Swadeshi Andolan (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand

स्वदेशी आंदोलन (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद

हिन्दुस्तान के लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्रों और पत्रिकाओं ने इस देशभक्तिपूर्ण आंदोलन का समर्थन किया है और जो पहले थोडा हिचकिचा रहे थे उनका भी अब विश्वास पक्का होता जाता है। मगर अभी अक्सर भलाई चाहने वालों की जबान से सुनने में आता है कि वह उन मुश्किलों का सामना करने के काबिल नहीं हैं जो आंदोलन के रास्ते में निश्चय ही आयेंगी। मिसाल के लिए कपड़ा जितना हिन्दुस्तान में बनता है, उसका चौगुना विलायत से आता है, तब जाकर इस देश की जरूरतें पूरी होती हैं। क्योंकर संभव है कि यह देश बिना वर्षों के निरंतर अभ्यास और जिगरतोड़ कोशिश के परदेसी कपड़ा बिल्कुल रोक दे। मिलें जितनी दरकार होंगी उसका तखमीना एक साहब ने चालीस करोड रुपया बतलाया है। हम समझते हैं यह अत्युक्ति है क्योंकि एक दूसरे पर्चे में यह तखमीना तीस ही करोड किया गया है। कौन कह सकता है कि यह देश इतनी पूंजी लगाने के लिए तैयार है। अगर यह मान लिया जाए कि पूंजी मिल जाएगी तो फिर सवाल होता है, क्या किया जाएगा। रुई जितनी यहाँ पैदा होती है, उसमें से दो हिस्से तो जापान ले लेता है और एक हिस्सा हिन्दुस्तान के हाथ लगता है। विलायत यहाँ की रुई बहुत कम खरीदता है। अगर मान लीजिए सब रुई जो इस वक्त पैदा होती है, यहीं रोक ली जाए तो भी हमारी जरूरतें ज्यादा से ज्यादा आधी पूरी होंगी। यानी एक सौ पाँच करोड गज कपड़ों के लिए हम फिर भी विलायत के मुहताज रहेंगे। यह आशा करना कि दो-चार बरस में किसान रुई की खेती को बढ़ाकर यह मुश्किल भी आसान कर देंगे, एक हद तक सपना मालूम होता है। फिर, यहाँ की रुई से महीन कपडा नहीं बुना जा सकता और हिन्दुस्तान में शरीफ़ लोग ज़्यादातर महीन कपड़े इस्तेमाल करते हैं। उनके पहनाव के ढंग में यकायक क्रांति पैदा कर देना भी कठिन है। यह चंद बातें ऐसी हैं जो अभी कुछ अर्से तक हमारे संकल्पों में विध्न डालेंगी। मगर तस्वीर का दूसरा पहलू ज्यादा रौशन है। पश्चिमी हिन्दस्तान में ज्यादातर कपड़ा देशी इस्तेमाल किया जाता है, विलायती कपड़े का खर्च बंगाल और हमारे सूबे में सबसे ज्यादा है। हम महीन कपड़ों के बहुत ज्यादा शौकीन नहीं हैं। हाँ, बंगाल वाले, क्या मर्द क्या औरत, ऐसे कपड़ों पर जान देते हैं। उनमें भी खासतौर पर वही सज्जन जो पढ़े-लिखे हैं। मगर जब यह समुदाय अपने जोश में हर तरह का बलिदान करने के लिए तैयार है, तो क्या वह महीन की जगह मोटे कपड़े न पहनेगा। कायदे की बात है, कि शहर के छोटे लोग बड़े लोगों के कपड़ों और रहन-सहन की नकल करते हैं। जब बंगाल के बड़े लोग अपना ढंग बदल देंगे तो मुमकिन नहीं कि दूसरे लोग भी वैसा ही न करें। हमारे सूबे में ढंग तंजेब और मलमल का इस्तेमाल कुछ दिनों से उठता जाता है और उसके कद्रदाँ या तो कुछ पुराने जमाने के शौकीन-मिजाज बूढ़े हैं या बाजारी बेफिकरे। हाँ शरीफों की औरतें अभी तक उन पर जान देती हैं, मगर उम्मीद है कि वह अपने मर्दों के मुकाबिले में बहुत पिछड़ी न रहेंगी। विशेषतः जब मर्दों की तरफ से इसका तकाजा होगा। इस तरह महीन कपड़े का खर्च कम हो जाएगा और जब मोटा कपडा इस्तेमाल में आएगा तो साल में बजाए चार जोड़ों के दो ही जोड़ों से काम चलेगा। अगर शहरों में विदेशी चीजों का रिवाज कम होने लगे तो देहातों में आप से आप कम हो जाएगा। हम अपने सूबे के तजुर्बे से कह सकते हैं कि यहाँ देहाती ज्यादातर जुलाहों का बुना हुआ गाढ़ा इस्तेमाल करते हैं और जाड़े में गाढ़े की दोहरी चादरें। उनको परदेसी कपड़ों की जरूरत ही नहीं महसूस होती। गो इसमें कोई शक नहीं कि कुछ दिनों से काबुलियों और मुगलों ने वहाँ जा-जाकर विदेशी चीजों का रिवाज बढ़ाना शुरू कर दिया है। यह मौका है कि पढ़े-लिखे लोग, जिनमें से अधिकतर देहाती होते हैं, जब अपने मकान को जाएँ तो अपने पड़ोसियों को भला-बुरा सुझाकर सीधे रास्ते पर ले आएँ और जब जरूरत देखें रुई की खेती को बढ़ाने के लिए कहें।

रुई के बाद चीनी या शक्कर दूसरी जिन्स है जो हम पाँच करोड रुपये सालाना की बाहर से मँगाते हैं। यह-खेद की बात है। हमारे देश के कारखाने टूटते जाते हैं मगर इसका जवाबदेह सिर्फ तालीम याफ्ता फिरका है। देहाती बेचारे तो विलायती शक्कर को हाथ भी नहीं लगाते, और बहुतों ने तो बाजार की मिठाई खाना छो़ड़ दिया। और शक्कर ऐसी जिन्स है, जिसकी पैदावार को आसानी से बढ़ाया जा सकता है। जरा भी माँग ज्यादा हो जाय तो देखिए ऊख की खेती ज्यादा होने लगती है। किसान मुँह खोले बैठे हैं। यही तो एक जिन्स है, जिससे वह अपनी जमीन का लगान अदा करते हैं। कपड़े के रोकने में चाहे कितनी ही दिक्कतें हों मगर शक्कर बन्द होना तो जरा भी कठिन नहीं। हम उन लोगों पर हँसा करते थे जो हम लोगों को विलायती शक्कर खाते देखकर मुँह बनाते थे। हमारी नजरों में वह लोग असभ्य मालूम होते थे। अब हमको तजुर्बा होता है कि वह ठीक रास्ते पर थे और हम गलती पर। विदेशी चीजों का रिवाज सभ्य लोगों का डाला हुआ है और अगर स्वदेशी आंदोलन की सफलता होगी तो उन्हीं के किए होगी।

[उर्दू साप्ताहिक पत्र, ‘आवाज-ए-खल्क’, 16 नवंबर, 1905]

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