सूरज के रथ का दाहिना घोड़ा : कोंकणी/गोवा की लोक-कथा
Sooraj Ke Rath Ka Dahina Ghoda : Lok-Katha (Goa/Konkani)
एक था राजा, एक थी रानी। उनके पास सिपाही, घोड़े, दास-दासियाँ, धन दौलत—सबकुछ था, सिर्फ उन्हें संतान नहीं थी। इसी कारण राजा-रानी बहुत ही दुःखी रहते थे। संतान-प्राप्ति के लिए उन्होंने हर तरह का दान-धर्म, धार्मिक अनुष्ठान, जप-मंत्र, व्रत, पूजा-पाठ किए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अब राजा-रानी दोनों ही बुढ़ापे की ओर बढ़ते गए।
बुढ़ापे की ओर बढ़ते गए तो होता है क्या है कि दोनों गहन सोच में पड़ गए। ‘अब हमारे इतने बड़े राज्य का क्या होगा? कौन बनेगा इस राज्य का वारिस? कौन लेगा प्रजा की जिम्मेदारी?’ राजा-रानी दिन-रात इसी चिंता में घुलने लगे। उन्हें खाने–पीने की भी सुध नहीं रहती।
तो एक सुबह होता है क्या है कि राजा के दरबार में एक साधु आता है, तो दासी रानी को इत्तिला करती है। तब वह दासी से कहती है, “यह मेरा अंतिम दान-धर्म है। इसके बाद मैं अपने हाथों से कोई दान-धर्म नहीं करूँगी।”
रानी चावल भरा छाज हाथ में लेकर बाहर आती है और साधु की झोली में भिक्षा डालने आगे बढ़ती है। तो उसके चेहरे पर छाईं उद्विग्नता साधु की दृष्टि में आती है। वह उससे पूछता है—
“रानी साहिबा, क्या हुआ है? आप क्यों इतनी उदास हैं?”
तब रानी साधु को सारी हकीकत बताती है और सिसकने लगती है। उसपर वह साधु कुछ पल गंभीर हो जाता है और कहता है—“चिंता मत करना, रानी साहिबा, आपकी संतान की इच्छा पूरी हो जाएगी। आपकी कोख से एक पुत्र जन्म लेगा। मात्र वह चौदह साल तक ही आप लोगों को मिलेगा, उसके आगे वह इस मृत्युलोक में नहीं रह पाएगा। इससे बढ़कर आपको कुछ देना मेरे लिए संभव नहीं है।”
अपनी बात पूरी करते उसने अपनी झोली में हाथ डाला, थोड़ी सी भभूत निकालकर रानी को दी और कहा, “आप और
महाराज दोनों इसे बाँटकर ग्रहण करना, तुम्हें जल्द ही पुत्र-प्राप्ति होगी।”
इतना कहकर साधु अपनी राह चला गया।
उसके जाने के बाद रानी सोचने लगी, ‘चौदह साल तो चौदह साल ही सही, उतने समय के लिए हमें पुत्र मिलेगा, यही काफी है। उतने साल तक मैं उसे जी-जान से बड़ा करूँगी, उसे ढेर सारा लाड़-दुलार दूँगी, अपनी संतान की मुराद पूरी करूँगी।’
उस रात अपना सारा राज-काज खत्म करके राजा जब रानी के महल में गए, तो रानी ने क्या किया कि राजा को सारी बात बताई और साधु की दी भभूत राजा को दिखाकर बोली, “साधु महाराज ने यह भभूत हम दोनों को ग्रहण करने को कहा है।”
राजा बोले, “इतना दान-धर्म किया, जप–तप किया, कोई फल नहीं मिला। अब इस भभूत से हमें संतान प्राप्ति होगी क्या?”
उसपर रानी बोली, “जब इतना सबकुछ किया तो अब यह भी सही! खामख्वाह उस साधु के क्रोध को क्यों बुलावा दें?”
राजा को अब किसी पर विश्वास नहीं था, लेकिन पत्नी को दुःख न पहुँचे, इसलिए वह राजी हो गया। राजा राजी हो गया तो फिर क्या होता है कि राजा-रानी दोनों नहाते-धोते हैं। फिर अपने भगवान् का नाम स्मरण करते हैं, अपने पुरखों को स्मरण करते हैं और उस साधु महाराज का नाम स्मरण करके वह भभूत बाँटकर दोनों खाते हैं। उसके बाद दोनों निश्चिंत होकर सो जाते हैं।
तो कुछ दिन गुजर जाते हैं और साधु द्वारा कहे अनुसार रानी गर्भवती हो जाती है। उसपर राजा-रानी दोनों की खुशी गगन में नहीं समाती। राजा रानी से बोला, “महारानी, सचमुच साधु महाराज की कृपा हो गई।”
तो नौ माह, नौ दिन और नौ घंटे पूरे होकर रानी ने एक सुंदर, गोरे-चिट्टे पुत्र को जन्म दिया। राजा ने बड़ी धूमधाम से पुत्र का नामकरण किया, सारे राज्य में आठ दिन तक अन्नसंतर्पण रखा, उत्सव मनाया गया। अब पुत्र की कुंडली देखने के लिए राज्य के सबसे विद्वान् पंडितजी को बुलाया। तो कुंडली देखकर पंडितजी बड़े चिंतित हो गए। कहने लगे, “महाराज, हमारा राजपुत्र सिर्फ चौदह साल तक हमारे पास रहेगा।”
राजा को इस बात की भनक थी ही। रानी को भी साधु महाराज की बात याद थी। दोनों चुप रह जाते हैं। उसके बाद राजा और रानी बड़े लाड़-प्यार से बेटे की परवरिश करते हैं। उसकी हर ख्वाहिश पूरी करते हैं। थोड़े समय के लिए ही सही, भगवान् ने संतान की अपनी मुराद पूरी कर दी, इससे वे समाधान मानते हैं।
राजपुत्र दिन-प्रतिदिन बड़ा होता है। जब वह सात साल का हो जाता है तो राजा एक अच्छे गुरु की नियुक्ति करके उसे पढ़ाई-लिखाई, राजशास्त्र, शस्त्रविद्या, घुड़सवारी इत्यादि बारह विद्याओं का शिक्षण देते हैं। जब वह सब शास्त्र–विद्या में पारंगत हो जाता है और बारह साल की उम्र का हो जाता है, तब एक अच्छी सी राजकन्या खोजकर उसकी शादी कर देते हैं।
तो दो और साल बीत जाते हैं। बेटा चौदह साल का हो जाता है। एक दिन राजपुत्र राजा से बोलता है, “पिताजी, मैं अपना सारा राज्य घूमकर देखना चाहता हूँ। आज तक मैंने सिर्फ इस राजवाड़े के अतिरिक्त कुछ नहीं देखा है।”
बेटे की बात सुनकर राजा चिंतित हो जाता है, क्योंकि पुत्र को चौदहवाँ साल शुरू हुआ था, अब कोई अनहोनी होने का वक्त नजदीक आ पहुँचा था। लेकिन राजा ये सब बातें पुत्र को बता नहीं सकता था। वह क्या करता है कि चेहरे पर खुशी लाकर बेटे से कहता है, “हाँ-हाँ, जरूर जाओ बेटा, तुम्हें अपना सारा राज्य घूमकर देखना चाहिए। कहाँ क्या है, यह सब जानना चाहिए। कल मेरे बाद तुम्हीं को तो राजा बनना है। मात्र एक बात का ध्यान रखें, तुम जहाँ जा रहे हो, क्या कर रहे हो, यह बात अपनी पत्नी को नहीं बताना।”
पुत्र कहता है, “ठीक है पिताजी, आपने जो कहा है, मैं वैसा ही करूँगा।”
तो होता क्या है कि राजपुत्र दिनभर अपनी पत्नी के साथ मौजमस्ती करता है, खुशियाँ मनाता है और रात को ठीक बारह बजे बिस्तर से उठकर बाहर चला जाता है। फिर पौ फटने से पहले वापस अपने महल में आकर सो जाता है।
ऐसे बहुत दिनों तक चलता रहा। अब पुत्र का चौदहवाँ साल खत्म होने में कुछ दिन ही बाकी रहते हैं। इतने में क्या होता है कि उसकी पत्नी, यानी छोटी रानी रात में जाग जाती है। वह देखती है कि बिस्तर पर राजपुत्र नहीं है! वह महल में सब जगह देखती है तो राजपुत्र कहीं भी नजर नहीं आता। तो वह क्या करेगी? किससे कहेगी? वह चुपचाप रहती है। फिर भोर होने पर वह देखती है कि उसका पति अपनी जगह सोया हुआ है।
वह पति से कुछ नहीं पूछती। लेकिन दूसरी रात भी वैसे ही होता है। तीसरी रात...चौथी रात...ऐसे बहुत दिन तक चलता है। रानी बहुत ही चिंतित हो जाती है। पति रात को जाता कहाँ है? किससे मिलने जाता है? उसको मन में ढेर सारे सवाल उठते हैं, लेकिन उसे पूछने में उसे डर लगता है, शायद पति गुस्सा कर बैठे! सास-ससुर से पूछने के बारे में सोचा, तो उसकी कुल-मर्यादा बीच में आ जाती थी।
तो इस तरह मन-ही-मन वह कुढ़ती रहती थी। इस हालत में उसे खाने-पीने में दिलचस्पी नहीं होती, वह दुबली-पतली हो जाती है।
तो उस राज्य में फूल बेचनेवाली एक बूढ़ी मालिन थी। वह हमेशा छोटी रानी को फूल देने उसके महल में आती थी। उस बुढ़िया का ध्यान छोटी रानी पर जाता है, वह उससे पूछती है—“बेटी, तुम्हें किस बात का दुःख है? तुम इस तरह सूखकर काँटा क्यों बनी हो?”
उसपर रानी कहती है, “क्या बताऊँ तुम्हें अम्मा, तुम्हारा राजपुत्र हर रात बिस्तर पर से उठकर कहीं चला जाता है और सुबह भोर होते ही वापस आकर सोता है। वह कहाँ जाता है? प्रेमिका से मिलने जाता है क्या? यह सोच-सोचकर मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं कर पाती और सूख-सूखकर इस तरह काँटा बन गई हूँ।”
बुढ़िया सब बात सुनकर उसे एक उपाय बताती है, “तो बेटी ऐसा करना, आज रात तुम सोना मत। उसके पीछे जाकर देखना कि वह कहाँ जाता है? क्या करता है? उसकी अच्छी तरह से पहरेदारी करना!”
“पर मुझे नींद आ गई तो?”
“तुम्हें नींद न आए, इसलिए एक काम करना, अपने बाएँ हाथ की उँगली में एक जख्म करना, उसपर थोड़ी सी मिर्च छिड़कना। उससे तुम्हें बड़ी जलन होगी और उस पीड़ा से तुम्हें रातभर नींद नहीं आएगी।”
रानी बुढ़िया के कहे अनुसार करती है। उँगली की जलन से उसे बड़ी देर तक नींद नहीं आती, लेकिन बाद में वह सो जाती है। दूसरे दिन सुबह बुढ़िया फूल लेकर उसके महल में पहुँचती है और पूछती है, “क्या हुआ बेटी, देख पाई क्या, पति कहाँ जाता है?”
रानी कहती है, “नहीं अम्मा, पहले कुछ समय जलन के कारण मुझे नींद नहीं आई, पर कुछ देर पश्चात् मैं सो गई।”
बुढ़िया कहती है, “कोई बात नहीं, आज तुम उँगली पर पहले से थोड़ा बड़ा जख्म करना और ज्यादा मिर्च लगाना।”
तो रानी वैसे ही करती है। परंतु वह सिर्फ पति के बिस्तर से उठकर बाहर निकलते वक्त तक जाग पाई। वह उसके पीछे नहीं जा सकी, क्योंकि उसकी आँखें उस समय तक मुँद गई थीं।
दूसरे दिन सुबह बुढ़िया आती है तो उसने पूछने से पहले ही रानी रोकर कहती है, “अम्मा, मैं आज भी उनकी पहेरदारी ठीक तरह नहीं कर पाई।”
बुढ़िया कहती है, “रोना नहीं बेटी, सबकुछ ठीक हो जाएगा। तुम आज रात जख्म और बड़ा करना, और उसपर ज्यादा मिर्च छिड़कना।...और एक काम करना बेटी, वह जब जाने के लिए निकलता है तो उसका रास्ता रोकना।”
बुढ़िया ने जैसा बताया, रानी वैसा ही करती है। आज रात उसे नींद नहीं आती। पति रात बारह बजे बिस्तर से उठकर जब महल से निकलने के लिए चलने लगता है तो वह बुढ़िया ने जैसे बताया, वैसे ही करती है। दौड़कर जाकर पति का रास्ता रोकती है और कहती है, “कहाँ जा रहे हो?...किससे मिलने जा रहे हो? मुझे बताओ।”
राजपुत्र उसे समझाने की बहुत कोशिश करता है—“देखो, अगर मैंने तुम्हें वह बताया तो मैं तुम्हें दुबारा नहीं मिल पाऊँगा।”
“कोई बात नहीं, न मिल पाओ, लेकिन आप रात के समय कहाँ जाते हो, यह मुझे पहले बता दीजिए।”
राजपुत्र निरुपाय हो जाता है। पत्नी की जिद् के आगे उसकी एक नहीं चल पाती। ठीक उसी समय उसका चौदहवाँ साल
खत्म होकर पंद्रहवाँ साल लगनेवाला था। जो होता है, वह हो जाने दो, वह सोचता है और कुछ चावल मंत्रों से सिद्ध करके पत्नी को देकर कहता है—
“इन चावलों के दानों को दोनों हाथों की मुट्ठी में पकड़ना। पहले दाएँ हाथ में पकड़े चावल मेरे ऊपर फेंकना, मैं कौन हूँ, तुम्हें पता चल जाएगा। बाद में बाएँ हाथ में पकड़े चावल मेरे ऊपर फेंकना, मैं जैसा था, तुम्हें मिल जाऊँगा। लेकिन यदि तुम बाएँ हाथ के चावल मेरे ऊपर फेंकना भूल गईं, तो मैं तुम्हें कभी नहीं मिल पाऊँगा।”
“नहीं भूलूँगी।”
रानी बड़े आत्मविश्वास के साथ कहकर दाएँ हाथ में पकड़े चावल पति के ऊपर फेंक देती है। तो राजपुत्र एकदम एक विशाल घोड़ा बन जाता है। एकदम उम्दा, सफेद, गरदन पर लंबी अयाल। देखते-देखते वह तेजी से दौड़ने लगता है। रानी उस घोड़े को एकदम भौचक्की होकर देखने लगती है और पति ने बाएँ हाथ के चावल फेंकने की जो बात कही थी, वह भूल जाती है। उसकी आँखों के सामने घोड़ा महल से बाहर निकलकर चला जाता है।
घोड़ा जो महल से बाहर जाता है, तो वापस नहीं आता। अब रानी को बड़ा पश्चात्ताप होता है। वह स्वयं को कोसने लगती है। लेकिन अब उसका कोई फायदा नहीं होनेवाला था। राजपुत्र अब वापस नहीं आनेवाला था।
सुबह होते ही महाराजा-महारानी को सब बात पता चलती है। उन्हें बहुत दुःख होता है। वे बिस्तर पकड़ते हैं और राह देखते हैं कि एक दिन उनका बेटा वापस आ जाए!
इस तरह एक महीना गुजरता है, दो महीने गुजरते हैं, तीन महीने गुजरते हैं...आखिर छह महीने पूरे होते हैं, राजपुत्र का कोई अता-पता नहीं लगता। प्रधान राजपुत्र को ढूँढ़ने के लिए राज्य के गाँव-गाँव सिपाही भेजता है, लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिलती।
इधर रानी अपनी हठ के कारण पति गायब हो गया, यह सोचकर स्वयं को मन-ही-मन कोसती है और प्रण लेती है कि कुछ भी करके पति को ढूँढ़ लाएगी और उसे वापस घर लेकर आएगी।
एक दिन वह सुबह उठकर सास-ससुर के महल में जाती है और कहती है कि मैं अपने पति की खोज में जा रही हूँ।
महाराजा-महारानी को और क्या चाहिए था?...कुछ भी करके उनका बेटा उन्हें वापस मिलना चाहिए था। वे बहू को जाने की अनुमति देकर कहने लगे, “बेटी, तुम्हें जो चाहे वह करो, जहाँ जाना है, वहाँ जाओ..., लेकिन हमारे बेटे को वापस लेकर आओ। भगवान् तुम्हें कामयाबी दें।”
अब रानी क्या करती है कि अपना शाही वेश बदलकर एक सेठानी बन जाती है। कुछ दास-दासियों को, कुछ नौकरों को साथ में लिया, कुछ सामान साथ लिया और राज्य की सीमा पर जाकर वहाँ एक भोजनालय खोल दिया। वहाँ आनेवाले सब यात्रियों को खाना मुफ्त में देने लगी, मात्र एक शर्त रखी कि खानेवाले को उसकी देखी कोई अजीब चीज उसकी मालकिन को, यानी राजकन्या को बतानी पड़ेगी। तो वहाँ आनेवाला हर नागरिक अपनी तरफ से ‘मैंने यह देखा’, ‘मैंने वह देखा’ कहकर वहाँ से मुफ्त खाना खाकर जाता था। परंतु रानी को जो बात चाहिए थी, वह अब तक मिली नहीं थी।
ऐसे ही कुछ दिन बीत गए। तो इधर क्या होता है कि रानी के महल फूल लेकर जानेवाली बुढ़िया के एक बेटा और बहू थे। उनका एक छोटा बेटा था। यानी बुढ़िया का एक पोता था। तो बेटा और बहू सुबह काम के लिए निकलते थे तो पोते को सँभालने की जिम्मेदारी बुढ़िया पर रहती थी। बुढ़िया दिनभर पोते को सँभालती थी। एक दिन होता है क्या है कि बुढ़िया को पान खाने की आदत थी। तो पान लगाने के लिए चूना चाहिए था। वह उसे तैयार करने के लिए सीपियाँ लेकर आई। इन सीपियों भूनने के लिए गोबर के कंडे चाहिए थे। कंडे इकट्ठा करने के लिए वह बाँस की टोकरी लेकर चरवाहे के मैदान में गई। वहाँ बहुत सारे कंडे थे। उन्हें जमा करते-करते उसे घर आने में अँधेरा हो गया।
इस ओर शाम होते ही काम से वापस बेटा-बहू घर पहुँचे तो देखा कि बच्चा घर पर अकेला है और रो रहा है। वे दोनों गुस्से से लाल-पीले हो गए। इतने में बुढ़िया घर आ पहुँची। बेटा ने पूछा, “पोते को घर अकेला छोड़कर कहाँ गई थी?”
बुढ़िया बताने लगी कि मैं गोबर के कंडे इकट्ठे करने गई थी। इस पर बेटा बोला, “दुबारा बच्चे को अकेला घर पर छोड़कर यदि कहीं गई तो मैं तुम्हें बहुत पीटूँगा।”
बुढ़िया कहने लगी, “नहीं बेटा, फिर कभी ऐसा नहीं करूँगी।” लेकिन दूसरे ही दिन बुढ़िया वह बात भूल गई और फिर चरवाहे के मैदान पर कंडे इकट्ठा करने चली गई। शाम को जब बेटा-बहू काम से वापस लौटे, तो देखते हैं कि बच्चा घर पर अकेला है और रो रहा है। अब उसके बेटे की सहनशक्ति खत्म होने लगी और बुढ़िया के वापस आने पर उसे घर से निकाल दिया।
बुढ़िया रातभर घर के बाहर अँधेरे में बैठी रही और सुबह होते ही हाथ में टोकरी लेकर कंडे इकट्ठा करने के लिए निकल गई। उस दिन उसपर कंडे इकट्ठा करने का मानो पागलपन संवार था। कंडे इकट्ठा करते-करते कब अँधेरा छा गया, उसे मालूम ही नहीं चला। उसे जब ध्यान आया तो गाँव का रास्ता भी ठीक तरह से दिखाई नहीं दे रहा था। वह अँधेरे में आँखें फाड़कर देखती-देखती किसी तरह आगे निकल पड़ी। तो होता क्या है कि एक कपिला गाय छन-छन की आवाज करते, गले की घंटी बजाते ठुमककर उस मैदान पर आ गई। उसे देखकर बुढ़िया सोचने लगी कि इस गाय के पीछे-पीछे जाऊँगी तो गाँव तक पहुँच जाऊँगी। तब बुढ़िया उसके पीछे-पीछे जाने लगी।
वह गाय क्या करती है कि उस मैदान से लेकर एक-एक करके छह मैदान पार करती है। आखिर में वह सातवें मैदान पर पहुँचती है। तो वहाँ क्या होता है कि उस मैदान पर एक बड़ा सा पत्थर है। गाय जाकर उस पत्थर को अपना सींग मारती है। सींग मारा तो वह पत्थर दूर हट गया और पाताल में नीचे जाने की सीढ़ियाँ दिखाई देने लगी। तब वह गाय उन सीढ़ियों से नीचे जाने लगी। बुढ़िया वह सब देखती रही और झट जाकर गाय की पूँछ को पकड़ लिया। पूँछ पकड़कर वह गाय के साथ नीचे पाताल में पहुँच गए। पाताल में पहुँचते ही तुरंत गाय की पूछ छोड़ दी और इधर-उधर देखने लगी।
वहीं से बुढ़िया ने देखा कि पाताल में सब जगह जगमगाहट है। दीया-दीप जलते हैं और तेज रोशनी गाय के ऊपर पड़ती है और वहाँ अद्भुत घटनाएँ घटने लगीं।
...गाय के नीचे जाते ही उसके गले में अपने आप साँकल पड़ गई और छमछम करके कोई दुधांड़ी में गाय का दूध दुहाने लगी। लेकिन जो भी कोई वह कर रहा है, वह मात्र दिखाई नहीं दे रहा। बुढ़िया बहुत घबरा गई। कहाँ आकर फँस गई? वह सोचने लगी और यहाँ-वहाँ छिपने के लिए जगह ढूँढ़ने लगी। लेकिन उसे कहीं भी जगह नहीं मिली। हर जगह उजाला-ही-उजाला था। तो वह यों एक कोनों में खड़ी रह गई है और जो कुछ सामने हो रहा था, उसे चुपचाप देखने लगी।
कुछ पल के बाद वहाँ झट से एक उम्दा सफेद घोड़ा आया। वहाँ दो कुंड थे, उसमें से एक कुंड में उस घोड़े ने छलाँग लगाई और ऊपर आ गया। अब उसे राजपुत्र का रूप प्राप्त हो गया। राजपुत्र बनने के बाद उसने दूसरे कुंड के पानी में स्नान किया। वहाँ रखे नए कपड़े पहने है। नजदीक ही एक सुंदर पलंग था, उसपर आकर वह बैठ गया। उसके सामने अपने आप पंच पकवानों की थाली आ गई, दूध की एक प्याली आ गई, पान-सुपारी आ गए। उसके सामने एक दीया जलता रहा।
राजपुत्र ने खाना खाया, दूध पीया, पान-सुपारी खाया और बिस्तर पर लेट जाने से पहले सूर्यदेव का स्मरण करके सामने जलते दीये से पूछा—
“दीये-दीये दीपंकर, मेरे माता-पिता क्या कर रहे हैं?”
दीया बताने लगा—
“बेटे के शोक में डूबे हैं।”
“राज्य कौन सँभाल रहा है?”
“राज्य प्रधान सँभालता है।
“मेरी पत्नी क्या करती है?”
“उसने चौराहे पर भोजनालय शुरू किया है और आते-जाते लोगों से वह नई खबर के बारे में पूछती है।”
दीये के यह कहते ही राजपुत्र कहते लगा—“ठीक है।” उसके बाद वह सो गया।
बुढ़िया कोने में खड़ी रहकर यह सब देखती रही। ऐसी अद्भुत घटना उसने जिंदगी में पहली बार देखी थी। उसे अंदर-ही-अंदर चुलबुलाहट होने लगी। वह अपनी भूख-प्यास भूल गई और आगे क्या होता है कि उसे उत्सुकता से देखने लगती है।
लेकिन उसके बाद और कुछ घटनाएँ नहीं घटतीं। रात गुजर गई और सुबह हो गई। सुबह होने पर पलंग पर सोया राजपुत्र उठा और फिर से पहले वाले कुंड में छलाँग लगाई, तो अब वह फिर से घोड़ा बनकर कुंड से बाहर आ गया। बाहर आते ही वह तेजी से उस पाताल नगरी से बाहर निकल गया। लेकिन वह कहाँ गया, बुढ़िया को कुछ पता नहीं चला।
उसके बाद पिछली रात की तरह कोई उस गाय का छमछम करके दूध दोहने लगा। जैसे ही दूध दुहाना खत्म हुआ, उसके गले की साँकल अपने आप खुल गई और वह गाय तेजी से ऊपर जानेवाली सीढ़ियाँ की ओर भागने लगी।
गाय को दौड़ते देखकर बुढ़िया सोचने लगी, ‘अब गाय के साथ यहाँ से ऊपर जाना ही समझदारी है, नहीं तो कोई मुसीबत आकर मेरे ऊपर टपक जाएगी।’ झट से उसने गाय की पूँछ पकड़ ली और गाय के साथ ऊपर आ गई। गाय जब ऊपर मैदान में पहुँची तो उस सुरंग का रास्ता अपने आप बंद हो गया और उसके मुँह पर एक बड़ा सा पत्थर पूर्ववत् खड़ा हो गया।
ऊपर आकर वह गाय जंगल की ओर निकल गई, तो इधर बुढ़िया एकदम बावली सी गई। उसने पाताल नगरी में जो कुछ देखा, वह जल्द-से-जल्द किसी को बताने के लिए उतावली हो उठी। उसे एकदम याद आया है कि नगर की सीमा पर कोई औरत भौजनालय चलाती है और नई बात बतानेवाले को अच्छा खाना-पीना मुफ्त में देती है।
वह सोचने लगी कि क्यों न मैं यह बात उस औरत को जाकर बताऊँ? यदि उसे यह बात पसंद आ गई तो बाकी जीवन खाने-पीने की झंझट से मुक्ति मिलेगी!
बुढ़िया ने मन में तय किया और तुरंत उस भोजनालय के द्वार पर टँगे नगाड़े के सामने खड़ी हो गई और जोर-जोर से नगाड़ा बजाना शुरू दिया। नगाड़े का इस तरह शोर सुनकर मालकिन, यानी छोटी रानी मन में प्रसन्न हो जाती है कि शायद कोई बड़ी बात लेकर यहाँ आया है!
रानी सिपाहियों को आदेश देती है—
“जाइए और जो कोई आया है, उसकी अच्छी खातिरदारी कीजिए!”
आदेश पाते ही सिपाही नीचे दौड़गए, तो एक बुढ़िया नगाड़ा बजा रही है।
उन्होंने पूछा, “क्यों री बुढ़िया, क्या हुआ, क्यों नगाड़ा बजा रही हो?”
बुढ़िया बोली, “कुछ नहीं बेटा, यहाँ खाना मिलता है न, इसलिए आई हूँ।”
“खाना चाहिए, मिलेगा...लेकिन तुझे कोई नई बात बतानी पड़ेगी।”
“हाँ, बताऊँगी! एक बात मालूम है मुझे।”
इसपर सिपाही उसे अंदर लेकर आए। उनको मालकिन का आदेश था कि जो कोई बूढ़ा-बुजुर्ग वहाँ आए, उनके साथ अच्छी तरह पेश आना, उनका अच्छा आदर-आतिथ्य करना।
तो सिपाही ने इस बुढ़िया का भरपूर आदर-आतिथ्य किया। उसे बड़ी सी थाली भरकर व्यंजन परोसते हैं। बुढ़िया कुछ दिनों से भूखी थी, वह खाने पर टूट पड़ी। खाना खाने के बाद सिपाही ने उसे नई साड़ी पहनने को दी। उसके बाद उसे लेकर रानी के पास आए। बुढ़िया और रानी ने तुरंत एक-दूसरे को पहचान लिया। बुढ़िया बोली, “बेटी तुम...?”
और रानी बोली, “अम्मा तुम?”
बड़ी देर तक दोनों भाँति-भाँति की बातें करती रहीं, आखिर कुँवरनी बुढ़िया से कहने लगी, “अम्मा, अब बताओ, तुमने क्या नई बात देखी है?”
“नई बात, मैंने कोई नई बात देखी नहीं है!...वह तो मेरे पास तुम्हें देने के लिए खाने के पैसे नहीं थे, इसलिए मैंने झूठ कहा और नगाड़ा बजाया!”
रानी ने कहा, “अम्मा, घबराना नहीं, मैं किसी को तुम्हारा नाम नहीं बताऊँगी।”
फिर भी बुढ़िया “मैंने क्या देखा...कब देखा...” करके आना-कानी करने लगी। इसपर कुँवरनी ने उससे कहा, “देखो अम्मा, यदि तुमने मुझे वह नई बात बताई तो जिंदगी भर मैं तुम्हारी देखभाल करूँगी। तुम्हें रानी माता की तरह रखूँगी।”
अब बुढ़िया बताने को तैयार हो गई। उसने जो कुछ उस चारागाहवाले मैदान पर देखा था, वह सबकुछ कुँवरनी को बता दिया।
बुढ़िया की वे बातें सुनकर कुँवरनी को यकीन हो गया है कि वह राजपुत्र उसी का पति है। वह तुरंत बुढ़िया से कहने लगी, “अम्मा, मुझे उस जगह पर ले चलो।”
“नहीं बेटी, वह पाताल राज्य है, साँप हैं। यदि किसी ने तुम्हें देख लिया तो तुम्हारी जान खतरे में पड़ सकती है।”
लेकिन रानी उसकी एक भी नहीं सुनती, उसे उस जगह ले जाने के लिए हठ करने लगी।
आखिर में बुढ़िया ने उसका कहना मान लिया और कहने लगी, “ठीक है, मैं तुम्हें वहाँ लेकर चलती हूँ, पर आज नहीं, कल। वहाँ जाना है तो शाम को ही जाना होगा।”
तो दूसरे दिन दोपहर को रानी बुढ़िया के साथ उस मैदान पर गई और एक जगह छुपकर गाय के आने की राह देखने लगी। दिन ढलते ही अँधेरा घेरने लगा है और गाय हमेशा की तरह वहाँ आ गई है। मैदान के उस कोने में जाकर उसने पत्थर पर सींग मारा, तो झट से पत्थर हटकर वहाँ सुरंग में जाने का रास्ता खुल गया है। गाय उस रास्ते से नीचे उतरने लगी, तो बुढ़िया रानी से कहते लगी, “जल्दी आगे बढ़ो बिटिया, हम गाय की पूँछ पकड़कर नीचे उतरेंगे।”
तो दोनों गाय की पूँछ पकड़कर नीचे उतर गईं। बुढ़िया पहले जिस कोने में छिपी थी, उस कोने में छिप गई। अब नीचे सबकुछ पहले जैसा घटित हो रहा था। गाय के गले में अपने आप साँकल पड़ गई...कोई अदृश्य रूप से उसका दूध दुहने लगा, एक सफेद उम्दा घोड़े ने आकर एक कुंड में छलाँग लगाई तो राजपुत्र के रूप में ऊपर आया...वह राजपुत्र दूसरे कुंड में नहाने लगा...बाद में उसके सामने खाने की थाली आ गई, दूध की प्याली आ गई...पान-बीड़ा आ गया...राजपुत्र सब ग्रहण करके सोने के लिए पलंग पर गया, तो सोने से पहले सूर्यदेव का स्मरण करके वह दीये से पूछने लगा—
“दीये-दीये दीपंकर...मेरे माता-पिता क्या कर रहे हैं?”
तो दीया कुछ जवाब नहीं देता, बल्कि वह बुझने लगता है। तब राजपुत्र को ‘कुछ अघटित हुआ है’, इसका संदेह हो गया है। वह उदास हो गया है और जो कुछ हुआ है, वह हो जाने दो, ऐसा सोचकर सोने के लिए बिस्तर पर लेट गया। अब रानी का संयम छूट गया, वह दौड़कर पति के पास गई और उसके पैर पकड़ने के लिए आगे बढ़ने लगा। राजपुत्र तुरंत ही पत्नी को पहचान गया। वह झट से पीछे हट गया और चिल्लाने लगा—
“नहीं-नहीं, मुझे मत छूना! सर्वनाश हो जाएगा!”
रानी दोनों हाथ जोड़कर पति से अपनी भूल स्वीकार करने लगी—
“स्वामी! मुझसे भूल हो गई, मुझे आपसे नहीं पूछना चाहिए था कि आप रात को कहाँ जाते हो? मैं अपनी भूल स्वीकार करती हूँ, मुझे मेरी भूल की सजा मिल गई है। अब आप घर चलें। आपके वियोग में आपके माता-पिता ने बिस्तर पकड़ लिया है। आपकी प्रजा भी बहुत दुःखी है।”
उसपर राजपुत्र कहने लगा, “वही तो एक बार तुम गलती कर बैठी हो, अब दुबारा मत करना! नहीं तो अब मैं तुम्हें जो दिख रहा हूँ, वह भी नहीं दिखूँगा!”
रानी अब विलाप करने लगी, जोर-जोर से जमीन पर सिर पटकने लगी। राजपुत्र के मन में उसके प्रति दया उत्पन्न हो गई। वह उससे कहने लगा, “यदि तुम मुझे पाना चाहता हो तो तुम्हें एक काम करना होगा। काम कठिन है, लेकिन वह तुम्हें अकेले करना होगा!”
“कहो स्वामी, कितना भी कठिन काम हो, मैं वह पूर्ण करूँगी!” रानी कहने लगी। इसपर राजपुत्र ने उसे बताया—
“इस पाताल से ऊपर जाते ही तुम्हें एक घना जंगल नजर आएगा। ऐसे छह जंगल पार करने के पश्चात् सातवाँ जंगल मिलेगा। वह जंगल सबसे घना है। उस जंगल में बीचोबीच एक पीपल का पेड़ है, उसके आस-पास की जगह पत्ते, फंदे, जटाएँ, काँटे इत्यादि से ढक चुकी है। वहाँ बाघ-शेर, भालू-साँप—सभी धमा-चौकड़ी बैठती है। तुम्हें उन सब को भगाकर वह जगह साफ करनी है। उसकी गोबर से लिताई करके पवित्र बनाना है। रंगोली से सजाना है। उसके बाद वहाँ धूप, कपूर, अगरबत्ती जलानी है। फूल-कुमकुम से पेड़ की तने की पूजा करनी है। दूध-दही से बने चावल का भोग चढ़ाना है। ये सब तुम्हें दोपहर को बारह बजने के पहले करना है। बारह बजने के समय तुम्हें उस जगह पर बैठकर सूर्य भगवान् का ध्यान करना है। ठीक बारह बजे सूर्य भगवान् का रथ वहाँ उतरेगा। वे वह सब देखकर खुश हो जाएँगे। और कहेंगे, ‘जिस किसी ने यह सब किया है, उसे मैं मनचाहा फल दूँगा।’ तो तुम सामने जाकर उसके रथ का दाहिना घोड़ा माँगना। मैं तुम्हें मिल जाऊँगा।”
इतनी बात कहकर राजपुत्र अपने पलंग पर सो गया और छोटी रानी भोर होने की राह देखने लगी। भोर होते ही वह बुढ़िया के साथ गाय की पूँछ पकड़कर ऊपर आ गई। ऊपर आने के बाद वह बुढ़िया से कहने लगी, “अम्मा, अब मैं अकेले ही आगे जाऊँगी। तुम भोजनालय वापस जाओ।”
वह जंगल में जाकर राजपुत्र की बताई जगह ढूँढ़ने लगी और स्वयं आरी से वह जगह साफ कर दी। बाद में राजपुत्र ने जैसे बताया, वैसी लिपाई-पोताई करके वापस आ गई। दूसरे दिन पौ फटने से पहले उठी और जंगल में उस जगह पहुँची। वहाँ जाकर इत्र-गुलाब का पानी छिड़ककर वह जगह सुगंधित की। धूप-अगरबत्ती जलाकर उसे पवित्र किया और पूजा की सब सामग्री वहाँ तैयार रखकर सूर्य भगवान् का ध्यान करने बैठ गई।
जैसा कि पति ने बताया था, दोपहर को ठीक बारह बजे सूर्य भगवान् का रथ उस पीपल के पेड़ पर आकर रुका है। सूर्य भगवान् ने जब रथ से नीचे देखा तो सुगंधित वातावरण देखकर व बहुत प्रसन्न हो गए। फिर वे बोले—
“जिस किसी ने यह काम किया है, वह यहाँ आकर आज मुझसे कुछ भी माँगे, मैं उसे दे दूँगा!”
रानी ने जब ये शब्द सुनने है, तो बिना समय गँवाए दौड़कर उनके सामने आ गई और उनको साष्टांग नमस्कार करके बोली—
“भगवान्, वह मैं ही हूँ...मैंने ही यह जगह साफ की है!”
“अच्छा, तो तुम्हें जो चाहिए, वह माँगो!”
“भगवान्, मुझे...मुझे...आपके रथ का दाहिना घोड़ा चाहिए!”
सूर्य भगवान् बोले, “नहीं-नहीं, मैं तुम्हें और कुछ भी दे सकता हूँ, लेकिन यह घोड़ा नहीं दे सकता। मेरे रथ के बारह घोड़े हैं, तुम चाहो तो कोई और घोड़ा माँग लो, लेकिन यह दाहिना घोड़ा नहीं!...वह मैं तुम्हें नहीं दे सकता।”
छोटी रानी ने एक नहीं सुनी। वह सूर्यदेव से एक ही बात कह रही थी, “वही दाहिना घोड़ा दे दीजिए, नहीं तो मैं आपके पैरों में गिरकर अपनी जान दे दूँगी!”
अब सूर्यदेव धर्मसंकट में पड़ गए, उन्होंने वचन दे दिया था। अब अपने वचन से पलट भी तो नहीं सकते थे।
“ठीक है, दे दिया तुम्हें घोड़ा!” सूर्यदेव ने कहा। फिर एक बात और भी कही—“देखो, मैंने तुम्हें घोड़ा तो दिया है, लेकिन वह तुम्हें यहाँ नहीं मिलेगा, तुम्हें उसे पाताल में जाकर लाना होगा।”
रानी बोली, “पाताल में ही क्या भगवान्, मैं उन्हें पाने के लिए कहीं भी जा सकती हूँ!"
रानी को वचन देकर सूर्यदेव अपने मार्ग चले गए और इधर रानी जंगल से अपने भोजनालय में आ गई। फिर वह बुढ़िया को लेकर उस मैदान पर आ गई। जल्दी ही शाम हो गई। शाम होते ही वहाँ वह गाय आ गई और उसने सींग मारकर सुरंग का पत्थर हटाया तथा नीचे उतरने लगी। रानी और बुढ़िया जल्दी-जल्दी उसकी पूँछ पकड़कर नीचे उतर गईं।
नीचे पाताल में सब घटनाएँ पहले की तरह ही घटने लगीं। घोड़े का एक कुंड में नहाकर राजपुत्र बन जाना नहा-धोकर पलंग पर जाकर बैठना, तो उसे खाने की थाली, दूध की प्याली आना, पान-बीड़ा आना...
लेकिन आज एक बात नई घटी, आज दो-दो थाली, दो-दो दूध की प्याली, दो-दो पान-बीड़े उसके सामने आए। वह कुछ नहीं बोला। अपने हिस्से की थाली खाकर, दूध पीकर और पान-बीड़ा चबाकर वह सोने चला गया और हमेशा की तरह दीये से पूछने लगा-
"दीये-दीये दीपंकर, मेरे माता-पिता क्या करते हैं?"
दीया ने बताया, "वे दोनों तुम्हारे शोक में मरने की स्थिति में पहँच गए हैं!"
"ऐसा?" झट से उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे। फिर वह पूछने लगा-"दीये दीये दीपंकर, मेरा राज्य कौन चला रहा है ?"
"तुम्हारा राज्य प्रधान चला रहा है, और वह सबकुछ हड़प चुका है ! वह प्रजा पर बहुत अत्याचार कर रहा है !"
सुनकर राजपुत्र को बहुत गुस्सा आया। वह गुस्से से अपनी मुट्ठी भींचने लगा। अब वह पूछने लगा-
"दीये-दीये दीपंकर, मेरी पत्नी क्या कर रही है?"
अब दीया कुछ नहीं बोला, चुप रहा।
अब रानी का संयम जवाब दे गया, वह दौड़कर पति के गले लग गई।
"अब मैं तुम्हें मिल गया!" राजपुत्र कहने लगा।
"सच कहते हो, अब आप फिर से घोड़ा तो नहीं बनेंगे न?"
"नहीं, दुबारा घोड़ा नहीं बनूँगा मैं। तुमने जो इतने सारे कष्ट उठाए हैं, मुझे पाने के लिए! इसलिए सूर्यदेव ने मुझे सदा के लिए घोड़े के जन्म से मुक्त कर दिया है।" राजपुत्र ने बड़े प्यार से कहा और उसे गले लगाया, उसके आँसू पोंछे। कुछ देर पश्चात् भोर हो गई, तो गाय की श्रृंखला टूटकर वह ऊपर भूलोक जाने लगी। रानी, राजपुत्र और बुढ़िया उसकी पूँछ पकड़कर ऊपर आ गए। ऊपर आने पर वे सीधे भोजनालय में पहुँचे, वहाँ का सब सामान लोगों में बाँट दिया और उसको ताला लगाकर अपने राज्य में लौट गए।
राजपुत्र वापस आता और उसके तेवर देखकर प्रधान घबरा गया। राजपुत्र ने उसे बंदी बनाकर कैदखाने में डाल दिया और राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली। उसके बाद वह अपने माता-पिता को मिलने उनके महल में गया। तब राजपुत्र क्या देखता है कि उसके माता-पिता उसके शोक में अस्थिपंजर बने हुए हैं।
पुत्र को वापस आया देखकर मरणासन्न राजा-रानी की आँखों से टप-टप आँसू बहने लगे। इन दोनों ने पुत्र को गले लगाया, उसे प्यार से सहलाया। इतना होने के बाद उनके सेहत में एकदम सुधार आने लगा। वे अब बिस्तर से उठकर बैठ गए हैं। पुत्र को आशीष देने लगे।
राजपुत्र के आने की खबर तुरंत राज्य भर में फैल गई। प्रजा खुशी से फूली नहीं समाई। प्रजाजन राजमहल के सामने इकट्ठे हो गए। राजपुत्र ने भी उन्हें दर्शन दिए और आज से उन्हें कोई दुःख नहीं पहुँचाएगा, ऐसा वचन भी दिया।
अब राजा, अपने पुत्र का राज्याभिषेक करके उसे सिंहासन पर बिठाता है और बहू को महारानी का दर्जा देता है और स्वयं अपनी पत्नी के साथ ईश्वर स्मरण करते खुशी से दिन बिताता है।
महाराजा बना राजपुत्र अच्छी तरह से राज्य चलाने लगा और अपनी पत्नी के साथ सुख-शांति से जीवन बिताने लगा।
उस बुढ़िया को रानी ने अपने ही पास रख लिया। उसकी अच्छी तरह से देखभाल करने लगी। बुढ़िया और उसके बुढ़ापे के दिन खुशी से गुजर लगे।