सुई दो रानी (यात्रावृत्त) : महादेवी वर्मा

Sui Do Rani (Hindi Travelogue) : Mahadevi Verma

मार्ग में निरन्तर 'सुई दो रानी, डोरा दो रानी' इत्यादि सुनते-सुनते बद्रीनाथ के निकट पहुंचने तक मुझे यह विश्वास हो चला था की उस सुदूर पर्वत प्रांत में न तो रानी होने से अधिक कोई सहज काम है और न सुई से अधिक महत्वपूर्ण देने योग्य वस्तु ।

मलिन भूरे बाल वाले बालक, लाल मुंगो की मालाओं से अपने को सजाये हुए, चकित दृष्टि वाली युवतिया तथा वात्सल्य से भरी हुई वृद्धाए और जहां-तहां जाते हुए निश्चित निरीह से पुरुष सबको एक ही धुन थी । यहां तक कि वे स्थान भी, जहां शीत की अधिकता के कारण स्त्रियां और पुरुष कम्बल के दोनों छोरों को कंधे पर चाँदी या किसी और धातु के कांटे से अटकाकर केवल उसी को अपना परिधान बनाये थे, इस राग से मुखरित हो रहे थे । कई बार तो छोटे-छोटे बालको ने इस प्रकार घेर लिया कि अपना सारा सुई-डोरा फेंकर हमें भागना पड़ा ।

कई पहाड़ी संभ्रांत व्यक्तियों से पूछने पर ज्ञात हुआ कि इस विचित्र भिक्षावृति का कारण सुई का अभाव नहीं है । अब तो सब आवश्यक वस्तुए भेड़ों के द्वारा बद्रीनाथ तक पहुंचाने का समुचित प्रबंध हो गया है, परन्तु यह प्रथा उस समय से सम्बन्ध रखती है जब यात्रियों के अतिरिक्त ऐसी वस्तुएं पहुंचाने काकोई और साधन न था ।

उस समय विचार आया कि हमारे परम्परागत संस्कारों का मिटना कितना कठिन है । मांगना छोड़ना तो दूर की बात, उनके हृदय में कुछ और मांगने की इच्छा ही नहीं उत्पन्न होती । प्रत्येक व्यक्ति केवल हजार-पांच सौ सुइयों के संग्रह का स्वप्न देखता रहता है । किसी वस्तु के प्राप्त कर लेने की इच्छा में जो मधुरता है वह उस इच्छा की पूर्ति में नही, इसका अनुभव मुझे बद्रीनाथ के, धूप में पारे के समान झिलमिलाते हुए हिम-मय शिखरों के निकट पहुंचकर हुआ । हनुमान चट्टी से पांच: छ: मील की जो दुर्गम और विकट चढ़ाई आरम्भ हुई थी, उसका अन्त एक ओर नर और दूसरी ओर नारायण नाम के पर्वतों तथा उनकी असंख्य श्रेणियों से घिरी हुई समतल भूमि में हुआ । श्वेत कमल की पंखुड़ियों के समान लगनेवाले पर्वतों के बीच में निरन्तर कल-कल नादिनी अलकनन्दा के तीर पर बसी हुई वह पूरी, हिमालय के हृदय में छिपी हुई इच्छा के समान जान पड़ी ।

वृक्ष, फूल और पत्तों का कही चिन्ह भी नहीं था । जहां तक दृष्टि जाती थी निस्पंदन समाधि में मग्न तपस्वनी जैसी आडम्बरहीन सूनी पृथ्वी ही दिखाई देती थी । और उतने ही निश्छल तथा उज्जवल हिमालय के शिखर ऐसे लगते थे, मानो किसी शरद पूर्णिमा की रात्री में पहरा देते-देते, चांदनी समेत जमकर जड़ हो गये हो ।

बद्रीनाथ के एक मील बाहर वहा के वयोवृद्ध रईस नारायणदत्त ने फूलो से सजा हुआ एक सुन्दर बंगला बनवा रखा है, जिसमे कभी-कभी कोई संभ्रांत व्यक्ति ठहर जाता है । परन्तु प्राय: उसकी दीवारों को पथिकों का दर्शन दुर्लभ रहता है । पक्के तीर्थ यात्री पण्डे के संकीर्ण घर में भेड़-बकरियों की तरह भरे रहने में ही पुण्य की प्राप्ति समझते है ।

नारायण जी ऐसे विदेह गृहस्थ हैं, जो अपनी साधना का फल औरों को समर्पण कर देने में ही सिद्धि समझते थे । बद्रीनाथ जैसे स्थान में उन्होंने बाग़ लगवाया, फलों के पेड़ लगाए हैं, आलू की खेती आरम्भ की है और न जाने कितने उपयोगी कार्य किए है । इतनी वृद्धवस्था में भी दिन-दिन भर धूप में उन्हें काम करते और कराते देखकर हमें बड़ा विस्मय हुआ । फूलों के निकट रहने की इच्छा से, एकांत के आकर्षण से और अपने स्वभाव के कारण मैंने वही ठहरने का निश्चय किया, परन्तु हमारे सहयात्रियों में जो एक दो सच्चे तीर्थयात्री थे, वे उसी समय अपने पण्डे का आतिथ्य स्वीकार करने चले गये । पंडा जी हमें बुलाने आये और उनके नम्रता और उनका शील देखकर मेरा पंडों के प्रति उपेक्षा भाव तो दूर हो गया, परन्तु वह स्थान इतना रमणीक था कि उसे छोड़ने कि कल्पना भी अच्छी नही लगी ।

वही रूपये सेर दूध, रूपये सेर आटा और एक आने की एक छोटी लकड़ी के हिसाब से लकड़ियां मंगाकर भोजन की व्यवस्था की गयी । कदाचित इस महंगेपन के कारण ही बद्रीनाथ में यात्रियों से स्वंय भोजन न बनाकर पंडे के यहां या बाजार में भोजन का प्रबंध करने की प्रथा है । इस प्रथा का अनुकरण करने के कारण पूरी में ठहरने वाले हमारे साथी इतने अस्वस्थ हो गये कि दूसरे ही दिन उन्हें उसे छोड़ देना पड़ा ।

उस दिन तीसरे पहर तक उन रुपहले शिखरों को मन भरकर देखने के उपरान्त अलकनन्दा का छोटा -सा पुल पार करके हम सब पूरी देखने निकले, परन्तु देखकर केवल निराशा हुई । संकीर्ण गलियों और घर दुर्गन्ध पूर्ण और गंदे थे । देखकर सोचा कि जब हम इतने बड़े तीर्थ स्थान को भी स्वच्छ और सुन्दर नही रख सकते हैं, तब किसी और स्थान को स्वच्छ रखने की आशा तो दुराशा मात्र है । उतुंग स्वर्ग के चरणों से ही नर्क की अटल गहराई बंधी है, इसका प्रमाण ऐसे ही स्थानों में मिल सकता है जहा पुण्य-पाप, पवित्रता-मलिनता और करुणा-क्रूरता के एक दूसरे में जीने वाले द्वंद प्रत्यक्ष आ जाते हैं । असंख्य गणमान्य और नगण्य, धनी और दरिद्र, शक्ति सम्पन्न और दुर्बल, सपरिजन और एकाकी यात्री वह प्रतिवर्ष जाते-आते हैं । धनिकों के सारे अभाव तो उनका धन दूर कर देता है, परन्तु दरिद्रों के लिए न रहने का अच्छा प्रबंध है न भोजन का । फलत: अधिकाश: यात्री रोगी होकर लौटते है और कुछ मार्ग में ही परमधाम चल देते हैं ।

उस दिन हम लोग दो मील दूर उस मन्दिर को देखने गये, जो द्रोपदी के गलने के स्थान पर उसकी स्मृति में बनाया गया है । वह से थोड़ी ही दूर पर दो पर्वतों के बीच से निकलती हुई वसुधारा की पतली धार दिखाई दी जो दूर से बादलो से छनकर आती हुई किरणों की तरह जान पड़ती थी । उसी के पास व्यास गुफा और तिब्बत जाने का मार्ग है और वही तिब्बती लोगो के एक ग्राम का भग्नावशेष, जिसमे अब भी कुछ लोग आते-जाते दृष्टिगोचर हो जाते हैं ।

बद्रीनाथ पूरी में देखने योग्य वस्तुओं में मन्दिर और अलकनन्दा के बीच में एक बहुत उष्ण जल का और एक ठंडे जल का सोता है । वही एक कुण्ड बना दिया गया है जिसमे दोनों स्रोतों का जल मिलाकर यात्रियों को स्नान कराया जाता है । संभव है यही तप्त कुण्ड इस स्थान की प्रसिद्धि का कारण हो । मन्दिर अपनी प्रसिद्धि के अनुरूप नही है और भीतर द्वारों पर कटघरे से लगाकर भगवान को भी बंधन में डाल दिया है । द्वारपाल उन्ही को सरलता से प्रवेश करने देते हैं, जो वेशभूषा से संभ्रांत व्यक्ति जान पड़ते हैं । और मलिन वेश वालों को घंटो सतृष्ण दृष्टि से उन जाने-आने वालों को देखते रहते हैं । भीतर जाकर लाल पगड़ी वाले सिपाहियों को अन्त:द्वार की रक्षा करते देखकर हमारे विस्मय की सीमा नहीं रही । वे भी वस्त्रों को आदर की दृष्टि से देखते थे और दिन स्त्री-पुरुषों को हाथ पकड़-पकड़कर रोक देते थे । उस द्वार को भी पार कर नर नारायण की मूक प्रतिमा देखी, जिस पर न हर्ष था न विषाद, न कभी कुछ होने की आशा ही थी । केवल उनके पुजारी की आँखे हर्ष से नाच रही थी । वे दोनों हाथों से चढ़ावे के थाल से चाँदी की राशि बटोर रहे थे । भगवान के लिए नहीं, परन्तु उनके पुजारी की प्रसन्नता के लिए मैंने भी रजत खंड चढ़ाकर विषष्ण मुख से विदा ली ।

दूसरे दिन हमने निकटवर्ती चाँदी के पहाड़ पर चढ़ना आरम्भ किया, जिसमे बड़ा आनन्द आया । कही-कही वर्फ जमकर ऐसी हो गयी थी कि संगमरमर का भ्रम हो जाता था । न वह गलता था और न कुछ विशेष ठंडा लगता था । उससे ठंडा तो अलकनंदा का जल था, जिसमें हाथ डालते ही उंगलियां ऐंठ जाती थीं । हवा में कुछ विशेष सर्दी नहीं मालूम हुई । मुझे तो गर्म कपड़े भी नहीं पहनने पड़े । जहां बर्फ पिघल रही थी, वहा से खोदकर कुछ वर्फ खाई और कुछ के गोले बनाकर लाये । तीसरे दिन प्रस्थान के समय फिर मन्दिर में जाकर फूलों की माला न मिलने के कारण जंगली तुलसी के पत्ते की माला चढ़ाकर विदा हुए । पंडा जी सुफल बोलने के लिए उत्सुक थे, परन्तु मुझसे यह सुनकर कि मेरी यात्रा की सफलता मेरे मन पर निर्भर है, मौन ही रहे । उन्होंने मुझे प्रसाद दिया और मैंने उनके आतिथ्य के बदले में उन्हें कुछ अर्पण किया । केवल उनसे स्वर्ग के लिए प्रवेश-पत्र लेना मुझे स्वीकार नही था । बंगले में लौटकर कैमरे का कुछ दुरपयोग-सदुपयोग किया । फिर नारायण दत्त से मिलकर उनके आतिथ्य के बदले में कुछ भेट देनी चाही । परन्तु उन्हें तो भगवान के मन्दिर में रहने का सौभाग्य प्राप्त नही था, जो लक्ष्मी की चरण-सेवा करने जाते । वे हमारी श्रद्धांजली से ही संतुष्ट हो गये ।

बद्रीनाथ हमारा ऐतिहासिक तीर्थ स्थान है, परन्तु असंख्य यात्रियों में से दो चार ने कभी इसकी दुर्व्यवस्था के कारणों पर विचार किया होगा ऐसा विश्वास नही होता । ग्राम गंदा है, मन्दिर टूटा जा रहा है और तप्त कुण्ड की ओर अलकनंदा की धारा बढ़ती जा रही है । संभव है, किसी दिन यह पवित्र और ऐतिहासिक केवल पुरात्व्त वेत्ताओं की खोज का विषय रह जाए ।

('क्षणदा' से))

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