शुरुआत (बांग्ला कहानी) : जॉन मार्टिन

Shuruaat (Bangla Story) : John Martin

तपती दुपहरिया में आग उगलते सूरज से बेपरवाह, पसीने से सराबोर उन दोनों को अपनी बगिया में कड़ी मेहनत करते देख मैं जज्बाती हो गया। दिलो-दिमाग में विचारों की आवाजाही शुरू हो गई। संवेदना हरहराने लगी। शाम ढलने के साथ उथल-पुथल मचाती भावनाएँ कविता के रूप में कागज पर उतर गईं।

दिनभर की मजदूरी देने के पहले मेरी दिली इच्छा हुई कि उन दोनों को, उन्हीं पर लिखी कविता सुनाई जाए।

काम खत्म होने के बाद अपने छोटे से लाइब्रेरी में उन्हें बिठाकर बड़े उत्साह के साथ हमने कहा, ''सुनो, हमने तुम दोनों पर एक कविता लिखी है।

''ई का होत है, बाबूजी?'' दोनों के समवेत, जिज्ञासु स्वर ने शुरू में ही मेरे उत्साह पर हथौड़ा चला दिया।

''अरे भाई, गाँव-घर में दोहा, चौपाई, गीत वगैरह सुनते हो न, बस, कुछ इसी तरह की चीज है ... सुनाऊँ?''

''इससे का फायदा होगा? ... कौनो पेट भरने की चीज तो है नहीं!''

''देखो, इसे मैं पत्रिका में छपवाऊँगा।'' सामने पड़ी पत्रिका की ओर इशारा करते हुए कहा, ''छपने के बाद इसे लोग पढ़ेंगे, तु हारे बारे में जानेंगे ... आँधी-तूफान, सर्दी-गरमी में भी मजदूर भाई अपने काम में लघुकथा कैसे डटे रहते हैं, इसका एहसास उन्हें होगा।''

''तो का हमरे खून-पसीना के बारे में लोग अभी तक नहीं जानते हैं?''

''जानते हैं जरूर, पर इसे पढ़कर शिद्ïदत से तु हारी मेहनत को महसूस करेंगे। तु हारी स्थिति पर गंभीरता से सोचेंगे। लोगों की सोच में बदलाव आएगा तो तहारी जिंदगी में भी बदलाव आएगा।''

''तो इसकी शुरुआत आप ही कर दो न, बाबूजी!''

मैं पलभर के लिए अचकचाया। थोड़ा गुस्सा भी आया। लेकिन मैं उन्हें अपनी कविता सुनाने की जिद पर अड़ा हुआ था। सो खुद को संयत किया, ''कैसी शुरुआत चाहते हो?''

''हम लोगन का मजदूरी बढ़ा दीजिए न ... इससे थोड़ा-बहुत बदलाव आ जाएगा!''

मेरी परिवर्तनकामी चेतना निरुत्तर होकर बगलें झाँकने लगी। सृजन की जमीन पर बेरहमी से कुदाल चलते देख कागज पर उतरी कविता की कुटिल मुसकान मुझे मुँह चिढ़ा रही थी।

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