सुकुमारी : (आंध्र प्रदेश/तेलंगाना) की लोक-कथा
Sukumari : Lok-Katha (Andhra Pradesh/Telangana)
रात का भोजन समाप्त हुआ। ठंडी चाँदनी बरस रही है। सराय के आँगन में बैठकर सभी मुसाफिर बातें कर रहे थे। कई प्रकार के राज्यों के बारे में, देशों के बारे में बातचीत चली। कौन, किस काम पर और किधर जा रहे थे, इसकी सूचना आपस में दे रहे थे, उनका साथ देनेवाले से भी खुद परिचय दे रहे थे। दूसरे दिन के सफर के लिए भी सन्नद्ध हुए। रसोईघर की रख-रखाव ठीक कर, तब आई गरीबिन ताई, वह साठ साल की होगी। बाल खूब पक गए हैं। पति नहीं थे। गुजर गए थे। पुष्कर से ज्यादा हुआ था, इसलिए पेट पालने के लिए सराय चला रही है। व्यापार अच्छा चल रहा है।
वरहा में दो जून का भोजन खिलाती थी। भोजन के उपरांत फल-वल देती थी। अच्छी कहानियाँ सुनाती थी। मुसाफिर संतुष्ट होते थे।
आँगन में आकर बैठी हुई ताई से मुसाफिर पूछे थे कि “कोई कहानी तो सुनाओ, ताई।”
“तुम कहानी सुनाती हो तो वीणा बजाने के जैसा लगता है। मुरली बजने के जैसा महसूस होता है। नींद आती है।” मुसाफिरों ने कहा।
“ठीक-ठीक।” कहकर हँस पड़ी और ताई कहानी यों सुनाने लगी।
“एक जमाने में ‘आर्यक’ नामक राजा कौशल राज्य का शासक रहा था। उनकी सूर्यकला, चंद्रकला एवं शशिकला नामक तीन पत्नियाँ थीं। तीनों अत्यंत सुंदर, अत्यंत सुकोमल भी। लोग कहा करते थे कि सौंदर्य में शीर्ष स्थान पर रहने पर भी सात चमेलियों के बराबर तुलते नहीं। एक दिन आर्यक सूर्यकला के साथ बगीचे में टहलते हुए तालाब के किनारे बैठे थे। सरोवर कमल-फूलों से भरा हुआ था। काफी सुंदर दिख रहा था। हाथ बढ़ाकर शौक से राजा ने एक कमल के फूल को तोड़ा। उसने उस फूल से सूर्यकला के सिर पर नाजुक से मारा। उस चोट से सूर्यकला पीड़ा के मारे चीख उठी। सिर पकड़कर नीचे गिर गई। उसे परिवार ने घेर लिया। देखते-देखते ही सूर्यकला के सिर पर गाँठ बन गई और खूब सूजन आ गई, बस वह बेहोश हो गई।
“क्या हुआ महाराज?” उसकी सखी ने आर्यक से पूछा। उसने जो कुछ हुआ, बताया।
“ओह आपने क्या किया महाराज! सूर्यकला अत्यंत कोमल है। आप इस ओर ध्यान नहीं दे पाए।” सखी ने कहा।
रथ पर सूर्यकला को ले गए थे। अंतःपुर पहुँचाया। राजचिकित्सक आए। इलाज शुरू किया। विविध प्रकार के ऊपर लगानेवाली मंजरियों, मलहम, तेल आदि लाकर उन्हें सूर्यकला के शरीर पर लेपन कर उसे स्वस्थ किया। खतरे से बच गई। आर्यक ने चैन की साँस ली, “आप विश्राम करो।” सूर्यकला का सिर अतिनाजुक ढंग से सहलाकर राजा वहाँ से विदा लेकर दूसरी पत्नी चंद्रकला के पास पहुँच गया।
आर्यक का अन्यमनस्क होना देखकर चंद्रकला ने खिल-खिलाकर उसकी मनःस्थिति को बदलने का प्रयास किया। आर्यक चंद्रकला की हँसी से मामूली स्थिति में आ गए। तल्प से सटकर बैठे थे, चंद्रकला ने उसके हृदय पर सिर सटाया था।
“कहिए महाराज! इस रात आपकी चाह क्या है, जिसे मैं पूरी कर सकती हूँ।” उसने पूछा।
“कहूँ” यों पूछकर आर्यक चंद्रकला के मुँह को पास में लेने ही वाला था, इतने में ही खिड़की से चंद्रमा ने झाँककर देखा। चाँदनी ने घेर लिया। बस! चंद्रकला मूर्च्छित हो गई। आर्यक परेशान होकर, कौन है वहाँ पर? यों जोर से चिल्लाया। सेविका दौड़कर आई। मूर्च्छित चंद्रकला को देखा।
“क्या हुआ महाराज?” उसने पूछा। आर्यक ने उत्तर के रूप में खिड़की की ओर दिखाया।
“बाप रे चंद्रमा” उसने कहा। दौड़कर खिड़की के पट बंद किए। राजा के पास पहुँची थी।
“चंद्रकला अत्यंत नाजुक है। काफी कोमल है। चाँदनी को वह बरदाश्त नहीं कर पाती। इसी कारण से खिड़कियों सहित मंदिर के सारे दरवाजे बंद करके रखते थे, फिर आज इस खिड़की को किसने खोला, पता नहीं? गलती कहाँ हुई होगी, पता नहीं?” सेविका ने कहा, साथ में काम करनेवाले सेवकों को बुलाया। उनके द्वारा चिकित्सकों तक खबर पहुँचा गई। चिकित्सा आरंभ की गई। चंद्रकला पर मलाई का लेपन किया, फूल की पँखुड़ियाँ चिपकाई गईं। उसको स्वस्थ्य बनाया। चंद्रकला होश में आई। चंद्रकला ने आँखें खोलकर महाराज की ओर क्षमा करने की दृष्टि से देखा था। आर्यक ने हलकी-सी हँसी छोड़ी। धीरज बँधाने के लिए उसके गालों को सहलाकर वहाँ से निकल पड़ा। वह तीसरी पत्नी शशिकला को मंदिर पहुँचाने के लिए निकला।
चाँदनी आटा फैलाने के जैसी फैली थी। आर्यक पालकी के सफर से उत्साहित था। लग रहा था कि कोई दूर पर धान कूट रहा था। धान कूटने के गीत सुनाई दे रहे थे। गीत रागयुक्त है। आर्यक शशिकला के मंदिर पहुँचा था। सेवकों के घबराहट को पहुँचाना।
“क्या हुआ?” आर्यक घबराया।
“रानी की हथेली पर घाव हुआ था।”
“घाव?” कैसे हुआ।”
“सुनिए महाराज! दूर पर कोई मूसलों से धान कूट रहा था। उन ध्वनियों को रानी शशिकला बरदाश्त नहीं कर पाती। उनसे रानी की हथेलियाँ कुम्हालकर लाल हो जातीं। घाव बनकर खून स्रवित होता है।” सेवकों ने यों कहा। आर्यक आश्चर्यचकित हुआ। दौड़कर आर्यक एकांत मंदिर पहुँच गया। शशिकला ने हाथों को देखते हुए आँसू भर लिये आँखों में।”
“शशि” आर्यक ने पुकारा।
“महाराज” कहती हुई शशिकला आई और आर्यक के हृदय से चिपक गई। राजा ने उसके हाथों को पकड़कर देखा था। सेवकों के कहने के अनुसार ही शशिकला के हाथ लाल, रंग में कुम्हलाए। सूजे हुए थे। घाव होने के जैसे खून बारीक से स्रवित हो रहा था। घबरा गए। दौड़-दौड़कर सखियाँ वहाँ आईं। चाँदी की कटोरियों में चंदन, सोने की कटोरियों में दूध लाईं। शशिकला के हाथों को दूध से साफ कर उन पर फूल की पँखुड़ियों से चंदन का लेप किया। लग रहा था कि सैनिकों ने चेतावनी दी। कूटना बंद हो गया। गीत बंद हुए।
ताई ने कहानी को समाप्त किया।
“कहानी कैसी है?” ताई ने पूछा। अच्छी है, ...अच्छी है, कहा मुसाफिरों ने।
“अच्छी है, अच्छी है, कहने से क्या होता है? सूर्यकला, चंद्रकला और शशिकला, इन तीनों में से असल में सुकोमल कौन है, पहले यह बात बताओ।” ताई ने पूछा। सभी मुसाफिर सोच में डूब गए थे। आपस में चर्चा करने लगे। थोड़ी देर बाद उन्हें उत्तर मिला और कहने लगे—
“सूर्यकला को फूल की चोट लगी। चंद्रकला को चाँदनी ने घेर लिया। शशिकला के प्रति जो कुछ हुआ था, वह परोक्ष था। दूर से ध्वनि सुनाई पड़ी और वह घायल हो गई थी। अतः शशिकला ही सचमुच सुकोमल है।”
“ठीक कहा” ताई ने प्रशंसा की। लेट जाओ, अब लेट जाओ, कहा। मुसाफिर अँगड़ाई लेते हुए सोने के लिए सन्नद्ध हुए।
(साभार : प्रो. एस. शेषारत्नम्)