सिफारिशी चिट्ठी (कहानी) : भीष्म साहनी
Sifarishi Chiththi (Hindi Story) : Bhisham Sahni
पुनर्वास मन्त्रालय का क्लर्क त्रिलोकीनाथ खाने की छुट्टी के समय, कुछेक अन्य क्लर्कों के साथ दफ्तर के सामने खड़ा चाट खा रहा था , जब एक छोटी - सी घटना घटी जो एक क्लर्क की ज़िन्दगी में सालों में एकाध बार ही घटती है। उसे किसी बड़े आदमी ने पहचान लिया । पहचाना ही नहीं, बगलगीर भी हुआ, बगलगीर ही नहीं, पूरे पाँच मिनट तक त्रिलोकी बाबू के कन्धे पर हाथ रखे बतियाता भी रहा, मुस्कराता भी रहा और जब मोटर में बैठकर जाने लगा तो अपनी नोटबुक निकालकर त्रिलोकी बाबू का नाम -पता भी लिखकर ले गया ।
लोग कहते हैं आदमी बदलता है, दुनिया नहीं बदलती। पर यह गलत है। खड़े- खड़े त्रिलोकी बाबू की आंखों के सामने दुनिया बदल गई। धूप खिल उठी, आकाश खिल उठा, सड़क पर आते -जाते लोगों की चहल -पहल में मेले का - सा समाँबँध गया । लोग कहते हैं इनसान हवा में उड़ नहीं सकता, पर बाबूत्रिलोकीनाथ को पंख लग गए। जब लौटकर दफ्तर की ओर आया तो सचमुच मन हवा में तैर रहा था ।ईर्ष्याभरी आँखों की दसियों जोड़ियाँ उसके बड़प्पन को निहार रही थीं , और तो और खिड़की में खड़े सुपरिटेण्डेण्ट ने भी देख लिया था कि त्रिलोकी बाबू कोई छोटा-मोटा आदमी नहीं है, बड़े-बड़ों से हाथमिलाने की हैसियत रखता है ।
सोमवार का दिन था और दफ्तर का काम खत्म हुआ चाहता था । बाबू त्रिलोकीनाथ इठलाता हुआ - सा दफ्तर में पहुंचा, तैरती नज़र से उसने अपनी फाइलों की ओर देखा, तैरती नज़र से ही आसपास बैठे क्लर्कों को भी देखा जो सहसा बौने हो गए थे और जो अभी भी त्रिलोकी बाबू की ओर देखे जा रहे थे। त्रिलोकी बाबू मेज़ पर बैठे, पर बैठा न गया, फाइल खोली पर उस पर से आँखें फिसल-फिसल जातीं, दफ्तर की किसी बात पर मन ही न टिकता था और दिल था कि बराबर कोई धुन बजाए चला जा रहा था !
शाम होते होते त्रिलोकी बाबू कुछ धरती पर उतरे, पर दिल में मीठी-मीठी धूप अभी भी खिल रही थी । घर पहुँचे तो दरवाज़े पर कुन्तो मिली। कुन्तो उनकी पत्नी थी । तीन बच्चों की माँ होने के बावजूद उसकी आँखें चमकती थीं और घुघराले बालों की एकाध लट माथे पर सदा झूलती रहती थी ।
"सुबह डिब्बा ले जाते तो लौटते हुए वनस्पति तो लेते आते।"
त्रिलोकी ने ढाँढ़स बंधाते हुए कुन्तो की कुहनी पर हाथ रखा। अनहोनी बात! त्रिलोकी दफ्तर से लौटकर सीधेमुँह कभी बात नहीं करता था, और तो और कुन्तो को पति की मूंछों के नीचे एक फरफराती - सी मुसकराहट भी नज़र आई ।
"कौन - से खन्ना साहब? "
वे जो शिक्षा विभाग में डाइरेक्टर हुआ करते थे। अब रिटायर हो गए हैं । किसी ज़माने में मेरे प्रोफेसर रह चुके हैं ।...”
कुन्तो क्षण-भर के लिए पति के चेहरे की ओर देखती रही। फिर धीरे- से बोली, "सुबह डिब्बा ले गए होते तो घर में वनस्पति तो होता । इस वक्त तो दाल छोंकने के लिए भी घर में घी नहीं है । "और उठकर रसोई-घर की ओर जाने लगी ।
"तुम भागी कहाँ जा रही हो, खन्ना साहब सेक्रेटरी से मेरी सिफारिश करने जा रहे हैं । आज हमारे दफ्तर ही आए थे। उन्होंने नोटबुक में मेरा नाम -पता भी लिख लिया है। कहने लगे, तुम्हें तरक्की ज़रूर मिलनी चाहिए। "
कुन्तो ने चलते हुए ही मुड़कर देखा और बोली, “ जब करेंगे तो देखा जाएगा । अभी से क्यों नाचने लगूँ?" और रसोईघर की ओर बढ़ गई ।
त्रिलोकी कहता गया, "बड़े प्यार से मिले । मुझे पहचानते ही बगलगीर हो गए, जब उन्हें मालूम हुआ कि मैं चौदह साल से क्लर्की कर रहा हूँ, तो उनकी आँखों में आंसू आ गए। "
इस पर कुन्तो हँस पड़ी और रसोईघर के दरवाज़े में आकर खड़ी हो गई ।
"सच, आँसू आ गए? "
"हाँ , तो उनकी आँखें नम हो रही थीं वे मेरे प्रोफेसर रह चुके हैं न! कहने लगे, तुम जैसा होनहार चौदह साल से क्लर्कीमें बैठा है! मैं अपने ज़माने में कालेज का सबसे अच्छा विद्यार्थी हुआ करता था...। "
मैं जानती हूँ, कुन्तो बीच में ही बोल उठी, “ तुमने मैडल जीता । हॉकी के कप्तान रहे । लखनऊ में डिबेट में बोलने गए, पर कप नहीं जीत पाए, क्योंकि जज तुम्हारा मोसेरा भाई निकल आया। क्या मैं यह सब नहीं जानती?... "
और बात पूरी करती हुई वह फिर मुड़कर रसोई-घर में चली गई।
वनस्पति के बिना खाना क्या बनता ! कुन्तो ने चावल उबाले ,दाल चढ़ाई और बिना उसे छोंके चावलों में मिलाकर तीनों बच्चों को खिला दी ।
पर जब बच्चे सो गए और पति-पत्नी अपने - अपने बिस्तर पर लेट गए, तो कुन्तो का दिल मचल उठा । सिर के नीचे दोनों हाथ रखे वह चमकती-काली आँखों से देर तक छत को ताकती रही । काफी देर बाद उसे हल्की - सी झपकी आई, तो लगा जैसे रसोईघर में दाल छोंकी जा रही है और खालिस घी की महक सारे घर में फैल रही है। कुन्तो ने करवट बदली, उसे लगा जैसे उसकी बड़ी बेटी झूला झूल रही है, उसने सफेद फ्राक पहन रखा है और उसके बालों में फूल लगे हैं ।
कुन्तो फिर आँखें खोलकर छत को ताकने लगी ।
"क्यों जी , जागते हो ? "
त्रिलोकी भी अपने गंजे सिर के नीचे दोनों हाथ बाँधे छत की ओर ताक रहा था और देर से अपनी उधेड़- बुन में खोया हुआ था । बीबी की आवाज़ सुनकर चुप बना लेटा रहा।
“ क्यों जी , सो रहे हो ? " "क्या है कुन्तो, तुमने मुझे जगा दिया ! "
“ क्यों जी, क्या सचमुच तुम्हारी तरक्की होने जा रही है ? "
"देखें क्या होता है ! इतना आसान तो नहीं है, मगर आजकल सिफारिश के बिना कौन सा काम होता है! "
थोड़ी देर चुप रहने के बाद कुन्तो फिर बोली, “तुम अफसर भी तो लग सकते हो! रजनी का पति पहले क्लर्क ही तो था , अब वह बड़ा अफसर बना हुआ है ! "
त्रिलोकी चुप रहा, उसने कोई उत्तर नहीं दिया ।
कुन्तो से रहा न गया । उछलकर अपने बिस्तर में से निकली और पति के निकट चली गई ।
“मुझे क्या दोगे जो तरक्की हो गई? "उसने हँसकर पूछा।
त्रिलोकी ने बुझी- सी आवाज़ में जवाब दिया, “ जब तरक्की होगी तो देखा जाएगा कुन्तो , ये काम इतने आसान थोड़े ही होते हैं । "
"शाम के वक्त तो इतने चहक रहे थे, अब इतने गुमसुम क्यों हो गए हो ? मैं कुछ तुमसे मांगती तो नहीं। "
त्रिलोकी फिर भी चुपचाप लेटा रहा। पर कुन्तो की उत्तेजित कल्पना अभी भी तरह-तरह के ताने-बाने बुने जा रही थी ।
“तुम रिश्वत भी लोगे न? "
"क्लर्की में से तो निकला नहीं हूँ कुन्तो, तुम्हें रिश्वत की सूझ रही है। "
"इसमें बुरा क्या है! आजकल सभी रिश्वत लेते हैं । ऊपर की आमदनी का अपना रोब होता है । खुद माँगने नहीं जाना, पर कोई दे दे तो इन्कार भी न करना। "
त्रिलोकी ने पत्नी की ओर से पीठ फेर ली । कुन्तो फिर भी बोलती गई , "मैं गारगी का दहेज़ अभी से तैयार करने लगूंगी। "कुन्तो ने बुदबुदाते हुए कहा , “जल्दी में चीज़ कभी अच्छी नहीं बनती, धीरे- धीरे चीजें लेती रहूँगी, पति की पीठ के पीछे लेटे- लेटे कुन्तो त्रिलोकी के गंजे सिर को धीरे - धीरे सहलाती और बुदबुदाती रही, “ पर मुझे अमीर औरतें अच्छी नहीं लगती । बहुत मुटिया जाती हैं और उठती- बैठती सारा वक्त डकार मारती रहती हैं । मैं मोटी नहीं होऊँगी, तुम्हारा सारा काम मैं अपने हाथ से करूंगी, खातिर जमा रखो.... "
पति को फिर भी गुमसुम पाकर कुन्तो तुनककर बोली, “तुम भी कैसे रूखे आदमी हो जी, मैं खुद चलकर तुम्हारे बिस्तर में आई हूँ और तुम हो कि सीधे मुँह बात भी नहीं करते! "फिर हँसकर कहने लगी, “ अभी से मेरे साथ अफसरी करने लगे हो ! "
सहसा कुन्तो को पछतावा होने लगा। बिस्तर में से झट से उठ बैठी, "हाय, मैं भी कैसी पापिन हूँ, यों ही बके जा रही हूँ! तुम्हारी तरक्की हो जाए तो पहली तनख्वाह में से तो मैं परसाद बाँटूगी, दुर्गा माई को भोग लगाऊँगी, "कहते हुए कुन्तो उठी और अंगीठी पर रखी दुर्गा माता की मूर्ति के सामने बार-बार सिर नँवाने लगी, "दुर्गा माता, मैं सबसे पहले तुम्हें भोग लगाऊँगी। मैं बहुत बकतीरहती हूँ , पर दिल की बुरी नहीं हूँ, दुर्गा माई, मैं किसी का बुरा नहीं चेतती। मैं सबसे पहले तुम्हारी सेवा करूंगी। मुझे माफ करना दुर्गा माई, तुम तो इस घर की बड़ी हो , हम सबकी माँ हो । मैं पढ़ी-लिखी तो नहीं हूँ, मुँह से बातें निकल जाती हैं । "
और कुन्तो ने हाथ जोड़े, आँखें बन्द कर एक बार फिर दुर्गा माई के सामने माथा नवाया और सीधी अपनी खाट पर लौट आई और उसकी आँखें फिर छत को ताकने लगीं ।
उधर त्रिलोकी दूर की सोचों में डूबा हुआ था और अधिकाधिक गहरा डूबता जा रहा था । छत को ताकते हुए उसे भी झपकी आ गई और उसने देखा कि सेक्रेटेरियट के लम्बे गलियारे में कोई चपरासी उसकी फाइल बगल में दबाए भागा जा रहा है,त्रिलोकी उसे बुलाता है पर वह रुकता नहीं और देखते -ही -देखते गलियारे के असंख्य दरवाज़ों में से किसी एक दरवाज़े में से वह निकलकर चम्पत हो जाता है और सारा सेक्रेटेरियट एक भूल-भुलैया बन गया है । त्रिलोकी उसमें से निकलने की कोशिश अभी कर ही रहा था , जब एक झटके से उसकी नींद खुल गई और वह हाँफता हुआ फिर छत को ताकने लगा । थोड़ी देर बाद बोला, “ सो रही हो या जाग रही हो ? "
कुन्तो चुप रही, यह सोचकर कि त्रिलोकी यह न समझ बैठे कि वह छोटी- सी तरक्की से इतनी उत्तेजित हो रही है ।
"अभी तो बातें कर रही थी , अभी सो भी गई ! "
"क्या है ? तुम सोने भी नहीं देते । "
"मैं सोचता हूँ, कल मैं दफ्तर नहीं जाऊँगा । "
पत्नी यह सुनते ही लपककर उठ बैठी, “ क्यों भला ?
"मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है। "
"बहुत बनो नहीं, अब तरक्की होने जा रही है तो इन्हें दफ्तर ही जाना अच्छा नहीं लगता। "
थोड़ी देर चुप रहने के बाद त्रिलोकी फिर बोला, "तुम समझती हो खन्ना साहब ने वह चिट्ठी लिख दी होगी ?
"जो कहा है तो लिख दी होगी। "
सुनते ही त्रिलोकी का दिल एक सीढ़ी और नीचे उतर आया ।
"मैं सोचता हूँ, यह चिट्ठी लिखकर खन्ना साहब ने मेरे साथ बड़ी ज्यादती की है। "
"वाह जी , वे तो तुम्हारी सिफारिश करें और तुम समझो कि ज्यादती कर रहे हैं । "
"तुम दफ्तर के मामले नहीं समझती हो । सिफारिशी चिट्ठियों पर तरक्कियाँ मिलने लगें तो सभी क्लर्क अफसर बन जाएँ.... "
अब की कुन्तो चुप रही, उसको समझ में नहीं आ रहा था कि त्रिलोकी क्या कहे जा रहा त्रिलोकी ने ठण्डी साँस ली और करवट बदल ली ।
"इससे तो बात बिगड़ जाएगी, वह बुदबुदाया। "
"बिगड़ेगी क्यों ? "
“ मेरी तरक्की होगी तो बाकी क्लर्क क्या चुप बैठे रहेंगे? वे तो कल ही कानाफूसी करने लगे थे। मैं दफ्तर में लौटकर गया तो झट से चुप हो गए। "
कुन्तो इस पर चुप हो गई।
"सुन रही हो ? "
"हाँ , सुन रही हूँ। "
"खन्ना साहब तो मेरी सिफारिश सेक्रेटरी से करेंगे, पर वह तो बहुत बड़ा अफसर है । मेरी लगाम तो मेरे सुपरिण्टेण्डेण्ट के हाथ में रहती है। वह ज़रूर जल उठेगा । तुम इन छोटे अफसरों को नहीं जानती हो । वह डाह करने लगेगा और साल के आखिर में मेरी रिपोर्ट खराब कर देगा। "
"तुम बहुत चिन्ता न किया करो, तरक्की मिले न मिले, तुम्हारी बला से । "
थोड़ी देर तक त्रिलोकी चुप रहा , फिर धीरे से बोला, "खन्ना साहब ने बैठे -बिठाए बखेड़ा खड़ा कर दिया । तरक्की तो होगी या नहीं दफ्तर के बाकी लोग खामख्वाह मेरे दुश्मन बन जाएँगे । "अब डायरेक्टर के साथ मेरा परिचय कराने की क्या ज़रूरत थी ! वह उन्हें नीचे छोड़ने आया था । घण्टा-भर मेरे कन्धे पर हाथ रखे खुसफुस करते रहे । दफ्तर में जिसे मालूम नहीं था , उसे भी पता चल गया । भूल मुझसे हुई । अगर मैं उन्हें देखकर पीठ मोड़ लेता तो वे मुझे पहचान नहीं पाते, यह बखेड़ा उठता ही नहीं। "
कुन्तो बोल उठी, “मैं कहती हूँ तुम डरा नहीं करो । तुम सबसे ज्यादा योग्य हो, अपने काम में सबसे आगे हो , अगर तुम्हारी यह डरने की आदत हट जाए तो तुम सोने के आदमी हो । "
"डर कौन रहा है! यों ही वाहियात बातें करने लगी हो । "
कुन्तो धीरे से बोली : "मुझे छोड़कर तुम सबसे डरते हो और सच पूछो तो मुझसे भी डरते हो । "
पत्नी की आवाज़ में दृढ़ता का भास पाकर, त्रिलोकी को आश्वासन हुआ, उसे लगा जैसे उसकी पत्नी सुपरिण्टेण्डेण्ट की कलम को रोक सकती है ।
"अच्छा जाओ, अब जाकर सो रहो । कुछ करूँगा, ठीक कर लूँगा, तुम जाओ सो रहो। "
"बात बहुत मन को नहीं लगाया करो । अभी सो जाओ, सुबह तुम्हें काम पर जाना है। "
और कुन्तो पति के बिस्तर में से उठ आई और अपनी खाट पर जा लेटी । देर तक दोनों फिर छत को ताकते रहे ।फिर धीरे - धीरे कुन्तो को हल्की -हल्की झपकियाँ आने लगीं।
"अच्छा - अच्छा, अब चुप रहो । बीवियाँ होती हैं जिनसे आदमी कोई दिल की बात करता है, कोई सलाह -मशविरा करता है। एक यह है कि बात -बात पर उपदेश झाड़ने लगती है। "
कुन्तो फिर हँसती हुई अपने बिस्तर में से निकली और पति के बिस्तर में जा पहुंची ।
"नाराज़ हो गए? तुम बड़ी जल्दी रूठ जाते हो।...हाय, तुम्हारे हाथ ठण्डे हो रहे हैं । अरे, और माथे पर पसीना आ रहा है । बात क्या है ? "
"कुछ नहीं, कुछ नहीं, जाओ तुम अपनी खाट पर जाकर सो रहो। "
"मैं नहीं जाऊँगी, पहले बताओ बात क्या है ? तुम क्यों उल्टी- सीधी सोचा करते हो ? खन्ना साहब ने चिट्ठी लिख दी तो कौन - सा गुनाह कर दिया ! तुम्हारे भले के लिए ही लिखी है । खुद कह रहे थे कि सिफारिश के बिना काम नहीं चलता। अब किसी ने पीठ पर हाथ रखा तो उल्टा बिगड़ने लगे हो । अगर सुपरिण्टेण्डेण्ट ने देख लिया, तो तुम्हारी बला से । अगर क्लर्क जलते हैं तो जलने दो, हमने किसी का ठेका ले रखा है? "
“ बात तो ठीक कहती हो, मैं यों ही ज्यादा सोचने लगता हूँ । पर सुपरिण्टेण्डेण्ट रिपोर्ट तो खराब कर सकता है । मेरी चौदह साल की सर्विस धूल में मिला सकता है । "
"क्यों मिला सकता है ? खालाजी का घर है क्या ? उल्टा वह तुमसे डरेगा तुमसे खम खाएगा। जान लेगा कि बड़े अफसर तुम्हारी पीठ पर हैं । "
कोई घण्टा-भर बाद कुन्तो हड़बड़ाकर जागी और पति की खाट की ओर देखा । त्रिलोकी के बिस्तर से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी । पहले तो आश्वस्त हो गई कि त्रिलोकी सो गया होगा, फिर उसे लगा जैसे बिस्तर खाली है । वह झट से उठकर बैठ गई और अँधेरे में बाहर की ओर झाँककर देखा। त्रिलोकी बरामदे में खड़ा था, मेहराब से कन्धा टिकाए हुए, फिर वह मेहराब पर से हट गया और टहलने लगा। पीठ के पीछे हाथ, गंजा सिर आगे की ओर झुका हुआ। प्रभात के झुटपुटे में अच्छा-भला आदमी भी प्रेत लगने लगता है ।
"हाय, इन्हें क्या हो गया है ? ऐसे भी कोई बात दिल को लगा लेता है! "
कुन्तो खाट पर से उतर आईं और बरामदे में पहुंची ।
"तुम्हें मेरे सिर की कसम, अन्दर चलो। हुआ क्या है जो तुम इतने परेशान हो रहे हो ? " त्रिलोकी ठिठक गया ।
"तुम नहीं जानती कुन्तो, मुझे लगता है खन्ना साहब ने वह चिट्ठीलिख दी होगी और मेरा काम चौपट हो जाएगा। "
"तुमने अपनी यह क्या हालत बना ली है ? आखिर तुम्हें कोई नौकरी से निकाल तो नहीं रहा। अन्दर चलो। "
“मेरी चौदह साल की सर्विस धूल में मिल जाएगी..."
"कुछ नहीं हुआ, कुछ नहीं होगा, तुम अन्दर चलो। "
"तुम समझती क्यों नहीं हो कुन्तो, मेरा वास्ता सेक्रेटरी के साथ नहीं पड़ता, मेरा वास्ता सुपरिण्टेण्डेण्ट के साथ पड़ता है । मेरी नकेल तो उसके हाथ में रहती है । "
और त्रिलोकी की आँखों के सामने फिर सुपरिण्टेण्डेण्ट का चेहरा घूम गया ।
“ तुम बात को समझा करो कुन्तो, दफ्तर में सभी काम फाइलों पर होते हैं । सेक्रेटरी ने ज्यों ही मेरी फाइल मंगवाई कि सुपरिटेण्डेण्ट को पता चल जाएगा। बल्कि जिस तरह वह मुझे देख -देखकर मुसकरा रहा था ,मुझे यकीन है, उसे अभी से पता चल चुका है । सुपरिण्टेण्डेण्ट चिढ़ गया है। वह दिल का अच्छा आदमी नहीं है। मुझसे यों भी डाह करता है, क्योंकि मैं उससे ज्यादा पढ़ा हुआ हूँ। ये लोग जान-बूझकर रिपोर्ट खराब कर देते हैं । "
"अच्छा तुम इस वक्त तो अन्दर चलो। देखा जाएगा जो होगा। सुबह होने को आई है और तुम पल-भर के लिए भी नहीं सो पाए। चलो अन्दर। "
त्रिलोकी ने पत्नी का हाथ ज़ोर से झटक दिया, “ तुम मुझे दम भी लेने दोगी या नहीं ? दिन -रात पीछे पड़ी रहती हो । जब से इस घर में आई हो एक दिन चैन का नसीब नहीं हुआ। "
कुन्तो धक् से रह गई। फिर उसे अपनी बाँहों में भरती हुई बोली, "...मुझे जो मन में आए कह लो । मगर अन्दर चलो। घण्टे - दो - घण्टे सो लो । देखो, रात - भर बेचैन रहे हो । "
"हटो जी, यह क्या मज़ाक है... "त्रिलोकी ने अपने को छुड़ाने की कोशिश करते हुए कहा, फिर चुपचाप अन्दर चला गया और सिसकी भरकर खाट पर लेट गया।
पक्षी चहक रहे थे, आकाश में सुहावनी सुबह की लालीखिल चुकी थी और मीठी -मीठी ठण्डी हवा बह रही थी, जब त्रिलोकीनाथ खन्ना साहब के बंगले के बाहर खड़ा बार-बार अन्दर झाँक रहा था और निश्चय नहीं कर पा रहा था कि अन्दर चला जाए या वहीं खड़ा इन्तज़ार करे ।
वह अभी सोच ही रहा था कि खन्ना साहब सुबह सैर के कपड़े पहने, खंखारते हुए बाहर निकले, "कोन है ? अरे त्रिलाकी, तुम कब से यहाँ खड़े हो ? आओ अन्दर चलो। "फिर वहीं खड़े- खड़े कहने लगे, "माफ करना मैं अभी चिट्ठी नहीं लिख पाया। कुछ काम आ पड़ा था , बीच में ही रह गई । मैं आज जरूर लिख दूंगा। "
त्रिलोकी ने पहली बार आँख उठाकर खन्ना साहब के चेहरे की ओर देखा। एक क्षण में ही मनों बोझ उसकी छाती पर से, कन्धों पर से और सिर पर से उतर गया ।
"नहीं, नहीं खन्ना साहब , आप कष्ट न कीजिए।...मुझे.... यों भी मुझे इस साल तरक्की मिल जाने की आशा है ।...मेरी सर्विस काफी लम्बी हो चुकी है, सर! "
खन्ना साहब हत्बुद्धि- से त्रिलोकी के चेहरे की ओर देखने लगे । उन्हें आश्चर्य हुआ, कुछ गुस्सा भी आया कि इस क्लर्क ने मेरी सिफारिश को महत्त्व नहीं दिया । पर इस बात का इत्मीनान भी हुआ कि अनावश्यक उत्साह में जो चिट्ठी लिखने का वचन दे आए थे, उस पचड़े में से निकलने के लिए त्रिलोकी खुद चला आया था ।
"हर्ज तो कोई नहीं था अगर लिख देता , मगर तुम अपने दफ्तर की बातों को मुझसे ज्यादा समझते हो । जो ज़रूरत नहीं, तो न सही। "
हल्के डग भरता हुआ त्रिलोकी दफ्तर को चला। थोड़ी देर बाद ही सेक्रेटेरियट के ऊँचे ऊँचे गुम्बद आँखों के सामने आए, रोज़ की तरह आसमान से बातें करते हुए। क्लों की भीड़ साइकिलों पर उनकी ओर बढ़े जा रही थी । बाबू त्रिलोकीनाथ के पाँव धीरे- धीरे फिर बोझिल होने लगे और मन फिर उधेड़ -बुन में खोने लगा।