सुकरात मेरे शहर में (कहानी) : प्रकाश मनु
Sukraat Mere Shehar Mein (Hindi Story) : Prakash Manu
1
पहली बार उसे गुलमोहर के लाल फूले पेड़ के नीचे बैठे देखा था। एक स्वस्थ, अधेड़ आदमी जिसकी गोदी में गुलमोहर के चार-छै फूल थे। लाल, दहकते हुए। उसने खुद ही उठाकर रखे थे या ऊपर से गिर पड़े थे, कह पाना मुश्किल था। फिर भी बात हैरानी की तो थी ही। आज के वक्त में कोई अधेड़ इतना सौम्य, इतना सुगठित और इतना फूल-प्रेमी तो रह नहीं जाता।
मेरे भीतर एक चक्कर-सा ही चल पड़ा था। मुझको काटता हुआ एक चक्कर, ‘तो क्या यह आदमी काल की वर्तमान परिधि में नहीं? क्या यह यहाँ होकर भी यहाँ नहीं है? कहीं और, कहीं दूर इतिहास या काल-चक्र के भीतर ठहर गया है, किसी सांस्कृतिक युग की ऐश्वर्य-छाया में, जहाँ धूप भी धूप नहीं और शब्दों के ठीक-ठीक अर्थ और नाम भी वह नहीं जो आज हैं—हमारे आसपास? या कि यह सचमुच कहीं शून्य में है और यहाँ जो भी है, वह महज एक आभास, इसका छाया-रूप?’ ठीक से कुछ भी सोच नहीं पाया था।
फिर मैंने जैसे खुद से कहा, ‘चलूँ, एक बार मिल ही लूँ। दो बातें ही सही! शहर में बहुत दिनों बाद तो कोई अपना-अपना-सा नजर आया!’ और मेरी हँसी छूट गई।
मगर तभी उसकी निगाहें उठीं, तेज जलती हुई लपट की-सी निगाहें। और आगे बढ़ने के ख्याल के साथ ही मेरे पैर जमीन में चिपके तो चिपके ही रह गए। यह शायद उसकी भव्यता का आतंक था।
2
असाधारण रूप से पुष्ट, ऊर्जित और महाकाय, महाबलिष्ठ लगता था वह। खूब लंबा, तगड़ा। अपनी सुगठित देह-यष्टि और चेहरे की अभिजात सौम्यता के बावजूद असाधारण रूप से उत्तेजित। उसका चौड़ा, विशाल माथा धूप में चमक रहा था। नाक सीधी और नुकीली, होंठ सख्त, लेकिन फड़कते हुए। धूप के बावजूद कंबल ओढ़े था वह। उस फटे हुए कंबल से भी उसका आभिजात्य, उसकी सांस्कृतिक गरिमा छलक आती थी।
वह लगातार अस्फुट स्वर में गालियाँ बक रहा था और यह अजीब बात थी कि गालियों के वे अस्पष्ट स्वर संस्कृत मंत्रों जैसे गंभीर नादमय लग रहे थे। मुझे कुल मिलाकर उसका व्यक्तित्व पहाड़ जैसा लगा। गहन, ऊबड़-खाबड़, विशाल और उदात्त। लगा कि उसकी धमनियों में शायद रक्त नहीं, पिघली हुई विद्युत दौड़ती है और अपनी इस असाधारण उत्तेजना में ही पूर्ण है यह।
उससे बात करने की तेज इच्छा, नहीं-नहीं, तड़प महसूस की थी। लेकिन हिम्मत नहीं हुई थी। मैं पूरी ताकत लगाकर सिर्फ इतना ही कर सका, सहमे हुए कदमों से धीरे-धीरे जाकर पाश्र्व में खड़ा हो गया था।
खड़ा रहा था, खड़ा रहा था, खड़ा रहा था और फिर सिर झुकाए चला आया था।
3
उसके बाद वह ‘वह’ नहीं रहा और तमाम किस्सों जैसा ही एक किस्सा हो गया। बल्कि असाधारण किस्सों का पुंज। हर किस्सा अद्भुत-अद्भुत-सा।
निराला...? महाप्राण!
मुझे जाने क्यों उसे देखकर महाप्राण निराला की कविताएँ याद आतीं। राम की शक्ति पूजा, तुलसीदास, सरोज-स्मृति और...और...
उसके बाद वह कई जगह दिखाई दिया, अलग-अलग रूप-भंगिमाओं में। बहुत बार वह ब्रह्म सरोवर पर पालथी मारे ध्यानमग्न दिखा। हालाँकि वह कोई मंत्र नहीं पढ़ता था, फिर भी उसके भीतर के निरंतर गतिमान और उग्र विचार-चक्र और क्षुब्ध संवेदनाएँ उसके निरंतर किसी चरम की ओर बढ़ने का आभास देतीं। उसके चेहरे पर भावों की छायाएँ एक के बाद एक दौड़ती हुई आतीं और भिड़ जातीं। एक खौफनाक संघट्ट! फिर कसक, व्यथा और टूटन। सब साफ दिख जाता था। और जाने क्यों, अपनी अचल पर्वत समाधि के बावजूद वह लगातार टूटता हुआ लगता।
बाद में वह सड़क पर अक्सर दौड़ता हुआ दिखाई पड़ने लगा।
भीड़ उसे रास्ता देती। कुछ क्षण परेशान-सी पीछे-पीछे उसी की ओर देखती रहती, कुछ क्षण आपस में स्तब्ध-सी बतियाती। फिर सब अपने-अपने काम से चले जाते। किसी को नौकरी करनी होती, किसी को व्यापार। किसी को चमचागीरी, किसी को साहित्यगीरी। किसी को सब्जी लानी होती, किसी को दवाई, किसी को बीवी के लिए लिपस्टिक-पाउडर। किसी को बिजली-पानी का बिल भरना होता। इसलिए सब सिर झटककर अपनी-अपनी राह पकड़ते। और वह आगे-आगे सबकी राह रौंदता हुआ दौड़ता जाता।
पिछले कुछ महीनों से वह शहर के मुख्य रेलवे प्लेटफार्म पर दिखाई देने लगा था। अब वह दुबला पड़ गया था। आँखें धँस गई थीं, हालाँकि उनकी तेज चमक और गहराई नहीं गई थी। चेहरे, कंधों और छाती की हड्डियाँ जैसे बाहर आना चाहती थीं, भाग्य की क्रूर हँसी को मूर्त करने के लिए। जनवरी की रक्त जमा देने वाली ठंड के बावजूद उसके शरीर पर वही एक फटा, काला कंबल था। उसका एकमात्र वस्त्र, उसकी निधि।
अब लोग शहर पर मँडराती इस मनहूस विडंबना के बारे में ज्यादा सतर्क हो गए थे। और इसी हिसाब से उसके बारे में तमाम तरह की बातें चल पड़ी थीं। तरह-तरह से उसके ‘भूत’ को व्याख्यायित करने की कोशिशें हो रही थीं। कुछ लोग बताते कि यह कभी बड़ा जज था। इसके भी बीवी थी, बच्चे थे, अच्छा सुखी परिवार था शायद। फिर इसने किसी मुकदमे में अपने ही अपराधी बेटे को मौत की सजा दी। फाँसी!...खुद अपने हाथों से! मोह और कर्तव्य के संघर्ष में जीत कर्तव्य की हुई। लेकिन ‘कर्तव्य’ का गुरुतर भार, दुख का महा भीषण आघात यह बर्दाश्त नहीं कर सका। पहले अर्धविक्षिप्त हुआ और अब पागल!
मेरे एक प्राध्यापक मित्र की भी यही राय थी। वे चकित थे, “देखो-देखो, खुद में...मेरा मतलब है, खुद के साथ कितना तल्लीन लगता है यह। देखो इसका चेहरा! शायद अब यह अपने अंतर्मन में आज की युग स्थितियों के संदर्भ में नैतिकता की तलाश और उसे फिर से परिभाषित करने की जोड़-तोड़ में लगा है।”
लेकिन बहुतों को यह कहानी बोदी लगती, सत्य से कोसों दूर। खास तौर से साहित्य पढ़ने-पढ़ाने वालों की तो पक्की राय थी कि यह एक ध्वस्त प्रतिभा है, रूइंड जीनियस। उनकी थीसिस थी कि कभी यह बहुत बड़ा लेखक था। प्रखर, उग्र और आत्मचेतस्, लेकिन आत्मप्रचार से दूर। वर्तमान में नहीं, भविष्य में जीता था। इसलिए जो चीजें यह लिखता था, किसी की समझ में में नहीं आती थीं। इसीलिए यह दूसरों से बचता और अपने एकांत में खिसकता चला गया, और-और भीतर। शायद असल में यह ‘आने वाले सुदूर कल का लेखक’ है जो अपने वक्त से सौ साल पहले पैदा हो गया है, और इसी की सजा भुगत रहा है। इसलिए ठोकरें खा रहा है, क्योंकि यह सामान्य होकर नहीं जी सकता, हर शर्त पर विशिष्ट ही बने रहना चाहता है।
एक दिलजले साहित्यिक ने तो एक शिगूफा और छोड़ा, “देखते हो, शरीर पर धूल-राख मले घूमता है सारे-सारे दिन। तो भैया, यह शिव ही है, साहित्य का शिव! गरल-पान कर लिया भैया, इसने तो...जहर पी लिया!”
उसे ज्यादा भावुक होते देखा, तो दूसरे ने कोंचा, “अब यार, असल बात पर भी आओगे कि...कहना क्या चाहते हो तुम?”
“यही कि जहर पी लिया भैया इसने तो!” उसकी वही लटपटाती लय फिर चालू हो गई। मगर आगे का बिंब खौफनाक था, “मेरी तो पक्की राय है, जीवन भर लिख-लिखकर करीने से पांडुलिपियाँ तैयार कीं इस आदमी ने...और फिर एक दिन जाने कैसा दौरा चढ़ा कि गुस्से में उन्हें आग के हवाले किया। गरम-गरम राख अपने शरीर पर मली और निकल पड़ा बाहर—कहीं भी, जहाँ पैर ले जाएँ!”
“मगर यार, गजब है। इसे कुरुक्षेत्र ही इतना पसंद आया कि...”
मैं दरअसल बात मोड़ना चाहता था। कुछ और नहीं सूझा, तो यही निकल गया मुँह से। मगर दोस्तों ने बुरी तरह धर पकड़ा और लगभग शीर्षासन करा दिया, “तो तुम ही क्यों चले आए यूपी से दौड़े-दौड़े? भैया, ये शहर ही ऐसा है जहाँ सारे पागल इकट्ठे होंगे—ऐसा राम जी, आह सॉरी, मेरा मतलब है कृष्ण जी कह गए हैं महाभारत में। तभी तो जूनावस्टी (यूनिवर्सिटी को रिक्शा-ताँगे वाले जूनावस्टी बोलते थे। हम चार-छै यथार्थवादी दोस्तों ने वहीं से उधार ले लिया था!) खुलवा दी सरकार ने। लो, अब शुरुआत तो हो गई...आ गया शिकोहाबाद (शिकोहाबाद) से पागले-आजम!”
दोस्त मेरी ओर देखकर हो-हो-हो करके हँसे। झेंप मिटाने के लिए मैं भी फीकी हँसी हँसते उनमें शामिल हो गया।
लेकिन मेरी मुसीबत यह थी कि मैं किसी भी एक बात से संतुष्ट न था। मुझे वह आदमी हर कहानी से बड़ा लगता। मेरी खोज चलती रही। हर जगह मैं किसी न किसी रूप में उसका जिक्र छेड़ देता। और फिर कोई न कोई नई बात, नया किस्सा हाथ आ ही जाता।
उसके ‘भूतपूर्व क्रांतिकारी’ होने की बात भी कभी-कभी दबी जबान से सुनाई पड़ती। यानी एक सच्चा साधक जो अपने आदर्शों की तस्वीर से देश की इस बिगड़ी हुई हालत का कोई मेल न देखकर दिल के विक्षोभी धक्के से मानसिक संतुलन खो बैठा हो। या एकदम हतप्रभ होकर विराट शून्य के भीतर समाधिस्थ हो गया हो।
और कुछ लोग तो दावे से कहते, यह सुभाषचंद्र बोस का साथी है और आजाद हिंद फौज की टूटन के साथ ही टूट गया। देश आजाद है, मगर इसे गुलाम नजर आता है। इसकी आजादी के मायने ही कुछ और हैं! एक-दो पत्रकार साथी इसके चेहरे में सुभाषचंद्र बोस का चेहरा ढूँढ़ने की कोशिश बड़ी शिद्दत से कर रहे थे। हालाँकि अभी तक कोई खास सफलता उन्हें मिली नहीं थी। दूसरी ओर ‘चंबल का बागी’ और डाकू मानसिंह का करीबी रिश्तेदार टाइप धाराएँ-उपधाराएँ भी अपनी जगह अपनी-अपनी गंभीर निष्पत्तियाँ तलाशने में जुटी थीं।
सबके अपने-अपने सत्य, अपने-अपने ‘भूत’ थे।
कई बार तो मुझे लगता, लोग उसके बहाने अपने-अपने भूतों को व्याख्यायित करने की कोशिश कर रहे हैं।
इसके अलावा एक रहस्यवादी अंतर्धारा और थी, पौराणिक परिवेश के भीतर जीने वालों की। उन्हें तो यह साफ तौर से कोई भटका हुआ यूनानी देवता लगता, जो केवल शून्य से वार्तालाप करता है और आँखों के दिव्य रेडिएशंस से सब कुछ बदलना चाहता है। (इसी सिलसिले में मेरे एक पुराने दोस्त गुड्डन भाई को मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ भी याद आई!)
लेकिन ज्यादातर इंटेलेक्चुअल लोगों को इस बात पर विश्वास नहीं था। वे इसे एक अव्यावहारिक और असफल जीनियस ही मानते थे, जो अपनी समझौता न करने की जिद की वजह से टूटा, बल्कि बर्बाद हो गया।
“लेकिन फिर भी—फिर भी इसे क्या जरूरत थी यहाँ आकर जमने की? क्या कोई और जगह नहीं हो सकती थी? आफ्टर ऑल जो लोग जी रहे हैं, उन्हें जीने देना चाहिए!” कुछ लोग उदासीनता से और कुछ नाक-भौं सिकोड़कर कहते। सबको यह आदमी शहर पर एक अनिच्छित भार-सा लगता और उस बोझ का एक हिस्सा अपने सिर पर भी महसूस होता।
इस तरह शहर उससे परेशान था। समूचे शहर की नाक पर वह बड़ा-सा प्रश्नवाचक चिह्न बनकर लटक गया था।
4
उन्हीं दिनों—ठीक उन्हीं दिनों मैं उससे मिलने के लिए बेकाबू हुआ था। लगा, इससे दो-चार बातें नहीं कीं तो माथे की नसें तड़क जाएँगी, मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाएगा। उसके बारे में सुनी हुई बातों, किस्से-कहानियों का बोझ अब बर्दाश्त नहीं हो रहा था। और फिर उसे इतने रूपों, इतनी मुद्राओं में देखा था—कभी शांत, कभी उद्विग्न, कभी यूनिवर्सिटी के प्राध्यापकों के बीच धाराप्रवाह अंग्रेजी झाड़ते हुए, कभी सड़क पर कहीं भी खड़े होकर भाषण देते हुए—कि मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था, सिवाय इसके कि यह एक पढ़ा-लिखा आदमी है। मैं सच नहीं, तो सच का एक अंश ही पा लेना चाहता था। लेकिन...रास्ता?
क्या यह मुझसे बात करेगा? मुझे यकीन नहीं था। क्योंकि उसे कभी किसी से बात करते नहीं देखा था, सिवाय खुद के। यह शायद उसकी भीष्म प्रतिज्ञा का कोई जरूरी हिस्सा था।
“तो भी मैं पास जाऊँगा इसके। देखूँगा—देखकर रहूँगा महाभारत, जो इसके भीतर चल रहा है।” मैंने तय किया था।
एक पूरे दिन उसे देखता रहा। कब यह शांत होता है, एक बहुत बेचैन। कब सड़कों, गलियों के चक्कर लगाता है और कब ब्रह्म सरोवर के पिछले वाले हिस्से में गुलमोहर के पेड़ के नीचे समाधिलीन! अगले दिन फिर देखा—और यह बात हैरानी की थी कि लगभग सारे दिन किसी शापित प्रेतात्मा की तरह बेचैनी से तेज-तेज चलने, भागने, कोड़े फटकारने के बाद शाम को वह टूटकर गुलमोहर के इसी पेड़ के नीचे आता था। तब इसका तनाव कुछ शिथिल पड़ता था। सिर्फ इन्हीं क्षणों में यह बौखलाया हुआ नहीं होता था, सिर्फ बुदबुदा रहा होता था—एक शांत बुदबुदाहट!
बहुत-बहुत शांत।
5
और फिर एक दिन शाम को, जब वह ब्रह्म सरोवर के पिछवाड़े अपने शांति कवच में था, मैं जा पहुँचा। सामने जाकर खड़ा हो गया।
ब्रह्म सरोवर पर इक्के-दुक्के घूमने वाले थे, लेकिन यहाँ आसपास कोई नहीं था। यह एक हलके सुकून की बात थी, नहीं तो न जाने क्या-क्या नाटक होता और लोग-बाग...!
कुछ देर मैं ऐसे ही खड़ा रहा। चुप, गुमसुम। और जब उसका ध्यान नहीं गया, तो कुछ और नहीं सूझा। दोनों हाथ जोड़कर बोला, “नमस्कार...! नमस्कार करता हूँ मैं—प्रकाश मनु!”
उसने उचाट नजरों से मुझे देखा—जैसे नहीं देखा और फिर खुद के साथ संलिप्त हो गया। होंठों पर वही बुदबुदाहट। मैंने गौर किया, कुछ शब्द वह बार-बार दोहरा रहा था, किसी शोकगीत की-सी लय में, ‘मर गया, मर गया, मर गया, मर गया...मार गया, मर गया, मर...!’ चेहरे की मटमैली रेखाएँ एक-दूसरे से बुरी तरह उलझ गई थीं।
लगा, मेरे आने से यह खीज उठा है। और फिर मेरा शहराती मन मुझे लगा कोसने, ‘तुमने बेकार ही खलल डाला उसके एकांत में। तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था। आखिर हर आदमी की अपनी प्राइवेसी होती है। फिर चाहे वह घोषित रूप से पागल ही क्यों न हो। आखिर हर बंदा हर वक्त बात करने के मूड में नहीं होता। आखिर...’
जाने क्या-क्या ऊटपटाँग मैं सोच रहा था। डर भी रहा था, कहीं अभी गालियों का स्रोत न फूट पड़े। या पत्थर ही उठाकर मेरे पीछे...!
थोड़ी देर बाद उसने फिर देखा मुझे, शेर जैसी हिंस्र निगाहों से, “क्यों आए हो?”
“जी, वैसे ही।” मैंने महसूस किया, उस गरजती आवाज के सामने मेरी आवाज मिमियाती-सी लग रही थी।
“पत्रकार हो?”
(शायद मेरा ‘लटकंतू’ थैला देखकर सोचा हो। तो इसके सेंसेज चुस्त-चौकस हैं—मैंने नोट किया। )
“जी नहीं।”
“लेखक हो, कवि...?”
“जी कविताएँ, कहानियाँ लिखता हूँ। खासकर कविताओं में जीवन होम कर दिया!”
“क्यों कर दिया, मूर्ख? क्यों कर दिया! कोई और गड्ढा नहीं मिला डूब मरने को? यहाँ क्या लेने आया है...?”
“जी, इंटरव्यू! आपका अतीत...यानी...कि...!” मैं बुरी तरह हकला गया।
“अरे, तू अपने अतीत की सोच, मेरी छोड़। तेरा अतीत तेरे वर्तमान से कट गया...कट गया, अब नहीं जुड़ेगा कभी। और देखिओ, भविष्य भी कट जाएगा वर्तमान से। बस, तभी बर्बाद होगा तू। न इधर न उधर, न ऊपर न नीचे...कहीं नहीं! न जिंदा न मुर्दा...!”
“आह, नहीं-नहीं! क्या कह रहे हो तुम?” मेरी निगाहों में गुस्सा और हिकारत उभर आई उसके लिए।
पर उसे क्या परवाह थी? वह वैसा ही तना हुआ था। बेपरवाह, कड़ियल जैसे हिमालय की कोई चट्टान इधर खिसक आई हो। कुछ देर आँखों में तोलता रहा, तोलता रहा मुझे, फिर गरजा, “सुना, अपनी कोई कविता सुना!”
जाने कैसा आवेश था कि जेब से निकाला कागज और सुनाने बैठ गया। अभी कल-परसों ही पूरी की थी यह कविता, ‘भीतर का आदमी’—
“खुद को
खोद-खोदकर खाने में
कितना मजा है—
मुझसे पूछो,
मैंने इन पच्चीस सालों में
अपनी जिंदगी के पहाड़ को
कुरेद-कुरेदकर
आधा कर लिया है...!”
खासी लंबी कविता थी। करीब पाँच-सात मिनट तक मैं बोलता रहा, चीखता रहा कविता में। वह सुनता रहा। चेहरे पर एक के बाद एक बदलते भाव। और वे सब जैसे आपस में उलझ पड़े हों, झगड़ रहे हों! जैसे चेहरा नहीं, कुरुक्षेत्र का मैदान हो, एक पूरा महाभारत!
कविता पूरी हुई, तो उसने देखा जलती आँखों से, जिससे कहीं दो-चार बूँदें स्निग्धता की भी टपक रही थीं। या शायद मुझे ही ऐसा लगा।
फिर हँसा। हँसा ताबड़तोड़—हो हो हो हो हो हो हा हा हा! फिर बोला, “तू पागल है, मुझसे भी बड़ा पागल! जा भाग जा, जा जा जा...”
मेरे लिए अब खड़ा रहना कठिन था। मैं चला तो देखा, एक रूखा, वीरान अट्टहास मेरा पीछा कर रहा है जैसे कई सूखे बादल आपस में भिड़ गए हों।
6
इसके कुछ ही दिनों बाद एक पार्ट टाइम नौकरी के सिलसिले में मुझे दिल्ली आ जाना पड़ा। दिल्ली शहर की अपनी मुश्किलें तो हैं ही और पैसा पास न हो तो फिर देखो, कितनी क्रूर, हिंस्र हो जाती है दिल्ली। मैं इसी खेल में उलझा था। हर दिन और थोड़ा-थोड़ा मांस काटकर देता रहा। सिर्फ अस्तित्व-रक्षा में ही खत्म हो जाता था दिन। दो रोटी खा सकूँ, इतना पैसा हाथ आ जाता। बाकी वक्त कागज काले करता रहता, कुछ दफ्तर में, कुछ घर...! दोस्तों की चिट्ठियाँ आनी कम हुईं और फिर यह सिलसिला खत्म ही हो गया। (होना ही था!)
साल, डेढ़ साल मैं खुद को और नौकरी को किसी तरह घसीटता रहा। फिर लगा, हालत यह है, अब मुँह से खून उगल दूँगा। नहीं, नहीं निभेगा मुझसे अब। होगा सो देखा जाएगा! अपने ही शहर में जिऊँगा, मरूँगा। कुछ और नहीं तो दो-चार ट्यूशन पकड़कर गुजर-बसर कर लूँगा। सो एक दिन इस्तीफा देकर, बगैर हिसाब-किताब किए ही कुरुक्षेत्र आ गया।
7
मैंने आते ही दोस्तों से सबसे पहले ‘उसके’ बारे में पूछा। और जो पता लगा, उससे मैं हिल गया।
पिछले चार-छै महीनों में उसमें एक नए किस्म का विकार आया था। चलती गाडिय़ों के साथ-साथ और कभी-कभी तो पीछे भी वह दूर तक घूँसा तानकर दौड़ता। हाँफता हुआ, गालियाँ बकता हुआ और पसीने से तरबतर। जहाँ तक सामर्थ्य होती, दौड़ता चला जाता। और जब इस तरह लगातार घिसटना मुश्किल हो जाता तो लड़खड़ाकर गिर जाता। अक्सर बुरी तरह चोटिल और खून से लथपथ हो जाता। उन्माद और उत्तेजना के दीर्घ कवच में किसी तरह खुद को समेटता और पिछले जख्मों के भरने से पहले ही अगले दिन सूर्य की पहली किरण के साथ फिर यही क्रम।
दिनोंदिन उसकी हालत बिगड़ती जा रही थी। लगता था, एक-एक बेचैन कदम उठाकर यह तेजी से एक-एक युद्ध से गुजरता हुआ इतिहास के अँधेरे में जा रहा है। एक निश्चित रास्ते से—खुद से और सबसे बेपरवाह।
गुफा के भीतर एक आदमी! और आप कल्पना कीजिए कि गुफा किसी क्रूर बाघिन की तरह उसे खा रही है दो हाथों से, चार हाथों से, आठ हाथों से...सोलह...!
गुफा के भीतर कैसे बचेगा आदमी?
दिनोंदिन मैं उसकी ओर...और दूसरी नजर में अपनी ओर देखता और कराहकर रह जाता। मैं कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं था। यहाँ तक कि नौकरी और साहित्यिक क्षेत्र में एक के बाद एक धक्के खाकर उतनी मानसिक सजगता तक नहीं रह गई थी। हर दिन निराशा के गट्ठर में थोड़ा बोझ और बढ़ जाता और उसको उठाए गरदन और पीठ और अकड़ जाती। मुट्ठियाँ तन जातीं और मुझे अचानक लगने लगता कि मेरा चेहरा भी ‘इसी’ जैसा हो रहा है। मेरे अस्तित्व में यह तेजी से प्रविष्ट होता जा रहा है!
फिर एक दिन पता चला कि अब वह नहीं रहा, रेल के नीचे आकर खत्म हो गया। खत्म हो गया खेल उसका, खत्म उसकी बोरियत भरी कहानी।
मेरे हाथ-पैर सुन्न। सारे शरीर पर जैसे किसी ने कीलें ठोंक दी हों। मन हुआ, चिल्ला पड़ूँ, “खुश हो जाओ लोगो, खुश...कि वो चला गया। जो तुम्हारी नाक पर उगी भौंडी कील-सा था—पागल, एक अद्भुत पागल। अब वह गाडिय़ों के पीछे घँूसा तानकर दौड़ता हुआ, या गरमियों में कंबल ओढ़े गुलमोहर के नीचे बैठा, या तालाब पर एकांत उत्तेजना के भीतर साधनारत, या सड़क पर फटेहाल बेचैनी से इधर-उधर चलता हुआ कभी नहीं दिखाई देगा। खत्म हो गया एक दुर्गंधभरा इतिहास, जिससे शहर के संभ्रात लोगों की नाकें बेचैन हो जाती थीं और रूमाल अपर्याप्त साबित होते थे।”
बेकार था लेकिन, कुछ भी कहना बेकार। जब लोग देखकर भी न देखने का नाटक कर रहे हों, तो किसका कंधा पकड़ेंगे आप?
मौत नंगी नाचकर चली गई और किसी ने उसे नहीं देखा, किसी ने नहीं सुना। सब अपने बीवी-बच्चों के साथ रोज के झगड़ों और नपे-तुले प्यार में व्यस्त रहे। बल्कि (यकीन करेंगे आप?) लगा कि उसके जाने से शहर कुछ खिल-सा गया है। आखिरकार वह दुर्भाग्य-छाया हट गई जो सबसे जीने का मतलब पूछती थी, हर किसी को टोकती थी—तू कौन है? कहाँ से आया? सबकी नाक पर जो एक अनपेक्षित लेकिन जलता हुआ प्रश्नवाचक चिह्न थी। दुर्भाग्य की यह छाया हटी, तो शहर अपनी असली खुमारी और मध्यवर्गीय तड़क-भड़क के साथ मुक्त हुआ और सुख के इस आवेश में एकाएक भक्क से हँस पड़ा।
किसी ने क्षणांश के लिए भी नहीं सोचा, कि यदि उसने चाहा होता, तो एक भला आदमी बच सकता था। जी सकता था। मगर...मगर वह जीता भी तो उससे फायदा? क्या बचा था उसमें? काहे के लिए जीता, बल्कि घिसटता ही रहता।
अपने मरे हुए पैरों पर मैं लटक गया, और पैर...? फिर बड़ी देर बाद यह पता चला कि पैर मुझे घसीटते हुए ब्रह्म सरोवर के पिछवाड़े ले जा रहे थे। बहुत-बहुत याद आ रहा था लाल लपटों में घिरा वह गुलमोहर का पेड़। जैसे पेड़ नहीं, आदमी हो।
एकाएक सिर में घुमेरी-सी उठी। आसपास के पेड़, पौधे, मंदिर, दीवारें सब गोल-गोल घूम रहे थे। लगा, गिरा—अब गिरा!
और सचमुच गिरा। गिरकर एक पत्थर से टकराया, माथा लहूलुहान! मुझे अपना शरीर काला और निर्जीव पड़ता दिखाई दे रहा था।
कुछ देर बाद होश आया। हाथ से माथे का रक्त पोंछ रहा था कि देखा, धूल में कुछ फूल थे, लाल-लाल दहकते हुए। ऊपर देखा तो जैसे मैं चिल्ला पड़ा होऊँ, “अरे गुलमोहर!”
तभी, बस तभी गुलमोहर के फूल लगे हँसने। लाल-लाल नुकीली हँसी। “पागल पागल पागल...तू भी पागल! वो नहीं तू पागल—पागल पागल पागल!”
लगा, यही तो दे गया है मुझे। गुस्से, गालियाँ, बुदबुदाहट की चिथड़ों भरी गठरी—उत्तराधिकार में!
होंठों में फुसफसाहट के साथ अजीब-से शब्द, अजीब-सी स्वर-धमनियों में निकलने लगते हैं। चीख की शक्ल में पैदा होती है कविता, “आह सुकरात! क्या तुम्हें मरना था, मेरे ही शहर, मेरी गली में...!”