स्पर्श : मंगला रामचंद्रन

Sparsh : Mangala Ramachandran

रूबल मुँह में उनका चश्मा दबाए आया और उनके पास पलंग पर रख दिया। सावित्री उसे देखती रहीं और रूबल भी उन्हें देखते हुए खड़ा रहा। रूबल की आँखों में हमेशा की तरह एक तरलताए मित्रता की झलक थी। उसे देखते.देखते सावित्री की आँखों में एक सजल.अपनेपन का भाव आया। लगा रूबल को निहारते हुए उनकी आँखें बरस पड़ेंगी। उसे थपथपाने की प्रबल इच्छा को बरबस रोक लेती हैं। वो तो पता नहीं कितना समझदार है कि सावित्री के मन के भावों को बिना स्पर्श के ही पढ़ लेता है। उनसे कुछ दूर जाकर बैठ जाता है मानो कह रहा हो स्नेह जताने को स्पर्श आवश्यक नहीं है। उन्होंने सामने पलंग से चश्मा उठाया और अपनी साड़ी से साफ कर पहन लिया। नहाने के बाद प्रतिदिन कुछ देर रामायण गीता कोई पुराण जैसे देवग्रन्थ पढ़ने का उनका नियम था।

जवानी में दिन के चौबीस घण्टे भी उन्हें कम लगते थे। किसी भी दिन सुबह उठकर ऐसा नहीं लगता था कि नींद पूरी हुई हो। शरीर अलसाता रहता और दिन में भी नींद लेने को मन करता रहता। वहीं अब बुढ़ापे में समय काटे नहीं कटता। नींद भी तो कमबख्त अब नहीं आती। चार घण्टे भी सो लेतीं तो खुश हो जातीं केवल नींद के ही लिए नहीं वरन् समय कट जाता इसलिए भी। तब से अब क्या केवल उनके जीवन में तब्दीली आई है, घर में और घर के सदस्यों में भी अन्तर आया है और दिखता भी है। पर ये परिवर्तन सुखद और संतोष देने वाला फर्क है। जब वो बहू बन कर आई थीं तो इस तरह तीन मंजिला मकान कहाँ था।

घर की मान-मर्यादा और अपने देवता तुल्य सास-ससुर का सावित्री ने बहुत ख्याल रखा। सावित्री को पूरा-पूरा विश्वास था कि आज जो कुछ भी उन्नति उसके पति और बेटे ने की है उसके सास-ससुर के आशीर्वाद से। तमिल की एक कहावत भी है जिसका अर्थ है कि पितरों और बुजुर्गों का पेट ठण्डा रखो तो उनका मन प्रसन्न रहेगा। तब बुजुर्ग सदैव आपके लिए प्रार्थना करते रहेंगे। उस समय कम उम्र की सावित्री की पेट ठण्डा करने वाले कथन पर हँसी रोके नहीं रूकती थी।

कुछ वर्षो बाद उसी सास ने एक दिन लाड़ जताते हुए सावित्री से कहा- बेटी तू ने अन्नपूर्णा की तरह हमें स्वादिष्ट व्यंजनों का भक्षण कराया, जिह्व और पेट की ज्वाला को शांत किया। लक्ष्मी की तरह कलेजे को ठण्डक पहुँचाई कहते-कहते अपना जड़ाऊ हार उसे पहना दिया और स्नेह से निहारने लगी। उसी दिन पेट ठण्डा करने का मानो असली अर्थ उसे समझ आया। सावित्री को वह दृश्य ही अभी ज्यों का त्यों स्मरण हो ऐसा नहीं वरन् अपनी ममतामयी सास के करकमलों के स्पर्श की सिहरन भी वो महसूस कर पाती है। अपने पति की ठिठोली भी याद है। क्या जादू मंतर फूँक दिया माँ-बाबूजी पर, तुम पर न्योछावर हुए जा रहे हैं, उनके होठों पर खिंची स्नेह विगलत स्मित रेखा क्या कभी वो भूल सकती है?

सावित्री भी अपनी बहू जया से संतुष्ट और खुश है। जया जब से बहू बनकर इस घर में आई है घर भरा-पूरा खुशहाल ही रहा। एक मंजिल मकान तीन मंजिल बन गया। घर जैसी बेजान संज्ञा उसके सदस्यों के स्वभाव व आपसी तालमेल से किस तरह क्रिया करने लगती है, अपनी साँसों से खुशबू बिखेरने लगती है, ये सावित्री से ज्यादा अच्छी तरह कौन जान सकता है?यश और जया ने कम्यूटर के न जाने कौन-कौन से कोर्स किए थे और उसका केन्द्र आरंभ कर उसी में साँस लेते, सोते-जागते उनकी हर बात में अपना केन्द्र और कम्प्यूटर की ही माया होती। एक नई शब्दावली इन्टरनेट और वेबसाईट भी जुड़ गया। खाने की मेज़ पर दोनों ही कभी-कभी सावित्री को कुछ-कुछ समझाते। सावित्री समझे या न समझे पर सुनती बड़े ध्यान से थी। वो इसी बात से खुश रहती कि इतनी देर बेटे-बहू का साथ मिला।

पोती रेणुका और पोता रवि भी उनसे बहुत हिले हुए थे। एक.दूसरे की शिकायत करना हो तो दादाजी के पास जाते वरना हर बात हर काम के लिए दादी के पास। दादाजी हँसते और सावित्री से कहते किए भई उन्हें समझाओ मैं कोई जज नहीं हूँ। केवल वकील हूँ सिर्फ पैरवी कर सकता हूँ। मेरे मुकदमे के फैसले भी कोई और देता है।

एक दिन रवि बोला-दादी अभय के यहाँ कुतिया बच्चे देने वाली है, अपने लिए एक प्रिसर्व करवा लिया।
क्या करवा दिया। रवि अंग्रेजी के लम्बे-लम्बे और कठिन शब्द कुछ अधिक ही बोलने लगा था। दादी इसलिए दुबारा बुलवा कर स्पेलिंग पूछा करती थी।
प्रिसर्व नहीं मालूम आपको। आप लोग जैसे ट्रेन में सीट रिजर्व कराते हैं, मैंने एक पपी प्रिसर्व करा लिया। इतनी अच्छी ब्रीड है। मैंने कहने में देर कर दी तो कोई और ले जाएगा। फिर मेरा दोस्त है तो पैसे भी कम देने पड़ेगे।
बड़ा आया दादी को रिजर्व का मतलब समझाने वाला, बड़ी बहन रेणु उसे हड़काते हुए बोली। दादी तो तुझसे स्पेलिंग पूछ कर याद कराती हैं। फिर आवाज़ में कुछ नरमाई लाते हुए बोली-कौन-सा ब्रीड है, पॉमेरियन ना!
पॉमेरियन भी कोई डॉगी है। वो तो बस लड़कियों के साथ खेलने और गोद में उठाने के लिए होता है।
अच्छा तो फिर लड़कों के साथ खेलने वाला कुत्ता कौन.सा है जरा बताना तो जनाब।
डॉबरमेन अल्सेशियन और दो नामों से आगे नहीं जा पाया रवि।
बस एक गोबरमेन-डोबरमेन रेणु खीझ कर हँसी उड़ाने लगी क्योंकि उसके जेहन में था प्यारा-सा ऊन के गोले-सा सफेद झक्क झबरा पॉमेरियन।

इधर दादी को अलग चिंता ने घेर लिया। अपने बहू-बेटे से तुरंत वार्तालाप को तरस रही थी, कठिनाई से मौका मिला भी तो इतना ही बोल पाई ब्राह्मणों के घर में कहीं कुत्ता-बिल्ली पाला जाता है, अभी से रवि को समझा दो वरना बाद में रोएगा मचलेगा।

दादी पोते का दिल टूटता देख नहीं सकती थी और घर में इन प्राणियों की रोक भी आवश्यक मानती थीं। पर उनका वाक्य पूरा होते न होते तीन तरफ से तो एक अलग ही नकारात्मक प्रक्रिया हुई। बेटा-बहू और उनके पति एक स्वर में ही बोले- ये क्या ब्राह्मण-वाम्मण का चक्कर पाल लिया। कुत्ता पालने से इसका क्या संबंध?
रेणु हालांकि आठ-नौ वर्ष की ही थी पर चूकी वो भी नहीं आप ही तो बताती थीं कि बड़े नानाजी के खेत में चार-चार कुत्ते रखवाली करते थे।
अरे वो तो खेत में रहते थे। वहीं खाते-पीते, वहीं रहते। घर थोड़ी आते थे।

दादी रवि अपनी बात मनवाने को दादी से इसी तरह लाड़ लड़ताए ये जो अपना रुबल आएगा वो भी तो घर की रखवाली करेगा। फिर मेरे साथ खेलने को भी तो कोई चाहिए, अपनी दादी को छेड़ते हुए नन्हा रवि बोल पड़ा।
हाँ बेटा घर में इन्सानों की कमी हो गई है ना जो जानवरों के साथ खेलोगे बहू बेटे की बात पर हँसते हुए बोली, उसकी आवाज की खीझ हँसी में दब गई।

और नहीं तो क्या? अब वो तेरा डॉगी ही आकर तेरे साथ कैरम और लूडो सब खेलेगा। दीदी और दादी की जरूरत क्या है दादी रूठे हुए अंदाज में इस तरह बोली मानो इसकी प्रतिक्रिया में रवि का घर में कुत्ता लाने का प्लान स्थगित हो जाएगा।
सावित्री तुम इस तरह मुझसे तो कभी नहीं रूठी। विवाह के प्रथम सोपान में भी नहीं। पोते के साथ रूठा-रूठी कर रही हो। उनके पति ने छेड़ते हुए कहा।

ऐसे मौके पर बेटा कहाँ पीछे रहने वाला था। हँसते हुए पूछा माँ सही में कभी बाबूजी से आप रूठी नहीं बेचारे बाबूजी की मनाने की इच्छा कभी पूर्ण ही नहीं हुई। फिर शरारत से अपने पिता को देखकर बाबूजी देखिए माँ का चेहरा कैसा लाल हो रहा है पता नहीं गुस्से से या शर्म से जो भी हो आज आपकी विलंबित इच्छा पूर्ण हो सकती है।

बाप-बेटे तो हँस रहे थे और सावित्री खिसयाई-सी कुछ लजाती हुई तय नहीं कर पा रही थी कि मैदान में डटी रहे या हट जाए। सदा की तरह जया ने ही उन्हें बचाया। बेकार ही माँ के पीछे पड़ जाते हैं, वो कुछ गलत थोड़े ही बोल रही हैं। घर में कुत्ते की आवश्यकता है भी चारों तरफ गंदा करता फिरेगा और उसके पचासों काम और करने पड़ेंगे। अपने बच्चों को तो अच्छे से पाल लें। कुछ काम न धाम बैठे बिठाए मुसीबत सिर लो। आप अभी से रवि को समझा दीजिए इस घर में कुत्ता नहीं रख सकते। जया को इस नए बढ़े हुए काम की अपने सिर आने की फिक्र थी।
रूबल के भाग्य में तो इस घर में आना लिखा था तो भला वो और कहीं कैसे रहता?
एक दिन स्कूल से लौटते हुए रवि अपने दोनों हथेलियों के बीच एक भूरा पिल्ला दबोचे हुए आया।
मम्मी देखो, उसकी आवाज़ में ऐसी उत्तेजना भरी खुशी जया ने कभी महसूस नहीं की सो तुरन्त दौड़ते हुए देखने आई कि क्या बात है।

अब वो भूरे रंग का गदबदा-सा निरीह प्राणी रवि के बायीं बाँह से पेट के साथ सटा हुआ था। जया ने उसकी पीठ पर से बस्ता उतारा और इसी बीच उस प्राणी को अपने से अलग करना आवश्यक हो गया, तभी सावित्री भी वहाँ आई और उनका पैर उस पर पड़ गया। वो इस तरह बिदक कर कूदीं और वो नन्हा पिल्ला कांय-कांय करता कहीं दुबकने की कोशिश करने लगा।

शोर और हँसी का दौर थमा और स्थिति कुछ साफ हुई तो रवि दादी पर गुस्सा कर रहा था कि रूबल को मार ही डाला था। दादी आग बबूला हो रहीं थी कि वो कुत्ते का पिल्ला उसके पैर के नीचे क्यों आया। दादाजी और रेणु मज़े से तमाशा देख रहे थे। जया एक तरफ तो अपने लाड़ले के चेहरे की चमक को बुझने नहीं देना चाहती थी, दूसरी तरफ काम बढ़ जाने और अस्त-व्यस्त हो जाने की आशंका से परेशान हो रही थी। वो पिल्ला तो इस स्वागत से घबरा गया और उसकी सू.सू निकल गई।

तुमने नाहक बेचारे बच्चे को डरा दिया, देखो गीला कर दिया, दादाजी सावित्री को छेड़ रहे थे। सावित्री गुस्से के मारे तमतमा रही थी। उस पर उस पिल्ले को इस तरह बच्चा करना मानो घर के अन्य बच्चों की तरह हो उनके गुस्से को और भड़का गया।

जया भुनभुना रही थी। इसकी गंदगी कौन साफ करेगा, मुझसे तो नहीं होगा। अपने बच्चों का बहुत किया। कहते-कहते बेचारी साफ भी करती जा रही थी।

यश ने घर में घुसते ही वहाँ की परिस्थिति को भांप लिया। घर के सारे सदस्य क्या कर रहे हैं इस प्रश्न का उत्तर ठीक-ठीक भले ही नहीं दिया जा सकता हो पर सारे के सारे व्यस्त थे। एक नन्हे प्राणी ने उस घर में खलबली मचाई कि अनायास घर का नक्शा, लोगों का स्वभाव और न जाने क्या-क्या बदल गया। रवि प्रातः अपने आप जागने लगा क्योंकि रूबल को पॉटी कराने ले जाना होता। रेणु कुछ दिन तो झबरे पॉमेरियन के ना आने से निराश थी पर बाद में रूबल से ऐसी दोस्ती हुई कि ज़रा देर नज़र ना आए तो ढूंढने लगती।

रूबल को तो सावित्री से ही सबसे अधिक प्रेम था शायद वो दादी के कमरे में या कमरे के बाहर बिछे पांव-पोश पर गीला करता मानो वो इसी मकसद से वहाँ रखे हों। बेचारी दादी पाँव धोकर आतीं और उस पर पाँव रखते ही बिदकतीं। गुस्से में चिल्लातीं, लोग तो अच्छे-अच्छे शौक पालते हैं और एक हमारे राजकुमार हैं, जानवर पालना भी कोई शौक है। बच्चा तो बच्चा है, इन बड़ों की अक्ल को न जाने क्या हो गया है? सारे दिन सावित्री भन्नाई रहतीं। कभी वो दूध में मुँह न लगा दे, कभी किसी खाने की वस्तु को खराब न कर दे। इस तरह से उनके मन का चैन ही छिन गया था। न नहा कर वो चैन से पूजा कर पातीं न पहले की तरह कोई किताब पढ़ पातीं।

सावित्री की आदत थी कि पुस्तकें पढ़ते-पढ़ते सो जातीं और अक्सर ही हाथ की किताब ज़मीन पर नीचे गिर जाती। उनके इस तरह बैठे-बैठे कुर्सी पर सो जाने के लिए सब उनका मज़ाक उड़ाते या शरारत करते। रूबल के लिए तो सुनहरा अवसर था। किताब की चिन्दी-चिन्दी कर वो आनन्द मग्न उसके बीच खेलता। पहली मर्तबा ऐसा होने पर तो वो दो पल को भय से सहम गई और उनके रोंगटे खड़े हो गए। तीनों तरफ से उनकी कुर्सी किताबों के सफे से घिरी थी। चौथी तरफ कुर्सी दीवाल से टिकी थी। थोड़ी दूर पर रूबल खुशी से इनके बीच लिधड़ते दिखा तब कहीं बात समझ आई। जब सावित्री का भय दूर हुआ और साँस थमी तो गुस्से के अतिरेक में चीख पड़ी- चल हट नालायक, सारा सत्यनाश कर दिया। न जाने कहाँ से आ गया। अरे पिछले जनम की कोई दुश्मनी थी क्या? उन्हें आसपास वार करने लायक कुछ न मिला। अपने चश्मे के केस को ही उस पर तान कर मारा। रूबल तो उससे पहले ही तेज़ी से नीचे की ओर भाग गया। सावित्री को अपना वार खाली जाने का बहुत दुख हुआ। तभी जया कम्प्यूटर सेंटर से लौटकर आई। रूबल का सीढ़ियाँ उतर कर नीचे भागना और ऊपर का दृश्य देख अन्दाज़ तो लग गया कि मामला क्या हो सकता है, चाह कर भी जया अपनी हँसी रोक नहीं पाई। उसकी हँसी से सावित्री का गुस्सा बढ़ेगा इसकी पूरी.पूरी उम्मीद थी पर हालात ही ऐसे थे।

घर के सारे सदस्य रूबल के इतने आदी हो गये थे कि उसे घर का सदस्य ही मानने लगे थे। रवि और रेणु बड़े होते गए पर रूबल उन सबसे अधिक तेज़ी से बड़ा हुआ। केवल बड़ा ही नहीं, समझदार भी। खुद बाहर जाकर अपना काम निपटा कर आता। उसे बाँधकर भी नहीं रखना पड़ता था क्योंकि वो जानता था और समझता था कि किस आगंतुक को भगाना है और किसका स्वागत करना है। रवि, रेणु, यश और जया के घर आते ही जिस तरह इनके आसपास नाचता-फिरता उसे देख कोई भी उसे लाड़ करने लगे। जब ये लोग घर पर नहीं होते तो दादाजी की आराम कुर्सी के पास खड़े या बैठे हुए ऐसा दिखता मानो सुरक्षाकर्मी हो। था भी कद्दावर ऊँचा-पूरा असली अल्सेशियन उसके पैने दाँत देखकर तो लोगों को घबराहट होने लगती थी। सावित्री को अपने पति को चिढ़ाने का एक अवसर कम से कम मिल गया। वो कहती- लगता है कोई फिल्मी डॉन अपने पालतू शेर के साथ बैठा हो, चेले-चपाटे एक-एक कर आएँगे, अपने कारनामे बताएँगे। जिसने आपका काम पूरा न किया उस पर हमला करने का हुक्म शेर को दिया जाएगा।

चिढ़ा लो चिढ़ा लो। तुम क्या जानो बुढ़ापे में इससे कितनी राहत मिल रही है। रूबल न हो तो कोई हम दोनों को मारकर घर लूट लेगा। कहते-कहते दादाजी रूबल की पीठ गर्व से थपथपाते। रूबल के हाव.भाव से कोई अनजान व्यक्ति भी बता सकता था कि वो दादाजी के अन्तर्मन को बहुत अच्छे से जानता है।

सवित्री भी परिस्थितियों को समझती थी और रूबल के महत्व को भी स्वीकारती थी। एक बार इसी रूबल नाम को रूस की मुद्रा रूबल से समानता कर हँसी उड़ाना भी उसे याद है। इस रूबल की कीमत तो हर नए सूर्योदय के साथ बढ़ती ही गई। मन से तो सावित्री भी उसे बहुत मानती थी बस स्पर्श करने से कतराती थी। रूबल भी तो उनके मन की बात को समझता है और मानता है कि स्नेह में स्पर्श ही सब कुछ नहीं है। तभी तो वो सावित्री से तनिक दूर-दूर रहता पर उसकी सेवा में एकदम तत्पर।

रवि के घर छोड़कर होस्टल जाने पर रेणु के विवाह के बाद विदा कर वो जिस तरह उदासी ओढ़े रहा उससे सावित्री का भरा मन छलक पड़ा। अपने पति की मृत्यु पर उनकी निस्पंद देह के पास रात भर बैठा जिस तरह आंसू बहाता रहा उससे तो सावित्री को अपने आप पर लज्जा आई। उसे अपने उत्तम या अच्छी पत्नी होने पर शंका हो सकती है पर रूबल के स्वामी-भक्त विश्वासी आत्मा होने पर नहीं। रूबल को घर के सदस्य कुत्ता मानते भी नहीं थे ओर उस तरह सम्बोधन भी नहीं करते थे। वो उन सबकी तरह घर का एक सदस्य माना जाता था और उसी तरह रहता था। अगले दिन जब दादाजी के शव को शमशान ले जाने लगे तो सिर झुकाए रूबल भी यश के साथ-साथ था। यश का मन भर आया। लगा पिछले जनम का भाई हो।

जब यश ने रोती हुई सावित्री को दिलासा देने को अपने कंधे से थामा तो रूबल खड़ा देख रहा था। पहली बार सावित्री रूबल को सहलाने या हाथ लगाने की पहल कर रही थी, वो भी अनायास। पर ये क्या रूबल पीछे हट गया उनके स्पर्श की परिधि से परे और सदा की तरह दूर से दिलासा देता रहा।

जया और यश अपने केन्द्र के कार्य में गले-गले तक डूबे हुए थे, रवि अपनी पढ़ाई ओर रेणु ससुराल में। सावित्री अपने पति की मृत्यु के बाद एकदम अकेली हो गई थी। तब उन्हें रूबल की उपस्थिति कितनी पुरसुकून लगी ये तो बता नहीं सकती। वास्तव में बताने से अधिक महसूस करने का जज़्बा था वो। अब सावित्री रूबल को अपने पास अपने साथ बिठाकर सहलाना चाहती थी अपनापन जताना चाहती थी पर रूबल उनकी पहुँच से दूर-दूर रहने का अभ्यस्त हो चुका था।

अब तक गठिया ने हाथ-पैरों के जोड़ों को ऐसा जकड़ दिया था कि वो चाहकर भी एकदम उठ-बैठ नहीं पातीं। एक बार स्टूल पर रखी पानी की बोतल निकालने को वो पलंग से हाथ लम्बे कर पहुँचने की कोशिश करती रहीं। तब तक रूबल ने स्टूल धीरे-धीरे इस तरह खिसकाया कि बोतल गिरे भी ना और हाथ भी पहुँच जाए। उसकी बुद्धि, उसकी इन्सानियत को देख उसने अपने से चिपटाने का मन किया। पर रूबल छिटक कर दूर हो गया। सावित्री रोने-रोने को हो गई। क्या रूबल उन्हें कभी स्पर्श नहीं करने देगा, उस दुखी अवस्था में भी उन्हें कहीं पढ़ा या सुना वाक्य याद आया और एक उदास हँसी चेहरे पर फैल गई। मेरे जीते जी तुम कभी मुझे छू नहीं सकते।

दिमाग में खटका-सा हुआ। रवि ने क्या कहा था इस नस्ल के कुत्तों की आयु कितनी होती है उस समय रवि उत्साह में उसकी आदतों के बारे में और न जाने क्या-क्या बताया करता था। तब तो वो रूबल या किसी भी कुत्ते के बारे में कुछ नहीं सुनना चाहती थी अब जब अकेलापन उनको काटने दौड़ता है तो स्वार्थ उन्हें रूबल के करीब ला रहा है। नहीं, नहीं, इतनी भी मतलबी नहीं, वास्तव में रूबल को मन से तो कब से मानती थी उससे स्नेह भी करती थीं। ये आवश्यक थोड़े ही है कि स्पर्श से लाड़-प्यार और स्नेह का इज़हार किया जाए। रूबल स्वयं भी तो दूर ही दूर से उनको जिस तरह देखता है, उनकी जिस तरह परवाह करता है क्या वो इस बात की पुष्टि नहीं करता कि रूबल भी सावित्री के प्रति स्नेह और आदर से परिपूर्ण है।सावित्री के मन में उक्त तर्क चलते रहते मानो उसके अपराध बोध को कम करते हों।

सावित्री को लगने लगा था कि घर में दो ही इन्सान हैं रूबल और वो खुद। बाकी सारे तो मशीन हैं मशीन। इसलिए रूबल की असली जात और उस जात की पहचान और गुण आदि भुला बैठे हैं। मन.ही.मन ईश्वर से प्रार्थना की कि उन्हें रूबल से पहले उठा लें रूबल का बिछोह वो सहन नहीं कर पाएंगी। कुछ देर बाद दूसरा ख्याल उनके ज़ेहन में टकराया कि अगर रूबल की मौत उनसे पहले होती है तो कम से कम उसके बेजान शरीर का ही सही स्पर्श कर पाएंगी। अपने आप को लताड़ने लगीं कि उटपटांग विचार उनके मन में उठ ही क्यों रहे हैं पर विचारों को भला आज तक कोई रोक सका है या खत्म कर सका है। वो भी बाढ़ की तरह आते और तूफान की तरह जाते हैं।

अनायास सावित्री को एक चुहल सूझी। दो.चार मिनट कुछ सोच-विचार कर आखिर उन्होंने अपने चुहल भरी सोच को अंजाम दे ही दिया। पलंग से वो इस तरह लुढ़ककर ज़मीन पर गिरी मानो बहुत तकलीफ में हों। गिर कर उठ नहीं पा रही थीं दर्द से कराह रही थीं और फक् से आती हँसी को रोकने का भरसक प्रयास कर रही थी। कुछ पल तो रूबल खड़ा.खड़ा उन्हें देखता रहा और पलट कर कहीं गायब हो गया। सावित्री कुछ असमंजस, कुछ निराशाभरी उदासी में पड़ी-पड़ी अपनी आगे की चाल को सोचने लगी। तभी रूबल आता दिखा मुँह में दादाजी की तराशी हुई वज़नदार आबनूसी लकड़ी की छड़ी दबाए हुए। छड़ी को सावित्री के एकदम करीब रखकर तनिक दूर जा खड़ा हुआ। उसी तरह मुस्तैद सजग प्रहरी की भांति।

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