सियार का न्याय : आदिवासी लोक-कथा

Siyar Ka Nyay : Adivasi Lok-Katha

एक था भोलू। अपने नाम की भाँति भोला-भाला। भोलू अपने खेतों में शकरकंद उगाता और उन्हें बेचकर अपना जीवनयापन करता। भोलू ने अपने खेत के तीन ओर काँटों की बाड़ लगा रखी थी ताकि जंगली सुअर उसके खेत में घुसकर उसके शकरकंद न खोद सकें। खेत के एक ओर दलदल था। दलदल इतनी गहरा तो नहीं था कि कोई जानवर पूरा का पूरा धँस जाए किंतु इतना गहरा अवश्य था कि जो जानवर उसमें फँसे वह निकल न सके। इसीलिए दलदल की ओर से भोलू अपने खेत की सुरक्षा को लेकर निश्चिंत रहता था।

दलदल के उस पार एक जंगली सुअर रहता था जिसे शकरकंद बहुत प्रिय थे। वह हर बार प्रयास करता कि भोलू के खेत से शकरकंद खोदकर खा सके लेकिन हर बार वह विफल रहता। सुअर काँटों की बाड़ को पार ही नहीं कर पाता था। एक दिन सुअर ने ठान लिया कि जाहे जो भी हो लेकिन मैं भोलू के खेत के शंकरकंद खाकर रहूँगा। उसने काँटों की बाड़ की ओर से खेत में घुसने का प्रयास किया लेकिन उसे सफलता नहीं मिली, उल्टे उसके शरीर में काँटें लग गए। तब उसने दलदल की ओर से घुसने का विचार किया।

सुअर दलदल के पास पहुँचा। एक बार तो उसे अपना विचार मूर्खतापूर्ण लगा किंतु दूसरे ही पल शकरकंद खाने का लालच उसके मस्तिष्क पर प्रभावी हो गया। सुअर दलदल में उतर गया। अभी वह दो क़दम ही चला था कि दलदल में धँसने लगा। वह दलदल से बाहर आने के लिए जितना प्रयास करता उतना ही धँसता जाता। अब उसे अपने विचार पर पछतावा होने लगा। वह सहायता के लिए चिल्लाने लगा। संयोगवश उधर एक शेर आ निकला। शेर को देखकर सुअर की बाँछें खिल गईं। इधर शेर ने भी देखा कि एक अच्छा शिकार सामने है। यदि इसे दलदल से निकाल लूँ तो इसे छक कर खाऊँगा।

‘शेर महाराज, शेर महाराज! मुझे बचाइए। मैं दलदल में धँसा जा रहा हूँ। आप मुझे बाहर निकलने में मदद कीजिए अन्यथा मैं मारा जाऊँगा।’ सुअर ने गिड़गिड़ाते हुए शेर से प्रार्थना की।

‘ठीक है, मैं तुम्हें दलदल से निकलने में मदद करता हूँ लेकिन तुमने ये कैसे सोच लिया कि दलदल से निकल कर मैं तुम्हें खाऊँगा नहीं?’ शेर ने कहा।

‘आप मेरे राजा हैं, यदि आप मुझे खाएँगे तो मुझे कोई दुख नहीं होगा किंतु यदि मैं दलदल में धँस कर मर गया तो मुझे बहुत दुख होगा।’ सुअर ने कहा।

शेर यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सुअर को दलदल से निकालने के लिए अपनी पूँछ सुअर की ओर बढ़ा दी।

‘लो, तुम मेरी पूँछ पकड़ लो, मैं तुम्हें दलदल से बाहर खींच लूँगा।’ शेर ने कहा।

सुअर ने शेर की पूँछ पकड़ ली और शेर ने उसे बाहर खींच लिया। सुअर जैसे ही बाहर आया वैसे ही उसने शेर को धक्का देकर दलदल में गिरा दिया।

‘अरे, अरे! ये क्या कर रहे हो? तुमने मुझे दलदल में क्यों गिरा दिया? मैंने तुम्हारे प्राण बचाए और बदले में तुम मेरे साथ ऐसा कृतघ्न व्यवहार कर रहे हो?’ शेर ने घबरा कर सुअर से कहा।

‘आपने मेरे प्राण दलदल से भले ही बचाए किंतु अब तो आप मुझे खाने वाले थे फिर इसमें कृपा की कौन-सी बात हुई जो मुझे आप कृतघ्न कह रहे हैं। मैं तो आपके साथ वही व्यवहार कर रहा हूँ जो आपने मेरे लिए सोचा था।’ कहते हुए सुअर अपने रास्ते चल दिया।

शेर को सुअर पर बहुत क्रोध आ रहा था किंतु वह कर ही क्या सकता था? शेर ने सहायता के लिए पुकारना आरंभ किया। भोलू उस समय अपनी झोपड़ी में बैठा था। उसने जब शेर की पुकार सुनी तो वह दौड़कर अपने खेत में आया। उसने देखा कि उसका खेत तो सुरक्षित है किंतु दलदल में एक शेर धँसा जा रहा हैI

शेर ने भोलू को देखा तो जान में जान आई।

‘भैया मुझे यहाँ से बाहर निकालो नहीं तो मैं मर जाऊँगा।’ शेर ने भोलू से कहा।

‘मैं तुम्हें निकाल तो दूँ लेकिन बाहर निकल कर तुम मुझे खा जाओगे।’ भोलू ने कहा।

‘नहीं मैं तुम्हें नहीं खाऊँगा।’ शेर ने कहा।

‘मैं कैसे मान लूँ?’ भोलू ने कहा।

‘तुम मुझे बाहर निकाल कर देखो फिर तुम्हें स्वत: पता चल जाएगा कि मैं सच कह रहा हूँ या नहीं।’ शेर ने कहा।

भोलू शेर की बातों में आ गया। उसने रस्सी का एक छोर एक पेड़ से बँधा और दूसरा छोर शेर की ओर फेंकते हुए कहा, ‘लो, इसे पकड़ लो! मैं तुम्हें बाहर खींच लूँगा।’

शेर ने रस्सी का दूसरा छोर पकड़ लिया। भोलू ने रस्सी को पकड़ कर खींचना शुरू किया। थोड़े-से प्रयास के बाद शेर दलदल से बाहर आ गया। शेर ने दलदल से बाहर आते ही अपना शरीर झटकारा और लपक कर भोलू को धर दबोचा।

‘अरे, तुम ये क्या कर रहे हो? मैंने तुम्हारे प्राण बचाए हैं।’ भोलू चीख़ा।

‘तुम मूर्ख हो जो तुमने मेरे प्राण बचाए किंतु मैं मूर्ख नहीं हूँ कि अपना भोजन को छोड़ दूँ।

तुम मेरे भोजन हो। मैं तुम्हें खाऊँगा।’ शेर ने कहा।

‘लेकिन तुमने कहा था कि तुम मुझे नहीं खाओगे।’ भोलू घिघियाया।

‘ऊँहूँ! मैंने कहा था कि तुम मुझे बाहर निकालकर देखो फिर तुम्हें स्वत: पता चल जाएगा कि मैं सच कह रहा हूँ या नहीं। अब तुम तय कर लो कि मैंने जो कहा था वो सच था या झूठ।’ शेर ने हँसते हुए कहा।

भोलू समझ गया कि शेर ने उसे मूर्ख बनाया है। हिंसक प्राणियों की बातों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। भोलू सोच ही रहा था कि शेर के पंजे से कैसे बचा जाए कि उधर से एक घोड़ा आ निकला।

‘शेर भाई, तुम मुझे खाने जा रहे हो यह अन्याय है। क्यों न हम इस बारे में घोड़े का निर्णय जान लें।’ भोलू ने कहा।

‘ठीक है, जैसा तुम चाहो।’ शेर ने सोचा कि चलो इस मनुष्य की अंतिम इच्छा पूरी कर दी जाए।

भोलू ने घोड़े को वस्तुस्थिति बताई और निर्णय देने का आग्रह किया। घोड़ा मनुष्यों के व्यवहार से दुखी था, उस पर उसे लगा कि यदि उसने शेर के विरुद्ध निर्णय दिया तो शेर उसे भी खा जाएगा।

‘शेर महाराज, आप जो कर रहे हैं वह उचित है। ये मनुष्य बड़े स्वार्थी और अवसरवादी होते हैं। मुझे ही देखिए, जब तक मैं अपने मालिक की सेवा करने योग्य रहा तब तक उसने मेरा ध्यान रखा किंतु मेरे पैर में चोट लगने पर जब मैं लँगड़ा हो गया तो उसने मुझे गोली मारने का आदेश दे दिया। वह तो मैं उस बंदूकची को दुलत्ती मारकर भाग आया अन्यथा मैं अभी तक मर चुका होता। इसलिए आप तो इस मनुष्य को अवश्य खाइए।’ घोड़े ने कहा और लँगड़ाता हुआ चला गया।

घोड़े की बात सुनकर भोलू थरथर काँपने लगा। उसी समय उधर से एक बैल निकला।

‘शेर भाई, किसी एक की बात में नहीं आना चाहिए, अच्छा होगा यदि हम इस बैल का भी निर्णय जान लें।’ भोलू ने कहा।

‘ठीक है, यदि तुम चाहते हो तो ऐसा ही सही।’ शेर ने कहा।

भोलू बैल को रोक कर सारी बात बताई और उससे अपना निर्णय सुनाने को कहा।

‘शेर महाराज, आप जो कर रहे हैं वह उचित है। ये मनुष्य बड़े स्वार्थी और अवसरवादी होते हैं। मुझे ही देखिए, जब तक मैं अपने मालिक की सेवा करने योग्य रहा तब तक उसने मेरा ध्यान रखा किंतु अब मैं बूढ़ा और अशक्त हो गया हूँ और अपने मालिक के खेत में काम करने योग्य नहीं रह गया हूँ तो उसने मुझे भूखे मरने को आवारा छोड़ दिया है। इसलिए आप इस मनुष्य को मारकर अपनी भूख मिटाइए जिससे मुझे भी न्याय मिल जाएगा।’ बैल ने कहा और जंगल की ओर चल दिया।

‘अब कहो? अब तो मैं तुम्हें खा सकता हूँ! या अभी भी किसी और न्यायाधीश का न्याय सुनना शेष है? शेर ने भोलू को ताना मारते हुए कहा।

भोलू समझ गया कि अब उसके प्राण नहीं बच सकते हैं। इतने में उसे एक सियार दिखाई दे गया।

‘शेर भाई, ये दोनों तो मनुष्य के पालतू रह चुके थे इसलिए इनके मन में मनुष्य के प्रति बैर भाव था किंतु सियार कभी किसी मनुष्य का पालतू नहीं बनता है अत: वह जो कहेगा वह निष्पक्षता से कहेगा। इसलिए मेरी यह अंतिम प्रार्थना है कि तुम सियार का निर्णय और जान सुन लो फिर यदि वह भी तुम्हारे पक्ष में निर्णय दे, तो तुम एक पल भी गँवाए बिना मुझे खा लेना।’ भोलू ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।

‘ठीक है, तुम कहते हो तो मैं मान लेता हूँ लेकिन इसके बाद मैं तुम्हें और कोई अवसर नहीं दूँगा।’ शेर ने चेतावनी देते हुए कहा।

भोलू ने सियार को निकट बुलाया और उसे सारी बात बताई। भोलू ने सियार से कहा कि अब तुम अपना निर्णय सुनाओ कि शेर ग़लत कर रहा है या सही?

‘देखो भाई मनुष्य! शेर जंगल का राजा है, वह कभी कोई ग़लती कर ही नहीं सकता है। इसलिए वह जो कर रहा है वह सही है लेकिन मेरी समझ में एक बात नहीं आ रही है कि शेर जैसा शक्तिशाली एक दलदल में कैसे धंस सकता है? मुझे तो तुम्हारा पूरा क़िस्सा ही झूठा लग रहा है।’ सियार ने कहा।

वस्तुत: सियार को लगा कि यदि वह शेर के पक्ष में अपना निर्णय देगा तो शेर इस निर्दोष मनुष्य को खा जाएगा और सियार को कोई लाभ नहीं होगा किंतु यदि वह किसी तरह शेर को फँसा ले तो पूरा शेर उसे खाने को मिल सकता है। दूसरी ओर शेर सियार की बात सुनकर चकराया। उसे लगा कि सियार को पूरी घटना पर विश्वास ही नहीं हो रहा है।

‘अरे मूर्ख सियार, तुझे विश्वास क्यों नहीं हो रहा है कि मैं दलदल में फँसा हुआ था और इस मनुष्य ने मुझे निकाला?’ शेर ने ताव खाते हुए कहा।

‘क्षमा करें महाराज! मैं कैसे विश्वास करूँ कि अप जैसा बड़े डील-डौल वाला शेर इतने से दलदल में फँस सकता है?’ सियार ने कहा।

‘यह दलदल उतना उथला नहीं है जितना कि तुम समझ रहे हो।’ शेर ने कहा।

‘मैं नहीं मानता। इस दलदल में तो आपका पंजा भर डूब सकता है, आप नहीं।’ सियार ने हठ करते हुए कहा।

‘क्या तुम्हें मेरे कथन का भी विश्वास नहीं है?’ शेर ने पूछा।

‘अब आप कह रहे हैं तो विश्वास कर लूँगा लेकिन फिर भी मुझे विश्वास नहीं हो रहा है।’ सियार मानो मन मारकर बोला।

‘तो ठीक है फिर ये देखो।’ कहते हुए शेर दलदल में कूद गया और बोला, ‘अब तो विश्वास हो गया न कि यह दलदल गहरा है।

‘हाँ, महाराज! अब विश्वास हो गया।’ सियार ने कहा।

‘तो फिर अब मुझे इस दलदल से बाहर निकालो।’ शेर ने सियार से कहा।

‘मैं आपको बाहर निकाल लेता लेकिन सोचता हूँ कि एक धोखेबाज़ और मूर्ख राजा का इस जंगल में क्या काम?’ सियार ने कहा। भोलू ने सियार को उसके न्याय के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। इसके बाद भोलू अपने घर की ओर चल दिया तथा सियार वहीं बैठकर शेर के मरने की प्रतीक्षा करने लगा।

(साभार : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं, संपादक : शरद सिंह)

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