सोन मछली (रूसी कहानी) : इओसिफ दिक
Son Machhli (Russian Story in Hindi) : Iosif Dik
जब मैं छोटा था तो माँ को पिताजी से यह कहते सुना करता था, ‘‘कैसे विचित्र आदमी हो तुम! ठीक है, नाटक-सिनेमा के लिए तुम्हारे पास समय नहीं है, पर कभी-कभार मेरे लिए कुछ ला तो सकते हो—सेंट की शीशी या और कुछ। लाने को तो यह सब मैं खुद भी ला सकती हूँ, पर तुम कोई उपहार दो तो ज्यादा अच्छा लगेगा।’’
मेरे पिता अध्यापकों के एक प्रशिक्षण महाविद्यालय में भूगोल के शिक्षक थे। जब वह घर पर होते, एक मोटी-सी किताब पढ़ते रहते।
एक दिन शाम के वक्त वह बड़े खुश-खुश लौटे और आते ही बोले, ‘‘आज तुम कुछ नहीं कह सकोगी। लो, पकड़ो इसे, देखो इसमें क्या-क्या है। तुम्हारी तबीयत खुश हो जाएगी!’’ यह कहते हुए उन्होंने अपना ब्रीफकेस आगे बढ़ा दिया।
माँ की खुशी का ठिकाना न रहा। मुझे सीने से लगाकर, कमरे में नाच-नाचकर गाने के लहजे में कहने लगीं, ‘‘देखा जाए, तुम्हारे पिताजी क्या लाए हैं? देखा जाए...’’
उन्होंने ब्रीफकेस को बड़े एहतियात से मेज पर रखकर खोला और तत्काल चौंककर बोलीं, ‘‘यह क्या है? यह मेरे लिए क्या ले आए तुम? मर्दों के इस्तेमाल के ‘यू डी कोलोन’ का मैं क्या करूँगी? मैं क्या दाढ़ी बनाती हूँ? सचमुच तुम बच्चे ही रहोगे!’’
माँ की आँखें डबडबा आई थीं और उनका हाथ काँप रहा था। माँ के दुःख से मैं भी दुखी हो उठा।
मेरी समझ में एक बात और आ गई। मैं और मेरे पिता एक ही भाषा में बात कर सकते हैं। माँ ने उन्हें बच्चा कहा था और मैं भी बच्चा था।
बस, मैं अपने पिताजी के पीछे पड़ गया, ‘‘मेरे लिए एक सोन मछली ला दीजिए। ला देंगे न? उस बिल्ले के साथ खेलते-खेलते मैं ऊब गया हूँ। वह पंजे मारता है। मेरे लिए सोन मछली ला दीजिए।’’
पिताजी से सोन मछली की माँग करने में मेरा एक उद्देश्य था। मेरी माँ पुश्किन की परी-कथाएँ सुनाया करती थीं। मछुआरे और सोन मछली की कहानी मुझे बड़ी अच्छी लगती थी। खासतौर पर जब वह जादुई मछली इनसानी आवाज में कहती है, ‘‘ऐ बूढ़े, मुझे समुद्र में छोड़ दे, इसके बदले में मैं तुझे मालामाल कर दूँगी।’’
मैं समझता था कि सोन मछली कोई साधारण मछली नहीं है। अगर वह हमारे घर में आ जाए तो माँ को रोज उपहार मिला करेंगे।
मेरे पिताजी ने अचरज के साथ पूछा, ‘‘तुम्हें मछली चाहिए? यह तो मैं पहली बार सुन रहा हूँ। तुम्हारी माँ तो कुछ-न-कुछ लाने के लिए कहती ही रहती है, अब तुम भी कहने लगे। समझ में नहीं आता क्या करूँ। अच्छा, मान लो तुम्हारे लिए कवई या और कोई मछली ला दूँ तो?’’
मैंने दृढ़ता से कहा, ‘‘नहीं, मुझे तो सोन मछली ही चाहिए।’’
आखिर वह राजी हो गए और बोले, ‘‘अच्छा, ला दूँगा। पर तुम उसका करोगे क्या?’’
मैंने बात को टालने के लिए कहा, ‘‘मुझे कुछ काम है। पर देखिएगा, आप भी खुश हो जाएँगे।’’
फिर एक दिन एक शीशे का मर्तबान लेकर हम जीव-जंतुओं की दुकान पर गए।
उस दुकान पर सारी सोन मछलियाँ ही थीं। जब हम लौटे तो मेरे हाथों में मछली रखने का काँच का एक बरतन था और मेरे पिताजी वह मर्तबान लिये हुए थे, जिसमें सोन मछली थी।
घर पहुँचकर हमने काँच के बरतन में थोड़ा बालू डाला और फिर उसमें गुनगुना पानी भरा। इसके बाद वह मछली उसमें डाल दी।
पूरे-पूरे दिन मैं खिड़की में रखी मछली को ताकता रहता। अपने काँच के घर में वह तैरती रहती और कभी-कभी अपने पंखों से बालू को कुरेदती, जैसे सचमुच के समुद्र में हो।
मछली से मेरी बड़ी दोस्ती हो गई। मैंने एक नन्ही-सी झोंपड़ी बनाई और उसे काँच के बरतन में रख दिया। मछली तैरती हुई उसके दरवाजे से प्रवेश करती और खिड़की से निकल जाती। जिस तरह मेरे पिताजी ने सिखाया था, मैं काँच के बरतन पर उँगली से ठुक-ठुक करता और मछली पूँछ फैलाए तैरती चली आती। लगता, जैसे वह कोई बड़ी गुप्त बात बताने आई है।
एक दिन घर पर कोई नहीं था। मैंने बड़ी सावधानी से मछली को बरतन में से उठा लिया। वह ठंडी और चिकनी लग रही थी। वह मेरी मुट्ठी में फड़फड़ा रही थी और बार-बार मुँह खोल व बंद कर रही थी।
मैंने सोचा, वह कुछ कह रही है। मैं उसे अपने कान के पास ले गया। तभी लगा कि बुलबुले फूटने की-सी आवाज में वह कह रही है, ‘‘जो चाहो माँग लो, तुम्हें वही मिल जाएगा।’’
‘‘ठीक है,’’ कहते हुए मैंने मछली को फिर बरतन में छोड़ दिया। फिर पानी पाकर वह तेजी से इधर-उधर चक्कर लगाने लगी। मुझे पूरा यकीन था कि वह हमारी बातचीत पर खुशी जाहिर कर रही थी।
उस दिन शाम को पिताजी खाने की मेज पर बैठे चाय पी रहे थे और अखबार पर नजरें दौड़ा रहे थे। माँ घर पर नहीं थीं, किसी बीमार पड़ोसिन को देखने गई थीं। मैं मछली के बरतन के पास गया और काँच को उँगली से ठुकठुकाकर धीरे से बोला, ‘‘सोन मछली, सोन मछली! मेरी माँ को सेंट की शीशी चाहिए। देखो, मेरी बात खाली न जाए।’’
उसके बाद मैं सोने चला गया।
अगले दिन बर्फ गिर रही थी। पिताजी बर्फ से लथपथ घर आए और माँ ने बाहर के कमरे में उनका कोट उतरवाकर धीरे से झटका तो उसकी जेब से शीशी के खनकने की-सी आवाज आई।
जेब से छोटी-सी शीशी बाहर निकलते हुए देखकर उन्होंने अचरज के साथ पूछा, ‘‘यह क्या है?’’
पिताजी ने शर्मीली मुसकान के साथ कहा, ‘‘क्रीमियाई गुलाब है, तुम्हारे लिए।’’
‘‘मेरे लिए?’’
‘‘हाँ, तुम्हारे लिए।’’
‘‘सच कह रहे हो? पहले क्यों नहीं बताया?’’
‘‘अब यह सब छोड़ो।’’ पिताजी ने कुछ बुरा-सा मानते हुए कहा।
मानो अपने पिता के समर्थन में मैं भी बोल पड़ा, ‘‘तुम्हारे लिए है, तुम्हारे लिए। और भी बहुत-सी चीजें आएँगी, देखती जाओ।’’
माँ ने मेरी बात अनसुनी करके भौंहें सिकोड़कर पिताजी की ओर देखा, आनंद के भाव से हँसीं और वह शीशी अपनी शृंगार की मेज पर रख दी।
शाम को मछली के बरतन के पास से गुजरते हुए मैंने देखा, उसके साथ एक कागज लगा है। मैंने सोचा, जरूर मछली ने चिट्ठी भेजी है और चुपके से वह कागज ले लिया। पड़ोस की बीमार फेन्या चाची के पास मैं उस चिट्ठी को ले गया। उन्होंने पढ़कर सुनाया :
‘‘अगड़म-बगड़म—बंबा बो! माँ का कहना मानो और काम में उसकी मदद करो।’’
चिट्ठी लौटाते हुए फेन्या चाची ने पूछा, ‘‘यह क्या मामला है?’’
मैंने कहा, ‘‘कुछ नहीं, यों ही।’’ वे जादू के शब्द मैं दोहराना नहीं चाहता था कि कहीं वह उन्हें याद न कर लें।
घर पहुँचकर मैंने खाने की मेज साफ की और दो जूठी प्लेटें रसोई में रख आया। मैंने स्वयं अपना बिस्तर ठीक किया और पहली बार बिना माँ की मदद के हाथ-मुँह धोए। सोने की पोशाक पहनकर मैंने मछली के बरतन पर उँगली ठुकठुकाकर कहा, ‘‘अगड़म-बगड़म—बंबा बो! सोन मछली, माँ के उपहार के लिए धन्यवाद। मुझे तीन पहियों की एक साइकिल दिला दो, जैसी ल्योवा के पास है।’’
आमतौर पर मैं देर से सोकर उठता हूँ, करीब दस बजे। उसके बाद आँखें मलते हुए रात के सपनों को याद करता हूँ।
पर उस दिन मैं आँखें मलता ही रहा और अपने कान भी मैंने खींचे। मेरे बिस्तर की बगल में चमचम करती, नई, तीन पहियों की एक साइकिल खड़ी थी।
साइकिल की निकेल की पालिशवाली घंटी पर हाथ फेरते हुए मैं सोचने लगा, ‘यह तो सचमुच चमत्कार है। इच्छा करने की देर नहीं कि पूरी हो जाती है। मुझे बराबर माँ की मदद करते रहना चाहिए।’
आधा दिन मैं अपनी साइकिल पर ही घूमता रहा। जब मछली को खिलाने का समय आया तो मैंने उसका सारा चारा बरतन में उड़ेल दिया।
माँ ने पूछा, ‘‘यह साइकिल कहाँ से मिली?’’
मछली के बरतन की ओर देखते हुए मैंने उत्तर दिया, ‘‘हा-हा, तुम देखती तो जाओ, अभी तो बहुत चीजें आएँगी।’’
भोजन के बाद मैं खिड़की के पास जा रहा था कि पिताजी ने मुझे बुलाकर धीरे से कहा, ‘‘अब कुछ दिनों तक मछली से कुछ न माँगना। कुछ दिन आराम करने दो उसे।’’
मैंने पिताजी की सलाह को गौर से सुना। वाकई उस नन्ही-सी सोन मछली को इतनी भारी साइकिल दुकान से यहाँ तक लाने में बड़ी मेहनत करनी पड़ी होगी।
मैं अहाते में खेलता और स्कीइंग करता रहा। मैंने बर्फ से आदमी का पुतला भी बनाया। इस बीच मछली को जरूर मेरी याद आ रही होगी। मैंने सोचा, बिल्ले से उसका परिचय करा दिया जाए। पहले भी वह बिल्ला उछलकर खिड़की पर चढ़ जाता था, पर पिताजी ने उसे इतनी कड़ाई से समझाया था कि वह दूर से ही चमकती हुई सोन मछली को ताकता रहता था।
नए परिचय से वह बड़ा खुश हुआ। मैंने जब उसे मछली के बरतन के पास बैठा दिया तो मारे खुशी के उसकी आँखें एकदम गोल-मोल लग रही थीं। वह म्याऊँ-म्याऊँ कर रहा था और पंजों को बार-बार उठा और रख रहा था।
उस दिन जब मैं बाहर से लौटा तो सोन मछली बरतन में नहीं थी। बिल्ला मेरी ओर पीठ किए फर्श पर बैठा बड़े प्रेम से कुछ चबा रहा था। मेरे मन में भय समा गया और मैं उसकी ओर लपका। उसकी गरदन पकड़कर अपनी ओर घुमाई तो देखा मछली की सुनहरी पूँछ उसके मुँह में लगी हुई थी।
मैंने बिल्ले को एक घूँसा जमाया और फिर काँच के बरतन में हाथ डालकर टटोला कि शायद सोन मछली अभी भी उसमें हो। पर वहाँ कुछ नहीं था। ओवरकोट और टोपी पहने-पहने ही मैं फर्श पर हाथ-पैर पटककर रोने लगा।
चीखकर मैंने बिल्ले से कहा, ‘‘पक्का शैतान है! मैं तो सोन मछली से कहने वाला था कि हमें समुद्र-तट की सैर को ले चले और ल्योवा से कह दे कि वह मेरा स्कीइंग का सामान न ले...मैं सोन मछली से एक राइफल और हवाई जहाज भी माँगने वाला था, ताकि कुछ करके दिखा सकूँ। पर अब तो सबकुछ तूने अपने पेट में भर लिया।’’
उसी समय पिताजी आ गए। ठंड से उनका चेहरा लाल हो रहा था।
मैं चिल्लाया, ‘‘पिताजी!’’ और सोन मछली की पूँछ उन्हें दिखाकर कहा, ‘‘यह सब इस बिल्ले की हरकत है। यह शैतान है...इसे मार डालिए!’’
अपना ब्रीफकेस एक ओर रखकर वह मेरे पास बैठकर समझाने लगे, ‘‘बेटे, रोओ नहीं, रोने से क्या होगा?’’
हिचकियाँ लेते हुए मैंने कहा, ‘‘मैं समुद्र-तट पर जाना चाहता था। एक राइफल माँगना चाहता था...और सबके लिए उपहार माँगता।’’
वह बोले, ‘‘अच्छा, तो तुम्हें इस बात का दुःख है। वाकई तुम्हारा बड़ा नुकसान हो गया। मेरी पूरी सहानुभूति तुम्हारे साथ है। पर यह सोन मछली की पूँछ भी बहुत कुछ कर दिखाएगी।’’
पिताजी का कहना सही था। सोन मछली की पूँछ हमने फेंक दी थी, पर वह करामात दिखाती रही। मेरे जन्मदिन पर और नववर्ष पर उपहार आते रहे। हम लोग एक बार समुद्र-तट पर छुट्टियाँ मनाने भी गए। समुद्र के किनारे खड़े होकर मैं बड़ी-बड़ी देर तक सोन मछली को आवाज देता रहा था, पर वह फिर कभी नहीं आई।
बरसों बाद मेरी समझ में आया कि हमसे प्यार करनेवाले और दिन-रात मेहनत करनेवाले पिताजी ही मेरी सोन मछली थे।