सुलगती टहनी (यात्रावृत्त) : निर्मल वर्मा कहानी
Sulgati Tehni : (Travelogue) Nirmal Verma
प्रयाग : 1976
मुँह अँधेरे सीटी सुनाई देती है-घनी नींद में सुराख बनाती हुई-एक क्षण पता नहीं चलता, मैं कहाँ हूँ, किस जगह हूँ, कौन-सा समय है? आँखें खुलती हैं, तो ढेस-सा अँधेरा गटगट पीने लगती हैं, जैसे मुँह की प्यास आँखें बुझा रही हैं। याद आता है मेरे नीचे मेरा स्लीपिंग बैग है, मेरी यात्राओं और यातनाओं को ढोता हुआ। मैं जाग गया हूँ-लेकिन मेरी समूची देह गरमाई के घेरे में सो रही है।
कुछ देर बाद आँखें अँधेरे में टोहती हुई एक-एक चीज पर ठहर जाती हैं-किताब, तिपाई, लालटेन, फूस का अधखुला दरवाजा, हवा में सरसराती छत। बाहर एक फुसफुसाता हुआ शोर है-रेंगती हुई आवाजों का रेला-जैसे हजारों पैर रेत को थपथपाते हुए चल रहे हैं। मैं हड़बड़ाकर अपना स्लीपिंग बैग समेटता हूँ। हाथों में रेत, मिट्टी फूस के पत्तों को ठेलता हुआ दरवाजा खोलता हूँ, तो ठिठका-सा रह जाता हूँ।
चाँद दिखाई देता है। पूर्णिमा का पूरा चाँद, इलाहाबाद के किले पर ऊँघता हुआ। पिछली रात उसे गंगा के भीतर देखा था-एक सफेद भुतैली परछाई, एक झिलमिला-सा स्वप्न-अब समूची रात की यात्रा में थका हुआ वह किले के माथे पर चिपका था, एक गोल, सफेद, मुरझाई बिंदी-जिसे सिर्फ एक अँगुली से पोंछा जा सकता था।
''आप जाग गए?''
सच्चे महाराज का चौकीदार मुझे देखकर कुछ हैरान-सा हो जाता है। दरअसल जब से मैं आया हूँ, वह मुझ पर हैरान है। वह उन्नीस-बीस वर्ष का युवक, जो शायद बचपन में ही आश्रम में बस गया था। मैं जहाँ कहीं भी होता हूँ, वह अपनी फैली फटी-फटी आँखों से मुझे निहारता है-मैं क्या हूँ, यह वह नहीं समझ पाता-न मैं तीर्थयात्री लगता हूँ, न कल्पवासी-मैं उसे आधा हिप्पी, आधा जिप्सी-सा दिखाई देता हूँगा-जो अपने पाप-पुण्यों को एक डफल बैग में समेटकर कुंभ मेले में भटकता है।
''आप भी संगम जाएँगे?''
उसने संदेह से मेरी ओर देखा।
''हाँ-इसीलिए आया हूँ'', मैंने कहा। ''यह सीटी कौन बजा रहा है?''
''पुलिस'', उसने कहा। ''यात्रियों को रास्ता दिखाना पड़ता है-बेचारे अँधेरे में भटक जाते हैं।''
दबी ठिठुरती आवाजें, भजन की कुछ पंक्तियाँ ठंडी रेत और भूरी चाँदनी पर उठती हैं, किसी बूढ़े स्नानार्थी का काँपता स्वर हवा में बहुत दूर तक रिरियाता रहता है। मैं पंप को ढूँढ़ता हुआ आश्रम का चक्कर लगाता हूँ। लगता है सब सो रहे हैं। हवा में खाली झोपड़ों के दरवाजे सरसराते हैं, खुलते हैं, बंद हो जाते हैं। सब कुटियों से अलग सच्चे महाराज की यज्ञशाला दिखाई देती है-पीले फूल के मंडप, एक छत पर दूसरी छत-जैसे कोई जापानी पैगोडा चाँदनी में चमक रहा हो।
मैं, इस मेले में खाली होकर आया था। सब कुछ पीछे छोड़ आया था-तर्कबुद्धि, ज्ञान, कला, जीवन का एस्थेटिक सौंदर्य। मैं अपना दुख और गुस्सा और शर्म और पछतावा और लांछना-प्रेम और लगाव-और स्मृतियाँ भी छोड़ आया था। मैं बिलकुल खाली होकर आया था-खाली और चुप-क्योंकि शब्द बहुत पहले किसी काम के नहीं रहे थे। चुप और अदृश्य। मैं अथाह भीड़ में अपने का अदृश्य पाना चाहता था।
कैंप के बाहर आया तो असंख्य छायाएँ दिखाई दीं। बीच सड़क पर रेंगता हुआ प्रेतों का जुलूस। एक साल बाद मैं किसी जुलूस में निडर शामिल हुआ था। यहाँ कोई डर नहीं, कोई अफवाह नहीं, कोई झूठ नहीं। छायाओं से डर कैसा? प्रेतों के बीच मैं एक प्रेत था। न मैं उनसे डरता था न वे मुझसे। सुबह का अँधेरा-जिसमें किसी का चेहरा नहीं दिखाई देता था। कहते हैं यह अँधेरा सबसे निविड़, सबसे गहरा, सबसे ज्यादा रहस्यमय होता है। डूबते चाँद की एक पतली, पीली परत झर रही थी-रेत के ढूहों पर, अखाड़ों की पताकाओं पर, फूस के झोंपड़ों पर। पीछे बाँध की बत्तियाँ, सामने झूसी का मैदान-दोनों के बीच देवता हवा में उड़ते हुए जैसे वह जगह, वह बिंदु, वह कोना ढूँढ़ रहे हों, जहाँ अमृत घट को छिपा सकें। क्या वे अपने को असुरों की आँखों से बचा पाएँगे?
शायद यही ख़याल मेरे सहयात्रियों को मथ रहा है-वे कभी इधर देखते हैं कभी उधर। सीधी सड़क गंगा की ओर जाती है, दाईं पगडंडीनुमा रेखा संगम की ओर। उनके शब्द, गाते हुए भजनों के कुछ पद, उनकी थकी हुई आहें, उच्छ्वास, छिटपुट बातें कानों में पड़ जाती हैं। लगता है अँधेरे में मैं उनका चेहरा-मोहरा, वेश-भूषा न भी देख सकूँ तो भी सिर्फ शब्दों के उच्चारण, बातचीत के लहजे से पता चला सकता हूँ कि कौन मध्यप्रदेश से आया है, कौन बिहार से, कौन राजस्थान से। किंतु ऐसे भी शब्द हैं जिन्हें मैं बिलकुल नहीं समझ पाता, जो अँधेरे से निकलकर अँधेरे में लोप हो जाते हैं-अपने पीछे खामोशी का एक दायरा छोड़ जाते हैं। मेरा संबंध इस खामोशी से रहा है-चेहरों के पीछे कविता की लाइनों के बीच, अपने भीतर और अब-कुंभ के मैदान में।
अब मैं देख सकता हूँ-अचानक उजाले में! पूर्व में एक छोटा-सा लाल पिंड, एक सुर्ख आँख-सा डिस्क। उसे देखकर मैं उसी तरह चौंक जाता हूँ जैसे पहली बार बाइबिल में यह वाक्य पढ़कर रोमांचित हो उठा था-लेट देयर बि लाइट एण्ड देयर वॉज लाइट। मैंने कभी ऐसा आलोक नहीं देखा-और तब मुझे सहसा महसूस हुआ कि यह आज का दैनिक उजाला नहीं, कोई प्रागैतिहासिक आलोक है, जब दुनिया पहली बार अँधेरे से बाहर आई थी। मेले का मैदान एक घोंसले-सा धूप में औंधा पड़ा है-दूर गंगा को छूता हुआ। पीली सफेद बालू का द्वीप, जिसे गंगा एक कैंची की तरह काटकर आगे बढ़ गयी है-जैसे जमुना की मंथर गति से ऊबकर स्वयं बेचैनी में आगे बढ़कर छोटी बहिन से मिल रही है।
मेरे सहयात्रियों को अब चैन कहाँ? गिरते-पड़ते भाग रहे हैं-एक बंगाली लड़की अपनी बूढ़ी माँ के साथ घिसटती हुई, दोनों हाथों से उसे घसीटती हुई चल रही है-बगल में एक पोटली, हाथ में लोटा, आँखें सूरज और संगम के बीच उठी हुईं। बूढ़ी माँ की धोती बार-बार घुटनों तक उठ आती है, काली सींक-सी टाँगें थरथराती हुई आगे बढ़ती हैं-रेत पर धैंसते पैर ऊपर उठते हैं, नीचे गिरते हैं।
मैं वहीं बैठ जाना चाहता था, भीगी काली रेत पर, असंख्य पदचिह्नों के बीच अपनी भाग्यरेखा को बाँधता हुआ। पर यह असंभव था। मेरे आगे-पीछे अंतहीन यात्रियों की कतार थी-शताब्दियों से चलती हुई, थकी, उद्भ्रांत, मलिन-फिर भी सतत प्रवहमान। पता नहीं वे कहाँ जा रहे हैं, किस दिशा में, किस दिशा को खोज रहे हैं, एक शती से दूसरी शती की सीढि़याँ चढ़ते हुए? कहाँ है वह कुंभ-घटक जिसे देवताओं ने यहीं कहीं बालू के भीतर दबाकर रखा था? न जाने कैसा स्वाद होगा उस सत्य का-अमृत की कुछ तलछटी बूँदों का, जिसकी तलाश में यह लंबी यातनाभरी, धूल-धूसारित यात्रा शुरू हुई है-हजारों वर्षों की लांग मार्च, तीर्थ अभियान, सूखे कंठ की अपार तृष्णा-जिसे इतिहासकार 'भारतीय संस्कृति' कहते हैं?
मुझे नहीं मालूम। मैं सोचता नहीं-सिर्फ घिसटता जाता हूँ, धक्के खाता, गिरता-पड़ता, एक-एक इंच आगे सरकता हुआ। गंगा मेरे साथ बह रही है, मटियाली, पीली, अपनी तेज धार से खुद अपने टापू को काटती हुई। उसके सामने जमुना कितनी शांत दिखाई देती है-एक नीली झील की तरह निस्पंद, मूक, गंभीर-जैसे उसे मालूम हो कि अब उसकी यात्रा का अंत आ पहुँचा है-अब कोई भी छटपटाहट बेमानी है-अब गंगा की गोद में अपनी समूची थकान को डूबी देना है।
नहान पर्व की घड़ी-मोमबत्ती-सा जलता सूरज, जनवरी की सफेद धुंध पर पिघलता हुआ। अनेक प्रार्थनाओं से जुड़ा शोर-जो शोर नहीं है, न आवाज है, न कोलाहल-सिर्फ मनुष्य का अपनी आत्मा से एकालाप, जिसे सिर्फ बहता पानी सुन सकता है। यह पानी इस आवाजों को अपनी धड़कन में पिरोता हुआ किस विराट मौन सागर में लय हो जाएगा, कोई नहीं जानता। दोनों धाराओं के बीच एक-एक काली रेखा दिखाई देती है। मैं समझता हूँ यह कोई दीवार है, संगम के बीच हिलती, धुलती, बदलती लाइन। लोग आते हैं, लाइन में डुबकी लगाते हैं और फिर अपनी जगह दूसरों को दे देते हैं-और वह नर-सेतु ज्यों-का-त्यों कायम रहता है। हर क्षण बदलता हुआ, किंतु अपनी संपूर्णता में स्थिर और गतिहीन।
अब एक भी कदम उठाना असंभव है। यहाँ भीड़ इतनी घनी है कि स्त्री-पुरूष गंगा की मटियाली धार में ही नहाने लगे हैं-संगम से दो गज इधर या उधर, क्या फर्क पड़ता है। पुलिस के सिपाही लाइन बनाकर खड़े हैं-तटस्थ, शांत, ध्यानावस्थित। मैंने भारतीय पुलिस को इतना शांत कम ही देखा है, इसलिए उत्सुकता से उनकी आँखों का अनुकरण करता हूँ और पाता हूँ कि समूची बटेलियन अटेंशन की मुद्रा में नहाती हुई औरतों को देख रही है-रात-भर के जगे सिपाहियों को सुबह का यह दृश्य जरूर एक स्वप्न-सा जान पड़ता होगा।
तभी एक धक्का लगता है। एक पच्चीस-तीस वर्ष का युवक भीड़ को चीरता हुआ पुलिस-इंस्पेक्टर के पास आ खड़ा हुआ है, गिड़गिड़ाते स्वर में कुछ कह रहा है। हुआ पुलिस-इंस्पेक्टर के पास आ खड़ा हुआ है, गिड़गिड़ाते स्वर में कुछ कह रहा है।
''यहाँ साइकिल पर?'' इंस्पेक्टर साहब आश्चर्य से युवक को देखते हैं। ''आपको मालूम नहीं, यहाँ कोई भी वाहन नहीं आ सकता।''
''जी, मेरी बात तो सुनिए।''
उसकी बात सुनी तो पता चला कि उसके अस्सी बरस के बाबा सैकड़ों मील की दूरी से प्रयाग तो चले आए हैं, किंतु अपनी झोंपड़ी से संगम पैदल चलकर नहीं आ सकते। क्या वह उन्हें साइकिल पर बिठाकर नहीं ला सकता?
इंस्पेक्टर थोड़ा नर्म पड़ते हैं। ''अच्छा, ले आइए-लेकिन देखिए-उन्हें आपको अलग नहलाना होगा, साइकिल समेत नहीं।'' दस मिनट बाद उन्हें दुबारा देखता हूँ-वह एक पुरानी, जर्जरित साइकिल को घसीटता आ रहा है, पहिये बार-बार गीली रेत में रपट जाते हैं-वह घबराकर इधर-उधर देखता जाता है कि कोई दूसरा सिपाही उसे न रोक ले। किंतु पीछे कैरियर पर बैठा यात्री बिलकुल अटल और निश्चित है-आँखें मुँदी हुई, मुँह खुला हुआ, ठुड्डी पर थूक की लार बह रही है, नीचे लटकते पैर रेत पर रगड़ते जा रहे हैं, जिसका उन्हें कोई ध्यान नहीं। पूरी एक जि़ंदगी साइकिल पर घिसट रही है। उन्होंने अपना सिर सीट पर रखी मैली पोटली पर टिका रखा है। साइकिल की चरमराहट में पता नहीं चलता कि ढीले कल-पुरजों की आवाज कितनी है, बूढ़ी हड्डियों की खटखटाहट कितनी। हर टूटी हुई साँस उन्हें अपनी यात्रा के अंत की ओर ठेलती जा रही है।
कैसा अंत? क्या कोई ऐसी जगह है जिसे हम अंत कहकर छुट्टी पा सकें? जिस जगह एक नदी दूसरी में समर्पित हो जाए और दूसरी अविरल रूप से बहती रहे, वहाँ अंत कैसा? हिंदू-मानस में कोई ऐसा बिंदु नहीं जिस पर अँगुली रखकर हम कह सकें, यह शुरू है, यह अंत है। यहाँ कोई आखिरी पड़ाव, 'जजमेंट डे' नहीं, जो समय को इतिहास के खंडों में बाँटता है। नहीं, अंत नहीं है और मरता कोई नहीं, सब समाहित हो जाते हैं, घुल जाते हैं, मिल जाते हैं।जिस मानस में व्यक्ति की अलग सत्ता नहीं, वहाँ अकेली मृत्यु का डर कैसा? मुझे रामकृष्ण परमहंस की बात याद हो आती है, ''नदियाँ बहती हैं, क्योंकि उनके जनक पहाड़ अटल रहेते हैं।'' शायद इसीलिए इस संस्कृति ने अपने तीर्थस्थान पहाड़ों और नदियों में खोज निकाले थे-शाश्वत अटल और शाश्वत प्रवाहमान-मैं एक के साथ खड़ा हूँ, दूसरे के साथ बहता हूँ।
वे जा रहे हैं-गंगा-तट सूना पड़ता जा रहा है। विधवाएँ, मरणासन्न बूढ़े, वह बंगाली लड़की जिसे सुबह के अँधेरे में देखा था। वे लौट रहे हैं। सबके हाथों में गीली धोतियाँ, तौलिए हैं, गगरियों और लोटों में गंगाजल भरा है। मैं इन्हें फिर कभी नहीं देखूँगा। कुछ दिनों में वे सब हिंदुस्तान के सुदूर कोनों में खो जाएँगे। लेकिन एक दिन हम फिर मिलेंगे-मृत्यु की घड़ी में आज का गंगाजल-उसकी कुछ बूँदें-उनके चेहरों पर छिड़की जाएँगी। आँख खुलेगी। संभव है आज की सुबह बरसों बाद स्मृति पर अटक जाए-फूस के छप्पर, इलाहाबाद का किला, मेले पर उड़ती धूल-क्या याद आएगा? एक बूँद में कितनी स्मृतियाँ गले के भीतर ढरती जाएँगी। अंगूर का रस जिस तरह फर्मेंट होकर शराब बन जाता है उसी तरह आज का यह पानी अरसे बाद अमृत बनेगा-हजारों स्मृतियों की धूप में पका हुआ, लेकिन अभी नहीं, अभी यह मैला पानी है जिसमें नाइपाल जैसे लेखक केवल मैल और गंदगी देखते हैं। जो आदमी बाहर से देखता है वह सिर्फ ऊपरी सतह देख पाता है, लेकिन ऊपर की सतह नीचे के मर्म से जुड़ी है-हम यदि कैंची से किसी अंधविश्वास को काटेंगे तो उसके साथ सच्चे विश्वास का मर्म भी उघड़ आएगा। किसी भी संस्कृति की धूल उसकी आत्मा से जुड़ी होती है-एक को हटाते ही खुद उसके मर्म का एक हिस्सा बाहर निकल आाता है... खून और मांस के लिथड़ा हुआ-ड्राइक्लीनर की उस चेतावनी की तरह जिसमें कहा जाता है कि कुछ धब्बे नहीं धोए जा सकते, क्योंकि उन्हें धोने से कपड़ा भी फट जाएगा। हम पायँचे उठाकर किसी संस्कृति के कीचड़ से क्यों न बच निकलें, दुर्भाग्यवश उसके सत्य से भी अछूते रह जाएँगे।
पर मैं कहाँ अलग हूँ। घंटों से हजारों यात्रियों को गाता, नहाता, प्रार्थना करता देख रहा हूँ-किंतु मेरे भीतर कोई बिलकुल निस्संग और चुप है। मैं उनमें नहीं हूँ जो कीचड़ से भागते हैं, तो उनमें भी नहीं हूँ जो आसपास उसे देखते नहीं, उसमें रसे-बसे हैं। यह कौन-सी वर्जना है जो हर बार मुझे अंतिम मौके पर पकड़ लेती है, अपने अकेलेपन की ओर खींचने लगती है? मेरा रिश्ता अपनी संस्कृति से व़ैसा ही है जैसा किसी व्यक्ति का यातनापूर्ण प्रेम में दूसरे से होता है-चाहना और निराशा से भरा हुआ-निराशा जो धीरे-धीरे एक उदासीन, सुन्न किस्म की वितृष्णा में बदल जाती है। इससे छुटकारा पाने के लिए ही मैं यहाँ चला आया हूँ-जैसे दूसरों को देखने से ही अपने को पा जाऊँगा, एक दर्शक, संवाददाता, कुंभ के मैदान में भटकता हुआ एक रिपोर्टर।
''कहाँ से आए हैं बाबा?''
''घूमता रहता हूँ। यहाँ मरने आया हूँ।''
वह निस्पंद आँखों से गंगा को देख रहे हैं। बार-बार उनकी देह खाँसी के दौरे में छटपटाती है।
''क्या बहुत कष्ट है बाबा?''
''कष्ट झेलना चाहिए... मेरा कैसा कष्ट?'' वह मेरी ओर देखते हैं-आँखों पर मैला-सा पानी तिर आता है। ''वह कहानी नहीं सुनी-जब एक महात्मा के फोड़ा निकल आया। रात भर दर्द में कराहते रहे। दूसरे दिन अपने शिष्य को भिक्षा के लिए भेजा। बेचारा भोला लड़का शहर में आया तो एक युवती दिखाई दी। वह पहले से ही उसकी प्रतीक्षा में खड़ी थी। मुस्कुराते हुए उसे भिक्षा दी। शिष्य स्तंभित था। भागता हुआ जंगल आया-अपने गुरू से बोला-महात्माजी, आपके शरीर में एक फोड़ा निकला और आप रात भर दर्द से चीखते रहे। आपसे ज्ञानवान तो वह लड़की है, जिसकी छाती पर मैंने दो फोड़े देखे-फिर भी वह मुस्कुरा रही थी।''
डंडी महात्मा हँस रहे हैं-खुला मुँह एक खोह की तरह खुला है, जिसके भीतर से एक वीभत्स-सी गों-गों बाहर आती है। वह हँसते हुए खाँस रहे हैं, खाँसते हुए रेत पर लोट रहे हैं-उनका नंगा शरीर एक काले मांस के लोथ की तरह ऐंठ रहा है-भग्न, टूटा, अस्थिपिंजर, जिसे किसी भी क्षण मृत्यु अपनी चोंच में दबाकर उड़ सकती है।
मैं आतंकित-सा होकर चारों तरफ देखता हूँ। मृत्यु? मैंने उसे पास से देखा है, दुपहर की तितीरी धूप में-रेत पर हाँफते हुए; कितने लोग यहाँ आखिरी क्षण में साँस तोड़ने आते हैं। आकाश में उड़ती हुई चीलें उन्हें निहारती हैं-एक मांसल झपट्टे में सब कुछ ले जाने को आतुर-प्रेम, चाहना, रात के चुंबन, एक आकांक्षा-अपनी सजीव, विराट, मांसल तृष्णा में प्रेम और मृत्यु कितने पास-पास सरक आते हैं।
मेले की पताकाओं से दूर-पुल के पार, छोटे-छोटे आलों-सी झोंपड़ियाँ खड़ी हैं। यहाँ कोई जल्दी नहीं, कोई हड़बड़ाहट नहीं। ये कल्पवासियों और तीर्थयात्रियों के झोंपड़े हैं-पूरी गृहस्थी में लदे हुए। बाँसों पर गीले कपड़े हवा में फरफराते हैं। ये लोग महीना भर संगम के पास अपनी दुनिया बसाने आए हैं-मकर संक्रांति, अमावस्या की अँधेरी रात, रात और दिन यहीं सोएँगे। जागेंगे। नहीं, इन्हें मेरी तरह कोई जल्दी नहीं-जो एक किनारे से दूसरे किनारे भागता है। वे उन लुटे-पिटे लोगों में नहीं हैं जो एक साल की जमा-पूँजी संगम की एक डुबकी में बहाकर घर लौट आते हैं। ये ज्ञानी, अनुभवी, गृहस्थ लोग हैं- मेरे अनेक मित्रों की तरह-जो दोनों दुनियाओं में एक साथ रहते हैं-अपना सुख इस दुनिया में प्रसाद की तरह लाते हैं-गंगा उसका एक अंश लेकर बाकी उन्हें लौटा देती है, जिसे वे दुबारा अपनी-अपनी पोटली में दबाकर लौट जाएँगे-कलकत्ता और दिल्ली और लखनऊ के घरों में। मैं उनसे ईर्ष्या करता हूँ, किंतु उनके पास नहीं जाता। मैं कोई भी हूँ, उनमें नहीं हूँ...
मैं मुड़ जाता हूँ। झूँसी और गंगाद्वीप के बीच पंटून पुलों पर धूल उड़ रही है। दुपहर की इस घड़ी में सब कुछ वीरान दीखता है-अखाड़ों के प्रवेश-द्वार खाली पड़े हैं। दरवाजों के ऊपर रंग-बिरंगे फेस्टून चमकते हैं-उदासी, निरंजनी, वैरागी-वे एक विराट प्रदर्शनी की दुकानें-सी दिखाई देती हैं-जैसे जनपथ पर कोई सरकारी नुमाइश चल रही हो। मैं प्रयाग में दिल्ली ढूँढ़ने नहीं आया-जहाँ कहीं अखाड़े दिखाई देते हैं, मुझे राजनीति का दु:स्वप्न घेर लेता है। एक सस्ता, व्यावसायिक स्वप्न, जिसे नारों में बेचा जाता है, धमकियों से खरीदा जाता है। मैं जिससे बचने यहाँ आया हूँ उस फंदे में दुबारा फँसना नहीं चाहता। मैं अपने साथ दु:स्वप्नों की एक पूरी गठरी उठाकर लाया हूँ-रात के पसीने में लथपथ डर, आशंकाएँ, महत्वाकांक्षाएँ। मैं कोई ऐसी जगह ढूँढ रहा हूँ जहाँ सबकी आँख बचाकर इस पोटली को रख सकूँ... छिपा सकूँ, मुक्त हो सकूँ।
कैसी मुक्ति? पीछे कोई हँसता है और मेरे पैर अनायास ठिठक जाते हैं।एक अजीब-सी कड़वी गंध हवा में उड़ रही है। सामने एक शिविर दिखाई देता है-राख और धुएँ में लिपटा हुआ। जलती हुई लकड़ियों पर धुँधली छायाएँ बैठी हैं-राख में लिपटी हुई, कृशकाय, उन तख्तों की तरह सख्त और सूखी जो धुएँ के भीतर सुलग रहे हैं।
शिविर के भीतर-छप्पर के नीचे कीर्तन की एक मंडली है। चालीस-पचास लोग, जो अभी-अभी नहाकर आए हैं, थकी, क्लांत धुन में गा रहे हैं। सामने सिंहासन पर एक भव्य स्थूलकाय स्वामी बैठे हैं-साफ चमकते जोगिया चोगे में लिपटे हुए। वह एक पद गाते हैं-उनके पीछे मंडली का समवेत स्वर दुहराता है-औरतों की महीन आवाज सबसे ऊपर है-एक उदास, संतप्त स्वर जो मुझे आरपार भेद जाता है। कौन हैं ये लोग, यह स्वामी, बाहर बैठे, धूनी रमाए नंगे साधु? एक सुंदर युवा संन्यासी पास से गुजरते हैं तो मैं उन्हें रोक लेता हूँ, एक साँस में जब जिज्ञासाएँ उँड़ेल देता हूँ। वह एक क्षण नीरव आँखों से मुझे देखते हैं और फिर मेरा हाथ पकड़कर सिंहासन के सामने ले जाते हैं, स्वामीजी के कानों में कुछ फुसफुसाते हैं और तब सहसा स्वामीजी गाना बंद कर देते हैं। मेरे गालों को सहलाते हैं। फूलों के बीच एक अमरूद-मैला, जरूरत से ज्यादा पका अमरूद उठाकर मुझे दे देते हैं।
मैं बाहर आ जाता हूँ। कीर्तन फिर शुरू हो गया है-वही थकी, क्लांत, बुझी-बुझी आवाज एक पद से दूसरे पद बह रही है। अजीब-सी निराशा घिर आती है-थकान और जलन और मरने की अदम्य आकांक्षा। दूर रेत पर गंगा की सफेद धारा चमकती है। दुपहर की गर्म, किरकिरी उच्छ्वास ढूहों पर उठती है और मैं सोता-सा बाहर आ जाता हूँ-बाहर, जहाँ वे हैं-चौकड़ी लगाए भस्मावृत पिंजर-नंगे, हड्डियों के ठूँठ, चमकती सुर्ख आँखें। चरस और गाँजे की तीखी गंध साँप की तरह डोलती है-उठती है-फूत्कारती हुई मेरी देह को भेद जाती है, 'बैठो, इन्हीं के साथ बैठ जाओ। भूल जाओ, तुम मनुष्य हो, दिल्ली से आए हो, कहानियाँ गढ़ते हो, युरोप घूमे हो-बैठ जाओ, इस धुएँ में देह और आत्मा अलग-अलग नहीं हैं-दोनों के बीच कोई परदा नहीं, कोई दीवार नहीं-एक दूसरे की प्रतिच्छाया हैं।'
देह की आत्मा वही है जो आत्मा की देह है-एक लपट में घुलती हुई, हवा में अपनी घुमड़ती पीड़ा की गाँठें खोलती हुई, जिसके भीतर एक गुठली है, एक स्वप्न, एक आलोकवृत्त-जन्म के चमत्कार से मृत्यु के रहस्य तक फैला हुआ-बैठो, भूल जाओ, तुम निरे मनुष्य हो-तुम एक पत्ता हो, एक टहनी, जानवर की स्निग्ध आँख, एक पत्थर, घास का एक तिनका-जब तुम मनुष्य नहीं तब तुम सब कुछ हो, ईश्वर के पास हो, स्वयं ईश्वर हो...
कैसी मुक्ति? कोई हँसता है और मैं चौंक जाता हूँ-दो चमकती आँखें मेरी आँखों पर चिपकी हैं-एक बौने साधु मेरी ओर हँसते हुए घूरते हैं और पलक मारते ही उलट जाते हैं-टाँगें ऊपर हवा में मुड़ी हुईं, पीठ को छूती हुईं, सिर कहीं पीछे बाँहों की गुंजल में छिपा हुआ, आग की लपट में जाँघों के पुट्ठे चमक रहे हैं-जैसे समूचा शरीर एक मांसपिंड में गुँथ गया है। मुड़ी हुई देह के अँधेरे से दो आँखें चमक रही हैं, मुस्कुरा रही हैं, 'मैं गर्भ हूँ। मैं अपने गर्भ में माँ हूँ। मैं अपनी माँ के गर्भ में लेटा हूँ।'
यह आवाज मेरे साथ चलती है और मुझे हलका छोड़ देती है। एक ऐसा क्षण आता है जब हम अपने भीतर मरकर दुबारा जन्म ले लेते हैं। हम स्वयं अपने मिथक बन जाते हैं-जिसमें अतीत भी है और भविष्य भी-बर्फ के उन फूलों की तरह जिन्हें मैंने प्राग में वर्षों पहले देखा था, जो झरते हुए भी चारों तरफ बीती हुई गर्मियों की गर्मी बर्फ पर बिखेर देते हैं।
मैं हलका हो गया हूँ। मेरे हाथ में सड़ा हुआ अमरूद है। मैं पुल पर चल रहा हूँ।
कुटिया के पीले अँधेरे में एक स्वर सुनाई देता है-मैं उठकर बैठ जाता हूँ। हवा और धूप में नहाते हुए स्वच्छ, उच्छल शब्द भीतर आते हैं।
सित सिते सरिते यत्र संगते
तत्राप्लुतासो दिव्युत्पतन्ति
मैं बाहर आता हूँ तो घासफूस के पगोडा-तले एक ह्ष्ट-पुष्ट, तेजस्वी चेहरा दिखाई देता है। शायद ही ऋग्वेद की ऋचाओं का इतना मधुर, ओजस्वी पाठ मैंने पहले कभी सुना हो। पाठ समाप्त होने पर मेरा परिचय वैदिक दामोदर शास्त्री जोगलेकर से कराया जाता है। वह कर्नाटक से प्रयाग आए हैं। सच्चे महाराज ने उन्हें विशेष रूप से कुंभ पर्व पर ऋग्वेद का पाठ करने के लिए आमंत्रित किया है। बातों ही बातों में पता चलता है कि उनके पिता, पितामह भी वैदिक थे। वेद-पाठ करके ही जीवन-निर्वाह करते थे। वह स्वयं बचपन से वेदों का अध्ययन करते आए हैं-अब यह उनका पेशा ही नहीं 'पैशन' बन चुका है।
शाम होते ही यज्ञशाला में चहल-पहल होने लगती है। कुंभ के यात्री घड़ी-दो-घड़ी धर्मवार्ता के लिए यहाँ रूकते हैं, सच्चे महाराज के दर्शन करते हैं और फिर संगम की तर फ बढ़ जाते हैं। चाय के समय मुझे भी बुलाया जाता है। पता चला सच्चे महाराज उस व्यक्ति से मिलना चाहते हैं जो दिल्ली से आया है। मैं स्वयं उनसे मिलने के लिए उत्सुक हूँ। मैंने उन्हें कभी नहीं देखा-सिर्फ उनके शिष्यों से पता चला था कि उनका आश्रम जमुना पार अरैल में है। देश के सुदूर कोनों से उनके भक्त आते हैं। गरीब, अनाथ विद्यार्थियों की प्रचुर सहायता करते हैं। मेरे मित्र लक्ष्मीकांत वर्मा पर उनकी विशेष कृपा है-यदि उनकी सिफ़ारिश न होती तो कुंभ मेले के बीचोबीच रहने का सौभाग्य कभी प्राप्त न होता।
अब सोचता हूँ तो उनका संपन्न सौम्य चेहरा और विचित्र-सी हँसी याद आती है। वह एक ऊँचे तख्त पर बैठे थे। हम कोई दस-पंद्रह लोग होंगे। कोई औपचारिक प्रवचन नहीं, न कोई भाषण या उपदेश-शायद इसीलिए सब उनसे सहज भाव से बातचीत कर रहे थे। कुछ देर बाद उन्होंने मुझे देखा-दो चार उड़ते-उड़ते प्रश्न पूछे-कहाँ-कहाँ घूम आया? कितने दिन रहूँगा? कोई कष्ट तो नहीं है? मैं सब उत्तर देता गया, किंतु अंतिम प्रश्न पर अटक गया। 'कष्ट' से उनका क्या मतलब है? कुंभ मेले में रहने की कोई असुविधा या जि़ंदगी में पड़ी कोई तकलीफ? इच्छा होती है उनसे कुछ पूछूँ-कोई प्रश्न, भीतर की कोई जिज्ञासा। पर अंतिम मौके पर सब प्रश्न निरर्थक से जान पड़े-जिस क्षण कोई प्रश्न उठता है, उसका उत्तर उसके साथ जुड़ा रहता है-दूसरा कुछ भी कहे, हम सिर्फ अपने उत्तर का ही पीछा करते हैं-चाहे वह कितना ही गलत या खतरनाक क्यों न हो।
नहीं, मैं उनसे कुछ भी नहीं पूछता। सिर्फ उनकी हँसी देखता रहता हूँ। वह हँसते हुए कुछ बोलते जाते हैं। मेले का कोलाहल बीच-बीच में बाहर से भीतर चला आता है-वह ठहर जाते हैं, शोर को गुजर जाने देते हैं, फिर दुबारा वहीं से शुरू कर देते हैं जहाँ से आधी बात को अधूरा छोड़ दिया जाता था। कभी-कभी लगता है उनके शब्द किसी निश्चित, बने-बनाए अर्थ की तरफ नहीं जाते, किंतु फिर भी मैं मंत्रमुग्ध-सा उनके शब्दों को सुन रहा हूँ, उन्हें उनके मुँह से बाहर निकलता हुआ देख रहा हूँ, जैसे कोई बच्चा साबुन के बुलबुले उड़ाता है-सुंदर, साबुत, चमकीले-फिर हठात् एक छोटी-सी हँसी में वह उन्हें तोड़ देता है, बिखरा देता है, उड़ा देता है। लेकिन कभी-कभी उनका कोई एक वाक्य शब्दों की अराजकता में कौंध जाता है, अर्थ का एक पूरा पैटर्न दिखाई दे जाता है; हमारे बाहर एक प्रवाह है, वह कह रहे हैं, मनुष्य जब भटकता हुआ इस प्रवाह से एकात्म हो जाता है तो उसे ईश्वर की प्राप्ति होती है। दरअसल ईश्वर कुछ नहीं, सिर्फ एक प्रवाह है, जो हमारे बाहर बह रहा है...
सहसा वह हँसने लगते हैं-बनता हुआ तर्क बिखर जाता है, किंतु उनके शब्द बहुत देर तक मेरे भीतर खटकते रहते हैं।
बाहर सचमुच एक प्रवाह है। दुपहर को खुली धूप में एक उमड़ता हुआ ज्वार। निरंजनी साधुओं का जुलूस निकल रहा है। नीले आकाश-तले ध्वजाएँ फहराती हैं-बैंड और नगाड़े और हाथी पर बैठे ऊँघते-अलसाए मठाधीश, जो परी-कथा के राजा दिखाई देते हैं, जिन्हें हम बचपन में सिर्फ बादलों पर देखते थे, हाथी पर डोलते हुए, स्थूलकाय, मस्तमौला, स्वप्नदेश के अधेड़ और थुलथुल सम्राट।
हाथियों के पीछे एक सन्नाटा है, जिसमें नंगे, निरंजनी साधु चुपचाप चल रहे हैं-एक लंबी कतार में रेंगती हुई भस्मावृत, कृशकाय, गर्द और धूल में लिपटी छायाएँ। पता नहीं क्यों उन्हें देखकर मैले की गहमागहमी नहीं, जंगल-पहाड़ों का वीरान अकेलापन याद हो आता है...
अचानक एक घोड़ा बिदक जाता है-जुलूस के बीच एक कंपन-सी दौड़ जाती है। वह एक तरफ भागता है, फिर दूसरी तरफ-पहले क्षण मैंने सोचा था घोड़े की यह उछल-कूद प्रदर्शन का ही एक हिस्सा है, किंतु घुड़सवार जिस गुस्से और आक्रोश में घोड़े को पीट रहा है, खींच रहा है, घोड़े की आँखें जिस काले आतंक में फट रही हैं, मुँह से झाग बह रहा है-उससे पता चलता है कि वह तमाशा नहीं, धूप में एक हताश जानवर की थरथराती देह है। किंतु अगले क्षण घोड़ा गायब हो जाता है-साधुओं की एक नई कतार आती है; उनके पीछे बैंड मास्टर हवा में बेंत हिलाता हुआ, फिर हाथियों का अगला झुंड, वे अपनी सूँड से एक-दूसरे के पाँवों को छूतें हैं, चाटते हैं-घुड़सवार की 'आदिम' क्रूरता के बाद हाथियों का यह 'पाशविक' स्नेह कुछ अजीब-सा जान पड़ता है...
दुपहर के ये क्षण मेरे लिए एक जादू लिए होते हैं... जुलूस के पीछे उड़ती धूल में मैं सबसे छिपता, आँख बचाता हुआ चलता है। यह चमकदार घड़ी है जब अँधेरे कोनों में चमत्कार छिपे रहत हैं। सुबह के स्नान की हड़बड़ अब नहीं है-धर्म और पुण्य कमानें का उत्साह मंद पड़ गया है। झोंपड़ों के बीच रस्सियों पर गीले कपड़े हवा में फरफराते हैं। बहुत दूर चीलें हैं, जो इलाहाबाद के शहर से उड़ती हुई मेले के आकाश पर मॅडराती हैं... 'वॉच टावर' पर सिपाही ऊँघते हैं..... यह मेले की 'स्टिल लाइफ' घड़ी है.. मौन, निस्तब्ध, ठहरी हुई।
लेकिन ख़ास इस घड़ी में जादू छिपा रहात है.... जलती रेत और धूप से बचता हुआ में अखाड़ों के भीतर चला जाता हूँ-ये कुंभ मेले के अस्थायी आश्रम हैं, चारो तरफ छोटी-छोटी आरामदेह कुटियों के भीतर एक ठंडी छाँह बिछी रहती है। उन्हें देखकर यूरोप की मध्यकालीन मॉनेस्टरी की कोठरियाँ याद आती हैं, जिनमें भिक्षुक अपना समूचा जीवन बिता देते थे। ये कुटियों भी खाली नहीं हैं-जुलूस खत्म होते ही थके-माँदे साधु इनमें अपने-अपने कोने छाँट लेते हैं। मैं कभी-कभी झाँककर देखता हूँ-तो कोई अधलेटा, कोई बैठा, कोई सोता हुआ शरीर दिखाई दे जाता है।
पीछे की तरफ एक छोटे-से तंबू में रसोई सुलग रही है। यहाँ हिप्पी दिखाई देते हैं-खुली धूप में पसरे हुए-सिरहाने के पास एक गिटार, कुछ किताबें? स्लीपिंग बैग। लेकिन भक्तों की असली भीड़ अखाड़े के अंतिम सिरे पर है, जहाँ एक लंबा तख्त दरियों ओर तकियों से अटा पड़ा है-ऊपर चौकी पर वही मठाधीश बैठे हैं जिन्हें जुलूस के आगे-आगे हाथी पर देखा था। सिंहासन के नीचे नंगी सड़क पर निर्धन, फटेहाल, लुटे-पिटे आदमियों की लंबी पाँत बैठी है-भूखी उत्तप्त आँखों से ऊपर सिंहासन को निहारती हई। एक क्षण समझ में नहीं आया वे कौन हैं, कहाँ से आए हैं? वे इस अखाड़े के साधु नहीं थे-किंतु भिखारी भी नहीं जान पड़ते थे-एक किस्म के धार्मिक प्रोलितारियत-जिन्होंने अपनी दुनिया छोड़ दी थी, किंतु जिन्हें अभी तक किसी मठ या संप्रदाय की दुनिया में स्थान नहीं मिला था।
उन दिनों सूनी दुपहरों में अखाड़ोंके चक्कर लगाता हुआ मैं अक्सर 'त्याग' के बारे में सोचा करता था-जिसे कृष्ण ने बार-बार दुहराया है। जीसस क्राइस्ट के ये शब्द अक्सर झिंझोड़ जाते थे : 'सब कुछ छोड़कर मेरे पीछे चले आओं-एक ऊँट सुई के छेद से बाहर निकल सकता है, किंतु एक धनी पुरूष स्वर्ग नहीं जा सकता, किंतु साधुओं, महतों, मठाधीशों की भीड़ में मुझे लगता था कि वे एक दुनिया के बंधन काटकर दूसरी दुनिया के जंजाल में इतना फँस गए हैं कि ईश्वर का वहाँ कहीं पता नहीं चलता था। फॉस्टर ने एक बार कुछ लेखकों के बारे में कहा था कि वे आधी आँख से रॉयल्टी को देखते हैं, आधी आँख से यश-ख्याति को, आधी आँख अखबारी आलोचना पर टिकी रहती है-शेष चौथाई आँख से साहित्य रचते हैं।
कुछ लोग ईश्वर के लिए सिर्फ 'चौथाई आँख' इस्तेमाल नहीं करते क्या?
एक बार मैंने अपनी यह जिज्ञासा एक उदासी बाबा के सामने रखी थी। उनका उत्तर बहुत कुछ कैथोलिक चर्च के अनुयायियों से मिलता-जुलता था। ''यदि मठ नहीं रहेंगे तो ईश्वर और सांसारिक लोगों के बीच कौन कार्यकलाप करेगा? हम एक तहर से मिडलमैन हैं-लौकिक और पारलौकिक के बीच,'' यह कहकर उन्होंने अखाड़े की सीमा पर बैठे नंगे साधुओं की ओर देखा, जो लकड़ी जलाकर बैठे थे। ''इन्होंने सब कुछ छोड़ दिया है।'' उन्होंने कुछ उदास स्वर में कहा, ''ये हमारी तरह नहीं हैं-इसीलिए इनके खाने-पीने की व्यवस्था हम करते है।''
पता नहीं उनकी बात में कितना सत्य था, किंतु उनके मन में उन साधुओं के प्रति हलकी-सी ईर्ष्या जरूर थी जो सब छोड़कर अँधेरी, ठंडी रात में नंगे ठिठुर रहे थे।
एक दूसरी दुपहरी याद आती है।
मेले में घूमता हुआ अनजाने में ही मैं पण्डाल में चला आता हूँ। भीतर तो चला गया, पर आगे जाने का साहस नहीं हुआ। चारों तरफ साधु-महन्तों की टोलियाँ घूम रही थीं। सौभाग्यवश मुझे किसी ने नहीं देखा। धीरे-धीरे मैं एक भव्य रंगीन ईंट, सीमेंन्ट की इमारत के सामने चला आया। चार सीढि़याँ ऊपर चढ़कर देखा-एक बड़ा हॉल-ऊपर मंच पर गद्दी के सहारे जोगियाधारी प्रधान बैठे थे-ऊँचा कद, बहुत रौबीला, तेजवान व्यक्तित्व, सिर मुँड़ा हुआ। नीचे दरियों पर दस-बारह साधु बैठै थे-दो शाखाओं में बैंटे हुए-एक टोली, महाराज के दाई ओर, दूसरी बाई ओर, मैंने सोचा कोई प्रवचन चल रहा है। इसलिए पीछे की पंक्ति में मैं बैठ गया।
मुझे अपनी गलती पता चलते देर नहीं लगी। प्रवचन-उपदेश की जगह पर अजीब अदभूत मंत्रणा चल रही थी। सब लोग बहस में इतने तल्लीन थे कि किसी को मेरी ओर देखने की फुर्सत नहीं थी। हवा में करकराती अत्तेजना थी। प्रस्ताव रखे जाते, विवाद होता, संशोधन पेश होते और ठुकरा दिए जाते, जहाँ तक समझ पाया स्वामीजी का मठ किसी दूसरे मठ को मान्यता देने से इनकार कर रहा था - प्रतिद्वंद्वी मठ के प्रतिनिधि उन्हें मनाने की कोशिश कर रहे थे। स्वामीजी कुछ ऊँचा सुनते थे। जब दुसरे दल का कोई डेलीगेट उनसे प्रश्न पूछता था तो एक शिष्य स्टेनोग्राफर जल्दी-जल्दी स्लेट पर खड़िया के प्रश्न लिख लेता था। स्वामीजी स्लेट पर एक निगाह डालते और अपनी जिद्दी, उद्धत भंगिमा में गरजती, गूँजती आवाज में उत्तर देते। यह चक्र बहुत देर तक चलता रहा-प्रश्न पूछा जाता, स्लेट दिखाई जाती और स्वामीजी गरजते लगते। एक क्षण भ्रम हुआ, मैं किसी साधु-आश्रम में नहीं, दिल्ली के किसी डिप्लोमेटिक मंडल में बैठा हूँ-मैं भूल गया, बाहर गंगा का रेतीला तट है, यात्री भजन गाने हुए संगम की ओर जा रहे हैं, मैं प्रयाग में कुंभ मेले के बीच बैठा हूँ...
पता नहीं अंतिम निर्णय क्या हुआ-जब मैं बाहर आया भींतर बहस तब भी चल रही थी।
मैं भी कोई निर्णय नहीं ले पाता। हजारों अनुभवों में कौन-सा अधिक सही और प्रामाणिक है, इसके लिए कोई तराजू नहीं ढूँढ पाया है। क्या उस रात का अनुभव भूल पाऊँगा जब मैं रास्ता था। मुख्य रास्ते से भटककर मैं एक ऐसे रहस्यमय जगत में पहुँच गया था जिसे 'कुंभ का अंडरवर्ल्ड' कहा जा सकता है-ठंडी रात, नीचे लेटी हुई पोटलियाँ, जिनकी साँसों से ही पता चल पाता था कि वे ढूह नहीं देह हैं-जीवित तीर्थयात्री, जो दो कैंपों के बीच बसेरा कर लेते थे। कभी-कभी सोई हुई छायाओं के बीच रिक्शा दिखाई देता-यात्री जल्दी-जल्दी अपना सामान उतारते-बच्चे, औरतें, आदमी, पूरा परिवार-अपने-अपने कंधों पर गठरियाँ सँभाले भागते जाते ओर देखते-अँधेरे में गायब हो जाते। लगता जैसे भव्य, विराट, सुसज्जित अखाड़ों के पीछे गलियाँ हैं : अँधेरे कोने, जहाँ सैकड़ों परिवार रात-भर ठिठुरते हुए अगली सुबह की प्रतिक्षा में बैठे रहते हैं-न कोई उन्हें देखता है, न उन्हें आँकड़़ों कें शामिल किया जात है। यहाँ न कोई लैंपपोस्ट थे, न आग की लपटें-यह विश्वास करना असंभव था कि मैं किसी रेगिस्तान में नहीं, कुंभ मेले के बीच हूँ, जहाँ सिटी बजाने ही से पुलिस दौड़ी आएगी-पता नहीं, वह कैसा उजाड़ भुतैला कोन था, जहाँ मैंने तंबू की तरफ लौटते का सीधा-सादा खो दिया था।
कुछ आवाजें सुनीं तो ठिठक गया। पाँच-छह तंबुओं का एक कैंप था, जहाँ आगे की तरफ दो बाँस खड़े थे, जिन पर लाल कपड़े का फेस्टून बँधा हुआ था-उस पर किसी मठ का नाम लिखा होगा, जिसे अँधेरे में पढ़ पाना असंभव था। लालटेनों के मद्धिम काँपले आलोक में कुछ चेहरे दिखाई दिए, तो अनुमान लगाया कि सिख साधुओं के किसी पड़ाव में चला आया हूँ। मैं बाहर निकलने के लिए रास्ता टटोल रहा था कि अचानक किसी ने धीरे-से-मेरे कंधे पर हाथ रख दिया।
''गुरूजी, से मिलने आए है।''
अँधेरे में चेहरा दिखाई नहीं दिया, किंतु स्वर में सहज मधुरता थी। 'कहाँ है?" मैंने तनिक जिज्ञासा से पूछा।
वह मुझे तंबुओं के बीच टेढ़े-मेंढ़े रास्ते से ले जाने लगे। एक बार इच्छा हुई पीछे मुड़कर भाग जाऊॅं-अँधेरे में पता भी नहीं चलेगा। लेकिन मेरे गाइड के कदमों में इतना विश्वास था कि वह मुझे भी छू गया। आखिर वह एक शिवालानुमा तंबूमें सामने खड़े हो गए- भीतर लालटेन जल रही थी सुनहरे तख्तपोश पर एक बूढ़े-बहुत बुढ़े सरदार साहब बैठे थे। लंबी सफेद दाढ़ी, झुर्रियों से भरपुर चेहरा, आँखे अधमुँदी। वह किसी रियासत के जमींदार और कहीं बहुत पहुँते हुए संत-दोनों ही एक साथ दिखाई देते थे।
वह बातें कर रहे थे - या शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि वह सुन रहे थे- दो हट्टे-कट्टे जवान शिष्य आपस में बातचीत कर रहे थे और गुरू महाराज आँखे मूँदे चुपचाप सिर हिलाते जा रहे थे। बातें कुछ अजीब थीं और गुरूजी की चुप्पी उससे भी ज्यादा अजीब।
मुझे कुछ ऐसा लगा कि बुढ़े सरदार साहब को हल ही में उस संघ का प्रधान बनाया गया था। बहस इसी 'चुनाव' को लेकर चल रही थी।
"आप बुरे फँस गए।" पहले शिष्य ने गुरूजी को सुनाते हुए कहा। "आपसे यह कामधाम नहीं सँभालेगा। जरा अपनी उम्र भी तो देखिए।"
"नहीं, नहीं... क्या कहते हो," ... दूसरे जवान ने तड़ाक से उत्तर दिया। "बूढ़े हैं तो क्या, इनमें बड़ी शक्ति है। हमने खूब सोच-समझकर इन्हें चुना है।"
गुरू महाराज तटस्थ मुद्रा में सिर हिलाते रहे।
"शक्ति खाक है..." पहले ने कहा। "मिट्टी के माधों हैं, ऐ चोट पड़ी नहीं कि वहीं ढेर हो जाएँगे।"
"कौन है चोट मारनेवाला?" दूसरे ने कुछ खीजकर कहा। "हमारे महाराज ऊपर से भोले दीखते हैं-भीतर से बम के गोले हैं। सारी माया देखे हैं-कोई हाथ तो लगाए भला!"
सरदार साहब खामोश - जैसे उन्हें अपने शिष्यों के झगड़े से कोई सरोकार नहीं, मानो वे दोनों उसकी नहीं किसी अजनबी, किसी अदृश्य प्राणी की चर्चा कर रहे हों।
बाहर हवा के झोंके से तंबू हिलने लगा। उड़ती हुई रेल का रेला भीतर चला आया। उनका ध्यान भटक गया, आँखे खुल गई, जैसे किसी अज्ञात झटके से वह दुबारा इस धरती पर लौट आए हों। निगाहें मुझ पर पड़ीं तो कुछ चौंक-से गए - जैसे अभी तक उन्हें मेरी उपस्थिति का ज्ञान न हो। फिर सँभाल गए। एक महीन-सी व्यथा चेहरे पर सिमट आई। असंख्य झुर्रियों के बीच रास्ता बनाती हुई एक लंबी साँस ली-जैसे अब आ गया हूँ तो मुझे बाहर नहीं धकेला जा सकता।
"कहाँ से आ रहे हो?" उन्होंने बहुत धीमें स्वर में पूछा-शायद दोनों शिष्यों से बचकर वह मुझसे बात करना चाहते थे।
मैंने अपना और अपने शहर का नाम बताया। न जाने कैसे उस अजाने तंबू के नीचे उन बूढ़े सरदार साहब को देखकर मेरा दिल क्यों भीग गया। मैं उनसे कहना चाहता था कि उनके दर्शन से मुझे कितनी अधिक शांति मिली है-एक ऐसा सकून जो शायद केवल उन लोगों को मिल पाता है जिनके माँ-बाप पहले गुजर चुके हों - लेकिन उनकी निर्विकार चुप्पी, उनकी विरल, सूखी-सी तटस्थता के सामने चुप रहना ही बेहतर जान पड़ा।
"क्या मुझे पहले कभी देख है?" उन्होंने अचानक पूछा।
"नहीं सरदार साहब," मैंने कहा।
"मुझे सरदार साहब मत कहो," उन्होंने कहा। वह बहुत देर तक मेरी आँखों में, आँखों में, आँखों के भीतर कुछ टोहते रहे।
"नहीं देखा-तो यहाँ कैसे चले आए?"
"मैं सैर के लिए गंगा की तरफ गया था। वापिस लौटते हुए रास्ते से भटक गया... आपके शिष्य मुझे यहाँ ले आए," मैंने कहा।
"ओह!"
उनकी घनी सफेद दाढ़ी हिली-आँखे मुझ पर टिकी रहीं। फिर पीछे हाथ रखकर चौकी से उठ खड़े हुए... सहसा वह मुझे बहुत लंबे दिखाई दिए। या शायद तंबू की छत बावजूद नीची थी कि उनका कद मुझे विराटकाय-सा जान पड़ा। इतनी लंबी उम्र के बावजूद वह एक सीधी कमान खड़े थे-और तब वह मुझे सहसा टॉलस्टॉय से जान पड़े, जैसा सागर के तट पर गोर्की की आँखों ने उन्हें देखा था।
"मैं अभी आता हूँ," उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, जो हम दोनों से बेख़बर अभी तग अपने विवाद में उलझे थे।
बाहर आए, तो तेज हवा का झोंका हड्डियों को बरफा गया। समूचा आकाश तारों से भरा था। वह तेज कदमों से चल रहे थे-अँधेरे में लंबे-लंबे डग भरते हुए। पता नहीं, उन्होंने कौन-सा रास्ता पकड़ा कि कुछ ही देर में हम तंबुओं, गलियों और रेत के ढूहों से निकलकर खाली सड़क पर चले आए। वह एक लैपपोस्ट के नीचे खड़े हो गए। मेरे कंधे पर हाथ रखा।
"कभी मुझे पहले देखा है?"
इस बार विस्मय से मैंने उन्हें देखा। उनके स्वर में अजीब-सा आग्रह था। हवा में उड़ती लंबी, सफेद दाढ़ी-लेकिन आँखें उदास और विरक्त-जैसे मृत्यु से पहले ही उन्होंने अपना चोला उतार दिया हो, अपनी देह को एक छिलके की तरह अलग कर दिया हो...
"अकेले चले जाओगे-या तुम्हारे साथ आऊँ?"
"नहीं, नहीं... " मैंने हड़बड़ाहट में कहा। "आप तकलीफ न करें-मुझे अब रास्ता मालूम है।"
वह मुड़ गए-मैं उन्हें धन्यवाद दे सकूँ, इससे पहले ही, वह तंबूओं के बीच अँधेरे में खो गए।
मैं देर तक बीच सड़क पर खड़ा रहा। पीछे संगम, सामने बाँध की रोशनियाँ, बीच में कुंभ के हजारों सोते तीर्थयात्री। अपने कैंप की तरफ चलते हुए एक अजीब-सा विचार आया-शायद मैंने उन्हें कभी देखा है, तभी वह बार-बार पूछ रहे थे। लेकिन कहाँ? शायद मेरी धुँधली स्मृति में वह कहीं जीवित थे, जबकि स्वयं मुझे इसका कोई ज्ञान नहीं। तभी उन्हें देखते ही मुझे सहसा इतनी शांति मिली थी जैसे इतने दिनों से मैं उनसे मिलने की ही बाट जोह रहा था।
मैंने सोचा था यह घटना किसी से नहीं कहूँगा। किंतु जब श्रीनिवास मिले तो मैंने उन्हें सब कुछ बता दिया-यों भी निरे अजनबियों से अपने मन की बात कहना ज्यादा सहज होता है। मेरे लिए स्वयं श्रीनिवास से मिलना एक अदभुत संयोग था।
वह मेले में मेरा अंतिम दिन था। मैं अखाड़ों, जुलूसों की भीड़ से छुटकारा पाने के लिए गंगा-द्वीप पर चला आया था। शाम के समय लोग अक्सर भजन, कीर्तन, कथा, वार्ताओं में चले जाते थे-गंगा का तट सूना पड़ जाता था। सिर्फ कहीं कोई साधु, कोई सिपाही, कोई कल्पवासी दिखाई दे जाता था। मंदिर की घंटियों का स्वर, जलती लकड़ियों का धुआँ, जनवरी की धुंध, सब एक में उलझकर अकेलेपन का अलग टापू बन देते थे-गंगा के द्वीप की अंतर्छाया-जैसा एक बाहर, दूसरा भीतर। दोनों को जोड़नेवाले पुल कहीं अँधेरे में छिपे रहते।
"आपके पास सिगरेट है?"
मैं हलके-से चौंक गया। एक व्यक्ति मेरी बगल में बैठा था। पहले सोचा कोई भिखारी है, जो शाम के समय, पुलिस की आँख बचाकर, अकेले यात्रियों से कुछ-न-कुछ झाड़ लेते हैं। लेकिन सिगरेट देते हुए उनका चेहरा पास से दिखाई दिया। गलती पता चलते देर न लगी। वह कोट-पतलून पहने थे। गले में ऊनी मफलर था। मध्यवर्गीय परिवार के कोई अधेड़ सज्जन जान पड़ते थे।
"आदमी बड़ी चीजें छोड़ देता है। लेकिन छोटी-मोटी आदतें चिपकी रहती है," वह सिगरेट सुलगाकर हँसने लगे। "देखिए-तीन दिन से हाथ नहीं लगाया। अब आपको सिगरेट पीता देखकर अपने को नहीं रोक सका।"
"यहीं प्रयाग में रहते हैं?" मैंने पूछा।
"नहीं। कोटा से आया हूँ। इस मेले का बहुत दिनों से इंतजार था।"
"इंतजार कैसा?"
"बस वैसे ही। बहुत-बहुत वर्षों से घर छोड़ते का विचार आता था, लेकिन हिम्मत नहीं वटोर पाता था। कुछ दिन पहले एकाएक फैसला कर लिया : कुंभ नहाने जाऊँगा और वापिस घर नहीं लौटूँगा।"
मैं विचलित-सा हो गया। डूबती रोशनी, रेत, गंगा-क्या आदमी दुनिया में रहकर दुनिया को छोड़ सकता है?
"घर में बताकर आए हैं, कि आप नहीं लौटेंगे?" मैंने पूछा।
"नहीं..." वह धीरे-से मुस्कुराए, "वे सब यही समझे हैं कि मैं कुंभ नहाने के बाद लौट आऊँगा.... कुछ दिन मेरा इंतजार करेंगे, फिर आदी हो जाएँगे।"
कुछ देर तक हम दोनों चुप बैठे रहे। गंगा की बहती आवाज में सब कुछ बहता जान पड़ा। ख़याल आया इस मेले में रोज हजारों तीर्थयात्री दिखाई देते हैं, किंतु हर व्यक्ति का अपत्ता और इतिहास है-न जाने, वे यहाँ कौन-सी पीड़ा छोड़ने आए हैं, किस शाप और अभिशाप से मुक्ति पाने की छटपटाहट उनके भीतर छिपी है-यह हममें से कोई नहीं जान पाएगा... सिर्फ संगम ही एक खिड़की है, जिसके पीछे हम सब 'कनफेस' करते हैं-दो नदियाँ उस रहस्य को अपने पल्लों में हमेशा के लिए बंद करके आगे बह जाती हैं और हम खाली और मुक्त और हलके होकर लौट आते हैं।
किंतु ऐसे भी लोग हैं जो कुंभ यात्रा में आखिर तक अमृत की खोज में चलते रहेंगे-वे कभी घर नहीं लौटेंगे।
"आप क्या करते हैं?" उन्होंने मुझसे पूछा। मैं एक क्षण हिचकिचाया-आज भी अपने को 'लेखक' कहने से घबराता हूँ, हमेशा अपने को 'रिपोर्टर' कहना चाहता हूँ, अपने को वही समझता भी हूँ।
"क्या रिपोर्ट करेंगे?" उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा।
मैं उन्हें सरदार साहब के बारे में बताता हूँ, जिन्हें अचानक आधी रात के समय मैं मिला था। ''क्या ऐसा संभव है कि कोई अजनबी आदमी आपको जानता है और आप उससे पहली बार मिल रहे हों?" मैंने पूछा।
श्रीनिवास (उनका यही नाम था) एक क्षण सोचते रहें, फिर धीरे से बोले, ''संभव है बहुत पहले कभी आपको देखा हो। मैं खुद कभी-कभी सोचता हूँ कि बरसों बाद संन्यासी के वेश में क्या मेरी पत्नी या पुत्र मुझे पहचान पाएँगे?"
"क्या अपने सचमुच संन्यास लेने का फैसला कर लिया?" मैंने कहा। ''लेकिन घर छोड़ने का फैसला जरूर ले लिया है। मैं गए सिरे से जिंदगी शुरू करना चाहता हूँ।''
मैं उनकी ओर देखता हूँ-जैसे उनके शब्दों की मुट्टी में भींचकर विश्वास करना चाहता हूँ कि कोई ऐसा क्षण है जिसके परे आदमी नए सिरे से जी सकता है, अपनी पुरानी जिंदगी, स्मृतियों, गलतियों और पछतावों को गंगा के किनारे रेत में दबाकर कहीं भी जा सकता है, कहीं से भी दुबारा शुरू हो सकता है। लेकिन फिर? फिर कोई कोई गारंटी है कि वह वही गलतियाँ, अपराध और पाप नहीं करेगा जो उसे यहाँ आज घसीट ले आए हैं? क्या मनुष्य एक जिंदगी में 'रफ' और 'फेयर' मसौदे रख सकता है?
डूबते सूरज की पीली छाँह रेत पर गिर रही थी। हजारो पैरों के निशान बुझती धूप में चमक रहे थे। पहली बार मुझे उस लैंडस्केप का बोध हुआ जहाँ मैं और श्रीनिवास खड़े थे। वह एक अदभुत पवित्रता का एहसास था। अरैल के किनारे एक बादल जमुना-पार उठा था। सूरज रँगा एक पर्दा, जिसे झोंपड़ों से उड़ता हुआ धुआँ पोंछ रहा था। नीचे गंगा के किनारे एक रक्तिम, सुर्ख, सैलाब-सा उमड़ आया था-रेत पर खिंची खून की लकीर जो सूर्यास्त के फटे रंगों से बाहर वह निकली थी। शायद वैदिक आर्यों ने ऐसी ही शाम उसे देखकर समझा होगा-एक ऐसी नदी, जो हवा, शाम की छाया और धूप के मायावी रंगों से मिलकर बनी है-सरस्वती, गंगा और यमुना का एक सामूहिक स्वप्न-जिसे किसी क्षण उन्होंने एकसाथ देखा होगा...
सोचता हूँ कुंभ का महत्त्व क्या इसी स्वप्न, इस कल्पनाशील बोध, पवित्रता के इस दैवी एहसास में ही तो निहित नहीं हैं?
कुछ देर बाद अँधेरा हो गया। श्रीनिवास ने विदा माँगी-वह अरैल की किसी झोपड़ी में रहते थे। ''जीता रहा तो अगले कुंभ में मिलेंगे,'' उन्होंने कहा।
"यहाँ से कहाँ जाएँगे?" मैंने पूछा।
"अभी कुछ भी नहीं सोचा है। इतना बड़ा हिंदुस्तान है, कहीं-न-कहीं शरण मिल जाएगी।" उनके स्वर में एक अजीब-सी उदासी उभर आई, जैसे शाम की इस बेला में उन्हें अचानक अपना घर याद आ गया हो।
उनके जाने के बाद मैं देर तक भटकता रहा। बार-बार टी.एस. एलियट की एक पंक्ति दिमाग में घूम रही थी-क्या कृष्ण का यही मतलब था?
मैं अँधेरे में चलता हुआ सोचता हूँ। कृष्ण ने क्या कहा था? जब कोई अपनी घर-गृहस्थी छोड़कर चला जाता है तो उसे किसी मदद या मतलब की जरूरत नहीं। वह अपने अँधेरे में चलता है-कैंसर के मरीज को अस्पताल में छोड़कर जब हम बाहर आ जाते हैं-खुले, निर्मम, करूणाहीन आकाश तले वहाँ भी तुम मदद के बाहर हो। शायद मदद की सीमा के बाहर ईश्वर की सीमा है, लेकिन वह उतना ही निस्सहाय है जितना तुम। दोनों ही एक-दूसरे के सामने अकेले हैं-ईश्वर को निस्सहाय पाकर भी उसमें विश्वास करना-क्या कृष्ण का यही मतलब था?
अचानक एक रोशनी देखता हूँ। मेले की सीमा पर कुछ लोग बैठे हैं। ऊपर शामियाने की छत है, जगह-जगह से फटी हुई। हर सुराख से आकाश के तारे दिखाई देते हैं, पीछे झूँसी का मैदान हैं, जहाँ से कुत्तों के रिरियाने का स्वर रात के सन्नाटे को भेद जाता है।
दूर से ही एक छोटा, जमीन से एक फुट उठा हुआ स्टेज दिखाई देता है-वहाँ राम-लक्ष्मण की मूत्तियाँ बैठी हैं, मैं घंटो बाहर ठंड और हवा में घूमता रहा था - शामियाने की रोशनी को देखते ही एक अजीब-सा धीरज मिलता है। तबले की सोई-सी धमाधमक और हारमोनियम पर उठता-गिरता, झूमता हुआ स्वर। मैं और पास चला आता हूँ, शामियाने के भीतर, जहाँ चालीस-पचास स्त्री-पुरूष सर्दी में सिकुड़े, गुड़मुड़ी-से बैठे हैं।
पता नहीं इतनी रात बीते कैसी पूजा-प्रार्थना हो रही है? पासवाले व्यक्ति से पूछता हूँ, तो पता चलता है मिथिला की कोई टोली है-एक भक्तमंडली, जो कुंभ मेले का चक्कर लगाने आई है। मैं और पास खिसक आता हूँ-श्रोताओं की भीड़ में-पुराने कंबलों और गूदड़ रजाइयों में लिप्टी 'ऑडियेंस' एकटक मंच को देख रही है।
सहया राम आँख झपकाते हैं और लक्ष्मण बाँह मोड़कर कमर सीधी करते है; वे असली हैं, मूर्तियाँ नहीं, यह भ्रम अचानक टूट जाता है। लक्ष्मण इतने छरहरे, सुंदर शर्मीले हैं कि लगता है कोई लड़की लक्ष्मण की वेशभूषा में बैठी है-शायद वह असली, सचमुच में लड़की है और यह बात मैं किसी से नहीं पुछता, ताकि इस बार मेरा भ्रम बना रहे। धूप और कपूर का धुआँ उड़ रहा है, हारमोनियम और तबले के बीच सोंधा-भीगा स्वर भजन के कतरों को एक-एक करके उठाता है-आग्रह में, अनुनय में-एक आतुर उत्कंठा में, पर राम इतने निठुर हैं कि चेहरे पर जरा भी भाव, तनिक-सी आह, तिनके भर की हमदर्दी भी नहीं आते।
तब सहसा हारमोनियम तेज हो जाता है-तबला तिलमिलाता है। यह संकेत है, एक इशारा, जिसे पाते ही कोने में बैठी एक लड़की झटके से खड़ी हो जाती है, जैसे कोई चमकीली कौंध, लपलपाती उल्का मंच के आगे चली आई हो... पाँव हिलते हैं, फिर हाथ। बारह-तेरह बरस की वह बच्ची नाचती हुई सहसा बड़ी होने लगती है-उन बिल्लियों की तरह जो कभी शरारत में फूलते लगती हैं, कभी राम के पास जाती हैं, कभी लक्ष्मण के हँसती हैं, रोती हैं-भजन के हर पद के साथ मुद्राएँ बदलती है और हम सब दम रोके उसे देखते रहते हैं। दिन भर की उदासी, विषाद, थकान सब झरने लगते हैं, स्वयं राम पिघलने आगे हैं। अब लड़की उनकी ठुड्डी उठाती है तो उनका मुँह शर्म से लाल हो जाता है लेकिन बेचारे लक्ष्मण परेशान हैं। पता नहीं की मुद्रा में कितनी देर से बैठे हैं। शरीर अकड़ गया है-'कभी-कभी सबकी आँख बचाकर उबासी ले लेते हैं-उन्हें लड़की की भाव-मुद्रा, तड़क-भड़क में कोई दिलचस्पी नहीं जिससे मेरा संदेह और भी पक्का हो जाता है कि वह स्वयं लड़की है।
देर रात तक भजन चलते रहते हैं। लोग सर्दी और हवा को सहते हुए निश्चय बैठे रहते हैं। किंतु लड़की के नृत्य और गायक के स्वर में कुछ ऐसी अकुलाहट, अथक उन्माद में डूबी आकांक्षा छलछलाती है कि अंत में राम मुस्कुराने लगते हैं, लक्ष्मण अपनी नींद भूलकर नर्तकी के बढ़े हुए हाथों की छूने लगते हैं-यही शायद चरमोत्कर्ष क्षण है, जब मुझे अपने पीछे सिसकियाँ सुनाई देती हैं, देखता हूँ मंडली में बैठी कितनी ही स्त्रियाँ रो रही हैं, खुशी और दुख से अलग वह कौन-सा रस है जो सदियों से हमारी आत्मा को सींचता रहा है-हम अनजाने में अपने आप का अतिक्रमण कर लेते हैं, राम की सौम्य दृष्टि, बुद्ध की करूणा, नर्तकी की अनंत पिपासा में झाँकती पीड़ा को एक साथ भोग लेते हैं।
मैं बाहर रात में चला आता हूँ। हवा में बहुत दूर तक हारमोनियम का स्वर सुनाई देता रहता है-वही स्वर बच्ची के पैरों पर थिरकता हुआ इतना उल्लासमय था-अब दूर अँधेरे में बहुत उदास और थका हुआ जान पड़ता है। मैं एक कदम और लूँगा, और वह मर जाएगा, उसकी गूँज कुछ दूर पीछे चलकर लौट जाएगी, खो जाएगी, खत्म हो जाएगी-सिर्फ मेरे लिए-क्योंकि दूसरों के लिए वह उस समय तक जीवित रहेगी जब तक लोग उसे सुनते रहेंगे, इसलिए शायद मरता कुछ नहीं-न प्रेम, न स्वर, न कवित-जब तक हम उसे खुद न मार दें, छोड़ दें, छोड़कर अपने स्वार्थ में उसे न भुला दें। कितना विचित्र हैं, सब धर्म मनुष्य वे सब कुछ त्यागकर राख में लिपटे रहते हैं?
यदि तृष्णा से मेरा इतना लगाव हे तो त्याग के प्रति इतना मोह क्यों? शायद इसी विडंबना को झेलने के लिए मैं कुंभ आया था। किंतु आधी रात के सन्नाटे में लगता है मैं कुछ भी नहीं झेल पाया हूँ-मैं वहीं हूँ जहाँ पहले था, जहाँ से चलकर आया था।
वह पहली रात थी, जब उन्होंने मुझे बुलाया था। झूँसी के एक छप्पर तले वह अकेले आग ताप रहे थे। मैं पास आया तो तेज स्वर में दुतकार दिया, "जूते उतारकर आओ।"
मैं नंगे पाँव उनके पास आकर बैठ गया। पच्चीस से अधिक उम्र न होगी-गौरवर्ण, पतली देह, दाढ़ी के पहले बाल आग की लपटों में चमचमा रहे थे। झुकी हुई मूँछे ऊपरी होंठ को ढँकती हुई नीचे दाढ़ी में आकर खो गई थीं-बिलकुल रामकृष्ण परमहंस की तरह।
"एक बात कहूँ?" उन्होंने चिलम मुँह से हटाकर मेरी ओर देखा।
"तुम्हें कुछ लेकर आना चाहिए था।"
मैं समझा नहीं और उनकी ओर देखता रहा। उन्होंने चिमटे से जलती लकड़ी की राख कुरेदी। फिर एक लंबी सूखी डंडी को बाहर निकाला-आधी झुलती हुई, आधी राख से भरी।
"यह देखते हो?"
"हाँ... "
"क्या हैं?"
"एक लकड़ी," मैंने कहा।
"तुम्हें इस लकड़ी को अपने कंधे पर रखकर चलना चाहिए।" एक क्षण भीतर उत्कट इच्छा हुई, उसे ले लूँ, जैसे यही एक सच है, जिसका कोई मलतब निकलता है, किंतु उन्होंने मुझे झिझकते देख लिया था; चिमटे में लकड़ी को दबाकर दुबारा आग में डाल दिया था।
मैं चला आया। पीछे मुड़कर भी नहीं देखा। मैं कतरा गया था। ऐन मौके पर किसी विराट चमत्कार से वंचित रह गया था। बहुत देर तक राख और लपटों के बीच उनका स्वर मेरे कानों में गूँजता रहा, जैसे वह बार-बार मुझसे कह रहे हों, लो यह लकड़ी, पेड़ की एक शाख, जिसे सलीब बनाकर जीसस अपने कंधे पर ढोते हुए गोलगोथा के टीले पर चढ़ थे। यह वही टहनी है, एक शाख, राख और चिनगारियों में मनुष्य की शाश्वत वेदना में सुलगती हुई... जिस पर कृष्ण बैठे थे, पैर तीर से तीर बिंधे हुए, लहूलुहान, क्षत-विक्षत, हवा में झूलती अनेक शाखाओं के बीच समूची गीता का मर्म खून के कतरों में बूँद-बूँद टपक रहा था...
शायद मेरे लिए कुंभ-घटक में यही कुछ बूँदें बची हैं-मैंने अँधेरे में चलते हुए सोचा-मैं इतनी दूर उन्हें समेटने आया हूँ, जैसे कोई अपनी मृत्यु के बाद स्वयं राख में अपनी अस्थियाँ समेटता हो, पोटली में बाँधता हो, गंगा में बहा देता हो। शायद यही इस फैले प्रसार का संदेश मेरे लिए-सोए हुए झोपड़ों, रेत के ढूहों, मेले के मैदान पर सिर उठाए सूने वॉच टॉवर पर टिमटिमाती नीली रोशनियों पर यही एक विचार फड़फड़ाता हुआ मुझे भींच लेता है-अपने घटक में स्वयं अपनी हड्डियों को जमा करना-जिनमें दूसरों का समूचा कष्ट चिपका है-शायद यही ईश्वर है... एक नास्तिक के लिए, जो न कर्म में विश्वास करता है, न दूसरे जन्म में। मृत्यु के बाद सिर्फ शून्य को सत्य मानता है-उसके लिए ईश्वर को सिर्फ इस राख, इन अस्थियों, खून की इन कष्ट-भीगी बूँदों में ही ढूँढना होग।
मैं बाँध पर चला आता हूँ, हनुमान का मंदिर अब सूना पड़ा है। एक बिल्ली किसी मकान की छत से नीचे कूदती है और अपनी हरी चमकती आँखों से मुझे घूरती हुई किले की दीवार की और चली जाती है।
धुंध और चाँदनी में किला अपने में एक स्वप्न जान पड़ता है, जैसे मेरे साथ सटा हुआ शताब्दियों से ऊँध रहा हो। नंगे आकाश-तले लोग रहे हैं-आदमी, औरतें, बच्चे-झीनी-फटी चादरों में लिपटे हुए, जनवरी की रेतीली ठंड में काँपते, ठिठुरते हुए।
बाँध के अंतिम सिरे पर पहुँचकर पाँव सहसा ठिठक जाते हैं-दिल धड़कने लगता है-दाई ओर जमुना है, जिसमें भेले की हजारों बत्तियों टिमटिमा रही हैं। लगता है एक मेला ऊपर है, एक नीचे, जमुना के पानी पर जहाँ रोशनियों का प्रतिबिंब स्वयं रोशनियों का एक सिलसिला शुरू कर देता है। गंगा के पुल से अरैल तक कुंभ मेले का एक चमकता पन्ना खुल गया है-रोशनियाँ, अँधेरे के द्वीप, कहीं-कहीं दूर जलती हुई आग की लपटें। कहीं बहुत पीछे गंगा का टापू है-स्वयं गंगा है, जो धुंध और अँधेरे में छिप गई है। इस मील फैला कुंभ का मैदान एक झपक में अपने हजारों यात्रियों की नींद में सिमटा हुआ दिखाई दे जाता है।
एक उच्छ्वास उठती है। मेले के मैदान पर सिरसिराती हुई-जैसे नीचे की रोशनियों और आकाश के बीच मेरी स्मृतियाँ बाहर निकली हों-रेत पर चलती हुई बंगाली लड़की, जमीन पर लोटते हुए डंडी महात्मा, सच्चे महाराज की अँधेरी झोंपड़ी में टिमटिमाती लालटेन, जिसके नीचे मैं अपनी डायरी के नोट्स लिखता था। शायद अंत में स्मृति के ये वे अंक बचे रह जाते हैं; न इस धरती के, न ईश्वर के-किंतु दोनों को एक 'एपिक' गाथा बाँधते हुए। मेरे लिए कुंभ मेला अपने में एक बहता, अनलिखा महाकाव्य था, गरीबी, गौरव, सुख, यातना को एक कड़ी में पिरोता हुआ-रिल्के ने जिस देवदूत (ऐंजिल) से ईर्ष्या की थी, क्या उसका प्रतिरूप इस दुनिया में लेखक नहीं है : एक रिपोर्टर, एक खबर देनेवाला हरकारा-दोतरफा दूत-जो ईश्वर की खबर मनुष्य को और धरती का सौदर्य कहीं दूर ईश्वर को देता रहता है-एक ऐसा ईश्वर जो शायद नहीं है, किंतु जिसे वह सुलगती लकड़ी की तरह कंधे पर रखकर चलता है?
मुझे नहीं मालूम, लेकिन मैं इस पर विश्वास करना चाहूँगा, इस विश्वास के सहारे जीना चाहूँगा।