सुब्रह्मण्यम भारती : व्यक्तित्व और कृतित्व : मंगला रामचंद्रन
Subramania Bharati Vyaktitva Aur Krititva : Mangala Ramachandran
प्रस्तावना
यही तो वो धरती है जहाँ
सरस बातें करते, एक दूसरे का साथ देते
हमारे माताओं-पिताओं ने
प्रसन्नता से बिताया एक संतुष्ट जीवन
यही तो वो भूमि है जहाँ,
हमारे पुरखे जिए सहस्रों वर्ष
यही है, यही है वो भूमि जहाँ
उनके मन में उठे सहस्रों विचार
और उन्होंने स्पर्श किया
अतिरिक्त व अविश्वसनीय ऊँचाइयों को
मंगलाजी जैसी संवेदनशील लेखिका ने अपने पुरखों की पुकार को सुना तो कोई आश्चर्य नहीं है। अपनी पूरी शिक्षा-दीक्षा मध्य प्रदेश के इंदौर में पूरी कर, अपना जीवन मध्य प्रदेश के ही विभिन्न छोटी-बड़ी जगहों पर बिताने के बाद मंगला रामचंद्रन अपने पैतृक स्थान के लिए एक अजनबी ही है। हाँ, यदाकदा रिश्तेदारी में विवाह आदि के बहाने तमिलनाडु जाना हुआ जो उँगली पर गिने जाने तक सीमित है। पर वो कभी भी अपने पैतृक गाँव और अपनी भाषा को नहीं भूली। भारती ने भी तो अपनी भूमि के लिए ही उपरोक्त कविता की पंक्तियाँ लिखी थी।
आखिरकार जब मंगलाजी को मौका मिला वो अपने पैतृक गाँव कडैयम गईं। ये वही गाँव है जहाँ भारतीजी ने जेल से रिहा होने के बाद कुछ समय वास किया था। कडैयम यात्रा के दौरान प्रसिद्ध 'नित्य कल्याणी अम्मन' मंदिर भी गई। देवी के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए उन्हें... भारतीजी की कविता 'उज्जयिनी नित्य कल्याणी' का स्मरण हो आया।
रामरनदी के दर्शन करते हुए उनकी कल्पना ने भारतीजी को तट पर बैठे हुए कविता रचते देखा। भारतीजी के नाम से संचालित गाँव की पाठशाला ने अब तक मंगलाजी के मन में भारतीजी और उनके लेखन पर कलम चलाने को मजबूर सा कर दिया।
यह एक कड़वा सत्य है कि सन 1982 में कविश्रेष्ठ की सौवें जन्म दिन को मनाने के बाद भी भारतीजी पर बहुत पुस्तकें प्रकाशित नहीं हुई। खास कर प्रांतीय भाषाओं में तो एकदम नहीं। इन हालातों में मंगला रामचंद्रन की यह पुस्तक उनका परिचय और जानकारी पाने में मदद करेगी। जैसा कि जाना जाता है वे मात्र आजादी के कवि नहीं थे, उनके लेखन के ही अनगिनत आयाम हैं। भारतीजी तमिल भाषा के पुनर्जागरण के पितृपुरुष भी हैं तथा महान देशभक्त, समाज सुधारक तथा स्वतंत्र भारत के एक शिल्पी भी।
मंगला रामचंद्रन हिंदी की प्रतिष्ठित लेखिका हैं जिनकी दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। इस महती कार्य के लिए वे एकदम उपयुक्त हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि हिंदी लेखन जगत में इस पुस्तक का ससम्मान स्वागत होगा। साथ ही कविश्रेष्ठ भारतीजी के प्रति जिज्ञासा में वृद्धि करेगा।
भारती जयंती नेलै
11 दिसंबर 2011 एम. श्रीनिवासन
011-गोल्फ मनर अपार्टमेंट्स,
126, नल विंड टनेल रोड,
मुरुगेश पलाया, बेंगलुरु-500017
संक्षिप्त परिचय : एम. श्रीनिवासन
तमिलनाडु के नेलै संभाग के छोटे से गाँव आयकुड़ी में 21 सितंबर 1929 को पैदाइश।
शिक्षा 'सेंट जेवियर कॉलेज, पालयमकोटै तथा सेंट जेवियर कॉलेज, कोलकाता से।
संप्रति - डाइरेक्टर तथा उपाध्यक्ष, ए पी जे कोलकाता। सन 1947 से 1995 तक कोलकाता में रहते हुए 'भारती तमिल संघम' कोलकाता के अध्यक्ष रहे। सन 1982 में कोलकाता में भारती के सौंवी जन्मतिथि पर इनके प्रयास से भारती की प्रतिमा का प्रतिष्ठापन हुआ। इस कार्यक्रम में प. बंगाल के मुख्यमंत्री श्री ज्योति बसु, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री श्री एम.जी. रामचंद्रन भी उपस्थित थे। कोलकाता की एक सड़क का नाम 'कवि भारती सरणी' भी रखा गया।
देशीय हाईस्कूल के अध्यक्ष भी रहे।
एक दर्जन से भी अधिक पुस्तकों के रचयिता श्रीनिवासन लगभग पूरे भारत का ही नहीं विदेश भ्रमण भी कर चुके हैं। अनेक भाषाओं के जानकार हैं तथा इनकी पुस्तकों को पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। इन्हें अनेक सम्मानों से नवाजा गया। तमिल भाषा के प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन अभी भी जारी है।
साक्षात्कार - श्रीमान एम.श्रीनिवासन जी से
मंगला - आपने लंबे समय तक तमिलनाडु के बाहर भारती पर कार्य किया था, भारती और उनकी महानता पर क्या सोच रखते हैं?
एम. श्रीनिवासन - भारती स्वतंत्र भारत के अनेक शिल्पियों में से एक थे। उन्होंने अपने गीतों से तमिलजनों को आलस्य और तंद्रा से जगाया। उन्होंने हमारी आँखों को वो दृष्टि दी जिससे अपने ही पतन, गरीबी, अनभिज्ञता और अज्ञानता को देख सके। हमें स्वतंत्रता की राह दिखाकर विदेशी परवशता और बंधन से मुक्ति की युक्ति दिखाई। तमिल को कट्टर पंडिताई से छुड़ाकर वर्तमान रूप में लाए, जो नया और जीवंत है। भारती ही तमिल पुनर्जागरण के पितृपुरुष हैं। उनके समस्त योगदान को समझने के लिए हम राजा जी (स्व. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी) के इस कथन पर गौर करते हैं।
'प्राचीन समय में व्यास और वाल्मीकि ऋषियों ने अपने लेखन से मानव की संस्कृति और सभ्यता की प्रगति में योगदान दिया। वही कार्य भारती ने अपने लेखन से तमिलजनों के लिए किया।'
भारती की कविताओं को जितना भी पढ़ते जाते हैं वो हमें उतना ही अधिक लुभाता जाता है।
मंगला - विज्ञान और तकनीकि की प्रगति के इस युग में आपको भारती कितने प्रासंगिक लगते हैं?
एम. श्रीनिवासन - आपके प्रश्न का उत्तर तो राजाजी के कथन में ही निहित है। यदि व्यास और वाल्मीकि इस युग में प्रासंगिक है तो फिर भारती भी हैं। ये सभी इसलिए प्रासंगिक हैं क्योंकि इनका लेखन जीवन के शाश्वत और बुनियादी मूल्यों को स्थापित करता है। जीवन के आधार 'धर्म' की बातें बताते हुए उसी अनुसार जीने की प्रेरणा देता है।
मंगला - आपके अनुसार अच्छे पद्य के क्या-क्या गुण होना चाहिए? भारती ने कविता को किस तरह परिभाषित किया है?
एम. श्रीनिवासन - भारती के अनुसार अच्छी कविता या गीत में उर्वरता, पारदर्शिता, ऊँची और गहरी सोच के साथ ही सत्यांश होना चाहिए। गुणों के साथ अगर रंग घुल-मिल जाएँ तो कोई हर्ज नहीं पर न मिलें तो ये उसकी विशेषता होगी। अपने एक आलेख में उन्होंने कविश्रेष्ठ कंबन के कथन 'कविताओं में आभा, स्पष्टता तथा शांत चाल होना चाहिए' को न्यायसंगत बताया है। मेरी स्वयं की भी यही धारणा है। पाठक को गहराई तक असर करने वाली कविताओं में इन्हीं सारे गुणों का समावेश होगा।
मंगला - पद्य रचना की कला के बारे में भारती ने कभी कुछ कहा क्या?
एम. श्रीनिवासन - हाँ-हाँ क्यों नहीं, भले ही प्रत्यक्षतः नहीं पर कई बार इस पर टिप्पणी की है। नए विचार और नई सोच को अपनी कविताओं में उतार कर उसे ऊर्जा प्रदान की और जीवंत बना दिया। इस प्रयास और प्रयोग में वो अत्यंत सफल भी हुए।
मंगला - भारती पर पश्चिम का भी प्रभाव पड़ा होगा?
एम. श्रीनिवासन - यथेष्ट प्रभाव पड़ा। एक लंबी दासता के बाद जिस तरह अन्य भारतीय भाषाओं के चिंतन और लेखकों पर पश्चिम की उदारता और स्वतंत्रता की सोच को ऊर्जा मिली। भारती फ्रेंच आधिपत्य के पांडिचेरी में रहे थे जिससे उन्हें फ्रेंच भाषा को सीखने के अलावा उदारता, समानता व भाईचारे की सोच भी प्राप्त हुई। इस सोच का प्रचार उन्होंने अपने गद्य और पद्य दोनों में भरपूर किया। उन्होंने शेक्सपीयर, शैली व अन्य पश्चिमी कवियों के अलावा अमेरीकन कवि 'आजादी के कवि' कहे जाने वाले वॉल्ट व्हिटमेन और फ्रेंच कविगण विक्टर ह्यूगो, दांते व मैज़िनी का भी अध्ययन किया था।
मंगला - भारती के धार्मिक आचार-विचार किस प्रकार के थे?
एम. श्रीनिवासन - भारती एक वफादार परंतु उदार हिंदूवादी थे। अपने ब्राह्मणत्व एवं हिंदू होने के लिए माथे पर तिलक लगाकर या जनेऊ पहनकर प्रमाणित करने का यत्न नहीं करते थे। कह सकते हैं कि उनके गीतों में उनका यह आशय स्पष्ट झलकता है।
भागवत, केनोपद, पतंजलि योग सूत्र आदि ग्रंथों पर टीका की है तो वैदिक ईश्वर स्तुति का अनुवाद भी किया है। लगभग हर हिंदू देवी-देवताओं पर गीतों की रचना की है। श्रीकृष्ण पर तो उन्होंने बड़ी संख्या में रचनाएँ लिखी, जिन्हें सम्मिलित रूप से कृष्ण पाटु (गीत) कहा जाता है। इसके अलावा अल्लाह, ईसा आदि पर भी रचनाएँ की हैं। असल में वे दिलों-दिमाग से उदार प्रवृत्ति के थे और एक सच्चे तथा अच्छे धर्म पर विश्वास करते थे। इसके बावजूद धर्म-परिवर्तन के सख्त खिलाफ थे।
मंगला - अंत में पूछना चाहूँगी कि आप समग्र रूप से भारती को किस तरह शेष करना चाहेंगे?
एम. श्रीनिवासन - सार्वभौमिक रूप में एक युगपुरुष की तरह जो धरती पर सतयुग के लिय पथ प्रदर्शक बने।
श्रीमान श्रीनिवासन जैसे विद्वान से मिलने व अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने का ऐसा मौका मैं छोड़ना नहीं चाहती थी। साथ ही उनके उदार और सरल स्वभाव ने मुझे उनसे वार्तालाप करने का अवसर दिया। जिससे मेरी पुस्तक को दिशा मिलती रही और क्रमशः आगे बढ़ते हुए अंततः अपने पाठक के हाथों में पहुँच ही गई। मन ही मन इन विद्वान पितृवत पुरुष का आभार मानती रहती हूँ, जिनके आशीर्वाद से यह कार्य संपन्न हुआ।
मंगला रामचंद्रन
1. तत्कालीन दक्षिण भारत
'मेरा हृदय दुख से विदीर्ण हो जाता है जब मैं अस्थिरता में जीते लोगों को देखता हूँ। जो गरीबी भूख और अनेक कारणों से मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। उन्हें बचाने का कोई उपाय भी नहीं है।'
तब ब्रिटिश साम्राज्य का पूरे भारत पर एकछत्र राज्य हो गया था। दक्षिण भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। दक्षिण भारत के कट्टबोम्मन का नाम अपने शौर्यता-वीरता तथा बलिदान के लिए जाना जाता है। पर अँग्रेजों ने ही नहीं देश के बड़े-बड़े अँग्रेजी ज्ञाताओं ने भी उस समय उसे मात्र सिपाहियों का छोटा-मोटा विद्रोह माना। इसमें हिंदू-मुस्लिम ने भाईचारे की मिसाल कायम करते हुए संयुक्त रूप से विद्रोह किया। विद्रोह की इस शुरुआत के बाद दक्षिण भारत में भी राष्ट्रीय प्रेम और देशभक्ति का जज्बा जाग उठा था। पर अँग्रेज अपनी नीति के तहत सदा ही विद्रोहों को आरंभिक अवस्था में ही धराशायी करते गए। इस तरह महारानी विक्टोरिया भारत का राज सँभालते हुए सर्वेसर्वा हो गई। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने भारत का भाग्य विधाता बन कर पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। इतना ही नहीं भारत के स्वतंत्रता-संग्राम को रोकने व उसके जोश और जोर को कम करने के लिए कई प्रयास करते रहे। उन्हीं प्रयासों में से एक था भारत के लोगों को अँग्रेजी भाषा का ज्ञान देकर उन्हें सभ्य और शिक्षित बनाना। वो इसे 'जंगली को मानव बनाना' मानते थे। भारतीय भी कुछ हद तक अँग्रेजों की चाल में आ गए थे। तभी तो आजादी के बाद भी भारत में उनकी भाषा बची भी रही और सम्मान भी पाती रही।
उस समय गाँव का माहौल था और लोग शहरी वातावरण से दूर थे। ग्रामीण सुरम्य वातावरण में बैलों की जोड़ियों के गले में बाँधी घंटियों की रुनझुन के साथ, सजी हुई बैलगाड़ी में सवारी करना, यात्रा करना शान माना जाता था। व्यक्ति की बीमारी हो, गरीबी हो सबके लिए भाग्य को दोषी माना जाता, तकदीर का या माथे का लेखा माना जाता। पद और पदवी के लिए अँग्रेजों को अनगिनत सलाम ठोंकने का रिवाज था। अपनी संस्कृति और संस्कार को छोड़ विदेश में अध्ययन व अँग्रेजों की नकल का भी जमाना था। ब्रिटिश महारानी या साम्राज्ञी का राज्य ही मानों रामराज्य हो और उनके अधीन रहना ही मानों देशभक्ति हो, इस तरह की मनोधारणा फैलती जा रही थी। भारत जैसे प्राचीन इतिहास, सभ्यता वाले राष्ट्र में अँग्रेजों की अधीनता में देशवासी अपने संस्कार और संस्कृति को छोड़ने पर आमादा हो रहे थे। पर भारतीय संस्कृति की महत्ता को प्रमुख रूप से रेखांकित करते हुए आधुनिक विचारों से लैस कुछ महानुभाव हुए। जिनमें प्रमुख हैं राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानंद जिन्होंने भारत की धनी-सांस्कृतिक धरोहर को अक्षुण्ण रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। लोगों में धर्म और संस्कृति के अलावा देश प्रेम की भावना को भी जगाया और पल्लवित किया।
ऐसे काल में दक्षिण भारत में तिरूनेलवेल्ली जिले के चीवलबेरी गाँव में सुंदरराजन रहते थे। यही सज्जन चिन्नस्वामी अय्यर नाम से जाने जाते थे। ये पढ़े-लिखे विद्वान थे जिन्हें विज्ञान और गणित से जबरदस्त मोह था। यहाँ तक कि विदेशों से आई मशीनों को भी सुधार लेते थे। इनका विवाह एटैयापुरम गाँव की लक्ष्मी नामक कन्या से हुआ। एटैयापुरम मदुरै से लगभग सौ कि.मी. दूर है। यहाँ के जमींदार को राजा की पदवी मिली हुई थी। राजा राम वेंकटेश्वर एट्टप नायकर, उस समय एटैयापुरम के राजा थे। इनके चाचा जो दादा महाराजा कहलाए, राजा की संतान न होने से इनके बाद राजा बने। दोनों ही राजाओं को कला व साहित्य से बहुत लगाव था। इनके दरबार में सुबह से रात तक विद्वत्जनों का आना-जाना, विद्वत-सभा, गोष्ठी, संगीत सभा आदि का आयोजन होता रहता था। यहाँ तेलुगू, तमिल, संस्कृत तथा संगीत के विद्वानों का जमावड़ा होता रहता। विद्वानों का सत्कार, आदर-सम्मान होता रहता व ईनाम आदि मिलते रहते।
विद्वान चिन्नस्वामी अय्यर को लगा कि उनके ज्ञान का सही मूल्यांकन एटैयापुरम में हो सकता है। सो उन्होंने अपने पुरखों की जन्मभूमि छोड़ एटैयापुरम आने का मन बना लिया। एटैयापुरम आकर इन्होंने अच्छा ही किया। तमिल के विद्वान, अँग्रेजी भाषा को स्वयं सीख कर उसमें भी प्रवीण हो गए थे। साथ ही विदेशी गणित व यंत्र विज्ञान का भी ज्ञान था। इस तरह राजा के दरबार में विद्वानों के सरताज बन गए। राजा और दूसरे विद्वजन उनका आदर करते थे। एटैयापुरम जैसे छोटे गाँव में उन्होंने सन 1890 में ही जीनिंग मशीन लगाकर छोटी सी फैक्ट्री खोली। उस वक्त के हिसाब से ये बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी। ऐसे महान विद्वान के घर प्रथम पुत्र के रूप में सुब्रमण्यम का जन्म हुआ।
2. सरस्वती पुत्र का जन्म
'मैं प्रातः जाग कर आकाश को देखता हूँ तो पूर्व में उगते अपूर्व सूर्य को पाता हूँ। चारों ओर मुझे दिन का चमकदार उजाला दिखता है।'
कला और विज्ञान दोनों में दक्षता प्राप्त श्री चिन्नस्वामी अय्यर और उनकी सुंदर और बुद्धिमति पत्नी लक्ष्मी को 11 दिसंबर 1882 में प्रथम पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। हिंदू पंचांग के हिसाब से चित्रभानु वर्ष के कार्तिक मास की 27 वीं दिनांक को मूल नक्षत्र में पुत्र जन्म हुआ। उनका नाम भगवान कार्तिकेय के नाम पर सुब्रमण्यम रखा गया। उसे घर के व गाँव वाले लाड से 'सुबैया' बुलाते थे। दक्षिण भारत में शिशु के जन्म लेते ही कुंडली (पत्रिका) बनाने की प्रथा है। इस शिशु के जन्म के समय की ठीक गणना किसी ने नहीं की, जिसके कारण उसकी जन्म कुंडली नहीं बन पाई।
एक कहावत है। 'कक सपमि जव लमंते दक दवज लमंते जव सपमिष्' जो जीवन मिला है उसमें जीवन (जीवंतता) लाइए ना कि जीवन की लंबाई को मात्र वर्षों से बढ़ाइए। सार्थक जीवन जीने वाले यही करते हैं। जीवन और मृत्यु के बीच के फासले को अपने सद्कर्मों से पाट देते हैं और अपने जन्म को सार्थक कर देते हैं। नन्हें सुबैया से भारती बने श्री सुब्रमण्यम भारती ने अपने उनतालीस वर्षीय अल्प जीवन यात्रा में ऐसा ही कुछ कर दिखाया।
तमिलनाडु के तिरूनेलवेली जिले में एक छोटा सा गाँव है 'एटैयापुरम'। यहाँ के जमींदार को 'राजा' की पदवी मिली हुई थी। इनके यहाँ विद्वान के रूप में श्री चिन्नस्वामी अय्यर नियुक्त थे। इन्हीं चिन्नस्वामी अय्यर और इनकी पत्नी लक्ष्मी अम्मांल को दिसंबर 11, 1882 में एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। जिसका नाम सुब्रमण्यमन रखा गया और लाड से सुबैया बुलाने लगे। श्री चिन्नास्वामी की विद्वता से राजा बहुत प्रभावित थे और इन्हें राजा के प्रसाद में इच्छानुसार आने-जाने की पूरी स्वतंत्रता थी।
बालक सुबैया का जन्म स्थान अपने पुरखों की जमीन पर न होकर माँ के मायके का हो गया। वो आधा समय अपने घर रहता और आधे समय ननिहाल में। दोनों ही घरों में उसे बहुत प्यार-दुलार हुआ। उसकी मौसियाँ तो उस पर जान छिड़कती थी। सुबैया की एक बहन और पैदा हुई जिसका नाम भागीरथी रखा गया था। पर वो बचपन में ही काल कवलित हो गई। लाड-प्यार के इस वातावरण में उस परिवार पर वज्रपात हो गया।
सुब्बैया जब मात्र पाँच वर्ष के थे तो उसकी माँ लक्ष्मी अम्माल का देहांत हो गया। बिन माँ के सुबैया का ननिहाल में और भी अधिक लाड होने लगा। सुबैया के पिताश्री दो वर्ष तक बालक की देखभाल और घर का जिम्मा उठाते रहे। पर राजा के दरबार में आना-जाना, साहित्य कला में रचना करना, विद्वानों की गोष्ठियों में हिस्सा लेना कठिन होता जा रहा था। उसके पिता पुनर्विवाह के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। पर आखिरकार दो वर्ष के पश्चात बालक की देखभाल के लिए उन्हें विवाह करना पड़ा। तब सुबैया सात वर्ष के हो गए थे। ब्राह्मण परिवार की परिपाटी के अनुसार तभी उनका जनेऊ संस्कार भी हुआ। सुब्बैया की विमाता बहुत अच्छे और उदार स्वभाव की थी और उसे सगी माँ की तरह स्नेह करती थी।
3. शिक्षा-दीक्षा
'हम उन ग्रंथों को सुनें जो कहता है ज्ञान ही ईश्वर है। इसी पर गर्व करें
ना कि दूसरे धर्मों का सोचकर स्वयं को संशय में डाले।'
एटैयापुरम में आंग्ल वर्नाकुलर स्कूल में पढ़े। फिर तिरूनेलवेल्ली के हिंदू कॉलेज में कक्षा नौ तक शिक्षा ग्रहण की। सुब्बैया स्कूल जाते थे, सभी विषयों में सफल भी हो जाते थे पर तमिल साहित्य से उसे विशेष प्रेम था। साथ ही प्रकृति का साथ उसे अत्यधिक भाता। प्रकृति के हरे-भरे विभिन्न रंगों को निहारते कभी उड़ते बादल में नाचते हुए मोर या लेटे हुए हाथी का स्वरूप ढूँढ़ निकालते। बाकी बच्चों के साथ कभी खेले-कूदे नहीं। खेल से अरुचि होने और स्वंय के दुबले-पतले होने का, कुछ बड़े हो जाने पर उसे हमेशा दुख भी हुआ।
उनके प्रकृति प्रेम के कारण वे खुले आसमान के नीचे इस तरह विचरते रहते थे कि हरियाली, नीलिमा तितलियों, और चिड़ियों के बीच उनका अपरिमित समय निकल जाता था। ऐसे में उन्हें ना भूख लगती ना प्यास। स्कूल से घर लौटते हुए भी इसी मनोस्थिति में होते और अपना बस्ता आदि कहीं का कहीं छोड़ देते। बालक की विमाता उसकी आदतों से परिचित हो चुकी थी। वो नया बस्ता-स्लेट आदि खरीद कर रखे रहती थी, जिससे उसे पिता के लौटने पर डाँट भी नहीं पड़ती थी। पिताजी को तो पता ही नहीं चल पाता कि बेटे ने बस्ता खो दिया है। सुब्बैया का प्राकृतिक प्रेम का जज्बा मानों उसे ईश्वरीय कृपा के रूप में स्वयंमेव प्राप्त था।
चिन्नस्वामी गणित के धुरंधर थे और मशीनरी का भी सूक्ष्म ज्ञान रखते थे। विदेशी मशीनों को भी वे सुधार लेते थे अपने बेटे सुब्बैया को गणित और अँग्रेजी में विद्वान बना देखना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि बेटा पढ़ लिख कर ऊँचे पद पर आसीन हो। घर पर उसे गणित और अँग्रेजी का ज्ञान देने की उनकी कोशिश बनी रहती थी। बालक सुब्बैया भी पिता का आदर करते हुए ध्यान से सीखता। पर उसका मन हर बात, हर शब्द, हर ध्वनि और वातावरण से प्रेरित होकर तुकबंदी करने लगता। उनके मुँह से कविताएँ यूँ सहज होकर झरती कि लगता माँ शारदा उनकी जीभ की नोक पर ही विराजी हुई हों।
बाल्यावस्था में माँ का देहांत हो जाने से कदाचित हर स्त्री में वो माँ की छवि देखते थे। उनकी कविताओं में भी 'अम्मा' की सतत व अनवरत गूँज है। 'अम्मा' की इस प्यास ने ही शायद उन्हें गणित व अन्य विषयों की ओर से विरक्त किया हो। साथ ही इसी प्यास ने उनमें तमिल साहित्य के प्रति आसक्ति जगाई हो। यह भी हो सकता है उनकी दिवंगत माता की यही इच्छा रही हो और उन्हीं का आशीर्वाद रहा हो। सुब्बैया की रुचि और प्रवृत्ति से उसके पिताश्री भी अनजान नहीं थें। इसीलिए उन्होंने रामायण, महाभारत, तिरूकुरल (जीवन के हर क्षेत्र में मनुष्य के आचार-विचार तथा व्यवहार को नियंत्रित करते आदर्श मानक की तमिल पुस्तक। इस पुस्तक का अनुवाद अनेकों देशी-विदेशी भाषाओं में हुआ है।) व अन्य ग्रंथों को काव्य रूप में स्वयं ही सिखाया। मात्र सात वर्ष में सुब्बैया बड़ी-बड़ी अर्थपूर्ण कविताएँ सुनाने वाला बालक बन गया। सन 1893 में जब वे मात्र ग्यारह वर्ष के ही थे स्वयं माकूल कविताएँ रचने लगे।
उनकी किशोरावस्था की एक घटना जिसे भुलाया नहीं जा सकता। उनके दोस्तों में उनके मामा भी थे जो उनसे मात्र तीन वर्ष बड़े थे। ये दोनों गाँव में घूमते, खेलते, कूदते और शरारत करते। सुबैया के पिताजी की जीनिंग फैक्ट्री में दोनों अक्सर ही जाया करते। पिता चिन्नस्वामी अय्यर जिन्हें मशीनरी से बेहद प्यार था, बहुत खुश होते। वे सोचते कि बेटे का विज्ञान से लगाव बढ़ेगा। जब कि दोनों बालक यूँ ही मटरगश्ती करने हेतु इधर-उधर जाते थे। एक बार तो छुट्टी वाले दिन दीवार फंड कर फैक्ट्री गए और अपने पिता के मेज की दराज आदि खोल-खोल कर यूँ ही देख रहे थे। एक दराज में एक चमकदार नली दिखी। उसे हाथ में ले भी लिया, जो कि एक पिस्तौल (रिवाल्वर) थी। मामा सांबाशिव अय्यर ने यूँ ही उसे चला दी। बार खाली गया। पर अगले ही खोल में गोली थी जो बड़ी आवाज करते हुए चल गई। वो गोली सुबैया के सिर के एक दम पास से निकली और वो सही में बाल-बाल बचे।
4. तमिल प्रेम
मधुर तमिल भाषा चिरंजीवी हो
तमिलभाषी लंबी उम्र पाएँ हमारा महान देश चिरंजीवी हो जिसे भारत कहते है।
सुब्रमण्यमन के पिताश्री को अँग्रेजी भाषा, गणित व मशीनरी से जितना लगाव था, उतना ही वो इनसे दूर भागते थे। ये सब उन्हें करेले की तरह कड़वा लगता। बेटे को तमिल साहित्य, साहित्य के विद्वानों के बीच की बहस और चर्चा से अथाह प्रेम था। वो छोटा होते हुए भी अपने विचार रखता और विद्वानों से बहस करता। राजा साहब और उनके चाचाजी उसको शह देते।
एटैयापुरम में कंबन की रामायण के महापंडित एक वृद्ध सज्जन थे। अपनी मर्जी से उनके पास साहित्य के अध्ययन के लिए सुब्रमण्यमन और उनका एक दोस्त सोमसुंदरम जाया करते थे। मंदिर में उत्सवों के लिए जो पालकियाँ रखी रहती थी उनके बीच छिपकर बैठते और अध्ययन करते। दोनों के ही घरों में तमिल साहित्य के अध्ययन के लिए कोई उत्साह का वातावरण नहीं था। वरन अँग्रेजी सीखने का आग्रह ही अधिक था। हालाँकि उनके नाना ने उसके तमिल प्रेम को प्रोत्साहन दिया। पिता भी तमिल के खिलाफ नहीं थे, पर जीवन में उन्नति के रास्ते पर चलने के लिए उनके हिसाब से विज्ञान और अँग्रेजी अधिक आवश्यक थी। पर सुबैया तो कंबन और वल्लुवर को चख चुका था।
एटैयापुरम के राजा का तथा उनके साहित्य प्रेमी चाचा का सुब्बैया के प्रति स्नेह था। जब सुब्बैया के पिता घर पर होते तो वे राज प्रासाद में आकर राजा को अपनी बनाई कविताएँ सुनाते। छोटी सी उम्र में इतनी विद्वता और संवेदना देख कर राजा आश्चर्य से भर जाता। असल में यह बालक मानसिक परिपक्वता में अपनी उम्र से कहीं अधिक आगे था। राजा की सभा में बड़े-बड़े विद्वान थे जो उम्र और अनुभव में सुब्बैया से बहुत आगे थे। पर उनके बीच राजा को अपनी रची कविताएँ सुनाने में वो जरा भी न हिचकता। अपने विचार, अपनी बात निडर होकर सबके सामने रखता। उसकी इन्हीं बातों के कारण राजा सुब्बैया से स्नेह करते थे और उसके प्रति आदर भी प्रदर्शित करते थे। राजा की देखा-देखी सभा के विद्वजन भी सुब्बैया के प्रति आदर और स्नेह दिखाते। पर मन ही मन बालक से ईर्ष्या करते और उसे नीचा दिखाने का मौका ढूँढ़ते, तरह-तरह की युक्तियाँ सोचते। इसी समय ग्यारह वर्ष की ही उम्र में सभा के विद्वान पंडितों के बीच राजा ने सुबैया को 'भारती' की उपाधि से सुशोभित किया। भारती अर्थात वाग्देवी का ही दूसरा रूप। इस तरह बालक सुब्बैया बना सुब्रमण्यमन भारती।
भारती के पिताश्री को अपने बेटे का राजा के यहाँ जाना और कविता सुनाने की बात का पता नहीं था। एक दिन भरी सभा में राजा ने चिन्नस्वामी से कहा 'सुब्बैया जैसे पुत्र रत्न को पाकर आप तो धन्य हो गए। आपका बेटा एक दिन अवश्य ही अपने गाँव एटैयापुरम का नाम रोशन करेगा।'
चिन्नास्वामी अय्यर को कोई अंदाज ही नहीं था कि राजा साहब ऐसा क्यों बोल रहे हैं। वो तनिक डर भी गए थे और सकुचा रहे थे कि कदाचित उनके बेटे को चिढ़ाया जा रहा है। उनका प्रकृति प्रेमी बेटा घूमता रहता है, फूल-पत्ती, चिड़ियों आदि से ही नहीं स्वयं से भी बातें करता रहता है। बेटा निडर तो है ही कहीं उल्टा-सीधा कुछ बोल नहीं दिया हो। यही सब सोचते हुए, कुछ भयभीत होकर बोले - 'राजा साहब, मेरा बेटा नासमझ और नादान है। उसने कुछ गलत कहा या किया हो तो उसकी तरफ से मैं क्षमा माँगता हूँ।'
राजा को चिन्नस्वामी की मुद्रा और बातें सुन कर हँसी आ गई। 'मैं सत्य ही उसकी तारीफ कर रहा हूँ। आपकी गैर मौजूदगी में उसने स्वयं की बनाई कविताएँ मुझे सुनाई। नवरसों और उच्च भावों से भरपूर उसकी कविताओं की सरल, सरस भाषा ने मुझे मोह लिया। बालक की विद्वता का मैं कायल हो गया हूँ। कभी आप भी छुप कर सुनिए।'
चिन्नस्वामी अय्यर की जान में जान आई अपने बेटे की प्रशंसा से उनकी छाती गर्व से चौड़ी हो गई।
भारती किशोर विद्वान थे और अपने हास्यपूर्ण वार्तालाप से राजा का मनोरंजन करते थे। पर राजा की रसिक वृत्ति के अनुकूल श्रृंगार रस की रचनाएँ सुनाना या इस तरह की चर्चाएँ करना उनके बस का नहीं था ना ही उन्हें पसंद था। ऐसी स्थिति में वे स्वयं को असहज पाते। राजा की एक गलत नसीहत से उन्हें एक गलत आदत लगते-लगते रह गई। भारती दुबले-पतले शरीर के थे। राजा ने उनसे कहा 'तुम विद्वान तो हो पर शरीर से कमजोर हो। शरीर को भी ताकतवर बनाने के लिए एक चूर्ण है। इसका प्रतिदिन नियमित सेवन करने से खुलकर भूख लगती है जिससे तुम्हारी खुराक बढ़ेगी। अफीम-गांजे के नियमित सेवन से इनसान की भक्षण शक्ति बढ़ती है। गांजे का सेवन उन्होंने प्रारंभ अवश्य किया, पर अच्छा हुआ कि ये छोटे-मोटे प्रयोग उनकी आदत में शुमार नहीं हुए। बल्कि आगे चल कर इस घटना को भारती ने हास्य का बायस बनाया हुआ था।
भारती के साथ हुई उपरोक्त घटना से महात्मा गांधी के साथ घटी घटना की याद अनायास ही दिमाग में कौंध जाती है। गांधी जी भी दुबले-पतले थे और स्वयं के कुछ बड़ी उम्र के साथी के कहने पर चोरी से मांस खाने लगे। उनको उसका स्वाद अच्छा न लगने पर भी केवल शरीर को तगड़ा बनाने के उद्देश्यों से खाने लगे। इसके लिए पैसों की जरूरत पूरी करने के लिए चोरी भी की। पर अतिशीघ्र अपनी भूल को समझ कर अपने पिता को पत्र में पूरा ब्यौरा लिखकर क्षमा भी माँग ली। बालपन या किशोरावस्था में बच्चों को सही मार्गदर्शन न मिलने पर दूरगामी नुकसान हो सकता है।
चिन्नस्वामी की बड़ी इच्छा थी कि भारती को गणित तथा विज्ञान में पारंगत कर के उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजा जाए। उनका उद्देश्य था एक मशीनरी का कारखाना भारत में कही स्थापित किया जाए। वे तकनीकि शिक्षा के प्रति जूनून की हद तक आसक्त थे और इसके लिए उन्होंने कुछ पूँजी भी लगाई। पूँजी डूब गई, सब गँवा दिया। ऐसे में भारती को लेकर पाले गए ऊँचे-ऊँचे सपने तो क्या पूरे होते। भारती की विमाता के भी एक पुत्र और एक पुत्री हो गए थे और घर में सदस्यों की संख्या बढ़ गई थी। घर का खर्च ही कठिनाई से चल पाता था। तब तक भारती ने बारह वर्ष की उम्र में तिरूनेलवेली के हिंदू कॉलेज से नौंवी कक्षा पास की।
भारती में हास्य का बड़ा जबरदस्त माद्दा था। अपने गंभीरतम विचारों को भी व्यंग्य व हास्य में सराबोर करके व्यक्त करने की अद्भुत क्षमता थी। उन्होंने उसी समय किशोरावस्था में प्रवेश किया था। सो हमउम्र साथी इनके परिपक्व विचारों को समझ नहीं पाते थे। भाई-बहन उम्र में छोटे थे, उन्हें सुनाने का प्रश्न ही नहीं था। पिताश्री को सुनाने का साहस ही नहीं होता था, आखिर वो विद्वानों के भी पंडित थे। सो उनके विचार अन्य विद्वानों, जो उनसे उम्र में बहुत बड़े थे, को ही सुनाया करते थे। इनमें से कई उनसे खार खाते थे पर उनका भी साहस नहीं होता था कि भारती को छोटे हो या नासमझ हो कह कर दुत्कार दें।
देश की गुलामी से वो बहुत दुखी रहते थे। उन्हें लगता उनकी माँ ही कैद में है। दुख से कातर होकर भारत माता की आजादी के लिए क्रंदन भरी कविताएँ रचकर क्रांति घोष (नाद) करते। उस छोटी उम्र में ही उनके दिल में देश प्रेम का सैलाब सा उमड़ता था। अन्य विद्वान उन्हें नीचा दिखाने की जुगत भिड़ाते रहते पर उन पर इस सबका कुछ असर न होता। वो तो सतत पद्य रचना में लगे रहते जिससे पद्यों की संख्या अनगिनत हो गई थी। आगे चल कर सन 1912 के करीब उन्होंने अनेक प्रसिद्ध खंड काव्य की रचना की। इनमें भी 'पाँचाली शबदम्' में इन्होंने अपने दिल को निकाल कर रख दिया।
5. विवाह
'तुम मेरा प्रकाश हो और मैं तुम्हारा नेत्र। तुम बहती हुई मधु हो मैं मधु के पीछे उड़ता हुआ भँवरा।'
भारती की सोच प्रगतिशील थी और वो अपने समय से बहुत आगे थे। अंधविश्वास का विरोध करते थे। विधवा विवाह की पैरवी करते, बालक-बालिका में भेद न करने का कहते। इसी तरह बाल विवाह का भी विरोध करते थे। पर उन्हें अपने पिता की जिद और हुक्म के आगे सिर झुकाना पड़ा। जब वो साढ़े चौदह वर्ष के थे तभी अपने से सात वर्ष छोटी चेल्लमा से विवाह करना पड़ा। उन दिनों विवाह के बाद पति-पत्नी लंबे समय तक आपस में बात नहीं करते थे। अन्य लोगों के सामने तो किसी भी हालत में नहीं। पर भारती ऐसे विचारों को परे सरका देता। वो तो चेल्लमा पर कविताएँ बनाते और जोर-जोर से उसका पाठ भी करते। छोटी सी चेल्लमा लाज से मर जाती और अन्य लोगों को मजाक करने और चिढ़ाने का कारण मिल जाता।
भारती के जीवन में उथल-पुथल की कमी नहीं थी। बचपन में माँ को खोया और अपने विवाह के एक वर्ष बाद किशोरावस्था में पिता का साया सिर से उठ गया। उस समय तक उनकी मसें भी भीगी नहीं थी। अपनी विमाता और भाई-बहन का भार कहाँ से उठा पाते। पिता की मृत्यु पर उनकी बुआ और फूफाजी इलाहाबाद से आए थे। भारती उस समय नौंवी कक्षा में थे। बुआ को उनकी शिक्षा की फिक्र हुई कि अधूरी न रह जाएँ। वो भारती को अपने साथ इलाहाबाद ले गईं। यायावरी तबीयत के भारती वैसे भी अपने छोटे से गाँव के बाहर निकलना ही चाहते थे।
6. हाईस्कूल की शिक्षा
'मेरे पिताश्री ने मुझे नेलै भेजा विदेशियों की कला सीखने को। यह उसी तरह था मानो सिंह शावक को जबरदस्ती घास खिलाई जा रही हो।'
भारती को इलाहाबाद, काशी में पढ़ने का मौका मिल गया। उन दिनों काशी में अलग से सर्वकला शाला नहीं थी। इसलिए कलकत्ता की सर्वकला शाला की प्रवेश परीक्षा की तैयारी की। काशी के सेंट्रल हिंदू कॉलेज के दसवीं (आज के हायर सेकेंडरी) में दाखिला लिया। उनका मन पढ़ाई के निश्चित मानदंडों के बीच जरा भी नहीं रमता था। प्रतिदिन स्कूल जाना भी उन्हें नहीं भाता था। स्वच्छंद पक्षी की तरह अपनी मौज के अनुसार काम करना चाहते थे। कक्षा में शिक्षक पढ़ाते रहते और वो शिक्षक के बारे में हास्यपूर्ण कविताओं की पंक्तियाँ लिखते रहते। कागज के उस पुर्जे को पास के लड़के को देते। वो पंक्तियाँ इतनी सटीक होती कि उस लड़के की हँसी रुक न पाती। कागज का वो टुकड़ा कक्षा में यात्रा करता हुआ लगभग सभी छात्रों के पास जाता। पूरी कक्षा मुँह छुपा कर हँसने लगती तभी किसी न किसी बहाने भारती कक्षा से बाहर चले जाते।
भारती के परिजन की चिंता ये नहीं थी कि वो शिक्षा में पीछे रह जाएगा। उनका दुख ये था कि इतना होशियार बालक अपना पूरा ध्यान शिक्षा में नहीं लगा रहा है। उसके भविष्य की चिंता भी उन लोगों को सता रही थी। परिजनों की चिंता के विपरीत प्रवेश परीक्षा में वे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। जब तक गाँव में रहे उन्हें तमिल और अँग्रेजी भाषा का ज्ञान ही था। काशी में रहते-पढ़ते हुए हिंदी तथा संस्कृत भाषा का ज्ञान आवश्यक हो गया था। उन्होंने दोनों ही भाषाओं पर अधिकार प्राप्त कर लिया और दोनों में भी प्रथम श्रेणी के अंक लाएँ। यह अत्यंत सुखद आश्चर्य था। कहा जाता है कि उनके हिंदी के उच्चारण अटपटे नहीं थे। वो जब हिंदी में बात करते तो ऐसा नहीं लगता था कि कोई दक्षिण भारतीय बोल रहा हो।
काशी प्रवास में उनका मनपसंद काम था गंगा के प्रवाह को देखते हुए घंटों गुजार देना। उन्हें गंगा नदी से अगाध स्नेह हो गया था। शाम को उनका ठौर गंगा किनारे होता या वो नाव में बैठ गंगा की सैर करने का अपना प्रिय शौक पूरा कर रहे होते। काशी वास ने धीरे-धीरे उन्हें अन्य भारतीय भाषाओं का भी ज्ञान करा दिया। यहाँ रहते हुए उनकी वेष-भूषा और चाल-ढाल में मामूली परिवर्तन भी आ रहा था। काशी में रहते हुए ही उन्होंने अपनी शिखा कटवा दी। इसी समय उत्तर भारतीय शैली में पगड़ी बाँधने लगे और मूँछें भी रख ली।
काशी प्रवास के आखरी पड़ाव में एक विद्यालय में 20 रु. मासिक पर शिक्षक के रूप में अपनी सेवा दी। हालाँकि उन्हें तमिल साहित्य से प्रेम था और तमिल कविताएँ उनके मुखश्री से स्वतः फूट पड़ती थी पर वे स्वयं अँग्रेजी कवि शैली के प्रशंसक थे। जब भी समय मिलता गंगा नदी के किनारे बैठ शैली की कविताएँ पढ़ते रहते। काशी में रहते हुए सरस्वती नवमी (दशहरे के पहले वाला दिन) के दिन 'स्त्री शिक्षा' पर जोरदार भाषण दिया। भाषण तमिल में ही था। उनकी मान्यता थी कि स्त्री शिक्षा के बिना देश उन्नति नहीं कर सकता। स्त्री-पुरुष की समानता की वकालत करते हुए नारी के प्रति अपनी अतिरिक्त श्रद्धा प्रकट की।
अब पूरे देश के हालात को पत्र-पत्रिकाओं द्वारा जानने-समझने लगे थे। बड़े-बड़े नेताओं के विचार व उद्घोषों से आवेश में आ जाते थे। आगे चलकर अँग्रेजों के प्रति यही आवेश उनकी विविध कविताओं तथा लेखों में दृष्टिगोचर हुआ। सन 1898 में हिंदू कॉलेज से उन्होंने मैट्रिक (10वीं) में सफलता प्राप्त की। संस्कृत तथा हिंदी में प्रथम आए।
रानी विक्टोरिया की मृत्यु के पश्चात एडवर्ड-सप्तम का सिंहासनारोहण हुआ। लॉर्ड कर्जन ने इस उपलक्ष्य में दिल्ली में एक वृहद आयोजन किया। इस समारोह में देश के समस्त राजा, महाराजाओं, तथा बड़े-बड़े भूपतियों (जमींदारों) को आमंत्रित किया गया था। एटैयापुरम के राजा को भी निमंत्रण मिला था। समारोह की समाप्ति पर राजा भारती से मिलने दिल्ली से काशी आए। उन्होंने भारती को पहले भी गाँव लौट आने के लिए कुछ पत्र लिखे थे। इन पत्रों में ये भी लिखा था कि उनको राजमहल के ही हिस्से में रहने को जगह दी जाएगी। भारती तो अपने मन के राजा थे। किसी के दया पात्र बन कर या किसी के दबाव में रहने का सोच ही नहीं सकते थे। अब राजा स्वयं ही मिलने आ गए थे। राजा ने उन्हें आश्वासन भी दिया कि उन पर राज्य का या उनका कोई दबाव नहीं रहेगा। भारती अपनी मर्जी के मालिक बने रहेंगे।
इसके अलावा राजा ने उन्हें एक बात और कही - 'तुम विवाहित हो, पत्नी को यूँ गाँव में अकेला छोड़कर तुम्हारा यहाँ रहना उचित नहीं है।
दूसरी घटना ये हुई कि भारती की पत्नी चेल्लमा के जीजा जी काशी यात्रा करके लौटे थे। उन्होंने कुछ सत्य कुछ मजाक में अपनी साली से कहा - 'तुम्हारा पति अँग्रेजों के विरुद्ध आग उगल रहा है। उसे पकड़ कर जेल में बंद कर दिया जाएगा। क्या पता देश निकाला या फाँसी की सजा ही हो जाएँ।' जीजा जी ने चेल्लमा को इतना भयभीत कर दिया कि उसने भारती को कई पत्र लिखे। हर पत्र में उन्हें शीघ्र लौटने को लिखती रही। इन दोनों घटनाओं ने भारती को गाँव लौटने पर बाध्य कर दिया, यह बात सही है। पर यह बात भी उतनी ही सत्य है कि भारती को अपने गाँव की याद और मातृभाषा के प्रति स्नेह और आदर उन्हें वापिस गाँव की तरफ खींच लाया।
7. काशी से गाँव वापसी
'जब मैं तमिलनाडु उच्चारित करता हूँ मेरे कानों में मधुर शहद घुल जाता है। जब मैं पुरखों के स्थान का उल्लेख करता हूँ मेरी साँस-साँस में नई ऊर्जा का संचार हो जाता है।'
भारती यायावरी तथा फक्कड़ या औघड़ किस्म के इनसान थे सो धन की कमी हमेशा बनी रहती। काशी से गाँव लौटने के लिए भी राजा ने ही धन से मदद की। सन 1902 में चार वर्ष के काशी प्रवास के बाद अपने पैतृक गाँव लौट आए। जब तक वे काशी में रहे राजा उन्हें अपने पास आने के लिए पत्र लिखते थे और जब वो आ गए तो दोनों में अनबन बनी रहती थी। दोनों के बीच अहं का टकराव होता रहता। राजा तो आखिर सर्वेसर्वा होता है उसका अहं तो सर्वोपरि होता है। भारती को अपने 'भारती' होने का गर्व तो था ही फिर वो पैदाइशी स्वाभिमानी भी थे सो राजा के सामने आम जन की तरह हाथ जोड़े नतमस्तक हो खड़े नहीं रह पाते। राजा ने भारती को कोई नियत कार्य और नियत वेतन तय नहीं किया था। एक तरह से उनकी दया पर ही भारती की रोजी-रोटी चलनी थी। यह स्थिति किसी भी तरह अच्छी नहीं मानी जा सकती थी क्योंकि इसमें कोई इनसान निश्चिंत होकर कोई भी रचनात्मक कार्य नहीं कर सकता था। राजा लोगों की सोच और सहानुभूति का रुख बदल जाए तो फिर इनसान को पुरानी स्थिति में आ जाना पड़ता है। वैसे भी एटैयापुरम के राजा का व्यवहार ठीक वैसा ही था जैसा अंधेर नगरी में चौपट राजा का था। एक तरफ तो ऐसी परिस्थिति में किसी की दया पर जीवन निर्वाह करना किसी भी तरह गवारा नहीं था, साथ ही ये प्रश्न भी सिर उठाकर उन्हें बार-बार परेशान कर रहा था कि जीवन निर्वाह के लिए वे क्या कुछ कर सकते हैं।
राजा रसिक नहीं रसिया था। श्रृंगार रस, नाच-गान में उनका मन अधिक लगता था। वो चाहते थे भारती इन सब रास-रंगों में उनका साथ दे। बाद में कभी भारती ने हास्य में कहा भी था - 'राजा की ऐसी बातों और रसिया छवि ने मुझे अँग्रेज सरकार के कानूनों और बंधनों से भी अधिक डराया था।'
ऐसा कहा जाता है कि उस समय एक घटना भी हुई थी - राजा जब सड़क पर निकलते तो सब नजरें झुकाए, मुँह पर हाथ रख आदर के साथ खड़े हो जाते। ये भारती को नागवार लगता और वो इस तरह का व्यवहार नहीं कर पाते। किसी ने उन्हें टोका तो उनका जवाब था - 'एटैयापुरम बहुत ही छोटी सी जगह है, जब कि दुनिया बहुत बड़ी है।' उनका आशय था कि राजा कोई महामानव नहीं है, दुनिया में कई महान लोग हैं जिनके लिए मन स्वयमेव आदर से भर जाता है। ये बात जानबूझकर किसी ने बढ़ा-चढ़ाकर राजा के कान तक पहुँचा दी। राजा ने भारती को अपने महल से निकाल दिया।
उसी समय एटैयापुरम में आग लगने की बहुत-बड़ी घटना हुई थी। इस पर भारती ने तुकबंदी की कि 'एक युग में लंकापति ने एक कपि का अपमान किया तो लंका जल गई। एटैयापुरम के राजा ने एक कवि का अपमान किया तो एटैयापुरम जल कर श्मशान हो गया।
भारती काशी से एटैयापुरम लौट तो आए पर यहाँ के वातावरण में संवेदनाओं तथा भावों से भरी उनकी स्तरीय कवित्त को अधिक महत्व नहीं मिल रहा था। भारती को अपने लिए ऐसे कार्य की तलाश थी जिसमें उन्हें आत्मसंतोष भी मिले। सो राजा के यहाँ रहने में उनके स्वाभिमान को ठेस लगती थी। जब तक उनको ऐसा कोई काम न मिल जाएँ वो बैचेन ही रहते और एक जगह टिकने वालों मे से भी नहीं थे। महान व्यक्ति की ये एक पहचान भी होती है और गुण भी कि जब तक उन्हें माकूल काम न मिल जाएँ मन की चंचलता बनी रहती है। गांधीजी को भी जब तक अहिंसात्मक सत्याग्रह का अस्त्र नहीं मिला था, उनमें बैचेनी और मन की चंचलता बनी हुई थी। आत्म विवेचन में लीन व्यक्तियों के साथ ये बैचेनी तब तक बनी रहती है जब तक एक संतोषप्रद हल न निकल पाएँ।
एटैयापुरम में वे अँग्रेजी कवि शैली की रचनाओं की खूबियों से कवि-रसिकों को परिचित कराना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने रसिक-श्रोता दल का गठन किया। उसका नाम था 'शैलीज गिल्ड' । शैलीदासन के उपनाम से कई लेखों की रचना भी की। अँग्रेजी साहित्य में चौदह पंक्तियों की कविता होती है जिसे सॉनेट कहा जाता है। भारती ने तमिल में इस तरह के लेखन का प्रयास किया। वैसे सन 1902 में श्री सूर्यनारायण शास्त्री ने तमिल में इस तरह के सॉनेट की पुस्तक प्रकाशित की थी। भारती की इसी तरह के प्रारूप में पहली कविता 'विवेकभानु' पत्रिका के जुलाई 1904 के अंक में प्रकाशित हुई थी।
राजा की संस्था से अलग तो हो गए पर अब गुजर-बसर का क्या करें? उनके परिजन पूछते कि एक स्थिर और निश्चित शाखा को पकड़े हुए तो थे फिर एक अनेदखे, अनिश्चित शाखा को कैसे पकड़ोगे।
भारती मुस्कुराते हुए जवाब देते - 'ये खतरा तो लेना ही पड़ेगा, वरना पुरानी शाखा हाथ से छूटेगी कैसे? कोई दुस्साहस से पूछता - 'दूसरी शाखा हाथ के पकड़ में ही न आ पाए तो?
'तो क्या, बंदर की तरह नीचे गिर कर सिर फूटेगा। पर पहले ही उससे डरना भी तो उचित नहीं है।'
8. साहित्य के शिक्षक
'मैं जितनी भाषाओं की जानकारी रखता हूँ तमिल सी मीठी कोई नहीं।'
मधुर मधु की जैसे तमिल को पूरे संसार में फैला दें।
ये अच्छा हुआ कि उनकी बंदर की तरह बुरी गति नहीं हुई। मदुरै (उस समय के पाँड्य प्रदेश) में सेतुपति हायर सकेंडरी स्कूल में तमिल साहित्य के शिक्षक की जगह खाली हुई थी। एटैयापुरम से मदुरै 90-100 कि.मी. दूर है। 1901-1902 के दरम्यान करीब डेढ़ वर्ष वहाँ रहे। भारती को तमिल साहित्य के व्याकरण का अधिक ज्ञान नहीं था। सच बात तो ये थी कि उन्हें व्याकरण का अध्ययन भाता ही नहीं था। अपनी पद्य रचनाओं और छंदों के लिए उन्हें भारती की उपाधि मिली थी। इसी कारण सहजता से नौकरी मिली थी। कम उम्र के तो थे ही, शरीर से भी दुबले-पतले थे। यहाँ तक कि कक्षा के कुछ लड़के उनसे उम्र में भी बड़े थे और ऊँचे-पूरे ताकतवर भी थे। ये सारे कारण ऐसे थे, जिस कारण उन्होंने वहाँ लंबे समय रहने का मुगालता नहीं पाला। पर शिक्षक की नौकरी छोड़ते तो जाते कहाँ?
ऐसे हालातों में मानों उन्हें ईश्वरीय सहायता मिली। मद्रास (आज का चैन्नै) की एक पत्रिका 'स्वदेश मित्रन' के संपादक स्व. श्री सुब्रम्हणीय अय्यर मदुरै आए थे। मदुरै में उनका परिचय भारती से हुआ और वो उनसे बहुत प्रभावित हो गए। उन्होंने उसी समय मन में ठान लिया कि भारती को 'स्वदेशमित्रन' पत्रिका में काम देंगे। श्री सुब्रम्हणीयम उदार प्रकृति के विशाल मना थे। तमिल जनों को सही राह दिखाने वाले व्यक्ति यही सज्जन थे। पत्रिका में काम करने का उनका आग्रह भारती टाल नहीं पाए। जीवन निर्वाह के लिए नौकरी तो करनी ही थी, साथ ही देशप्रेम-देशभक्ति की प्यास को शांत करने का जरिया भी मिल रहा था। मदुरै छोड़कर चैन्नै चले गए।
9. सहायक संपादक
'गद्य और पद्य दोनों की रचना करें सारी कलाओं को सीखें और उसका अभ्यास करें। हमें जो कुछ भी नजर आता है उसकी अंतिम सच्चाई को जाने। इस तरह एक नए धर्म ग्रंथ का निर्माण करें।'
वहाँ 'स्वदेशमित्रन' के सहायक संपादक बन कर काम करने लगे। वेतन बहुत कम था और कार्य अत्यधिक। संपादक महोदय स्वयं ही कहते - 'भारती तुम्हारी तमिल इतनी प्यारी और सुंदर है कि हर शब्द पर धन लुटाने का मन करता हैं पर क्या करूँ? तुम भले ही कालीदास हो मैं राजा भोज नहीं हूँ। तुम्हें सम्मानित करने लायक मेरे पास धन नहीं है।'
भारती सच बात को मजाक की तरह प्रस्तुत कर कहते - 'बहुत चतुरता से मुझसे सलीके का कार्य करवा लिया।' बाद में वो जब-तब ये जोड़ना नहीं भूलते - 'इस क्षेत्र में प्रशिक्षण व हुनर मैंने श्री सुब्रम्हणीय अय्यर से ही पाया! मैं उन्हें इस क्षेत्र में, अपना परम गुरु मानता हूँ।
कहते हैं कि अच्छे काम करने वालों पर ही काम का बोझ लादा जाता है। सो भारतीजी के साथ भी यही हुआ। शाम को घर जाने का समय हो रहा होता। भारतीजी को धन की आवश्यकता होती और वो मन को तैयार कर रहे होते कि अय्यर से किस तरह पैसे माँगे। तभी दफ्तर का एक लड़का उनके लिए बढ़िया कॉफी ले आता और कहता अय्यर ने भिजवाया है। भारती अय्यर की इस कृपापूर्ण दयालुता से आनंद मग्न हो रहे होते तभी अय्यर स्वयं अवतरित हो जाते। तब तक भारती कुछ हद तक पैसों की आवश्यकता वाली बात भूल चुके होते।
तभी अय्यर शुरू हो जाते - 'भारती, सर हेनरी कॉटन ने लंका में जो भाषण दिया है, उसमें भारत के पक्ष में बड़ा भावुक बयान दिया है। तुमने पढ़ा क्या?
'हाँ-हाँ क्यों नहीं, पूरा भाषण ही प्रभावशाली है।'
क्या तुमको नहीं लगता कि वो हमारे पत्र में कल के अंक में जाना चाहिए? अय्यर मनोवैज्ञानिक की तरह पूछते।
इस प्रश्न का उत्तर भारती 'हाँ' के अलावा और क्या दे सकते थे। जबकि उन्हें अच्छी तरह ज्ञात था कि उनका कार्यभार अनावश्यक रूप से बढ़ जाएगा।
'ऐसा है, तथ्यों को बिगाड़े बिना, रुचिकर तरीके से उस भाषण का तमिल में अनुवाद तुम्हारे अलावा कोई और नहीं कर सकता।' अय्यर अपने मंतव्य को विस्तार से कहते।
भारती जाल में फँसे पंछी की तरह बेबस सिर झुकाए खड़े रह जाते। कोई दूसरा चारा भी तो न था।
उस पर अय्यर आगे ये और जोड़ते मानों उन पर कृपा कर रहे हों। 'आवश्यक नहीं है कि तुम दफ्तर में बैठ कर ही ये काम करो। घर ले जाकर 'आराम' से कर के कल सुबह ले आना। वैसे भी तुम्हारे लिए ये मुश्किल से आधे घंटे का काम होगा।
भारतीजी अपनी हास्य भरी शैली में कहते 'अय्यर ने प्रेम छड़ी के बल पर मुझसे सारे ही काम करवा लिए।' वो मानते थे कि अनुवाद के इन कामों ने उनकी बहुत मदद की। इससे अँग्रेजी भाषा की महत्ता को उन्होंने पहचाना और तमिल की मिठास और रस को और स्पष्ट रूप में जाना। ऐसा कहा जाता है कि भारती ने ही तमिल भाषा को पुर्नजीवित किया है।
राजनीति में भारतीजी को उग्रवादी माना जाता था। सो 'स्वदेशमित्रन' में अय्यर ने कभी न तो उनसे संपादकीय लिखवाया न कोई अग्रलेख। पता नहीं अय्यर उग्रवादी वाली बात को बहाना बना रहे थे या वे भारती को अपने से आगे निकलने नहीं देना चाह रहे थे। पत्र-पत्रिकाओं में वर्तमान में भी ये चलन है तो कोई आश्चर्य नहीं।
भारतीजी की आर्थिक हालत अच्छी तो कभी नहीं थी। जरा से वेतन पर इतना कार्य करना। किराए की कोठरी में रहना जिसमें सहूलियत के नाम पर कुछ न होता। फिर भी उन्होंने अपने हास्य और व्यंग्य को जीवित रखा। यह उनके ही बूते की बात थी। उनका वेतन एक रुपया बढ़ जाता और परिवार में कभी एक और सदस्य का आगमन या कोई और खर्च आ जाता। इन विडंबनाओं का उन्होंने अपनी पुस्तक 'ज्ञानरथम्' में हास्यपूर्ण तरीके से वर्णन किया है। यही वो समय था जब उनके कई दोस्त बने जिन्होंने उम्र भर दोस्ती निभाई। ये सभी भारतीजी की कविताओं के प्रशंसक थे। इन दोस्तों में सबसे प्रमुख और सर्वप्रथम नाम आता है श्री एस. दौरेस्वामी का। दौरेस्वामी भारतीजी की कविताओं के मुग्ध प्रशंसक थे। श्री दौरस्वामी उदार, संकोची, तीक्ष्ण बुद्धि के अति संवेदनशील व्यक्ति थे। इन्होंने भारतीजी की हमेशा मदद की और करते ही रहे।
भारतीजी की ही तरह आवेश से भरे युवा सुरेंद्रनाथ आर्य उनके एक और प्रशंसक तथा दोस्त थे। ये आंध्र प्रदेश के थे। इन्होंने अँग्रेजों के विरुद्ध गतिविधि के लिए छ वर्ष की सजा काटी थी। हर कार्य को निष्ठा और उत्साह से निभाना इनका स्वभाव था।
तीसरे दोस्त थे श्रीमान वी. चेट्टियार याने व्यापारी वर्ग के। ये क्रिश्चियन थे। बहुत धार्मिक व देश प्रेम से ओत प्रोत। साथ ही नई सोच व नए विचारों से मोह की हद तक प्रगतिशील थे। इन्होंने मद्रास शहर के मेयर पद के लिए अँग्रेज के खिलाफ चुनाव लड़ा था और हार गए थे। बाद में कभी ये मद्रास के मेयर बने भी थे।
चौथे दोस्त थे एक धनवान, रईस श्री एस.एन. तिरूमलाचारी थे। ये जब पैंतीस वर्ष के थे तभी इनका देहांत हो गया। ये शरीर से शक्तिशाली भी थे और उत्साह से सदा भरे रहते। अपनी मृत्यु से पहले अपनी संपत्ति के बड़े भाग से अपना अधिकार हटा लिया था। आगे चलकर भारतीजी ने 'इंडिया' पत्रिका चलाई तो इन सज्जन ने बहुत आर्थिक मदद की थी। इन्हीं सज्जन के दूर के रिश्तेदार एम.पी. तिरूमलाचारी भी भारती के दोस्त और साथी थे। इन्होंने बाहरी देश में किसी विदेशी लड़की से शादी कर ली थी।
भारतीजी के प्रशंसकों और दोस्तों का विवरण देने का मकसद यही है कि पाठक उनकी प्रगतिशील सोच को पहचान सके। जात-पाँत, धर्म, सामाजिक समानता सभी में भिन्नता होते हुए भी ये सब भारतीजी के खास दोस्त बने रहे। इसी तरह के एक और सज्जन जो तिरूवलीकेनी में सन 2001 तक भी थे, वे हैं श्री म. श्रीनिवासचारी, 'इंडिया' पत्रिका' के मालिकों में से एक थे। इन्हें तमिल, कन्नड़, उर्दू, फ्रेंच, अँग्रेजी भाषाओं का बहुत अच्छा ज्ञान था। भारतीजी पर इनका अपार स्नेह था।
इन सबके अलावा डॉक्टर एम.सी. नचुंडराव का जिक्र न हो तो दोस्तों का कोरम अधूरा लगेगा। ये भारतीजी से उम्र में बहुत अधिक बड़े थे। धीर-गंभीर, दयालु और परम देशभक्त थे। दूसरे देशभक्तों को अपनी सोच-सलाह तथा आर्थिक और अन्य जो भी मदद चाहिए होती ये तत्परता से पूर्ति करते। डॉक्टर साहब भारतीजी की उन्मुक्त मोहक हँसी के कारण उनकी ओर आकर्षित हुए। उस हँसी में उन्हें एक निर्मलता, सच्चाई नजर आती थी। चेन्नै में रहते हुए भारतीजी की बड़ी सुपुत्री तंगम बीमार पड़ गई। तब भारतीजी जॉर्ज टाउन में रहते थे। डॉक्टर ने उन्हें बेटी के इलाज के लिए अपने करीब तेरूवल्लीकेनी में रहने को बाध्य किया। डॉक्टर सा. भारतीजी की कविताओं और वार्ताओं, लेखों से बहुत प्रभावित थे और उनसे अत्यधिक स्नेह करते थे सो उनके आग्रह को टाल न सके।
गांधीजी और दीनबंधु-एंड्रूज के बीच जिस तरह सखाभाव पनपा था उसी तरह का भारतीजी का भी एक इनसान से दोस्ताना हुआ। ये थे उम्र में भारतीजी से बहुत ही बड़े और ब्रिटिश सरकार के मुलाजिम श्री कृष्णस्वामी अय्यर। श्री अय्यर चेन्नै (मद्रास) में डिप्टी कमीश्नर रहे थे। एक पुलिस अफसर और देशभक्त भारतीजी में अपनापा होना कौतूहल का विषय लगता है। सोचने पर समझ आता है कि आखिर सब भारतीय तो हैं ही, बस परिवार, जीवन निर्वाह और नौकरी के कारण इनसान कर्तव्यों में जकड़ जाता है।
'स्वदेशमित्रन' में भारतीजी को खुलकर अपने विचार प्रकट करने की सुविधा नहीं थी। ऐसे भारती जिनकी सोच थी हमेशा बड़े से बड़ा सोचो, ऊँचा सोचो, मामूली और साधारण सा तो वो सोच ही नहीं सकते थे। असाधारण सोच और नए विचारधारा भारतीजी ने अपने लेखों के संग्रह में यही कुछ लिखा भी है। उन्होंने 'स्वदेशमित्रन' से स्वयं को अलग कर लिया। वैसे भी पत्रिका काँग्रेस के नरम दल की पैरवी करती हुई ही लगती थी। बाल गंगाधर तिलक ने ही भारतीजी में नई जान फूँकी। भारतीजी तिलक के आवेश और ओज के ही मानों अनुगूँज थे।
10. बंगभंग आंदोलन व स्वराज्य की अवधारणा
'यह देश तीस करोड़ लोगों का ऐसा समूह या संघ है जिसमें सभी चीजें साझा है। एक ऐसा आदर्श समाज है जो विश्व में अनन्य है।'
सन 1906 में वाईसरॉय रहे लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का बँटवारा पूर्वी और पश्चिमी के रूप में किया। बंगाल वासियों को यह बँटवारा तनिक भी मंजूर नहीं था। अँग्रेजों ने सदा ही 'बाँटो और शासन करो' वाली पॉलिसी अपनाई थी। बंगाल बँटवारे से जो बंगभंग आंदोलन प्रारंभ हुआ उसी से स्वराज्य के धारणा की उत्पत्ति हुई। इन हालातों ने भारतीजी के हृदय में दबी देशभक्ति की भावना को झिंझोड़कर रख दिया। उन्होंने अपने कुछ दोस्तों की सहायता से तमिल में 'इंडिया' नाम की पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। लाल रंग को खतरे का निशान माना जाता है और भारतीजी ने पत्रिका के पन्ने लाल रखे। लोग बड़ी उत्सुकता से इस साप्ताहिक के आने की बाट जोहते।
सन 1906 में क्षेत्रीय भाषा की पत्रिका की चार हजार प्रतियाँ बिकती थीं जो अवश्य ही बहुत बड़ी घटना है। भारतीजी की साहित्यिक, जोश से भरी भाषा में सच्चाई को सत्यता से परोसना बहुत अहमियत रखता था। 'इंडिया' पत्रिका के अग्रलेखों, संपादकीयों ने सभी को प्रभावित किया और भारतीजी की ख्याति फैलती गई।
यही समय था जब बंगाल में भी बँटवारे के खिलाफ बोलने या विचार रखने को कई पत्रिकाएँ शुरू हुई। यहाँ प्रारंभ हुई स्वराज्य की धारणा पूरे देश में व्याप्त हो गई।
1906 में कलकत्ता (आज का कोलकाता) काँग्रेस के सभापति थे वयोवृद्ध श्री दादाभाई नौरोजी। उन्होंने मूलमंत्र 'स्वराज्य' का मानों जाप ही किया था। 'स्वराज्य' पर इतना जोर दिए जाने पर सभा में एक स्वर में चार बातों के पालन करने की घोषणा हुई।
स्वदेशी पर जोर, विदेशी सामान का बहिष्कार, देशीय शिक्षा तथा स्वराज्य। इन्हीं बातों से अँग्रेज सरकार आगे जाकर कुछ भयभीत भी हुई।
अँग्रेजों व उनकी नीति के खिलाफ भारतीजी 'इंडिया' पत्रिका में हर सप्ताह आग उगल रहे थे। बंगभंग के खिलाफ भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा। उनके लेखों की चर्चा पूरे भारत में हो रही थी। तभी बंगाल के विपिनचंद्र पाल चेन्नै आए। चेन्नै के विविध स्थानों पर उनके पाँच भाषण होने थे। श्री पाल को भारतीजी और उनके दोस्तों ने ही बड़े कष्ट और परेशानी उठाकर बुलवाया था। श्री विपिनचंद्र अँग्रेज सरकार की आँख की किरकिरी थे सो उन्हें बुलाने का भारतीजी के अलावा और कौन साहस करेगा! उनकी पहली सभा में कोई अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं हो रहा था, सभी भयभीत थे। गनीमत हुई कि श्री जी. सुब्रह्मणिय अय्यर मान गए थे, वरना तमिल भाषियों की इज्जत खतरे में पड़ जाती। इसमें जो अथक प्रयास हुए वो भारतीजी के खाते में जाते हैं।
विदेशी कपड़ों के बहिष्कार की शुरुआत चेन्नै के तिरूवलीकेनी के समुद्र तट पर विपिनचंद पाल के सभा में ही हुई थी। जो बाद में देशव्यापी रूप में फैली और बड़ी होली के रूप में जलाई गई। इसी समय से चेन्नै में स्वराज्य और आजादी का जोश बढ़ता गया।
चेन्नै में 'महाजन सभा' के नाम से एक संस्था थी। पर ये अँग्रेज सरकार के ही पेरोकार थे। भारतीजी ने 'चेन्नै जनसंघम्' नाम से संस्था बनाई। संस्था के बनते ही
अँग्रेज सरकार की आँखों में खटकने लगी। जब तक वो संस्था जीवित रही सरकार की नजरें उस पर बनी रहीं। इसी समय तमिलनाडु के तुतूकूड़ी में भी अँग्रेजों के खिलाफ जुलूस
निकाला गया जिसमें कई गिरफ्तारियाँ हुई और राजद्रोह की सजा सुनाई गई। इन लोगों ने भारतीजी के लिखे देशभक्ति के ओजपूर्ण गानों को सामूहिक रूप से गाते हुए घोष
किया था। अँग्रेज जज का कहना था कि 'भारती के गीत तो लाश में भी जान डाल देते हैं। ऐसे में जनता तो आसानी से भड़क कर सरकार के खिलाफ गदर मचा सकती है या बलवा कर
सकती है।'