मैं ब्राह्मण था, किसी मनुष्य को सिर नहीं झुकाया, मेरे चरित्र का पूरा अध्ययन कीजिएगा, चरित्र और ज्ञान, जीवन और परिसमाप्ति में जो 'एजति, न एजति' को सार्थक करने वाले ब्रह्म थे, उन्होंने अपनी पूर्णता देकर मेरी स्वल्पता ले ली। अब दोनों भाव उन्हीं के हैं, एक से वह लड़ते हैं, दूसरे से बचते हैं—यही मेरा इस समय का जीवन है।

स्वामी सारदानन्दजी के जिन सेवक सन्यासी के हाथ से कटोरा लेकर स्वप्न में मैंने स्वामीजी को रसगुल्ला खिलाया था, उन्होंने मुझसे एक रोज़ एका एक कहा—"तुम मंत्र नहीं लोगे?—जाओ।" मैंने सोचा, "यहाँ महाप्रसाद की तरह मंत्र भी बँटता होगा, लेने में हर्ज क्या है?" मुझे बड़े को गुरु मानने में आपत्ति कभी नहीं रही, रहा सिर्फ़ गुरुडम के खिलाफ़, फिर मंत्र लेने से कुछ मिलता ही है; जहाँ मिलनेवाली सूचना हो, वहाँ पैर न बढ़ाए, ब्राह्मण का कोई बेवक़ूफ़ लड़का होगा। मैं सपाटा-चाल ज़ीना तय करके स्वामीजी के कमरे में पहुँचा और बैठ गया। उन्होंने पूछा, "क्या है?" मैंने कहा, "मंत्र लेने आया हूँ।" मेरे स्वर में न जाने क्या था। मुझे तंत्र-मंत्र पर बिल्कुल विश्वास न था। स्वामीजी प्रसन्न गंभीरता से बोले—"अच्छा, फिर कभी आना।"

मैंने मन में कहा, अब इञ्जानिब नहीं जाने के। कई रोज़ हो गए, नहीं गया। वहाँ कभी-कभी माँ के कमरे में (श्रीपरम-हंसदेव की धर्मपत्नी श्रीश्री- सारदामणिदेवी, तब माँ देह छोड़ चुकी थीं) तुलसीकृत रामायण पढ़ता था। पहले दिन पढ़ी थी, तब स्वामी सारदानन्दजी ने प्रसाद के दो रसगुल्ले दिलाये थे। सबको एक रसगुल्ला मिलता है। केवल शंकर महाराज (स्वामी सारदानन्दजी के बड़े गुरुभाई, श्रीरामकृष्ण-मिशन के प्रथम प्रेसीडेण्ट, पूज्य-पाद स्वामी ब्रह्मानन्दजी के प्रिय शिष्य) को दो रसगुल्ले पाते हुए बाद को मैंने देखा था, पर उन्होंने एक रसगुल्ला मुझे दे दिया था। एक बार माँ को प्रणामकर, प्रसाद लेकर मैं स्वामी सारदानन्दजी महाराज के ज़ीने की तरफ़ से उतरने के लिये जा रहा था, प्रसाद मेरे हाथ में था, मन बड़ा प्रफुल्ल, फूल-सा खिला हुआ, हल्का; गोस्वामी तुलसीदासजी की भारतीय संस्कृति मन को ढके हुए; स्वामीजी आ रहे थे, मुझे भावावेश में देखकर, रास्ता छोड़कर एक तरफ़ हट गए; मुझे होश था ही, मैं भी हटकर खड़ा हो गया कि यह चले जाएँ, तो जाऊँ। स्वामीजी ने पूछा—"यह प्रसाद किसके लिये लिये जा रहे हो?" (स्वामीजी से मेरी बँगला में बातचीत होती थी) मैंने कहा—"अपने लिये।" उन्होंने कहा—"अच्छा, खाकर आओ।" चटपट प्रसाद खाकर मैं ऊपर गया। स्वामीजी अपने कमरे के सामने उसी रास्ते पर खड़े थे। मुझे देखकर बड़े स्नेह से पूछा—"उस रोज़ तुम क्या कहनेवाले थे?" मैंने कहा—"मुझे तंत्र-मंत्र पर विश्वास नहीं।" उन्होंने पूछा—"तुम गुरुमुख हो?" मैंने कहा—"हाँ, पर तब मैं नौ साल का था।" उन्होंने कहा—"हम लोग तो श्रीरामकृष्ण को ही ईश मानते हैं।" मैंने कहा—"ऐसा तो मैं भी मानता हूँ।" उत्तर की मैंने कभी देर नहीं की, वह ठीक हो, ग़लत। पहले क्या कह गया हूँ, फिर क्या कह रहा हूँ, इसकी तरफ़ ध्यान देनेवाला सच्चा वक़्ता, लेखक, कवि या दार्शनिक नहीं—वकला की मुक्ति में गण्य नहीं, कलाकारों के ऐसे कथन का मैं सजीव उदाहरण था। स्वामीजी के भारतीय कान ऐसे न थे, जो अँगरेज़ी बाजे के विवादी स्वरों से भड़ककर उसे सङ्गीत स्वीकार ही न करते। वह भावस्थ गुरुत्व से मेरे सामने आये। मुझे ऐसा जान पड़ा, एक ठंडी छाँह में मैं डूबता जा रहा हूँ। फिर मेरे गले में अपनी उँगली से एक बीजमंत्र लिखने लगे। मैंने मन को गले के पास ले जाकर क्या लिख रहे हैं, पढ़ने की बड़ी चेष्टा की, पर कुछ मेरी समझ में न आया।

परोक्ष रीति से ध्यान-धारणा के लिये स्वामीजी मुझे कभी-कभी याद दिला देते थे, पर मुझे यह धुन थी कि अब देखना है, गलेवाला मंत्र क्या गुल खिलाता है। पूजा-पाठ जो कुछ कभी-कभी करता था, वह भी बन्द कर दिया। मुझे कुछ ही दिनों में जान पड़ने लगा, मेरा निचला हिस्सा ऊपर और ऊपरवाला नीचे हो गया है, और रामकृष्ण-मिशन के साधु मुझे खींच रहे हैं। अजीब घबराहट हुई। मैंने सोचा, इन साधुओं ने मुझ पर वशीकरण किया है। तब 'समन्वय' के कार्यकर्त्ता 'उद्वोधन' छोड़कर 'मतवाला'-ऑफ़िस में (तब 'मतवाला' न निकलता था, बालकृष्ण प्रेस था, मालिक 'मतवाला' के सम्पादक बाबू महादेव-प्रसादजी सेठ थे) किराए के कमरों में रहते थे। मैं भी उनके साथ अलग कमरे में रहता था। महादेव बाबू से मैंने कहा, ये साधु लोग मुझे जादूगर जान पड़ते हैं। महादेव बाबू गम्भीर होकर बोले, यह आपका भ्रम है। मैंने कुछ न कहा, पर मुझे भ्रम होता, तो विश्वास भी होता। एक रोज़ ऐसा हुआ कि उन्हीं साधुओं में से एक की मेरे पास आकर यही हालत हुई। यह दर्शन-शास्त्र के एम्॰ ए॰ हैं। आजकल अमेरिका में प्रचार कर रहे हैं। जब खिंचने लगे, तो बोले—"पंडितजी, क्या आप वशीकरण जानते हैं?" मैंने मन में कहा—"हूँ।" खुलकर बोला—"मैं मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन सबमें सिद्ध हूँ।"

इसके बाद एक दिन स्वप्न देखा—ज्योतिर्मय समुद्र है, श्यामा की बाँह पर मेरा मस्तक, मैं लहरों में हिल रहा हूँ।

फिर इतने चमत्कार इधर दस वर्षों में देखे कि अब बड़े-बड़े कवियों तथा दार्शनिकों की चमत्कारोक्तियाँ पढ़कर हँसी आती है। वह मंत्र भी तीन साल हुए, आग-सा चमकता हुआ कुछ दिनों तक सामने आया। उसे मैंने पढ़ लिया है।

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