Srijan Ki Gali (Hindi Story) : Ramgopal Bhavuk

सृजन की गली (कहानी) : रामगोपाल भावुक

आज मेरी कहानी सम्पादक के यहाँ से अस्वीकृति के पत्र के साथ लौटी है। सम्पादक ने पत्रिका के लेटर पेड पर टीप लिखी है कि आपकी कहानी में रुचिकर किस्सागोई का अभाव है।.....

यह टीप पढ़कर सहसा मुझे याद आने लगी, अपने बचपन में सुने किस्सों की। क्या गजब की किस्सागोई होती थी! दरअसल घर में कृषि कार्य करने के लिये हलवाह लल्ला कक्का रहते थे, वह दिन भर तो खेतों में बैलों से जुताई करते लेकिन रात में अपने बाल-बच्चों को छोड़कर हमारे ही घर पौर में सोते थे, जिससे रात में वह बैलों के लिए पीना-सानी की अच्छी तरह से देखभाल कर सकें।

लल्ला कक्का को किससे सुनाने का बहुत शौक था। मैं उनसे किस्से सुनने के लोभ में पिताजी की आँख बचाकर उनके अलाव पर जा बैठता। वे बैलों की सानी करके निपटते, आराम से रगड़-रगडकर हाथ-मुँह धोते रहते, तब आकर अलाव पर तापने बैठते। इतनी देर में मुझे लगता, कक्का, कहानी कहने में नखरे कर रहे हैं। मैं मन ही मन झुंझलाते हुए उनसे कहता-‘कक्का, कल वाली कहानी पूरी करो। ’

हरबार वे अपनी उंगली माथे से लगाकर सोचने लगते और पूछते, ‘कल कहानी कहाँ खत्म हुई थी?’ मैं भी सोचने लगता- कल कहानी कहा तक पहुँची थी।

मैं सोचकर कहता- ‘बाबाजी, भूत भगाने के लिये मंत्र पढ़ रहे थे।’

वे बोलते अरे। हाँ.... अब याद आया और बाबाजी बाली कहानी आगे बढ़ जाती।

उनकी कहानियाँ कभी न खत्म होने वालीं होतीं थीं। इतनी रुचिकर कि सुनते ही चले जाओ। उनके किस्से राजा-रानी एवं साधू-बाबाओं के होते थे। मैं अपनी पढ़ाई- लिखाई छोड़कर दिन भर कहानियों के बारे में ही सोचता रहता था। मैं चाहने लगा था कि मैं भी इसी तरह की रुचिकर कहनियाँ कह सकूं। मैं उनसे रिरियाकर कहता-‘कक्का, मुझे भी कहानी कहना सिखा दो ना।’

मेरी बात सुनकर उन्होंने मुझे कहानी कहना सिखाना शुरू कर दिया था। जब मैं अकेला होता तो उनकी बातें अपनी रफ कापी में नोट भी कर लेता, जिससे उनकी बातें भूल न जाऊँ।

इस तरह बचपन से ही किस्सागोई के बारे में मेरी रुचि जागृत हो गई थी। मैं भी तरह-तरह की कहानियों के बारे में सोचने लगा था। पिताजी को मेरे कहानी सुनने की बात पता चल गई तो उन्होंने लल्ला कक्का को डाँटा था-‘क्यों मनोज को बिगाड़ रहा है? इन झूठी कहानियों से इसे क्या फायदा? तुझे ऐसी कहानियाँ गढ़ने का बहुत शौक है। इन्हें अपने पास ही रख, बच्चे को न बिगाड़।’

उनकी डॉट सुनकर मैं समझ गया था,कि लल्ला कक्का झूठे किस्से गढ़-गढ़ कर सुनाते हैं लेकिन मुझे तो उनकी कहानियाँ सच्ची लगती हैं पर पिताजी तो इन्हें झूठी कहानियाँ कह रहे हैं। वे जो कहें, मैं तो उनसे कहानी कहना सीखकर ही रहूँगा।

..... और मैंने! रफ कोपी पर कहानी लिखना शुरू कर दी। कक्षा के मित्रों को सुनाने लगा, दोस्त मेरी किस्सागोई पर बातें करने लगे। वाह- वाही मिलने लगी।

क्या कहीं कोई सत्ता है? जो इस सृष्टि का संचालन कर रही है, ऐसा सोचना बचपन से ही शुरू हो गया था। कभी आस्थायें जीती हैं तो कभी अनास्थायें, फिर भी द्वंद बन्द नहीं हुआ है। मैं अपनी उस भ्रमात्मक वुद्धि को दाद देता हूँ जो आस्थाओं का मोह लेकर सत्य की तलाश में भटकती रही।

इन्हीं दिनों मैं चित्रकूट परिक्रमा के लिये जाने लगा था। वहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता मुझे अपनी ओर खीचती है। उससे मुझे सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। ऐसी सोच आस्था से तादात्म्य स्थापित करने में सहायक होती है। एक बार मैं गुम-सुम सक्रीय एवं निष्क्रीय सोच के द्वन्द में खोया था कि हमारी ट्रेन झाँसी स्टेशन पर जाकर रुकी। एक अखबार बेचने वाला खिडकी के सामने से गुजरा। उसने मेरा सामने से सोच में डूबा चेहरा देखा तो बोला-‘साहब कहाँ खोये हैं? अखबार पढ़ें। नई-नई खबरें हैं। मैं उसकी बात टाल नहीं पाया। मैंने अखबार खरीद लिया और उसे अपने पास रखकर बैठ गया। सामने की सीट पर पति- पत्नी बैठे ऊँघ रहे थे। अखबार रखा देख, पति ने पढ़ने की लालसा से मांग लिया। मैं उन्हें अखबार देकर इधर-उधर का जायजा लेने लगा। पति-पत्नी दोनों अखबार आधा-आधा बाटकर पढ़ने लगे। उसकी पत्नी अखबार में आँखें गड़ाकर बारम्बार कुछ देखतीं फिर मेरी ओर देखने लगतीं। उसकी यह बात मुझे अच्छी नहीं लग रही थी।

कुछ देर की इस हरकत के बाद, उसने पति से अपनी बात साझा की तो वह भी मेरी ओर और अखबार की ओर देखने लगा। वह बोला-‘भाईसाब इसमें ये आपका ही फोटो छपा है ना।’

मैंने सोचा, मेरा फोटो! मैंने उनसे अखबार ले लिया। उसमें मेरी फोटो के साथ कहानी छपी है। यह देख, मैं खिल उठा। बोगी के अधिकांश लोग प्रशंसा भरी नजरों से मेरी ओर देख रहे थे। मैंने अखबार का वह पन्ना उन्हें दिखाते हुए कहा-‘ मैं कहानी लिखता हूँ, इसमें मेरी कहानी छपी है।’ फिर तो पूरा सफर कहानी-किस्सों की बातें कहते-सुनते व्यतीत हुआ।

याद आती है,मेरी एक कहानी देश की चर्चित पत्रिका हंस में प्रकाशित हुई थी। उत्साह में साहित्यकार मित्रों ने मेरे सम्मान में एक गोष्ठी रखी, मित्र राज बोहरे ने मुझ से पूछ लिया था-‘हमें यह बतायें, आपका कहानी लेखन कैसे शुरू हुआ?

मैंने कहा था-‘बात उस समय की है जब मैं बी, ए. की दूसरी साल में अध्ययन करने, गाँव से तेरह किलोमीटर दूर डबरा शहर के कॉलेज में साइकल से जाने लगा था।

लौटकर रात में लालटेन के सहारे देर रात तक पढ़ता रहता था। रात किताब बन्द करके मैं सोने की तैयारी कर रहा था कि बन्दूक की आवाज सुनाई दी। मेरी घड़ी पर नजर गई। रात का एक बजा था। मैं और मेरा छोटा भाई जगदीश समझ गये कि गाँव में डाकू आ गये हैं। उस दिन पिताजी घर पर नहीं थे। उस रात डाकुओं ने यह अच्छा अवसर जाना और डकैती डालने गाँव में आ धमके।

हमारे घर में टोपीदार बन्दूक थी। बन्दूक लेकर हम दोनों भाई तुरन्त छत पर जा पहुँचे और मुडेर की ओट लेकर निशाना साधकर, इस तरह बैठ गये कि डाकुओं का धरासायी कर सकें। पिताजी का क्षेत्र के निशाने बाजों में अच्छा नाम था। श्रावण के महिने में गाँव के तालब पर भुजरियों के मेले में निशाने बाजी की प्रतियोगिता प्रति वर्ष होती थी। पिताजी कई बार इस प्रतियोगिता में अपना झंडा गाड़ चुके थे।

गाँव से बाहर निकलने की डाकुओं की इसी रास्ते से सम्भावना थी। मेरी दृष्टि इसी रास्ते पर थी। उसी समय मुझे लगा एक भेदिया हमारी ओर ताक रहा है। मैं सतर्क हो गया, मैंने उस पर गोली चलाना चाही, पर वह हनुमान जी के मन्दिर की ओट लेकर खड़ा था। मैंने विचार त्याग दिया। कुछ ही देर में गाँव में चहल- पहल सुनाई पड़ने लगी। पता चला डाकू इस रास्ते से बाहर नहीं निकले हैं, वे इस रास्ते को छोड़कर लम्बे रास्ते से गाँव के बाहर निकल कर गये हैं।

उस दिन के बाद से तो पिताजी के कहने से गाँव की रक्षा में मुझे बन्दूक लेकर रात भर जागना पड़ता था। जिससे दिन भर के हारे- थके पिताजी आराम से सो सकें।

अब बैठे- बैठे रात कैसे कटे? याद आने लगी लल्ला कक्का की कहानियाँ। दिन में भी बाहर निकलता तो पास के हनुमान जी के मन्दिर पर बैठे लोग डाकुओं के किस्से सुनाते मिलते । क्षेत्र में पुराने समय के डोगर- बटरी नाम के डाकुओं के आदर्श के किस्से रस ले लेकर सुनाये जाते। दिन रात डाकुओं की बातें चित्त में मड़राने लगीं। एक रात मैंने कलम उठाली और डाकुओं के जीवन पर एक लम्बे फलक की कहानी लिख गई।’

राज बोहरे ने ही पूछा था कि लिखते समय क्या सोचकर चलते है?

मैंने उन्हें समझाया कि जब-जब मैं किसी रचना पर काम करने के लिये उद्यत होता हूँ तब- तब याद आने लगती है, लेखन के समय दिन-रात एक ही विषय पर केन्द्रित होकर चिन्तन को एक योगी की तरह स्थिर बनाये रखने की। उस समय जिन पात्रों का सृजन होता है वे अपने आप से बोलने-बतियाने लगते हैं। उनके सूक्ष्म से सूक्ष्म हाव-भाव उभरकर मानस में आने लगते हैं। पात्रों के अन्दर झाँक कर देखने का सलीका आने लगता है। उस समय लेखक को दिव्य दृष्टि सी प्राप्त हो जाती है। लेखक और पात्र एक रूप हो जाते हैं ,द्वैत मिट जाता है, केवल शेष रह जाता है पात्र का अस्तित्व। उस स्थिति में जो लिखा जाता है वही यथार्थ सा होता है।

एक दिन सुबह से ही पिताजी ने कहना शुरू कर दिया-‘इस लिखने से पेट भरने वाला है नहीं । अरे! जिस काम में कुछ न मिले, वह काम हम क्यों करें? हम देखते हैं जहाँ भी रचना छपती है वे फ्री में छाप देते हैं। इससे लेखक का तो शोषण हुआ कि नहीं। सुना है इन दिनों कुछ पत्रिकायें तो रचना छापने के उलटे पैसे लेतीं हैं।’

मुझ को कहना पड़ा-‘सरकारी नौकरी पाने के लिये इतने सारे एग्जाम दिये, पर सफलता नहीं मिली। इसी उधेडबुन में मेरा लिखना शुरू हुआ था। पहले इस काम को निराषा से बचने के लिये करता रहा लेकिन अब यही मेरे मन का काम हो गया है। इसीसे जीवन यापन करना चाहता हूँ। रचनायें छपने तो लगीं हैं लेकिन पैसा तो बड़े- बड़े लेखकों को मिल पाता है। यहाँ भी सारा खेल नाम का है।

पिताजी मेरी बातें सुन कर गुर्राये-‘अरे! जिस काम में कुछ न मिले इससे तो एक चाय की दुकान ही खोल लेते, कुछ तो मिलता। अब तुम बाल-बच्चेदार हो गये हो। हमारा बुढ़ापा आ गया है। हम घर को कब तक घिसट- धिसट कर चलायेगे।’ यह कह कर वे घर से बाहर निकल गये।

पिताजी की यह बात चुभ गई। मैं दूसरे ही दिन से एक प्रायवेट स्कूल में पढ़ाने जाने लगा,जिससे ट्यूशन भी मिलने लगीं, घर- गृहस्थी में सहयोग होने लगा।

एक बार मैं और साहित्यकार प्रमोद भार्गव दादा सीता किशोर से मिलने उनके गाँव सेंवडा जा पहुँचे। रात भर साहित्य के अनुरक्षण की चर्चा चलती रही। उस रात दादा ने कहा था-जो साहित्यकार जहाँ रह रहा है वहाँ कोई न कोई साहित्यिक एवं साँस्कृतिक विरासत बिखरी पड़ी होगी। हमरा दायित्व है कि हम उसे सहेजकर रखने का प्रयास करें। वहाँ से लौटकर ऐसे ही प्रकरणों पर मैंने काम करना शुरू कर दिया था।

डॉक्टर.गंगा सहाय प्रेमी जी ने बी.ए.की कक्षा में सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ जी की ‘राम की शक्ति पूजा’ प़ढ़ाते समय साहित्यकारों के लेखन की चर्चा करते हुए कहा था-‘ साहित्यकार कभी लिखने कुछ बैठते हैं लेकिन कुछ और ही लिख जाते हैं, सोच से परे! वक्ता जब भरी सभा में बोलता है, उसकी भी यही दशा होती है। कभी-कभी वह कहना कुछ चाहता है, उसने कहने के लिए कुछ और ही तथ्य मानस में संजो कर रखे होते हैं किन्तु उदगार कुछ अलग ही निकलते चले जाते हैं। इस स्थिति को सृजक उसे सरस्वती माँ की कृपा मान लेते हैं, किन्तु कभी-कभी ऐसे पलों की प्रतीक्षा में घन्टों व्यतीत करना पड़ते हैं और हाथ कुछ भी नहीं आता। सम्भव है बात के असर में जितना वेग होगा बात उतनी ही तीव्रता से मानस में आयेगी।

मानस की बात पर याद आ रही है मातेश्वरी रत्नावली द्वारा पति तुलसीदास जी के लिए कहे शब्दों की। ‘जितना प्रेम तुम्हें इस देह से है, उतना श्री राम से होता तो कल्याण ही हो जाता।’ बात भी चेतन प्राणियों के ही छिदती है। बाबा तुलसी को बात लग गई और उसका परिणाम निकला रामचरित मानस ।

रामचरित मानस से याद आने लगी है महाऋषि वाल्मीकि की। मैथुन रत क्रोच का बध जब उनके सामने बहेलिये ने कर दिया तो उसका साथी क्रोच पक्षी चीखें मार-मारकर प्रलाप करने लगा। यह बात महाऋषि वाल्मीकि को भाव-विगलित कर गई और काव्य की अविरल धारा प्रवाहित हो उठी। जो परिणाम निकला, आज रामायण महाकाव्य हमारे सामने है।

वापस आई कहानी की टीप में यह भी लिखा है कि किस्सागोई के अतिरिक्त इसकी भाषा भी पाठक को बांधे रहने में बाधक लगती है।

एक बार दादा सीताकिशोर ने साहित्यकार सम्मेलन के अपने भाषण में कहा था-कुछ लेखक लेखन के समय इतने डूब जाते हैं कि वे सब कुछ भूल बैठते हैं।

इस बात से मेरे मानस में एक चित्र उभरने लगता है-एक लेखक शब्द का ही साधक होता है। वह किसी बिंब को शब्दों के माध्यम से साकार करने में जब समर्थ होता है तो वह शब्दों से खेलने लगता है। लोकोक्तियाँ, मुहावरों के साथ रस- छन्द, अलंकारों का सहारा लेकर उसे एक रूपवती सुहागिन स्त्री की तरह सुसज्जित करने लगता है। वह उसे प्रकृति की चूनरी ओढ़ाकर लावण्यमय बना देता है जिससे वह पाठक के हृदय में बैठकर किलोलें करती रहे।

इस तरह उसकी भाषा अपना प्रभाव प्रदर्शित करते हुए भाव का चित्रांकन करती चलती है। कभी-कभी कुछ लेखक कठिन शब्दों का प्रयोग कर, अपनी विद्वता प्रदर्शित करना चाहते हैं। वे भूल जाते हैं यह टेलीविजन का युग है। आपकी बात समझने के लिये वह कोई शब्द कोश लेकर बैठने वाला है नहीं, मैं तो इसी कारण सरल शब्दों का प्रयोग करता हूँ। सहजता से जो शब्द आता चला जाता है प्रयोग कर लेता हूँ। मेरा मानना है, सरल शब्दों से गहरे विचार व्यक्त हों जिससे पाठक उसे सरलता से आत्मसात कर सकें।

बी.ए. की कक्षा में हिन्दी पढाते समय डॉक्टर गंगासहाय प्रेमी जी ने सुनाया था, भामति टीका का प्रसंग। वाचस्पति मिश्र का विवाह अध्ययन काल में ही हो गया था। जब वे पढ़ाई पूरी करके घर आये, अध्ययन काल का उनका टीका का कार्य शेष रह गया था। वे उसे पूर्ण करके संसार के काम में लगना चाहते थे। यह बात उन्होंने पत्नी भामति के समक्ष रखी। वे भी विदुषी थीं। उन्होंने पति के काम के महत्व को समझा और उस कार्य में लग जाने की सहमति प्रदान करदी।

वाचस्पति मिश्र को वह ग्रंथ पूर्ण करने में लम्बा समय व्यतीत हो गया। उनकी पत्नी उनकी सेवा में लगीं रही। एक दिन उनके दीपक की लौ मन्द होने लगी। जिससे उन्हें लेखन में कठिनाई महसूस हो रही थी। पत्नी ने यह बात जान ली और दीपक की लौ वढ़ा दी। इससे वाचस्पति मिश्र का ध्यान भंग हुआ । उन्होंने पूछा-‘ आप कौन?’

भामति ने उत्तर दिया-‘स्वामी आपको याद होगा कि आज से तीस वर्ष पहले आपसे मेरा विवाह हुआ था। यह बात सुनकर तो वे बहुत भाव- विह्वल हो गये और बोले-‘ अब इस टीका का नाम ही तुम्हारे नाम से होगा, भामति टीका। राज बोहरे ने पूछ लिया-‘ वाचस्पति मिश्र जी की तरह सबको यश क्यों नहीं मिल पाता?

मैंने उतर दिया-‘ हमारे मन में अपनी रचना को लेकर बड़ी आशायें होतीं हैं। लेकिन अपने से पूछिये क्या आपने वाचस्पति मिश्र जी की तरह रचना पर काम किया है? और आप रचना में उनकी तरह इतना डूव गये हैं कि रचना के अतिरिक्त और कुछ भी याद नहीं रहा है! अगर ऐसा है तो समझलो उस रचना को जन- जीवन में लोकप्रिय होने से कोई नहीं रोक पायेगा।

मैं सोचता हूँ कि रचनाकार को साधना करते- करते जब नया चिन्तन हाथ लगता है तो वह उसे प्रकृति का अनुपम उपहार समझने लगता है। इस स्थिति में कर्ताभाव का लोप होने पर वह अपने आपको पथच्युत होने से बचा लेता है। यदि उसे इस प्राप्ति पर अहम् हो गया तो यहीं से उसके लेखन का पतन शुरू हो जाता है। उसके लेखन में शब्दों का बनावटीपन आ जाता है। लच्छेदार भाषा विद्वानों में अपना प्रभुत्व जमाने में सफल तो रहती है लेकिन उस रचना की उम्र पर मुझे संदेह आ घेरता है।

राज बोहरे ने पुनः प्रश्न किया-‘ लेखक की बड़ी उपलब्धि क्या है?’ अरे!लेखन जितना स्वाभाविक होगा उतना ही जन-मन के अधिक नजदीक होगा। वह पाठक के हृदय में उतना ही स्थाई भाव स्थापित कर सकेगा और वह पाठक की स्मृति में टिका रहेगा। इससे बड़ी उपलब्धि और क्या होगी?

उसी समय माँ ने नाराज होते हुए मेरे कक्ष में प्रवेश किया। बोलीं- वेणु बनती तो है बड़ी विदुषी, किन्तु वह मेरी एक भी बात नहीं सुनती। हर बात में तर्क करने लगती है। अरे! बहू का भी कोई फर्ज होता है या नहीं। मैं तो उसे समझा-समझा कर हार गई।’

माँ की बात सुनकर मैं चुप रह गया। मैं उनसे क्या कहूँ-मुझे रोज की चिक- चिक अच्छी नहीं लगती, पर क्या करूँ। माँ और पत्नी दोनों को समझा-समझा कर हार गया। कोई भी मेरी बात समझने को तैयार नहीं है। दोनों के अपने- अपने अहम हैं।

ऐसी स्थिति में लेखन में स्वाभाविकता आये कहाँ से? वातावरण रचना के अनुकूल होना चाहिए कि नहीं, किन्तु वाह्य वातावरण तो समस्याओं से घिरा है। वह मुझे अपनी तरह से सोचने को करता है। वैसे कभी- कभी लगता है उस समय ही सही सामाजिक लेखन होता है। गुजर रही समस्याओं की पीड़ा पटल पर आती चली जाती है।

मैंने पत्नी की गर्भावस्था के समय माँ जी से सुना है- जो स्त्रियाँ प्रसव काल के समय गृह कार्य में लगीं रहतीं है उन्हें प्रसव पीड़ा उतनी सहन नहीं करना पड़ती।

जिस तरह स्त्री को जो प्रसव पीड़ा सहना पडत़ी है, उसी तरह हम कवियों एवं लेखकों को भी ऐसी ही पीड़ा से गुजरना पड़ता है। इसी सोच में हमारी नींद गायब हो जाती है, सारा सुख- चौन चला जाता है। संसार- सागर में चल रहे दुःख- सुख के व्यवहार गायब हो जाते हैं, शेष रह जाता है वहाँ उसके पात्रों का दुःख दर्द। उनके साथ वह हँसता-रोता और गाता दिखाई देता है। दिन-रात एक योगी की तरह अपने चिन्तन में निमग्न बना रहता है।

मैं अपनी धुन में कम्पूटर पर एक कहानी टाइप कर रहा था। पिताजी पीछे से आकर श्री राम के बारे में बाक्य लिखा देखकर बोले-‘तुम्हारा लिखा ठीक है लेकिन राम तो सभी रचनाकारों के अपने अपने राम रहे हैं। वाल्मिीकि, तुलसी, रसखान, रहीम और कबीर के अपने- अपने राम हैं। सभी ने उन्हें अपनी- अपनी दृष्टि से देखा और जाना है।’

उनकी बात सुनकर मेरे मुँह से शब्द निकले-‘तुलसी बाबा ने तो सभी ग्रंथों के सार तत्व को ग्रहण कर श्री राम का जो रूप रामचरित मानस में दिया है, वह जन-मन में जाकर बैठ गया है। इस बात को यों कहें, उन्होंने तो जन- मन में बैठे राम के चरित्र को उन्हीं के समक्ष रख दिया है। उन्हीं की बातें, उन्हें रुचिकर लगेंगी ही।

मेरी एक कहानी पढ़कर पत्नी वेणु ने पूछा था-‘आप अपनी कहानियों में पात्रों का चयन कैसे करते हैं?

मैंने उन्हें समझाया-‘लेखक अपने आसपास विचरण कर रहे पात्रों में से उनके गुणानुसार पात्रों का चयन कर लेता है लेकिन जब उसका उस पात्र से काम नहीं चलता तब यत्र- तत्र बिखरी घटनायें उसी एक आदर्श पात्र के माध्यम से रखते चले जाते हैं तब कहीं श्री राम सा चरित्र जन-जीवन में आकर बैठ जाता है।

कभी- कभी कुछ पात्र न चाहते हुए भी अनायास रचना में प्रवेश कर जाते हैं। मुख्य पात्र के साथ में उसके सहयोगी बनकर आ धमकते हैं और कुछ खल नायक बनकर कथ्य में अपना प्रभुत्व जमाने लगते हैं।

वे झट से बोलीं-‘ और तब लेखक उस पात्र पर झुझलाने लगता हैं, उस पात्र को विदा करने की सोचने लगता हैं पर वह विदा भी नहीं होता। कभी- कभी तो पात्र मनमानी करने लगते हैं। हम जो नहीं कहना चाहते, वे कह जाते हैं क्योंकि, सृष्टि में हम सब की तरह उन पात्रों का भी अस्तित्व है।

मुझे स्वीकार करना पड़ा-‘ आप ठीक कहतीं हैं,सभी पात्र अपना-अपना अस्तित्व लेकर धरती पर जन्म लेते हैं। उनमें सें कुछ पात्र इतने प्रभावशाली बन जाते हैं कि वे नये- नये सत्य उदधाटित करने लगते हैं। इससे लगता है कि हमारी तरह उन पात्रों का भी अस्तित्व है। हम उनके साथ मनमानी नहीं कर सकते। उस समय हमें उनके अनुसार ही चलना पडता है। इस स्थिति में लेखक का अस्तित्व विदा माँग जाता है। वह पात्र ही लेखक को कठपुतली की तरह नचाने लगता है।’

वेणु ने मेरी बात पूरी की-‘कभी-कभी श्री कृष्ण के साथ गोपिकाओं जैसे पात्रों का सृजन भी हो जाता है, जिनकी कोमल प्रेम भावना की वेद व्यास ने कभी कल्पना ही नहीं की है। वे अपना अस्तित्व सृजन के पथ में छोड़कर अमर हो गई हैं।’

लेखकीय जीवन क्या त्याग और तपस्या का प्रतीक है? एक साहित्यिक गोष्ठी में इस विषय पर चर्चा रखी थी। मैंने इस विषय पर अपने विचार कौटिल्य के माध्यम से रखे थे,- कौटिल्य जब अपना अर्थशास्त्र लिख रहे थे तो उस समय वे अपने श्रम से कमाये पैसे के तेल का उपयोग करते थे, किन्तु जब राज्य का काम करते तो अपनी झोपड़ी में शासन का दिया जला लेते थे। दीपक के तेल का ऐसा बंटवारा देखकर हम लेखन कार्य करने वालों को व्यवस्था का ऐसा सूक्ष्म बंटवारा सीखना ही पड़ेगा। हम जो जीते हैं, यदि वही लिख गया तो वह रचना पाठक को बाँधकर रखने में समर्थ होगी। लेखक की प्राण प्रतिष्ठा जितनी गहरी होगी रचना उतनी ही जीवन्त भी होगी।

वेणु बोली-‘तो आप यह मानते हैं कि लेखक ही अपने पात्रों में अभिनेता की तरह बोलता है?

‘इस पर मेरा चित्त अभिनेता और लेखक के इर्द-गिर्द घनीभूत होने लगा है। दोनों के जीवन में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। अभिनेता किसी कथा में एक ही पात्र को पूरी तरह जीता है, लेकिन लेखक को अपनी रचना में एक निर्देशक की तरह सभी पात्रों को साकार बनाना पड़़ता है। कभी-कभी तो लेखक को एक साथ मुख्य पात्र कें साथ अनेक सहयोगी पात्रों का सृजन करना पड़ता है। उस समय भटकाव की आशंका लगी रहती है कहीं एक पात्र का चरित्र दूसरे प्रसंग में असंगत न हो जाये। उठते बैठते खाते- पीते, सोते- जागते वह उन्हीं के साथ खोया रहता है।’

राज बोहरे ने एक गोष्ठी में पूछा था कि वैसे तो लेखक को सभी रचनायें अच्छी लगती है लेकिन उनमें भी प्रिय कौन सी होती है?

एक माँ को उसके सभी बच्चे समान रूप से प्यारे होते हैं। वह उनकी समान रूप से परिवरिश करती चली जाती है लेकिन माँ की सेवा में जों निस्वार्थ भाव से लग जाता है, माँ का मन उससे जुड़ जाता है। वही उसे सबसे अधिक प्रिय लगने लगता है। यही बात लेखक के जीवन में भी लागू होती है। उसकी सभी कृतियों में एकाध कृति ही चर्चित हो पातीं है, पाठकों का प्यार पा जाती हैं। जिसके सहारे वह प्रसिद्धि के मुकाम तक पहुँच पाता है।

सहसा मैं वर्तमान में लौट आया। मेरा आत्म विश्वास जाग्रत हो गया। मैं सम्पादक के कहने से कैसे अपनी रचना में काट-छाँट करने लगूँ । सभी पत्रिकाओं के अपने-अपने दृष्टिकोण होते हैं। उसी के अनुसार वे रचनायें प्रकाशित करते हैं। उस पत्रिका में रचना प्रकाशित नहीं हो रही तो क्या हुआ? किसी दूसरी पत्रिका में ही सही । अरे! चलने का मंसूबा बना ले तो हजार रास्ते खुलते चले जाते हैं।