सियार का बदला : आदिवासी लोक-कथा
Siyar Ka Badla : Adivasi Lok-Katha
एक सियार था। वह बहुत भूखा था। वह खाने की खोज में भटकता-भटकता एक गाँव जा पहुँचा। गाँव में उसे मुर्गियों का एक दड़बा दिखाई दिया। दड़बे में मोटी-ताज़ी मुर्गियाँ बंद थीं। उन मुर्गियों को देखकर सियार के मुँह में पानी आ गया। उसने इधर-उधर देखा। दुपहर का समय था इसलिए गाँव के सभी लोग खेतों में और जंगल में काम करने निकल गए थे। सियार ने दड़बे का दरवाज़ा खोला और एक मुर्गी अपने मुँह में दबाई और जंगल की ओर बढ़ लिया। सियार को मुर्गी चुराते हुए कौवों ने देख लिया। वे बचे-खुचे टुकड़े पाने की लालच में सियार के पीछे-पीछे जंगल में जा पहुँचे। सियार, कौवों के इरादे से अनभिज्ञ एक पेड़ के नीचे बैठकर मुर्गी खाने लगा। जैसा कि कौवों की आदत होती है उन्होंने काँव-काँव करके अपने साथियों को पुकारना शुरू कर दिया।
संयोग से उस ओर कुछ ग्रामीण निकल आए। उन्होंने कौवों की काँव-काँव सुनी तो वे जिज्ञासावश उस पेड़ के पास आ गए जिसके नीचे सियार मुर्गी खा रहा था। ग्रामीणों ने सियार को मुर्गी खाते देखा तो समझ गए कि सियार ने उन्हीं की मुर्गी चुराई है। उन ग्रामीणों ने सियार को मार-मारकर वहाँ से भगा दिया। मार से बचने के लिए सियार को अधखाई मुर्गी छोड़कर भागना पड़ा। उसे कौवों पर बहुत क्रोध आया। उसे लगा कि कौवों के शोर मचाने के कारण गाँव वाले उधर आ गए और उसे अपना खाना छोड़कर भागना पड़ा। सियार ने मन ही मन तय किया कि वह कौवों से इसका बदला लेकर रहेगा।
कुछ दिन बाद सियार को कौवों से बदला लेने का अवसर मिल गया। मानसून आते ही जंगल में ख़ूब पानी बरसा और बाढ़ आ गई। कौवों के घोसले पानी में भींग गए। कौवे भी पानी से भींगकर ठंड से ठिठुरते हुए यहाँ-वहाँ भटकने लगे। कौवों से बदला लेने का सियार को यह अवसर उचित प्रतीत हुआ। उसने एक कौवे को अपने पास बुलाया।
‘कौवे भाई, तुम पानी में भीगकर ठंड से बेहाल हो। मुझे तुम्हारी यह दशा देखकर तुम पर बड़ी दया आ रही है। तुम चाहो तो अपने भाइयों सहित मेरी माँद में रह सकते हो।' सियार ने कौवे से कहा।
‘तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद! तुम बहुत दयालु हो।’ कौवे ने कहा और काँव-काँव की आवाज़ लगाते हुए अपने साथियों को बुला लिया। सभी कौवों को सियार ने अपनी माँद में शरण दे दी। सभी कौवे बहुत प्रसन्न हुए और सियार की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। अपनी माँद में सियार ने एक ख़रगोश मारकर रखा था।
वह ख़रगोश उसने उन कौवों को खाने को दे दिया। इस पर कौवे सियार के व्यवहार से गद्गद हो उठे। दिन बीत गया और रात हुई। सभी कौवे सो गए। तब सियार उठा और उसने एक-एक करके दस कौवों को मारकर खा लिया। कौवे संख्या में तीस थे।
सियार ने दस को मारा तो बीस शेष रह गए। भोर हुई तो कौवों ने देखा कि उनके दस साथी ग़ायब हैं। उन्होंने सियार से पूछा।
‘वे दसों बड़े नेक कौवे थे। उन्होंने आधी रात को मुझे जगाकर मुझसे कहा कि वे मुझ पर बोझ नहीं बनना चाहते हैं अत: वे दूसरी जगह जा रहे हैं। मैंने तो उन्हें रोकने का बहुत प्रयास किया किंतु वे नहीं माने और चले गए।’ सियार ने कहा।
कौवे सियार के व्यवहार से प्रभावित तो थे ही अत: उन्हें सियार की बातों पर संदेह नहीं हुआ। उन्हें लगा कि उनके साथी सचमुच कहीं चले गए हैं।
दिन में सियार ने छोटा-मोटा शिकार पकड़ा और उसे कौवों को दे दिया।
‘तुम नहीं खाओगे क्या? तुम भी इसमें से लो।’ एक कौवे ने सियार से कहा।
‘नहीं, तुम लोग खाओ। मुझे तो अपने अतिथियों को खिलाकर आनंद मिलता है।' सियार बड़े उदार स्वर में बोला।
कौवे सियार की इस बात से बहुत प्रभावित हुए।
फिर दिन व्यतीत हुआ और रात आ गई। सभी कौवे सो गए। सियार चुपके से उठा और उसने दस कौवे मारे और खा लिए।
भोर होने पर कौवों ने देखा कि उनके और दस साथी अनुपस्थित हैं। बचे हुए दस कौवों ने अपने ग़ायब साथियों के बारे में सियार से पूछा।
‘मुझे कल गए हुए कौवों की याद में नींद नहीं आ रही थी इस पर तुम्हारे साथियों ने मुझसे कहा कि वे अपने उन साथियों को वापस ले आएँगे जो मुझे छोड़ कर चले गए थे। मैंने तो उन्हें ढूँढ़ने जाने से रोकना चाहा किंतु वे नहीं माने और चले गए।’ सियार ने भोलेपन से कहा।
कौवों को सियार की बात तार्किक लगी और उन्हें सियार की बात पर विश्वास हो गया। दिन में सियार ने एक ख़रगोश मारा और खाने के लिए कौवों को दे दिया। कौवों ने बड़े चाव से ख़रगोश खाया।
रात होने पर कौवे सो गए। सियार उठा और उसने शेष दस कौवे भी खा लिए। अब एक भी कौवा नहीं बचा। इस प्रकार सियार ने कौवों से अपना बदला ले लिया। इसके बाद सियार प्रसन्नतापूर्वक रहने लगा।
एक दिन सियार ने देखा कि एक मधुमक्खी झाड़ियों में फंस गई है और निकल नहीं पा रही है। सियार को मधुमक्खी पर दया आ गई। उसने मधुमक्खी को झाड़ियों से बाहर निकाल दिया। मधुमक्खी सियार से बहुत ख़ुश हुई और उसने अपने छत्ते से ढेर सारा शहद निकाल कर सियार को दे दिया। सियार ने शहद ले तो लिया लेकिन वह सियार के किसी काम का नहीं था। सियार शहद लेकर अपनी माँद की ओर जा रहा था कि रास्ते में उसे एक चरवाहा दिखा।
‘चरवाहे-चरवाहे, मेरे पास दुनिया का सबसे अच्छा शहद है। यदि तुम चाहो तो ये शहद ले लो।’ सियार ने चरवाहे से कहा।
चरवाहे ने शहद ले लिया और उसे चख कर देखा। शहद का स्वाद बहुत अच्छा था। चरवाहा बहुत ख़ुश हुआ।
‘बताओ तुम्हें इस शहद के बदले मैं क्या दूँ?’ चरवाहे ने सियार से पूछा।
‘अपनी एक भेड़ दे दो।’ सियार ने कहा। भेड़ देखकर उसके मुँह में पानी आ रहा था।
चरवाहे ने अपनी एक भेड़ सियार को दे दी। भेड़ लेकर सियार अपनी माँद में पहुँचा। उस दिन सियार का पेट भरा हुआ था अत: उसने सोचा कि भेड़ को वह अगले दिन खाएगा। उसने भेड़ को अपनी माँद में बाँधा और माँद से बाहर टहलने लगा। सियार के पड़ोस में दो लोमड़ियाँ रहती थीं। उन्होंने सियार को भेड़ लाते देखा तो उनके मन में लालच आ गई। जिस समय सियार अपनी माँद से बाहर टहल रहा था उसी समय लोमड़ियाँ सियार की माँद में घुसीं और उन्होंने भेड़ को मारकर खा लिया और भेड़ की खाल में भूसा भरकर वहाँ खड़ा कर दिया। जब सियार घूम-घाम कर लौटा तो उसने देखा कि उसने जहाँ भेड़ बाँधा था वहाँ भूसा भरी हुई भेड़ की खाल रखी हुई है। वह तत्काल समझ गया कि यह काम उसकी पड़ोसन लोमड़ियों का है। उसने तय कर लिया वह लोमड़ियों से इस बात का बदला लेकर रहेगा।
सियार ने भेड़ की खाल उठाई और एक ढोलक बनाने वाले के पास पहुँचा। उसने भेड़ की खाल से अपने लिए एक ढोलक बनवाई। ढोलक लेकर अपनी माँद में लौट आया और माँद में बैठकर ढोलक बजानी शुरू कर दी। ढोलक की आवाज़ सुनकर लोमड़ियाँ नाचने लगीं। जब सियार ने ढोलक बजाना रोक दिया तो लोमड़ियाँ सियार के पास पहुँचीं।
‘इतनी अच्छी ढोलक तुम्हें कहाँ मिली? हमारे लिए भी ऐसी ढोलक ला दो।’ लोमड़ियों ने सियार से कहा।
‘अरे, तुम्हें नहीं पता? पुराने कुएँ में ऐसी अनेक ढोलकें पड़ी हैं। तुम चाहो तो स्वयं जाकर ढोलक ला सकती हो।’ सियार ने कहा।
लोमड़ियाँ सियार की बातों में आ गईं। वे सियार के साथ कुएँ पर पहुँचीं। सियार ने अपनी ढोलक का प्रतिबिंब कुएँ के पानी में दिखा दिया। लोमड़ियों ने समझा कि कुएँ में अनेक ढोलक हैं। उन्होंने ढोलक निकालने के लिए कुएँ में छलाँग लगा दी। सियार ने कुएँ के मुँह को एक पत्थर से ढाँक दिया और इस प्रकार अपना बदला लेकर प्रसन्नतापूर्वक अपने घर लौट आया।
(साभार : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं, संपादक : शरद सिंह)