Sphut Chintan (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar
स्फुट चिन्तन : रामधारी सिंह 'दिनकर'
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परम्परा और आधुनिकता का द्वन्द्व आज फिर सताने लगा। सोचता हूँ, विरासत में हमें जो कुछ मिला है, वह जुगाने के लिए मिला हैय रक्षा, पालन और विकास के लिए मिला है। यह चिन्तन का एक पक्ष है। मगर फिर शंका उठती है, क्या परम्परा का पालन नवीनता की उपेक्षा करके करना होगा? भारत की संस्कृति और परम्परा बहुत पुरानी है। हम एक ऐसे घर में जी रहे हैं, जो बड़ा तो है, मगर बहुत पुराना है। यह घर शताब्दियों, सहस्राब्दियों के असबाबों से खचाखच भरा हुआ है। कहीं ऐसी तो नहीं है कि नये असबाबों को हम उपेक्षित कोनों में डालते जा रहे हैं? संस्कृति, परम्परा और इतिहास जब लम्बे और समृद्ध होेते हैं, वे दमघोंटू बन जाते हैं और वर्तमान को ठीक से साँस भी नहीं लेने देते। अश्वत्थ का मोटा और विशाल वृक्ष, जो छाया तो खूब देता है, मगर अपने नीचे की जमीन पर पौधों को उगने नहीं देता।
2
हरमन हेस का निबन्ध ‘यूरोपियन निहिलिज्म’ पढ़ा। यूरोप ने अनेक प्रकार के सत्य गढ़ लिये हैं, जो अपनी–अपनी जगहों पर सही और दुरुस्त हैं। मगर इनमें से किसी भी सत्य में यूरोप तहेदिल से विश्वास नहीं करता। पुराने मूल्य अविश्वसनीय हैं। नये मूल्य सिर्फ शंका जगाकर चले जाते हैं। ऐसी अवस्था में आदमी के पास कोई ऐसी मान्यता रह नहीं जाती, जिसका सहारा लेकर वह अपनी अविवेकी प्रवृत्तियों का नियंत्रण या सुसंचालन कर सके। हमारी सहज वृत्तियों का मूल हमारे अवचेतन के समुद्र में डूबा हुआ है। मूल्य और मान्यताएँ अब तक इन वृत्तियों को बँधे घाट में चलाती थीं। अब घाट के बाँध ही गायब हो गए हैं। यूरोप अभी अनेक उच्छृंखलताओं और अराजकताओं से होकर गुजरेगा। तब शायद वह भविष्य के किसी घाट पर पहुँच सके और उस नये मनुष्य को जन्म दे सके, जिसकी चर्चा तो है, मगर परिभाषा नहीं है। राबर्ट मूसिल ने भी हेस के इस विचार का समर्थन किया है कि अराजकता में से गुजरे बिना आदर्श लोक तक पहुँचना असम्भव है।
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कला में अमूर्त शैलियों को प्रश्रय गाँवों नहीं, नगरों से मिलता है। अमूर्त शैली प्रसादविहीन होती है। विचित्र बात यह है कि वह सबसे ज्यादा उन्हें पसन्द आती है, जिनके जीवन में एकान्त का अभाव है, जो दिन भर लोगों से मिलते ही रहते हैं, मगर जो सबके साथ बरामदे में ही मिलते हैं, किसी को भी कोठरी के भीतर नहीं ले जाते। रूसी क्रान्ति से प्रेरित भावना को इतना श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि उसने अमूर्तता को केवल प्रयोग बनने से बचा लिया। लेकिन यह निश्चित दिखता है कि भविष्य के मानव का नाटक नगरों की ही पृष्ठभूमि पर खेला जाएगा।
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नया युग तो हिन्दी में भी बीत रहा है, मगर हमारा पुरानापन अभी भी हमसे चिपटा हुआ है। हिन्दी में वे भी पुस्तकों को सन्देशविहीनता के लिए नकारते हैं, जो अपने को आधुनिक समझते हैं। साहित्य की परम्परागत धारणा उन पर भी छायी हुई है, जो अपने को आधुनिकता के प्रतीक समझते हैं। कविता के सार मात्र से अभी कोई सन्तुष्ट नहीं है। हर कोई सन्देश खोजता है। मेरी काव्य पुस्तक ‘उर्वशी’ की आलोचना में जितनी बातें किताब के खिलाफ कही गईं, उनमें सन्देशविहीनता का ही इलजाम बार–बार लगाया गया और वही इलजाम सबसे फालतू था।
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नई कविता के प्रति मेरा भाव सात्त्विक जिज्ञासा का है, किन्तु काफी भक्ति से पढ़ने पर भी नई कविता में मुझे वह चीज नहीं मिलती, जिसका मजा लेने को मैं कविता पढ़ने का आदी रहा हूँ। और इसी सच्चाई के साथ बहुत–से नये कवि और आलोचक मानते हैं कि असली कविता का आरम्भ अब हुआ है। अब तक जो कुछ लिखा गया था, वह आवेश की तुकबन्दी थी। पुराने और नये के बीच जो सम्बन्ध बन गया है, वही बतलाता है कि हम इतिहास के संकट की घड़ी से गुजर रहे हैं। विद्रोह केवल मुक्त चेतना का नशा और अराजकता का आनन्द नहीं है। उसके साथ मर्दानगी की बातें भी होती हैं। नये कवि जिस निर्भयता, स्पष्टता और उत्साह से लिखते हैं, वह उनकी मर्दानगी का सबूत है। लक्ष्य का उन्हें शायद पता नहीं है, गंतव्य स्थान को वे नहीं जानते, लेकिन परम्परा के घर से वे कहीं–न–कहीं जाने को निकल पड़े हैं। अतीत या परम्परा की विरासत हमें स्थायित्व के लिए मिली है, इस बात को नये कवि नहीं स्वीकार करते। पश्चिम से आनेवाली अत्याधुनिक अनुभूतियों की जो लहर उन्हें छू रही है, वह बतलाती है कि अतीत कुछ नहीं है, भविष्य भी कुछ नहीं है, असली तत्त्व वर्तमान है। अतीत से मिली हुई चीज भी तब तक ग्रहण करने योग्य नहीं है, जब तक वह वर्तमान की कसौटी पर खरी न पाई जाए। कविता का नया अनुसंधान जरूरी है, काव्यशास्त्र का भी नया अनुसंधान होना चाहिए। नैतिकता, पुण्य और पाप की पुरानी परिभाषाएँ व्यर्थ हैं। हमें उनकी नई परिभाषाएँ बनानी चाहिए और अगर भाषा की असमर्थता के कारण नई परिभाषाएँ गढ़ी नहीं जा सकतीं, तो इन शब्दों को अपरिभाषित ही छोड़ देना चाहिए। ईश्वर और अध्यात्म भी हमें सांस्कृतिक विरासत के पुछल्ले के रूप में नहीं प्राप्त हो सकते। नये सिरे से उनका भी अनुसंधान आवश्यक है। काल का चरमोच्च बिन्दु वर्तमान है। सभी गुजरे युगों की नैतिकता, विश्वास, मान्यता, फैशन और दृष्टिकोण को वर्तमान की अदालत में अपना अस्तित्व सिद्ध करना होगा। जब पुराने मूल्यों में आदमी का विश्वास नहीं रह जाता, संस्कृति का महल ढहने लगता है। इससे एक प्रकार की रिक्तता उत्पन्न होती है, एक प्रकार का अकेलापन जन्म लेता है, जिससे आदमी घबराने लगता है। लेकिन इसी अकेलेपन के बीच उसे अपनी उस मूल प्रकृति का ज्ञान होता है, जो परिभाषाओं से परे और अविश्लिष्ट है। नवलेखन की मानस–भूमि अभी वह भूमि है, जिस पर अनेक प्रकार की प्रवृत्तियाँ मिलती और टकराती हैं। भविष्य की दिशा परिभाषित नहीं है, इसलिए कोलाहल को हम सर्वत्र स्वतंत्र पाते हैं।
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नई कविता ने किसी पद्धति या प्रणाली को जन्म दिया है या नहीं–उस तरह की प्रणाली को, जैसी भक्तिकाल या रीतिकाल या द्विवेदीकाल अथवा छायावाद काल में थी? जब तक एक प्रणाली में समानेवाले सभी तत्त्व अपनी वैयक्तिक विशिष्टताओं का त्याग करके, मोटे तौर पर किसी एक ध्येय या दिशा को स्वीकार नहीं करते, तब तक प्रणाली की रचना असम्भव होती है। नई कविता में प्रणाली–जैसी चीज मुझे एक ही दिखाई देती है–शैली का विशिष्टीकरण या विकास और नये–नये मॉडल बनाने की चिन्ताय किन्तु इससे तो कारयित्री प्रतिभा के कुछ अभाव की ही सूचना मिलती है।
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नीत्शे ने प्रहार ठीक–ठीक मूल्यों पर नहीं किया है, बल्कि सभ्यता की रुग्णता और थकान पर, जिसके चलते वह नये मूल्यों की सृष्टि नहीं कर पा रही है। नीत्शे ने जोश में आकर कहा–ईश्वर मर गया। मगर उसकी आत्मा खुदबुदाती रही कि ईश्वर की मृत्यु के माने क्या हो सकते हैं? ईश्वर की मृत्यु के माने हैं उन महान मूल्यों की मृत्यु, जो मनुष्य को ईश्वर से जोड़ते हैं। अतएव नीत्शे केवल ईश्वर की मृत्यु की घोषणा करके मौन नहीं हुआ, उसने यह भी कहा कि ईश्वर की मृत्यु बहुत बड़ी घटना है। आदमी इस घटना की बराबरी तभी कर सकता है, जब वह खुद ईश्वर बन जाए। इस जर्मन दार्शनिक के बाद फ्रेंच के उपन्यासकार अल्बैर् कामू आए। उन्होंने कहा–नये आदमी का असली दर्द यह है कि ईश्वर को माने बिना वह संत हो सकता है या नहीं? भारत की परम्परा के पास इसका जवाब है। बुद्ध संत थे, मगर ईश्वर–सिद्धि का प्रचार नहीं करते थे। जैन–धर्म के अनुसार ईश्वरत्व मनुष्य के विकास की उच्चतम कल्पना का नाम है। और महर्षि रमण ने भी कई बार कहा था कि ईश्वर देखने या जानने की वस्तु नहीं है। जानना तो केवल यह है कि ‘मैं कौन हूँ?’ लगता है, सत्य का संधान नीत्शे का उद्देश्य नहीं था। उसका काम लोगों का पर्दाफाश करना था और वह इसलिए कि लोग जो कहते हैं, उसे आचरते नहीं हैं। जो मूल्य केवल वाणी की शोभा हैं, आचरणों के आधार नहीं, वे अगर व्यर्थ मान लिये गए, तो इसमें आश्चर्य क्या है?
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कविता की स्वायत्तता का आन्दोलन विज्ञान के कारण भी बढ़ा है। ज्यों–ज्यों विज्ञान और टेक्नोलॉजी का प्रचार हुआ, आदमी उपयोग की ओर ज्यादा झुकने लगा। मगर फूल, तारे, बच्चे, पर्वत, हरियाली आदि का जाहिरा उपयोग तो कुछ भी नहीं है। अतएव सौन्दर्यशास्त्र ने इस बात पर जोर देना शुरू किया कि कला की कृति केवल अपनी भाषा बोलती है, उसकी परिभाषा या व्याख्या अन्य प्रकार की भाषाओं में नहीं दी जा सकती। अगर कला की कृति पर किसी इच्छा, आशा, ध्येय या उद्देश्य का आरोप किया जाएगा, तो कृति उसका अवरोध करेगी। मनुष्य की आदत है कि वह काल पर शासन करनेवाली शक्तियों के सामने घुटने टेक देता है, जैसे उसने विज्ञान के सामने घुटने टेक दिये हैं, किन्तु कला अपने साम्राज्य के नियमों को छोड़कर और किसी भी नियम को नहीं मानती। वह हमेशा ‘ह्लादैकमयी’ और ‘अनन्यपरतंत्रा’ होती है। नई कला किसी अमर भाव, विचार या अनुभूति में विश्वास नहीं करती। वह मनुष्य के समकालीन जीवन से कटकर जीना नहीं चाहती। वह क्षणजीवी वास्तविकता का सत या निचोड़ बनना चाहती है। कविता की क्रिया अब अन्य क्रियाओं से तुलनीय नहीं रही। वह केवल अपने सत्य को प्राप्त करना चाहती है। तब भी कवि दो प्रकार के होते हैं। एक वे, जो केवल माध्यम हैं। दूसरे वे, जो माध्यम भी हैं और क्रियाशील भी। अब जो माध्यम हैं, पहले वे शुद्ध कवित्व के उपासक होते थे और जो क्रियाशील हैं, वे सन्देशवाही हुआ करते थे।
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जो लोग यह समझते हैं कि भारतीय परम्परा यथेष्ट है, वे भ्रम में हैं। हमारी परम्परा की भी नींव हिल गई है। यह भाव भारत में भी जग रहा है कि संस्कृति और इतिहास का बोझ कराल है। उसके नीचे वर्तमान को साँस लेने में कठिनाई महसूस होती है। समाज और साहित्य के बीच राजीनामे की राह भारत में भी लुप्त हो रही है। ‘आउट साइडर’ हमारे बीच भी पैदा होने लगे हैं। साहित्य भारत में भी उस दिशा की ओर चल पड़ा है, जो अज्ञात है, जिसकी मंजिल के बारे में अभी कोई कल्पना नहीं की जा सकती। यह नहीं कहा जा सकता कि यह साहित्य किसी भी समय आदमी की औसत आदतों के पास लौट आएगा तथा धर्म और नीति के साथ अपना मेल बैठाकर जिएगा। यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस निरुद्देश्य यात्रा का अन्त किसी ऐसी जगह पहुँचकर होगा, जहाँ उसकी सार्थकता सिद्ध हो जाएगी।
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जिस आन्दोलन को हम आधुनिकता कहते हैं, उससे मिलते–जुलते भावों की लहर भारत में तीन बार उठी है। पहले तो बुद्ध के आविर्भाव के साथय फिर नानक, कबीर और वेमन्ना के युग में और तब भारत में यूरोप के आगमन के बाद। उन्नीसवीं सदी भारत के महाजागरण का काल है। उस समय भारत के मनीषी आधुनिकता की ओर बड़े वेग से बढ़े थेय किन्तु दो बातों के कारण आधुनिकता सन्देह की वस्तु बन गई। एक तो इसलिए कि सन्देह की वस्तु बन गई। एक तो इसलिए कि आधुनिकता के प्रतीक अंग्रेज थे जिनसे जनता घृणा करती थी। दूसरे, जो लोग अंग्रेजी पढ़कर आधुनिक बने, उनमें उदारता और बुद्धिवाद कम था, उच्छृखलता ज्यादा थी। अतएव नवजागरण के नेताओं का भाव यह बना कि भारत को आधुनिकता का भी वरण करना है और उसे अपनी परम्परा के सर्वोत्तम गुणों की भी रक्षा करनी है।
यानी विचारकों ने यह समझा कि आधुनिकता ऐसी चीज नहीं है, जिसका वरण करने को हम उन सभी मूल्यों को त्याग दें, जो सहस्राब्दियों से हमारे साथ रहे हैं। भारत में जो कुछ भी है, उसे धो-पोंछकर फेंक देना और स्वच्छ स्लेट पर बिलकुल नवीन अक्षर लिखना भारत का मत इसके खिलाफ बना। उन्नीसवीं सदी में जो रास्ता बना, हम उसी पर आज भी चल रहे हैं।
आधुनिकता और आधुनिकीकरण में भेद है। आधुनिकता बुद्धिवादी मनोवृत्ति को कहते हैं। आधुनिकीकरण का अर्थ उद्योग, समृद्धि, सैन्यबल, साक्षरता और अवकाशहीनता है। जितने भी अविकसित देश हैं, वे आधुनिकता नहीं, आधुनिकीकरण की ओर लोभ से देख रहे हैं। यूरोप में आधुनिकता पहले आई थी, आधुनिकीकरण बाद को प्रकट हुआ। पहले बुद्धिवादी दृष्टिकोण की प्रधानता हुई, विज्ञान उसके बाद बढ़ा। यानी यूरोप का मन पहले बदला, शरीर बाद को। भारत और एशिया के देश चाहते हैं कि शरीर तो उनका यूरोप-जैसा हो, लेकिन मन अपना ही रहे।
यह कहाँ तक सम्भव या उचित होगा, यह प्रश्न विचारणीय है। सम्भव वह इसलिए है कि टेक्नोलॉजी के जरिये अब अन्धविश्वासी सेठ भी कलकारखाने बढ़ा सकते हैं और ठीक-ठीक असम्भव तो नहीं, पर असंगत वह इसलिए है कि अन्धविश्वासी मन के साथ विज्ञान का मेल नहीं बैठता।
सोचने की बात यह है कि आधुनिकता के प्रति हममें झिझक कहाँ पर है। मेरा खयाल है, उसे उन मल्यों के इर्द-गिर्द होना चाहिए, जो धर्म से सम्बदध रहे हैं, लेकिन इस गुत्थी का विश्लेषण भी आसान नहीं है। इस देश में ऐसे लोग हैं, जो गो-माता को धर्म का प्रतीक समझते हैं और ग्रहण-स्नान को पुण्य कृत्य मानते हैं, लेकिन ऐसे अन्धविश्वासी लोगों के बीच भी धर्म के सही मूल्य आदर पाते रहे हैं। बुद्ध नास्तिक थे, मगर उन्हें यही जनता अवतार मानती है। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर नास्तिक थे, मगर जनता उन्हें धार्मिक समझती थी। स्वामी विवेकानन्द विधर्मियों के बीच रहे थे, किन्तु वे धर्म के उद्धारक समझे जाते हैं।
धर्म के प्रसंग में आधुनिकता की दो प्रवृत्तियाँ स्पष्ट दिखाई देती हैं। एक यह कि विज्ञान जहाँ तक देख सकता है, वास्तविकता उतनी ही है। अतएव परलोक या अदृश्य वास्तविकता है ही नहीं और ईश्वर की कल्पना फिजूल है। आधुनिकता की इसी प्रवृत्ति ने सभ्यता को राक्षसी बना दिया है, क्योंकि इस विचारधारा का स्वाभाविक निष्कर्ष यह है कि पुलिस से छिपकर जो कुछ भी किया जाए, वह पुण्य है।
धर्म के प्रसंग में आधुनिकता की दूसरी प्रवृत्ति यह है कि शास्त्र के वचन प्रमाण नहीं हैं। धर्म सांस्कृतिक परम्परा के रूप में प्राप्त नहीं किया जा सकता। मनुष्य बालिग हो चुका है। वह भावुक किशोर नहीं है। उसे अब श्रद्धा का भी अनुसन्धान चिन्तन और समझदारी से करना चाहिए। चिन्तन और समझदारी से अनुसन्धानित धर्म ही आधुनिक कर्म है।
जो लोग यह समझकर निश्चिन्त बैठे हुए हैं कि भारत की सांस्कृतिक परम्परा यथेष्ट है, वे भ्रम में हैं। नवयुग के आगमन के साथ भारत में भी परिवर्तन हुए हैं तथा धर्म और आध्यात्मिकता के रूप बदल रहे हैं। हमें भी अपनी आध्यात्मिकता का नया अनुसन्धान विचार और समझदारी से करना है। तभी उस आध्यात्मिकता पर हमारी श्रदधा ठहर सकेगी, और इस दिशा में भी भारत उदासीन नहीं रहा है। भक्ति, ज्ञान, कर्म और योग-ये भारतीय साधना के चार मार्ग हैं और नवयुग के आगमन के साथ इन चारों के रूप परिवर्तित हो गए हैं। भक्ति का नया रूप परमहंस रामकृष्ण में, ज्ञान का महर्षि रमण में, कर्म का महात्मा गांधी में, और योग का महर्षि अरविन्द में प्रकट हुआ है।
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समृद्धि की वृद्धि से कई दोष उत्पन्न हुए। नर-नारी का सम्बन्ध अधिक तेजी से गलत रास्ते की ओर जाने लगा। लोग खूब मौज से रहने लगे। वे यह बात भूल ही गए कि संसार में गरीब और ऐसे असहाय लोग भी हैं, जिन्हें खाना नहीं मिलता। औद्योगिकीकरण का एक नतीजा यह भी हुआ कि आदमी हृदयहीन हो गया। औद्योगिकीकरण और समृद्धि के सभी नतीजों को लोग आधुनिकता के अंग मानते हैं। अब सोचना यह है कि कीर्तन करनेवाले और गेरुआ पहननेवाले तथा चुटिया रखनेवाले अमरीकी और यूरोपीय लोग आधुनिक हैं या नहीं? मैं दिन-रात यह प्रार्थना करता हूँ कि हे भगवान, भारत में और भारत से बाहर सर्वत्र औदयोगिकीकरण की गति शिथिल हो जाए जिससे सभ्यता का विनाश जरा देर से हो। यह प्रार्थना आधुनिक मानी जाएगी या मध्यकालीन? अभी उस दिन अमरनाथ के घर पर पार्टी थी। टोकियो के कई विदवान आए हए थे। प्रोफेसर डोय ने मझसे कहा, 'आप जापान की बडाई करते हैं, लेकिन टोकियो की सड़क पर चलिए तो आँख से पानी गिरने लगेगा। शहर में इतनी मोटरे हो गई है कि वाय् सर्वत्र दूषित हो गई है। सभ्यता नष्ट होने लगी, तो जापान पहले ही नष्ट हो जाएगा।'
(आधुनिक बोध)