सुबह का सपना (बांग्ला कहानी) : शिवराम चक्रवर्ती
Subah Ka Sapna (Bangla Story) : Shibram Chakraborty
कोमल कमनीय, कुमारीका आह्लादिनी रूप धीरे-धीरे जल्लादिनी के रूप में परिवर्तित हो जाता है, वास्तव में यह संसार के आठ आश्चर्यों में से जरूर ही एक है। रमणीय नववधु घूँघट काढ़ कर, सिर झुका कर, गृहलक्ष्मी बन कर, गृह में प्रवेश करती और शीघ्र ही पति को चिकना चमकदार बनाये रखने के लिए इस्त्री करना शुरू कर देती है। अगर पति मुलायम और दब्बू स्वभाव का और पत्नी लाल गरम कोयले के सामान हो तब तो उसका प्रयोग इतना अच्छा होता है, जिसका अनुभव बेचारे पति के सिवा कौन कर सकता है?
ऐसा कहा जाता है कि शादी के प्रथम वर्ष पत्नी पति की बातें सुनती है, और द्व्तीय वर्ष पति पत्नी की बातें सुनता है, और तृतीय वर्ष पास-पड़ोस, मोहल्ले वाले दोनों की बातें सुनते हैं ।
पर सुशील का जीवन परम सुख का जीवन है। वह अपने को महान सौभाग्यशाली समझता है। जब पास-पड़ोस में किसी दम्पति को लड़ते-झगड़ते देखता है तो अपनी बातें सोचकर वह गर्व का अनुभव करता है।
१० साल से उनलोगों का जीवन एक ही गति से चलता आ रहा है। यहाँ पर वह किसी दफ्तर में क्लर्क हैं। वेतन कम ही है, फिर भी मीरा ने उसके जीवन में प्रवेश कर सभी की कमियों की पूर्ती कर दी। साढ़े आठ बजे दफ्तर जाकर शाम को साढ़े छे बजे घर लौटकर जब वह मीरा का हँसता हुआ कमल जैसा मुख देखता है तो वह दिनभर की थकान भूल कर अपूर्व सुख का अनुभव करता है। मीरा की दोनों आँखें पति का स्वागत करने के लिए प्रेम से पलकें बिछाकर प्रतीक्षा करती रहती हैं। सुशील को देखते ही प्रेम विह्वल हो, उसके हाथ-मुहँ धोने के लिए पानी, साबुन, तौलिया और उधर उसके मुहँ पोछते पोछते उसे गरम-गरम कचौड़ियां और चाय तैयार मिलती।
पर उस दिन दफ्तर से लौटकर सुशील ने इसके विपरीत तथा अप्रत्यशित दृश्य देखा। न हाथ-मुँह धोने के लिए पानी है और न तौलिया पहनने के लिए, स्लीपर भी यथास्थान नहीं है। मीरा भी आज हंसती हुई उसके पास नहीं आयी और न कचौड़ी की मीठी सुगंध से ही उसका स्वागत हुआ। सुशील ने डरते-डरते रसोई में झांककर देखा तो चूल्हा बुझा हुआ है और एक कोने में मीरा मुँह फुलाकर बैठी हुई है। सुशील ने मीरा का यह रूप कभी नहीं देखा था, और न इसकी कल्पना ही की थी। 'मीरा, क्या हो गया है? वहां पर इस तरह चुप-चाप क्यों बैठी हो?' बहुत ही विनम्र भाव से प्यार घोलकर सुशील ने पूछा।
'अब घर लौटने की याद आई तुम्हें?' तमतमाती हुई मीरा बोली। इसका मतलब? उसने कलाई पर नज़र डाली, फिर घड़ी को कान के पास लेजाकर सुना -'घड़ी तो चल रही है, और अभी साढ़े छः ही बजे है। रोज़ मतलब दस साल से तो इसी समय घर लौटता हूँ।'
'आज से जल्दी घर लौटना होगा।' आदेश के स्वर में मीरा ने कहा।
सुशील इसका क्या उत्तर देता, यही सोच रहा था। छुट्टी तो रोज़ इसी समय होती है। फिर वह जल्दी कैसे घर लौटेगा? पर नहीं करने की भी हिम्मत नहीं हुई उसे। वह खामोश, बिलकुल खामोश रहा।
'सबेरे साढ़े आठ बजे तुम निकल जाते हो और ठीक १० घंटे के बाद तुम घर लौटते हो, मैं एकदम अकेली पड़ी रहती हूं। मरुँ या बचूं, कुछ हो या न हो, इसकी भी तुम्हें कभी चिंता रहती है? तुम सोचोगे भी क्यों? जरूरत ही क्या है? आते ही तुम्हरे सामने नौकरानी की तरह हाज़िर हो कर हाथ मुँह धोने के लिए पानी, तौलिया, पैर के पास स्लीपर और मुँह पोछते-पोछते गरम-गरम नास्ता, बस इसके सिवा तुम्हें चाहिए ही क्या? दिनभर दफ्तर में बैठे-बैठे कभी मेरी भी याद आती है तुम्हें? '
'क्यों नहीं? दिनभर कुर्सी पर बैठे-बैठे ब्लॉटिंग पेपर पर केवल तुम्हारी तस्वीर ही तो बनाता रहता हूं।'
'हाँ, हाँ, क्यों नहीं, बातें बनाना खूब आता है। पर अब तुम मेरी आँखों में धूल नहीं झोंक सकते हो और न मैं तुम्हारी मीठी-मीठी बातों में आने वाली हूं।‘
दम भरने के लिए मीरा ने एक मिनट रुकने पर जल्दी से सुशील ने कहना प्रारम्भ किया - 'तुम्हें क्या हो गया है मीरा? जरा ठंडे दिमाग से तो मुझ से बातें करो, बात क्या है जो पागल की तरह आते ही मुझ पर बरस पड़ी?’
'पागल करने में कोई कसर उठा रखी है तुमने? अब मैं सब जान गयी हूँ। मेरी आँखें खुल गयी है। तुम्हारे लौटने में देर क्यों होती है तुम समझते हो मुझे कुछ नहीं मालूम है? इधर मैं खिड़की दरवाजा बंद करके अकेली रोती रहती हूँ और उधर तुम कॉफ़ी हाउस में मौज उड़ाते हो।'
'ये पागलपन की बातें क्यों कर रही हो मीरा? '
'हाँ, पागल ही तो हूँ। १० साल हुए शादी को। अब मेरे पास आने की इच्छा क्यों होने लगी? अच्छा सुनु तो जरा उस छोकरी का नाम क्या है? आजकल शायद उसी के साथ कॉफ़ी हॉउस में जमते हो।
‘कौन छोकरी?' आश्चर्य से सुशील ने पूछा।
‘जैसे बम बम भोलेनाथ! कुछ नहीं मालूम। अरे तुम्हारी वह गुड्डी रानी। असली नाम क्या है यही मैं पूछ रही थी। पूछती हूँ अभी तक गुड्डी से खेलने का शौक नहीं गया?’
अब सुशील चुप नहीं रह सका। डांट कर बोला - 'चुप हो जाओ मीरा क्या पागल की तरह बकवास कर रही हो? आपे से बाहर न हो। गुड्डी के साथ तो सात-आठ सालों से मेरी भेंट तक नहीं हुई है।
ठीक-ठीक बतलाओ तो तुम्हें क्या हो गया है?'
मीरा ने धीरे से कहा- 'नहीं जी, कुछ नहीं। यह सब एकदम भूल जाओ।' पास आकर मृदु मधुर मुस्कान को घोलकर मीरा ने कहा।
सुशील को जैसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ, न कानो पर, ''फिर यह रणचंडी का रूप क्यों? यह सब भूल जाऊं, पर ...?'
'पर क्या? बड़े अच्छे हो। सब कुछ भूल जाओ। यह सब कुछ नहीं है, मैंने आज सबेरे बहुत बुरा सपना देखा था। देखा था, तुम्हारे साथ मेरी बहुत कस कर लड़ाई हो रही है। सुना है सबेरे का सपना हमेशा सच होता है। इसलिए सारा काम छोड़कर सब से पहले सपने का झंझट ख़तम कर दिया। सपना सच हो गया।' हंसती हुई मीरा बोली। 'अब जल्दी से हाथ-मुहं धो लो, मैं नाश्ता ले आती हूँ।'
(अनुवाद : डॉ. शोभा घोष)