सिरिदेवी : कर्नाटक की लोक-कथा

Siridevi : Lok-Katha (Karnataka)

चक्रावती नामक एक शहर में चक्रभूमि नामक राजा था। उसके तीन बेटियाँ थीं। सबसे छोटी सिरिदेवी, बीच की नागम्मा और बड़ी गौरम्मा थी। तीनों को राजा ने बड़े प्रेम से पाला था। उन तीनों को झूला झुलाने के लिए भी नौकर तय किए गए थे।

एक बार राजा को काम से दिल्ली में कचहरी में जाना पड़ा, तब उसने तीनों बेटियों को पास बुलाकर पूछा कि उन्हें क्या-क्या चाहिए? बड़ी बेटी ने कहा कि उसे छोटी-छोटी सुंदर गुड़िया चाहिए। बीचवाली ने कहा कि उसे छोटी-छोटी सूपड़ी चाहिए, एक बहुत छोटी सी भी। छोटी से पूछने पर उसने कहा कि मेरी अपनी कोई पसंद नहीं, तुम्हें जो भी ठीक लगे, वह ले आना। राजा दिल्ली हो आया। लड़कियों को बहुत सारी चीजें ला दीं। लड़कियों ने गुड़ियों को खुश रखने के लिए चमेली, बड़ी चमेली और चंपा फूल पहनाए, नहलाने के लिए सुगंधित द्रव्य की माँग की, लड़कियों ने झूला झुलाना चाहा, राजा भी यह सुनकर खुश हुआ।

एक बार हरतालिका व्रत का समय आ गया। तब राजा फिर से दिल्ली के लिए निकला। इस बार भी उसने लड़कियों से पूछा कि उन्हें क्या-क्या चाहिए? लड़कियों की पसंद जानकर उसने बहुत सारे गहने ला दिए। फिर उन लोगों से पूछा, “कैसे हैं?" पहली और दूसरी ने कहा, "बाबा हम चमेली, लाल चमेली और चंपा के फूल बालों में लगाती हैं। तेल मलकर सुगंधित द्रव्य के साथ नहाती हैं। आपके आशीर्वाद से आराम से हैं।" छोटी सिरिदेवी ने कहा, "भगवान् बहुत बड़ा है। उसकी दया से हम आनंदित हैं।" बेटी की इस तरह की दार्शनिक बातें सुनकर राजा को गुस्सा आया। उसने कहा, "दोनों बड़ी बेटियों ने कितना अच्छा कहा, आपके आशीर्वाद से हम आनंदित हैं। इस छोटी को कितना घमंड है। वह भगवान् को दयालु मानती है। कहती है कि उसी की दया से आनंदित है। यह लड़की कृतघ्न है। पिता के प्रेम को नहीं मानती। मैं उसका चेहरा भी देखना नहीं चाहता। आगे से मैं यही मानूँगा कि मेरे दो ही बेटियाँ हैं।" रानी ने राजा को समझाने की बहुत कोशिश की। कहा, "इस बेटी पर आप इतना गुस्सा क्यों उतारते हैं। भगवान् की कृपा से ही तो आपके पास धन-संपदा है। अब आप गुस्सा उतार लीजिए।"

राजा का गुस्सा वैसा ही बना रहा, "तुम कुछ भी कहो, मगर मैं उसका चेहरा भी देखना पसंद नहीं करता। मैं किसी अंधे-गूंगे या किसी लाश के साथ उसकी शादी रचा दूंगा। उसकी आँखों पर पट्टी बाँधकर उसे जंगल में छोड़ आने का आदेश दे दूँगा।" रानी ने राजा को समझाने की बहुत कोशिश की, मगर राजा गुस्से में अंधा बहरा हो गया था। रानी ने कहा, “सिरिदेवी के घर से निकल जाने से वह बरबाद हो जाएगा।" राजा का पारा चढ़ता ही गया। रानी ने मंत्री से सहातया माँगी। मंत्री ने भी राजा को समझाने की कोशिश की, मगर कुछ फायदा न हुआ। राजा ने कहा, "मेरा मन टूट गया। मैं उसे अब अपनी बेटी नहीं मानता। तुम मेरे मंत्री हो। तुम्हें मेरे आदेश का पालन करना चाहिए। चार सेवकों को लेकर निकलो, पास-पड़ोस के किसी गाँव मे मौत का दरवाजा खटखटाता एक बीमार तुम्हें मिले, या कोई अंधा, बहरा, लूला-लँगड़ा इनसान मिले तो उसे पकड़कर ले आओ।"

मंत्री ने चार नौकरों को लेकर पास-पड़ोंस के गाँवों में घूमकर लौटकर राजा से कहा कि ऐसा कोई इनसान नहीं मिला। तब राजा ने कहा, "जंगल में जाकर किसी जंगली या शिकारी इनसान को पकड़कर ले आओ।"

आदेश सुनकर मंत्री विवश होकर जंगल गया। रास्ते में उसे एक जलकुंड दिखाई दिया। उस बड़े कुएँ में बाघ, सियार क्या-क्या थे, भयंकर जंगल था। उसे प्यास लगी थी। वहीं पानी पीकर लेट गया।

फिर बैठकर सुस्ताने लगा। तभी पेड़ की जड़ की बगल में एक देसी छोटा सा बंदर आकर पानी पी रहा था। मंत्री ने धीरे से उसके पास जाकर एक रस्सी से उसे बाँध दिया। उसे राजा के पास ले आया। सिरिदेवी के गहने-कपड़े सब छीनकर, पाव भर चावल उसके आँचल में डाल कहा, "यही तुम्हारा दूल्हा है, इसके साथ जाओ।" उसके हाथ एक छोटी सी कटोरी देकर 'तुम्हें प्यास लगे तो पानी पी लेना' कहकर भेज दिया। माँ और बहनों के आँसुओं का कोई मोल न रहा।

वह कटोरी लेकर सिरिदेवी निकल पड़ी। मंत्री ने उस देसी बंदर को जहाँ देखा था, वहाँ ले आया। कहा, “तुम्हारे भाग्य में जो भी लिखा है, बेटी, मैं तुम्हें यहाँ छोड़कर जा रहा हूँ। सिरिदेवी बिलखने लगी, "दादा, मुझ अकेली को छोड़कर चले जाओगे?" उसने पूछा।

"राजा का आदेश। मैं क्या कर सकता हूँ?" उसने कहा।

उसकी हालत कैसी? बंदर की रस्सी खोलते ही वह किसी पेड़ पर जाकर छिप गया। वह अकेली, जोर की बारिश। कहीं भी छाया नहीं। बेचारी बहुत मुसीबत में फंस गई। तभी कृष्ण भगवान् एक बूढ़े ग्वाले का भेष धरकर दो लड़कों को साथ लेकर तीन गौओं को चरानेवाले की तरह वहाँ पर आए। उन्होंने कृत्रिम रूप से एक पुराना मंडप बनाया। उसे देखकर सिरिदेवी ने आसरा लेने का मन बनाया, उठकर चली आई। बहुत ठंड लग रही थी। उसने अपनी साड़ी का आँचल फाड़ा, पत्थर कूटकर आग निकाली। चूल्हा बनाया, काँटे-सूखे पत्ते आदि उसमें डाले।

उस गोपालक ने लड़कों को आग से आने को भेजा। वे बच्चे जब आए और बहुत पुकारते रहे, मगर अपने घास-फूस का दरवाजा इस लड़की ने नहीं खोला। फिर बूढ़े ने उसे आश्वासन दिया, “घबराओ मत, डरना नहीं, मैं खुद तुम्हारी देख-रेख करूँगा। दरवाजा खोलो।"

लड़की ने कहा, "तुम मुझे वचन दो।"

"मैं तुम्हारा बाप और तुम मेरी बेटी" कहा बूढ़े ने, तब जाकर सिरिदेवी ने दरवाजा खोला।

वृद्ध ने थोड़ा सा चावल दिया, दाल भी दी। सिरिदेवी ने खाना बनाया। सबने एक साथ बैठकर खाना खाया। वृद्ध ने धीरे से उसकी पूरी कहानी सुनी। उसने रोकर अपने बारे में बताया कि किस तरह उसकी शादी एक बंदर के साथ रचा दी गई है। बूढ़े ने उसे हिम्मत देकर कहा, "रोना नहीं बिटिया, तुम्हारे भी भगवान् हैं, उसके भी हैं। वह तुम्हारा पति कहाँ है, बता?" उसने पूछा। सिरि ने कहा, “वह उस पेड़ के कोटरे के पास गया था। उसके बाद क्या हुआ, यह मैं नहीं जानती।" बूढ़े ने कहा, "डरो मत, आज घर में झाड़-पोंछा कर दो, फिर कुल देवता की पूजा करो। घर में जो कुछ है, उससे खाने की चीजें बनाओ।" उसने वैसा ही किया। “अपने कुल देवता का नाम लेकर अपने पति को परोसो।" उसने कहा। तीन बरतनों में खाद्यान्न भरकर वह कुएँ के पास आई। स्वयं पाक को जमीन पर रखकर उसे पेड़ की आड़ में खड़े होकर देखने के लिए वृद्ध ने कहा। उसने वही किया। वह बंदर आया, स्वयं उसने पाक को उठाकर खाया, फिर कुएँ के अंदर जाकर पानी पीने की उसने कोशिश की। तब वृद्ध और उसके लड़कों ने मिलकर एक साँकल से उसे बाँध लिया।

बूढ़ा अपने हाथ में एक बेंत पकड़कर उसके आगे बैठा, उसे बात करना सिखाया। पहले उसने 'अन्न दो, जल दो' ये दो शब्द सिखाए। इसी तरह अत्यंत आवश्यक कुछ शब्दों को उसे सिखाया। फिर उस परिवार के लिए अति आवश्यक सामान गाड़ी में भरवाकर ले आया। उसके साथ दो फूलमालाएँ भी वृद्ध ले आया था। एक माला को सिरिदेवी के हाथ देकर, दूसरी माला बंदर के हाथ दी। कहा, "बिटिया, तुम्हें माता-पिता का सुख नहीं मिला, बहनों से सुख नहीं मिला, पति का सुख तो मिले। इसलिए यह माला तुम अपने पति को पहनाओ।" सिरि ने माला बंदर के गले में पहनाई। वृद्ध ने आशीर्वाद में अक्षत डाले। बंदर तुरंत एक राजकुमार के रूप में परिवर्तित हो गया। उसने भी माला सिरिदेवी के गले में पहनाई। वृद्ध ने कहा, “बेटी सिरिदेवी, तुम ऐसी पतिव्रता नारी हो कि इसके गले में तुमने माला पहनाकर इसे शापमुक्त कर दिया। यह राजकुमार बन गया। अब तुम दोनों सुखी जीवन बिताओ। अब मुझे विदो करो।"

सिरिदेवी ने कहा, "हम जब सुखी जीवन जिएँगे, आप उसे देखने नहीं आओगे। यह कैसे हो सकता है।"

वृद्ध ने कहा, “अब मुझे जाना है। तुम्हें क्या चाहिए, कहो, वह देकर मैं चला जाऊँगा।"

सिरिदेवी ने कहा, "मेरे पिता के राजमहल के सामने खूब खाली जगह है। पिता से वह जगह दान में माँगकर हमारे लिए एक तिमंजिला मकान तीन महीने में बनवाकर दे दो।"

वृद्ध को उसकी माँग ठीक सी लगी। वादा कर वह निकल गया। तब तक चक्रभूति राजा गरीब हो गया था। खाने-पीने के भी लाले पड़ गए थे। वृद्ध ने उसके पास जाकर कहा, "सुना है, आप लोगों ने अच्छे दिन देखे हैं। अब ऐसी स्थिति क्यों आ गई? मुझे बारह सौ गज जमीन दे दीजिए।"

राजा अब दान में देने की स्थिति में नहीं था। इसीलिए वह उसे बेचने को तैयार हो गया। वृद्ध ने वह जमीन खरीदी। तीन महीने में तिमंजिला मकान भी बन गया। सिरि, गौरम्मा, नागम्मा, ये तीनों बहनें और माँ आजकल पराए घरों में बाई का काम करने जाती हैं। वृद्ध ने एक दिन सिरि की माँ से पूछा, “आई, आपके कितनी संतानें हैं?"

उन तीनों ने आपस में एक-दूसरे का चेहरा देखा। उनके मुंह से शब्द ही नहीं निकल रहे थे। वे पसोपेश में थीं कि सिरि को भी इसमें गिनें कि नहीं? वे फुसफुसाती रहीं। वृद्ध ने उन्हें छेड़ने के उद्देश्य से पूछा, "तुम लोग मेरी बेटी को देखकर क्या फुसफुसा रही हो?" फिर माँ ने उसके आगे सत्य घटना खुलकर बता दी। तब वृद्ध ने पूछा, “जो हुआ, सो हो गया। क्या अब इस स्थिति में भी राजा भगवान् का स्मरण नहीं करते?"

"करते क्यों नहीं, तब गुस्से में कुछ भी अंट-संट बक दिया था।" तब भी यह राज नहीं खोला, यह बात नहीं बताई कि सिरिदेवी की शादी धूमधाम से मनाई गई। अब अपने पीहर के लोगों को खूब उपहार देकर उसने विदा किया।

समारोह के पूरा हो जाने के बाद सिरिदेवी ने वृद्ध से पूछा, “मेरे पति को तुमने ज्ञान दिया, मकान-घर दिया। अब जीने का मार्ग कौन सा है?"

तब वृद्ध शहर के राजा के पास गया, उससे दामाद के लिए नौकरी माँगी। राजा ने उसे अगले दिन अपने यहाँ भेजने के लिए कहा। भेजा तो, मगर उसने उसे कुछ भी काम करने को नहीं कहा। इसी तरह तीन महीने बीत गए, एक महीने की तनख्वाह भी उसने नहीं दी थी। तब सिरिदेवी ने पति से तनख्वाह माँगने को कहा। राजा टालता गया। इसी तरह और दो महीने बीत गए। अंत में उसने कहा, "मेरा बाकी चुकता कीजिए। मैं घर चला जाऊँगा।" तब राजा इसे मुफ्त में तनख्वाह देना भी नहीं चाहता था। फिर उसने कहा, "यहाँ से बारह सौ मील आगे एक ब्रह्मदेव का मंदिर है। मैंने उन्हें दस हजार रुपए दिए हैं। तुम वहाँ जाकर मूलधन के साथ ब्याज भी वसूल करके आना। मैं उन पैसों से तुम्हारा बाकी चुकता करूँगा।" उसने घर आकर पत्नी से सबकुछ कहा। उसने कहा, "बस इतना ही करना है, कोई चिंता की बात नहीं।" इतना कहकर उसने रास्ते के लिए पाथेय बाँधकर दिया। कहा, "भगवान् के आगे धूप जलाकर निकलो। ब्रह्मदेव जब तक नहीं मिलें, इस पाथेय को खोलना मत। धूप जलाते ही तुम्हें ब्रह्मदेव मिलेंगे।"

वह निकला। वहाँ एक धनवान इनसान था। एक बड़ा ताल खुदवा रहा था, उसके लिए वहाँ हजारों लोग काम कर रहे थे। वह ताल तैयार करते और अगले दिन ही वह फूट जाता था। यह लड़का उसी मार्ग से आ रहा था। उस धनी इनसान ने उससे पूछा कि कहाँ जा रहे हो? लड़के ने जवाब में कहा कि वह ब्रह्मदेव से मिलने जा रहा है। धनवान ने उससे पूछा, क्या मेरा एक काम कर दोगे? लड़के ने काम की जानकारी लेनी चाही। धनी इनसान ने कहा, "मैं एक ताल खुदवा रहा हूँ। उसके पूरा होते ही अगले दिन तक वह टूट जाता है। इसका उपाय क्या है ? यह ब्रह्मदेव से पूछकर आना।" लड़का हामी भरकर वहाँ से निकला।

वह इसी तरह आगे सड़क नाप रहा था। वहाँ रास्ते में एक गूलर का पेड़ था। उसमें खूब फल निकलते थे। गूलर के पेड़ ने लड़के से कहा, "बेटा, पता नहीं कि मेरा दोष क्या है। मेरे पेड़ पर फल निकलते हैं, मगर गिर जाते हैं। पक्षी या कोई जीव इसे नहीं खाता। ब्रह्मदेव से पूछकर आना कि ऐसा क्यों हो रहा है ?" उसने कहा, "ठीक है, पूछ लूँगा।"

वह आगे बढ़ा, मार्ग में उसे एक तालाब दिख गया। उस तालाब के पीछे की तरफ दो भैंस चर रही थीं। उनकी आँखों के आगे चारा था, मगर वे उसे नहीं चर पा रही थीं। तालाब में पानी था, फिर भी नहीं पी पा रही थीं। भैंसों ने कहा, "बाबा, देखिए, हमारा यह हाल है। ब्रह्मदेव से इस बारे में निवेदन कर आएँगे तो कृपा होगी?" उसने जवाब में हामी भरी।

इसी तरह और थोड़ी दूर गया। वहाँ पर ब्रह्मदेव एक बहुत पके-बूढ़े इनसान सा इसे दिख गया। उसने लड़के से कहा, "तू भी पूरा पागल है। तुझे कहीं ब्रह्मदेव मिलेगा।" तभी लड़के के हाथ की धूपबत्ती भी खत्म हो गई। लड़के को तुरंत पता चल गया कि वही ब्रह्मदेव हैं। लड़के ने उनके चरण पकड़ लिये। वृद्ध ने मार्गान्न को खाने के लिए कहा। लड़के ने खा लिया। फिर ब्रह्मदेव ने उससे पूछा कि लड़के, तू यहाँ किसलिए आया है ? लड़के ने जवाब में कहा, "हमारे राजा से आपने दस हजार रुपए लेने हैं। मैं वे रुपए और उस पर ब्याज वसूल करने आया हूँ।" उस पर ब्रह्मदेव ने कहा, "यह सच है कि मैंने तुम्हारे राजा से पैसे लिये थे। जैसे ही वह याद करेगा कि मैंने उससे दस हजार रुपए कर्ज में लिये थे, उसका सिर दस हजार टुकड़े होकर फूट जाएगा।" लड़के ने कहा, "तब मेरी तनख्वाह कैसे मिल पाएगी?" जवाब में ब्रह्मदेव ने उसके हाथ एक गुड़िया दी और कहा, "अपने राजा के पास जाकर इसे दिखाकर कहना कि ब्रह्मदेव ने यह गुड़िया दी है।"

लड़के ने तालाब के बारे में पूछा। ब्रह्मदेव ने यह कहकर कि वे दोनों भाई-बहन हैं और भाई की शादी हो चुकी है, मगर बहन की अभी तक शादी नहीं हुई है। वह अपना आँचल फैलाकर रोती है। उसकी साँस तालाब के ऊपरी भाग से जाकर टकराती है। इससे वह ऊपरी आँचल फूट जाता है। इसलिए उस लड़की की तुरंत शादी हो जानी चाहिए। उससे कहो कि कल ही यह काम कर दे।

लड़के ने अब ब्रह्मदेव से गूलर के पेड़ के बारे में पूछा। ब्रह्मदेव ने जवाब में कहा, "वे दो लड़कियाँ हैं। माता-पिता की बात टालकर दोनों खेलीं, तालाब बनवा रहे धनवान को ब्रह्मदेव की बात पहुँचाने पर उसने इस लड़के से ही अपनी बहन की शादी रचाई, खूब धन भी दिया। उसके बाद लड़का अपने साथ पत्नी को भी लेकर आगे बढ़ा। मार्ग में एक कुआँ दिखा। वहाँ सुस्ताकर आगे बढ़ने का मन बनकार दोनों बैठ गए। गुड़िया ने खाना बनाकर परोसा। वहाँ पर एक शिकारी था। उसने गुड़िया को खाना बनाते-परोसते देख लिया। तुरंत उसने इन पति-पत्नी से कहा, "तुम मुझे यह गुड़िया दे दो तो मैं तुम्हें यह अपना डंडा दे दूंगा।" उसने पूछा, "डंडे की करामात क्या है?" शिकारी ने कहा, "यह तीन हजार लोगों को मार गिराता है।" लड़के ने गुड़िया दी। शिकारी ने डंडा दिया। लड़का डंडा लेकर आगे बढ़ा। आगे बढ़ते उसे एक कुआँ दिख गया। वहाँ पर उसे फिर भूख लगी। उसने सोचा, वह गुड़िया अब मेरे पास होती तो तीनों लोगों को खाना बनाकर परोस देती।" उसके इतना कहते ही डंडे ने कहा, “जी मालिक, ऐसा है कि मैं जब तक उसके साथ था, वह मेरा मालिक था। अब मैं तुम्हारे साथ हूँ। इसलिए तुम मेरे मालिक हो। कहो तो मैं उसके पास जाकर गुड़िया को लेकर लौटता हूँ।" लड़के ने कहा, “ऐसा ही हो।" डंडा गया, शिकारी को पकड़ा और गुड़िया को वूसल करके लौटा। लड़का गुड़िया और डंडा दोनों को साथ लेकर लौटा। पत्नी ने पूछा कि क्या ब्रह्मदेव से भेंट हो पाई थी।

जवाब में उसने कहा, "हाँ, मुझे ब्रह्मदेव ने यह गुड़िया दी। यह इस तरह मेरी दूसरी पत्नी है। यह डंडा है। इसे मुझे शिकारी ने दिया।" इसके बाद उसने राजा को ब्रह्मदेव का दिया पत्र दिया। राजा ने उसे पढ़ा और डर गया। आपस में सलाह-मशविरा किया। शहर के मकान को ही जला देने का निर्णय लिया। इन्हें भी वह बात मालूम हो गई। तब डंडे को दरवाजे पर टिकाकर कहा कि तुम उन लोगों की मरम्मत कर देना। डंडे को यह जिम्मेदारी सौंपकर वह निश्चिन्त होकर सो गया। आधी रात को वे लोग आए। डंडे ने उन लोगों की खूब पिटाई की। सब बेबस होकर गिर पड़े। मारे गए।

सुबह हुई। सिरिदेवी ने उठकर देखा। अपने पीहर के गाँव का कोई भी नहीं बचा था। उसने अपने पिता के घर की इस हालत को देखा, दुःख हुआ। दया भी आई। फिर माता ने जो कटोरी दी थी, उसमें पानी लेकर उसने प्रोक्षण किया। सभी फिर से जिंदा हो गए। वह लड़का ही राजा बन गया। माता-पिता, दीदी लोग सब फिर से उठ गए। गुड़िया से कहकर पसंद की सारी चीजें बनवा लीं। ताउम्र सुखी जीवन जीते रहे।

(साभार : प्रो. बी.वै. ललितांबा)

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