सिंहगढ़-विजय : आचार्य चतुरसेन शास्त्री
Sinhgad-Vijay : Acharya Chatursen Shastri
(वीर शिवाजी और उनके सहयोगी तानाजी की वीरता की उत्कृष्ट कहानी। लेखक की यह कहानी बहुत प्रसिद्ध है।)
रात बहुत अंधेरी थी। रास्ता पहाड़ी और ऊबड़-खाबड़ था। आकाश पर बदली छाई हुई थी, और अभी कुछ देर पूर्व ज़ोर की वर्षा हो चुकी थी। जव ज़ोर की हवा से वृक्ष और बड़ी-बड़ी घास सांय-सांय करती थी, तब जंगल का सन्नाटा और भी भयानक मालूम होता था।
इस समय उस जंगल में दो घुड़सवार बढ़े चले जा रहे थे। दोनों के घोड़े खूब मज़बूत थे, पर वे पसीने से लथपथ थे। घोड़े पग-पग पर ठोकरें खाते थे, पर उन्हें ऐसे बीहड़ रास्तों में, ऐसे संकट के समय अपने स्वामी को ले जाने का अभ्यास था। सवार भी असाधारण धैर्यवान और वीर पुरुष थे। वे चुपचाप चल रहे थे। घोड़ों की टापों और उनकी प्रगति से कमर में लटकती हुई उनकी तलवारों और बों की खरखराहट उस सन्नाटे के पालम में एक भयपूर्ण रव उत्पन्न करती थी।
हठात् घोड़े ने एक ठोकर खाई, और एक मंद आर्तनाद अग्रगामी सवार के कान में पड़ा। उसने घोड़े की बाग खींचते हुए कहा-धांधूजी?
'महाराज!' पीछेवाला सवार क्षण-भर में अग्रगामी सवार के सन्निकट आ गया, और उसने बिजली की भांति अपनी तलवार खींच ली। अग्रगामी सवार का घोड़ा खड़ा हो गया था। उसने भी तलवार नंगी करके कहा-देखो, क्या है? घोड़े ने ठोकर खाई है, यह आर्तनाद कैसा है?
धांधूजी घोड़े से उतर पड़े, उन्होंने झुककर देखा और कहा-महाराज, एक मनुष्य है।
'क्या घायल है?'
'खून में लथपथ प्रतीत होता है।'
'जीवित है?'
इसी समय पड़े हुए व्यक्ति ने फिर आर्तनाद किया। महाराज उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही घोड़े से कूद पड़े। उन्होंने धांधूजी को प्रकाश करने का आदेश दिया, और स्वयं मार्ग में पड़े व्यक्ति के सिरहाने घुटनों के बल बैठ गए। उन्होंने उसका सिर गोद में रख लिया, नाड़ी देखी, हृदय का स्पंदन देखा और कहा-जीवित है, पर मालूम होता है, बहुत घाव खाए हैं, रक्त बहुत निकल गया।
धांधूजी ने तब तक चकमक पत्थर से अबरख की बनी चोर-लालटेन जला ली थी। वे उसे घायल के मुख के पास लाए। देखकर कहा-अरे, बड़ा अल्प-वयस्क बालक है!
'परन्तु अंग में अनेक घाव हैं, मालूम होता है वीरतापूर्वक युद्ध किया है।'
मुमूर्षु ने प्रकाश और मनुष्य-मूर्ति को देखा, और जल का संकेत किया। महाराज ने स्वयं उसके मुख में जल डाला। जल पीकर उसने आंखें खोलीं, और क्षीण स्वर में कहा-आप कौन हैं प्राणरक्षक?-और फिर कुछ ठहरकर कहा-आप चाहे जो भी हों, यह प्राण और शरीर आपके हुए। उसके होंठों पर मंद हास्य की रेखा आई।
महाराज ने कहा-धांधूजी, इसका रक्त बन्द होना चाहिए। देखिए, सिर से अब तक रक्त बह रहा है। और, पार्श्व का यह घाव भी भयानक है-इसके बाद दोनों व्यक्तियों ने उसके सभी घाव बांधकर उसे स्वस्थ किया। फिर वे सलाह करने लगे अब इसे कहां ले जाया जाए? समय कम है और हमारा गंतव्य पथ लम्बा।
युवक ने स्वयं कहा-यदि मुझे घोड़े पर बैठा दिया जाए, तो मैं मज़े में चल सकूँगा।
'क्या निकट कोई गांव है?'
'है, पर एक कोस के लगभग है।'
'वहां कोई मित्र है?'
'हैं। वहां मेरी बहिन का घर था, बहनोई हैं।' युवक का स्वर कम्पित था।
महाराज ने कहा-बहिन नहीं है?
'नहीं।' युवक का कंठ अवरुद्ध हुआ। उसके नेत्रों से झरझर आंसू बहर्ने लगे। वह फिर बोला-उसे आज तीसरे पहर विदा कराके घर ले पा रहा था। बहनोई उस बाग तक साथ आए थे। उन्हें लौटते देर न हुई, ज्योंही हम लोग इस खेड़े के निकट पहुंचे, कोई पांच सौ यवन सैनिकों ने धावा बोल दिया। मेरे साथ केवल आठ आदमी थे। शायद सभी मारे गए। मैंने यथासाध्य विरोध किया, पर कुछ न कर सका। वे बहिन का डोला ले गए। मैंने मूर्छित होने से प्रथम अच्छी तरह देखा, पर मैं तलवार पकड़ ही न सका, फिर मेरी तलवार टूट भी गई थी। युवक उद्वेग से मूर्छित हो गया।
महाराज ने होंठ चबाया। एक बार उन्होंने अपने सिंह के समान नेत्रों से उस चीर-लालटेन के प्रकाश में चारों ओर देखा-टूटी तलवार, वर्डा, दो-चार लाशें और रक्त की धार। उन्होंने युवक से कहा-तुम्हारे घर पर कौन है?
'वृद्धा विधवा माता।'
'गांव कौन है?'
'मौरावां।'
'आठ कोस होगा।'
'तुम्हारा नाम?'
'तानाजी।'
'घोड़े पर चढ़ सकोगे?'
'जी।'
महाराज और धांधूजी ने युवक को घोड़े पर लादा। धांधूजी उसके पीछे बठे, और महाराज भी अपने घोड़े पर सवार हुए। इस बार ये यात्री अपना पथ छोड़कर युवक के आदेशानुसार गांव की ओर बढ़े, पगडंडी सकरी और बहुत खराब थी। जगह-जगह पानी भरा था, पर जानवर सधे हुए और बहुत असील थे। गांव निकट आ गया। युवक के बताए मकान के द्वार पर जाकर धांधूजी ने थपकी दी। एक युवक ने आकर द्वार खोला। धांधूजी ने उसकी सहायता से घायल तानाजी को उतारकर घर में पहुंचाया। संक्षेप में दुर्घटना का हाल सुनकर गृह-पति मर्माहत हुआ। धांधूजी ने अवकाश न देखकर कहा-तुम लोग परसों इसी समय हमारे यहां आने की प्रतीक्षा करना और इस घटना का कहीं भी जिक्र न करनी।
तानाजी ने व्यग्र होकर कहा-महोदय, आपका परिचय? मैं किसके प्रति कृतज्ञ होऊ?
'छत्रपति हिन्दू-कुल-सूर्य महाराजाधिराज शिवाजी के प्रति।'
धांधूजी ने अव विलम्ब न किया, वे लपककर घोड़े पर चढ़े, और दोनों ‘असाधारण सवार उस अंधकार में विलीन हो गए।
पूना से पश्चिम ओर, विंध्याचल-शृंग के एक दुरूह शिखर पर एक अति 'प्राचीन, शायद बौद्धकालीन गुफा है। उसके निकट घने वृक्षों का झुरमुट है। एक अमृत के समान मीठे पानी का झरना भी है। इसी गुफा के सम्मुख कोई एक तीर के अंतर पर एक विस्तृत मैदान है। उसे खास तौर पर साफ और समतल बनाया गया है।
वहां एक बलिष्ठ युवक बी फेंकने का अभ्यास कर रहा था। युवक गौरवर्ण, सुन्दर, ठिगना और लोहे के समान ठोस था। उसने अपने सुगठित हाथों में बर्जा उठाया और तौलकर एक वृक्ष को लक्ष्य करके फेंका। बर्खा वृक्ष को चीरता हुआ पार निकल गया। गम्भीर स्वर में किसीने कहा-ठीक नहीं हुआ, तुम्हारा लक्ष्य चलित हो गया।
युवक ने माथे का पसीना पोंछकर पीछे फिरकर देखा। एक जटिल संन्यासी तीव्र दृष्टि से युवक को ताक रहे थे। युवक ने सिर झुका लिया। संन्यासी अग्रसर हुए। उन्होंने बर्छ को क्षण-भर तोला, और विद्युत-वेग से फेंक दिया। बर्खा स्थूल वृक्ष को चीरता हुआ क्षण-भर ही में धरती में घुस गया। उत्साहित होकर युवक ने एक ही झटके में बर्खा उखाड़ा, और महावेग से फेंका। इस बार बळ वृक्ष को चीरकर धरती में घुस गया। संन्यासी ने मुस्कराते हुए कहा-हां, यह कुछ हुआ। वत्स, मैं तो वृद्ध हुआ, युवक-सा पौरुष कहां? हां, तुम अभी और भी स्फूर्ति उत्पन्न करो।
युवक ने गुरु के चरणों में प्रणाम किया, और दोनों ने तलवारें निकाल लीं। प्रथम मंद, फिर वेग और उसके बाद प्रचण्ड गति से दोनों गुरु-शिष्य तलवारें चलाने लगे, मानो बिजलियां टकरा रही हों। दोनों महाप्राण पुरुष पसीने से लथपथ हो गए। श्वास चढ़ गया, परन्तु उनका युद्ध-वेग कम न हुआ। दोनों ही चीते की भांति उछल-उछलकर वार कर रहे थे। तलवारें झनझना रही थीं। गुरु ने ललकारकर कहा-बेटे, लो, एक सच्चा वार तो करो। देखें शत्रु का तुम किस भांति हनन करोगे।
युवक ने प्रावेश में आकर संन्यासी के मोढ़े पर एक भरपूर वार किया। संन्यासी ने कतराकर एक जनेवा का हाथ जो दिया, तो युवक की तलवार झन्नाकर दस हाथ दूर जा पड़ी। संन्यासी ने युवक के कंठ पर तलवार रखकर कहा- वत्स, बस यही तुम्हारा कौशल है? इस समय शत्रु क्या तुम्हें जीवित छोड़ता?
युवक ने लज्जा से लाल होकर गुरु के चरण छुए, और फिर तलवार उठा ली। इस बार उसने अंधाधुन्ध वार किए, पर संन्यासी मानो विदेह पुरुष थे। उनका शरीर मानो दैव-कवच से रक्षित था। वह वार बचाते, युवक को सावधान करते और तत्काल उसके शरीर पर तलवार छुवा देते थे। अंत में युवक का दम बिलकुल फूल गया। उसने तलवार गुरु के चरणों में रख दी, और स्वयं भी लोट गया। गुरु ने उसे छाती से लगाया और कहा-वत्स, आज ही श्रावणी पूर्णिमा है, महाराज अभी आते होंगे। आज तुम्हें इस संन्यासी को त्यागना होगा। और जिस पवित्र व्रत को तुमने लिया है, उसमें अग्रसर होना होगा। यद्यपि मैं जैसा चाहता था, वैसा तो नहीं, पर फिर भी तुम पृथ्वी पर अजेय योद्धा हो। तुम्हारी तलवार और बर्खे के सम्मुख कोई वीर स्थिर नहीं रह सकता। युवक फिर गुरु-चरणों में लोट गया। उसने कहा-प्रभो, अभी मुझे और कुछ सेवा करने दीजिए।
'नहीं वत्स, अभी तुम्हें बहुत कार्य करना है, उसकी साधना ही मेरी चरण-सेवा है।'
हठात् वज्र-ध्वनि हुई-छत्रपति महाराज शिवाजी की जय!
दोनों ने देखा, महाराज घोड़े से उतर रहे हैं। उन्होंने धीरे-धीरे पाकर संन्यासी की चरण-रज ली, और संन्यासी ने उन्हें उठाकर आशीर्वाद दिया। युवक ने आकर महाराज के सम्मुख घुटनों के बल बैठकर प्रणाम किया। महाराज ने कहा---युवक, आज वही श्रावणी पूर्णिमा है।
'जी।'
'आज उस घटना को तीन वर्ष हो गए, जब तुम्हें घायल करके शत्रु तुम्हारी बहिन को हरण करके ले गए थे, तुम्हें स्मरण है?'
'हां महाराज, और आपने मुझे जीवन-दान दिया था, मैंने यह प्राण और शरीर आपकी भेंट किए थे।'
'और तुमने प्रतिशोध की प्रतिज्ञा भी की थी?'
'जी हां।'
'मैंने तुम्हें गुरुजी की सेवा में तीन वर्ष के लिए इसलिए रखा था कि तुम शरीर, आत्मा और भावना से गम्भीर एवं दृढ़ बनो, तामसिक क्रोध का नाश करो, सात्विक तेज की ज्वाला से प्रज्वलित होओ।'
'हां महाराज, गुरु-कृपा से मैंने आत्मशुद्धि की है।'
'और अब तुम वैयक्तिक स्वार्थ के दास तो नहीं?'
'नहीं प्रभो।'
'प्रतिशोध लोगे?'
'अवश्य।'
'अपनी बहिन का?'
'नहीं, एक हिन्दू अबला के स्वतन्त्रता-हरण का, मर्यादारहित पाप का।'
'और तुममें वह शक्ति है?'
'गुरु-चरणों की कृपा और महाराज की छत्रछाया में मैं उसे प्राप्त करूंगा।'
'तुम्हारी तलवार में धार है?'
'और तुम्हारी कलाई में उसे धारण करने की शक्ति?'
'समय की प्रतीक्षा का धैर्य?'
'प्रतीक्षा का धैर्य?' युवक ने अधीर होकर कहा।
'हां, धैर्य!' महाराज ने कठोर स्वर में कहा।
युवक का मस्तक झुक गया, और उसके नेत्रों से आंसुओं की धारा बह चली। उसने कहा-महाराज, धैर्य तो नहीं है। वह महाराज के चरणों में गिर गया।
महाराज ने उठाकर उसे छाती से लगाया। वे संन्यासी की ओर देखकर हंस दिए। उन्होंने कहा-गुरुजी की क्या प्राज्ञा है?
'ताना तैयार है, मैंने उसे गुरु-दीक्षा दे दी है।' फिर कहा-युवक ने गुरु की ओर आंखें उठाईं। वे अब भी आंसुओं से तर थीं।
'शांत हो, देखो, सदैव कर्तव्य समझकर कार्य करना, फल की चिंतनान केरना।' युवक चुप रहा।
'यदि फल की आकांक्षा करोगे, तो धैर्य से च्युत हो जाओगे और कदाचित्क र्तव्य से भी।'
'प्रभो, मैं अपनी भूल समझ गया।'
'जागो पुत्र, महाराज की सेवा में रहो, विजयी बनो। भारत के दुर्भाग्य को नष्ट करो। नवीन जीवन, नवीन युग का प्रवर्तन करो। धर्म, नीति, मर्यादा और सामाजिक स्वातन्त्र्य के लिए प्राण और शरीर एवं स्वार्थों का विसर्जन करो।'
युवक ने गुरु-चरणों में मस्तक नवाया। संन्यासी के नेत्रों में आंसू आ गए। उन्होंने कहा-वत्स जानो, जागो। संन्यासी को अधिक प्राप्यायित न करो। वीतराग संन्यासी किसी के नहीं।
इसके बाद उन्होंने महाराज से एक संकेत किया। महाराज संन्यासी को अभिवादन कर घोड़े पर चढ़े। एक घोड़े पर युवक चढ़ा, और धीरे-धीरे वे उस पर्वत-शृंग से उतर चले।
संन्यासी शिलाखंड की भांति अचल रहकर उन्हें देखते रहे, जब तक कि वे आंख से ओझल नहीं हो गए।
ग्राम में बड़ा कोलाहल था। बालक धूम मचा रहे थे। और, विविध वस्त्र पहने स्त्री-पुरुष काम-काज में व्यस्त इधर से उधर दौड़-धूप कर रहे थे। तानाजी का विवाह था। द्वार पर नौबत झर रही थी। आगतजनों की काफी भीड़ थी।
सन्ध्या होने में अभी विलंब था। एक श्रमिक, शिथिल सांड़नी-सवार ने नगर में प्रवेश किया। थोड़े-से बालक कौतूहल-वश उसके पीछे हो लिए। ग्राम के चौराहे पर जाकर उसने अपनी बगल से छोटी-सी तुरही निकालकर फूंकी। देखते-देखते दस-बीस नर-नारी और बहुत-से बालक एकत्र हो गए। सवार ने एक वृद्ध को लक्ष्य करके कहा मुझे तानाजी के मकान पर अभी पहुंचना है।
तुरन्त दस-पांच आदमी साथ हो लिए। सम्मुख ही तानाजी का घर था। वहां पहुंच कर उसने फिर तुरही बजाई। कोलाहल बन्द हो गया। सभी व्यग्र होकर आगंतुक को देखने लगे। उसने ज़रा उच्च स्वर से पुकारकर कहा-छत्रपति शिवा-जी महाराज की जय हो! मैं तानाजी के पास महाराज का अत्यावश्यक सन्देश लेकर आया हूं। अभी तत्क्षण तानाजी से मुलाकात न होने से महाराज विपत्ति में पड़ेंगे। उपस्थित जनमंडल ने चिल्लाकर कहा-छत्रपति महाराज की जय!
हल्दी से शरीर लपेटे, ब्याह का कंगना हाथ में बांधे तानाजी बाहर निकल आए। धावन ने उन्हें पत्र दिया। पत्र पढ़कर तानाजी क्षण-भर को विचलित हुए। इसके बाद ही उन्होंने अग्निमय नेत्रों से उपस्थित जनसमूह को देखा। वे उछल-कर एक ऊंचे स्थान पर चढ़ गए, और गम्भीर, उच्च स्वर से कहना प्रारम्भ किया सज्जनो! महावीर छत्रपति महाराज ने मुझे इसी क्षण बुलाया है। बीजापुर-शाह महाराज पर चढ़ दौड़े हैं। यह शरीर और प्राण महाराज का है। फिर बहिन के प्रतिशोध का भी यही महायोग है। मैं इसी क्षण जाऊंगा। आप लोग कल प्रात:-काल ही प्रस्थान करें। विवाह-समारोह अनिश्चित समय के लिए स्थगित किया गया।
तानाजी बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए चीते की भांति उछलकर कूद पड़े, और घर में चले गए। कुछ ही क्षण बाद वह अपने प्यारे बर्छ और विशाल तलवार के साथ सज्जित होकर घोड़े पर सवार हुए। विवाह का आनन्द-समारोह स्तब्ध हो गया। पिता और गुरुजन को प्रणाम कर उन्होंने बढ़ते हुए संध्या के अंधकार में डूबते हुए सूर्य को लक्ष्य कर उन दुर्गम पर्वत-उपत्यकाओं में घोड़ा छोड़ दिया।
'महाराज की जय हो, मेरी एक विनती है।'
'क्या कहते हो?'
'बीजापुर की सेना परसों अवश्य ही दुर्ग पर आक्रमण करेगी।'
'सो तो सुन चुका हूं।'
'दुर्ग की पूरी मरम्मत नहीं हो पाई है, ऐसी दशा में वह आक्रमण न सह सकेगा।
'मालूम तो ऐसा ही होता है।'
'परन्तु कल सन्ध्या तक दुर्ग बिलकुल सुरक्षित हो जाएगा।'
'यह तो अच्छी बात है।'
'परन्तु महाराज, अपराध क्षमा हो।'
'कहो।'
'एक निवेदन है।'
'क्या?'
'केवल एक-एक मुट्ठी चना मेरे सैनिकों और मजदूरों को मिल जाए, तो फिर वे कल संध्या तक और कुछ नहीं चाहते।'
'यह तो तुम जानते ही हो, वह मैं न दे सकूँगा।'
तानाजी चुप रहे। महाराज भी चुप हो गए। वे चंचल गति से इधर-उधर घूमने लगे।
एक प्रहरी ने सम्मुख आकर कहा-महाराज, एक फिरंगी दुर्ग-द्वार पर उपस्थित है, दर्शनों की विनती करता है। महाराज ने चकित होकर कहा-फिरंगी? वह कहां से आया है?
'सूरत से आ रहा है।'
'साथ में कौन है?'
'दो सवार हैं।'
'क्या चाहता है?'
'महाराज से मुलाकात करना।'
क्षण-भर महाराज ने कुछ सोचा, इसके बाद तानाजी को आज्ञा दी-उसे महल के बाहरी कक्ष में ले आयो। तानाजी ने 'जो आज्ञा' कहकर प्रस्थान किया, और महाराज भी कुछ सोचते हुए महल की ओर चले गए।
'तुम्हारा देश कौन-सा है?'
'मैं फ्रांस देश का अधिवासी हूं।'
'क्या चाहते हो?'
'महाराज, मैं कुछ हथियार बीजापुर के बादशाह के हाथ बेचने लाया था, परन्तु यहां आने पर आपकी यशोगाथा का विस्तार प्रजा में सुनकर इच्छा होती है, वे हथियार मैं आपको दे दूं, यदि महाराज प्रसन्न हों। मेरे पास पचास तो छोटी विलायती तोपें, पांच हज़ार बंदूकें और इतनी ही तलवारें हैं। सभी हथियार फ्रांस देश के बने हुए हैं। और भी युद्ध-सामग्री है।'
महाराज ने मंद हास्य से पूछा-उनका मूल्य क्या है?
'महाराज को मैं यह सब दस लाख रुपये में दे दूंगा। यद्यपि माल बहुत अधिक मूल्य का है।'
महाराज की दृष्टि विचलित हुई। परन्तु उन्होंने दृढ़, गंभीर स्वर से कहा-मैं कल इसी समय इसका उत्तर दूंगा। अभी तुम विश्राम करो।
फिरंगी चला गया। महाराज अत्यन्त चंचल गति से टहलने लगे। रात्रि का अन्धकार आया। तानाजी मशालें लिए किले की मरम्मत में संलग्न थे। महाराज बुलाकर कहा-तानाजी, अब समय आ गया। अभी सारी सेना को तैयार होने का आदेश दे दो।
'जो आज्ञा महाराज, कूच कहां को करना होगा?'
'इस फिरंगी का जहाज़ लूटना होगा।'
तानाजी आंखें फाड़-फाड़कर देखने लगे। क्षण-भर बाद बोले-महाराज की जय हो! यह क्या आज्ञा दे रहे हैं?
महाराज ने लपककर तानाजी की कलाई कसकर पकड़ ली। उन्होंने कहा-युवक सेनापति! देखते हो, दुर्ग छिन्न-भिन्न और अरक्षित है। सेना के पास न शस्त्र, न घोड़े, और खजाने में इनको देने के लिए एक मुट्ठी चना भी नहीं। उधर विजयिनी यवन-सेना बीजापुर से धावा मारकर आ रही है। क्या मैं समय और उपाय रहते पिस मरूं? ये हथियार भवानी ने मुझे दिए हैं। छोड़गा कैसे? उस फिरंगी को कैद कर लो। उसे रुपया देकर मुक्त कर दिया जाएगा। जानो, सेना को अभी तैयार होने का आदेश दो। ठीक दो पहर रात्रि व्यतीत होते ही कूच होगा। तानाजी कुछ कह न सके। वह सेना को आदेश देने चल दिए। महाराज बैठे-बैठे ऊंघ रहे थे। पीछे दो शरीर रक्षक चुपचाप खड़े थे। ताना-जी ने सम्मुख पाकर कहा-महाराज की जय हो, कूच का समय हो गया है, सेना तैयार है।
महाराज चौंककर उठ बैठे। वे चमत्कृत थे। उन्होंने कहा-तानाजी?
'महाराज।'
'मुझे भवानी ने स्वप्न में आदेश दिया है।'
'वह कैसा आदेश है महाराज!'
'यह सम्मुख मन्दिर की पीठ दिखाई पड़ती है न?'
'हां, महाराज।
'अभी मैं बैठे-बैठे सो गया, इसमें वह जो मोखा है, उसमें से एक रत्नजटित गहनों से लदा हुआ हाथ निकलकर इसी स्थान की ओर संकेत करने लगा। मैंने स्पष्ट सुना, किसीने कहा-यहीं खोदो।'
'महाराज की क्या आज्ञा है?'
'भवानी का आदेश अवश्य पूरा होना चाहिए। उस स्थान को खुदवाओ।'
तत्काल चार बेलदारों ने खोदना प्रारम्भ किया। देखते-देखते बड़ा भारी गहरा गड्ढा हो गया। मिट्टी का ढेर लग गया। तानाजी ने ऊबकर कहा-महाराज, अब केवल एक पहर रात्रि रही है।
'ठहरो, क्या नीचे मिट्टी ही मिट्टी है?
भीतर से एक बेलदार ने चिल्लाकर कहा-महाराज! पत्थर पर कुदाल लगी है।
महाराज ने व्यग्र स्वर में कहा--सावधानी से खोदो।
'महाराज की जय हो! नीचे पटिया है। उसमें एक लोहे का भारी कुण्डा है।
'उसे बलपूर्वक उखाड़ लो।'
'महाराज, नीचे सीढ़ियां प्रतीत होती हैं। प्रकाश आना चाहिए।'
प्रकाश पाया। तानाजी नंगी तलवार लेकर गड्ढे में कूद गए। दो और भी वीर कूद गए। महाराज विकलता से खड़े गंभीर प्रतीक्षा करते रहे।
तानाजी ने बाहर आकर वस्त्रों की धूल झाड़ते हुए अपनी तलवार ऊंची की। और फिर तीन बार खूब ज़ोर से कहा-छत्रपति महाराज शिवाजी की जय! निकट खड़ी सेना प्रलय-गर्जन की भांति चिल्ला उठी-छत्रपति महाराज की जय!
इसके बाद तानाजी महाराज के निकट खड़े हो गए।
महाराज ने पूछा-भीतर क्या है?
'भवानी का प्रसाद है।'
'कितना है?'
'चालीस देगें मुहरों की भरी रखी हैं। चांदी के सिक्के भी इतने ही हैं। एक चांदी की संदूकची में बहुत-से रत्न हैं।'
महाराज एक बार प्रकंपित वाणी से चिल्ला उठे---जय भवानी माता की!
एक बार फिर वज्र-गर्जन हुआ। इसके बाद महाराज ने तानाजी को आदेश दिया-सेना को विश्राम की आज्ञा दी जाए। और सब खज़ाना सुरक्षित रूप से निकालकर तोशाखाने में दाखिल कर दिया जाए।
नगर के गण्य-मान्य जौहरी बैठे थे। वही चांदी की संदूकची सम्मुख रखी थी। महाराज ने कहा-इसका क्या मूल्य है?
'महाराज, इसका मूल्य कूतना असंभव है। यह मोतियों की माला ही अकेली दस लाख से कम मूल्य की नहीं।'
महाराज ने उन्हें विदा करके उस फ्रेंच को बुलाकर कहा-क्या तुम इन रत्नों का कुछ मूल्य अंकित कर सकते हो?
फिरंगी रत्नों की राशि देखकर दंग रह गया। उसने बड़े ध्यान से मोतियों की माला को देखकर कहा-यदि महाराज की आज्ञा हो, तो मैं इस अकेली माला के बदले में अपने संपूर्ण हथियार दे सकता हूं।
महाराज मुस्कराए। उन्होंने कहा-इसे तुम रख लो, मेरे निकट यह कंकड़-पत्थर के समान है। वे सभी हथियार और सामग्री मुझे आज संध्या से पूर्व ही मिल जानी चाहिए।
'जो आज्ञा महाराज।' फिरंगी चला गया।
चोबदार ने प्रवेश करके कहा-महाराज की जय हो! एक चर सेवा में उपस्थित हुआ चाहता है।
'उसे अभी भेज दो।'
चर ने महाराज के चरणों में सिर झुकाया।
'तुम हो महाभद्र?'
'महाराज की जय हो, सेवक इसी क्षण सुसमाचार निवेदन किया चाहता है।'
'क्या समाचार है?'
'बीजापुर-शाह का खज़ाना इसी मार्ग से जा रहा है।'
'कितना खज़ाना है?'
'पैंतीस खच्चर मुहरें हैं।'
'सेना कितनी है?'
'पांच हजार।
'शेष सेना कहां है।'
'वह सिंहगढ़ में महाराज पर आक्रमण की तैयारी में सन्नद्ध है। खज़ाना पहुंचा, और आक्रमण हुआ।
'निश्चित रहो, खज़ाना वहां कभी न पहुंचेगा। जामो तानाजी को भेज दो, और स्वयं यह पता लगायो कि खजाना आज दो पहर रात तक कहां पहुंचेगा।'
'जो आज्ञा।' कहकर चर ने प्रस्थान किया।
क्षण-भर बाद तानाजी ने प्रवेश कर कहा-महाराज की क्या आज्ञा है?
'क्या वे सब हथियार मिल गए?'
'जी महाराज!'
'तोपें कैसी हैं?'
'अत्युत्तम, वे सभी बुजियों पर चढ़ा दी गई।'
'बंदूकें?'
'सब नई और उत्तम हैं। सब बंदूकें, बर्छ और तलवारें भी बांट दी गई हैं।'
'तुम्हारे पास कुल कितने घुड़सवार हैं?'
'सिर्फ पांच सौ।'
'शेष।'
'शेष सब अशिक्षित किसानों की भीड़ है। उन्हें शस्त्र अवश्य मिल गए हैं, परन्तु उन्हें चलाना कदाचित् वे नहीं जानते।'
'बहुत ठीक, बीजापुर-शाह का खज़ाना सिंहगढ़ जा रहा है। वह अवश्य वहां न पहुंचकर यहां आना चाहिए। परन्तु उसके साथ पांच हज़ार चुने हुए सवार हैं। तुम अभी पांच सौ सैनिक लेकर उनपर धावा बोल दो।'
'जो आज्ञा।'
'परन्तु युद्ध न करना, जैसे बने, उन्हें आगे बढ़ने में बाधा देना।'
'जो आज्ञा।'
'मैं प्रभात होते-होते समस्त पैदल सेनासहित तुमसे मिल जाऊंगा।'
'जो आज्ञा।'
तानाजी ने तत्काल कूच कर दिया।
दुपहरी की तीव्र सूर्य-किरणों में धूल उड़ती देखकर यवन सैनिक सजग हो गए। उनके सरदार ने ललकारकर व्यूह-रचना की, और खच्चरों को खास इन्तबाम में रखकर मोर्चेबन्दी पर डट गए। कूच रोक दिया गया।
तानाजी धुआंधार बढ़े चले आ रहे थे। दोपहर होते-होते ही उन्होंने खज़ाना धर दबाया था। उन्होंने देखा, यवन-दल कूच रोककर, मोर्चा बांधकर युद्ध-सन्नद्ध हो गया है। तानाजी ने भी आक्रमण रोककर वहीं मोर्चा डाल दिया। यवनदल ने देखा-शत्रु जो धावा बोलता हुआ पीछा कर रहा था, आक्रमण न करके वहीं मोर्चा बांधकर रुक गया है। इसके क्या माने? यवन-सेनापति ने स्वयं आक्रमण कर दिया।
यवनसेना को लौटकर धावा करते देख तानाजी ने शीघ्रता से पीछे हटना प्रारम्भ कर दिया। दो-तीन मील तक पीछा करने पर भी जब शत्रु भागता ही चला गया, तब यवन सेनापति ने अाक्रमण रोककर सेना की श्रृंखला बना फिर कूच कर दिया।
परन्तु यह देखते ही तानाजी फिर लौटकर यवन सेना का पीछा करने लगे। यवन सेनापति ने यह देखा। उसने सोचा, डाकू घात लगाने की चिन्ता में हैं। उसने क्रुद्ध होकर फिर एक बार लौटकर धावा किया, पर तानाजी फिर लौटकर भाग चले।
संध्या-काल हो गया। यवन सेनापति ने खीजकर कहा-ये पहाड़ी चूहे न लड़ते हैं और न भागते हैं, अवश्य अन्य सेना की प्रतीक्षा में हैं। साथ ही कम भी हैं। अतः उसने व्यवस्था की कि तीन हजार सेना के साथ खज़ाना आगे बढ़े और दो हजार सेना इन डाकुओं को यहां रोके रहे। इस व्यवस्था से आधी सेना के साथ खज़ाना आगे बढ़ गया। शेष दो हजार सैनिकों ने वेग से तानाजी पर आक्रमण किया। तानाजी बड़ी फुर्ती से पीछे हटने लगे। धीरे-धीरे अंधकार हो गया। यवन-दल लौट गया। परन्तु चतुर तानाजी समझ गए कि खज़ाना आगे बढ़ गया है। वे उपाय सोचने लगे। एक सिपाही ने घोड़े से उतरकर तानाजी की रकाव पकड़ी। तानाजी ने कहा-क्या है?
'आप जो सोच रहे हैं, उसका उपाय मैं जानता हूं।'
'क्या उपाय है?'
'यहां से बीस कोस पर एक गांव है।'
'फिर?'
'वहां मेरे बहुत सम्बन्धी हैं।'
'अच्छा।'
'उस गांव के पास एक घाटी है, जिसके दोनों ओर दुरूह, ऊंचे पर्वत हैं, और बीच में सिर्फ दो सवारों के गुज़रने योग्य जगह है। यह घाटी लगभग पौन मील लम्बी है।'
तानाजी ने विचलित होकर कहा-तुम चाहते क्या हो?
'यवन सेना वहां प्रातःकाल पहुंचेगी।'
'अच्छा फिर?'
'मैं एक मार्ग जानता हूं, जिससे मैं पहर रात्रि गए वहां पहुंच सकता हूं। श्रीमान्, मुझे केवल पचास सवार दीजिए। मैं गांववालों को मिला लूंगा, और घाटी का द्वार रोक लूंगा। यवनदल रक्षा की धारणा से तुरन्त घाटी में प्रवेश करेगा। पीछे से आप घाटी के मुख को रोक लीजिए। शत्रु चूहेदानी में मूसे के समान फंस जाएंगे।'
तानाजी गम्भीरतापूर्वक सोचने लगे। अन्त में उन्होंने कहा-मैं तुम्हारी तजवीज़ पसन्द करता हूं। पचास सैनिक चुन लो सिपाही ने पचास सैनिक चुनकर चुपचाप खेत की पगडंडी का रास्ता लिया। तानाजी ने यवनदल पर फिर आक्रमण करने की तैयारी की।
स्तब्ध रात्रि के सन्नाटे को चीरकर तुरही का शब्द हुआ। सोए हुए ग्रामवासी हड़बड़ाकर उठ बैठे। देखा, ग्राम के बाहर थोड़े-से घुड़सवार खड़े हैं।
गांव के पटेल ने भयभीत होकर पूछा-तुम लोग कौन हो, और क्या चाहते हो?
सैनिकों ने चिल्लाकर कहा-हिन्दू-धर्म-रक्षक छत्रपति महाराज शिवाजी की जय!
गांव के निवासी भी चिल्ला उठे-जय, महाराज शिवाजी की जय!
एक सवार तीर की भांति दौड़कर ग्रामवासियों के निकट आया। उसने कहा-सावधान रहो, छत्रपति महाराज शिवाजी ने हिन्दू धर्म के उद्धार का बीड़ा उठाया है। वे साक्षात् शिव के अवतार हैं। आज सूर्योदय होते ही तुम्हें उनके दर्शन होंगे।
यह सुनते ही ग्रामवासी चिल्ला उठे-महाराज शिवाजी की जय।
'पर सुनो, आज इस गांव की परीक्षा है। भाइयो, यवन सेना इधर को आ रही है। आज इसी गांव में उनका अंत होगा, और वीरता का सेहरा इस गांव के नाम बंधेगा।'
ग्रामवासियों ने उत्साह से कहा-हम तैयार हैं, हम प्राण देंगे।
'भाइयो, हमारी विजय होगी। प्राण देने की आवश्यकता नहीं। अभी दोपहर का समय हमें है। आओ, घाटी का उस पार का द्वार वृक्षों और पत्थरों से बंद कर दें और सब लोग पर्वतों पर चढ़कर छिप बैठे। बड़े-बड़े पत्थर इकट्ठे रखें, ज्योंही यवनदल घाटी में घुसे, देखते रहो। जब सब सेना घाटी में पहुंच जाए, ऊपर से पत्थरों की भारी मार करो। पीछे के मार्ग को महाराज शिवाजी स्वयं रोकेंगे।' समस्त गांव जय शिवाजी महाराज कहकर कार्य में जुट गया।
प्रातःकाल होने से पूर्व ही यवन दल तेज़ी से घाटी में घुसा। तानाजी पीछे धावा मारते आ रहे हैं, यह वे जानते थे। घाटी पार करने पर वे सुरक्षित रहेंगे, इसका उन्हें विश्वास था। परन्तु एकबारगी ही आगे बढ़ती हुई सेना की गति रुक गई। बड़ी गड़बड़ी फैली। कहां क्या हुआ, यह किसीने नहीं जाना। परन्तु घाटी का द्वार भारी-भारी पत्थरों और बड़े-बड़े वृक्षों को काटकर बन्द कर दिया गया था। उसके बाहर खड़े ग्रामवासी और सवार दरारों के द्वारा तीर छोड़ रहे थे। सारी यवन सेना में गड़बड़ी फैल गई। यवन सेनापति ने पीछे लौटने की आज्ञा दी। परन्तु अरे! यहां तानाजी की सेना मुस्तैदी से खड़ी तीर फेंक रही थी। अब एक और भारी विपत्ति आई। ऊपर से अगणित बाणों की वर्षा होने लगी, और भारी-भारी पत्थर लुढ़कने लगे। घोड़े, खच्चर, सिपाही सभी चकनाचूर होने लगे। भयानक चीत्कार मच गया। मुहाने पर दो-चार सिपाही पाकर युद्ध करके कट गिरते थे। लाशों का ढेर हो रहा था।
यवन सेनापति ने देखा, प्राण बचने का कोई मार्ग नहीं। सहस्रों सिपाही मर चुके थे। जो थे, वे क्षण-क्षण पर मर रहे थे। उसने तानाजी से कहला भेजा, खज़ाना ले लीजिए और हमारी जान बख्श दीजिए।
तानाजी ने हंसकर कहा--जान बख्श दी जाएगी, पर खज़ाना, हथियार और घोड़े तीनों चीजें देनी होंगी।-विवश यही किया गया।
एक-एक मुगल सिपाही आता, घोड़ा और हथियार रखकर एक ओर चल देता। ग्रामवासियों ने मार बन्द कर दी थी। बहुत कम यवन सैनिक प्राण बचा सके। घोड़े, शस्त्र और खज़ाना तानाजी ने कब्जे में कर लिया। सूर्य की लाल-लाल किरणे पूर्व में उदय हुईं । तानाजी ने देखा, दूर से गर्द का पर्वत उड़ा आता है। उन्होंने सभी ग्रामवासियों को एकत्र करके कहा--सावधान रहो, महाराज पा रहे हैं।
महाराज ने घोड़े से उतरकर तानाजी को गले से लगा लिया। ग्रामवासियों ने महाराज की पूजा की, और लूटा हुआ सभी माल लेकर शिवाजी अपने किले में लौटे। इस प्रकार संयोग, प्रारब्ध और उद्योग ने सोलह पहर के अंतर में ही असहाय महाराज शिवाजी को सर्व-साधन-सम्पन्न बना दिया, जिसके बल पर वे अपना महाराज्य कायम कर सके।
स्तब्ध रात्रि के सन्नाटे में सैनिकों का प्रशांत दल चुपचाप आगे बढ़ा जा रहा था। सकरी पगडंडी के दोनों ओर ऊंचे-ऊंचे सरकंडे के झाड़ खड़े थे। तारों के क्षीण प्रकाश में घोड़ों को कष्ट होता था, पर सेना की अबाध गति जारी थी।
हठात् सैनिक रुक गए। अग्रगामी सैनिक ने पंक्ति से पीछे हटकर कहा-
श्रीमान, बस यही स्थान है।
'आगे रास्ता नहीं?'
'नहीं श्रीमान।'
'तब यहां से क्या उपाय किया जाए?'
'इस ढालू चट्टान पर चढ़ना होगा।'
'यह बहुत कठिन है।'
'परन्तु दूसरा उपाय ही नहीं है।'
'तब चढ़ो।' सेनानायक चट्टान को दोनों हाथों से दृढ़ता से पकड़कर खड़ा हो गया।
देखते-देखते दूसरा सैनिक छलांग मारकर चट्टान पर हो रहा, और सेनानायक को खींच लिया। उस बीहड़ और सीधी खड़ी चट्टान पर धीरे-धीरे ये हठी सैनिक उस दुर्भेद्य अन्धकार में चढ़ने लगे। दुर्ग-प्राचीर के निकट आकर नायक ने कहा-अब रस्सियां चाहिए।
'रस्सियां उपस्थित हैं।'
रस्सियों को फेंककर प्राचीर के कंगूरे में अटका दिया गया। और क्षण-भर में नायक प्राचीर पर चढ़कर लेट गया। इसके बाद दूसरा और फिर तीसरा। इस प्रकार बारह सैनिक दुर्ग-प्राचीर पर चढ़कर, अवशिष्ट सैनिकों को समुचित आदेश देकर किले में उतर गए। दुर्ग में सन्नाटा था। सब चुपचाप दीवारों की छाया में छिपते हुए फाटक की ओर बढ़ रहे थे। फाटक पर प्रहरी असावधान थे। एक ने सजग होकर पुकारा-कौन?
दूसरे ही क्षण एक तलवार का भरपूर हाथ उसपर पड़ा। सभी प्रहरी सजग होकर आक्रमण करने लगे। देखते ही देखते किले में कोलाहल मच गया। जगह-जगह योद्धा शस्र बांधने और चिल्लाने लगे। मशालों के प्रकाश में इधर-उधर घूमने लगे।
बारहों व्यक्ति चारों ओर से घिर गए। परन्तु वे भीम वेग से फाटक की ओर बढ़ रहे थे। प्रहरी मन में भयभीत थे। तानाजी ने एक वार प्रचण्ड जयघोष किया और उछलकर फाटक पर चढ़ बैठे। बारहों साथियों ने शत्रुदल को तलवार के बल चीर डाला; और तानाजी ने साहस करके फाटक खोल दिया।
हर-हर महादेव करती हुई महाराष्ट्र-सेना किले में घुस पड़ी। बड़ा भारी घमासान मच गया। रुंड-मुंड डोलने लगे। घोड़ों की चीत्कार, योद्धाओं की ललकार और तलवारों की झनकार ने भयानक दृश्य उपस्थित कर दिया।
'तानाजी ने ललकार कहा-किधर है यवन सेनापति, जो मर्द की भांति युद्ध करे।
यवन सेनापति ने ज़ोर से कहा-काफिर, मैं यहां हूँ। सामने आ, गरीब सिपाहियों को क्यों काटता है।
तानाजी उछलकर सेनापति के सम्मुख गए। दोनों में घमासान युद्ध होने लगा। दोनों तलवार के धनी थे। मशालों के धुंधले प्रकाश में दोनों योद्धाओं का असाधारण युद्ध देखने को सेना स्तब्ध खड़ी हो गई। तानाजी ने कहा-सेनापति, पहले तुम वार करो, आज मैं तुम्हें मारूंगा।
'काफिर, अभी तेरे टुकड़े किए डालता हूं।' उसने तलवार का भरपूर वार किया।
'अरे यवन, आज बहुत दिन की साध पूरी होगी।' बदले में तलवार का जनेवा हाथ फेंकते हुए तानाजी ने कहा-लो।
सेनापति के मोढ़े पर तलवार लगी, और रक्त की धार बहने लगी। उसने तड़पकर एक हाथ तानाजी की जांघ में मारा। जांघ कट गई।
तानाजी ने गिरते-गिरते एक बर्छा सेनापति की छाती में पार कर दिया। दोनों वीर घोड़ों से गिर पड़े।
अब सेना में घमासान मच गया। उदयभानु की राजपूत सेना और यवन सेना परास्त हुई। सूर्योदय से पूर्व ही किले पर भगवा झंडा फहराने लगा।
लाशों के ढेर से तानाजी का शरीर निकाला गया। अभी तक उसमें प्राण था। थोड़े उपचार से होश में आकर उन्होंने कहा-क्या किला फतह हो गया?
'हां महाराज।
'यवन-सेनापति क्या जीवित हैं?'
यवन-सेनापति भी जीवित था। उसका शरीर भी वहीं था। तानाजी ने क्षीण स्वर में पुकारा-सेनापति!
'काफिर!'
'पहचानते हो?'
'दुश्मन को पहचानना क्या? तुम कौन हो?'
'पन्द्रह वर्ष प्रथम जिसे अाक्रांत करके तुमने उसकी बहिन का हरण किया था।'
सेनापति उत्तेजना के मारे खड़ा हो गया। फिर धड़ाम से गिर गया, उसके मुख से निकला-तानाजी!
'आज बहिन का बदला मिल गया।'
यवन सेनापति मर रहा था, उसका श्वास ऊर्ध्वगत हो रहा था, और आंखें पथरा रही थीं। उसने टूटते स्वर में कहा-तुम्हारी हमशीरा और बच्चे इसी किले में हैं, उनकी हिफाज़त यवन सेनापति मर गया। तानाजी की दशा भी अच्छी नहीं थी, परन्तु ये शब्द उन्होंने सुन लिए। उन्होंने टूटते स्वर में कहा-महाराज से कहना, तानाजी ने जीवन सफल कर लिया। महाराज बहिन की रक्षा करें।
तानाजी ने अन्तिम श्वास लिया!
शुभ मुहूर्त में छत्रपति महाराज ने सिंहगढ़ में प्रवेश किया।
प्रांगण में विषण्ण-वदन सैनिक नीची गर्दन किए खड़े थे। घोड़े से उतरते हुए शिवाजी ने कहा-मेरा मित्र तानाजी कहां है?
एक अधिकारी ने गंभीर मुद्रा से कहा-वे वीर वहां बरामदे में श्रीमान की अभ्यर्थना को बैठे हैं।
अधिकारी रोता हुआ पीछे हट गया। महाराज ने पैदल आगे बढ़कर देखा। वह निश्चल मूर्ति सैकड़ों घाव छाती और शरीर पर खाकर वीरासन से विराजमान थी। महाराज की आंखों से टपाटप आंसू गिरने लगे। उन्होंने शोक- कंपित स्वर में कहा-सिंहगढ़ पाया, पर सिंह गया।