सियारामशरण गुप्त-पथ के साथी : महादेवी वर्मा

Siyaramsharan Gupt-Path Ke Sathi : Mahadevi Verma

कुछ नाटा कद, दुर्बल शरीर, छोटे और कृश हाथ-पैर, लम्बे उलझे रूखे-से बाल, लम्बाई लिये सूखे मुख, ओठ और विशेष तरल आँखों के साथ भाई सियारामशरण ऐसे लगते हैं मानो ठेठ भारतीय मिट्टी की बनी पकी कोई मूर्ति हो, जिसकी आँखों पर स्निग्धता का गाढ़ा रंग फेर कर शिल्पी, शेष अंगों पर फेरना भूल गया है । उनकी जन्मतिथि भाद्र पूर्णिमा है जब आकाश अपनी बादलों की गीली जटाएँ निचोड़ता रहता है और धरती वर्षा- मंगल के पर्व - स्नान में भीगती रहती है । जान पड़ता है इसी भीगा - भीगी में सृजन उतावले कलाकार की दृष्टि इस छोटी मूर्ति के रूखेपन पर नहीं पड़ सकी ।

यदि आँखों में इतनी गहरी स्निग्ध तरलता न होती, तो इन्हें ऐसे सजल स्निग्ध दिन का विरोधाभास ही माना जाता ।

वे शुद्ध खादीधारी हैं । वस्त्रों का वजन कहीं क्षीण शरीर से अधिक न हो जाय, इसी भय से मानो उन्होंने कम वस्त्रों की व्यवस्था की है। औरों की पाँच गज लम्बी और कम-से- कम बयालीस इंच चौड़ी धोती, इनके लिए तीन गजी और छत्तीस इंची हो जाती है, अत: इनके चरण स्पर्श का अधिकार उसके लिए दुर्लभ ही रहता है । शहाती कुर्ते से, ग्रामीण मिर्जई की अस्थायी सन्धि केवल बाहर जाते समय होती है । और चप्पलें तो असली चमरौधे की सहोदराएँ सी जान पड़ती हैं। इस वेश-भूषा के साथ जब वे थैला और छड़ी लेकर आविर्भूत होते हैं तब उनके साहित्य के विद्यार्थियों के सामने समस्या उठ खड़ी होती है कि वे इन्हें लेखक मानें या अपने मानस में इनके साहित्य से बनी कल्पना - मूर्ति को । सत्य तो यह है कि यदि कोई इन्हें इनके साहित्य का स्रष्टा न स्वीकार करे, तो इनके पास अपना दावा प्रमाणित करने के लिए बाहरी कोई प्रमाण नहीं ।

परिवार में बड़े पुत्र को जिस अनुपात में सबका विश्वास प्राप्त होता है छोटे को उसी अनुपात में प्रेम । भाई सियाराम जी न अपने भाइयों में सबसे बड़े हैं न सबसे छोटे; पर उन्हें दोनों का सम्मिश्रण प्राप्त है । विश्वास उनके सबल विवेक के कारण और प्रेम उनके दुर्बल शरीर के कारण । शैशव में भी उनका स्वास्थ्य इतना अच्छा नहीं रहा कि वे अन्य बालकों के समान ऊधम मचाते। उन्होंने किसी को चोट पहुँचाई यह किसी को स्मरण नहीं, उन्होंने स्वयं चोट खाई, यह उनको याद नहीं। बचपन में मन और शरीर की गतिमय एकता होती है । मन जितना चंचल होता है, शरीर भी उतना ही चंचल होना चाहता है। बालक की तोड़-फोड़ किसी नियम को तोड़ने के लिए न होकर मन की गतिशीलता की संगिनी मात्र है, पर जब शरीर साथ न दे सके, तब मन की प्रवृत्ति अकेली और कुंठित होकर और भीतर- ही भीतर धूम कर श्रान्त होती रहती है । बहुत कुछ ऐसा ही भाई सियारामशरण जी के साथ घटित हुआ हो, तो आश्चर्य नहीं । वे कुशाग्र-बुद्धि और जिज्ञासु कम नहीं थे। अतः बाहर की सीमा से टकराकर लौटने वाले वृत्तियों ने भीतर ही भीतर विस्तार बढ़ाना आरम्भ किया होगा ।

घर में कई भाभियाँ हैं; पर उनमें से किसी को इनके विनोद का स्मरण नहीं है। एक को उन्होंने रामायण पढ़ाने का यत्न अवश्य किया; पर वह क्रम भी इनसे चल नहीं सका ।

किशोर होते-होते इन्हें पत्नी मिल गई थी और तरुणाई में श्वास का रोग प्राप्त हुआ । थोड़े-थोड़े समय के अन्तर से कई बालक नहीं रहे, असमय में ही पत्नी ने विदा ली । भाभियाँ कहती हैं कि इन्होंने अद्भुत संयम से यह वियोग- व्यथा झेली; पर यह विश्वास करना कठिन है कि यह संयम महँगा नहीं पड़ा होगा। ऐसे गूढ़ व्यक्तिगत दु:खों के अवसर पर बड़ों के सामने छोटों की स्थिति स्पृहणीय नहीं रहती ।

बड़ों का, संयम की सब रेखाएँ पार कर रोना-धोना भी उनके दुःख की तीव्रता का माप ही माना जाएगा। पर उनके समक्ष छोटों का विलाप कलाप मर्यादा भंग का पर्याय हो जाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम सीता के विरह में लक्ष्मण से ही नहीं, हर लता, वृक्ष, पशु, पक्षी से अपनी मर्म व्यथा सुनाते चलते हैं। पर यदि इसी प्रकार लक्ष्मण अग्रज सामने हर वृक्ष के नीचे बैठकर उर्मिला के नाम पर आँसू गिराते तो आदिकवि से लेकर राष्ट्रकवि तक सबकी प्रतिभा पलायमाना दिखाई पड़ती।

भाई सियाराम जी से सभी बड़े हैं। केवल चारुशीला शरण छोटे हैं, पर उन्होंने भी अंग्रेजी पढ़ाने के कारण परिवार में ही नहीं, बाहर भी मास्टर साहब का भारी- भरकम नाम भी पा लिया है। मैं स्वयं भी जब उस परिवार में बहिन का अधिकार लेकर पहुँची, तब न्यायतः मुझे सियारामशरण जी को बड़े भाई का गौरवपूर्ण पद देना चाहिए था। पर मैंने हठ किया कि अवस्था में बड़े होने पर भी इन्हें मैं छोटा भाई मानूँगी । ऐसी अन्यायपूर्ण माँग का भी उनसे विरोध न बन पड़ा और मैंने जीजी बनकर उन्हें अनुजता के जिस सोपान पर अधिष्ठित कर दिया है, उससे वे रंचमात्र भी इधर-उधर नहीं खिसकते ।

उनका संयम मुझे उस जल का स्मरण करा देता है जिसे किसी रन्ध्र से उष्णता न मिलने पर बर्फ बन जाना पड़ता है और तब उसकी बही - बही फिरने वाली तरलता को हथोड़ों की चोट भी कठिनता से भंग कर पाती है।

विवाह योग्य वयस रहते हुए भी और सन्तान रहित होने पर भी उन्होंने पुनर्वार मंगल-कंकण बाँधना स्वीकार नहीं किया । उस समय समाज में ऐसे सुयोग्य वर की विधुरता किसी भी कन्या के पिता को चैन नहीं लेने दे सकती थी। घर में भी दूसरे-तीसरे विवाह से प्राप्त भाभियाँ थीं । केवल श्वास रोग परिणय में बाधक बना, यह मान लेना भी कठिन है । मैंने तो 'विषाद' की पंक्तियाँ पढ़कर यही माना है कि अपनी बाल संगिनी पत्नी को उन्होंने अपने हृदय का समस्त स्नेह ऐसी निष्ठा के साथ समर्पित किया था कि उसे लौटा लेना, दोनों देने वाले लेने वाले का अपमान बन जाता ।

अनाद्यन्त वह प्रेम कहाँ से तुझे हुआ था प्राप्त,
तेरा पता नहीं, पर वह है चिरकालिक असमाप्त ( विषाद )

लहर जब तट से टकराती है तब वहीं बिखर कर और समाप्त होकर अपनी यात्रा का अन्त कर लेती है। पर वही लहर जब दूसरी लहर से टकरा जाती है तब दोनों प्रवाह की परम्परा में एक होकर अनन्त लक्ष्य पा लेती है।

मानवीय सम्बन्धों में भी यही सत्य हैं । जब एक का मनोराग दूसरे की पार्थिवता मात्र से टकराकर बिखर जाता है तब शरीर के बाहर उसकी गति नहीं है। पर जब एक की चेतना दूसरे की चेतना के साथ प्रगाढ़ सम्पर्क में आती है, तब उसकी यात्रा अनन्त है। भाई सियारामशरण जी के सभी सम्बन्धों में यह विशेषता मिलेगी जो अनाद्यन्त होने के कारण अनिर्वचनीय निष्ठावती है।

महामानव बापू से उनका सम्बन्ध भी इसी को प्रमाणित करता है । कोई उनके व्यक्तित्व के जादू से खिंचता चला आया और किसी को उनके कर्म की झंझा उड़ा लाई । किसी ने उनके दर्शन में अपने विचारों को धोकर उज्ज्वल किया और किसी ने उनकी भावना में अपनी वृत्तियों को रँग रँग कर इन्द्रधनुषी बनाया। पर ऐसे व्यक्तियों की संख्या कम रही, जिन्होंने उन्हें जन-जन में बिखरी मानवता का, पुंजीभूत विराट मानकर, अपने आपको मानव के नाते उनका आत्मीय और अविच्छिन्न अंश समझा। अपने शरीर की मांसलता चीर कर उसमें सोना - हीरा भर कर उसे सुरक्षित कहीं ले जाने वालों की जो कथाएँ सुनी जाती हैं, वे मानसिक जगत के लिए भी सत्य हैं । जैसे मूल्यवान विजातीय द्रव्य छिपाने वाला शरीर, आहत होने के अतिरिक्त और कोई महार्घता नहीं पाता, वैसे ही स्वभाव से अनमिल रहकर कोई उदात्त विचार या भाव हमारे मानसिक जगत को समृद्ध नहीं करता । भाई सियाराम जी ने इस सत्य को विचार-जगत में ही नहीं, व्यवहार जगत में भी परखा है। उन्होंने जिसे ग्रहण योग्य माना उसे अपने सम्पूर्ण अस्तित्व-निवेदन के साथ अंगीकार किया और जिसे अपने अस्तित्व में मिलाना उचित नहीं समझा उसके विशाल अस्तित्व- समर्पण को भी अस्वीकार किया । यही उचित भी है।

जल की धारा को विशाल शिलाओं के साथ जिस छोटे निजत्व की आवश्यकता है उसकी समुद्र के साथ नहीं। एक में निजत्व खोना अपना अस्तित्व खोना है और दूसरे में उसे बचाना, अपने विराट होने की सम्भावना खोना है।

उनके पास मिश्री की डली हो चाहे लवण खंड; दोनों ही जीवन के तल में बैठकर और घुलकर जीवन-रस बन गये हैं । पानी पर तेल की बूँद की तरह तैरता - उतराता फिरे ऐसा न राग उनके पास है न वैराग्य, न ज्ञान है, न अहंकार ।

शिक्षा के चक्रव्यूह में मिडिल के अतिरिक्त किसी अन्य द्वार का प्रवेशमंत्र उन्हें प्राप्त नहीं हो सका । पर हाईस्कूल, इंटर कालेज, विश्वविद्यालय, मास्टर, लेक्चरर, प्रोफेसर आदि-आदि की, सात समुद्रों से भी गहरी सहस्रों खाइयों के पार जो सरस्वती बैठी थी, उसके चरण तक उन्होंने अपनी विनय पत्रिका बुद्धि की तीर में बाँधकर न जाने कैसे पहुँचा दी । और आज जब हम उनके ज्ञान भंडार को देखते हैं तो पछतावा होने लगता है कि हम इन खाइयों में वर्षों क्यों डूबते-उतराते रहे।

उनका साहित्य पढ़कर ऐसा लगता है कि यदि उन्हें महात्मा गाँधी का निकट सम्पर्क कुछ कम प्राप्त होता तो वे इससे अच्छे कवि होते और यदि उन्हें कवीन्द्र के साहित्य का परिचय कम मिला होता तो वे इससे बड़े साधक होते ।

दो ध्रुवों पर स्थित महान साधक और महान कवि दोनों ने अपने-अपने वरदान इस प्रकार भेजे हैं कि शिव और सुन्दर इनके जीवन से अपना-अपना दायभाग अलग-अलग माँगते रहते हैं। दोनों की सन्धि कराने में ही इनकी शक्ति का अधिकांश व्यय होता रहता है ।

फर्श पर एक ओर पुस्तकों की पंक्तिबद्ध सेना और दूसरी ओर चीन की दीवार की तरह शीशियों और डिब्बों के प्राचीर के बीच में कभी बैठे; कभी लेटे हुए भाई सियारामशरण जी का चित्र देना सहज नहीं है। उस चार फुट चौड़े और छ: फुट लम्बे आयतन में, जीवन और व्याधि के कितने ही संघर्ष होते हैं, कितने ही हर्ष-विषाद के क्षण आते-जाते हैं, कितने ही एकान्त और कोलाहल बनते - मिटते हैं और कितने ही तर्क और विश्वास के संगम होते रहते हैं।

बचपन में एक बार वे दीवार में बनी अल्मारी की भीतर तपस्या करने के लिए समाधि की मुद्रा में बैठ गये थे और उनके साथी अल्मारी के दरवाजे बन्द करके चल दिये थे। भाग्य से वे शीघ्र ही निकाल लिए गए, अन्यथा तपस्या बहुत महँगी पड़ जाती। पर आज भी उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो जीवन ने उनके हृदय की तरल ज्वाला को किसी बिल्लौरी परिवेश में बन्द कर दिया है जिसमें से आलोक सब पाते हैं, पर जलना उन्हीं का अधिकार रह गया है । सच्चे अर्थ में उन्हें कुछ देना सम्भव नहीं है, पर पाना सम्बन्ध की शपथ हो जाती है।

हमारे युग के महाकवि के इस अनुज की कथा अपनी स्पष्टता में भी रहस्यमयी है। वट-वृक्ष जैसे ज्येष्ठ के साथ उनकी दो ही स्थितियाँ सम्भव थीं— एक तो ऐसी अमरवेलि हो जाना जो किसी की छाया नहीं स्वीकार करती पर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अपने आश्रय का अस्तित्व क्षीण करती चलती है और दूसरे छाया-जीवी छोटा पौधा बन जाना जिसके निकट बड़े वृक्ष का सहारा जड़ता और अन्धकार का दूसरा नाम है । भाई सियाराम जी ने अपने अग्रज की छाया को सम्पूर्ण निष्ठा के साथ स्वीकार किया, पर उसके अंतराल से आकाश पाने का ऐसा रन्ध्र निकाल लिया जिससे प्रत्येक प्रभात की किरण उन्हें नवीन कोण से स्पर्श करती है और प्रत्येक सन्ध्या नया रंग ढालती है। उनके विचार, साहित्य और साधना में कहीं अनुकरण नहीं है। कभी-कभी तो अति परिचित और अतिसाधारण वस्तुओं, व्यक्तियों तथा घटनाओं को वे ऐसे दृष्टिबिन्दु से देखकर उपस्थित करते हैं कि सुनने वाला विस्मित हो जाता है ।

वे परिग्रह हीन हैं, उन्हें रोग से निरन्तर जूझना पड़ता है और वे सत्य के खोजी हैं । ये तीनों ही परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिनमें मनुष्य के कटु, विरक्त या उदासीन हो जाने की सम्भावना रहती है। पर भाई सियाराम जी में छिपा कवि अपराजेय स्रष्टा है। उन्होंने अपनी विविध बाधाओं से संघर्ष करके उन पर वैसी ही जय प्राप्त की है जैसी एक मूर्तिकार किसी अनगढ़ और कठिन शिला पर, एक गायक अनमिल स्वरों पर और एक चितेरा विषम रेखाओं पर प्राप्त करता है।

कविता सबसे बड़ा परिग्रह है क्योंकि यह विश्व मात्र के प्रति स्नेह की स्वीकृति है । वह जीवन के अनेक कष्टों को उपेक्षा योग्य बना देती है, क्योंकि उसका सृजन स्वयं महती वेदना है। वह शुष्क सत्य को आनन्द में स्पन्दित कर देती है, क्योंकि अनुभूति स्वयं मधुर है। भाई सियाराम जी पहले कवि हैं फिर उपन्यासकार तथा निबन्धकार, अत: कवि के सब वरदान उनके हैं। संसार की सभी कथाओं के प्रति उनकी बच्चों जैसी कुतूहल भरी जिज्ञासा रहती है चाहे वह कथा टिटिहरी की हो चाहे ब्रह्मज्ञान की । किसी के पैर की आहट कान में पड़ते ही उनकी तरल आमन्त्रणा भरी आँखों में कौतूहल छलक आता है।

कथा सुनने वाला बालक जैसे हर घटना में फिर ...... फिर की टेक लगाता चलता है उसी प्रकार वे भी सब कथाओं को जिज्ञासा के अटूट सूत्र में पिरोते रहते हैं । अस्वस्थ और दुर्बल शरीर के कारण उनके लिए न अधिक यात्राएँ सम्भव हैं और न पास-पड़ोस में अधिक आना-जाना, पर उनके उसी एकान्त कोने में न जाने कितने चल-चित्रों का प्रदर्शन होता रहता है। वे वहीं बैठकर सब कुछ जान ही नहीं लेते, सहानुभूति का आदान-प्रदान भी कर लेते हैं।

अस्वस्थ की वह खीझ, जो कर्म-संकुल जीवन से उसके अलगाव की सूचना है, उनके पास नहीं फटक सकती, क्योंकि वे जीवन के कोलाहल में बैठकर रोग को चुनौती देते हैं । इसी से उनकी सहानुभूति की सजलता में आत्मविश्वास की दीप्ति है ।

उनकी उच्छल सरलता के नीचे दृढ़ता की जो चट्टान है उसका पता तो किसी मानसिक द्वन्द्व के अवसर पर ही चलता है। महात्मा गाँधी के प्रति उनकी एकान्त निष्ठा से सभी परिचित हैं, पर उनके साथ भी हिन्दी का प्रश्न लेकर वे कोई समझौता नहीं कर सके। नीति उनके निकट विवेक का दूसरा नाम है, अत: उनके निष्कर्ष निर्विवाद रहते हैं। घर बाहर सब जगह उन्हें बापू सम्बोधन ही नहीं मिलता, उस नाम को घेरने वाला स्नेह और विश्वास का वातावरण भी मिलता है ।

मनुष्यता की विजय-यात्रा के लिए ऐसे ही पथिकों की आवश्यकता होती है जिनका ध्यान पथ के काँटों और पैर की चोटों की ओर न जाकर गन्तव्य में केन्द्रित रहे । उस यात्रा के पंचांग में क्षण से वर्ष बनाने वाली साँसों का नाम है 'शून्य' और लक्ष्य निकट लाने में मिटी हुई साँस के क्षण का नाम है 'अनन्त जीवन' ।

जीवन की सीढ़ियाँ ऊँचाई की ओर भी जाती हैं और नीचे की ओर भी । जो ऊपर की ओर चलता है वही सबकी दृष्टि का केन्द्र बन सकता है। नीचे की ओर जाने वाला तो किसी अज्ञात पाताल में दृष्टि से ओझल हो जाता है।

भाई सियारामशरण जीवन के लक्ष्य को निकट लाने के लिए ही अपनी साँसों का उपयोग करते हैं। वे ऊर्ध्वगामी होने के कारण हमारी दृष्टि का केन्द्र रहे हैं।

उनका साहित्य पंक का कमल न होकर उनके दुग्धोज्ज्वल चरित्र का स्वच्छ परिचय है।

('पथ के साथी' में से)

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