सिलवटें : वनिता वसन्त झारखंडी

Silvatein : Vanita Vasant Jharkhandi

“अरे अम्मा कैसी हो? बेटा आया नहीं लेने?” - कहता हुआ अमीर सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड में तेजी से घुसा आया। वह दुर्गापूजा की छुट्टियों के बाद अस्पताल आया था। उसने अम्मा के सामने अपना मोबाइल फोन बढ़ाते हुए कहा - “अम्मा बेटे से बात करोगी? लगाऊं फोन?”

अम्मा मुस्कुराई और बिना कुछ बोले अमीर की ओर देखती रही। आज अम्मा अपने बिस्तर के एक कोने में बैठी थी, उसके बेड के पास की खिड़की खुली थी जहां से वह बाहर की ओर देख रही थी। जैसे अमीर के आने का ही इंतजार कर रही हो। अमीर की आवाज सुनते ही वह उसकी ओर मुड़कर देखने लगी मानो आज वह अपना सारा वात्सल्य उड़ेल देना चाह रही हो। उसकी आंखों में आज वह उदासी नहीं दिखीं जैसी दिखाई पड़ती थी।

अमीर को आश्चर्य हुआ कि अम्मा चुप क्यों है। उसे तो पूरी उम्मीद थी कि इस बार वह दुर्गापूजा अपने बेटे के साथ अपने घर पर ही बिताएगी। अम्मा वैसे ही बैठे-बैठे अमीर को चुपचाप निहार रही थी।

अमीर अम्मा का ख्याल बेटे की तरह ही रखता था जब भी अस्पताल के काम से समय मिलता तो वह अम्मा के पास बैठकर बातें कर लिया करता था। जिससे दोनों का ही मन बहल जाता था। दोनों के बीच एक आत्मियता का रिश्ता था।

छुट्टियों में वह अस्पताल में नहीं था इसलिए अम्मा उदास हो गई होगी या फिर बेटे के न आने पर भी निराश हो। ऐसा सोच कर अमीर ने अम्मा को हंसाने की कोशिश करते हुए कहा, “थोड़ा अस्पताल में राउंड मार आऊं, हालचाल देखकर आता हूं, थोड़ा रजिस्ट्रर्ड देख लूं। कौन से बेड पर कौन है और कौन टपक गया और भगवान के पास पहुंच गया। चले अपना काम तो है भोजन पहुंचाने का, आखिर दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम,  हंसते हुए अमीर ने अम्मा की ओर देखा जो अभी भी उसे एक टक निहार रही थी। अमीर आगे बढ़ गया।  

अमीर सरकारी अस्पताल का अस्थायी कर्मचारी था जो अस्पातल में भर्ती मरीजों को खाना देने का काम करता था पर अस्पताल में हर कही वह आ-जा सकता था क्योंकि उसके लिए अस्पताल कर्म स्थल नहीं बल्कि अपना घर था, वह था भी सब का प्यारा। आखिर क्यों न हो अस्पताल की हर दीवारों ने उसके बचपन को संजोया था। अस्पताल की ये दीवारें नहीं अमीर के अभिभावक थे जिन्होंने उसे पाला-पोसा था। यहां काम करने वाले एक-एक व्यक्ति के लिए अमीर हर दिल अजीज था। यहां आने वाले मरीजों का हाल भी ऐसा था कि अमीर को देखते ही उनकी बीमारी दूर हो जाती थी। वे दर्द भुलकर खुश हो जाते थे। यहां आने वाले मरीज का कोई रिश्तेदार हो या ना हो। कोई मिलने आए या न आए कोई फर्क नहीं पड़ता था। अमीर जो था उनके सब के लिए। कोई मरीज आता तो वह उनका कुछ ऐसे स्वागत करता है जैसे कोई उसका अपना हो। खासकर कर मां तुल्य महिलाओं का। किसी की मौत होने पर वह थोड़ा बैचेन भी दिखता था।

अमीर सबका दोस्त था पर था बिल्कुल अकेला। उसे जन्म किसने दिया, उसके माता-पिता कौन है नहीं मालूम। आज से 27 साल पहले अस्पताल के कूड़ेदान में वह पड़ा मिला था। नर्स इला ने उसे उठा लिया था। वह कुवांरी थी और अकेली भी। उसने ही अमीर को कूड़े से उठाकर दिल से लगा लिया था। इला के साथ-साथ अमीर पर सबका अधिकार हो गया था। इला का मानना था कि बच्चे के आने से उसके जीवन की हर कमी पूरी हो गई। उसका सारा दुःख, गम, अकेलापन सब का सब खत्म हो चुका था। बच्चे को गोद में उठाकर वह ऐसे चहकी मानों दुनिया की सबसे अमीर महिला हो। उसकी झोली में भगवान ने पुत्र के रूप में सब कुछ डाल दिया था। बस तभी से उसका नाम भी अमीर पड़ गया।

इला बूढ़ी हो गई है। अमीर उसका पूरा ख्याल रखता था। गांव में उसका जर्जर मकान था जिसे अमीर ने बना कर संवार दिया था, जहां इला अपना बुढ़ापा शान्ति से गुजार सकती थी। घर के सामने सुन्दर-सुन्दर फूलों के पौधे लगा दिए थे, फलों के पेड़ थे ही। एक गाय भी रखी थी जिसका शुद्ध दूध इला को मिल सकें। उसकी देखभाल के लिए गांव की एक महिला को रख दिया था ताकि इला को आराम मिले और किसी का साथ भी। पर अमीर ने अस्पताल से नाता नहीं छोड़ा था। उसे लगता था शायद कभी न कभी उसको जन्म देने वाली मां आएगी। उसी की चाह में उसकी आँखें अपनी मां को तलाशती ही रहती थी। कोई भी व्यस्क महिला आती तो वह उससे जानबूझ कर बातें करता। उसे लगता था कि एक न एक दिन उसकी तलाश पूरी होगी। इसलिए अमीर हर बुजुर्ग महिला पर अपना पुत्र प्रेम बरसाता था।                       

वह कैंटीन पहुंचा और वहां रखा रजिस्टर्ड उठाकर देखने लगा। पेन के ढक्कन को मुंह में दबाए पेन को उल्टा करके एक- एक नामों को देख ही रहा था कि कोई नया आया है या कोई स्वस्थ होकर चला गया। एक स्थान पर पैन जैसे ही गई वहीं थम गई। लगभग चीखते हुए अमीर ने कहा, “यह क्या 402 नम्बर बेड के लिए खाना नहीं लिखा है। क्यों? अम्मा को भोजन नहीं दिया जाएगा। किसने ऐसा किया है?”

अमीर ने चिल्लाते हुए कहा,“रंजन अब क्या दिन में भी पीने लगे हो। इतना समझ लो ये बेचारे गरीब बीमार यहां आते हैं इलाज के लिए। न तो इनका कोई अपना होता है और न ही इनके पास पैसे। हम ही इनके अपने हैं। अम्मा को भोजन क्यों नहीं दिया जा रहा। कल भी उनको भोजन नहीं दिया गया।

तभी रंजन ने कहा,“नहीं अमीर भैया, अम्मा तो परसो रात ही चल बसी है। जब वह जीवित है ही नहीं तो भोजन किसे दूं।” 

अमीर गुस्से से रंजन, “सच में तुम अब शराब के साथ ही गांजा भी पीने लगे हो। मैं अभी-अभी अम्मा से मिलकर आया हूं। उनसे बात करके आ रहा हूं।”

रंजन हैरानी से, “नहीं भैया कोई गलती हुई है तुमसे। लगता है आपने भी चढ़ानी शुरू कर दी है, तुम खुद देख लो रजिस्टर्ड में जहां उनकी मौत का पंजीकरण किया गया है।”

अमीर उससे बिना विवाद किए दौड़कर रेकॉर्ड रूम पहुंचा, वहां पर बैठी बरखा को रजिस्टर्ड देखने को कहा, रजिस्टर्ड भी अम्मा के मौत की पुष्टि कर रही थी। अमीर को विश्वास नहीं हो रहा था उसने हाथ से रजिस्टर्ड ले लिया। देखा सच में परसो ही मौत हो चुकी है।

वह वहां से वापस अम्मा के बेड के निकट गया तो देखा कि बेड खाली पड़ा है। वह वहीं टेबल पर धम्म से बैठ गया। अम्मा को उसी के बेटे ने ही बेगाना कर दिया था। अम्मा के पलंग से गिरने के बाद उसे अस्पताल में भर्ती करवाने के बाद फिर कभी लौट कर नहीं आया। पर अमीर था जो मां-बेटे को जोड़ने का प्रयास करता रहा। अमीर भी जानता था कि अम्मा को लेने बेटा कभी नहीं आएगा। इसलिए वह अम्मा को खुश करने के लिए बीच-बीच में बेटे से, पोते से फोन पर बात करवा देता था।

अमीर जानता था कि अम्मा एक बार दुर्गा पूजा में घर जाना चाहती थी क्योंकि उसे अपने पोते के लिए पूजा देनी थी। पिछली गर्मी में पोते को डायरिया हो गया था और मरने जैसी स्थिति हो गई थी। उसे ठीक करने के लिए अम्मा ने मां दुर्गा से मन्नत मांगी थी, बस उसी को पूरा करना चाहती थी। अम्मा खुद भी जानती थी कि उसका बेटा उसे लेने कभी नहीं आएगा क्योंकि उसकी पत्नी के लिए एक बूढ़ी मां बोझ से ज्यादा कुछ नहीं थी।

इसलिए अमीर इस बार गांव जाकर इला के साथ ही अम्मा के रहने की व्यवस्था कर आया था। अमीर ने अम्मा के बेटे से फोन पर मिन्नतें की थी कि एक बार बस उसे दुर्गापूजा में ले जाए, इसके बाद अम्मा की जिम्मेदारी उसकी होगी। बेटे ने वादा भी किया था कि दुर्गापूजा के मौके पर वह अपनी मां को घर ले जाएगा। दुर्गापूजा घूमाएगा। मां के हाथों का नारकोल नाडू बनवाकर मां के हाथ से ही खाएगा। अम्मा मासूम थी खुश हुई। अमीर को भी उम्मीद थी कि इस बार पक्का उसे ले जाने के लिए बेटा आएगा। इसलिए वह निश्चित था कि अम्मा के मन की इच्छा क्षणिक ही सही पूरी होगी। पर यह क्या हुआ? क्यों हुआ?

जब वह अस्पताल में आई थी तब वह दर्द से कराह रही थी। पैर की हड्डी टूटी थी जिसमें सुधार होने में देर थी। उसकी सूनी आँखों में अमीर ने जैसे नूर भर दिया हो। वह उसके साथ हंसता-बोलता, प्यार से उसके लिए भोजन लेकर आता। यहां तक की अम्मा का जब भी मन खराब होता तब बेटे से मोबाइल पर बात भी करवा देता था। अम्मा अपने बेटे के साथ ही जब पोते की आवाज सुनती तो उसका चेहरा अजीब-सा खिल जाता था।  

अमीर को बहुत दुःख हो रहा था और खुद पर गुस्सा भी आ रहा था। उसे छुट्टी में जाने के पहले अम्मा से हुई बातें याद आने लगी। “अम्मा देखों में छुट्टी पर जा रहा हूं। अपने बेटे से बात कर लो” कहते हुए मोबाइल में नम्बर लगा दिया पर फोन नहीं लग रहा था। उसके बेटे ने फोन का सिम बदल दिया था। ताकि अब किसी का फोन आए ही नहीं।

अम्मा ने दुःखी होकर कहा - “तू मेरी इतनी फिक्र करता है यदि इतना ही मेरा बेटा करता तो शायद मेरे को यहां आने की नौबत ही नहीं आती।”

अमीर ने झट से कहा, “तब मुझे अम्मा कैसे मिलती।”

अम्मा की आँखों में पानी भर आया था। उसने अमीर के गाल को हल्के से थप्पड़ मारते हुए कहा. “और मुझे तेरे जैसा बेटा कहां मिलता।”

“यदि तेरे जाने के बाद मेरा बेटा मुझे लेकर चला जाए तब क्या करोगे? फिर अम्मा कहां मिलेगी....तुझे..”

“अम्मा तुम अपने बेटे के पास चली जाओंगी तो खुशी बहुत होगी पर अम्मा एक बात मान लेना यदि तुम्हारा बेटा आ जाए तो मेरे लिए रुकना जरूर। मेरे से मिलकर जाना मां...।”

अमीर के मुंह से अचानक ही अम्मा से मां निकल आया।

दोनों की आँखों में पानी था।  

अमीर उसके बेड के पास रखे टेबल पर बैठा था। उसकी आँखों में पानी तैर रहा था। अचानक खिड़की से ठण्डी हवा का स्पर्श अमीर के गालों को सहला गई जैसे अम्मा उसको प्यार कर रही हो। उसने देखा कि चादर पर सलवेटें अभी तक ताजा थी, जहां उसने अम्मा को कुछ देर पहले ही बैठे देखा था। अमीर बिस्तर पर हाथ घूमाने लगा। उसके कानों में अम्मा के शब्द गूंज रहे थे- “मैं यहां से चली गई फिर अम्मा कहां मिलेगी....तुझे?”

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