सूरज जैसा (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण

Sooraj Jaisa (English Story in Hindi) : R. K. Narayan

सत्य, शेखर सोच रहा था, सूरज की तरह है। मेरा ख़्याल है कि कोई भी आदमी बिना आंखें झपकाए या चौंधियाए हुए इसे सामने से देख नहीं सकता। वह महसूस करता था कि, सुबह से शाम तक, मानवी संबंधों का तत्व सत्य को कम करने में लगा रहता है, जिससे उसका धक्का न सहना पड़े। उसने यह दिन विशेष दिन के रूप में ज़्यों का त्यों रहने देने का निश्चय किया-कि साल में कम-से-कम एक दिन ऐसा रहे जब जो भी होता है, उसे वैसे ही होने दिया जाए। नहीं तो जीवन जिए जाने योग्य नहीं रहेगा। यह दिन बहुत सी संभावनाएं लेकर आ सकता है। लेकिन इस प्रयोग के बारे में उसने किसी को कुछ नहीं बताया। यह शान्त प्रस्ताव था, गुप्त समझौता उसके और अनन्त के बीच।

पहली परीक्षा सवेरे ही आई जब उसकी पत्नी ने खाना खाने को दिया। उसने एक पदार्थ पर नाक सिकोड़ी जो पत्नी ने ख़ास तौर पर उसके लिए बनाया था। उसने पूछा,‘क्यों, अच्छा नहीं लगा?’ और समय होता तो वह उसकी भावनाओं का ख़्याल करके कहता,‘नहीं, दरअसल आज मुझे भूख नहीं है। और कोई बात नहीं है। लेकिन आज उसने कहा,‘यह अच्छा नहीं लग रहा, मेरे गले से नीचे नहीं उतर रहा।’ सुनकर पत्नी चुप हो गई, जिसे देखकर उसने सोचा, मैं कुछ नहीं कर सकता। सत्य सूरज जैसा होता है।

दूसरी परीक्षा दफ़्तर के कॉमन रूम में हुई जब उसके एक साथी ने आकर कहा,‘फलाने आदमी की मौत हो गई, यह ख़बर नहीं सुनी! कितना बुरा हुआ।’
‘नहीं,’ शेखर बोला।
‘कितना अच्छा आदमी था...’ दोस्त ने कहना शुरू किया।
शेखर ने फौरन उसकी बात काटी,‘बिलकुल नहीं। वह हमेशा मुझे कमीना और स्वार्थी इनसान लगा।’
स्कूल के आख़िरी घंटे में जब वह तीसरी कक्षा के सेक्शन ‘ए’ को भूगोल पढ़ा रहा था, उसे हेडमास्टर का आदेश मिला,‘घर जाने से पहले मुझसे मिलो।’
शेखर सोचने लगा, ज़रूर यह इन इम्तहानों की कॉपियों के बारे में होगा। सौ लड़कों की उलटे-सीधे ढंग से लिखी कापियां जांचने का काम वह हफ़्तों टाल रहा था, जैसे उसकी गर्दन पर तलवार लटक रही हो।
घंटी बजी और बच्चे क्लास छोड़कर भागने लगे।
शेखर हेडमास्टर के कमरे के आगे क्षणभर के लिए रुका और कोट का बटन ठीक किया। इस विषय पर भी हेडमास्टर कई दफ़ा उसे टोक चुका था।
वह बड़ी नम्रता से भीतर घुसा और बोला,‘गुड ईवनिंग सर।’
हेडमास्टर ने सिर उठाकर हलकेपन से उसकी तरफ़ देखा और पूछा,‘आज की शाम आप ख़ाली हो?’
‘बस ज़रा बच्चों को बाहर लेकर जाना है। उनसे मैंने वादा किया हुआ है।’
‘उन्हें किसी और दिन ले जाना। आज मेरे साथ घर चलो।’
‘अच्छा...जी, सर, ज़रूर...’ वह बोला, फिर धीरे से पूछा,‘कोई ख़ास बात है, सर?’
‘हां,’ हेडमास्टर मुस्कराते हुए बोला,‘तुम्हें मेरे संगीत के शौक़ के बारे में पता नहीं है?’
‘जी, हां सर!’

‘मैं चुपचाप सीखता और अभ्यास करता रहा हूं, और आज शाम तुम उसे सुनो, यह चाहता हूं। मेरे साथ एक बाजा और एक वायलिन बजाने वाला भी रहेगा-पहली दफ़ा मैं सार्वजनिक रूप से इसे प्रदर्शित कर रहा हूं और तुम्हारी राय चाहता हूं। मैं जानता हूं, तुम्हारी राय मेरे लिए क़ीमती होगी।’
संगीत में शेखर की रुचि सबको पता थी। संगीत वह ऐसा समीक्षक था जिससे शहर के संगीतज्ञ घबराते थे। लेकिन वह नहीं सोचता था कि इस कारण उसे यह काम करना पड़ेगा।
‘तुम्हें ताज्जुब हो रहा होगा,’ हेडमास्टर ने कहा,‘मैंने इस पर काफ़ी पैसा ख़र्च किया है...’

दोनों हेडमास्टर के घर की तरफ़ चले। ‘ईश्वर ने मुझे बेटा तो नहीं बख्शा, मैंने सोचा कि संगीत से ही संतोष कर लूं?’ उन्होंने दर्द भरी आवाज़ में कहा।

वे बताते रहे कि किस तरह एक दिन बोरियत से तंग आकर उन्होंने यह फ़ैसला लिया, कैसे उसका गुरु पहले उस पर हंसता था, फिर उसे आशा बंधाने लगा, कैसे वह इसमें सुकून पाना चाहता है।

घर पर हेडमास्टर ने शेखर की बड़ी खातिर-तवज्जो की। उसे लाल सिल्क की दरी पर बिठाया, उसके सामने तश्तरियों में खाने-पीने की चीज़ें रखीं और घर में दामाद की तरह उसका सेवा-सत्कार किया। उसने यह भी कहा,‘तुम स्वतंत्र भाव से सुनना। इम्तहान की उन कापियों को भूल जाना... मैं तुम्हें उनके लिए एक हफ़्ते का समय देता हूं।’

‘इसे दस दिन कर दीजिए,’ शेखर ने कहा।
‘ठीक है, दस सही,’ हेडमास्टर ने उदारता से कहा। यह सुनकर शेखर ख़ुश हो गया; वह दस कापियां हर रोज़ जांचेगा और दस दिन में ख़त्म कर देगा।

हेडमास्टर ने धूप जलाई। बोला,‘इससे सही वातावरण बनेगा।’ तबला और वायलिन वादक रंगून की दरी पर बैठे इन्तज़ार कर रहे थे। हेड मास्टर उन दोनों के बीच में पेशेवर गायक की तरह बैठ गया। गला साफ़ किया और पहले एक आलाप लिया। फिर रुककर पूछा,‘यह शुद्ध कल्याणी है न?’ शेखर ने सवाल न सुनने का नाटक किया। फिर हेडमास्टर ने पूरा गाना गाया-त्यागराज का गाना, फिर दो और गाने सुनाए।

हेडमास्टर गा रहा था और शेखर अपने मन में कह रहा था: आवाज़ ऐसी है, जैसे दर्जन भर मेंढक बोल रहे हों। फिर बैल की तरह गरजने लगता है। कई दफ़ा लगता है जैसे तूफ़ान में खिड़कियां खड़कती हैं।

धूपबत्तियां धीरे-धीरे जल रही थीं। दो घंटे तक शेखर के कान इन ऊबड़-खाबड़ आवाज़ों से बजते रहे और उसका सिर चकराने लगा। हेडमास्टर की आवाज़, एकदम कर्कश हो चली थी। फिर अचानक वह रुककर पूछने लगा,‘गाता रहूं?’
शेखर ने जवाब दिया,‘जी नहीं सर, आप रुक जाइए... मेरा ख़्याल है यह काफ़ी है।’

हेडमास्टर यह सुनकर स्तब्ध रह गया। उसके चेहरे पर पसीना उतर आया। शेखर को उस पर तरस आ रहा था। लेकिन उसे लगा कि वह कुछ कर नहीं सकता। कचहरी में बैठे किसी जज को इतनी तक़लीफ़ नहीं हुई होगी। शेखर ने देखा कि हेडमास्टर की बीवी किचन से झांक रही है। तबला और वायलिन वादकों ने चैन की सांस लेकर अपने वाद्य रख लिए । हेडमास्टर ने चश्मा उतारा, माथे का पसीना पोंछा और पूछा,‘अब बताओ तुम्हारा मत क्या है?’

शेखर ने टालने की कोशिश की,‘कल बताऊं तो कैसा रहे?
‘नहीं, आज और अभी मुझे तुम्हारा मत जानना है। सही राय देना-मैंने अच्छा गाया?’
‘जी नहीं, सर,’ जवाब आया ।
‘ओह!... तो मैं अभ्यास जारी रखूं?’

बिल्कुल नहीं, सर...।’ शेखर ने जवाब दिया। उसकी आवाज़ कांप रही थी। उसे दुःख हो रहा था कि वह ज़्यादा मीठी बात नहीं कर सका। वह इस नतीजे पर पहुंचा कि सत्य को सुनने के लिए जितनी शक्ति की ज़रूरत होती है, उससे ज़्यादा शक्ति उसे बताने में लग जाती है।

वह परेशान होकर घर लौटकर सोचने लगा कि इससे उसकी नौकरी प्रभावित होगी। नौकरी में वेतन वृद्धि, उसके स्थायी होने और इस तरह की कई समस्याएं थीं जो हेडमास्टर की इच्छा पर निर्भर हैं। उसे इस तरह की अनेक चिन्ताएं घेरने लगीं। राजा हरिश्चन्द्र ने प्राचीन काल में सत्य बोलने के कारण अपना राज्य, पत्नी परिवार, सबकुछ खो दिया था। अब क्या होगा?

घर पर पत्नी ने उदास चेहरा लेकर खाना खिलाया। वह जानता था कि पत्नी उसकी सवेरे की टिप्पणी के कारण अब तक उससे नाराज़ है। आज दो दुर्घटनाएं हुईं मेरे साथ। अगर इसी तरह मैं सत्य का आग्रह करता रहा तो कुछ दिन में मेरा एक भी मित्र नहीं रह जाएगा।
दूसरे दिन क्लास में उसे हेडमास्टर का आदेश मिला कि आकर मिलो। वह चिन्तित होकर कमरे में घुसा।

‘तुम्हारा सुझाव उपयोगी रहा। मैंने संगीत शिक्षक का हिसाब कर दिया है। आज तक किसी ने यह सत्य मुझे नहीं बताया। इस उम्र में यह सब नाटक गलत है। धन्यवाद! अच्छा, उन कापियों का क्या करना है?’

‘आपने उन्हें देखने के लिए दस दिन दिए हैं।’
‘ओह, लेकिन मैंने उस पर फिर सोचा...मुझे कल सब कापियां चाहिए...’
एक दिन में सौ कापियां! यानी सारी रात बैठना पड़ेगा।
‘सर, मुझे दो दिन तो दीजिए!’
‘नहीं, कल सवेरे मुझे ज़रूर चाहिए और याद रखना, हर कापी ध्यान से जांचनी है।
‘यस, सर, शेखर बोला-और सोचता रहा कि रात भर बैठकर सौ कापियां जांचना सत्य बोलने की ज़्यादा कीमत नहीं है!’

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