सुब्बा शास्त्री को सबक मिला : तेनालीराम की कहानी
Subba Shastri Ko Sabak Mila : Tenali Raman Story
एक बार फारस देश से घोड़ों का एक व्यापारी कुछ बेहद उत्तम नस्ल के घोड़े
लेकर विजय नगर आया। सभी जानते थे कि महाराज कृष्णदेव राय घोड़ों के उत्तम
पारखी हैं। उनके अस्तबल में चुनी हुई नस्लों के उत्तम घोड़े थे। महाराज ने
फारस के व्यापारी द्वारा लाए गए घोड़ों का निरीक्षण किया तो पाया कि वे
घोड़े दुर्लभ नस्ल के हैं। उन्होंने व्यापारी से सभी घोड़े खरीद लिए,
क्योंकि वे अपनी घुड़सवारी सेना को और मजबूत व सुसज्जित करना चाहते थे।
जब घोड़ों का व्यापारी चला गया तो महाराज ने अपनी घुड़सवार सेना के चुने
हुए सैनिकों को बुलाया और एक-एक घोड़ा देते हुए उसकी अच्छी तरह देखभाल और
उसे भलीभांति प्रशिक्षित करने को कहा। साथ ही यह भी कहा कि घोड़ों के
प्रशिक्षण व भोजनादि का सारा खर्च राजकोष वहन करेगा।
तेनालीराम को जब पता चला तो वह भी महाराज के पास पहुंचा और एक घोड़ा अपने
लिए भी माँगा। उसे भी एक घोड़ा दे दिया गया। तेनालीराम ने घोड़े को घर
लाकर अस्तबल में बाँध दिया। लेकिन उसे न जाने क्या सूझा कि उसने अस्तबल के
सामने की ओर भी दीवार उठवा दी।
अब अस्तबल की स्थिति कुछ ऐसी हो गई थी कि न तो वह घोड़ा कहीं बाहर जा सकता
था। और न ही कोई उस अस्तबल में प्रवेश ही कर सकता था।
तेनालीराम ने अस्तबल की दीवार में एक छोटी सी खिड़की छुड़वा दी थी, जहाँ
से घोड़े को दाना-पानी दिया जा सके।
उसी खिड़की से तेनालीराम घोड़े को हरी घास दाना-पानी देता और घोड़ा भी
खिड़की से अपना मुंह बाहर निकालकर उसे मुंह में दबाता और भीतर खींच लेता।
घोड़े को पानी भी इसी खिड़की द्वारा पहुंचाया जाता।
करीब एक महीने बाद महाराज ने घोड़े की सुध-बुध ली और यह जानने की कोशिश की
किस प्रकार उसकी देखभाल व प्रशिक्षण का काम चल रहा है। तब सभी सैनिक
अपने-अपने घोड़े लेकर महाराज के सम्मुख आ पहुंचे। हृष्ट-पुष्ट व भली भांति
प्रशिक्षित घोड़ों को देख महाराज बेहद प्रसन्न हुए।
लेकिन तभी उन्होंने पाया कि तेनालीराम और उसका घोड़ा कहीं दिखाई नहीं दे
रहे। इधर-उधर निगाहें दौड़ाते महराज ने पूछा,
‘‘तेनालीराम कहाँ है ? जाओ, उससे कहो कि अपने घोड़े
के साथ हमारे सामने जल्दी पेश हो।’’
एक सैनिक तेनालीराम के घर की ओर दौड़ा और उसे महाराज का संदेश दिया कि
जल्दी से जल्दी घोड़े को लेकर उनके सामने हाजिर हो जाए। लेकिन तेनालीराम
अकेला ही चल दिया।
उसे अकेला आया देख महाराज बोले, ‘‘तुम्हारा घोड़ा
कहां है ? आज मैं सभी घोड़ों का मुआयना कर रहा हूं कि उनकी कैसी देखरेख की
गई है। जाओ, अपना घोड़ा लेकर आओ।’’
‘‘क्षमा करें महाराज !’’
तेनालीराम बोला, ‘‘आपने मुझे जो घोड़ा दिया वह घोड़ा
गुस्सैल है और अड़ियल है। मैं तो उसे अपने साथ यहाँ लाना चाहता था लेकिन
मेरे लिए यह संभव नहीं हो पाया।’’ कहकर तेनालीराम चुप
हो गया।
‘‘यदि ऐसा है तो मैं कुछ बहादुर सैनिकों को तुम्हारे
साथ भेज देता हूं, जो तुम्हारे साथ जाकर घोड़ा ले
आएंगे।’’ महाराज ने कहा।
‘‘नहीं-नहीं महाराज ! ऐसा हरगिज न करिएगा । अब तक
घोड़े की देखभाल मैंने की है और मैं ब्राह्माण हूं। इसलिए अच्छा तो यह
होगा कि आप किसी पंडित या पुरोहित को घोड़ा लाने के लिए मेरे साथ
भेजें।’’ होठों पर रहस्मय मुस्कान लाते हुए तेनालीराम
बोला।
संयोगवश राजपुरोहित उस दरबार में उपस्थित था। वह राजपरिवार में कुछ
पूजा-पाठ के कर्मकांड करवाने वहाँ आया था।
सुब्बा शास्त्री नाम था राजपुरोहित का।
‘‘क्या तुम तेनालीराम के साथ जाकर उसके अस्तबल से
घोड़ा यहाँ ला सकते हो ?’’ महाराज ने उससे पूछा।
तेनालीराम और सुब्बा की निकटता देख सुब्बा शास्त्री जला-भुना करता था और
तेनालीरम को नीचा दिखाने का कोई मौका चूकना नहीं चाहता था। वह बोला,
‘‘क्यों नहीं महाराज ! मैं अभी जाकर घोड़ा
ले आता हूं। ऐसे एक घोड़े की तो बात ही क्या, मैं दस बिगड़ैल-गुस्सैल
घोड़ों को साथ ला सकता हूं।’’
‘‘ठीक है ! यदि ऐसा है तो आइए मेरे
साथ।’’ तेनालीराम बोला।
जब सुब्बा शास्त्री और तेनालीराम जा रहे थे तो रास्ते में तेनालीराम बोला,
‘‘शास्त्री जी मैं जानता हूं कि आप विद्वान हैं और
मैं यह भी जानता हूं कि आपने अश्व-शास्त्र का अध्ययन भी किया
है।’’
कुछ ही देर में जब तेनालीराम के घर पहुंचे तो सुब्बा शास्त्री अपनी लंबी
दाढ़ी को उंगलियों से सहलाते हुए अहंकार भरे स्वर में बोला,
‘‘हाथ कंगन और आरसी क्या...! आखिर तुम्हें मेरी
योग्यता पर विश्वास हो ही गया।’’
‘‘लेकिन शास्त्री जी, मेरा घोड़ा कोई साधारण घोड़ा
नहीं है। इसलिए मेरा कहना मानें तो पहले खिड़की से झांककर देख लें। इसके
बाद अस्तबल की दीवार तोड़कर घोड़े को बाहर निकालने की सोचना
!’’ अपने होठों पर कुटिल मुस्कान लाते हुए बोला
तेनालीराम।
तेनालीराम ने भी जैसे उस दिन सुब्बा शास्त्री से पुराना हिसाब-किताब चुकता
करने की ठान ली थी।
इधर जैसे ही सुब्बा शास्त्री ने दीवार में बनी खिड़की में अपना हाथ डाला,
तुरंत घोड़े ने उसकी दाढ़ी पकड़ ली।
दरअसल, वह उसकी दाढ़ी को भूसे का ढेर समझ बैठा था। सुब्बा शास्त्री की
दाढ़ी को अपने मुंह में दबाए घोड़ा इतनी जोर से खींच रहा था कि उसकी आँखों
से आंसू टपकने लगे और वह दर्द के मारे जोर-जोर से चिल्लाने लगा।
अंततः अस्तबल की सभी दीवारे तोड़कर वह बाहर निकाला गया। मगर घोड़ा भी कुछ
ऐसा हठीला था कि सुब्बा शास्त्री की दाढ़ी अब भी दबाये था।
कोई और रास्ता न देख, उन्हें उसी अवस्था में राजमहल की ओर जाना पड़ा।
अब तक सुब्बा शास्त्री को यह बात समझ में आ चुकी थी कि पूर्व में जो वह
तेनालीराम को नीचा दिखाने की फिराक में लगा रहता था, उसी का बदला
तेनालीराम ले रहा है। वह तो बस मौके की तलाश में था, जो उसे आज मिल गया
था।
इधर महाराज और अन्य घुड़सवार सैनिक बेसब्री से उनका इंतजार कर रहे थे। तभी
तेनालीराम और सुब्बा शास्त्री की दाढ़ी मुंह में दबाए वह घोड़ा
वहाँ आ पहुंचा। सुब्बा शास्त्री को इस हास्यास्पद स्थिति में
देख सभी उपस्थित जन ठहाके मारकर हंसने लगे। यहाँ तक की महाराज भी अपनी
हंसी पर काबू न कर सके और बेतहाशा लगातार हंसते ही चले गए।
लोगों को इस प्रकार हंसते देख वहाँ मौजूद घोड़े भी तरंग में आकर
हिनहिनाने लगे।
तेनालीराम का घोड़ा, जो सुब्बा शास्त्री की दाढ़ी मुंह में दबाए था, भी यह
देख हिनहिनाने लगा। जैसे ही घोड़े ने अपना मुंह खोला, दाढ़ी मुक्त हो गई।
सुब्बा शास्त्री ने चैन की सांस ली।
तभी एकाएक अपनी हंसी को रोक महाराज गंभीर हो गए और बोले,
‘‘तेनालीराम ! मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं कि लोगों को
हंसाने के लिए हास-परिहास किया जाए। बल्कि यह तो अच्छा ही है, क्योंकि
हंसना स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है। लेकिन ऐसा परिहास मुझे स्वीकार्य
नहीं, जिसमें दूसरे को पीड़ा या कष्ट होता हो।
तुमने सुब्बा शास्त्री जैसे विद्वान के साथ जो सुलूक किया है वह कतई शोभा
नहीं देता। यह सरासर शास्त्री जी का अपमान है। मैंने तुम्हारे दिमाग में
छिपी किसी खुराफात का अंदाजा उसी समय लगा लिया था, जब तुमने मुझसे घोड़ा
मांगा था। वरना तुम्हें घोड़े से क्या लेना-देना।
चलो, अपनी गलती के लिए शास्त्री जी से क्षमा-याचना करो।’
लेकिन इससे पहले कि तेनालीराम क्षमा-याचना करता, सुब्बा शास्त्री आगे
बढ़कर बोला,
‘‘महाराज ! तेनालीराम का कोई दोष नहीं, यह निर्दोष
है। दोषी यदि कोई है तो मैं हूं।
मैं तो हमेशा तेनालीराम को नीचा दिखाने की फिराक में लगा रहता था और कई
बार तो मैंने इसका अपमान भी किया। लेकिन मेरे दुर्व्यवहार को यह बेचारा
चुपचाप सहन कर गया, एक शब्द तक मुंह से नहीं निकला कभी। यह सब मैंने
ईर्ष्यावश किया।
इसने जो कुछ भी मेरे साथ किया अच्छा ही किया। दरअसल, आज जो कुछ भी हुआ,
उससे मेरी आँखें खुल गई हैं। तेनालीराम ने मुझे सदराह दिखाई
है।’’
अपनी बात समाप्त करते हुए सुब्बा शास्त्री ने आगे बढ़कर तेनालीराम को गले
से लगा लिया।
वहाँ उपस्थित महाराज और अन्य सभी उन दोनों को गले मिलना देख बेहद प्रसन्न
हुए।
(अनिल कुमार)