शून्य (कश्मीरी कहानी) : अली मुहम्मद लोन

Shunya (Kashmiri Story) : Ali Mohammed Lone

वैक्यूम! अनन्तः और प्रतिदिन बढ़ता वैक्यूम! यह वैक्यूम पृथ्वी से दूर अन्तरिक्ष में नहीं है, अपितु यह मेरे दिल व मस्तिष्क में पैदा हुआ है। वह वैक्यूम जो कभी भी भरा नहीं जा सकता।
दिन और रात का चक्र एक बेमानी वस्तु-भोर हुई रोशनी हुई शाम हुई और रात आई।

दिन भी बीता। रात भी समाप्त हुई। मुझे क्या? मैं किसी भी बात पर सोच ही नहीं सकता। मैं अन्तर्मुखी या इंट्रोवर्ट नहीं हूँ। मगर यारों-दोस्तों को शिकायत है कि में ऐसा हूँ, क्योंकि मुझे उनकी तरह बातें करना नहीं आता।

इंट्रोवर्ट!
इस संबोधन पर मुझे हंसी आती है। हँसी नहीं, बस समझ लीजिए यही होंठ मुसमुसाने तक की। मगर फिर भी चुपचाप बैठता हूँ। जब बात ही करना न आए, चुप रहने के अलावा चारा ही क्या है!
रिश्तेदारों में यह मशहूर है कि मैं सौ बातों के उत्तर में एक बात करता हूँ।
"यह बुद्धिमानी है।" बड़े बुजुर्ग कहते हैं।
“यह अभिमान है।" छोटे कहते हैं।
“बुद्धि जब पराकाष्ठा पर पहुंचे, बातें अपने-आप कम हो जाती हैं।" कम पढ़े-लिखे दोस्त कहते हैं।

और मैं इन सभी बातों का उत्तर होंठ मुसमुसाकर देता हूँ। इसलिए नहीं कि मैं इन बातों पर व्यंग्य करना चाहता हूँ, बल्कि इसलिए कि मुझे अपनी चुप्पी का कोई भी कारण ज्ञात नहीं है। अब रहा यह वैक्यूम। इसका मैं कर ही क्या सकता हूँ? यह दिन-प्रतिदिन फैलता ही जाता है बढ़ता ही जाता है इतना अधिक कि कभी मुझे यह सारी सृष्टि इसमें एक एटम-जैसी प्रतीत होने लगती है। उससे भी कम। कौन जाने, इसका क्या किया जा सकता है।

आज वर्षा हो रही है। सारा माहौल ठण्डा है। लोग बुश्शर्ट उतारकर सूट पहने हुए हैं। मगर मेरा वैक्यूम किसी भी प्रभाव को स्वीकार नहीं कर रहा है। सर्दी-गर्मी चाहे भीतर की हो या बाहर की, इस पर कोई प्रभाव नहीं डालती।

आप ही बताइए, अस्तित्व का क्या उद्देश्य है? शायद आपके पास अपने अस्तित्व का कोई अर्थ या उद्देश्य होगा। मगर मेरे अस्तित्व का क्या उद्देश्य है? मैं क्यों हूँ? और क्यों नहीं हूँ?

हजारों पुस्तकें, सैकड़ों फल्सफे पढ़ने के बाद भी मुझे इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला। मैंने संसार के सारे धर्म एवं सारे दृष्टिकोण छान मारे, मगर मेरा प्रश्न फिर भी उत्तर की प्रतीक्षा में रहा। मैं किसी भी परिणाम पर नहीं पहुंचा।

इसीलिए मुझे अपना अस्तित्व बिना उद्देश्य के और निर्जीव दिखता है। ऑटोमेटन या रोबो का भी एक उद्देश्य होता है। वह भी एक उद्देश्य के लिए बनाया जाता है, और वह उस उद्देश्य को पूरा भी करता है। मैं क्या हूँ? क्यों हूँ? रोबो या मनुष्य? यह मैं कभी भी नहीं समझा।

लोगों के गले में जंजीरें पड़ती हैं-कारोबार की जंजीरें, परिवार की जंजीरें, समाज की जंजीरें, और इन्हीं जंजीरों में कैद होकर वे गधों की भांति कान और मन बन्द करके जिन्दगी के रास्ते पर आगे रेंगते रहते हैं और आखिर में किसी मंजिल पर पहुँच जाते हैं। मगर मुझे क्या हुआ? मैं भी इन्हीं जंजीरों का कैदी हूँ, फिर भी मैं अपने-आपको कैसे इनसे मुक्त पाता हूँ? अलग और अकेला इन जंजीरों के बिना भी कोई जीवित रहता है क्या?

प्रातः दफ्तर जाना, शाम को वापस आना, खाना लेना, रेडियो सुनना, अखबार पढ़ना, नोन-तेल और साग-सब्जी का हिसाब करना, इन्शोरेंस, जी.पी. फण्ड, इन्कम टैक्स, मकान का किराया, मरना, जीना, विवाह, मातम सभी झमेलों में पड़कर भी मैं अपने-आपको स्वतंत्र पाता हूँ-अकेला, बिना किसी रुकावट के। मैं परेशान हो जाता हूँ। भगवान के अस्तित्व पर विश्वास न होने पर भी कभी-कभी मेरे मुँह से खुले दिल चीखें निकलती हैं-'ओह माय गॉड!

हाल ही में मैं एक हादसे का शिकार हुआ। मैं रात को साइकिल से गिर पड़ा। उस समय भी मेरे मुँह से चीख निकली-'ओह माय गॉड!'

मगर ज्यों ही लगा लोगों ने मुझे उठाया, मेरे दिल में कोई भी जज्बा मौजूद न था-न भय का, न चिन्ता का और न एडवेंचर का। अस्पताल में जब मैं स्क्रीनिंग प्लांट के सामने आया तो डॉक्टर ने मेरी जख्मी बाँह को सीधा किया। मेरी चीखें निकलीं, शारीरिक पीड़ा के कारण, और सिर से पैर तक पसीने छूटे। पता नहीं डॉक्टर को क्या दिखाई दिया। उसका हाथ काँपा और थोड़ा परेशान होकर उसने कहा, 'शायद फ्रैक्चर है। डॉक्टर की परेशानी पर मुझे हंसी आई। वह हैरान हुआ। जब मुझे एक्सरे की मेज़ पर चढ़ाया, मेरी बाँह को फिर सीधा किया गया। फिर से मेरी चीखें निकलीं? डॉक्टर ने डरते-डरते कहा, 'मुझे लग रहा है कि फ्रेक्चर है। बस, मुझे जोर से हँसी आई। डॉक्टर को गुस्सा आया और वह बोला-'जनाबे आली! आपको यह मजाक लगता है? इन हड्डियों के जुड़ने में कम से कम तीन महीने लग जाएंगे।'

मैं यह सुनकर पता नहीं क्यों निराश-सा हुआ-'केवल तीन महीने? छी-छी...!'
डॉक्टर ने मेरे सिर पर हाथ फेरकर पूछा, 'कहीं आपको हेड-इंजरी तो नहीं है?'

मैं अब चुप रहा। उस बुद्धू को क्या कहता कि सिर में तब चोट आती जब इसमें सोचने की शक्ति होती। खाली सिर में क्यों चोट आएगी भला?
एक्सरे-फिल्म देखकर मैं कुछ अधिक ही निराश हुआ। बाँह की हड्डियाँ बिल्कुल ठीक थीं। डॉक्टर प्रसन्न था और उसने अंग्रेजी में कहा, 'यू आर वेरी लक्की। थैंक योर स्टार्ज।'
'ओफ्फोह!

एक अवसर जीवन में आया था, दैनिक जीवन-चक्र से अलग। मगर मेरी किस्मत से यह अवसर ही चूक गया। बाँह को प्लस्तर में कैद रखना, अस्पताल के साफ-सुथरे सफेद-सफेद और गर्म-गर्म बिस्तर पर लेटना एक ऐसा आनन्ददायक तजुर्बा था जो मेरी किस्मत में न था। और यह बुद्ध डॉक्टर कहता है, 'रियली यू आर वेरी लकी। आय कॉन्ग्रेचुलेट यू!' ।
'हुँह! इंडियट!!'

अन्य लोगों को किसी चीज की कमी होती है, किसी भौतिक वस्तु की कमी। वे वस्तुएँ प्राप्त करने में उनका सारा जीवन बीत जाता है। मगर मुझे किसी भी भौतिक वस्तु की कमी नहीं। इस किस्म की कोई भी कमी नहीं है। मेरी कमी जो है वह है भीतर की। मेरे दिल में कोई भी जज्बा नहीं है। किसी भी किस्म का-भय का, खुशी का, गम का, मुहब्बत का, नफरत का।

बुद्धिजीवियों का कहना है कि मनुष्य साग-चावल (दाल-रोटी) खाकर ही जीवित रहते हैं। साग-चावल, पानी और हवा मनुष्य के शरीर को जीवित रखते हैं। मगर मनुष्य के शरीर में और भी कुछ होता है जिसे अलग-अलग किस्म का आहार मिलना चाहिए। आज से कुछ समय पूर्व मैं इसे सच मानता था। इसीलिए मैं पुस्तकें पढ़ता था, कहानियाँ लिखता था, नाटक खेलता था, गाने सुनता था, फिल्में देखता था, क्लबों में जाता था, महफिलों में भाग लेता था, लोगों के साथ उठता-बैठता था, हँसता-खेलता था। मगर यह मेरा भूतकाल था। मेरा वर्तमान अब दूसरे ही तौर-तरीकों पर चल रहा है। मुझे यह सब फिजूल लगता है बेहूदा और बकवास! पुस्तकें पढ़-पढ़ के मेरा मस्तिष्क खाली हुआ है। कहानियाँ लिख-लिखकर मेरे अपने जीवन की कहानी उलझन बन गई। नाटक केवल नकल है जिसमें अक्ल का क्या काम! गाने-बजाने में वैराग्य पैदा होता है। फिल्में उद्देश्य-रहित हैं। क्लबों में जाना, महफिलों में उठना-बैठना, दोस्तों-यारों के साथ हँसना-खेलना एक तकल्लुफ लगता है। पता नहीं क्यों?

पता नहीं मैं क्या चाहता हूँ! मैं कुछ भी नहीं चाहता। कुछ भी तो नहीं! फिर भी दिल और दिमाग का यह वैक्यूम मुझे खाने को दौड़ता है। और मैं चाहता हूँ कि यह किसी तरह भर जाए। पता नहीं इसे भरने के लिए क्या होना चाहिए? किसी की मुहब्बत? किसी की सहानुभूति? अब अगर ये सारी वस्तुएँ उपलब्ध होने पर भी यह वैक्यूम, यह शून्य, भर नहीं पाता, तो फिर इसका क्या किया जाए?
ओफ्फोह!

मैं तंग भी नहीं आता।
काश! तंग ही आ जाता। वह भी एक जज्बा था, जो मेरे खालीपन को किसी न किसी तरीके से भर लेता। ओह माय गॉड!
दिमाग के खाली होने का, या दिल के खाली होने का, कोई इलाज है क्या?

वर्षा हो रही होगी। माहौल भी ठण्डा हुआ होगा। अच्छी लगनेवाली (मीठी-मीठी) ठण्ड भी शुरू होगी। इस ठण्ड से सफेद रजाई में सोना एक लक्शरी (ऐयाशी) है, मगर उनके लिए जो रात व्यतीत कर दिन की प्रतीक्षा करते होंगे। जिसकी किस्मत में यह प्रतीक्षा करना ही न लिखा हो, वह क्या करेगा? कहाँ जाएगा?

ओह! मेरा यह वैक्यूम, यह शून्य, क्या किसी तरह भरा जा सकता है?

(अनुवादक : डॉ. ओंकार कौल)

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