सुमित्रानंदन पंत-पथ के साथी : महादेवी वर्मा

Sumitranandan Pant-Path Ke Sathi : Mahadevi Verma

सुभद्रा जी के उपरान्त मेरे दूसरे परिचित कविबन्धु सुमित्रानन्दन जी ही हैं; परन्तु उनसे परिचय की कथा इतनी विचित्र है कि उसके स्मरण मात्र से हँसी आती है ।

छायावाद के प्रभात का जब प्रथम आलोक-प्रहर व्यतीत हो रहा था, तब तक मैं :

'पंकज के पोंछि नैन आयो सुखदैन जानि,
अंजन पराग को समीर सीत नाये देता'

जैसी समस्यापूर्ति बड़ी तन्मयता से कर रही थी । मेरी स्थिति बहुत कुछ उस पक्षि-शावक के समान रही होगी, जिसे प्रत्येक क्षण बढ़ाने वाले अपने पंखों का स्वयं पता नहीं चलता । जब एक दिन अचानक नीड़ से झाँकते-झाँकते गिर कर वह धरती पर आने के स्थान में सर से उड़ता हुआ ऊँची डाल पर बैठ जाता है, तब उसे पहले-पहले उस परिवर्तन की अनुभूति होती है।

समस्यापूर्ति में तो मैं बचपन में ही ठोंक -पीटकर वैद्यराज बना दी गई थी । खड़ी बोली की तुकबन्दी मुझे वातावरण से अनायास प्राप्त हो गई; पर दोनों से भिन्न जो एक भाव-जगत् मेरे भीतर रेखा-रेखा करके बन रहा था, उसके प्रति तब तक न मेरी जिज्ञासा थी न बोध |

मैं लिखती हूँ, यह सम्भवतः कोई न जान पाता यदि सुभद्रा जी ने पता न लगा लिया होता और उनको पता चल जाने के उपरान्त किसी से भी छिपाना सम्भव नहीं था। उस समय प्रयाग में क्रॉस्थवेस्ट गर्ल्स कालेज का विशेष महत्त्व था । यदि किसी छात्रा को परीक्षा में उच्च स्थान मिलता, तो उसका क्रॉस्थवेस्ट की विद्यार्थिनी होना स्वाभाविक था।

यदि कोई वाद-विवाद की प्रतियोगिता में विशेष स्थान पाती, तो उसका क्रास्थवेस्ट में होना अनिवार्य था । यदि कोई कवि सम्मेलन में पुरस्कार प्राप्त करती, तो उसका भी क्रॉस्थवेस्ट से सम्बन्ध होना आवश्यक या।

संस्था के मंत्री स्व० श्री जसवन्तराय जी के निश्छल वात्सल्य से स्निग्ध और आचार्या कृष्णाबाई तुलास्कर के सात्विक पन से उज्ज्वल वातावरण ने हम सबको विशालतम परिवार का समभाव और लघुतम की देख-रेख एक साथ दे डाली थी। जिसमें जो गुण-अवगुण था, वह न उपेक्षित रह पाता था न अनदेखा । ऐसे वातावरण में जब सुभद्रा जी ने मेरी तुकबन्दी रचने की विशेषता की घोषणा कर दी, तब उनके जाने के उपरान्त कवि-सम्मेलनों में सम्मिलित होने का भार अयाचित मेरे सिर आ पड़ा। और सत्य तो यह है कि यह भार तब मुझे दुर्वह भी नहीं लगता था । मैं पढ़ने में अच्छी थी और मुझे परीक्षा में अच्छा स्थान और छात्रवृत्ति मिलती रही, पर पाठ्य पुस्तकों के प्रति मेरा घोर विराग ही रहता था ।

इण्टर तक पहुँच जाने पर भी परीक्षा के दिनों में मुझे पुस्तकों के साथ बाँध रखने के लिए आचार्या सुधालता को प्रलोभन देना पड़ता था कि तीन घंटे बैठकर पढ़ने के बाद आइसक्रीम मिलेगी । ग्रीष्म की उस दोपहर के सुनसान में मेरी दृष्टि पुस्तक के पृष्ठ और घड़ी की सुई के बीच में दौड़ लगाती रहती थी और चार के अंक पर सुई के पहुंचते ही वे मुझे पुस्तकों के बंडल के साथ अपने दरवाजे पर पातीं और तब आइसक्रीम पाने के उपरान्त मैं प्राय: उस बंडल को दूसरे दिन के लिए वहीं सुरक्षित रख आती थी ।

कभी-कभी इतने प्रयत्न से पढ़ा हुआ भी व्यर्थ हो जाता था, क्योंकि जब प्रथम-प्रश्न पत्र की तैयारी करके जाती तब द्वितीय सामने आ जाता और जब द्वितीय के लिए प्रस्तुत होती तब पता चलता तृतीय आने वाला है ।

ऐसी स्थिति में कवि-सम्मेलनों के प्रति मेरा विशेष अनुराग स्वाभाविक हो गया तो आश्चर्य नहीं । ऐसे कवि सम्मेलन का प्राय: छात्रावासों या शिक्षा संस्थाओं के तत्वावधान में किसी वयोवृद्ध कवि की अध्यक्षता में आयोजित होते थे और उनमें पूर्व निश्चित समस्याओं की पूर्तियाँ और विषयों पर रचित कविताएँ सुनाई जाती थीं । उत्तम पूर्तियाँ और रचनाओं को पदक और पुस्तकों से पुरस्कृत किया जाता था ।

हिन्दू बोर्डिंग हाउस में श्री हरिऔध जी की अध्यक्षता में आयोजित ऐसे ही एक कवि-सम्मेलन में हम लोग आहूत थे। मैंने निर्दिष्ट समस्याओं की पूर्ति भी की थी और निश्चि विषयों पर कविताएँ भी लिखी थीं ।

उस समय तक मैं कई सम्मेलनों में उपस्थित होकर कई पदक प्राप्त कर चुकी थी, अतः बहुत गम्भीर मुद्रा बनाकर कुछ सहयोगिनी छात्राओं और अध्यापिकाओं के साथ मंच के एक ओर समासीन थी। अचानक दूसरी ओर बैठे हुए छात्रों और अध्यापकों के परुषाकार समूह में कुल हलचल सी उत्पन्न करती हुई एक कोमलकान्त कृशांगी मूर्ति आविर्भूत हुई । आकण्ठ अवगुण्ठित करती हुई हल्की पीताभ-सी चादर, कंधों पर लहराते हुए कुछ सुनहले-से केश, तीखे नक्श और गौर वर्ण के समीप पहुँचा हुआ गेहुँआ रंग, सरल दृष्टि की सीमा बनाने के लिए लिखी हुई-सी भवें, खिंचे हुए-से ओंठ, कोमल पतली उँगलियों वाले सुकुमार हाथ....... यह सब देखकर मुझे ही नहीं मेरी अन्य संगिनियों को भी भ्रम होना स्वाभाविक था। पर हम सब यह देख कर विस्मित हो गये कि वह मूर्ति हमारी ओर न आकर उन्हीं के A में प्रतिष्ठित हो गयी जो उससे आकार-प्राकार में उतने ही भिन्न जान पड़ते थे जितनी क्षीण तरल जल-रेखा से विशाल कठोर पाषाण-खंड ।

आठ बजे हमें अपने छात्रावास लौट जाना था, अत: मैं अपनी कविता सुना भर सकी, सुमित्रानन्दन जी की कविता सुनने का सुयोग उस दिन मुझे मिलते-मिलते रह गया ।

उन दिनों नवीन भाव को नवीन शब्दावली में बाँधने वाली कुछ रचनाएँ श्री नन्दिनी के नाम से प्रकाशित हुई थीं । उन रचनाओं के अनेक व्यक्तियों के मन में किसी विशेष प्रतिभा सम्पन्न नवीन कवयित्री के आगमन का विश्वास उत्पन्न कर दिया था । सम्भवत: सुभद्राजी भी इस सम्बन्ध में अनजान थीं । अन्यथा मुझे इतने अधिक दिन भ्रम में न रहना पड़ता।

अन्त में कई वर्षों के बाद डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने अपने विवाह के अवसर पर मुझसे अपने कवि मित्र सुमित्रानन्दन जी का परिचय कराया तब मुझे अपने भ्रम पर इतनी हँसी आई कि मैं शिष्टाचार के प्रदर्शन के लिए भी वहाँ खड़ी न रह सकी ।

सुमित्रानन्दन जी हिमालय के पुत्र हैं पर उन्हें देखकर न उन्नत हिम शिखरों का स्मरण आता है और न ऊँचे चिर सजग प्रहरी जैसे देवदारु याद आते हैं। न सभीत करने वाले गहरे गर्त की ओर ध्यान जाता है और न उच्छृंखल गर्जन भरे निर्झर स्मृति में उदित होते हैं । वे उस प्रशान्त छोटी झील से समानता रखते हैं जो अपने चारों ओर खड़े शिखरों और देवदारुओं की गनन चुम्बी ऊँचाई को अपने हृदय में प्रतिबिम्बित कर उसे धरती के बराबर कर देती है, गहरे गर्तों को अपने जल से सम कर देती है और उच्छृंखल निर्झर के पैरों के नीचे तरल आँचल बिछाकर उसे गिरने, चोट खाने से बचा लेती है ।

उनका जन्मस्थान कौसानी मानो कूर्मांचल का सुन्दर हृदय है वहाँ हिम-श्रेणियाँ, रजत वर्णमाला में लिखे सौन्दर्य के उज्ज्वल पृष्ठ के समान खुली रहती हैं। उस कत्यूर घाटी के बीच में खड़े होकर जब हम एक ओर हिमदुकूलनी चोटियों को और दूसरी ओर चीड़-देवदारुओं की हरीतिमा से अवगुण्ठित कौसानी को देखते हैं तब हमें ऐसा जान पड़ता है मानो हिम शिखरों की उज्ज्वल रेखाओं ने कौसानी के सौन्दर्य की कथा लिखी है और कौसानी ने अपने मरकत अंचल में हिमानी का छन्द आँका है ।

ऐसे ही प्रकृति के उज्ज्वल हरित अंचल में सुमित्रानन्दन जी ने जब आँखें खोलीं तब उनकी जन्मदात्री की पलकें चिर निद्रा में मुँद चुकी थीं।

भाइयों में छोटे होने के कारण और जन्म के साथ मातृहीन हो जाने के कारण उन्हें सबसे प्यार-दुलार पाने का अधिकार मिल गया । पर पौधे के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक धरती के समान ही जीवन के स्वाभाविक विकास के लिए माता की स्थिति है । उसके अभाव में दूसरों से जो स्नेह प्राप्त होता है उसमें 'अरे बेचारा मातृहीन है' का भाव अनजाने ही घुल मिल जाता है । और यह दया-भाव दूध में काँजी के समान स्नेह का स्वाद ही दूसरा कर देता है, क्योंकि स्नेह सब कुछ सह सकता है, केवल दया का भार नहीं सह सकता। ऐसे स्नेह पर पलने वाले बालक बड़े होकर सबसे अधिक सहृदय हो सकते हैं, परन्तु सबसे अधिक अस्वाभाविकता भी उन्हीं के पल्ले पड़ती है ।

सुमित्रानन्दन जी के मन का संकोच, उनकी अन्तर्मुखी वृत्तियाँ सब उनके असाधारण बालकपन की उपज हैं।

पर्वत के एकान्त की कल्पना सहज है, पर वह एकान्त कितना मुखर हो सकता है, इसका अनुमान बिना वहाँ रहे सम्भव नहीं है । उस पर यदि व्यक्ति के मन का तुमुल कोलाहल कुछ क्षणों के लिए शान्त हो सके तो यह मुखरता अपनी शब्द-रहित भाषा में ही जीवन के गम्भीरतम रहस्य समझा देती है । हिमालय की उपत्यकाओं में जहाँ-तहाँ घरौंदे जैसे घर बना कर बसा हुआ मानव, प्रकृति की विराटता के सामने छोटा लगने लगता है । फिर वहाँ नगर के समान एक स्थान पर जन-समुद्र भी नहीं मिल सकता और जो जन हैं वे अपनी व्यस्तता में ही खो जाते हैं। बाहर के आने वाले झोंके तक उन ऊँची-ऊँची प्राचीरों से टकराते-टकराते कभी किसी कोने तक पहुँच जाते हैं और कभी टूट कर कहीं बिखर जाते हैं ।

आश्चर्य नहीं कि किशोर कवि प्रकृति के साथ ही दुकेला रहा । उसे झरनों-नदियों में लास दिखाई दिया, पक्षियों -भ्रमरों में संगीत सुनाई दिया । फलों कलियों में हँसी की अनुभूति हुई, प्रभात का सोना मिला, रात में रजतराशि प्राप्त हुई, पर कदाचित् हँसने-रोने वाला हृदय इस भूलभुलैया भरी चित्रशाला में खोया रहा। आँसू के खारे पानी में डुबाये बिना सौन्दर्य के चित्र-रंग पक्के नहीं हो सकते, पर प्रकृति के पास सौन्दर्य है, आँसू नहीं।

सुमित्रानन्दन जी को स्वभाव और शरीर में असाधारण कोमलता मिली है, परन्तु उसमें प्रकृति के क्षतिपूर्ति सम्बन्धी नियम का अभाव नहीं है।

स्वभाव को जीवन के अनेक चढ़ाव उतारों और सम-विषम परिस्थितियों से संघर्ष करना पड़ा है और शरीर को न जाने कितने रोगों से जूझना पड़ा है। पर जिस नियम से आज के वैज्ञानिक ने मकड़ी के कोमल झीने तन्तु में न टूटने वाली दृढ़ता का पता लगा लिया है उसी नियम के अनुसार सुमित्रानन्दन जी के सुकुमार शरीर और कोमल प्रकृति ने सब अग्नि परीक्षाएँ पार कर ली हैं। पर यदि परीक्षा के अन्त में परीक्षित वस्तु कुछ और बन जावे तो फिर उसका मूल्यांकन भी बदल जाता है। सुवर्ण परीक्षित होकर अधिक दीप्तमय सुवर्ण ही रहे तभी उसकी परीक्षा उसे अधिक महार्घता दे सकती है । सुमित्रानन्दन जी का स्वभाव आज भी कोमल है और शरीर आज भी सुकुमार है । अनुभवों ने इस कोमलता और सुकुमारता पर एक आर्द्रता का पानी ही फेरा है ।

जिस प्रकार आकाश की ऊँचाई से गिरने वाला जल किशलयों और फूलों पर स्वच्छता के अतिरिक्त और कोई चिह्न नहीं छोड़ता उसी प्रकार संघर्षों ने उनके जीवन पर अपनी रुक्षता और कठोरता का इतिहास नहीं लिखा है।

जब वे तीसरी कक्षा के बाल विद्यार्थी थे, तभी उन्हें अपने गोसाईंदत्त नाम की कवित्वहीनता अखरने लगी । सुमित्रानन्दन जैसा श्रुति-मधुर नाम अपने लिए खोज लेने वाली उनकी असाधारण बुद्धि ने जीवन और साहित्य के अनेक क्षेत्रों में अपनी सृजनशीलता का परिचय दिया है। वेश-भूषा, रहन-सहन से लेकर सूक्ष्म-भाव और चिन्तन तक सब कुछ उनके स्पर्श मात्र से असाधारणता पाता रहा है।

जीवन में प्रत्यक्ष पार्थिव से अव्यक्त सूक्ष्म तक ऐसा कुछ नहीं है जिसकी उपेक्षा से मनुष्य को सार-तत्त्व प्राप्त हो सके, इस सिद्धान्त को जितनी पूर्ण कसौटी सुमित्रानन्दन जी के जीवन में मिली है, उतनी अन्यत्र नहीं ।

बदलती हुई सम-विषम परिस्थितियों में उन्हें नूतन सृजन की संभावनाएँ इस प्रकार संचालित करती हैं कि वे संघर्ष को भूल जाते हैं ।

कॉलेज छोड़ने के किसी पूर्व निश्चय के बिना ही वे महात्मा गाँधी की सभा में पहुँच गए। और यदि भाई देवीदत्त जी की सूचना पर विश्वास किया जाय तो मानना होगा कि उन्होंने ही पीछे से इनी कुहनी थाम कर इनका हाथ ऊँचा कर दिया । पर इन्हें वह परिवर्तन भी आमन्त्रण भरा लगा जिसमें नौकरी -चाकरी, ऊँचे पद आदि की कोई रेखा नहीं थी, केवल एक शून्य पट पर लेखनी अंकित थी।

आर्थिक दृष्टि से सम्पन्नता को ऊँची सीढ़ी से विपन्नता की अन्तिम सीढ़ी तक तो उन्होंने अनेक चढ़ाव उतार देखे हैं। जिस अल्मोड़े में उनके कई मकान थे, वहीं किराये की छोटी काटेज में रहते हुए भी न उनकी हँसी मलिन हुई और न अभिमान आहत हुआ। वे किसी वीतराग दार्शनिक की तटस्थता की साधना नहीं कर रहे थे, वरन् उनकी स्थिति उस बालक से समानता रखती थी जो अपने घरौंदे के बनाने में जितना आनन्द पाता है मिटाने में उससे कम नहीं। परिवार का ढाँचा टूट गया था । साहित्य से कोई विशेष आय नहीं थी । इन्हीं परिस्थितियों में वे कई वर्ष कालाकाँकर में रहे । उनके क्षेत्र -संन्यास का अर्थ समझने के लिए जाकर मैंने उन्हें जिस उत्साह भरी स्थिति में पाया उसने मेरे प्रश्न को उत्तर बना दिया। टीले पर बनी अपनी उस कुटी का नक्षत्र नाम रखकर वे किसी नवीन सृजन की दिशा का अनुसन्धान करने में लगे हुए थे ।

ग्रामीणों के कुतूहल और नागरिकों की हँसी सहकर भी अपने जिन केशों में हर घुमाव पर उनका ध्यान रहता था, एक दिन उन्हीं को काट फेंकना भी उनके लिए सहज हो गया । लम्बी अलकों को काट-छाँटकर हाफपैंट और कमीज में प्रसाधित, छड़ी की मूठ उँगलियों में दबाये जब वे मेरे यहाँ पहुँचे तब मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि उन्हें कोई नया क्षितिज मिल गया है ।

ग्राम्या, युगवाणी आदि में उन्होंने अपनी सद्यः प्राप्त यथार्थ -भूमि की सम्भावनाओं को स्वर -चित्रित करने का प्रयत्न किया है ।

आज फिर वे अपने लम्बे गंगा-यमुनी केशों को लहराते हुए चिर-परिचित कवि-रूप में उपस्थित हैं। इसका अर्थ है कि उनकी अनन्त सृजन सम्भावनाओं का कोई त्योहार निकट है।

उनके लक्ष्य-खोजी मन के निरन्तर शर-सन्धान से उनका सुकुमार शरीर थक जाता हो तो आश्चर्य नहीं। लम्बी अस्वस्थताएँ इसी ओर संकेत करती हैं । एक बार वे क्षय के सन्देह में बहुत दिनों तक स्व० डॉ० नीलाम्बर जोशी के पास भरतपुर में रहे। कई बार टाइफाइड से पीड़ित होकर जीवन मृत्यु की सन्धि में पड़े रहे । पर उनके मन और शरीर दोनों ने अपनी-अपनी सीमा में जिस इस्पाती तत्त्व का परिचय दिय है वह पराजय नहीं मानता ।

व्यवहार में वे अत्यन्त शिष्ट, मधुरभाषी और विनोदी हैं । उनकी कोई बात किसी को किसी तरह की चोट न पहुँचा दे, इसका वे इतना ध्यान रखते हैं कि श्रोता सचमुच चोट की कल्पना करने लगे तो अस्वाभाविक न कहा जायेगा।

कवि पुत्र, परिवार का सबसे बेकार अंग माना जाता है । सुमित्रानन्दन जी ने कमाऊ सपूत बनकर सबके ललाट का लाञ्छन धो डाला है ।

परिग्रह की दृष्टि से वे चिरकुमार सभा के आजीवन अध्यक्ष हो सकते हैं। आरम्भ में उनकी गृहस्थी के लिए परिस्थितियाँ बाधक रहीं और जब परिस्थितियों ने, अनुकूलता दिखाई तब उनकी मानसिक सन्ततियों की अनन्ता ने उनका मार्ग रोक दिया। अच्छा है। कि.........

घने लहरे रेशम के बाल
धरा है सिर पर मैंने देवि
तुम्हारा यह स्वर्गिक उपहारा

कहकर उन्होंने अपनी भावी गृहिणी को मुक्ति दी। इस उदारता के लिए उन्हें, उस अलक्ष्य गृहिणी की ओर से सब महिलाओं को साधुवाद देना उचित है । जिसके पारे जैसे मन का साथ शरीर भी नहीं दे पाता उसके पीछे बेचारी गृहिणी कैसे दौड़ पाती। ऐसे चिर सृजनशील कलाकार चिरकुमार देवर्षि नारद की कोटि के होते हैं, जिनकी गृहस्थी बसने के क्षण में स्वयं भगवान तक बाधक बन बैठे थे।

आधुनिक युग साहित्यकार की चरम शक्ति -परीक्षा का काल रहा है। संघर्ष की इस झंझा ने विशाल जहाजों को तट पर ही पछाड़ कर तोड़ डाला; ऊँचे-ऊँचे शाल वृक्षों को झकझोर कर धरासात् कर दिया।

हममें से जो सबसे कोमल सुकुमार साथी था उसके लिए सबकी चिन्ता स्वाभाविक ही कही जाएगी । पर आँधी के थमने पर हमने देखा कि लचीले बेत के समान झुक कर उन्होंने तूफान को अपने ऊपर से बह जाने दिया है और अब वे नये प्रभात के अभिनन्दन के लिए उन्मुख खड़े हैं।

सुमित्रानन्दन जी की हँसी पर श्रम बिन्दुओं का बादल नहीं घिरा हुआ है, वरन् श्रम-बिन्दुओं के बादल के दोनों छोरों को जोड़ता हुआ उनकी हँसी का इन्द्रधनुष उदय हुआ है।

('पथ के साथी' में से)

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