सूझ (मराठी कहानी) : रत्न प्रभा शहाणे

Soojh (Marathi Story) : Ratna Prabha Shahane

कल्पना हताश होकर आखिर बालविहार पार्क में अकेली ही आकर एक बेंच पर बैठ गई।पैंतीस साल पहले वह इसी तरह इस पार्क में आई थी।तब सुरेश से उसकी शादी तय हुई थी और सगाई भी हो चुकी थी।लेकिन सुरेश कल्पना से कभी अकेले में नहीं मिल पाता था।हमेशा आसपास कोई न कोई मौजूद रहता।एक बार उसने उससे कहा - आज शाम को बालविहार पार्क में आओगी?
धड़कते दिल से उसने कहा था - इससे तो हम सिद्धार्थ होटल में चलते हैं।
नहीं ।नहीं वहाँ कितना शोर - शराबा रहता है।मैं तुमसे अकेले में मिलकर भावि जीवन की बातें करना चाहता हूँ।जरूर आना मैं इंतजार करुँगा।
धड़कते दिल से वह पहुँची भी थी। दोनों ने बैठकर भविष्य के रंगीन सपने सजाए थे।

लेकिन आज वह अकेली थी। पैंतीस साल के वैवाहिक जीवन के बाद सुरेश उसे छोड़कर चला गया था। स्वस्थ होने के बावजूद केवल दो दिन की बीमारी उसे अपने साथ ले गई।क्या हुआ था इस बात का अनुमान तो डाक्टर भी नहीं लगा पाए थे।उसके कुछ दिन पहले ही दोनों ने बैठकर कहाँ जाना है,कैसे जाना है पर चर्चा की थी।

वैसे देखा जाए तो उसका जीवन सुरेश के संग बडे आनंद से बीता था।सुरेश की स्टेट बैंक में नौकरी थी और कल्पना की सरकारी कार्यालय में।दो बच्चे थे - अश्विन और अदिति। बच्चों को उसने बहुत ही परेशानी और श्रम से बड़ा किया था।बच्चों की पढाई, उनकी शादी सब कुछ जिम्मेदारी पूर्वक निभाया था।नाते - रिश्तेदारों से वह बहू - दामाद की तारीफ करते थकती नहीं थी।

अदिति और श्वेता दोनों प्यार से दोस्त बनकर रहती।अश्विन की शादी पहले हुई थी।जिस कारण से दोनों का लम्बा साथ रहा। दोनों की नौकरी थी परन्तु फिर भी शाम को घर आने पर दोनों ही रसोई की जिम्मेदारी संभाल लेती थीं।छुट्टी के दिन नया कुछ बनाती।कभी चीज अच्छी बनती तो कभी बिगड़ती। परंतु फिर भी दोनों आनंद और मस्ती से काम करती।इस पर कल्पना कहती - जो कुछ भी होता है अच्छे के लिए ही होता है और फिर हँसने का दौर शुरु हो जाता।
सुरेश के जाने के पश्चात बहुत दिनों बाद इस घर की दीवारों ने इतना हँसना सुना था।

दोनों बच्चों का विवाह कल्पना के जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ था और वास्तव में दोनों के विवाह के पश्चात उसने चैन की साँस ली थी। दो महीने ही हुए थे और एक दिन अदिति घर वापस आई।चेहरा उतरा हुआ था और आँखें निस्तेज थी।उसे देखते ही कल्पना ने चिंतित स्वर में उससे पूछा - अदिति क्या हुआ? सब ठीक तो है न ? इस तरह अचानक कैसे चली आई? आज ऑफिस नहीं गई?
माँ के प्रश्नों के उत्तर दिये बगैर वह माँ की गोद में घुस गई और जोर - जोर से रोने लगी।
क्या हुआ? कल्पना अपना हाथ उसकी पीठ पर फेरते हुए बोली।
कुछ बोले बगैर ही अपने कुरते की बाँह उसने सरका ली।
अरी क्या हुआ? कहीं गिर गई थी क्या?ऐसे कैसे चोट पहुँची?
अदिति के विलाप से लगा जरुर कोई बात है।
ये घाव मारने के थे या कुछ और?
सतीश सतीश ने।। आगे के शब्द उसके गले में ही अटक गए।
सतीश ने ? कल्पना ने घबराकर पूछा।
ऐसा क्या हुआ था जो सतीश ने तुम पर हाथ उठाया।
कुछ देर पश्चात शांत होने पर उसने माँ को बताया कि सतीश को शराब की लत है।बार - बार वह उससे पैसे माँगता रहता है।और न देने पर हाथ उठाता है।

समग्र परिवार के लिए यह बहुत बडा झटका था।अश्विन घबरा गया था और श्वेता व्याकुल हो गई थी। तीनों ने मिलकर सतीश को समझाने का बहुत प्रयत्न किया परन्तु कोई भी लाभ न हुआ।अदिति घर वापस लौटी।सतीश भी घर छोडकर चला गया था। जाते हुए अदिति को कह गया दृ ये घर मैं तुम्हारे नाम करनेवाला हूँ।तलाक के पेपर वकील तैयार कर रहे हैं परंतु सभी पर तुम्हें हस्ताक्षर करने होंगे।

और अदिति पुनः घर लौटी हमेशा के लिए।अश्विन उसे हिम्मत बंधाता। कल्पना शांतरूप से उसे समझाती।परंतु श्वेता का अचानक बोलना बंद हो गया था। दफ्तर से लौटने के बाद घर के बचे - खुचे काम निबटा कर वह अपने कमरे में लौट जाती। जिस अदिति के साथ वह इतने प्रेम से पेश आती उससे भी उसने बोलना बंद कर दिया था।अदिति के दुःखों के साथ श्वेता के इस तरह के व्यवहार का प्रश्न सबके मन में आश्चर्य जगाने लगा।

और एक दिन श्वेता ऑफिस गई फिर लौटी ही नहीं।पीहर नजदीक ही था अतः माँ के घर आती - जाती रहती थी।आज भी माँ के घर ही गई होगी इस सोच के साथ ही वह चुप बैठी रही।परंतु अश्विन ने फोन किया - श्वेता क्या हुआ? आज वहीं रुकनेवाली हो?
हाँ। श्वेता का जवाब था।
श्वेता लेकिन कल जरुर आ जाना। घर में ये सब चल रहा है और सच कहूँ ,तुम्हारे बिना मेरा कहीं दिल नहीं लगता।
प्रेम? आनंद ? अब वो सब भूल जाओ अश्विन।
ऐसा क्यों कर रही हो? अदिति पर आए संकट से हमें उसे उबारना होगा।
तुम्हीं कर सकते वो काम। मुझसे होगा नहीं।इसके साथ ही लोकल आने की दिशा में निकल गई।
अश्विन चिंतित हो गया। ये कौन - सा नया तरीका है?
श्वेता आठ दिन के बाद घर लौटी थी।अश्विन बहुत गुस्से में था।
श्वेता, तुम्हें एक तो कुछ समझ में नहीं आता, उस पर तुम्हारी मां ने भी तुमसे कुछ नहीं कहा?
माँ ने कहा।तुमने कहा वही माँ ने भी कहा।मैं ये सुन -सुनकर थक चुकी हूँ। और देखो इसमें मेरी माँ को बीच में न ही लाओ तो अच्छा है।ये मेरा निर्णय है।

उस दिन कल्पना को जितना दिखाई दिया उतना काम किया।सभी के साथ बैठी खाना खाया और अपने कमरे की ओर जा रही थी तभी कल्पना बोली - श्वेता दो मिनिट रुको । तुम्हारे यहाँ सब ठीक है।न?तुम एक हफ्ता वहाँ रहकर आई इसलिये मैंने पूछा।
हाँ ! सब ठीक है।

फिर तुममें और अश्विन में किसी बात को लेकर कोई बहस हुई है क्या?देखो पति - पत्नी में ऐसी बहस तो होती रहती है पर वह होती है ग्रीष्म में छाए बादलों सी।जो आते हैं और चले जाते।हैं।बरसते नहीं। दो लोग जब मिलते हैं तो ऐसा होता ही है।उसमें गुस्सा या उदासी तो नहीं कर सकती।इस घर में तुम कितना सुकून और खुशियाँ लेकर आई हो, नहीं जानती।तुम्हारे बिना ये घर यानि।कल्पना बोलते - बोलते रुक गई। शब्द गले में ही अटक गए।
श्वेता खिड़की से बाहर उस समग्र परिसर को देख रही थी जो अंधेरा निगल रहा था।
देखो तुम अभी छोटी हो।ऐसी गलतियाँ तो होती रहती है लेकिन हमें उन्हें भुलाकर कदम आगे बढाते रहना चाहिए।

कल्पना व्याकुल होकर बोली जरूर थी मगर उसी क्षण उसने श्वेता के कदम आगे बढ़ते देखे।उसकी परछाइँ को देखते हुए वह बोली - जाओ , सो जाओ अब शांति से।ये घर तुम्हारा है श्वेता और इस घर के लोग भी तुम्हारे।
इन बातों का श्वेता के मन पर कितना असर पडा नहीं मालूम!

लेकिन उनके कमरे की लाइट जरूर देर तक जल रही थी।शब्दों की मारा - मारी भी काफी देर तक चलती रही।उसके बाद श्वेता दो हफ्तों तक घर पर ही थी।बिल्कुल शांत, न किसी से बोलना न बात करना।अदिति से तो बिलकुल भी नहीं।घर में शांति काटने को दौड रही थी।कल्पना को श्वेता के इस तरह के व्यवहार का मतलब धीरे - धीरे समझ में आ रहा था और वह था अदिति का हमेशा के लिए इस घर में आना।कल्पना दोनों तरफ से दुःखों के घेरे में आन फँसी थी।
श्वेता फिर से माँ के यहाँ चली गई और एक दिन अश्विन के ऑफिस से निकलते समय वह बाहर उसका इंतजार करते दिखाई दी।
कैसी हो? उसने पूछा।
ठीक हो। तुम?
ठीक! माँ ?
वो भी ठीक है।
कॉफी पीयें? उसने पूछा।
चलो। दोनों ही चल पडे।
रेस्टोरन्ट में जाने के बाद उसने पूछा।
खाने के लिए क्या मँगवाऊं? तुम्हें कटलेट्स पसंद हैं ।वह मँगवाऊँ?
उसने गरदन हिला दी और कहा।
मुझे तुम कुछ दुबले लग रहे हो।ठीक से खाना तो खाते हो न? मै ठीक हूँ।
मैं तुमसे मिलने आई हूँ, इसका कारण बताना चाहती हूँ।
अश्विन केवल उसकी ओर देखता रहा।
मैंने अपना करियर बनाने का निश्चय किया है।
अश्विन को कल्पना थी ही फिर भी आगे क्या सुनने को मिलेगा यही विचार उसके मन में आया।
मेरा वैसे भी एम। ए। हो चुका है,मैं अब एम। बी। ए। करना चाहती हूँ। जिससे मेरी नौकरी के प्रेास्पेक्ट्स सुधरेंगे।मुझे अपना करियर बनाना है अश्विन।
और इसके बारे में उसके बॉस ने क्या कहा होगा? यही सोच रहा था।
बोलो न कुछ? तुम्हें क्या लगता है?

मुझे क्या लगता है इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है तुम्हें क्या लगता है?जीवन तुम्हारा है और उसे सँवारने का अधिकार भी तुम्हें।लेकिन इस दौरान हमारे रिश्ते का प्रिती बंध न टूटे क्योंकि इसी से हमारा जीवन समृद्ध होगा।
कटलेस बडे चाव से खाते हुए ही वह बोली- सच कह रही हूँ अश्विन, उस घर में अब मेरा जी घुटने लगा है।

जी घुटना, यानि क्या? अच्छा तीन बेड़ रूम का फ्लेट है, तुम्हें लाड़ करनेवाली तथा प्यार करनेवाली सास है।बहन सा प्रेम करनेवाली अदिति है। तुम्हें घर में हर प्रकार का स्वातंत्र्य है।फिर भी तुम्हारा जी घुटता है?
अरे, ऐसा क्या करते हो? मेरी माँ के घर से युनिवर्सिटी जाने का रास्ता केवल पंद्रह मिनिट का है।
और अपने घर से आने में मुझे आधा घंटा लगता है।

हाँ रे, पर बेटा मैं भी जानती हूँ तलाक के पशचात अदिति वापिस अपने घर आ गई है।यह बात तुम्हारे मन में भी घर किये हुए है।लेकिन श्वेता अभी समय हमें अदिति को मानसिक आधार देने की आवश्यकता है।भविष्य में वह पुनः अपना घर बसाए इसलिए हमें उसे मानसिक रूप से तैयार करना होगा और तुम तो
अश्विन चुप ही रहा।रेस्टोरन्ट की भीड़ बढ़ गई।वह बोला - चलो, तुम्हें देर हो रही है माँ इंतजार करेगी

श्वेता हमारे माता - पिता ने हमें सिखाया है कि परिवार में अपनों से प्रेम का रिश्ता बनाए रखना चाहिए। जीवन में उसका बहुत महत्त्व है।बहुत - बहुत ! पर मुझे और अदिति को इसमें यश नहीं मिला।श्वेता, जीवन के इस मोड पर मुझे तुम्हारे साथ की बहुत आवश्यकता है।

उसने हाथ आगे बढाया और श्वेता ने काफी देर तक उसे थामे रखा।बाय ,श्वेता कहकर अश्विन निकला और कुछ ही देर में श्वेता भी। एक ही स्टेशन पर अलग - अलग दिशा में जाने के लिए।
घर पहुँचते ही अदिति गेलेरी में उसका इंतजार करते दिखाई दी।उसे देखते ही बोली - आज देर हो गई?
जवाब देने की खातिर ही उसने कह दिया -कैसे गुजरा तुम्हारा दिन आज?
बहुत अच्छा ! हमारे बॉस जो प्रोजेक्ट शुरु कर रहे हैं उस टीम में मुझे शामिल किया है।
उसने शाबासी देते हुए उसकी पीठ सहलाई और दोनों अंदर आ गए।
आओ , हम दोनों थोडी - थोडी चाय पीते हैं। फिर तुम्हारे नहाने के बाद खाना खाऐंगे।कल्पना बोली।
अश्विन को सुबह शाम दोनों समय नहाने की आदत थी।
खाते समय कल्पना ने पूछा - श्वेता मिली थी?
हाँ। अश्विन ने गर्दन हिलाते हुए कहा। करीयर बनाने की सोच रही है।एम। बी। ए। करना चाहती है।
अरे वाह, बहुत अच्छी बात है।रोज के टिफिन के अलावा भी मैं उसे कुछ बना दिया करुँगी।आने में भी देर हो जाएगी उसे।एक - दो साल थोडी तकलीफ होगी।
अश्विन के हाथ का कौर हाथ में ही रहा। तह दोनों की नजर चुकाते हुए बोला - माँ के यहाँ रहकर वह यूनिवर्सिटी जाना चाहती है।

लेकिन बिचारी शालिनी जी,को क्यों परेशान करना? दो महीने पूर्व ही उनके पेट का ऑपरेशन हुआ था। उनका करने के लिए तो बाई है।पर वो भी कभी आती है, कभी नहीं।उससे कहो यहीं रहे।मुझे कोई तकलीफ नहीं होगी।उसकी पढाई से मुझे आनंद ही होगा।
आज तुम्हारे बाबा होते तो वास्तव में उन्हें कितना आनंद होता!
कल्पना अपनी ही धुन में थी ।अदिती को थोडा शक जरूर हुआ था। उसके आठ दिन बाद श्वेता घर वापिस आई थी।बहुत खुश थी वह।
कल्पना और अदिती को भी अच्छा लगा।कल्पना ने उसे खाने के लिए लड्डू और चिवडा दिया।आनंद से खाते - खाते वह बोली - माँ ,मुझे यूनिवर्सिटी में एडमीशन मिल गया है।मैंने एम। बी ए। करने की सोची है ।अगले हफ्ते से मेरे क्लासेस शुरु होनेवाले हैं। मैं अपने थोडे कपडे ले जाने के लिए आई हूँ।एक बार में ही वह बोल गई।
देखो, शलिनीजी की हाल ही में सर्जरी हुई है। अतः उन पर परेशानियों का बोझ डालना ठीक नहीं।ठीक से सोच लो।
श्वेता क्षणभर रुकी और फिर बोली - मुझे वहाँ से युनिवर्सिटी नजदीक पडती है और मेरे वहाँ रहने से माँ का आधार भी बना रहेगा।
इसके अलावा काम के लिए और साथ रहने के लिए कमलाबाई हैं ही।
बेटा, तुम्हारे यहाँ रहने से तुम्हारा बीस मिनिट का सफर ही बढेगा जबकि तुम्हारे जाने से ये घर हमें सूना लगेगा।
कल्पना के ये शब्द श्वेता के मन में हलचल जरुर मचा गए, पर क्षण भर के लिए ! उसने जो विचार किया था वह उसके मन में पकड़ जमाए बैठा था।
वह उठकर उसके बेडरुम में आई।उसके पीछे अश्विन भी आया।उसे देख वह रुखेपन से बोली दृ तुम्हें और कुछ कहना है?
मुझे जो कुछ कहना था वह मैं पहले ही कह चुका हूँ।
तुम्हारे कहे अनुसार अगर मैं चली तो मेरा जीवन जरूर थम जाएगा।निर्णय तो मुझे लेना ही होगा।
उसने उसकी ओर देखे बगैर ही सूटकेस में कपडे डाले और बाहर आकर कल्पना से कहा - मैं निकल रही हूं।

एक हाथ में पर्स और दूसरे हाथ में सूटकेस ले कर दरवाजा बंद करते हुए निकल गई थी। उस बंद दरवाजे को देख कल्पना के आहत मन से एक सिसकी जरुर निकल गई थी और यह दूसरा अपयश सहने की शक्ति ईश्वर से माँग ली।

श्वेता उस घर से चली जरुर गई थी मगर सारी रौनक ले गई थी। अदिती के तलाक के कारण उसका मन एक प्रकार से सामाजिक और मानसिक बंधन में बँध गया था।अश्विन कुछ कह नहीं पाता था मगर उसकी मानसिकता ने उसे घेरे रखा था।घर आने के बाद भी वह घंटों कम्प्यूटर के सामने बैठा रहता और उन दोनों को देख - देखकर कल्पना की मानसिकता भी जवाब दे गई थी।दोनों को जिंदगी की लंबी मंजिल तय करनी थी और दोनों को एक - दूसरे से छलावा ही मिला था।उसका अपना जीवन सुरेश के साथ बहुत ही सुख और संतोष के साथ गुजरा था और अब जीवन के इस दौर में ये दुःख !

श्वेता ने बडे उत्साह के साथ अपना शैक्षणिक सत्र शुरु किया था।उसकी पढाई में तीन साल का अंतराल पड़ गया था क्योंकि एम। ए। करने के बाद उसने तीन साल नौकरी की थी।पैसा कमाने का वह आनंद अनोखा था।विवाह के पश्चात थोडे बहुत बंधनों ने जरुर उसे घेर लिया था।कुछ स्वेच्छा से स्वीकृत थे तो कुछ परिस्थितिवश ।इसी कारण से उसे यह बदलाव आवश्यक लग रहा था। पढाई में होशियार होने के कारण उसे खास श्रम नहीं करना पडा और गाडी तुरन्त ही पटरी पर आ गई थी।

दो महीने बीत गए थे उसके नजरिये से सबकुछ ठीक चल रहा था और एक दिन उसकी छोटी बहन वृषाली आठ दिन के लिए उनके यहाँ आ गई।साथ में उसका साढ़े तीन साल का छोटा बेटा कुणाल। वास्तव में तो वह शालिनी जी से मिलने ही आई थी।उनकी सर्जरी हुए चार महीने होने आए थे फिर भी इच्छा होने के बावजूद वह उनसे मिल नहीं पाई थी।उसी समय श्वेता को भी तीन दिन की छुट्टी थी। जिस वजह से श्वेता को भी उससे खुलक र मिलने का मौका मिला था।

एक शाम दोनों छत पर जा बैठी। वृषाली बहुत ही प्यार और उत्साह से अपने पति के बारे में सबकुछ बता रही थी।जबकि घर के बारे में और सास के बारे में बहुत कुछ बता रही थी। श्वेता सुन रही थी। तभी कुणाल दौडकर आता और आकर माँ की गोद में छुप जाता। माँ, तुम कहीं मत जाना। मैं अभी दौड़कर आया।
वृषाली ने उसे अपने करीब लेकर उसकी पप्पियाँ लेते हुए कहा - नहीं बेटा, मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी।

श्वेता देखती ही रह गई।वृषाली के मन का आनंद उसके चेहरे पर झलक रहा था।वात्सल्य का संतोष जो उसके मन में था वह उसके समग्र शरीर पर दिख रहा था।विवाह से पहले वह दुबली थी लेकिन अब उसका शरीर काफी भरावदार था और उसका सौन्दर्य निखर आया था। श्वेता देख ही रही थी।सुखी वैवाहिक जीवन तथा मातृत्व का आनंद एक अलग ही सुख देनेवाला था।अवर्णनीय, अनामिक और अतुल्य !

श्वेता के मन में उथल - पुथल मची हुई थी पूरा हफ्ता निकल गया था और अब वृषाली के जाने का दिन आ गया था। श्वेता ने उससे कहा - वृषाली ,तुम आई ,हमें बहुत अच्छा लगा और दो चार दिन रुक जाती तो अच्छा रहता।

जरुर रह जाती लेकिन प्रशांत के रोज फोन आ रहे है। वो मेरा इंतजार कर रहा है।सच कहूँ श्वेता , उसके बगैर मेरा और मेरे बगैर उसका जीवन अधूरा है।और मेरी सास हैं न ।मेरे घर में न रहने पर वो अपने खाने पीने का भी पूरा ख्याल नहीं रखती।

उस दिन श्वेता देखती ही रह गई थी। कॉलेज में जाने पर भी लेक्चर में उसका बिल्कुल ध्यान नहीं लग रहा था।बार - बार उसकी नजरों के सामने वृषाली, प्रशांत, कुणाल और उसकी सास ही आ रहे थे।उसने लेक्चर की ओर ध्यान देने की कोशिश की और खत्म होते ही पहली लोकल पकडी।वह बहुत थक गई थी। आते ही बिस्तर पर लेट गई।
क्या हुआ श्वेता? तबीयत ठीक नहीं है? शालिनीजी ने उसके कमरे में झाँकते हुए पूछा।

हूं।।आधे घंटे बाद उसने सेल फोन उठाया और अश्विन को लगाते हुए उसने कहा - अश्विन तुम घर आ गए हो, मैं - मैं आ रही हूँ। तभी श्वेता उठी तैयार हुई और माँ से कहा - माँ मैं घर जा रही हूँ।
तुम्हारी गलती तुम्हारी समझ में आ गई वो अच्छा हुआ।मैंने कितनी बार तुम्हें समझाया लेकिन उसका कोई उपयोग न हुआ।
श्वेता ने माँ के पैर छूते हुए उनके साथ रहने वाली बाई से कहा - माँ का ठीक से ध्यान रखना।
आधे घंटे में ही वह घर आ गई। अश्विन को देख उसकी आँखें भर आई। माँ कहा गई?और अदिति अभी तक नहीं आई ?
माँ आजकल शाम को पार्क में जा कर बैठती हैं।
और अदिति ?
वो उसके फ्लेट में रहने चली गई।
वो उसके फ्लेट में रहने गई? अकेली?
नहीं! माँ उसके साथ रहती है।
ओ माय गोड ! मैं ये क्या सुन रहीं हूँ। चलो, हम माँ गई वहीं चलते हैं।
श्वेता, थोडा धीरज रखो।उसने उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा।

श्वेता लिफ्ट की ओर चलने लगी।दरवाजा बंद करके अश्विन भी उसके साथ हो लिया।बालविहार पार्क वहाँ से नजदीक ही था।दोनों चलते ही निकल पडे थे।कल्पना कोने के एक बाकडे पर बैठी हुई थी।अकेली ही।सामने फुव्वारे के आसपास बच्चे खेल रहे थे।फुव्वारे के आसपास जाली लगी हुई थी और उससे उड़ती तुषार की बूँदों से बच्चे अपने आप को भिगोते हुए नाच रहे थे।पानी शीतल स्पर्श उन्हें आनंद दे रहा था। असंतोष में संतोष ढूंढ रही थी।अश्विन उसके पास जा बैठा और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए उसने पुकारा - माँ।
चौंकते हुए कल्पना ने मुड़कर देखते हुए कहा - अश्विन, बेटा तुम यहाँ? माँ, मैं अकेला ही नहीं। जरा मुडकर देखो।
कल्पना ने मुड़कर देखा। पीछे श्वेता खडी थी।
श्वेता,तुम? कब आईं?

श्वेता का गला भर आया। कल्पना से उसने कहा - माँ , चलो अपने घर।मैं जाकर अदिति को लेकर आती हूँ।हम पहले की तरह सब साथ रहेंगे।बोलते - बोलते वह कल्पना से लिपट गई।
बहुत अच्छा। लेकिन बेटी तुम अपनी पढाई मत छोडना। वरना मुझे बहुत बुरा लगेगा।आओ ,बैठो मेरे पास।
कल्पना के पास बैठते हुए श्वेता बोली - चलो माँ , पहले हम अदिति को घर ले आते हैं।
कल्पना मन में नए सपने पिरोते खुशी - खुशी श्वेता और अश्विन के साथ चल दी।

(अनुवाद - लता सुमंत)

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