सूखी लकड़ी (कहानी) : गुरुदत्त
Sookhi Lakdi (Hindi Story) : Gurudutt
ऐसी अवस्था में तुम सरकारी नौकरी में किसलिए आए हो? "
"नियुक्त करनेवाले बोर्ड ने मुझे बीच प्रत्याशियों में से चुना था और नियुक्ति - पत्र दिया था । "
" परंतु तुमने सर्विस रूल की पाबंदी नहीं की ? "
" हुजूर ! यही तो पूछ रहा हूँ कि किस रूल की पाबंदी नहीं की ? "
" तुम खद्दर पहनकर काम पर आते हो । "
" यह किसी भी रूल में नहीं लिखा हुआ कि क्या पहनकर काम में आना चाहिए । "
प्रांतीय सरकारी निर्माण विभाग में एक सुपरिंटेंडेंट अपने अधीन एक क्लर्क को डाँट के भाव में पूछ रहा था और
क्लर्क आदरपूर्वक सामने खड़ा अपनी सफाई दे रहा था ।
सन् 1922 के दिन थे। गांधीजी ने हाथ में कते सूत से हाथ का बुना कपड़ा प्रयोग करने के लिए सब
हिंदुस्तानियों को कहा था । देश में आधी की भाँति यह बात फैल गई थी । और मनोहरलाल, जो कुछ दिन पहले
पाँव से सिर तक अंग्रेजी ढंग के कपड़े पहन कार्यालय में आया करता था , अब खद्दर के वस्त्र पहनकर आने
लगा था । वह सिर पर खद्दर की पगड़ी, बंद गले का कोट , खद्दर का कुरता और पायजामा पहनने लगा था ।
पहले ही दिन जब वह खद्दर की पोशाक में कार्यालय में आया था तो उसका चीफ इंजीनियर से आमना
सामना हो गया था । मनोहरलाल ने गुड मॉर्निग की तो चीफ इंजीनियर मिस्टर डी .ई. वुड उसे देख जल - भुन सा
गया था । उसकी दृष्टि में गांधी एक महान् विद्रोही था और खद्दर की पोशाक को वह विद्रोहियों की यूनिफॉर्म
समझता था । सदा के विपरीत उसने गुड मॉर्निग का प्रतिवादन नहीं किया और मनोहरलाल की अवहेलना करता
हुआ जहाँ जा रहा था , चला गया । इस घटना को हुए अभी सप्ताह भी नहीं हुआ था कि सुपरिंटेंडेंट मिस्टर पी .
नरूला ने मनोहरलाल को अपने सामने खड़ा कर कहा था , " तुम्हारा नेकटाई- कॉलर कहाँ गया है ? "
नरूला मनोहरलाल के श्वसुर का मित्र था और उसने भी मनोहरलाल की नियुक्ति में योगदान किया था ।
मनोहरलाल ने भी यही समझा था कि मिस्टर नरूला पत्नी के पिता के नाते ही यह बात कह रहा है । इस कारण
उसने भी उसी भाव में उत्तर दिया , " गांधीजी की आँधी में उड़ गए हैं । "
इस उत्तर से चिढ़कर नरूला ने कहा था कि वह सरकारी नौकरी में किसलिए आया है ? जब मनोहरलाल ने
कहा कि उसने किसी भी सर्विस रूल का उल्लंघन नहीं किया तो नरूला ने कहा, " बड़े साहब अभी- अभी कह
रहे थे कि मनोहरलाल को डिसमिस करना पड़ेगा । "
इस बात पर मनोहरलाल के मन में चिंता होने लगी थी , परंतु शीघ्र ही उसने सावधान होकर कहा , " यह
डिसमिसल अकारण होगी । "
" मैं लाला नानकचंदजी को आज मिलने जाऊँगा । यदि तुम भी वहाँ आ सको तो ठीक रहेगा । "
" जी , आ जाऊँगा । "
" ठीक है । जाओ, काम करो । "
नानकचंद मनोहरलाल के श्वसुर का नाम था । यह सुन एक क्षण के लिए ही मनोहरलाल के मुख पर चिंता की
रेखाएँ दृष्टिगोचर हुई, परंतु अगले ही क्षण वह स्वस्थचित्त हो अपनी सीट पर जा बैठा और काम करने लगा ।
मनोहरलाल घर गया तो पत्नी से बोला, " मैं तुम्हारे पिताजी से मिलने जा रहा हूँ । "
" कुछ काम है क्या ? "
" तुम मिस्टर नरूला को जानती हो न ? वह तुम्हारे पिताजी से मेरी शिकायत करने जा रहे हैं और वह शिकायत
मेरे मुख पर करना चाहते हैं । "
" क्या किया है आपने, जो वह शिकायत करने जा रहे हैं ? "
"मैंने खद्दर पहनना आरंभ कर दिया है और बड़े साहब को यह बुरा प्रतीत हुआ है। "
" वह कौन है ? "
" एक अंग्रेज है । अपने देश में टोरी पार्टी से संबंध रखता है । "
" तो आपको पिताजी को बीच में लाने की क्या आवश्यकता है ? आप कल से अपनी पहली पोशाकें पहन
दफ्तर में जा सकते हैं । "
" नहीं शकुंतला । नौकरी के कायदे- कानूनों में कहीं यह नहीं लिखा कि मैं कैसे कपड़े पहनकर दफ्तर में
जाऊँगा। "
" अर्थात् आप अफ्रीका के जंगलों की भाँति नंगे भी दफ्तर में जा सकते हैं ? "
" यह खद्दर के कपड़े जो हैं । इनके पहनने से मैं नंगा नहीं हो रहा । "
" तो फिर ? "
" मैं पिताजी के घर जा रहा हूँ । "
" मैं भी साथ चलूँगी । "
" चल सकती हो । "
दोनों घर से पैदल ही शकुंतला के पिता के घर में जा पहुँचे। मनोहरलाल का डेढ़ वर्ष की वयस का एक
लड़का भी था । वे उसे भी साथ ले गए थे ।
वहाँ नरूला पहले ही शकुंतला के पिता के पास बैठा बतला रहा था । मनोहरलाल को बैठक - घर में आते देख
शकुंतला के पिता ने कह दिया , " यह लो , मनोहरलालजी आ गए हैं । "
" मैं तो आपसे कहने आया हूँ कि इसे समझाना चाहिए । नहीं तो यह डिसमिस कर दिया जाएगा और पुनः
इसे सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी । " नानकचंद स्वयं भी एकाउंटेट जनरल के कार्यालय में काम करता था । इस पर
भी वह परमात्मा पर भरोसा रखनेवाला व्यक्ति था । इस कारण वह दामाद की नौकरी छूटने के विषय में चिंतित
नहीं था ।
मनोहरलाल ने दोनों बड़ों को हाथ जोड़ नमस्ते की और उनके सम्मुख बैठ गया ।
नानकचंद ने ही बात आरंभ की । उन्होंने कहा, " नरूला साहब तुम्हारी शिकायत कर रहे हैं । "
" पिताजी, इनको बड़े साहब को कहना चाहिए था कि खद्दर पहनने से कोई नौकरी के अयोग्य नहीं हो जाता ।
इन्होंने साहब को ठीक बात बताई नहीं और मुझे कार्यालय में ही डाँटने लगे थे । "
उत्तर नरूला ने दिया, " देखो बरखुरदार! यदि मैं यह बात कहता तो कदाचित् तुमसे पहले मैं ही बर्खास्त कर
दिया जाता । "
" तो खद्दर पहनना और साथ ही खद्दर का ‘ सर्विस रूल के खिलाफ न होना, कहना भी मना है ? "
" हाँ , आजकल तो यही हो रहा है । यदि नौकरी करनी है तो कल कोट, पतलून , नेकटाई इत्यादि पहनकर
आना। नहीं तो ठीक नहीं होगा । "
" परंतु हजूर! " मनोहरलाल ने घर पर भी उसी भाषा में संबोधन किया, जिस भाषा में वह कार्यालय में किया
करता था , " मैं कुछ भी कसूर नहीं कर रहा । मैं तो अब इसी पोशाक में जाऊँगा। "
मिस्टर नरूला ने अब नानकचंद को कहा , " लड़के को समझाइए । इसे बता दीजिए कि कोमल घास को , जो
हवा से झुक जाती है, हवा उखाड़ नहीं सकती । परंतु वृक्ष की सूखी शाखाएँ आँधी से टूट भूमि पर गिर मिट्टी
चाटने लगती हैं । "
" और फिर यह तो अभी शाखा भी नहीं । एक सूखी छड़ी ही है । थोड़े से दबाव में ही टूट जाएगी । "
इतना कह नरूला नानकचंद को नमस्ते कह चल दिया । उसका विचार था कि पृथक् में श्वसुर दामाद को
समझाएगा तो वह समझ जाएगा ।
नरूला के चले जाने के उपरांत शकुंतला और उसकी माँ भी वहाँ आ गई । नानकचंद ने लड़की को बताया ,
“ मनोहरलाल को नरूला सूखी लकड़ी कह गया है । इसका मतलब है कि सरकार के दबाव के नीचे यह टूट
जाएगी । वह इसे कोमल घास बन जाने के लिए कह गया है । "
अब शकुंतला ने कहा, “ पिताजी ! आप इनको ठीक - ठीक सम्मति दीजिए । "
" ठीक बात तो यह ही विचार कर सकता है । सूखी लकड़ी टूट भी सकती है और यदि कुशलता से चलाई जाए
तो दूसरों का सिर भी फोड़ सकती है और कोमल घास ... " नानकचंद कहता-कहता रुक गया ।
बात मनोहरलाल ने पूरी कर दी । उसने कहा, “ पिताजी ! कोमल घास दूसरों के पाँव -तले दबती रहती है । मैं
संसार की ठोकरें खाने के लिए नहीं बना । "
" तो अब गली -गली, बाजार - बाजार में तिरंगा हाथ में लिये हुए महात्मा गांधी की जय बुलाते फिरोगे? "
" नहीं पिताजी! मैं कल कार्यालय जाऊँगा । "
" यह खद्दर पहने हुए ही ? "
" यह मेरे निज के विचार करने की बात है । "
" तो डिसमिस कर दिए जाओगे । "
" तो मैं घर लौट आऊँगा । "
" यही तो पूछ रहा हूँ । कांग्रेस का काम करोगे? "
"विचार करूँगा। "
मनोहरलाल को एक दिन नोटिस मिल गया । लिखा था
" तुमको नौकरी से बर्खास्त किया जाता है । तुम्हारे काम में बहुत गलतियाँ होती हैं और तुम्हें काम के अयोग्य
समझा गया है । "
मनोहरलाल को नोटिस मिला तो उसने पढ़ा और मिस्टर नरूला की मेज पर जा खड़ा हुआ । जब नरूला ने
उसकी ओर प्रश्न भरी दृष्टि से देखा, तो मनोहरलाल ने कहा, " मेरी ‘ सर्विस बुक पर यह गलत बात किसने
लिखी है ? "
"किसी ने भी लिखी हो । यह तो होना ही था । अब अपने साथी को चार्ज दो और छुट्टी करो । महीने की
पहली तारीख को आ अपना शेष वेतन ले जाना। "
मनोहरलाल समझ गया कि उसके काम में गलतियों की बात नरूला ने लिखी है । कदाचित् उससे बलपूर्वक
लिखाई गई है । और वह नरम घास की भाँति झुक गया है । अब उसे यह बात समझ आई तो वह अपनी मेज पर
बैठे अपने साथी को चाबियाँ और फाइलें दे चार्ज लेने का लिखवा, जेब में डाल, घर को चल दिया ।
समय से पूर्व घर पर पहुँचा तो पत्नी मुख देखते ही समझ गई कि काम से छुट्टी हो गई है । मनोहरलाल के घर
की बैठक में बैठते ही वह उठी और रसोईघर से गिलास में ठंडा जल लेकर आ गई । उसे पानी लाते देख
मनोहरलाल हँस पड़ा और बोला, " तो यह मेरे इस कारनामे पर इनाम दे रही हो ? "
" यह समय चाय पीने का तो है नहीं , अन्यथा चाय ले आती । "
" तो सुनो! नरूला ने मेरी सर्विस फाइल पर मेरे काम में भूलों की शिकायतें लिखी हैं और उसी के आधार पर
मेरी छुट्टी कर दी गई है । "
" छोडिए इस बात को । अब बताइए, क्या करिएगा । मैं समझती हूँ कि घर पर पड़े सामान से दो महीने का
रोटी- पानी चल जाएगा । "
" मैं कल से काम पर जाऊँगा। "
" ठीक है । मुझे बताइए , मैं क्या करूँ ? "
" तुम वही करो जो पहले करती थीं । "
" क्या करती थी ? "
" रोटी , पानी और ... और... " वह कह नहीं सका और प्रेम भरी दृष्टि से पत्नी की ओर देखने लगा ।
" नहीं , अब नहीं । जब तक आप वेतन -जितना मेरे हाथ पर लाकर नहीं रख देते , एक मुन्ना ही रहेगा। "
" कितना देता था ? "
मनोहरलाल जानता था कि वह सवा सौ वेतन सबका सब शकुंतला को दे देता था और वह उसे एक रुपया
नित्य पॉकेट -खर्चा देती थी । शेष सब व्यय वह ही करती थी । घर पिता की संपत्ति में से मिला हुआ था । शेष एक
सौ रुपए में से सब व्यय कर बीस-तीस बच जाते थे और वे वस्त्र बनाने में व्यय होते थे ।
अगले दिन मनोहरलाल ने साइकल ली और घर से निकल गया । वह दो बजे के लगभग वापस आया । भोजन
किया और सो गया । यह नित्य का काम हो गया कि वह प्रातः पाँच बजे घर से जाता था । आठ - साढ़े आठ बजे
लौटता था । पुनः अल्पाहर ले वह चला जाता था और मध्याह्नोत्तर घर आता था । महीने के उपरांत उसने एक सौ
दस रुपए ही शकुंतला को दिए ।
" बस? "
" दस तारीख से दफ्तर से छुट्टी हुई थी । दस दिन का वेतन तो मिलेगा और इस महीने मैं इतना ही पैदा कर
सका हूँ । "
"किस काम से पैदा किया है ? "
" इसकी जानने की भी जरूरत है क्या ? मैं समझता हूँ नहीं । इतना बता सकता हूँ कि यह चोरी नहीं किए ।
मेहनत से पैदा किए हैं । "
" मेरे लिए इतना जानना ही पर्याप्त है । शकुंतला मुसकराती हुई पति का मुख देखती रही ।
समय व्यतीत होने लगा । दो -तीन महीने में मासिक आय ढाई सौ से ऊपर हो गई । परंतु मनोहरलाल का
कार्यक्रम बदल गया । अब वह प्रातः पाँच बजे के स्थान पर एक बार ही आठ बजे जाने लगा था और माध्याह्न
के भोजन के समय आता था । भोजन कर आधा घंटा विश्राम कर वह पुनः चला जाता था और सायं आठ बजे
आता था । इस कार्यक्रम के बदलने से वह घर पर तीन सौ रुपया महीना देने लगा था । नौकरी छूटे एक वर्ष हो
चुका था ।
एक वर्ष के उपरांत उसने पत्नी को बताया , "मैंने दुकान कर ली है । "
" सत्य ? किस वस्तु की ? "
" पुस्तकें बेचता हूँ । पहले समाचार - पत्र लोगों के घर में देता था । तदनंतर उसके लिए एक पुरबिया नौकर
रखकर स्वयं पुस्तकें बेचने लगा था । एक हाथ रेड़ी पर स्थान- स्थान पर घूम- घूमकर बेचता था । अब पिछले महीने
से एक दुकान ले ली है । "
" रुपया कहाँ से लिया है? "
" देखो शकुंतला! सरकारी नौकरी से निकाले जाते समय मेरी बचत इत्यादि के तीन सौ रुपए एक साथ मिले
थे। उसमें से एक रेड़ी ली और शेष रुपया एक पुस्तक -विक्रेता के पास जमा कर दिया । उससे पुस्तकें बिक्री के
लिए लेकर रेड़ी पर लगाकर बाजार में बेचने लगा था । समाचार - पत्र भी वही ले देता था । जितनी आय महीने में
होती थी , उसमें से पहले चार आना रुपया, पीछे आठ आना पूँजी में जमा करता रहा हूँ । अब एक दुकान ले ली
है । और अपनी पूँजी से उसमें पुस्तकें भरने लगा हूँ ।...
" अब तुमसे एक नया लेन - देन का हिसाब करूँगा । "
" क्या ? "
" नित्य के लाभ में से पचास प्रतिशत नित्य दिया करूँगा । " ।
" अब तो आपके दिए में से एक वर्ष में मेरे पास भी एक सहस्र के लगभग जमा हो गया है । "
" जो जिसके भाग का आता है, वह उसको मिलना चाहिए । "
अब समाचार - पत्र बेचनेवाले पुरबिया के अतिरिक्त दुकान के लिए एक नौकर भी रखना पड़ा । कभी उसे दुकान
पर बिठाता था । और स्वयं रेड़ी पर पुस्तक बेचता था और कभी स्वयं दुकान पर बैठता था और रेड़ी पर नौकर
को भेज देता था । पाँच से बीस रुपए नित्य तक कभी कितना कभी कितना घर पर देता था ।
नौकरी छूटे पाँच वर्ष हो चुके थे। शकुंतला के एक लड़का और हो चुका था । पहला लड़का अरुण स्कूल में
भरती हो गया था ।
शकुंतला के छोटे भाई का विवाह था । निमंत्रण देने शकुंतला की माँ और पिता आए । मनोहरलाल घर पर ही
था । जब नानकचंद ने निमंत्रण - पत्र दामाद के हाथ में दिया तो मनोहरलाल ने कार्ड पर समय देख कह दिया ,
" पिताजी! आ सकूँगा । "
" तुम कभी मिलने भी नहीं आते? " भगवती , शकुंतला की माँ ने कह दिया ।
" माँजी! मालिक छुट्टी नहीं देता । जब तक काम करता - करता थक नहीं जाता , वह छोड़ता नहीं और तब थका
हुआ घर पर आ सो जाता हूँ । "
" कौन मालिक है तुम्हारा ? मैंने तो सुना था कि तुम अपना काम करने लगे हो । "
" हाँ , माताजी! परंतु उसमें भी एक मालिक है और वह ही बहुत तंग करता है । "
" कौन मालिक है उसमें ? " .
“ अपना मन है । मेरी दुकान पर तीन नौकर हैं । मैं मालिक हूँ । जिस प्रकार मैं अपने से काम लेता हूँ , वैसा ही तो
नौकरों से ले सकता हूँ । इसलिए हम चारों जब तक काम करते- करते थक नहीं जाते, घरों को नहीं जाते । "
इस पर नानकचंद ने पूछ लिया, " वे नौकर नाराज नहीं होते ? "
" उन्हें वेतन के साथ बिक्री पर कमीशन भी देता हूँ । इस कारण वे काम करते हैं और थकते नहीं । वे बिक्री
बढ़ाने के नए- नए तरीके बरतते रहते हैं । उनको कमीशन रात को ही दे देता हूँ और मैं भी अपना वेतन रात को
लाकर शकुंतला को दे देता हूँ । "
नानकचंद मुख देखता रह गया । तदनंतर विचार कर पूछने लगा, " और किसी दिन छुट्टी नहीं करते ? "
" सप्ताह में एक दिन बाजार बंद करने का विचार कर रहे हैं , परंतु बाजारवाले मेढकों की पंसेरी हैं । इकट्ठे होते
ही नहीं । "
विवाह के दिन वह ससुराल में गया । शकुंतला ने जरीदार जंपर और साड़ी पहने हुए थे। उसके सैंडल भी बहुत
बढिया सुनहरी रंग के थे। वह विवाहवाले लड़के की बहन लग रही थी । मनोहरलाल भी पतलून, कोट , नेकटाई
और कॉलर पहने हुए था । सिर पर रेशमी पगड़ी बाँधे हुए था ।
पति - पत्नी जब ससुराल पहुँचे तो मिस्टर नरूला भी वहाँ खड़ा मित्रों से बातें कर रहा था । उसने मनोहरलाल
और शकुंतला को वहाँ खड़े लोगों से बढिया वस्त्र पहने आते देखा तो चकित रह गया ।
मकान के बाहर शामियाना लगा था और बारात के साथ जानेवाले लोग उसके नीचे एकत्र हो रहे थे। मिस्टर
नरूला ने आगे बढ़ मनोहरलाल से हाथ मिलाते हुए पूछ लिया, " हैलो! वह खद्दर का सूट कहाँ गया है? "
" वह भी है । परंतु आज यह भी पहन लिया है । "
" तो समझ गए हो ? "
" क्या समझ गया हूँ ? "
" यही कि तुमने भूल की थी । बताओ, अब कहाँ काम करते हो ? "
“ एक दुकान पर काम करता हूँ । "
" वो दिमाग ठीक हो गया ? "
" जी । "
" ईश्वर का धन्यवाद है । जल्दी ही समझ आ गई है । मैं तो पहले ही कहता था कि कोमल घास बन जाओ। "
" सर! हूँ तो अब भी वही सूखी लकड़ी ही । अंतर यह आया है कि यह नया मालिक लकड़ी के गुणों को
पहचानता है और लकड़ी से काम लेता है । "
" कौन है वह मालिक ? "
" हुजूर! कभी दुकान पर आएँ । आपकी उनसे भेंट करा दूंगा । "
" आऊँगा । किस दुकान पर काम करते हो ? "
" सन राइज बुक डिपो । अनारकली बाजार । "
" क्या वेतन देते हैं ? "
" इतना कि यह सूट खरीद सकता हूँ और शकुंतला को भी देखा है ? उसकी साड़ी को देखा है ? "
" बहुत चमक रही थी ! कितने की खरीदी है? "
" उसने बताया नहीं । "
इस समय नानकचंद गुलाबी पगड़ी बाँधे हुए आ गया और दामाद से बोला, " मनोहर! जल्दी करो । बारात
चलने का समय हो गया है । मेरे साथ इधर आओ। "
नरूला साहब से अधिक बात नहीं हो सकी ।
विवाह के कई दिन उपरांत एक दिन नरूला अनारकली बाजार में से जा रहा था कि उसकी दृष्टि सन राइज
बुक डिपो के बोर्ड पर जा पड़ी । उसे स्मरण आ गया कि नानकचंद का दामाद मनोहरलाल इस दुकान पर काम
करता है । वह उससे मिलने दुकान में जा पहुँचा । मनोहरलाल एक कोने में मेज - कुरसी लगाए बैठा था और नौकर
ग्राहकों को पुस्तकें दिखा रहा था । मनोहरलाल अपने सामने किसी हिसाब रखने की किताब पर कुछ लिख रहा
था । मिस्टर नरूला ने दुकान में ज्यों ही प्रवेश किया तो एक नौकर आगे आ पूछने लगा, "किस विषय की पुस्तक
चाहिए? "
नरूला हँस पड़ा और बोला, " मुझे यह व्यसन नहीं है । " और वह मनोहरलाल की मेज की ओर बढ़ा। मेज के
समीप पहुँच उसने कहा, " मनोहर! तो यह है तुम्हारी सनराइज बुक डिपो? "
नरूला की आवाज सुन मनोहर ने उठ हाथ जोड़ नमस्ते कही और अपने समीप रखी कुरसी पर बैठने के लिए
कहने लगा ।
नरूला ने कुरसी पर बैठते हुए कहा , "मैं बाजार से गुजर रहा था । वैसे दुकान तो मैं वर्षों से देख रहा हूँ परंतु
आज देखी तो तुम्हारी याद आई और तुम्हारे मालिक को देखने चला आया। "
" कुछ काम है उससे ? "
"मैं देखना चाहता हूँ कि कौन है वह, जो सूखी लकड़ी को पसंद करता है? "
मनोहरलाल हँस पड़ा । हँसते हुए बोला, " आप मेरे पिता-तुल्य हैं । इससे आपसे बहस नहीं कर सकता । इस पर
भी एक छड़ी तो आपने भी हाथ में पकड़ी हुई है । कोमल घास को पकड़ आप क्यों घूमते ? "
" यह तो बुढ़ापे में सहारे के लिए पकड़ ली है । इस समय मैं पचपन वर्ष का हो गया हूँ और लकड़ी का सहारा
सुखकारक प्रतीत होता है । "
“ यही बात मेरे मालिक की है । उसे भी एक लकड़ी का सहारा सुखकारक प्रतीत हुआ है और उसने सरकारी
कार्यालय से बाहर फेंकी हुई सूखी लकड़ी उठा ली है और उसे अपना सहारा बना लिया है । "
" हाँ ! लकड़ी भी तो काम देती ही है, मगर कोई काम लेनेवाला हो तब । "
" जी , मगर घास से कोई काम नहीं लेता । उसे रौंदते हुए लोग सैर करते हैं और अब बताइए , आप चाय लेंगे
अथवा कॉफी ? "
नरूला हँस पड़ा । वह बोला, " मैं तो इस दुकान के मालिक से मिलने आया था । "
" वही तो आपसे चाय पूछ रहा है । "
" क्या मतलब ? दुकान के मालिक तुम हो? "
" जी । यह आपकी ही दुकान है । "