सिर का खप्पर : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Sir Ka Khappar : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
घर में माँ-बेटा, दो प्राणी। माँ को रुपए ब्याज पर लगाने से दो पैसे मिलते। खेत में से भी कुछ आ जाता। एक तो बेटा। समय देख कुछ बना देती। कभी पेट खाली न रहे। भूख कैसी होती है, वह कभी न जाने।
माँ ने बेटे को सोना-चाँदी, रुपए दिए। बेटे ने कमर की थैली में रखे। भूख-भूख खोजने चला। कुछ दिन, कुछ रात राह में कट गईं। चलता रहा। रुपए-पैसे खर्च कर खाता रहा। फिर सोना-चाँदी खरचे। देखा, थैली खाली हो गई। बिना पैसे कोई क्यों अपने पास से देगा? एक दिन बरगद के पेड़ के नीचे बैठा। होंठ सूख गए। पेट ने खूब पुकारा। देह-सिर-पाँव झाँय-झाँय करने लगे। आँख के आगे दिन में तारे दिखे। बेटा समझ गया, भूख उत्पात कर रही है। इसे जानने इतनी दूर आया! वह अब मिली। अब लौटे कैसे? उठ न सका।
बैठ-उठकर महाजन के द्वार पहुँचा।
महाजन से कहा, “तेरे पास रती भर सोना या तोला भर चाँदी है तो दे।”
महाजन बोला, “कुछ नहीं, किस विश्वास पर रुपए दूँ?”
बेटा, “मेरे पास कुछ नहीं, यह देह है। इसमें हाथ-पाँव-छाती बंधक रख लो। कुछ कौड़ी दे।”
महाजन ने हाथ, पाँव, छाती काट रखी। खप्पर लुढ़क-लुढ़क राजा की बैंगन की क्यारी में लगा। एक दिन रानी ने दासी को बैंगन लाने भेजा।
राजकुमारी ने कहा, “देखूँगी बैंगन कैसे फलता है।”
रानी, “काँटे चुभेंगे। पान पर गिर जाओगी।”
राजकुमारी, “कुछ न होगा। मुझे जाने दो।”
राजकुमारी क्यारी में गई। कुछ तोड़ा। लौट रही थी, आदमी के खप्पर ने आँचल पकड़ा। वह न जान सकी। घर आते ही रानी ने कहा, “ये क्या, कहाँ से लाई? चल घर से बाहर निकल।” रानी ने राजकुमारी को बाहर कर दिया। राजकुमारी और खप्पर जाकर जंगल में रहे। कड़वे-कड़वे फल खाकर कितने दिन रहें। भात या तरकारी मुँह में गई नहीं। खप्पर ने कहा, “मैं खेती करता हूँ। एक कुल्हाड़ी ला दे। जंगल साफ करें।” राजकुमारी ने एक बूढ़ी से कहा, “मौसी, कुल्हाड़ी दे, जंगल साफ करेंगे।”
बूढ़ी, “तुझे शरम नहीं, खप्पर जंगल कैसे साफ करेगा?”
राजकुमारी, “वो तो नहीं कर सकते, मैं करूँगी। कह कुल्हाड़ी ले आई। आदमी का खप्पर कहीं खेती करे? मैं करूँगी।”
राजकुमारी के आने पर खप्पर ने कहा, “जंगल खेत हो जा।”
अब जंगल खेत हो गया। खेत में धान भर गया। धान, जो भर गए, पौधे हो गए। धान में अंकुर आ गए। हलद रंग के पके धान।
खप्पर, “धान के गुच्छे हों। सारा धान गुच्छा हो गया। ढेर लग गया।”
राजकुमारी ने बूढ़ी से कहा, “हमें शगड़ दो।”
बूढ़ी, “लाज नहीं। खप्पर कैसे शगड़ खींचेगा?”
राजकुमारी, “वह न खींच सके तो मैं खींचूँगी।” मौसी ने शगड़-बैल दिए। धान खींचकर द्वार पर लाए। खप्पर ने वन में बाघ-भालू को कहा, “मेरा धान रौंद दो।” धान रौंदा गया। कोठी भर गई। कुछ बेचकर पैसे आए। महाजन को दिए। अपने हाथ-पाँव छाती छुड़ा लाया। अब पूरा आदमी हो गया।
राजा ने पायक भेजा, “देख, राजकुमारी कैसी है? खप्पर को देखा, वहाँ खप्पर भी नहीं, दिव्य सुंदर जवान पुरुष के साथ राजकुमारी बात कर रही है।” सब समझ राजा ने सम्मान के साथ दोनों का विवाह कर दिया।
(साभार : डॉ. शंकरलाल पुरोहित)