सिंदूर की डिबिया : अवधी लोककथा (उत्तर प्रदेश)

Sindoor Ki Dibiya : Avadhi Lok-Katha (Uttar Pradesh)

एक गरीब विधवा माँ थी। उसकी गोद में पाँच वर्ष का एक बालक था। वह किसी प्रकार कुटौनी-पिसौनी करके अपने मुसीबत के दिन काट रही थी। पेट काटकर किसी तरह उसने अपने इकलौते बेटे को पाला और पढ़ाया-लिखाया। जब बच्चा पढ़-लिखकर बड़ा हो गया, कमाने-खाने लगा तो माँ ने उसकी शादी कर दी और स्वयं राम भजन में लग गई। बेटे ने अपनी मेहनत की कमाई से घर को महल बना दिया और माँ-बेटे और बहू तीनों सुख से रहने लगे।

बेटे ने एक दिन अपनी पत्नी से कहा, 'मेरी माता ने संसार के सारे सुखों को त्यागकर मुझे पाला-पोसा है और अब हम इस लायक हो गए हैं। कि उन्हें सुख और शांति देकर अपना कर्तव्य पूरा करें।'

पत्नी बहुत ही चतुर और चालाक थी, बोली, 'हाँ-हाँ! ऐसा ही होना चाहिए। उनका खर्च ही क्या है? दोनों जून भरपेट भोजन और तन ढकने के लिए दो धोती। क्या हम लोग इतना भी नहीं कर सकते ? फिर क्या यह कोई परायी हैं? सास-ससुर की सेवा से ही तो अपना धर्म-कर्म बनता है। ' वह अपनी पत्नी की बात सुनकर बड़ा खुश हुआ। सोचने लगा, मेरी पत्नी बड़ी समझदार है।

आपस की सुलह से घर का हर काम होने लगा। पत्नी ने अपनी चतुराई से पति को अपने वश में कर लिया और वह चिंता रहित होकर बाहर का काम देखने लगा। वह क्या जाने कि मेरी माँ पर क्या बीत रही है।

जब सास भोजन करने जाए तो बहू बड़ी-सी थाली में एक रोटी और थोड़ी-सी दाल परसकर बैठ जाए। जब माँ रोटी खा चुके तो बहू चौके से एक सिंदूर की डिबिया निकालकर सास से पूछे, 'यह लोगी?' माँ सिर झुकाकर कहती, 'नहीं बेटी, मुझे नहीं चाहिए। यह तो तुम्हारे लिए है। इसे अपने लिए रख लो।'

सास प्रतिदिन जब भोजन करने जाती तो बहू इसी तरह की हरकत किया करती । सास सिंदूर की डिबिया देखकर चौके से चुपचाप लौट आती। दिन-पर-दिन माँ दुबली होती गई। लाज की मारी पेट का दुःख किसी से कहे भी नहीं ।

एक दिन बेटे ने बड़े प्रेम से माँ से पूछा, 'माँ! तुम दिनोदिन दुबली क्यों होती जा रही हो? तुम्हें अब कौन सा दुःख है ?'

बेटे के बार-बार पूछने पर माँ रोने लगी और कहा, 'बेटा, कहते हुए लाज आती है। तुमको आँख भर देख लेती हूँ, सारा दुःख भूल जाती हूँ। अब जीवन के थोड़े दिन बचे हैं। वह भी किसी प्रकार कट ही जाएँगे । '

बेटा माँ की बात सुनकर बड़े सोच में पड़ गया कि आखिर क्या बात है, जिसे माँ को बताने में लाज आती है।

वह माँ के पैर पकड़कर कहने लगा, 'माँ, मुझसे कैसी लाज ? मैं कोई गैर तो नहीं हूँ, जो लाज करती हो। मुझसे जरूर बताओ। नहीं तो मैं खाना- पीना छोड़ दूँगा ।'

माँ बड़े धर्मसंकट में पड़ी। धीरे से बोली, 'बेटा, मुझे पेट का दुःख है । '

बेटे को यह सुनकर बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा, 'इतनी धन- दौलत के बावजूद तुम्हें पेट का दुःख है, बड़े सोच की बात है माँ ! मेरा सारा परिश्रम व्यर्थ है।'

बेटे ने अपनी पत्नी से पूछा, 'माँ को पेट का दुःख है, यह कैसी बात है? मेरी समझ में नहीं आता।'

बहू ने तुरंत उत्तर दिया, 'मैं क्या जानूँ? यदि वे न खाएँ और पूछने पर न लें तो मेरा क्या दोष? मैं तो बहुत पूछती हूँ। आप चाहें तो खुद सुन लें। वह खुद कहती हैं कि अब हमें न चाहिए। तुम अपने लिए रख छोड़ो, तो मैं क्या करूँ ?'

जब माँ रसोई में खाने गई तो बेटा छिपकर सुनने लगा। कुछ देर बाद जब बहू ने सिंदूर की डिबिया खोलकर दिखाई और लेने के लिए पूछा तो माँ ने नम्रता से कहा, 'बेटी, इसे लेकर क्या करूँगी। यह तुम अपने लिए छोड़ रखो। यह तो तुम्हें चाहिए। जो मुझे लेना था, ले चुकी ।'

बेटे को माँ की बातें सुनकर बड़ा क्रोध आया कि जब इसे खाना पूछा जाता है तो इनकार करती है और मुझसे कहती है कि पेट का दुःख है।

बेटे ने माँ को एकांत में पाकर पूछा, 'क्यों माँ? एक ओर तो तुम कहती हो कि पेट का दुःख है और दूसरी ओर बहू के पूछने पर खाना भी नहीं लेती हो और दुनिया भर की बातें करती हो कि हमें न चाहिए, अब मैं लेकर क्या करूँगी। अपने लिए रख छोड़ो। यह दोरंगी बातें कैसी ? तुम्हें भगवान् के घर जाना है, आखिर झूठ क्यों बोलती हो ?'

माँ ने कहा, 'मेरे लाल ! तुमसे झूठ बोलकर मैं भगवान् के घर भी न रह पाऊँगी, मैं झूठ नहीं बोलती। तुम अपनी माँ को झूठी न समझो। यदि मैं तुमसे झूठ बोलूँगी तो स्वर्ग में बैठे तुम्हारे पिता क्या कहेंगे? तुम्हारी बहू मुझे एक रोटी और थोड़ी सी दाल देकर फिर क्या देती है, तुम चौके में आकर स्वयं देख लो।'

जब माँ चौके में खाने लगी तो बहू ने एक रोटी और थोड़ी-सी दाल देकर सास को फिर वही सिंदूर की डिबिया दिखाई। माँ ने फिर वही उत्तर दिया ।

बेटा तुरंत चौके में घुस गया। उसने देखा कि उसकी पत्नी एक बड़ी सिंदूर की डिबिया खोले माँ से पूछ रही थी, 'इसे लोगी?'

बेटा अपनी पत्नी का यह चरित्र देखकर क्रोध में बोला, 'अरी दुष्टा ! तू इतनी नीच है, मैं नहीं जानता था। तू हट जा मेरी आँखों के सामने से। मैं आज से तेरा मुँह नहीं देखना चाहता।'

वह बहू को घर से निकालने लगा, पर माँ ने उसे समझा-बुझाकर शांत किया ।

बहू ने भी सास के चरण पकड़कर क्षमा माँगी। फिर तीनों सुख से रहने लगे।

(- विद्याविंदु सिंह)

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