सुदामा के चावल (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई
Sudama Ke Chawal (Hindi Satire) : Harishankar Parsai
(कृष्ण से मनमानी सम्पत्ति प्राप्त कर के विप्र सुदामा अपने भवन में आराम से रहने लगे । उन्हें कोई काम तो करना नहीं पड़ता था, इसलिए पण्डितानी से लड़ने और जम्हाई लेने के बाद भी जो समय बचता कुछ लिख-पढ़ लेते, उसमें से संस्मरण और डायरी के कुछ भाग अब मिल गये हैं । उसमें से कृष्ण से भेंट वाला प्रसंग यहाँ उद्धृत किया जाता है । —लेखक )
.......लोगों की टीका-टिप्पणी से मैं तंग आ गया । लोग मुझे चैन क्यों नहीं लेने देते ? कहते हैं कि कृष्ण ने प्रजा के कोष का धन उठा कर अपने मित्र को दे दिया । कृष्ण ने ऐसा क्या अनुचित किया, जो मुझे थोड़ा धन दे दिया ! राज-पद पा कर कौन अपने भाई-भतीजों और मित्रों का भला नहीं करता ? कुछ लोग तो मुझे ही मूर्ख कहते हैं । कहते हैं कि कृष्ण ने मेरे दो मुट्ठी चावल खा कर मुझे दो लोक दे दिये थे, पर मैंने मूर्खतावश वापस कर दिये । कल प्रातः काल मैं भवन के बाहर मैदान में दातौन चबाता घूम रहा था- मुझे एक प्रहर तक दातौन करने की आदत है क्योंकि किसी तरह समय तो काटना है। सामने से ब्राह्मण देवदत्त अपने किसी परदेशी बन्धु के साथ निकला और मेरी ओर संकेत करके उससे कहने लगा, "यह वही मूर्ख सुदामा है, जिसे कृष्ण ने दो लोक दे दिये थे, पर इसने वापस कर दिये ।" सुन कर मेरे अंग-अंग में आग लग गयी पर मैं क्रोध पी गया। क्या करता ? मैंने ही तो यह बात फैलायी थी और मनुष्यों की बुद्धि को इस युग में क्या हो गया है ! किसी ने यह नहीं कहा कि हे मिथ्यावादी सुदामा, यदि कृष्ण हर मिलने वाले को एक-दो लोक दान में देते हों, तो प्रतिदिन हज़ारों लोक बाँटते होंगे । पर लोक तो तीन ही हैं और मथुरा तीनों लोकों से न्यारी है । और हे मिथ्यावादी ब्राह्मण, तू यदि यह कहे कि केवल तू ही उनसे मिलने गया, तो यह भी झूठ है । जब कोई राजधानी जाता है, तब ऊँचे पदों पर बैठे अपने हर परिचित से मिल आता है । फिर कृष्ण बहुत हँसमुख और मिलनसार है; उसे नृत्य-संगीत-नाट्य का शौक़ है और उसके आस-पास कलावन्त सुन्दरियों का जमघट रहता है । जिस राज-नेता के आस-पास सुन्दरियों का गुच्छा होता है उसे मिलने वालों का टोटा नहीं पड़ता ।
किसी ने ऐसी शंका नहीं की । और युगों तक यह बात मानी जाएगी कि कृष्ण ने मेरे दो मुट्ठी चावल खा कर मुझे दो लोक दे दिये, पर मैंने बाद में उन्हें लौटा दिया । पर आज मैं सत्य बात लिख देना चाहता हूँ । जिससे 'निरवधि काल और विपुला पृथ्वी' में कोई कभी इन पृष्ठों के आधार पर विश्व से कह सकेगा कि दो मुट्ठी चावल और दो लोक वाली बात झूठ है; सुदामा ने कृष्ण से दान नहीं लिया; उसने परस्पर सुभीते के लिए सौदा किया था ।
मैं जब द्वारका के लिए चला, तब ब्राह्मणी ने पड़ोसिन से एक पाव चावल उधार लेकर मेरे गमछे में बाँध दिये । वह जानती थी कि राजपुरुष बिना भेंट लिये किसी का कोई काम नहीं करते । मेरे घर में एक पाव चावल भी न हों, ऐसी बात नहीं थी; पर ब्राह्मणी जानती थी कि राजपुरुष उधारी या चोरी के माल से बहुत प्रसन्न होते हैं ।
कृष्ण ने मुझे बड़े स्नेह से पास बिठाया और मेरी काँख में दबे गमछे को खींचा, उलट-पलट कर देखा । उसमें चावल का एक दाना भी नहीं था । कृष्ण ने मेरी ओर बड़े अचरज और खीझ से देखा और कहा, "कहाँ गये चावल ? तुमने फिर कपट किया । मैंने अपनी दिव्य-दृष्टि से देख लिया था कि भाभी ने मेरे लिए गमछे में चावल बाँध दिये थे ।”
मेरा मन हुआ कि कह दूँ कि हे मेरे राजमित्र, जिस दृष्टि से तुम मित्रों की पलियों को पति के गमछे में चावल बाँधते देखते रहते हो, उससे लोगों की ग़रीबी और भुखमरी क्यों नहीं देखते । पर कुछ सोचकर मैं चुप रहा ।
कृष्ण चावल खाने के लिए बहुत उत्सुक था । उसका आग्रह प्रेम के कारण कम था, इस कारण अधिक था कि आस-पास चित्रकार लोग चावल खाते हुए महाराज का चित्र खींचने के लिए तैयार खड़े थे । चित्र खींच कर उसके नीचे लिखा जाता, 'दीनबन्धु एक दीन के चावल खाते हुए' ।
उसने बनावटी रोष से पूछा, “क्या तुम चावल भी खा गये ?"
"नहीं ।" मैंने कहा ।
"तो फिर कहाँ गये ?” उसने कहा ।
मैंने कहा, "नहीं बताऊँगा । मैं वचनबद्ध हूँ । ”
"किससे वचनबद्ध हो ?"
"तुम्हारे रक्षक - विभाग के अधिकारी से । उसने कहा है कि यदि तुम यह सब मामला महाराज को बताओगे, तो तुम्हारी ब्राह्मणी विधवा हो जाएगी।"
कृष्ण हँसा । पूछा, "कैसा मामला ? मित्र, तुम मुझे बताओ तो । मैं तुम्हें अभय-दान देता हूँ । मैं तुम्हें अपने व्यक्तिगत रथ में घर सकुशल पहुँचाऊँगा ।”
आश्वासन पाकर मैंने कहा, "अच्छा, बतलाता हूँ । पर पहले राज्य-शासन मैं तुम्हारी परीक्षा लेता हूँ । बतलाओ, खुरचन किसे कहते हैं और अच्छे शासन में इसका क्या महत्त्व है ?"
कृष्ण मेरी ओर मूढ़ की तरह देखने लगा । बोला, “मैंने तो यह शब्द ही नहीं सुना ।"
मैंने कहा, “आश्चर्य है । शासन की सबसे महत्त्वपूर्ण नीति को नहीं जानते और राज्य करते हो !”
कृष्ण ने उतावली से कहा, "पर तुम पहले चावल की बात तो बताओ ।"
तब मैंने पूरी घटना सिलसिलेवार सुनायी जिसे यहाँ लिखता हूँ : माँगते-खाते मैं द्वारका नगरी पहुँचा । नगरी का वैभव देखकर चकित रह गया। सारा धन सिमट कर द्वारका में आ गया था । और सारी विद्या इकट्ठी हो गयी थी। बड़े-बड़े कलावन्त, पण्डित, कवि और गायक राजधानी में आकर बस गये थे क्योंकि यहाँ राज पुरस्कार खूब बँटते थे । इनमें मुझ दीन ब्राह्मण को कौन पूछता ? मैंने नगरी के बाहर ही, बिना नहाये, मस्तक पर चन्दन लगा लिया था, इसलिए नागरिक पूछने पर कम-से-कम मार्ग बता देते थे ।
पूछते-पूछते मैं कृष्ण के महल के सामने पहुँच गया । वहाँ एक कर्मचारी से मैंने कहा, "भाई, मुझे महाराज से मिलना है ।" उसने मुझे ध्यान से देखा और सम्भवतः टालने के लिए कहा, "उस बायें बाजू वाले कार्यालय में जाओ । वहाँ पूछ-ताछ के पश्चात् जब अनुमति मिलेगी, तब जा सकोगे ।"
कुछ सोचकर उसने पुनः कहा, “तुम भाई क्यों कहते हो ?”
मैंने उत्तर दिया, “मनुष्य मनुष्य को 'भाई' ही तो कहेगा ।" उसने मुझे समझाया, “बहुत भोले हो । आगे किसी राज - कर्मचारी को भाई मत कहना । वह मनुष्य होने में अपनी अप्रतिष्ठा समझता है । उसे 'देवता' कहना चाहिए ।"
मैंने उसकी बात की गाँठ बाँध ली और उस विशाल कार्यालय के द्वार पर पहुँचा । वहाँ कितने ही कर्मचारी बैठे थे जिनमें से अधिकांश गप-शप कर रहे थे । वे अपने स्थान से उठते और पास के जलपान गृह में जाकर बैठ जाते । मैं समझा कि इन सबको यही करने के लिए ही राज्य से वेतन मिलता है ।
मैं बड़ी देर तक खड़ा रहा । फिर साहस बटोर भीतर घुसा । एक कर्मचारी ने बड़े कड़े स्वर में कहा, "ए, कहाँ घुसा आता है ? यह धर्मशाला नहीं है । उधर जाओ, वहाँ धर्मशाला है और सदावर्त बँटता है ।" उसने अँगुली से दक्षिण दिशा की ओर संकेत किया ।
मैंने कहा, “देवता, मुझे महाराज से मिलना है । ”
कर्मचारी हैरत से मुझे देखता ही रहा । फिर ठहाका मारकर हँसा और बोला, “विप्रदेव, तुम ग़लत जगह आ गये । यह पागलखाना नहीं है ।"
मैंने कहा, “भगवन्, मेरे कृश शरीर और फटे वस्त्रों पर मत जाओ । मेरे होश - हवाश दुरुस्त हैं । मैं विक्षिप्त नहीं हूँ । मुझे वास्तव में महाराज कृष्ण से मिलना है ।"
इतने में कई कर्मचारी आकर मुझे घेर कर खड़े हो गये । उनमें से एक कहने लगा, “बड़ी ऊँची आकांक्षाएँ है आपकी विप्रदेव ! क्या काम है आपको महाराज से ?"
मैंने कहा, "वे मेरे मित्र हैं, सहपाठी हैं ।" इस पर वे सब एक साथ हँस पड़े।
एक बोला, "वाह, महाराज को आप ही साथ पढ़ने के लिए मिले !"
दूसरा कहने लगा, “विप्रदेव, आप भाँग-वाँग छानते हैं क्या ?"
तीसरा बोला, “आप किस देश के नरेश हैं ?"
मेरे संकट के मारे शरीर और दरिद्रता से छिन्न वस्त्रों को देख-देख कर वे उपहास करते रहे । मैं ग्लानि से मरा जा रहा था । चाहता था कि पृथ्वी फट जाये और मैं उसमें समा जाऊँ । दीनबन्धु के सेवकों का कैसा व्यवहार था, एक दीन के प्रति !
इसी समय कार्यालय के दूसरे छोर से एक दबंग कर्मचारी चिल्लाया, "अरे कुछ 'खुरचन' का सिलसिला भी है या यों ही मिलने चला आया है ।"
चारों ओर से 'खुरचन - खुरचन' की आवाज़ें लगने लगीं ।
'खुरचन' मेरे लिए नया शब्द था । मैंने कहा, "भाई, खुरचन मैं नहीं जानता । शब्द-कोश में तो यह शब्द नहीं है । किसी काव्य और दर्शन में भी यह नहीं आया । यह सम्भवतः शासन का कोई विशेष शब्द है । मैं जानता हूँ कि अच्छे शासन कुछ शब्दों और आँकड़ों के बल पर चलते हैं ।”
उनमें से एक, जो सयाना था, कहने लगा, “ब्राह्मण देवता, राज दरबार में आये हो, और शासन की नीति नहीं जानते ? तुम तो 'खुरचन' तक नहीं समझते । "
मैंने बड़ी नम्रता से कहा, "बन्धु, मैं तो ग्रामवासी हूँ । शासन हमारे पास केवल कर वसूल करने पहुँचता है । भला राजधानी की रीति-नीति मैं कैसे जान सकता हूँ ? हमारे ग्रामों में तो दूध उबाल लेने के बाद जो मलाई कड़ाही में चिपकी रहती है, उसे खुरच लेते हैं और उसी को 'खुरचन' कहते हैं ।"
वह बोला, " ठीक इसी तरह से शासन की कड़ाही में जो मलाई चिपकी रहती है उसे हम खुरचते हैं और उसे हम भी 'खुरचन' कहते हैं ।"
मैं तब भी नहीं समझा । उन सब को मेरे ऊपर दया - सी आयी ।
सयाना बोला, “तुम समझे नहीं विप्रदेव ! हमारा मतलब है, यह भी एक मन्दिर है । कुछ भेंट वग़ैरह तो लाये ही होंगे । महाराज से क्या बिना भेंट के मिलोगे ? हमारा भी तो कुछ हिस्सा होगा ।”
मैं अड़चन में पड़ गया । मुझे चुप देख एक कर्मचारी कहने लगा, "तुम्हारी काँख में दबी उस पोटली में क्या है ब्राह्मण देवता ? स्वर्ण है ?'
मैंने चावल की पोटली और कस कर दबा ली ।
सयाना कर्मचारी बोला, “क्या है उसमें ? खोलो उसे !"
मैं घबराया । यदि चावल इनके सामने खुल गये तो ये मेरा बड़ा उपहास करेंगे । मैं जड़ हो गया ।
तभी वह रक्षक- विभाग का अधिकारी आगे बढ़ा । उसका बलिष्ठ शरीर, कठोर मुख और बिच्छू के डंक जैसी मूँछें देखकर मैं काँप गया । उसने कर्कश स्वर में कहा, "अरे, दो धप्प लगाओ, अभी बता देगा यह बम्हन का बच्चा । "
मैं काँप उठा । मैंने झट पोटली खोल दी । चावल देख कर वे सब हैरत में पड़ गये । एक-दूसरे की ओर देखने लगे । एक बोला, “यह ब्राह्मण पागल है । भला कोई चावल लेकर महाराज से मिलने जायेगा ?"
अब तक वह दबंग कर्मचारी वहाँ आ गया था । उसने कहा, "भई, इसमें कुछ भेद है । ये साधारण चावल नहीं मालूम होते । भला कोई महाराज के लिए साधारण चावल लायेगा ? ये ब्राह्मण लोग बड़े रहस्यमय होते हैं । कई तरह के तन्त्र-मन्त्र करते रहते हैं । ये चावल मन्त्रों से सिद्ध किये मालूम होते हैं, जो महाराज को देने जा रहा है ।"
मैंने सोचा कि इस भ्रम की बाँह पकड़कर कृष्ण के पास पहुँच सकता हूँ। मैंने कहा, "ग्यारह रात्रि और दिन निरन्तर मन्त्रोच्चार कर के चावल सिद्ध किये हैं ।"
"क्या गुण हैं इनमें ?"
"मन-वांछित फल धन प्राप्ति, स्त्री-सुख, स्वास्थ्य, पुत्रलाभ, शत्रु नाश !”
इतना सुनते ही वे सब चावलों पर टूट पड़े ! प्रत्येक की कुछ इच्छा थी। कार्यालय में काम बन्द हो गया । सब कर्मचारी वहीं एकत्र हो गये । जो आता, वह चुटकी चावल खा जाता ।
जब आधी मुट्ठी चावल बचे, तो मैं उन्हें लपेटते हुए बोला, "अब इतने महाराज के लिए रहने दो ।" इसी समय एक बड़ा अधिकारी वहाँ आया और डपटकर बोला, “कहाँ ले चले ? मुझे भी खाना है । महाराज को दूसरे चक्कर में ला देना । "
उसने शेष चावल मुँह में डाल लिये ।
मैंने खाली अँगोछा झटक कर लपेटा और काँख में दबा लिया ।
बड़ी-बड़ी मूँछों वाले उस भयावह रक्षक - विभाग के अधिकारी ने एक सेवक को बुलाया और उसे आदेश दिया, “इन्हें महाराज के पास पहुँचा दे ।”
मैं सेवक के पीछे चला । चार क़दम ही बढ़ा था कि वह मूँछों वाला आया और मेरा हाथ पकड़कर बोला, “देख बे ब्राह्मण के बच्चे, यदि तूने महाराज को यह चावल वाला मामला बताया, तो तेरी ब्राह्मणी विधवा हो जायेगी ।"
उसने हाथ छोड़ा, तो मैं जल्दी-जल्दी महल में चला गया ।
यह घटना मैंने कृष्ण को सुनायी । वह बड़ी चिन्ता में पड़ गया । मैंने कहा, "तुम राज करते हो या सोते हो ? कैसी धाँधली मची है ! तुम्हारे राज- कर्मचारी चावल तक छीन खाते हैं !”
कृष्ण ने कहा, "मुझे वास्तव में यह नहीं मालूम था । मैं आज ही जाँच-समिति नियुक्त करता हूँ । पर बाहर यह बात तुम किसी को मत बताना । राज्य की बड़ी बदनामी होगी ।"
मैं अकड़ गया । मैंने कहा, "मैं ब्राह्मण हूँ — सत्यवादी । प्राण चाहे चले जायें, सत्य नहीं त्याग सकता । मैं डंके की चोट पर कहूँगा कि राज्य में ऐसा अन्धेर मचा है ।"
कृष्ण की हालत बड़ी दयनीय हो गयी । कहने लगा, “देखो, तुम मेरे मित्र हो । क्या मित्र के लिए थोड़ा झूठ भी नहीं बोलोगे ?”
मैंने व्यंग्य से कहा, “अब तुम्हें मित्रता याद आने लगी । पहले नहीं सोचा कि मेरा एक मित्र सुदामा दरिद्रता में दिन काट रहा है । "
कृष्ण ने कहा, "मेरी स्थिति को तुम क्या समझो । मैं यही नहीं समझ पाता कि कौन मेरा है और कौन पराया । जब से मुझे यह राज पद मिला है, असंख्य आदमी मेरे आत्मीय बन कर मेरे पास सहायता के लिए आ चुके । अभी तक बीस सहस्त्र चाचा, पन्द्रह सहस्त्र काका, पचीस सहस्त्र भतीजे, दस सहस्त्र मौसियाँ और आठ सहस्त्र चाचियाँ आ चुकीं । अब बताओ मैं किस-किस का काम करूँ ? और सच पूछो तो मुझे अभी भी विश्वास नहीं है कि तुम वही सुदामा हो, जो मेरा सहपाठी था, क्योंकि आठवें सुदामा तो कल ही आये थे जिन्हें मैंने बाहर से ही लौटा दिया था । तुम न जाने कैसे भीतर घुस आये ! आ गये तो कोई बात नहीं, पर मित्रता इत्यादि की बात मत करो; क्योंकि मैं क्या जानूँ कि तुम कौन हो । मैं तुमसे सौदा कर सकता हूँ । तुम्हारे पास राज्य का एक रहस्य है जिसे प्रकट करने से शासन कलंकित होगा । बोलो, इस रहस्य को गुप्त रखने का क्या लोगे ? यहाँ इसी तरह दे-लेकर मुँह बन्द कर दिया जाता है ।”
मैं सोचने लगा । जब मित्रता से सौदे पर बात आ गयी है, तो संकोच त्यागना चाहिए ।
मैंने कहा, “अच्छा, ऐसा ही सही। क्या दोगे ?”
“दस सहस्र स्वर्ण-मुद्राएँ।” वह बोला ।
मैंने बनावटी रोष से कहा, “क्या तुमने मेरा ईमान सस्ता समझा है ?"
“तो एक लाख स्वर्ण-मुद्रा, एक भवन और एक ग्राम ले लो।”
इस कीमत पर मैंने ईमान बेच दिया।
कृष्ण ने मुझे अपने रथ पर वापस पहुँचाया। लौटकर मैंने दो मुट्ठी चावल और दो लोक वाली बात बनाकर फैला दी । लोग इसी पर विश्वास करते जायेंगे ।
कभी जब ये पृष्ठ प्रकाश में आयेंगे तब यह सत्य प्रकट होगा कि चावल का एक दाना भी कृष्ण को नहीं मिला। चावल तो कर्मचारियों की 'खुरचन' हो गये। यह भी लोग जानेंगे कि मैंने कृष्ण से दान नहीं लिया, सौदा किया था, कुछ काल के लिए ईमान गिरवी रखा था ।