Shuddh Kavita Ka Itihas-1 (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar

शुद्ध कविता का इतिहास–1 : रामधारी सिंह 'दिनकर'

1. शुद्ध कविता और भारतीय आचार्य

प्राचीन काल में सभी देशों की कविताएँ धर्म, युद्ध, विरह और प्रेम को लेकर लिखी जाती थीं और इस भाव से लिखी जाती थीं कि पाठक या श्रोता उन कविताओं को समझ लेंगे और उनसे प्रेरणा ग्रहण करेंगे। कविता सोद्देश्य होनी चाहिए या निरुद्देश्य, यह प्रश्न उस समय नहीं उठा था और, साधारणत:, सभी लोग यह मानते थे कि कविता का उद्देश्य ज्ञानदान भी है और आनन्ददान भी। ‘सद्य: परिनिर्वृत्तये कान्तासम्मिततयोपदेश युजे’–यह स्थापना भारत में आचार्य मम्मट ने रखी थी, किन्तु संसार–भर के कवि लगभग इसी सिद्धान्त में विश्वास करते थे।

उस समय लोग यह भी नहीं जानते थे कि काव्य की भी समस्याएँ होती हैं और उन पर विचार करते समय हमें भाव और विचार तथा शैली और विषय के द्वन्द्वों पर भी विचार करना चाहिए। कविताएँ महाकाव्यों में भी होती थीं और उन मुक्तकों में भी जो एक, दो या दस–पाँच श्लोकों के होते थे। महाकाव्यों का प्रभाव इसलिए पड़ता था कि उनमें कवित्व भी रहता था और कथा भी होती थीय अर्थात् जो आनन्द आज मुक्तक काव्य और उपन्यास के बीच अलग–अलग बँट गया है, वह महाकाव्य में सम्मिलित रूप से उपलब्ध होता था। हमारा अनुमान है कि उस समय के पाठक, शैली और विषय, इन नामों से अपरिचित होते हुए भी इस बात का अस्पष्ट अनुभव अवश्य करते होंगे कि मुक्तकों का प्रभाव महाकाव्यों के प्रभाव से भिन्न होता है। मुक्तकों की बेधकता से समाज इतना प्रभावित हुआ कि उसे चिन्ता हो उठी कि ये मुक्तक कहीं खो न जाएँ, अतएव मुक्तकों का संग्रह लोग सुभाषित के नाम से करने लगे। पीछे महाकाव्यों में से भी सुभाषित चुने जाने लगे और उनका संकलन मुक्तकों के साथ तैयार किया जाने लगा। यह काव्य के विशिष्टीकरण की प्रक्रिया का आरम्भ था।

किन्तु समाज पर महाकाव्यों का जो प्रभाव था, वह मुक्तकों का नहीं था। मुक्तक विशेष प्रकार के रसज्ञ पाठक पढ़ते थे, किन्तु महाकाव्य कथा–मंच से भी पढ़ा जाता था। अतएव साहित्य के भीतर एक मान्यता उत्पन्न हो गई कि काव्य की महिमा का कारण उसके विषय की महत्ता होती है। जो कवि जितने ही अधिक महान विषय पर काम करता है, उसका काव्य उतना ही ऊँचा और श्लाघ्य होता है। आज के प्रसंग में देखें तो यह कविता नहीं, धर्म, दर्शन, नैतिकता और इतिहास के साथ पक्षपात था और विषय को इतनी अधिक गरिमा देकर आचार्य शैली की महिमा को दबा रहे थे। किन्तु शैली उपेक्षित होने से इनकार करती थी, क्योंकि महाकाव्यों में से जो श्लोक सुभाषित–भांडार के लिए छाँटे जाते थे, उनमें शैली का सौन्दर्य कुछ अधिक प्रखर होता था। आज तो सुभाषित इसलिए निन्दित हो गए हैं कि अक्सर वे उपदेश के पद होते हैं, किन्तु प्राचीन काल में वे काव्य के अरण्य में स्वत:दीप्त पुष्पों की भाँति चमकते थे और यह चमक शैली के निखार से उत्पन्न होती थी। हमारा खयाल है, महाकाव्यों में से सुभाषित छाँटने की सूझ उसी प्रवृत्ति से उत्पन्न हुई होगी, जिस प्रवृत्ति के अति विकास से शुद्ध काव्य का आन्दोलन उत्पन्न हुआ है।

मुक्तक की महिमा यह भी है कि एक समय वे लगभग शुद्ध काव्य के प्रतीक थे। वे छोटे होते थे, उनमें भावों का वर्णन सूत्र–शैली में किया जाता था और वे वहीं समाप्त हो जाते थे, जहाँ भावों की समाप्ति होती थी। किन्तु कथा–काव्य संक्षिप्त काव्य नहीं होता। वह लम्बा होता है और लम्बा वह कवित्व के कारण नहीं, कथा के कारण होता है। किन्तु शुद्ध कविता की पंक्तियाँ कथा–काव्यों में भी उतरती थीं और कवि तथा पाठक उन पंक्तियों को बाकी कविता से श्रेष्ठ भी समझते थे। कविता रचते समय कवि की और उसका पाठ करते समय पाठक की दृष्टि, उस समय भी, इस बात पर जरूर जाती होगी कि कविता में सूक्ष्म सौन्दर्य की ऐसी भी पंक्तियाँ उभरती हैं, जिनका विषय से कोई खास सम्बन्ध नहीं है, जो कवि की वैयक्तिक प्रतिभा की कौंध से उत्पन्न होती हैं या जो महज शिल्प और कारीगरी के परिणाम हैं।

मीनोपसंदर्शितमेखलानाम्
नदीवधूनां गतयोऽद्य मन्दा:।
कान्तोपभुक्तालसगामिनीनाम्
प्रभातकालेष्विवकामिनीनाम्।

वाल्मीकि का यह श्लोक रामकथा के कारण नहीं चमकता है, प्रत्युत इस कारण कि वह शुद्ध कविता का श्लोक है।

इसी प्रकार :

जहँ बिलोकु मृग सावक नैनी
जनु तहँ बरसु कमल सितसैनी।
सुन्दरता कहँ सुन्दर करई
छविगृह दीप सिखा जनु बरई।

तुलसीदास जी की ये विलक्षण पंक्तियाँ रामकथा की महिमा से नहीं जनमी हैं, प्रत्युत वे कवि की प्रतिभा से उत्पन्न हुई हैं, उसकी शिल्प–निपुणता से प्रसूत हैं।

इसी प्रकार विद्यापति जब यह कहते हैं कि ‘जनम–अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल’, तब इसका कारण यह नहीं है कि उन्होंने श्रीकृष्ण के रूप को राधा की दृष्टि से देखने की कोशिश की थी, बल्कि यह कि किसी अपूर्व सौन्दर्य का चिन्तन करते–करते कवि को यह उक्ति सूझ गई। यह उसकी वैयक्तिक प्रतिभा का प्रसाद है। यह उसकी शिल्प–निपुणता का परिणाम है। राधा–कृष्ण के चरित से वह उत्पन्न नहीं हुई है।

काव्य–रसिकों की जो भावना ऐसी विलक्षण और विशुद्ध पंक्तियों से सर्वाधिक सन्तोष पाती थी, उसी ने विकसित होकर अब सम्पूर्ण काव्य को शुद्ध करने का व्रत ले लिया है। शुद्ध कवित्व का आन्दोलन मनुष्य की इसी अति काव्यात्मक प्रवृत्ति का विस्फोट है।

भारत के अनेक आचार्य काव्य की महिमा का मुख्य कारण विषय की महिमा को मानते थे, किन्तु यदि आलोचना के व्यवहार–पक्ष को देखें तो भारत में आलोचना से अभिप्राय शैली की ही आलोचना से था। अलंकार, रस, ध्वनि, रीति, वक्रोक्ति, शब्दों के सुप्रयोग और औचित्य–इन्हीं कसौटियों पर काव्य की उत्तमता यहाँ परखी जाती थी। भारत में किसी भी आचार्य ने किसी भी कवि की निन्दा या स्तुति इस विचार से नहीं की है कि वह आस्तिक था अथवा नास्तिक, वैष्णव था अथवा शैव, युद्धवादी था अथवा शान्तिवादी अथवा उसकी आस्था शब्दों के प्रति थी या विचारों और भावों के प्रति। काव्य को भारत में कला का पर्याय मानने की प्रथा नहीं थी, किन्तु कविता के प्रति यहाँ व्यवहार वही किया जाता था, जो कला के प्रति किया जाना चाहिए।

भारत में कला की गणना उपविद्याओं में की गई थी और कविता की साहित्य में। कला का उद्देश्य यहाँ सजावट और मनोरंजन माना जाता था, किन्तु साहित्य का ध्येय केवल मनोरंजन नहीं, उससे कहीं महान तत्त्वों की उपलब्धि थी। काव्यालंकार में भामह ने लिखा है कि प्रत्येक शास्त्र चतुर्वर्ग में से किसी एक की पूर्ति करता है। उदाहरणार्थ, स्मृति धर्म का कारण है, नीति से अर्थ की उपलब्धि होती है और कामशास्त्र से काम–सम्बन्धी लक्ष्य प्राप्त होते हैं तथा दर्शन मोक्ष का उपाय है। किन्तु काव्य–शास्त्र अकेले चारों की प्राप्ति करा सकता है।

और विश्वनाथ ने भी लिखा है कि :

चतुर्वर्गफलप्राप्ति: सुखात् अल्पधियामपि,
काव्यात् एव यतस्तेन तत्स्वरूप निरूप्यते।

अर्थात् जो शास्त्रों के विशेषज्ञ नहीं हैं, वे अल्पमति लोग भी काव्य के द्वारा चारों पुरुषार्थों को सुख से प्राप्त कर सकते हैं।

भारतीय आचार्यों की मान्यता यह मालूम होती है कि सत्य की उपलब्धि शास्त्र बुद्धि के मार्ग से करवाते हैंय किन्तु बुद्धि के मार्ग से इतर कोई और मार्ग है, जिस पर कवि चलता है और सत्य की उपलब्धि कवि इस इतर मार्ग से भी करता है। स्पष्ट ही, यह मार्ग संबुद्धि का मार्ग है और संबुद्धि से जागरण उनके भीतर भी उत्पन्न होता है, जो बुद्धि से जगाए नहीं जा सकते। इसीलिए अल्पधी के लिए भी कविता का मार्ग सुगम और सुलभ मार्ग है।

आधुनिक आलोचना के सिलसिले में एक यह बात भी उल्लेखनीय है कि जिसे हम कविता के भीतर कवि का प्रच्छन्न व्यक्तित्व कहते हैं, उस व्यक्तित्व की खोज की पद्धति प्राचीन काल में नहीं चली थी, किन्तु इस विचार का बीज वामन के रीतिवाद में खोजा जा सकता है। वामन ने रीतियाँ तीन ही मानी हैं, किन्तु वामन को यदि कुन्तक के प्रकाश में समझा जाए तो यह शिक्षा निकाली जा सकती है कि रीति केवल भूगोलवाचक न होकर कवि की वैयक्तिक भंगिमा की ओर इंगित करती है। कुन्तक ने काव्य–भेद का कारण भूगोल को नहीं, कवि–स्वभाव को माना है और कहा है कि ‘यद्यपि कवि–स्वभाव–भेद–मूलक होने से (कवियों और उनके स्वभावों के अनन्त होने से) मार्गों का भी आनंत्य अनिवार्य है, परन्तु उसकी गणना असम्भव होने से साधारणत: त्रैविध्य ही युक्तिसंगत है।’ अर्थात् रीतियाँ तीन ही नहीं हैं, वे अनन्त भी हो सकती हैं क्योंकि दो कवियों की भंगिमा एक नहीं होती है। कुन्तक ने जिस सत्य की ओर संकेत किया है, वह आज के प्रसंग में भी देखा जा सकता है। आज भी केवल छन्द और व्याकरण की शुद्धता को देखकर अथवा ललितलवंगी भाषा के सफल प्रयोग से प्रभावित होकर हम किसी भी नये कवि को कवि के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। स्वीकृति उसे तब दी जाती है, जब यह पता चल जाए कि उसकी शैली प्राचीन और नवीन, सभी कवियों की शैलियों से भिन्न हैय वह जिस स्वर में बोल रहा है, वह उसका अपना स्वर है और उसके भीतर जो भाव–भंगिमा अथवा वचन–भंगिमा दिखाई देती है, वह पहले कभी और दिखाई नहीं पड़ी थी। भारतीय काव्यशास्त्र ने विषय के इस पक्ष का विवेचन नहीं किया है, किन्तु परम्परा से चला आता यह दोहा बतलाता है कि कवि की न्यूनतम योग्यता यह होनी चाहिए कि वह किसी का भी अनुकरण न करके अपने लिए बिलकुल नई और अछूती राह तैयार करे :

लीक लीक गाड़ी चलै, लीकै चलै कपूत,
लीक छाँड़ि तीनैं चलैं, सायर, सिंह, सपूत।
अथवा अज्ञेय जी के शब्दों में :
तेरा कहना है ठीकय जिधर मैं चला,
नहीं वह पथ था।
मेरा आग्रह भी नहीं रहा मैं चलूँ उसी पर
सदा जिसे पथ कहा गया,
जो इतने पैरों से रौंदा जाता रहा
कि उस पर
कोई छाप पहचानी नहीं जा सकती थी।

ब्रह्मा प्रत्येक मनुष्य नये ढब–ढाँचे का बनाता है। संसार में आज जितने भी मनुष्य वर्तमान हैं, उनमें से, जुड़वों को छोड़कर, और कोई भी दो मनुष्य ऐसे नहीं मिलेंगे, जिनके चेहरे समान हों। और धरती पर से जो असंख्य मनुष्य गुजर चुके हैं, उनमें भी कोई दो मनुष्य ऐसे नहीं थे, जिनके चेहरे आपस में समान रहे हों। प्रकृति के कोष में, न जाने, कितने साँचे हैं कि हर आदमी नई आकृति लेकर आता है। इसी प्रकार, संसार में जितने भी कवि हुए हैं, उनकी कविताएँ और कवियों की कविताओं से भिन्न थीं, उनमें से प्रत्येक की शैली केवल अपनी शैली थी, प्रत्येक की राह केवल अपनी राह थी। इस मौलिकता की कसौटी पर खरा उतरनेवाला कवि बच जाता है। बाकी लोग प्रवाह में आते हैं और उसी के साथ अदृश्य में विलीन हो जाते हैं।

जैसे एक कवि की कविता दूसरे कवि की कविता से भिन्न होती है, उसी प्रकार एक युग की कविता दूसरे युग की कविता से कुछ भिन्न हो जाती है। और जैसे एक कवि की सभी कविताएँ, परस्पर भिन्न होती हुई भी, लगभग समान दिखाई देती हैं, उसी प्रकार युग–विशेष की सभी कविताएँ परस्पर समान होती हैं। कवि के समान युग भी व्यक्तित्वशाली हुआ करते हैं। प्रत्येक युग अपने कवियों के भीतर कुछ–न–कुछ नई दृष्टि पैदा करता है, कुछ–न–कुछ नई अनुभूतियाँ जगाता है और प्रत्येक युग अपनी अनुभूतियों के अनुरूप नवीन शैली को जन्म देता है। प्रत्येक कवि की शैली एक नवीन रीति है, क्योंकि वह उसकी अपनी मनोदशा का प्रतिनिधित्व करती है, वह उसके चिन्तन की अपनी दिशा का निर्माण करती है, वह उसके आवेगों के अनुरूप नई भंगिमा तैयार करती है। हमारा खयाल है, जो बात कवि पर लागू होती है, वही युग पर भी लागू होनी चाहिए। और वह विशेषत: इस कारण कि प्राचीन काल में परिवर्तनों की अनधिकता के कारण युग बहुत लम्बे हुआ करते थे, किन्तु अब युग तुरन्त आरम्भ होते हैं और लगभग तुरन्त समाप्त हो जाते हैं। यह भी कि प्राचीन काल में युगों के व्यक्तित्व बहुत प्रखर नहीं होते थे, मगर आज वे बहुत ही तेज हैं।

लोक–मंगल की आराधना और अशिव के विरोध का भाव भारतीय आचार्यों के काव्य–सिद्धान्त में लगभग सर्वत्र समाविष्ट मिलता हैय किन्तु काव्य के असली तत्त्वों पर उनकी दृष्टि इतनी अधिक केन्द्रित थी कि कोरे उपदेशवाद को वे काव्य नहीं मानते थे। जब भारत में यह प्रश्न उठा कि काव्य की आत्मा क्या है, तब कोई भी आचार्य इस विचिकित्सा में नहीं पड़ा कि लोक–मंगल की दृष्टि से किस कवि का विषय कितना ऊँचा या महान है। आचार्यों ने काव्य की आत्मा की खोज कवि के विषय में नहीं, उसकी शैली में करना शुरू किया। अलंकार शैली का गुण हैय रस अर्थ और शैली में हैय ध्वनि शैली से उत्पन्न होती है और रीति शैली की विशिष्टता का नाम है।

जब कुन्तक आए, उन्होंने कहा, काव्य की आत्मा वक्रोक्ति है, वचन की भंगिमा है। कविता और कला के विषय में यूरोपीय चिन्तक जहाँ पर अब पहुँचे हैं, उसका आभास कुन्तक ने दसवीं शताब्दी में दिया था। कुन्तक काव्य को काव्य इसलिए नहीं मानते कि वह निश्चित रूप से लोकमंगलकारी होता है बल्कि इसलिए कि उसमें प्रयुक्त शब्द अद्वितीय अथवा ‘यूनिक’ होते हैं, उसके अर्थ से रस ध्वनित होता है तथा उसके शब्द और अर्थ एक–दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते।

यूरोप में इधर इस विषय को लेकर अत्यन्त कठोर चिन्तन चला है कि कविता में विषय और शैली का आपेक्षिक स्थान क्या है। इलियट साहब ने यह राय दी है कि कविता की ऊँचाई अथवा गहराई की पहचान उसके विषय की ऊँचाई या उसका गाम्भीर्य है, किन्तु काव्य का सौन्दर्य उसकी शैली में परखा जाना चाहिए। किन्तु काव्य का विषय उसकी शैली से अलग करके देखा नहीं जा सकता। जब हम किसी काव्य से प्रभावित होने लगते हैं, तब हमारा मन यह नहीं जानता कि हम जो आनन्द भोग रहे हैं, उसका अमुक प्रतिशत शैली का आनन्द है और अमुक प्रतिशत उसके कथ्य का। इस कठिनाई का आभास कुन्तक को रहा होगा क्योंकि शैली और कथ्य के विभाजन में उनका विश्वास नहीं है। वे शब्द और अर्थ की अभिन्नता में उसी जोर से विश्वास करते हैं जिस जोर का विश्वास क्रोसे में मिलता है। क्रोसे ने कहा है कि जब मैं ‘इन द अबिस ऑव टाइम’ कहता हूँ, तब मेरा तात्पर्य ‘बहुत प्राचीन काल में’ कहना नहीं होता है। मैं वही कहना चाहता हूँ, जो मैंने कहा है (अर्थात् काल की अपार गहराई में)।

कुन्तक का अभिप्राय यह है कि कविता रचते समय कवि के भीतर भावों की बाढ़ उठती है और वह इस बाढ़ को अनुरूप शब्दों में बाँधना चाहता है। उचित यह है कि भाव वहाँ तक बढ़ें, जहाँ तक बढ़ने की उनमें शक्ति हैय और शब्द भी आगे बढ़कर इन भावों को आत्मसात् कर लें। जब शब्द और अर्थ अपने चरमबिन्दु तक बढ़कर एक–दूसरे से एकाकार होकर, सम–अवस्था में ठहर जाते हैं, तभी कविता आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त करती है। कुन्तक ने इस स्थिति का पारिभाषिक नाम ‘परस्परस्पर्धिसमभाव’ दिया है। भाषा और भाव के बीच परस्पर स्पर्धा होनी चाहिए और दोनों को चरम विकास के उपरान्त एक बिन्दु पर समभाव से स्थित होना चाहिए। यह कविता की पूर्णता की स्थिति है। इसके विपरीत, भाषा और भाव में से एक यदि आगे बढ़ गया या पीछे छूट गया तो कविता दूषित समझी जाएगी।

भाषा और भाव के बीच स्पर्धा की प्रक्रिया पर कुन्तक ने जो जोर दिया है, उससे यह शिक्षा मजे में निकाली जा सकती है कि कवि की प्रधान आस्था शब्दों के प्रति होनी चाहिए। भाव निराकार हैं। उन पर कवि का बस नहीं है। वे कवि के संस्कार से उत्पन्न होते हैं। अतएव कवि का कर्तव्य यही रह जाता है कि वह अपने भावों को ठीक से पहचाने और उनके अनुरूप शब्दों का चुनाव करे।

कविता रचते समय कवि को दो धरातलों पर जगना पड़ता है। पहला धरातल वह है, जहाँ पर भाव जगते, सुगबुगाते या तूफान बनकर खड़े होते हैं। दूसरा धरातल भाषा का धरातल है, जहाँ शब्द होते हैं, भाषा होती है, मुहावरे होते हैं। पहले धरातल पर कवि के जगने का उद्देश्य यह होता है कि जो भाव जगे हैं, उन्हें वह ठीक से पहचान सके। जहाँ कवि अपने आवेगों को ठीक से पहचान नहीं पाता, वहीं वह ‘लिखत सुधाकर लिखि गा राहू’ की उक्ति चरितार्थ कर देता है। भावों को अनुरूप शब्दों के भीतर बाँधना जितना आवश्यक है, उन्हें ठीक से पहचानने की बात भी उतनी ही जरूरी होती है। कुन्तक ने भाषा और भाव के बीच स्पर्धा पर जोर देकर कवि को दोनों की जिम्मेदारियों के प्रति सावधान रहने का उपदेश दिया है। किन्तु भावों को केवल पहचानने की ही कोशिश की जा सकती है, उनके विषय में चुनाव की स्वाधीनता कवि को प्राप्त नहीं होती। अतएव कवि जो कुछ कर सकता है, वह यही है कि वह शब्दों का दुष्प्रयोग या अपव्यय नहीं करेय अर्थात् कवि की सबसे बड़ी आस्था भाषा के प्रति होनी चाहिए, शब्दों और मुहावरों के प्रति होनी चाहिए।

कुन्तक में हम एक नवीनता और देखते हैं। कविता के पीछे कवि के व्यक्तित्व का क्या महत्त्व है, इस प्रश्न को आचार्यों ने उपेक्षित छोड़ दिया था। शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास को सभी आचार्यों ने कविता का कारण माना था, किन्तु किसी ने भी उन्हें कवि के व्यक्तित्व के प्रसंग में देखने की कोशिश नहीं की थी। कुन्तक ने यह उद्भावना की, कि शक्ति और शक्तिमान दो नहीं, एक हैं। कवि की शक्ति उसके आन्तरिक व्यक्तित्व से उत्पन्न होती है।

कविता और कुछ नहीं, कवि का कर्म है अर्थात् कविता उसके आन्तरिक व्यक्तित्व का प्रस्वेद है, उसकी आत्मा का रंग है, उसके संस्कारों की खुशबू है। कवि की शक्ति उसके स्वभाव से उत्पन्न होती है, कवि की व्युत्पत्ति उसके संस्कार से आती है तथा कवि का अभ्यास उसकी अपनी प्रकृति के अनुसार चलता है। काव्य का मूल हेतु कवि का अपना स्वभाव है। यहाँ ऊपर के प्रसंग की यह स्थापना तुलनीय मानी जानी चाहिए कि रीतियाँ उतनी ही हैं जितने कवि हैं और नवीन कवियों के आविर्भाव के साथ नई रीतियों का आविर्भाव होता ही रहता है। शैली केवल शैली नहीं, सचमुच मनुष्य होती है।

2. शुद्ध कविता और यूरोपीय आचार्य

भारतीय चिन्तक अच्छे रहे कि उन्होंने यह मानते हुए भी कि काव्य की श्रेष्ठता का कारण बहुधा उसके विषय की श्रेष्ठता होती है, कभी भी काव्य की विषयगत समीक्षा को प्रोत्साहन नहीं दिया। किन्तु यूरोप के चिन्तक काव्य के विषयों से उतने तटस्थ नहीं रहे हैं। वहाँ आरम्भ में ही प्लेटो ने यह मत प्रकाशित किया कि मैं जिस रिपब्लिक की कल्पना करता हूँ, उसमें कवियों के लिए स्थान नहीं है। कवि में दो दोष होते हैं। यह विश्व–प्रपंच जिस आदि तत्त्व का बिम्ब है, उस तक पहुँचने की राह केवल तर्क और दर्शन की ही राह हो सकती है। किन्तु कवि तर्क और दर्शन की राह से नहीं चलता, प्रत्युत आवेगों के मार्ग से चलता है और जब वह मनुष्य या प्रकृति का वर्णन करता है, तब यह वर्णन वास्तविक तत्त्व का वर्णन न होकर उसकी छाया या बिम्ब का वर्णन हो जाता है। इस प्रकार, कविता सत्य नहीं, असत्य का प्रचार करती है। दूसरी बात यह कि सुयोग्य नागरिक वही व्यक्ति बन सकता है, जो अपने रागों को बस में रख सके। किन्तु कविता आवेगों को जगाकर मनुष्य को बुद्धिमान के बदले भावुक बनाती है, संयत बनाने के बदले उत्तेजित कर देती है।

कविता का कुछ–न–कुछ प्रयोजन भारतीय आचार्य भी मानते थे, किन्तु उसके सामाजिक उपयोग का प्रश्न इस देश में कभी भी जटिलता तक नहीं पहुँचा था। यहाँ सामान्य मान्यता यह चलती थी कि प्रत्येक श्रेष्ठ काव्य शिवत्व और सौन्दर्य से युक्त होता है। जो सुन्दर है, उससे अकल्याण का भय नहीं है तथा जो कल्याणकारी है, उसके कुरूप होने की सम्भावना नहीं हो सकती। बोदलेयर ने जिस सौन्दर्य की कल्पना की है, उस सौन्दर्य की कल्पना भारत में नहीं की जा सकती थी।

किन्तु प्लेटो ने ‘अनुपयोगी’ कहकर कविता का जो तिरस्कार किया, उससे आघात पाकर यूरोप के आचार्यों के बीच काफी प्रखर द्वन्द्व आरम्भ हो गया, जो आज तक भी शमित नहीं हुआ है। प्लेटो के मत का पहला खंडन अरस्तू ने यह कहकर किया था कि कविता अनुपयोगी वस्तु नहीं है। मनुष्य के सुधार की दिशा में कविता का थेरापेटिक महत्त्व है। वह हमारे रागों को आन्दोलित करके हमें सम अवस्था में पहुँचाती है, क्योंकि दु:खान्त नाटक देखकर जब हम नाट्यशाला से चलते हैं, तब हमारे राग उत्तेजित नहीं, शान्त होते हैं।

मनुष्यों के रागों को शमित करना धर्म और नीतिशास्त्र का काम है। प्लेटो ने कविता का विरोध यह कहकर किया था कि कविता नीति और धर्म, दोनों को बाधा पहुँचाती है। अरस्तू ने इसका जवाब यह कहकर दिया कि कविता नीति और धर्म को बाधा नहीं पहुँचाती, वह उनकी सेवा करती हैय अर्थात् कविता उपयोगिता की कसौटी पर भी खरी उतरनेवाली कला है।

किन्तु अरस्तू के बाद लांजाइनस को अरस्तू का यह तर्क पसन्द नहीं आया। यदि कविता भी वही काम करती है, जो धर्म करता है, तो फिर धर्म और नीति ही प्रधान हैं और कविता गौण हो जाती है। और यदि कविता को हम केवल धर्म और नैतिकता की चेरी बना देते हैं, तो उन अन्य असंख्य क्षेत्रों का क्या होगा, जिनमें कविता ने अपूर्व सौन्दर्य की सृष्टि की है, किन्तु नीति के साथ जिस सौन्दर्य का कोई सीधा मेल नहीं है? अतएव लांजाइनस ने उपयोगिता की कसौटी को त्याज्य कर दिया और वे कविता के लिए कोई ऐसा कार्य ढूँढ़ने लगे, जिसे कविता तो कर सकती हो किन्तु विद्या की अन्य कोई भी शाखा न कर सके। यह कार्य उन्हें कविता के लोकोत्तर आनन्द–विधान में दिखाई पड़ा। विद्या की अन्य शाखाएँ मनुष्य को केवल ज्ञान देती हैं। लेकिन आनन्द एक ऐसी वस्तु है जिसकी सृष्टि केवल कविता कर सकती है। लांजाइनस ने कहा कि साहित्य का सारा ध्येय पाठकों को आन्दोलित करना है, उन्हें इस दैनिक विश्व से निकालकर लोकोत्तर आनन्द के धरातल पर ले जाना है। महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह नहीं है कि कविता का कोई सामाजिक उपयोग है या नहीं। प्रश्न केवल यही होना चाहिए कि काव्य–विशेष के वाचन या श्रवण से पाठक या श्रोता के भीतर आनन्दातिरेक की स्थिति उत्पन्न होती है या नहीं। यदि कविता लोकोत्तर आनन्द देने में समर्थ है, तो उसे कला का श्रेष्ठ रूप मानना ही पड़ेगा।

लांजाइनस के चिन्तन का प्रभाव यह हुआ कि आनन्द खुलकर कविता का ध्येय माना जाने लगा। किन्तु यूरोप में जब रिफार्मेशन (धार्मिक क्रान्ति) का आन्दोलन उठा, पवित्रतावादी लोग फिर ऊपर आ गए और कविता के विरुद्ध वही शंका फिर से शुरू हो गई, जिसे प्लेटो ने उठाया था। कविता के बारे में लोगों ने फिर यह कहना आरम्भ कर दिया कि वह काल्पनिक, असत्य और अनैतिक क्रिया है, अतएव वह त्याज्य है।

इस बार पवित्रतावादियों के आक्रमण से कविता को बचाने का बीड़ा फिलिप सिडनी ने उठाया, जिनका ‘इन डिफेंस ऑव पोयट्री’ नामक निबन्ध बहुत ही प्रसिद्ध है। किन्तु तरीके उनके भी अरस्तू वाले ही थे। वे यह कहने का साहस नहीं कर सके कि प्लेटो गलत और लांजाइनस ठीक हैं। परिस्थिति के अनुसार उन्होंने बचाव का एक अलग उपाय खोज निकाला और ऐलान किया कि वास्तविकता की आराधना का कार्य कवि का कोई बड़ा कार्य नहीं है। कवि की महत्ता तो यह है कि स्थूल वास्तविकता से परे वह एक नई वास्तविकता की कल्पना करता है और चूँकि यह नई वास्तविकता लोकोत्तर गुणों से भरी होती है, अतएव उसके परिचय और सम्पर्क से स्थूल जगत् के मनुष्य भी अधिक कोमल और उदार बनने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं। व्याजान्तर से सिडनी यह कहना चाहते थे कि कवि का कर्म कल्पना की आराधना है, किन्तु उसे ऐसी कल्पना को प्रश्रय नहीं देना चाहिए, जिससे मनुष्य को श्रेष्ठ बनने की प्रेरणा प्राप्त नहीं हो। अरस्तू जैसे प्लेटो के उपयोगितावादी दर्शन के रौब में थे, उसी प्रकार सिडनी पर भी रिफार्मेशन के पवित्रतावाद का आतंक था। उन्होंने कल्पना का पक्ष लेकर कविता को अवश्य बचाया, किन्तु लांजाइनस के समान काव्य की सार्थकता की सिद्धि वे मात्र कवित्व के आधार पर नहीं कर सके।

भारत में लोग आनन्द और ज्ञान, दोनों को कविता का ध्येय मानकर निश्चिन्त हो गए थे, किन्तु यूरोप में पीढ़ी–दर–पीढ़ी यह सवाल उठता रहा और पीढ़ी–दर–पीढ़ी उसके नये–नये उत्तर दिये जाते रहे। ड्रायडन ने कहा, कविता से हमें मानव–स्वभाव की शिक्षा मिलती है और आनन्द भी प्राप्त होता है। ड्रायडन के इस मानव–स्वभाव से लोग अब यह अर्थ लेते हैं कि ड्रायडन ने यहाँ नैतिकता के बन्धन को न मानकर मानव–मन की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का संकेत किया है। जॉनसन ने यह राय जाहिर की कि साहित्य का ध्येय मनुष्य को शिक्षित करना है, उसमें भी कविता का ध्येय मनुष्य को आनन्द की मुद्रा में लाकर उसे शिक्षित बनाना है। जॉनसन के कला–विषयक सिद्धान्त बहुत कुछ टॉल्स्टॉय के सिद्धान्तों के समान थे। उनकी कसौटी पर शेक्सपियर भी दोषी निकले। जॉनसन का कहना है कि शेक्सपियर ने अपनी कृति में रोचकता लाने के लिए पुण्य का त्याग किया है और पाठकों को प्रसन्न करने की उनकी चिन्ता इतनी बड़ी थी कि यह कहा जा सकता है कि साहित्य–रचना के समय शेक्सपियर के भीतर कोई नैतिक विचार नहीं था।

3. रोमांसवादी जागरण

जब यूरोप में रोमांटिक आन्दोलन का जोर हुआ, उस समय भी साहित्य के क्षितिज पर यह प्रश्न ज्यों–का–त्यों टँगा था कि कविता ज्ञान है या आनन्द। वह धर्म, नैतिकता, इतिहास, दर्शन और समाजशास्त्र की चेरी है, अथवा इन सबसे भिन्न उसका अपना कोई अलग क्षेत्र है, जिसमें केवल कविता ही काम कर सकती है और दूसरी कोई विद्या काम नहीं कर सकती?

जैसे हिन्दी में रोमांटिक आन्दोलन का छायावाद नाम छायावादियों का चुना हुआ नहीं, उनके विरोधियों का चलाया हुआ है, उसी प्रकार यूरोप में भी रोमांटिक आन्दोलन को रोमांटिक नाम 1810 और 1820 ई. के आसपास उस आन्दोलन के विरोधियों ने, रोमांटिक कवियों को चिढ़ाने के लिए, दिया था। अन्यथा जिसे हम रोमांसवादी काव्य कहते हैं, वह किसी सुचिन्तित योजना का परिणाम नहीं था। योजना बनाकर कविता कभी भी लिखी नहीं जाती है। कहा जाता है कि रोमांसवाद इसलिए उत्पन्न हुआ था कि कविगण बुद्धिवाद की प्रखरता से घबराए हुए थे और अपने लिए वे किसी ऐसे लोक की खोज में थे जो काल्पनिक अधिक, वास्तविक कुछ कम हो। अथवा यह कि वास्तविकता को चर्मचक्षुओं से देखना उन्हें पसन्द नहीं था, वे उसे कल्पना के दर्पण में देखना चाहते थे। किन्तु एक दूसरी दृष्टि से देखने पर यह भी कहा जा सकता है कि प्राचीन काव्यों में कल्पना–मंडित जो विशुद्ध और विलक्षण पंक्तियाँ लिखी गई थीं, उनके आकर्षण ने कवियों के भीतर यह उमंग पैदा कर दी कि जो पंक्तियाँ पहले अपवाद थीं, उन्हें अब साहित्य का सामान्य धर्म बन जाना चाहिए। रोमांसवाद शुद्ध कविता की ओर उठाया गया कदम था।

साहित्य को क्लासिक और रोमांटिक श्रेणियों में विभाजित करने की एक परम्परा–सी बन गई है, किन्तु कोई भी कवि ऐसा नहीं हुआ, जिसे शुद्ध रूप से क्लासिक या खाँटी रोमांटिक कहा जा सके। ये दोनों शब्द कविता की राजनीति के शब्द हैं, जैसे हम प्रवृत्ति और निवृत्ति को धर्म की राजनीति कह सकते हैं। शैली में नियंत्रण और नियमितता तथा मनोदशा में स्थिरता होने के कारण कवि को, अक्सर, क्लासिक होने की उपाधि दी जाती है। किन्तु ऐसे कवि के भीतर भी रोमांटिक अन्तर्धारा मौजूद हो सकती है। इसी प्रकार, आवेग–प्रधान भावदशा और विस्फोटक शैली का प्रेमी होने के कारण कवि रोमांटिक समझा जाता है, किन्तु एक हद तक नियंत्रण और नियमितता बरते बिना ऐसे कवि का भी काम नहीं चल सकता। अंग्रेजी के कवि वर्ड्सवर्थ अपने समकालीन विस्फोटक कवि शेली और बायरन से बहुत भिन्न हैं, किन्तु वे क्लासिक न गिने जाकर रोमांटिक माने जाते हैं। विचित्र बात तो यह है कि गेटे को जर्मन–आलोचक क्लासिक समझते हैं, किन्तु अंग्रेज आलोचकों की दृष्टि में वे भी रोमांटिक हैं।

क्लासिकवाद को एक लेखक ने सूर्य का प्रकाश और रोमांसवाद को अँधेरी रात का आसमान कहा है, जिसमें असंख्य तारे टिमटिमाते रहते हैं। क्लासिकवाद ज्ञान का संगठित रूप है, साहित्य में वह लगभग वैज्ञानिक शैली का प्रयोग करता है। किन्तु रोमांसवाद कल्पना है, फैंटेसी है, जो धूमिलता के भीतर से भी हमें ईश्वरानुभूति तक ले जाता है। क्लासिकवाद की शैली लगभग यांत्रिक होती है, उसका आविष्कार सदियों पूर्व हो चुका है। किन्तु रोमांटिक कवि को अपनी राह, अपनी वेदना और निराशा में से खोजनी पड़ती है। संक्षेप में, क्लासिक चरित्रवान् और रोमांटिक व्यक्तित्वशील होता है। क्लासिक वह है, जिसके विचार बँध चुके हैंय रोमांटिक वह है, जो अभी चिन्तन के प्रवाह में है। क्लासिक कवि जब लिखता होता है, तब उसका दिमाग दिमाग की जगह पर रहता है, किन्तु रोमांटिक का दिमाग हरदम उसके हृदय के समीप होता है। कविता में जो कुछ भी काव्यात्मक है, उसे रोमांटिक से विभक्त करना दुष्कर कार्य है। रोमांसवाद में यह ताजगी इसलिए होती है कि वह ‘क्षण–क्षण’ अधीर, ‘क्षण–क्षण’ पिपासित रहता है। क्लासिकवाद की शैली सन्तोष की शैली है, स्वामित्व की शैली है, संयम और आत्मनियंत्रण से तृप्त कवि का भाव है। किन्तु रोमांसवाद उच्छृंखलता के छोर पर रहता है, यद्यपि वह वहीं से बाँहें बढ़ाकर सारी सृष्टि को एक ही आलिंगन में समेट सकता है।

कविता की प्रचलित शैली में से ही अगली शैलियों का जन्म होता है। प्राचीन और मध्यकालीन कविताएँ अपने युग के अनुरूप होती थीं। वे क्लासिक शैली की कविताएँ थीं। किन्तु उनके भीतर जब–तब ऐसी पंक्तियाँ भी चमक जाती थीं, जिनका संकेत अगली यानी रोमांटिक शैली की ओर था। इन्हीं विलक्षण पंक्तियों से कवियों को प्रेरणा मिली कि कविता की अभी और मँजाई हो सकती हैय कविता का अभी और विशिष्टीकरण सम्भव है तथा जो पंक्तियाँ अभी दो–चार की संख्या में चमकती हुई आती हैं, हमें कोशिश करनी चाहिए कि पूरी–की–पूरी कविताएँ वैसी ही पंक्तियों की लड़ियाँ बन जाएँ। कवि के इसी शौक से प्रेरित होकर कविता स्थूल को छोड़कर सूक्ष्म की ओर चलने लगी, वास्तविकता से हटकर कल्पना पर आश्रित होने लगी, समीप को तजकर दूरस्थ ध्वनि की ओर कान पातने लगी। सभी देशों में रोमांटिक आन्दोलन कविता को सामान्य से हटाकर विशिष्ट धरातल पर ले जाने का आन्दोलन रहा है। सभी देशों के रोमांटिक कवि कुछ विषयों को विशेष रूप से काव्यात्मक और बाकी को अकाव्यात्मक समझते थे। सभी देशों में रोमांटिक आन्दोलन अपने को कोमल, स्पर्श–मुक्त, अद्भुत और सुकुमार बनाकर रखना चाहता था। और सभी देशों की रोमांटिक कविता की भाषा चुने हुए, चिकने और कोमल शब्दों के मेल से तैयार की जाती थी।

कविता का एक लक्षण यह है कि वह तुरन्त घटी हुई घटनाओं को अपने वक्ष पर अंकित नहीं करती। घटना के काव्य बनने में समय लगता है। इतिहास के पुराण या मिथ बनने में देर लगती है। कविता के इसी लक्षण का अतिरंजित रूप यह है कि विषय जितनी ही दूर से आते हैं, वे उतने ही अधिक कवित्वपूर्ण होते हैं। रोमांसवाद के समय साहित्य उन घटनाओं से प्रेरणा लेने लगा, जो देश और काल के भीतर दूर पर अवस्थित थीं, जिनमें कोई विस्मय, अपरिचय अथवा रहस्य का भाव था। इसीलिए रात्रि, अन्धकार, खँडहर और मृत्यु के बिम्ब रोमांटिक कविताओं में बहुतायत से रखे जाते थे। रोमांसवाद की मुद्रा, मुख्यत:, इच्छा, ललक, उत्कंठा और तरसने की मुद्रा थी, किन्तु विचारों का उसमें बहिष्कार नहीं था। किन्तु यह भी सत्य है कि पहले की कविताओं की अपेक्षा रोमांसवाद में विचारों के लिए कम स्थान था। रोमांसवाद ने जनता की रुचि को अधिक उदार बनाया, कला की मुक्ति–विषयक धारणा को तेज कर दिया और कवियों के भीतर धुँधले, दूरस्थ, अपरिचित और उदास विश्व के अनुसंधान की प्रवृत्ति जगा दी। पहले की कविताएँ सुस्पष्ट होती थीं। रोमांसवाद के आगमन के साथ एक तरह की अस्पष्टता हवा में मँडराने लगी। पहले की शैली सीधी और ठोस थी। रोमांसवाद की प्रगति के साथ वह पिघलकर तरल होने लगी, वक्र होने लगी और ध्वनि का प्रयोग जैसे–जैसे बढ़ता गया, भाषा में से सुनिश्चितता लुप्त होने लगी।

भारतवर्ष में छायावादी संस्कार केवल कवियों तक सीमित रह गया, समाज ने उसे नवीन संस्कृति या जमाने के फैशन के रूप में स्वीकार नहीं किया। किन्तु यूरोप में जब रोमांटिक जागरण आया था, उस समय समाज की उच्च श्रेणी, काफी दूर तक उसके सांस्कृतिक प्रभाव में आ गई थी। चूँकि रोमांटिक जागरण स्थूल के सूक्ष्मीकरण का प्रेमी था, अतएव वहाँ अनेक लोग अपने भीतर रुचि, परिधान, यहाँ तक कि खान–पान में भी सूक्ष्मता का अभ्यास करने लगे थे। समाज की बहुत–सी सम्भ्रान्त नारियाँ अपने को अपार्थिव मानने लगी थीं और अपनी इस भावना की अभिव्यक्ति वे बेहोश होकर करती थीं, बार–बार सिरदर्द बताकर करती थीं, शारीरिक श्रम और दैहिक आनन्द का तिरस्कार करके करती थीं।

भोजन में अधिक रुचि दिखाना सूक्ष्मता का विरोधी लक्षण माना जाता था। बायरन ने अपने भोजन का एक कठोर चार्ट तैयार किया था, जिससे उसे विश्वास हो कि वह जिस्म नहीं, खालिस रूह है। किसी देश के एक शाही खानदान की महिला पर बायरन की दृष्टि थी। एक दिन बायरन ने देखा कि युवती बड़े उत्साह के साथ मांस खा रही है। बस, बायरन का प्रेम काफूर हो गया।

शेली पानी के साथ रोटी खाकर रह लेते थे और उनकी प्रेमिका काउंटेस गिकोली ऐसी थीं कि कई–कई दिनों तक वे बिना कुछ खाए जी लेती थीं।

रोमांटिक कवि वेदना के पुजारी थे और उनकी वेदना का कारण यह नहीं था कि वे खास तौर से अपमानित या दीन थे अथवा उनकी प्रेमिका उन्हें नहीं चाहती थी। वे दर्द का गीत केवल दर्द के लिए गाते थे, वेदना की पूजा केवल वेदना के लिए करते थे। बायरन उस वेदना के आविष्कर्ता हुए, जिसका कोई इलाज नहीं है। फ्रिडेल ने लिखा है कि जिस दर्द का कारण और कुछ नहीं, केवल विश्व–प्रपंच है, केवल संसार का अस्तित्व है, उसका इलाज भी संसार को उन्मूलित करके ही किया जा सकता है। किन्तु चूँकि संसार का उन्मूलन असम्भव कृत्य है, इसलिए रोमांटिक पीड़ा का भी कोई इलाज नहीं किया जा सकता। रोम के एक कलाकार ने बायरन की एक प्रतिमा तैयार की थी, किन्तु उसे देखकर बायरन चिल्ला पड़े : ‘नहीं, यह मेरे समान बिलकुल नहीं है। मैं तो इस प्रतिमा की अपेक्षा कहीं ज़्यादा उदास, कहीं ज़्यादा गमगीन हूँ।’

भारत में छायावादी संस्कार केवल कवियों तक सीमित रहा था, किन्तु यूरोप में उसका प्रभाव समाज पर व्यापक रूप से पड़ा। रोमांटिक कवियों के उत्थान के समय यूरोप में कविता दैवी वाणी समझी जाने लगी थी और कवियों को लोग देवता नहीं, पैगम्बर अवश्य समझने लगे थे। समाज में ऐसे अनेक लोग थे, जो यह सोचते थे कि कहीं कविता रचने की शक्ति आ जाए तो जीवन धन्य हो जाए। शेली ने ‘स्काई लार्क’ कविता में जो करुणा की महिमा बखानी है, शोक को अन्य सभी भावों के ऊपर माना है, वह केवल उनका कल्पित आविष्कार नहीं, उस युग के हृदय की आवाज थी। वह युग मानता था कि हृदय पर चोट खाए बिना, शोक का अभिघात सहे बिना, कोई भी मनुष्य कवि नहीं बन सकता। कविता करुणा की वाणी है, कविता शोक का उच्छ्वास है, कविता विरह की पीड़ा और टूटे हुए हृदय का संगीत है। बायरन के काव्य ‘चाइल्ड हैराल्ड’ की धूम सारे यूरोप में मची थी। कहते हैं, मेटरलिंक को यह सारा काव्य कंठस्थ था। चाइल्ड हैराल्ड का युग आत्महत्या का भी युग था। कविता मनुष्य का सर्वोत्तम गुण मानी जाने लगी थी और लोग कवि बनने को बड़ी–से–बड़ी कीमत अदा करने को तैयार थे। फ्रिडेल ने लिखा है कि उन दिनों एक अठारह वर्ष की दुलहन ने छुरा मारकर इस अभिलाषा में आत्महत्या कर ली थी कि इतने बड़े आघात से विचलित होकर उसका पति कवि बन जाएगा।

रोमांटिक कविता का सबसे बड़ा लक्षण आवेश है। करुण होने पर भी रोमांटिक कविता आविष्ट होती है, श्रृंगार और वात्सल्य रस की होने पर भी उसकी भाषा आवेश की ही भाषा होती है। आवेश शब्द से एक ध्वनि यह भी निकलती है कि कवि अपने होश में नहीं हैय वह स्वयं नहीं लिख रहा है, बल्कि कोई और शक्ति उससे लिखवा रही है। और, सचमुच ही, यह मान्यता उस समय प्रचलित थी कि कवि को काव्य–रचना में परिश्रम नहीं करना पड़ता, वह प्रेरणा के प्रवाह में लिखता जाता है। और प्रेरणा के बारे में यह आम धारणा थी कि वह अलौकिक और ईश्वर–प्रदत्त गुण है।

जब रोमांटिक जागरण अपनी जवानी पर पहुँचा, उस समय तक विज्ञान भी काफी प्रगति कर चुका था, किन्तु कविगण विज्ञान को अच्छी आँखों नहीं देखते थे। ऐसी स्थिति में टामस लव पिकाक का वह निबन्ध प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने यह स्थापना रखी कि कविता की शोभा तभी तक थी, जब तक विज्ञान नहीं था और लोग धुँधली, अपरिपक्व बातों में भी विश्वास कर लेते थे। किन्तु अब जब विज्ञान की प्रगति हो रही है और मनुष्य किसी भी क्षेत्र में कोई ऐसी बात मानने को तैयार नहीं है, जो बुद्धिवादी प्रमाणों से सिद्ध नहीं की जा सकती, तब क्या यह उचित है कि कविता चलती रहे? विज्ञान और बुद्धिवाद के युग में कविता केवल अर्धसभ्यता की वाणी मानी जा सकती है।

पिकाक के इसी निबन्ध के उत्तर में शेली ने अपना ‘इन डिफेंस ऑव पोयट्री’ नामक निबन्ध लिखा, जिसमें उन्होंने दावा किया कि कवि इतर प्राणियों से भिन्न होता है। वह संत होता है, पैगम्बर होता है, और समाज का सहज नीति–विधायक होता है। कविता छाया का अनुकरण नहीं करती। यह दृश्य जगत् जिस आदिशक्ति की छाया है, कवि उस शक्ति के सान्निध्य में पहुँच सकता है। कविता किसी एक शास्त्र तक सीमित नहीं, प्रत्युत दर्शन, नीति और कला–तीनों का समवाय है।

काव्य के प्रयोजन की जो रोमांटिक धारणा हो सकती है, उसका खुलासा शेली के निबन्ध में आ गया है। रोमांटिक कवि मुख्यत:, सन्देशवाही कवि थे। वे जीवन से प्रेरणा लेकर जीवन को प्रभावित करनेवाले कलाकार थे। वर्ड्सवर्थ ने कहा था, मैं केवल मनोरंजन करने को लिखूँ, यह बेतुकी बात है। मेरी इच्छा है कि या तो मैं उपदेशक के रूप में जियूँ अथवा बिलकुल भुला दिया जाऊँ। केवल कोलरिज ने यह माना था कि नैतिक या बौद्धिक ज्ञान कवि–विशेष का लक्षण हो सकता है, किन्तु कविता जिस श्रेणी का साहित्य है, उस श्रेणी का साहित्य केवल आनन्द के लिए होता है।

युगों से यह शंका चली आ रही थी कि कविता का अन्य विद्याओं से क्या सम्बन्ध है। यदि कविता समाज–सुधार के लिए लिखी जाती है, तो समाजशास्त्र और नीतिशास्त्र स्वामी हैं, कविता उनकी दासी है। कविता अगर धर्म–प्रचार के लिए लिखी जाती है, तो प्रमुखता धर्मशास्त्र की मानी जानी चाहिए, कविता गौण ही मानी जाएगी। इस शंका का समाधान शेली ने यह कहकर कर दिया कि कविता किसी भी शास्त्र की दासी नहीं है, वह सभी शास्त्रों का समवाय है–यहाँ तक कि सारे विज्ञान उसके भीतर समा जाते हैं। शेली के तर्क आज यत्किंचित् हास्यास्पद भले दीखें किन्तु शेली के जीवन–काल और उनकी मृत्यु के बाद तक कविता के बारे में जनसाधारण की वही राय थी, जिसका इजहार शेली ने किया था। कवि देवदूत माना जाता था। कविता अदृश्य की वाणी समझी जाती थी। और सबसे बड़ी बात यह थी कि कवि समाज के समीप था और उस भाषा में अपनी बात कहता था, जिसे समझने की जनता को शक्ति थी। जो आशाएँ और आदर्श सन् 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रान्ति के साथ उभरे थे, उनका रोमांटिक आन्दोलन पर पूरा प्रभाव था, और गरचे, कोलरिज और वर्ड्सवर्थ उस आन्दोलन के प्रभाव से बचना चाहते थे, मगर इंग्लैंड के अधिकांश कवि उस आन्दोलन के साथ थे। इससे कविता अपने युग का प्रतिबिम्ब बन गई और पिकाक जैसे लोगों की काव्य–निन्दा पर जनता ने कोई ध्यान नहीं दिया। कल्पना को एक नई दिशा देकर, भाषा में एक नई भंगिमा उत्पन्न करके और दूर से ही जिन्दगी को हिलकोरकर रोमांटिक कवियों ने कविता में सम्मोहन के साथ प्रेरणा भी भर दी थी। अतएव रोमांटिक कवि उतने लोकप्रिय हो उठे, जितने लोकप्रिय अन्य युगों के कवि नहीं हुए थे।

रोमांटिक जागरण के समय प्रेरणा का स्वरूप बहुत कुछ ईश्वरीय समझा जाता था। रोमांसवादी कवि व्युत्पत्ति और अभ्यास के उतने कायल नहीं थे, जितने शक्ति के, और शक्ति को वे ईश्वर–प्रदत्त गुण समझते थे। उनका भरोसा बुद्धि पर कम, संबुद्धि (इनटुइशन) पर अधिक था। अठारहवीं शताब्दी तक यूरोप में बुद्धिवाद काफी जोर से प्रचलित हो गया था और लोगों में यह धारणा फैल गई थी कि परीक्षण के बिना किसी भी वस्तु को स्वीकार नहीं करना चाहिए। रोमांसवाद इसी बुद्धिवादी एवं परीक्षणप्रिय दृष्टिकोण के विरुद्ध संबुद्धिपरक कल्पना का विद्रोह था।

जब से शुद्ध कविता का आन्दोलन उठा है, लोगों को रोमांसवाद में केवल त्रुटियाँ ही त्रुटियाँ दिखाई देने लगी हैं। किन्तु यह बात भुलाई नहीं जा सकती कि युगों से आती हुई काव्य–परम्परा में पहली विशाल क्रान्ति रोमांसवादियों ने की थी। काव्य में स्थूल की जगह सूक्ष्म की स्थापना रोमांसवादियों की स्थापना थी। बुद्धि और कल्पना के मिश्रण का मार्ग पहले–पहल रोमांसवादियों ने प्रशस्त किया था। कविता वस्तुओं के बाह्य रूपों के वर्णन में नहीं, प्रस्तुत उनके भीतर या उनके पीछे छिपे तत्त्वों की खोज में है, इस रहस्य का भी अधिक–से–अधिक उद्घाटन रोमांसवादियों ने किया था। रोमांसवाद के बाद अनेक देशों में प्रतीकवाद, अभिव्यंजनावाद तथा चित्रवाद के जो अनेक आन्दोलन उठे, उनके बीज रोमांसवादियों की रचनाओं में खोजे जा सकते हैं। असल में, रोमांसवाद गतिशील आन्दोलन था, जिसकी यात्रा जीवन के समुच्चय की ओर थी। यह उस एकान्त का काव्य नहीं था, जहाँ आत्मा निष्क्रिय और निस्पन्द रहती है, प्रत्युत यह जीवन के होने का काव्य था, उसके आस्फालन और गतिमयता की कविता थी। अतीत के प्रति ममता और अतीत से विद्रोह, अतिवादी आदर्शवाद और स्थूल वास्तविकता, जो विषय दैनिक जीवन के हैं और जो वस्तुएँ काल्पनिक और दूरस्थ हैं, प्रजातंत्र में विश्वास और सामन्तशाही की चाह, मनुष्य की पूर्णता की आशा और उसका गम्भीर नैराश्य–ये सारे लक्षण यूरोप के रोमांसवाद में भी थे और हिन्दी के छायावाद में भी।

केवल इतना ही नहीं, रोमांटिक कवियों ने भी ऐसी अनेक कविताएँ रची थीं, जिनका उद्देश्य न तो मनुष्य का सुधार था, न दार्शनिक अनुभूतियों की व्याख्या, जो मात्र कला की सृष्टि थीं तथा जिनका लक्ष्य अभिव्यक्ति की पूर्णता के सिवा और कुछ नहीं था। अतएव जो भी नया कवि रोमांटिक धारा की खिल्ली उड़ाता है, वह कला के एक ऐसे प्रवाह का विरोध कर रहा है, जिससे उसका जन्म हुआ है, जिसके बिना नई कविता का उद्भव नहीं हो सकता था।

रोमांसवाद के खिलाफ यूरोप में जितनी बातें पिछले 70–80 वर्षों में कही गई हैं, उनमें से दो–तीन बातें ही सही मालूम होती हैं। अगर जनता की पहुँच में होना दोष है, तो रोमांटिक कवि जरूर दोषी थे। यदि भावना के आवेश का आवेश की भाषा में व्यक्त करना अपराध है, तो यह अपराध रोमांटिक कवियों ने अवश्य किया था (यद्यपि वर्ड्सवर्थ इस नियम के अपवाद थे और कीट्स में भी थोड़ा संयम ही मिलता है)। और यह इलजाम भी सही है कि आवेश में होने के कारण रोमांटिक कवि शब्दों की वैसी मितव्ययिता नहीं बरतते थे, जैसी मितव्ययिता रिल्के और इलियट ने बरती है।

रोमांटिक चिन्तन और वैज्ञानिक चिन्तन में भेद है और यही भेद कविता और विज्ञान की भाषाओं में भी है। कवि के सोचने और बोलने के पीछे यह भाव काम करता है कि वह श्रोताओं के भीतर भावदशा उत्पन्न कर सके, उनकी आत्मा के सरोवर को हिलकोर सके। किन्तु वैज्ञानिक इस भाव से सोचता है कि जो तथ्य है, वह उसकी पकड़ में आ रहा है या नहीं तथा बोलने और लिखने के समय भी वह उतने से एक भी अधिक शब्द का प्रयोग नहीं करता, जो विषय को समझाने के लिए अनिवार्य हैं। वैज्ञानिक की प्रतिष्ठा ही इस कारण से है कि वह भावनाओं से दूर रहता है, वस्तुओं का वर्णन यथातथ्य रूप से करता है और श्रोताओं पर किसी भी प्रकार का प्रभाव डालना नहीं चाहता। अगर वैज्ञानिक लोगों को प्रभावित करने की कोशिश करे, तो लोग उसका आदर नहीं करेंगे, उल्टे वे उस पर शंका करने लगेंगे।

नई कविता में शब्दों की मितव्ययिता विज्ञान की देखा–देखी बढ़ी है और विज्ञान के प्रभाव के कारण ही कवि अब आवेश को दबाकर लिखने लगे हैं। वैज्ञानिक ने कवि का कोई प्रभाव स्वीकार नहीं किया क्योंकि कवि के प्रभाव से उसकी क्षति हो सकती है। किन्तु नये कवि विज्ञान का अनुकरण करने को तैयार हो गए। यह अनुकरण कहाँ तक काम्य है और कहाँ पहुँचकर वह अनिष्टकारी बन सकता है, इसका विचार पग–पग पर होते रहना चाहिए। क्योंकि विज्ञान कविता का विरोधी शास्त्र है और कवियों को अगर यह लोभ हुआ कि वे पूरे अर्थों में वैज्ञानिक बनेंगे, तो कविता का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा अथवा वह मनोविज्ञान की चेरी बनकर जिएगी। रोमांटिक कवि शत–प्रतिशत गलत थे और नव–कवित्ववादी बिलकुल ठीक हैं, ऐसा निर्णय आसानी से नहीं दिया जा सकता। शायद एकाध शताब्दी के बाद यह बात स्पष्ट होगी कि रेम्बू और मलार्मे ने जो कुछ किया, वह कविता के हित में कितना गलत और कहाँ तक ठीक था।

शुद्ध कवित्व का आन्दोलन आज कवि और काव्य के जिन गुणों पर बहुत अधिक जोर दे रहा है, उनमें से बहुत–से गुण रोमांसवादियों में भी विद्यमान थे। अपने आयुकाल में रोमांसवाद आधुनिक और क्रान्तिकारी आन्दोलन था। वह व्यक्तिवाद में विश्वास करता था और अपने इस विश्वास पर उसे नाज भी था। तार्किकता और उपदेशवाद से बचने की प्रवृत्ति रोमांसवाद में भी थी, गरचे इस प्रवृत्ति से वह बच नहीं पाता था। रंगों को कान से सुनने और ध्वनियों का स्पर्श करने का प्रयोग सबसे पहले रोमांसवादियों ने किया था। और इन प्रयोगों के अनुरूप उन्हें शब्द भी मिल गए थे। कला की उस शक्ति का सपना उन्होंने भी देखा था जो कविता को संगीत के समान निराकार कर सकती है, जो उसे चित्रों के समान साकार भी बना सकती है। यह सत्य है कि जैसे शुद्ध कवित्ववादियों के सभी सपने हाथ नहीं आ रहे हैं, उसी प्रकार रोमांसवादियों के भी सभी सपने साकार नहीं हुए। किन्तु यह उमंग तो रोमांसवादियों के भीतर भी थी कि कविता लॉजिक की अधीनता में नहीं रहे, वह किसी भी शास्त्र की अनुचरता स्वीकार न करे और समाज में अपना स्थान वह अपने ही बल से बनाये।

शुद्ध कवित्ववादी अब धीरे–धीरे उस स्थान पर पहुँच गए हैं, जहाँ कविता उस महल के समान आकाश में ठहरना चाहती है, जिसमें न तो कोई खम्भा है, न दीवार, जो शून्य में केवल अपनी साधना के सहारे खड़ा है। हाल के जर्मन कवि बेन ने कहा है : ‘आदर्श कविता वह है, जो आदि से अन्त तक कविता ही कविता है, जिसके भीतर न तो कोई आशा है, न विश्वास, जो किसी को भी सम्बोधित नहीं है, जो केवल उन शब्दों का जोड़ है, जिन्हें हम मोहिनी अदा के साथ एकत्र करते हैं।’ लगता है, इस तरह की कोई कल्पना रोमांटिक युग में ही मँडराने लगी थी। जर्मनी के रोमांटिक उपन्यासकार नोवालिस (1772–1801) ने कहा था : ‘सभी कविताओं को उस परी–कथा के समान होना चाहिए जिसके पीछे न तो कोई लॉजिक होता है, न इतिहास या भूगोलय जो केवल संयोग से उत्पन्न होती है।’

हिन्दी में जब प्रगतिवाद की धूम मची, तब यह बात बड़े जोर से कही गई थी कि छायावादी काव्य निरा काल्पनिक और जीवन से पलायन सिखानेवाला काव्य है। किन्तु अब जो नई कविता आई है, उसके परिप्रेक्ष्य में छायावाद जीवन से उतना दूर दिखाई नहीं देता, जितना दूर वह प्रगतिवादियों को दिखाई पड़ा था। यूरोप में जब रोमांटिक कविता का विरोध हुआ, तब इस विरोध का कारण यह नहीं था कि रोमांटिक कवि पलायनवादी सिद्ध हुए थे, बल्कि यह कि वे जीवन से बहुत अधिक लिप्त थे और जनता में अपने सन्देशों का प्रचार करते थे। रोमांसवादियों का दोष यह था कि वे शुद्ध कवित्ववादियों के समान खाँटी कलाकार नहीं थेय उनकी सारी आस्था शब्दों के प्रति न होकर जीवन के प्रति भी थी, कला के प्रति न होकर सन्देश के प्रति भी थी। भारत में कुन्तक ने कहा था कि कविता में भाव का स्थान गौण है, प्रमुखता भाषा और भाव के बीच चलनेवाली स्पर्धा को मिलनी चाहिएय अर्थात् सत्कवि के लिए भाषा और भाव में से भाषा ही बड़ी आराधना की अधिकारिणी है। यूरोप में रोमांसवाद के विरोधियों की धारणा यह बनी कि रोमांटिक कवि भावों की आराधना में गर्क हैं, उन्हें शब्दों के सुप्रयोग अथवा भाषा के भीतर छिपी सम्भावनाओं के अनुसंधान की कोई खास चिन्ता नहीं है। रोमांसवाद का उत्थान बुद्धिवादी दृष्टिकोण के विरुद्ध संबुद्धि की महिमा जगाने के लिए हुआ था, अतएव उसका असली जोर भाषा पर न होकर दृष्टिकोण की नवीनता पर था, यद्यपि दृष्टिकोण की नवीनता के अनुरूप रोमांसवादियों की भाषा भी नवीन हो गई थी। किन्तु रोमांसवादियों के विरुद्ध जो आन्दोलन उठा, उसका सारा जोर, आरम्भ से ही, शैली पर पड़ा और तब से यूरोप में जितनी भी कविताएँ लिखी गई हैं, उनमें शैली प्रधान रही है, भाव बिलकुल गौण हो गए हैं। किन्तु यहाँ भी ध्यान रखना चाहिए कि शैली का भी मार्जन रोमांटिक युग में आकर जितना हुआ, उतना पहले के किसी भी युग में नहीं हुआ था। यूरोप के रोमांटिक कवि यह कहकर बदनाम किये गए कि वे जीवन के प्रति बहुत अधिक अनुरक्त हैं और भारत के छायावादी इस कारण कि वे जीवन से बहुत दूर हैं। किन्तु दोनों भूभागों में इन्हीं लोगों ने वह जमीन तैयार की, जिस पर शुद्ध कविता विचरण कर सकती थी। रोमांटिक युग वह सेतु है, जिस पर चढ़कर पुरानी कविता नये युग में प्रवेश करती है।

4. शुद्धतावादी आन्दोलन का आरम्भ

रोमांटिक कविता कल्पना–प्रधान होने पर भी जीवन के प्रति दायित्वहीन नहीं थी। रोमांसवादी काव्य पहले के काव्यों की तुलना में काफी व्यक्तिवादी था, लेकिन फिर भी वह समाज से सम्पृक्त था। रोमांटिक कवि चाहते थे कि समाज उन्हें पढ़े और समझे तथा बदले में उन पर कीर्ति की वृष्टि करे और कवियों की यह भावना उनकी कविताओं को प्रभावित करती थी, उन्हें समाज की पहुँच के भीतर रखती थी। किन्तु जनता के प्रति एक प्रकार के क्षीण अनादर और असन्तोष का भाव रोमांटिक युग में ही दिखाई पड़ने लगा था। कवियों को सलाह देते हुए एक बार शेली ने लिखा था : ‘तुम तब तक कुछ भी नहीं लिखो, जब तक तुम्हें यह विश्वास न हो जाए कि तुम्हारे भीतर कोई सत्य है, जो तुम्हें लिखने को लाचार कर रहा है। सीधे–सादे लोगों को तुम सलाह दे सकते हो, किन्तु उनसे सलाह लेना तुम्हारा काम नहीं है। अपढ़ और बेवकूफ जनता कविता पर जो राय कायम करती है, वह टिकाऊ नहीं होती। काल अपनी राय उसके विरुद्ध बनाता है। समकालीन आलोचना उन मूर्खताओं का पुंज है, जिनसे प्रतिभाशाली लोगों को बेकार उलझना पड़ता है।’

जनता के प्रति शत्रुता और उपेक्षा के ये भाव शेली की कलम से किस कारण निकले होंगे? अवश्य ही, यह उस विचारधारा का आरम्भ था जो कविता को विशेषज्ञों की चीज बनाना चाहती थी, जो जनता के पूर्वग्रहों के जाल से कविता को मुक्ति दिलाना चाहती थी। यह कला की स्वाधीनता वाले आन्दोलन का पूर्वाभास था। इसके भीतर यह भाव छिपा था कि कला की जो असली बारीकियाँ हैं, कविता जिन गुणों के कारण और कुछ न होकर कविता होती है, उन खूबियों को केवल विशिष्ट रुचि के पाठक ही समझ सकते हैं। जनता कविताओं में सामाजिक उत्तेजना खोजती है, धर्म अथवा नैतिकता–सम्बन्धी विचार चाहती है, किन्तु जिन पाठकों की बौद्धिक क्षमता विकसित तथा रुचि परिमार्जित और महीन है, वे कविता की शैली को समझते हैं, उसकी ध्वनि और निराकार संगीत का आनन्द लेते हैं। अतएव, कवियों को लिखते समय जनता का ध्यान नहीं रखना चाहिए। उन्हें या तो अपने सन्तोष के लिए लिखना चाहिए अथवा उन मुट्ठी–भर शिष्ट रुचि वाले पाठकों के लिए जो कवियों के समानधर्मी अथवा उनके आत्म–बन्धु हैं।

यह वह समय था जब ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्टीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हो रही थी। उसकी संक्रामकता ने कविता के क्षेत्र में भी प्रवेश किया और काव्य भी विशिष्टीकरण की ओर लोभ से देखने लगा। जिस चेतना के बीज शेली के ऊपर के उद्गार में दिखाई देते हैं, उसी के प्रस्फुटन, वर्द्धन और विकास से समस्त यूरोप में सौन्दर्यबोध का एक नया आन्दोलन आरम्भ हो गया। इस आन्दोलन के आश्रय नवयुवकों की छोटी–छोटी टोलियाँ थीं। वे कलाप्रेमी युवक काव्य के उन गुणों पर जोर देते थे, जो कविता के शैली–तंत्र में निहित होते हैंय भावों या विचारों पर नहीं, जो बाहर से आकर कविता में शक्ति और प्रभविष्णुता उत्पन्न करते हैं। शैली, लय, चित्र, टोन और रूपकों की महिमा पहले के कवियों को भी ज्ञात रही थी, किन्तु वे शैली के इन गुणों को साध्य नहीं, केवल साधन मानते थे। साध्य तो कोई और वस्तु थी, जिसका सम्बन्ध विषय, विचार अथवा कवि के सम्पूर्ण दृष्टिबोध से पड़ता था। सभी गुणों में शैली कथ्य का माध्यम होने के कारण महत्त्वपूर्ण समझी जाती थी। किन्तु अब कलाकारों का जोर इस बात पर पड़ने लगा कि कथ्य तो बिलकुल बाहर से आई हुई चीज है। कला की सारी महिमा उसकी शैली में निविष्ट होती है। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ले हण्ट ने मार्लो, स्पेंसर और मिल्टन के काव्य का विश्लेषण करके शैली की महिमा निरूपित करने को अनेक निबन्ध लिखे थे, किन्तु पाठकों का भाव उस समय यह बना था कि खुद स्पेंसर, मार्लो और मिल्टन शैली की इन विलक्षणताओं को अपनी काव्यात्मक उपलब्धियों का सार नहीं मान सकते थे।

हर वैचारिक आन्दोलन अपने विरोध का बीज अपने ही भीतर लिये रहता है। शुद्धतावादी आन्दोलन, वैसे तो, रोमांसवाद के बाद और बहुत–कुछ उसके विरुद्ध उठा था, लेकिन उसके बीज रोमांटिक कवियों की ही साधना में मौजूद थे। ये बीज कवियों की उन पंक्तियों में मौजूद थे, जो अत्यन्त काव्यात्मक होकर प्रकट होती थीं, जिनमें कोई ज्ञान की बात नहीं होती थी, जो केवल अनुभूतियों का आख्यान, रूप का चित्रण अथवा किसी मन:स्थिति का तटस्थ संकेत देकर समाप्त हो जाती थीं। कविताओं के भीतर ये शुद्ध पंक्तियाँ ही सबसे अधिक लुभावनी भी दिखाई देती थीं। ऐसी ही पंक्तियों को देखकर सजीव संवेदना वाले कवियों के भीतर यह कल्पना उठी होगी कि कविता का सौन्दर्य उसकी शैली में होता है, भाव में नहीं। शैली और भाव के बीच कवियों में शैली के प्रति जो पक्षपात उत्पन्न हुआ, असल में, शुद्धता का आरम्भ उसी पक्षपात में था। कवियों का विचार यह बनने लगा कि असली वस्तु शैली है, भाव का महत्त्व उस खूँटी का महत्त्व है जिस पर कमीज टाँगी जाती है। इसी से यह विचार भी उत्पन्न हुआ कि कुछ विषय काव्यात्मक और बाकी अकाव्यात्मक नहीं हैं। कविता की उत्तमता के लिए विषय का उत्तम या महान होना तनिक भी आवश्यक नहीं है। चूँकि भाव का महत्त्व अत्यन्त गौण है, इसलिए कोई भी विषय कविता का अनुकूल विषय हो सकता है। कवि का कार्य विषय का वर्णन अथवा भावों का आख्यान नहीं है। भाव और विषय केवल बहाने हैं, कवि का मुख्य कार्य कविता रचना है और सारी–की–सारी कविता शैली से लिपटी होती है।

जब भाव और विषय की महिमा समाप्त हो गई, तब स्वभावत: ही, दो और सिद्धान्त निकल पड़े कि कविता के भीतर वास्तविकता अथवा सत्य की खोज निरर्थक है तथा कविता के उपयोग की सारी चिन्ता बेकार है। कविता सत्य का वर्णन करने के लिए नहीं है। सत्य का वर्णन तो अपने–अपने क्षेत्रों में अनेक शास्त्र करते हैं। इसी प्रकार, कविता उपयोग के लिए भी नहीं है। जब फूलों का कोई उपयोग नहीं है, संगीत और चित्रकला बिना किसी खास उपयोग के कायम हैं, तब कविता से ही लोग यह आशा क्यों करते हैं कि वह उपयोगी होगी?

नई कविता से रोमांटिक कविता की तुलना करने पर न्यायत: यह नहीं कहा जा सकता कि रोमांटिक कवियों में कला का कोई अभाव था। नई और रोमांटिक कविताओं के भेद का आधार कला नहीं है। दोनों प्रकार की कविताओं में मुख्य भेद यह है कि एक में अर्थ सुस्पष्ट मिलता है और दूसरी में अर्थ पकड़ाई नहीं देता। एक में दुरूहता नहीं है, किन्तु दूसरी में दुरूहता दिनोंदिन अधिक सघन होती गई है। एक में अरूप जगत् के बीच धँसने की प्रवृत्ति कम, दूसरी में बहुत अधिक है। एक में बिम्बों का उपयोग साधन के रूप में किया जाता था, दूसरी में बिम्ब और चित्र लगभग साध्य हो गए हैं। किन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि कविता को शुद्ध कलाकृति के रूप में देखने का लोभ रोमांटिकों में नहीं जगा था। जरार द नेर्वाल (1808–1855) फ्रेंच भाषा के रोमांटिक कवि थे, किन्तु उन्होंने कहा था कि ‘कला हमारे लिए साधन नहीं, साध्य है। जो भी कलाकार सौन्दर्य को छोड़कर किसी अन्य वस्तु को अपना लक्ष्य बनाता है, वह हमारी दृष्टि में कलाकार नहीं है।’ और फ्रेंच भाषा के ही एक दूसरे रोमांटिक कवि तियोफिल गोतिये (1811–1872) तो उपयोगिता से इतने घिनाते थे कि उन्होंने घोषणा कर दी थी कि ‘जो भी वस्तु उपयोगी है, वह बिलकुल कुरूप है। घर का सबसे उपयोगी भाग वह है, जिसे हम शौचालय कहते हैं।’

ये भविष्य की चिनगारियाँ थीं, जो रोमांटिक युग में ही चमकने लगी थीं। शुद्ध कला की ओर सभी रोमांटिक कवि और लेखक एक रहस्यमय लोभ से देखते थे। किन्तु कला के जिस शुद्ध रूप की झाँकी उन्हें जब–तब कल्पना में दिखाई देती थी, व्यवहार में ठीक उसी प्रकार की कविताएँ वे नहीं लिख सके थे। ऐसी कविताएँ उन लोगों ने लिखीं, जो उनके बाद आए तथा जिनके भीतर नवीनता का तेज बहुत ही प्रखर था।

रोमांटिक आन्दोलन के समय ये सारी बातें उतनी स्पष्ट नहीं हुई थीं, जितनी ऊपर के सन्दर्भ में दिखाई देती हैं, किन्तु वे अस्पष्ट रूप से कवियों की अन्तरात्मा में गूँजने जरूर लगी थीं। इसी अस्पष्ट गुंजन की एक झंकार शेली ने सुनी थी, जिसे उन्होंने यह कहकर व्यक्त किया था कि कवियों का बन्धुत्व उन शिष्ट रुचिवाले थोड़े–से पाठकों में बैठता है, जो शैली की खूबियों का आनन्द ले सकते हैं। किन्तु युग के हृदय में छिपी हुई जिस भावना को पूरी अभिव्यक्ति कोई भी रोमांटिक कवि नहीं दे सका, वह अमरीका के एक कवि एडगर एलेन पो (मृत्यु 1849 ई.) के मुख में अच्छी भाषा पा गई। इसीलिए, हमारा खयाल है कि शुद्धतावादी आन्दोलन का आरम्भ एडगर एलेन पो से ही माना जाना चाहिए। क्योंकि आगामी काव्य के उन्होंने केवल लक्षण ही नहीं कहे, बल्कि प्रतीकों के प्रयोग से उन्होंने शुद्ध कविताएँ भी लिखकर एक नई परम्परा को जन्म दे दिया।

जब एलेन पो जीवित थे, अंग्रेजी कविता में रोमांसवाद का प्रभाव काफी गहराई से छाया हुआ था। शेली, बायरन और कीट्स तो गुजर चुके थे, किन्तु वर्ड्सवर्थ उस समय तक शायद स्वर्गीय नहीं हुए थे और अभिनव रोमांटिक के रूप में टेनिसन (1809–1892) और ब्राउनिंग (1812–1890) प्रसिद्धि प्राप्त कर रहे थे तथा रस्किन और मैथ्यू आर्नाल्ड साहित्य की जीवनवर्ती व्याख्या प्रस्तुत करने में तल्लीन थे। ऐसे समय में एडगर एलेन पो ने कला की भूमि पर बम फेंकते हुए यह घोषणा की कि ‘कला का चरम ध्येय सौन्दर्य का विधान है, भावनाओं का जागरण है, आनन्द की उत्तेजना है और यह काम कला टेरर के जरिये करती है, ट्रेजेडी के जरिये करती है, सनक और पागलपन के भी जरिये करती है, किन्तु सत्य के द्वारा कभी नहीं करती।’

सोद्देश्य होने की सम्भावना उसी कवि में रहती है, जो सत्य, वास्तविकता अथवा जीवन के प्रति दायित्व का अनुभव करता है। अतएव, सोद्देश्यता को मिटाने के लिए एलेन पो ने साहित्य में से सत्य को ही मिटा दिया। और यह केवल सिद्धान्त की बात नहीं थी। इसका पालन उन्होंने अपने समग्र साहित्य में किया है। उनकी कविताओं और कहानियों में से एक भी ऐसी नहीं है, जिसके बारे में यह कहा जा सके कि वह वास्तविकता को ध्यान में रखकर रची गई है अथवा उसके भीतर, दूर पर भी, कहीं कोई उद्देश्य है। कविता में वे संगीत की महिमा को सर्वोपरि समझते थे, क्योंकि संगीत प्रचार का माध्यम बनने से इनकार करता है। उनका विचार था कि ‘संगीत जब आनन्ददायी विचार के साथ होता है, तब उससे कविता उत्पन्न होती है। जब संगीत में विचार नहीं होते, तो वह केवल संगीत होता है। और जब विचारों में संगीत नहीं होता, तब वे केवल गद्य होते हैं।’

उपयोगिता और सोद्देश्यता को एलेन पो कवि के लिए बिलकुल त्याज्य समझते थे। उन्होंने लिखा है कि ‘प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यह बात, प्राय:, मान ली गई–सी लगती है कि कविता का अन्तिम ध्येय सत्य है। लोग कहते आए हैं कि प्रत्येक कविता में कोई नीति अथवा उपदेश होना ही चाहिएय बल्कि उनका भाव यह दीखता है कि कविता का कवित्व उसमें निरूपित उपदेश से ही परखा जाना चाहिए। हमारे दिमाग में यह बात बैठ गई–सी लगती है कि अगर कोई कवि काव्य की रचना केवल कवित्व के लिए करे और यह बात स्वीकार कर ले कि यह दोष उसने जान–बूझकर किया है, तो साधारणत: लोग उसे समर्थ कवि मानने से इनकार कर देंगे। लेकिन सीधी बात यह है कि अगर हम अपनी आत्मा की गहराई में डूबकर विचार करें, तो हमें पता चलेगा कि जो कविता केवल कवित्व के लिए रची गई है, कवित्व से आगे जिसका कोई लक्ष्य नहीं है, जो केवल कविता है अन्यथा कुछ भी नहीं, उस कविता से बढ़कर सुन्दर और गौरवपूर्ण कृति संसार में और दूसरी नहीं हो सकती।’

लगता है, शुद्ध कवित्व का जो आन्दोलन आगे चलकर उठने वाला था, उसकी पूरी झलक एडगर एलेन पो को रोमांटिक युग में ही दिखाई पड़ गई थी। किन्तु उन्होंने आगामी काव्य का जो पूर्वाभास दिया था, उस पर अमरीका और इंग्लैंड में उस समय किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। उनका जन्म 1809 ई. में और देहावसान सन् 1849 ई. में हुआ था। किन्तु अपनी चालीस साल की उम्र में वे बराबर गरीबी, रोग और उपेक्षा से आक्रान्त रहे। साहित्य–क्षेत्र में उन्हें चिढ़ानेवाले लोग तो थे लेकिन ऐसे लोग नहीं थे, जो उन्हें समझने का प्रयास करते। इसके कारण शायद दो थे। पहला यह कि साहित्य का ध्येय वे शिव और सत्य को नहीं, केवल सुन्दर को मानते थे, केवल आनन्द को मानते थे और यह सिद्धान्त उस युग की मान्यता के विरुद्ध पड़ता था। और दूसरा कारण शायद यह था कि अपने वैयक्तिक जीवन में, नैतिक आचरण के मामले में, वे जनमत की उपेक्षा करते थे।

5. पेरिस के मनीषियों का प्रयोग

किन्तु पो के भीतर चमकनेवाली भविष्य की जिस रोशनी को इंग्लैंड और अमरीका के कवि नहीं देख सके, उसे फ्रांस के दो कवियों–बोदलेयर और मलार्मे–ने देख लिया। बोदलेयर एलेन पो से इतने अभिभूत हो उठे कि उन्होंने पो की कहानियों का अनुवाद फ्रेंच में किया और फ्रेंच में पो की प्रशंसा की नींव डाल दी। इसी प्रकार मलार्मे ने पो की अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद फ्रांसीसी में किया। पो की मृत्यु पर मलार्मे ने कविता भी लिखी थी जिसमें उन्होंने यह कहा था कि ‘पो की समाधि पर विचार कोई नक्काशी नहीं कर सकता।’ अर्थात् पो की शोभा विचारों से नहीं बढ़ती, वे शुद्ध भावना के कवि थे। बोदलेयर और मलार्मे के साथ साहित्य में जिस प्रतीकवादी आन्दोलन का आरम्भ हुआ, उसकी प्रेरणा पो की कविताओं से भी आई थी और उस आन्दोलन के समर्थन में एडगर एलेन पो का नाम नेता–कवि के रूप में लिया जाता था। पो के प्रति प्रतीकवादियों का भाव गुरु के प्रति शिष्यों का भाव था। यही भाव हम रूस के अर्वाचीन स्वर्गीय प्रतीकवादी कवि पास्तरनेक में भी देखते हैं, जिन्होंने एक कविता में एलेन पो का उल्लेख बड़ी ही श्रद्धा और प्रेम के साथ किया है। वैसे बोदलेयर और पास्तरनेक की तुलना में एडगर एलेन पो बहुत छोटे कवि थे।

कला को लेकर भारत में बंगाल का जो स्थान है, उससे कुछ अधिक तेजस्वी स्थान यूरोप में फ्रांस का है। कला की बारीक अनुभूतियाँ पहले फ्रांस में प्रकट होती हैं और वहाँ से वे सारे यूरोप और अमरीका में फैलती हैं। विशेषत:, शुद्ध कवित्व के आन्दोलन को जितनी पुष्टि फ्रांस में मिली, उतनी किसी और देश में प्राप्त नहीं हुई। यह सत्य है कि रोमांटिक कविता के खिलाफ एक प्रकार का अस्पष्ट असन्तोष कई देशों में दिखाई पड़ा था। इंग्लैंड में शेली ने यह संकेत दिया था कि शैली कदाचित् भाव से अधिक महत्त्वपूर्ण है। अमरीका में एडगर एलेन पो ने सत्य और उपयोगिता, दोनों को कला से बाहर खदेड़ देने की बात कही थी। इसी प्रकार जर्मन कवि होल्डरलीन (1770–1843) ने रोमांटिक कविता की आवेशप्रियता को दुर्गुण बताया था। उन्होंने एक मित्र को पत्र में लिखा था कि ‘होश–हवास की सुस्थिर मुद्रा जब कवि को छोड़ देती है, उसी समय कवि की प्रेरणा भी उससे विदा हो जाती है। बड़े कवि कभी भी अपने हाथ से नहीं छूटते।’ लेकिन इतना होने पर भी शुद्ध कविता का असली प्रयोग, और किसी देश में आरम्भ न होकर, फ्रांस में आरम्भ हुआ और वहीं, तीन महाकवियों (बोदलेयर, रेम्बू और मलार्मे) के हाथों शुद्ध कविता ने ऐसा निखरा हुआ रूप प्राप्त कर लिया कि वह संसार–भर के आगामी काव्य का ‘मॉडल’ बन गया।

पिछले सौ वर्षों से फ्रांस के कवि विचार और विश्लेषण तथा आशा और विश्वास, सबसे विमुक्त खाँटी, शुद्ध कविता की साधना में ऐसी तन्मयता से लगे रहे हैं, जैसी तन्मयता से पहले के साधक कैवल्य या मोक्ष की खोज में लगते थे। और फ्रांस के कवियों की देखादेखी अन्य देशों के कवि भी उसी स्वप्न की ओर दौड़ते रहे हैं। 1849 ई. के पूर्व एडगर एलेन पो ने शुद्ध कविता का जो स्वप्न देखा था, वह स्वप्न अब इतना सूक्ष्म हो गया है कि अगर पो स्वयं वापस आकर देखें तो उन्हें आश्चर्य होगा कि बातें कहाँ से शुरू हुई थीं और वे अब कहाँ पहुँच गई हैं। हमारा खयाल है कि रोमांटिक युग के अन्त होते–होते कवियों के भीतर कविता के आगामी रूप की जो कल्पना, बीज के रूप में, दिखाई पड़ी थी, वह थोड़े ही दिनों में अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित इसलिए हो गई कि लगभग एक ही समय पेरिस में उसे तीन ऐसे प्रतिभाशाली कवि मिल गए, जिनमें से प्रत्येक एक स्वतंत्र युग का नेता हो सकता था।

बोदलेयर, रेम्बू और मलार्मे बड़ी विलक्षण प्रतिभा के कवि थे। उनमें अरूप के भीतर धँसने की अपरिमित शक्ति थी। बोदलेयर में तो परम्परा की साफ निशानी जरूर मिलती है, मगर रेम्बू और मलार्मे को देखकर भासित होता है कि कवि ऐसे भी हो सकते हैं, जो चाहें तो प्राचीन परम्परा से टूटकर सर्वथा नई परम्परा का आरम्भ कर सकते हैं। चाहें तो ऐसे महल बना सकते हैं, जिनमें दीवार या खम्भे नहीं हों। बोदलेयर, रेम्बू और मलार्मे के बाद यूरोप की कविता ने वही राह पकड़ ली, जिसे इन तीन महाकवियों ने तैयार किया था।

अगर ये कवि कुछ कम क्रान्तिकारी हुए होते, तो नई कविता परम्परा से उतनी दूर नहीं जाती जितनी दूर वह आज दिखाई देती है। अगर ये कवि कुछ कम शक्तिशाली हुए होते, तो कविता अरूप के भीतर दूर तक धँसने के प्रयास में उतनी दुरूह भी नहीं हो पाती, जितनी दुरूह वह आज दिखाई देती है। लेकिन यह भी ठीक है कि यदि ये तीन महाकवि नहीं उत्पन्न हुए होते, तो भाषा की वे प्रच्छन्न शक्तियाँ भी उतनी उद्बुद्ध नहीं हुई होतीं, जितनी उद्बुद्ध वे इन तीन कवियों के अथवा उनके उत्तराधिकारियों के दुर्धर्ष प्रयोगों के कारण हुई हैं। शुद्ध कविता की दिशा, आरम्भ में, इन्हीं तीन कवियों ने निर्धारित की थी और अन्तरराष्ट्रीय काव्य तब से उसी दिशा में प्रगति करता रहा है। अतएव, थोड़े में, हमें यह जानने का प्रयास करना है कि इन कवियों की इच्छा और उमंग क्या थी तथा उनके प्रयोगों का झुकाव किस ओर था।

6. बोदलेयर

चार्ल्स बोदलेयर का जन्म पेरिस में सन् 1821 ई. में हुआ यानी वे बायरन की मृत्यु से तीन वर्ष और शेली की मृत्यु से एक वर्ष पहले जनमे थे तथा मैथ्यू आर्नाल्ड के जन्म से उनका जन्म एक साल पूर्व हुआ था। फ्रांस के रोमांटिक कवि तियोफिल गोतिये और प्रकृतवादी उपन्यासकार गुस्ताब फ्लाउबेयर बोदलेयर से उम्र में बड़े थे। जब बोदलेयर ने साहित्य के संसार में अपनी आँख खोली, गोतिये और फ्लाउबेयर अपने–अपने क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध हो चुके थे। अपने निर्माण के दिनों में बोदलेयर इन आचार्यों की संगति में भी रहे थे और, स्वभावत: ही, बोदलेयर ने उनकी कला–विषयक धारणाओं का अपने ऊपर प्रभाव भी लिया था। कवि की दृष्टि से गोतिये भी बोदलेयर से बड़े या अधिक शक्तिशाली नहीं थे, किन्तु वे शैली की शुद्धता के उपासक थे और इसी कारण बोदलेयर की उन पर अपार भक्ति थी। गोतिये उपयोगिता के कितने विरुद्ध थे, यह बात हम ऊपर कहीं देख चुके हैं। वे कहते थे कि ‘कला हमारे लिए साधन नहीं, साध्य है। जो भी कलाकार सौन्दर्य को छोड़कर किसी अन्य वस्तु को अपना लक्ष्य बनाता है, वह हमारी दृष्टि में कलाकार नहीं है।’ भावुकता के गोतिये घोर विरोधी थे। कविता को वे कारीगरी का काम मानते थे। मानवतावादी ध्येय और नैतिक आदर्शों की अभिव्यक्ति के कारण कला पूजित नहीं होती, उसकी विजय तकनीकी पूर्णता में देखी जाती है। दार्शनिक या सामाजिक उद्देश्यों के प्रवेश से कला को अपनी पूर्णता प्राप्त करने में कठिनाई होती है। गोतिये मानते थे कि ‘कला का ध्येय शैली का सौन्दर्य है और सौन्दर्य–सृष्टि के बाद कला को और किसी लोभ में नहीं पड़ना चाहिए।’ ‘कला के लिए कला का सिद्धान्त’, असल में, गोतिये का ही चलाया हुआ है।

कला के बारे में फ्लाउबेयर का भी लगभग ऐसा ही विचार था। अव्वल तो कलाकार के कामों की गिनती वे कर्म की श्रेणी में नहीं करते थे। दूसरे, वे इस मत को भी नहीं मानते थे कि कविता में कोई–न–कोई अर्थ और उपन्यासों में कोई–न–कोई सन्देश होना ही चाहिए। उनकी यह उक्ति प्रसिद्ध है कि ‘एक अच्छी पंक्ति जिससे अर्थ कुछ नहीं निकलता, उस पंक्ति से श्रेष्ठ है, जिसमें अर्थ तो है, किन्तु जो कला की दृष्टि से कम अच्छी है।’

बोदलेयर पर दूसरा बड़ा प्रभाव एडगर एलन पो का था। पो की रचनाओं का उन्होंने फ्रांसीसी भाषा में अनुवाद किया था और कहते हैं, फ्रांसीसी में अनूदित पो अंग्रेजी के मौलिक पो से भी अधिक रोचक और प्रभविष्णु हैं। एलेन पो की रचनाओं का पारायण बोदलेयर जिन्दगी–भर करते रहे। यहाँ तक कि जब उन्हें लकवा मार गया, तब भी उनकी मेज पर पो की किताबें अवश्य रहती थीं, क्योंकि उनके मन–बहलाव का साधन या तो पो की पुस्तकें थीं अथवा वैगनर का संगीत। उनकी दिलचस्पी चित्रकला में भी थी और मानेत के चित्र भी उनकी रोगशय्या के पास रहते थे। कवि होने के अलावा बोदलेयर कथाकार भी थे तथा संगीत और चित्रकला के पारखी के रूप में भी उनका बड़ा नाम था।

बोदलेयर मलार्मे से 21 वर्ष और रेम्बू से 33 वर्ष पूर्व जनमे थे। अतएव मलार्मे और रेम्बू शुद्ध कवित्व को जिस दूरी तक खींच ले गए, उस दूरी तक बोदलेयर नहीं पहुँचे थे। रोमांसवाद के साथ उनके सम्बन्ध का सूत्र काफी मजबूत था। मगर वे भूत और भविष्य, दोनों ही दिशाओं की ओर देख सकते थे। उनकी कविताओं में यदि रोमांसवाद का रस है, तो उनके भीतर प्रतीकवादी आन्दोलन का प्रवर्तन भी है। यही नहीं, उनमें बहुत–से ऐसे लक्षण भी थे, जो साहित्य में प्रतीकवादी आन्दोलन के बाद विख्यात हुए।

बोदलेयर में अर्थ है, छन्द है और यह भाव भी है कि लोग मुझे समझें और मेरी कविताओं से प्रभावित हों। साहित्य में एक परम्परा–सी रही है कि जो कविताएँ नारियों के बारे में श्रृंगार–भाव से लिखी जाती हैं, उन्हें हम कला की शुद्धता से सम्बद्ध मानते हैं। इसका कारण शायद यह है कि श्रृंगार की कविताएँ सौन्दर्यानुभूति की कविताएँ होती हैं और जीवन के कर्म–पक्ष से उनका लगाव नहीं होता। प्रेम कदाचित् उस अर्थ में कर्तव्य है भी नहीं, जिस अर्थ में समाज–सुधार या देश–रक्षा के कर्म कर्तव्य हैं। किन्तु बोदलेयर का प्रेम एक विचित्र प्रकार का प्रेम है। उनका प्रेम उन आलम्बनों के इर्द–गिर्द घूमता है, जो गन्दगी, कदाचार, नग्नता, कुरूपता और बीभत्स वासना के जाल में हैं। कई आलोचकों की राय है कि बोदलेयर ने ऐसा जान–बूझकर किया है। वे समाज के पापों और कदाचारों को नंगे रूप में अंकित करना चाहते थे। वे अपनी प्रतिभा के विशाल दर्पण में समाज को उसके पापों का अम्बार, एक जगह एकत्र, दिखलाना चाहते थे। समाज अपने पापों पर पर्दा डाले निश्चिन्त पड़ा था। बोदलेयर ने उसकी चेतना को धक्का दिया, उसे झकझोरकर यह बताया कि तुम ऊपर से नीति और पवित्रता की जो बातें बोलते हो, उनमें कोई सार नहीं है।

ये बातें अगर सच हैं तो बोदलेयर की कविताएँ निरुद्देश्य नहीं थीं और उनके भीतर कोई प्रच्छन्न ध्येय था। किन्तु हमारा अनुमान है कि बोदलेयर किसी सामाजिक ध्येय के कायल नहीं थे। जो कुछ उन्होंने लिखा था, अपनी प्रसन्नता के लिए लिखा था, अपने आनन्द की अभिव्यक्ति के लिए लिखा था :

मैं तुम्हारी जवानी की आग को
खिलते और बलते देखता हूँ;
तुम्हारे खोये हुए दिनों को देखता हूँ
जो या तो चमकीले या गन्दे और गमगीन रहे होंगे।
मेरा हृदय, एक के बाद एक,
तुम्हारे सभी पापों का आनन्द उठाता है।
लेकिन, मेरी आत्मा की गहराई में
तुम्हारे दिव्य पुण्य की शिखा चमकती है।

किन्तु सौन्दर्य और आनन्द की खोज वे बीभत्सता में क्यों करते थे, इसके मनोवैज्ञानिक कारण रहे होंगे। मनोवैज्ञानिकों को अपने कार्य की जितनी बड़ी भूमि बोदलेयर की कविताओं में मिली है, उतनी बड़ी भूमि किसी और कवि के जीवन और काव्य में उन्हें प्राप्त नहीं हुई।

बोदलेयर का प्रेम उस औसत स्वस्थ मनुष्य का प्रेम नहीं है, जो अपनी दैहिक क्षुधा की तृप्ति खोजता है। उनका प्रेम एक मानसिक व्यापार है। उनके प्रेम का ध्येय सौन्दर्यानुभूति के अतिरेक में पहुँचना है। वे जिससे प्रेम करते हैं, उसे कल्पना के अतिरेक से आवेष्टित कर देते हैं, स्वयं विचारों में खो जाते हैं और अपने आलम्बन को भी उसी धरातल पर खींच ले जाते हैं। उनकी प्रेमानुभूति में दृष्टि और घ्राण की जितनी प्रखरता है, उतनी प्रखरता किसी और इन्द्रिय की नहीं है। उनका आनन्द अपनी प्रेमिका को देर तक देखने का आनन्द है, उसके अवयवों से निकलनेवाली गंध को समाधिमग्न होकर सूँघने का आनन्द है :

तब वासना के माधुर्य से
मेरे इन्द्रिय–लोल अधर कुंचित हो उठे,
मानो तबे हुए पत्थर पर
साँप जलता हुआ ऐंठ रहा हो।
जिन्होंने मुझे नग्न देखा है,
उनके लिए मैं
सूरज, चाँद और सितारों से श्रेष्ठ हूँ।

किन्तु शारीरिक कृत्य से वे दूर रहते थे, ऐसा कई लेखकों का विचार है। इस पर से उनके सम्बन्ध में एक यह अनुमान भी निकला है कि वे नपुंसक थे। किन्तु उन्हें ऐसा रोग भी हुआ था जो नारी–समागम से दूर रहनेवाले को नहीं होता है। इन सारी बातों से उनका मामला मनोवैज्ञानिक समझा जाता है। वे, सचमुच ही, मनुष्य के किसी विशिष्ट स्वभाव के प्रतिनिधि और मनोवैज्ञानिक अनुसंधान के उपयुक्त विषय हैं।

मनुष्य अपनी जिस पस्ती, व्यथा और मानसिक वेदना को दिमाग से कुरेदकर फेंक देना चाहता है, स्मृति से उखाड़कर कहीं गाड़ देना चाहता है, उस दर्द, निराशा और पस्ती की तस्वीरें बोदलेयर ने बड़ी ही रंगीनी से तैयार की हैं और उन्हें दुनिया के सामने रखने में उन्होंने महान आनन्द का अनुभव किया है। उनकी कविताएँ बड़ी ही मृदुलता के साथ सड़ाँध के इर्द–गिर्द चक्कर काटती हैं, पाप के गीतों को गुनगुनाती हैं और मृत्यु की उपासना करती हैं :

मृत्यु ईश्वर का चमत्कार है,
सबसे ऊपर की छत का
रहस्यमय कमरा,
एक ऐसा खजाना
जिसकी विरासत गरीब को भी मिलती है,
वह विशाल द्वार
जो अज्ञात आकाश की ओर खुलता है।

सौन्दर्य की प्रतिमा के कानों में वे केसर और गुलाब की झंकारें नहीं भरते, बल्कि कब्र की पुकारें सुनाते हैं। किन्तु पाप, सड़ाँध और कदाचार के दलदल में से वे सौन्दर्य की ऐसी सत भी खींच निकालते हैं, जो अलौकिक और दिव्य है तथा जो मिटने से इनकार करती है।

वे पतनशीलता के कवि हैं और उनकी कल्पना सदैव उन लोकों में विहार करती है, जो विकृत और व्यभिचरित सुषमाओं के लोक हैं। किन्तु उनकी शक्ति इतनी बड़ी है कि वे राँगे को सुवर्ण बना देते हैं अथवा यों कहें कि राँगे के भीतर छिपे सुवर्ण का सार खींच लेते हैं। अपना अन्तर्मुखी अभियान उन्होंने जुगुप्सा, घृणा, पाप और व्यभिचार के भीतर से किया था और इस प्रयास में कविता को भी उन्होंने अन्तर्मुखी बना दिया। उनकी कविताओं पर राय देते हुए एक लेखक ने लिखा है : ‘साहित्य की खोज अब तक आत्मा की ऊपरी सतह पर चलती थीय अथवा साहित्य जब कभी इस सतह से नीचे जाता था, तब वह उसी कक्ष तक पहुँचकर रुक जाता था, जो पहले से ही प्रकाशित था और जहाँ पहुँचना कोई कठिन कार्य नहीं था। लेकिन बोदलेयर बहुत आगे तक चले गए। वे उस अतल लोक तक पहुँच गए, जो निर्जन और एकान्त थाय जो अननुसंधानित और अन्धकारपूर्ण था तथा जहाँ रुग्ण मस्तिष्क की भयानक कल्पनाएँ विहार करती थीं।’

बोदलेयर प्रतीकवादी थे और समझते थे कि संसार की प्रत्येक वस्तु किसी अज्ञात सौन्दर्य का प्रतीक है। वे एक दार्शनिक सिद्धान्त में विश्वास करते थे, जिसका अनुवाद अंग्रेजी में ‘कॉरेस्पोंडेंस’ शब्द (अर्थात् सादृश्य) से किया जाता है। इस सिद्धान्त की व्याख्या यह है कि दृश्य जगत् आध्यात्मिक जगत् से जनमा है और आध्यात्मिक जगत् मानसिक जगत् का परिणाम है। पाप मन में अदृश्य रहता है और वह ऐसी चीजों में रूप ग्रहण करता है, जो हानिकारक और कुरूप हैं। इसी प्रकार, पुण्य भी मन में बसता है और जिन चीजों के भीतर वह आकार ग्रहण करता है, वे सुन्दर और उपयोगी होती हैं। दृश्य जगत् में जितनी भी चीजें हैं, वे अदृश्य की ओर इंगित करती हैं, वे आध्यात्मिक जीवन के प्रतीक हैं। किन्तु अभी उन व्यक्तियों की संख्या बहुत थोड़ी है, जो इन संकेतों को समझ सकें। ये प्रतीक, प्रकृति की भाषा के शब्द हैं और प्रकृति इन्हीं शब्दों के द्वारा दृश्य और अदृश्य के बीच सम्पर्क स्थापित करती है। संसार में जितनी भी सुरम्य वस्तुएँ हैं, वे स्वर्गीय सौन्दर्य के अपूर्ण प्रतीक हैं।

काव्य में कवि के व्यक्तित्व की प्रधानता बोदलेयर स्वीकार करते थे। वैसे तो कवि को वे स्रष्टा नहीं, एक प्रकार का अनुवादक मानते थे, किन्तु उनका विश्वास था कि कवि की रचना उसी परिमाण में मूल्यवान होगी, जिस परिमाण में उसने आध्यात्मिकता की उपलब्धि की है, देवत्व को प्राप्त किया है। सच्ची कला बोदलेयर उसे समझते थे, जो पूर्ण सौन्दर्य का प्रतिनिधित्व कर सके, उसका सवाक् संकेत या प्रतीक बन सके। किन्तु वे यह भी मानते थे कि व्यवहार में कला पूर्ण सौन्दर्य का अपूर्ण प्रतीक बनकर रह जाती है। बोदलेयर का विश्वास था कि कलाकार के माध्यम से बुद्धि नहीं, ईश्वरीय शक्ति काम करती है और जिस कवि ने ईश्वरीय शक्ति को जितनी दूर तक ग्रहण किया है, वह उतना ही सामर्थ्यवान है।

इस सिद्धान्त में बोदलेयर का विश्वास केवल बौद्धिक विश्वास नहीं था, वे उसे अपने हृदय से स्वीकार करते थे। इसीलिए वे मानते थे कि सभी कलाओं के बीच एकता का तार अनुस्यूत है और सभी कलाओं की सार्थकता इस एक बात में है कि वे उस सनातन सौन्दर्य के समीप पहुँचें, जो दृश्य जगत् के पीछे छिपा हुआ है और जिसे देखने में जनसाधारण असमर्थ है। अपने इस सिद्धान्त का निचोड़ उन्होंने ‘कॉरेसपोंडेंस’ शीर्षक एक कविता में रखा था, जो उनके ‘पाप के पुष्प’ नामक संग्रह में संकलित है।1 आगे चलकर जब फ्रांस में प्रतीकवादी आन्दोलन का आविर्भाव हुआ, तब प्रतीकवादियों ने इस कविता का प्रचार अपने घोषणा–पत्र के रूप में किया था। फ्रांस में प्रतीकवाद 1875 ई. से 1890 ई. तक अपने उभार पर था। अन्य भाषाओं में वह बाद को विकसित हुआ।

किन्तु जिस कलाकार के सिद्धान्त इतने ऊँचे थे, उसकी कविताओं के भीतर, अद्भुत शैली और अपूर्व अन्तर्दृष्टि से आलोकित पंक्तियों के भीतर पाप, कदाचार, वासना और बीभत्स कामनाओं का ऐसा भयानक विस्फोट दिखाई पड़ा कि सन् 1857 ई. में जब उनका ‘पाप के पुष्प’ नामक काव्य–संग्रह पहले–पहल प्रकाश में आया, सरकार ने उसे अनैतिक करार दिया और लेखक तथा प्रकाशक, दोनों पर जुर्माने ठोंक दिये गए। बोदलेयर के जीवन–काल में इस पुस्तक के दो संस्करण और निकले थे, किन्तु दोनों में विवादग्रस्त कविताएँ छोड़ दी गई थीं।

बोदलेयर ने जीवन–भर अपरिमित कष्ट सहा, जीवन–भर आर्थिक दुश्चिन्ताओं में वे ग्रस्त रहे, जीवन–भर वे कुत्सित, कुरूप, वासना से जलती हुई, सस्ती औरतों के सम्पर्क में रहे और जीवन–भर वे अपने इन भयानक अनुभवों को काव्य में चित्रित करते रहे।

बोदलेयर का विश्वास था कि पाप स्वाभाविक और पुण्य कृत्रिम है। पाप मनुष्य से आपसे–आप हो जाता है, पुण्य उसे सोच–समझकर करना पड़ता है। वे यह भी मानते थे कि प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह पार्थिव जीवन का भोग करते हुए स्वर्ग या नरक का रास्ता अपने लिए आप ही चुन ले। जां पाल सार्त्र ने बोदलेयर का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए एक अच्छा– खासा ग्रंथ लिखा है, जिससे पता चलता है कि बोदलेयर पाप से भीत नहीं थे। पाप को उन्होंने अपनी स्वाधीनता के लिए चुना था। समाज की अवज्ञा करके, सामाजिक नैतिकता को अँगूठा दिखाकर वे अपने स्वतंत्र होने के अभिमान की रक्षा करते थे और अपनी कारयित्री शक्तियों पर नाज करते थे। उनका यौन आचार शारीरिक पाप के लिए कम था, अधिक आनन्द वे अपनी दृष्टि और घ्राण–शक्ति से लेते थे। काम का सुख उन्हें नारियों के केश, आभूषण, गंध और वस्त्र से जितना मिलता था, उतना उनके शरीर से नहीं। और अश्लीलता की संगति वे इसलिए करते थे कि पाप के पीछे छिपे पुण्य का संधान उनका ध्येय था। अश्लीलता के पीछे वे किसी पवित्र सौन्दर्य की अनुभूति खोजते थे। उनका आनन्द नग्न नारी–मूर्ति के निदिध्यायन का आनन्द था, उनका सुख काम के मानसिक चिन्तन का सुख था। बोदलेयर का यह भी विश्वास था कि कलाकार जब कृतियों के निर्माण में लगा होता है, तब वह अपने को सहवास के सुख से दूर रखता है यानी आदमी जिस डायनेमो से प्रकाश लेता है, उस डायनेमो से वह, उसी समय, ट्रैक्टर नहीं चला सकता।

बोदलेयर की आत्मा बेचैन मनुष्य की आत्मा थी–भीतर से पीड़ित, अशान्त और कुचले हुए मनुष्य की आत्मा थी। सार्त्र का कहना है कि बोदलेयर ने पाप का मार्ग पाप का आनन्द भोगने को नहीं चुना था, बल्कि इसलिए कि वे हमेशा अपने को अपराधी महसूस करें और हमेशा पश्चात्ताप का दंश भोगते रहें। अपनी अद्वितीयता की अनुभूति के लिए, अपने को यह विश्वास दिलाने के लिए कि मैं आजाद हूँ, उन्होंने पाप और पश्चात्ताप का मार्ग पसन्द किया था। अपराध की भावना और परिताप का दंश उनके भीतर आजीवन बना रहा–और परिताप का यही दंश उनकी साधना थी।

पाप की यह रहस्यवादी व्याख्या ठीक से समझ में नहीं आती। जो बात समझ में आती है, वह यह है कि बोदलेयर का जीवन घृणित, किन्तु उनका काव्य अपूर्व था। हमारा खयाल है, बाद के कवियों ने नैतिक मूल्यों की अवहेलना में जो उत्साह दिखाया, उसकी बहुत कुछ प्रेरणा बोदलेयर से भी आई होगी। नैतिक मूल्यों की अवहेलना लॉर्ड बायरन ने जितनी की थी, वह कम नहीं थी। उस समय का समाज उनके आचरणों से विचलित भी हुआ होगा। किन्तु आज का समाज उनके प्रति सहनशील है, क्योंकि बायरन ने अपनी कलम से नैतिक मूल्यों का विरोध नहीं किया था। लेकिन बोदलेयर के बाद आनेवाले नये कवियों ने दो प्रकार की जिन्दगी जीने का विरोध कलम से भी किया। वे ईमानदारी से उसी जिन्दगी की बातें करने लगे, जो जिन्दगी वे सचमुच जी रहे थे। कुछ यह बात भी है कि पुराने मूल्यों पर सुदृढ़ रहकर कविगण नई दृष्टि नहीं प्राप्त कर सकते थे, न वे नवीनता की दिशा में उतनी दूर जा सकते थे, जितनी दूर जाने की उन्हें उमंग थी। बोदलेयर ने एक स्थान पर लिखा भी है :

बिदा का जहर पिलाओ
जिसमें तुम्हारी सान्त्वना घुली हुई है।
कामना, भीतर पैठकर,
हमें इस जोर से खा रही है
कि हम नवीनता की तलाश में
स्वर्ग में घूमने, नरक में गिरने
और अज्ञात की अतल गहराई में
भटकने को तैयार हैं।

7. मलार्मे और प्रतीकवाद

बोदलेयर, मलार्मे और रेम्बू जिस काल (1850–85) में हुए, उस काल को फ्रेंच साहित्य के इतिहास–लेखक एल– कज़ामियाँ ने वस्तुवाद का काल कहा है। रोमांसवाद का जोर जीवन के उस रूप पर नहीं था, जैसा सचमुच वह होता है, बल्कि उस रूप पर जैसा उसे होना चाहिए। लेकिन आदर्श के अतिरंजित चित्रण के लिए कल्पना जब दूर तक तानी जाने लगी, पाठकों ने संयम की माँग की और साहित्य आवेश छोड़कर संयम की वाणी बोलने को बाध्य होने लगा। ऐसी वाणी साहित्य में तभी प्रकट होती है जब लेखक और कवि वास्तविकता की ओर अग्रसर होते हैं।

वास्तविकता के उत्थान के कई कारण थे। अब तक विज्ञान और सामाजिक विज्ञान काफी दूर तक बढ़ चुके थे और नई पीढ़ी उनसे प्रभावित होने लगी थी। डारविन के विकासवाद के सिद्धान्त के कारण परम्परा की कट्टरता कमजोर होने लगी थी और आगस्ट कामते के पोजिटिविज्म के प्रभाव से साहित्यकार भी यह सोचने लगे थे कि साहित्य में जोर जीवन के वास्तविक पक्ष पर पड़ना चाहिए तथा कल्पना के स्थान पर उन तथ्यों को महत्त्व देना चाहिए, जो सुपरीक्षित और सत्य हैं। वस्तुवाद के साथ–साथ प्रकृतवाद का आन्दोलन उठा, जिसकी मान्यता यह थी कि नैतिकता किताबों से नहीं निकलती, बल्कि उसका कारण वे परिस्थितियाँ हैं, जिनमें हम निवास करते हैं। मनुष्य स्वयं कुछ नहीं है, वह परिस्थितियों का गुलाम है। परिस्थितियाँ हमसे जैसा आचरण करवाना चाहती हैं, वैसा ही आचरण हम करते हैं। निर्णय लेने में आत्मा का कोई हाथ नहीं होता।

मनुष्य अपने सारे निर्णय शरीर की आज्ञा से करता है, उसकी माँगों और आवेगों के अनुसार करता है। फ्लाउबेयर ऐसे ही प्रकृतवादी उपन्यासकार थे। कट्टरवादियों ने जैसा विरोध रोमांसवाद का किया था, वैसा ही विरोध उन्होंने प्रकृतवाद का भी किया। समाज में आम धारणा यह बन गई कि प्रकृतवाद रोमांसवाद की सन्तान है, फर्क यह है कि लड़का अपने बाप की अपेक्षा कहीं ज्यादा गुनहगार है। इसका कारण यह था कि रोमांसवाद और प्रकृतवाद, दोनों साहित्यिक आन्दोलन थे और नैतिकता का मार्गदर्शन वे स्वीकार नहीं करना चाहते थे। इस दृष्टि से रोमांसवाद का गुनाह कम था, लेकिन प्रकृतवाद के दुस्साहस को देखकर समाज तिलमिला उठा।

वस्तुवाद और प्रकृतवाद, दोनों के दोनों, रोमांसवाद के विरुद्ध उत्पन्न प्रतिक्रिया से पैदा हुए थे, किन्तु दोनों के भीतर रोमांसवाद की थोड़ी–बहुत रंगीनी मौजूद थी। रोमांटिक रंग का उपयोग वस्तुवाद अपने अक्खड़पन को छिपाने के लिए करता था और प्रकृतवाद इसलिए कि उसके विषय बहुत ही नग्न थे। किन्तु इस रंग का उपयोग वे पाठकों को दी जानेवाली घूस के रूप में करते थे। असल में, उनका जो अपना उद्देश्य था, वह कल्पना और संवेदना को बहुत बढ़ावा नहीं देता था। कल्पना और संवेदना की इसी उपेक्षा ने वस्तुवाद और प्रकृतवाद के बारे में शंका उत्पन्न कर दी और कल्पना तथा संवेदना को फिर से साहित्य में प्रतिष्ठित करने को एक नये आन्दोलन का आविर्भाव हुआ, जिसका नाम प्रतीकवाद चलता है। इस आन्दोलन का आरम्भ एक प्रकार से खुद बोदलेयर ने किया था, किन्तु उसका पूरा विकास हम मलार्मे, वर्लैन, रेम्बू, लफूर्ज और वैलरी की रचनाओं में देखते हैं।

साहित्य का ‘पेंडुलम’ बराबर क्लासिक से रोमांटिक और रोमांटिक से क्लासिक की ओर हिलता रहता है, गरचे, समय–समय पर नाम उनके बदलते रहते हैं। जब कल्पना का आधिक्य होता है, पाठक साहित्य को वास्तविकता की ओर ले जाना चाहते हैं और जब सत्य इतिवृत्तात्मक हो उठता है, साहित्य कल्पना की ओर लौटने का बहाना खोजने लगता है। रोमांसवाद से ऊबकर साहित्य वस्तुवाद और प्रकृतवाद की ओर गया था, किन्तु ये दोनों वाद जब कुछ नीरस दिखाई देने लगे, साहित्य उन बहानों की खोज करने लगा, जिनका अवलम्ब लेकर कल्पना फिर से ऊपर लाई जा सकती थी। रोमांसवाद जिस रूप में विदा हुआ था, उस रूप में वह वापस नहीं लाया जा सकता था और वस्तुवाद की भी अब अवज्ञा नहीं चल सकती थी। अतएव, साहित्य में एक मत प्रकट हुआ कि वस्तुवाद ठीक है, किन्तु सत्य का चित्रण कला का ध्येय नहीं है। साथ ही दूसरा मत यह निकला कि कवि जिस सत्य पर काम करता है, उसका रूप ही कुछ और होता हैय अर्थात् वस्तुओं के बाहरी ढाँचे कला के विषय नहीं हैं।

कला का विषय वह अस्पष्ट और बिछलनेवाला प्रकाश है, जो वस्तुओं के साथ लिपटा होता है और जिसे केवल संवेदनशील मनुष्य ही देख सकता है। यह सत्य है कि प्रत्येक वस्तु के भीतर सूक्ष्म छायाएँ होती हैं, अर्धोन्मीलित संकेत होते हैंय निगूढ़ भंगिमाएँ और धुँधली ज्योतियाँ होती हैं, जिन्हें शब्द ठीक से नहीं पकड़ पाते। साहित्य ने अब इन्हीं बारीक चीजों को अपना विषय मान लिया और उनके वर्णन के लिए प्रतीकों का वह उपयोग करने लगा। प्रतीकों के बिना इन बारीक बातों को व्यंजित करना सम्भव भी नहीं था।

कल्पना और संवेदना के गहरे पुट के बिना कविता कविता नहीं रह जाती है। रोमांसवाद सफल इसलिए हुआ था कि वास्तविकता से दूर होने के कारण वह कल्पना का प्रयोग मुक्त भाव से कर सकता था। किन्तु अब वास्तविकता की अवहेलना नहीं चल सकती थी। अतएव कल्पना को समुचित क्रीडा–क्षेत्र प्रदान करने के लिए साहित्य विषय से लिपटी बारीक भंगिमाओं को महत्त्व देने लगा।

इस तरह प्रतीकवाद रोमांसवाद की ही सम्भावनाओं का विकास था। यह सुस्पष्ट वर्णन की अपेक्षा अर्थगर्भ संकेतों पर अधिक आश्रित था। भावनाओं के साथ जो सूक्ष्म, धुँधली छायाएँ लिपटी होती हैं, ध्वनि और संकेत के द्वारा उनका वर्णन करना प्रतीकवादियों का मुख्य कार्य हो गया। इस धूमिलता के वर्णन में कला ने जो चमत्कार उत्पन्न किया, उससे प्रतीकवादी कवि और भी प्रोत्साहित हो उठे और अँधेरे में छिपकर बोलने के शौक में उन्होंने प्रकाश से, एक प्रकार से, संन्यास ले लिया। सुस्पष्ट और ठीक–ठीक वर्णन की पद्धति गौण हो गई तथा कविगण ध्वनि के सहारे थोड़ा कहकर बहुत अधिक कहने को अपना सर्वश्रेष्ठ चमत्कार मानने लगे। जिस समय प्रतीकवाद जोर पर था, लगभग उन्हीं दिनों फ्रांस में प्रभाववादी आन्दोलन भी चल रहा था। सम्भव है, प्रतीकवाद पर उस आन्दोलन का भी प्रभाव पड़ा हो। किन्तु; मूल में, यह वस्तुवाद की कठोरता और प्रकृतवाद की क्रूर नग्नता के विरुद्ध उत्पन्न प्रतिक्रिया से ही प्रेरित हुआ था।

आरम्भ में इस आन्दोलन का कोई नाम नहीं था, किन्तु जहाँ-तहाँ बिखरे, उच्छृखल-विशृंखल कवियों के समूह को एक झंडे की जरूरत थी, जिसके पीछे वे जुलूस बाँधकर चल सकें, एक नाम की जरूरत थी, जो उनका सामूहिक नाम हो सके। काफी माथा-पच्ची करने के बाद सन् 1880 ई. में उन्होंने इस आन्दोलन का नाम 'प्रतीकवाद' रखा। सिद्धान्त के धरातल पर प्रतीकवादियों ने वस्तुवाद का खंडन नहीं किया, लेकिन व्यवहार में वे बराबर उससे कतराते रहे। भावनाओं के अलक्ष्य, अरूप, अतीन्द्रिय रूपों की व्यंजना ध्वनि और संकेत से करने के प्रयास में कविता को वे खींचकर अन्धकार में ले गए। काव्य में दुरूहता की वृद्धि तभी से होने लगी और, एक के बाद एक, ऐसे कवि उत्पन्न होने लगे, जिनकी कविताएँ अर्थ-बाधा से ग्रस्त थीं। प्रतीकवाद का . सारा जोर इस बात पर पड़ा कि प्रत्यक्ष वर्णन साहित्य का धर्म नहीं है। साहित्य का वर्णन अप्रत्यक्ष अथवा वक्र होना चाहिए।

प्रतीक संकेत है जिसकी गूंज अभिधेयार्थ से परे बहुत दूर तक पहुँचती है, जो उससे बहुत अधिक अर्थ देता है, जितना अर्थ हम अभिधा से प्राप्त कर सकते हैं। प्रतीकों से जो चिनगारियाँ छिटकती हैं वे किसी एक दिशा का संकेत नहीं देतीं, बल्कि, वे अनेक दिशाओं की ओर इंगित करती हैं और यह स्थिर करना कठिन हो जाता है कि कवि का मुख्य अभिप्राय क्या है। इसीलिए प्रतीकों का वातावरण रहस्यपूर्ण हो जाता है, उनके अर्थ धूमिल हो जाते हैं। अब तक कविता (और शुद्ध कविता भी) भावों का वर्णन और रागों का आख्यान सुसम्बद्धता के साथ करती आई थी, किन्तु, प्रतीकवाद के प्रभाव में आकर उसने अपना ध्येय बदल दिया और वह उन सूक्ष्म स्थितियों अथवा भावनाओं का संकेतों से वर्णन करने लगी, जो अभिधा की सीमा के पार पड़ती हैं और जो, स्वभावतः ही, धूमिल और अस्पष्ट हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि काव्य में से पूर्वापर सम्बन्धों की लड़ियाँ लुप्त होने लगीं। _ फ्रांस में प्रतीकवाद के दो बड़े नेता वर्लेन और मलार्मे माने जाते हैं। स्टीफैन मलार्मे का जन्म पेरिस में सन् 1842 ई. में हुआ था। वे कुछ दिनों तक इंग्लैंड में रहे थे और वहाँ से लौटकर वे अपने देश में अन्त तक अंग्रेजी पढ़ाकर अपनी जीविका चलाते रहे। उन्होंने एडगर एलेन पो की कविताओं का अनुवाद सन् 1888 ई. में प्रकाशित किया था। उनका निवास स्थान कई बड़े लेखकों का अड्डा था। वे सारे जीवन प्रतीकवादी शैली के परिष्कार में लगे रहे। उनकी मृत्यु सन् 1898 ई. में हुई। _प्रतीकवाद का सघनतम रूप हम मलार्मे की कविता में देखते हैं और प्रतीकवादियों में से सबसे अधिक मौलिक कवि भी वे ही माने जाते हैं। किन्तु इस मौलिकता की प्राप्ति के क्रम में वे अपने सन्तुलन को कायम नहीं रख सके। उनकी कविता सर्वसाधारण की तो क्या, उन थोड़े-से रसज्ञ पाठकों की भी कविता नहीं है, जो अपनी रुचि को शिष्ट, परिमार्जित और बारीक समझते हैं। मलार्मे के प्रशंसक वे लोग रहे हैं, जो कदाचित् प्रतीकवाद के विशेषज्ञ हैं अथवा जिन्होंने मलार्मे की प्रवृत्तियों और उनकी तकनीक का विशेष रूप से अध्ययन किया है। वे जब जीवित थे, उनकी कविताएँ दुरूह समझी जाती थी और अब जब उन्हें गुजरे हुए कोई 68 साल हो चुके हैं, तब भी वे दुरूह हैं। उनकी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद जितने कठिन हैं, कहते हैं, फ्रेंच में उनका मौलिक रूप भी उतना ही दुरूह है।

मलार्मे ने बहुत अधिक कविताएँ नहीं लिखी थीं, लेकिन, जो कुछ उन्होंने लिखा, उसके भीतर प्रतीकवाद का चरम लक्ष्य पूर्ण रूप से चरितार्थ दिखाई देता है। जैसी उनकी कविता थी, वैसा ही उनका मिजाज भी था। कलाकार के जीवन का उद्देश्य वे सफलता नहीं, सौन्दर्य की उपासना को मानते थे। कवि की रुचि और संवेदना जिस उक्ति को साहित्य में उतारना चाहती हो, उसे सिर्फ इस भय से नहीं लिखना कि वह लोगों की समझ में नहीं आएगी, इसे वे कथाकार का अक्षम्य अपराध समझते थे। उनका विश्वास था कि बातें जितनी ही मितव्ययिता के साथ और समेटकर संक्षेप में कही जाती हैं, अर्थ उतना ही अधिक समृद्ध हो जाता है और उक्तियाँ जितनी ही प्रत्यक्ष होती हैं, उनसे उत्पन्न होनेवाला मानसिक स्पन्दन उतना ही गम्भीर होता है।

इस दुष्कर कार्य में भाषा की अपूर्णता के साथ उन्हें जितना संघर्ष करना पड़ा, उतना संघर्ष पहले के किसी भी कवि को करना नहीं पड़ा था। आलोचकों का विचार है कि इस कठिन अभियान में मलार्मे सफल नहीं हो पाए। जो सफलता उन्हें प्राप्त हुई, वह मात्र आधी सफलता थी। किन्तु, यह भी सत्य है कि साहित्य के भीतर इस अर्ध सफलता से जो प्रकाश फैला है, वह पूर्ण सफलता से भी कदाचित् ही कभी प्रसारित हुआ हो। __रहस्य को मलार्मे कवि का यन्त्र समझते थे। अर्धज्योतियों, ध्वनियों, प्रसंगों, अनिश्चित सन्दर्भो, गोधूलि के वातावरण और दूरागत झंकारों को वे कला का अभिन्न अंग मानते थे। उनका विचार था कि साहित्य, संगीत और चित्र, सभी कलाओं का तीसरा आयाम ध्वनि है, जो प्रायः अनिश्चित होती है। वे कहते थे कि “मेरी कविताओं से कुछ लोग नाराज होंगे, कुछ उदासीन रहेंगे, मगर, कुछ लोग ऐसे भी होंगे जो उन पर विस्मय करेंगे। मैं इन्हीं विस्मित होनेवाले पाठकों के लिए लिखता है।

मलार्मे के अनुसार कवि का पहला कर्तव्य यह है कि वह उन लोगों के लिए अर्थ को ध्यान में रखकर लिखे, जिनकी भाषा का वह उपयोग कर रहा है। फिर भी उनकी अपनी कविताएँ पहेलियों के समान लगती हैं। हमारा अनुमान है कि रोमांटिक परम्परा के किंचित् समीप होने के कारण अर्थ की अनिवार्यता की बात उन्हें सूझी होगी। किन्तु, वे जब सचमुच रचना में प्रवृत्त हुए, वह परम्परा उन्हें रिक्त दिखाई देने लगी और वे कलम को हाथ में धरे यह सोचने लगे कि लिखने की नई बात अब क्या हो सकती है? कहाँ पहुँचकर ठहरें कि कविता में ताजगी उतरे? किस क्षितिज । को छुएँ कि अछूती बातें बरस जाएँ? जो बातें लिखी जा चुकी हैं, वे लिखने लायक नहीं रहीं, न उनसे मिलती-जुलती बातें लिखी जाने के योग्य हैं। तो फिर वे बातें कौन-सी हैं जिन्हें मैं लिखना चाहता हूँ?

मलार्मे बराबर कोई और चीज चाहते हैं अन्यथा वे कुछ भी नहीं चाहते। रचना की यह वेदना अनेक कवियों ने सही है। यह उन सभी लोगों की वेदना है, जो प्रचलित से ऊबकर नवीन की खोज करते हैं। मलार्मे की इस वेदना को एक आलोचक ने अनुर्वरता की वेदना या बाँझपन का दर्द कहा है। किन्तु, अनुर्वरता की यह वेदना है क्या चीज? असल में, रोमांसवाद के बाद यह प्रतीकवाद या नई कविता के जन्म की वेदना है। रोमांसवाद की धारा चुक गई है, यह पानी बेस्वाद हो गया है। कविगण किसी नई दृष्टि की खोज में हैं, किसी नए माध्यम की तलाश में हैं जो उनकी नई मनोदशा को अभिव्यक्ति दे सके। अनुर्वरता की वेदना यह है कि कवि लिखना तो चाहता है, किन्तु, उचित भाषा तथा उचित माध्यम का उसे सुराग नहीं मिलता और वह कलम पकड़े हुए कागज को देखता रह जाता है। कागज सादे का सादा पड़ा है और मन व्यूह के दरवाजे पर संघर्षशील है। विषय उसे नहीं सूझते, यह बात नहीं है। विषय तो उसे सूझते हैं, मगर, वह किसी और चीज की तलाश में है। जो कुछ वह देखता है और जो कुछ वह सोचता है, वह सबका सब वास्तविकता का अंग है लेकिन, कवि वास्तविकता को कागज पर उतारना नहीं चाहता। दिमाग में कौंधनेवाले सपने छोड़ दिए जाते हैं। अधरों पर आनेवाली बात लौटा दी जाती है। कवि केवल यह जानता है कि वह किसी और चीज के इन्तजार में है। ओ मेरे अधरों के नग्न पुष्प! तुम मुझे धोखा देते हो।

मैं किसी अज्ञात वस्तु के इन्तजार में हूँ। ज्ञान कर्तव्य का उद्गम है। उपदेश किसी-न-किसी कर्म के लिए ही दिया जाता है। मलार्मे कवियों को कर्म से दूर, शुद्ध भावना के शिखर पर देखना चाहते थे। कवि का धर्म कुछ करना नहीं, वस्तुओं के साथ लगे अन्धकार के भीतर प्रविष्ट होकर अकथ्य को कथ्य बनाना है, उन भावों को अभिव्यक्ति देना है, जिन्हें अब तक अभिव्यक्ति नहीं मिली है। उन्होंने कहा था, "जभी कोई कवि यह संकेत देता है कि वह कुछ करने की मुद्रा में है, तभी मुझे खतरे का भान होता है।"

जो कुछ सुस्पष्ट है, मलार्मे उसे सुन्दर नहीं समझते और सुन्दर हो भी तो वह कवियों के द्वारा लिखे जाने के योग्य नहीं है। प्रेम का चित्रण प्रेमी अथवा प्रेमिका से मिलन अथवा विरह का चित्रण नहीं होता, उसे बराबर उन सूक्ष्म भंगिमाओं का चित्रण होना चाहिए जो प्रेम के साथ अदृश्य रूप से लिपटी होती हैं।

चाँद का चेहरा उदास था।
कामदेव की आँखों में आँसू और स्वप्न!
वह हाथ में धनुष धरे
उफनाते हुए फूलों की शान्ति में खड़ा
म्रियमाण वीणा से उजली सिसकियाँ खींच रहा था;
उजली सिसकियाँ, जो
फूलों के नील दलों में समा रही थीं।

यह तुम्हारे चुम्बन का प्रथम दिन था। कविता ज्यों-ज्यों शुद्धता की ओर बढ़ी है, त्यों-त्यों वह दुरूह होती गई है। इसका कारण यह है कि कवियों ने जब अर्थ को छोड़ दिया, वे अपनी कला की शक्ति आजमाने के लिए, सूक्ष्मता की टोह में अदृश्य और परोक्ष के अन्धकार में डुबकी लगाने लगे। अपने इस अदृश्य-विषयक अभियान को मलार्मे 'एब्सोल्यूट' (पूर्ण, समुच्चय, पूरी वास्तविकता) पर आक्रमण कहते थे। उनकी एक उक्ति मिलती है, “मैं केवल एब्सोल्यूट पर धावा करने में दक्ष हूँ। मुझमें और कोई क्षमता नहीं है।" एब्सोल्यूट एक प्रकार की निराकार सम्पूर्णता का नाम है, जिसकी लपेट में अध्यात्म और तत्त्वज्ञान भी आ जाते हैं। मलार्मे, अपने जानते, इसी निराकार सम्पूर्णता के लिए भाषा की तलाश में थे। . प्रतीकवाद रोमांसवाद का रूपान्तरण था। रोमांसवादी कवि जिस तत्त्व की खोज अतीत की घटना अथवा प्राथमिक जीवन में करते थे, उसी तत्त्व की खोज प्रतीकवाद के अधीन धूमिलता और अन्धकार में चलने लगी। बोदलेयर का विचार था कि कविता में कुछ ऐसी चीज होनी चाहिए जो रागात्मक दृष्टि से बेचैन हो, उदास और गमगीन हो, सुस्पष्ट नहीं, कुछ दुरूह हो, जिससे कल्पना और अनुमान को क्रीड़ा के लिए थोड़ा अवकाश मिल सके। मलार्मे भी अर्ध-प्रकाश और गोधूलि-जैसे धुंधलके को कला का अनिवार्य अंग मानते थे। उनका खयाल था कि प्रत्येक पवित्र वस्तु अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए अपने चारों ओर रहस्य का निर्माण करती है। अपने एक सॉनेट में बोदलेयर ने भी यह लिखा था कि यदि पाठकों को पाप का कोई ज्ञान नहीं है अगर उनका परिचय उस अँधेरी रात से नहीं है, जिसमें से यह किताब निकली है, तो इस पुस्तक का पढ़ा जाना बिलकुल ही व्यर्थ होगा। और रेम्बू की यह मान्यता थी कि कविता अन्धकार के उस घेरे में बसती है, जहाँ पहुँचते ही असली दुनिया दिमाग से गायब हो जाती है। प्रतीकवाद ने आकर्षण और ललक जगानेवाले अपने सारे गुण रोमांसवाद से . सीखे थे। किन्तु, इन गुणों का प्रयोग वह वास्तविक जगत् को याद रखकर नहीं कर सकता था। अतएव, कला की कलात्मकता को निखारने के प्रयास में उसने वस्तुजगत् से नाता तोड़ लिया। एक वस्तुवादी युग में मलार्मे ने कविता का रुख एक ऐसे .. जगत् की ओर फेर दिया, जो अपने आप में वास्तविक होते हुए भी, सामान्य वास्तविकता से दूर था।

8. रेम्बू का काव्यशास्त्र

आर्थर रेम्बू का जन्म, पेरिस से बाहर, सन् 1854 ई. में हुआ था। जैसे बोदलेयर के बारे में यह कहा जाता है कि उनकी मानस-ग्रन्थियों का कारण उनकी माता का कटु स्वभाव था, उसी प्रकार, रेम्बू के भीतर भी अपनी माता के कटु व्यवहार से मनोवैज्ञानिक ग्रन्थियाँ उत्पन्न हो गईं और उनका स्वभाव आरम्भ से ही विद्रोही हो उठा । कविता लिखना उन्होंने 15 की उम्र में शुरू किया था। 15 की उम्र में ही उन्होंने साहित्यिकों के सम्पर्क में रहने के उद्देश्य से दो बार पेरिस की यात्रा की, किन्तु, धनाभाव के कारण वे वहाँ टिक नहीं सके। इसी उम्र में उन्होंने कवियों के सम्बन्ध में एक धारणा बनाई थी कि उन्हें द्रष्टा और कल्पक होना चाहिए तथा रेम्बू की कसौटी पर तत्कालीन फ्रेंच कवियों में से केवल दो ही कवि खरे उतरते थे-एक चार्ल्स बोदलेयर और दूसरे पाल वर्लेन। रेम्बू ने 16 की उम्र में अपनी एक कविता वर्लेन को डाक से भेजी। वर्लेन उस कविता से बहुत प्रसन्न हुए और रेम्बू को उन्होंने पेरिस बुला लिया। बर्लेन रेम्बू से उम्र में दस साल बड़े थे।

इस दोस्ती के कारण 16 वर्ष की अवस्था में ही रेम्बू के कवि-जीवन का आरम्भ हो गया। लेकिन इसी दोस्ती से उनकी और वर्लेन की बदनामी भी बढ़ी। वर्लेन और रेम्बू के सम्बन्ध से वर्लेन की पत्नी जल उठीं। कई बार उन्होंने इस दोस्ती को तोड़ना चाहा और कई बार वर्लेन और रेम्बू पेरिस से बाहर भाग गए। बात इस हद तक पहुँची कि एक बार वर्लेन ने रेम्बू की बाँह में गोली मार दी। दोस्ती टूटी, रेम्बू पेरिस लौटे, मगर, अपने को उन्होंने इतना बदनाम कर लिया था कि पेरिस में हर किसी ने उनके खिलाफ अपना दरवाजा बन्द कर लिया। यह उनकी उम्र का बीसवाँ वर्ष था। इस निराशा से घबराकर रेम्बू ने लिखना बन्द कर दिया और साहित्य छोड़कर जीविका की तलाश में वे अफ्रीका चले गए। वहाँ से काफी दिनों बाद वे अनेक प्रकार के रोगों से आक्रान्त लौटे। अस्पताल में उनकी टाँग काटी गई। लेकिन, वे बचे नहीं। सैंतीस साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई।

इस प्रकार रेम्बू ने जो कुछ लिखा, 16 साल और 20 की उम्र के बीच लिखा। उनका यही संक्षिप्त साहित्य-संसार में उनका नाम अमर किए हुए है। संसार की विभिन्न भाषाओं में उन पर 500 ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं तथा उनके प्रशंसक और आलोचक एक मत से यह स्वीकार करते हैं कि रेम्बू अद्भुत प्रतिभाशाली कवि थे और जितनी अछूती जमीन पर उन्होंने काम किया, उतनी अछूती जमीन पर किसी अन्य कवि ने काम नहीं किया था। अगर कविता कोई देवी है, तो रेम्बू उसकी ऐसी वीणा थे, जिस पर परम्परा अथवा वैचारिक आन्दोलन का कोई दाग नहीं था, जिसके तार बिलकुल अछूते और सजीव थे, जिसके भीतर से अविगत और अरूप की झंकार सुनाई देती थी। अफसोस कि यह वीणा बीस की आयु में ही मौन हो गई।

युग-चेतना के अन्तराल में जो बारीक-से-बारीक ऊर्मियाँ किलोल कर रही थीं, रेम्बू ने उनका गुंजन काफी समीप से सुना और वे उन ऊर्मियों के माध्यम बन गए। प्रतीकवादी तो रेम्बू भी समझे जाते हैं, किन्तु, उनका प्रभाव प्रतीकवाद तक ही सीमित नहीं रहा। प्रतीकवाद पर उनका प्रभाव कुछ कमजोर ही माना जाता है। उनकी महत्ता का कारण प्रतीकवाद से कोई और बड़ी चीज है। कविता, कला और नीतिशास्त्र के क्षेत्रों में पिछले साठ वर्षों से जो भी नवीन आन्दोलन उठते रहे हैं, उन सबका उद्गम, कहीं-न-कहीं, रेम्बू की कविताओं और विचारों में मौजूद था। वे चित्रवादी थे, वे प्रतीकवादी थे, वे अभिव्यंजनावादी थे, जो घट-बढ़कर प्रत्येक कवि को होना पड़ता है। किन्तु, विस्मय की बात यह है कि वे सुररियलिज्म के भी प्रवर्तक माने जाते हैं, क्योंकि वे चेतन के कवि नहीं थे। उनकी अनुभूतियाँ अवचेतन अथवा अचेतन से सम्बद्ध थीं तथा उनके संकेत जिन शिखरों की ओर इशारे करते हैं, उन शिखरों की राह लाजिक की राह नहीं है। वे बुद्धि नहीं, संबुद्धि के कवि हैं। विचार उन्हें नहीं चाहिए। शब्द उनके लिए पर्याप्त नहीं हैं। केवल ललक और कामना की लहरों पर वे मनमाने ढंग से बहना चाहते हैं।

शब्द मुझे नहीं चाहिए।
विचार निरर्थक और बेकार हैं।
मेरी आत्मा में प्रेम का ज्वार दौड़ेगा
और जिप्सी की तरह कहीं दूर पर
मैं प्रकृति को अपनी संगिनी बनाऊँगा
और सोचूँगा, मेरी बगल में कोई लड़की पड़ी है।
क्षितिज से क्षितिज तक
मैंने रस्सियाँ जोड़ी हैं,
खिड़की से खिड़की तक
मैंने फूलों के हार सजाए हैं,
और सितारों से सितारों तक
मैंने सोने की जंजीरें तान दी हैं
जिससे उन पर मैं नृत्य कर सकूँ।

xxx. जब दुनिया सिमटकर एक
सघन कुंज बन जाएगी,
मैं तुम्हारे पास आऊँगा।
जब दुनिया सिमटकर
दो बच्चों के खेलने योग्य
एक समुद्र-तट बन जाएगी,
मैं तुम्हारे पास आऊँगा।।
जब दुनिया सिमटकर
संगीत-सदन बन जाएगी,
मैं तुम्हारे पास आऊँगा।

इन उद्धरणों में तर्क के पर्वापर सम्बन्ध विलप्त नहीं हैं। किन्त. ऐसे उदाहरण अत्यन्त विरल हैं। रेम्बू की कविताओं में पूर्वापर सम्बन्धों का निर्वाह नहीं है। ऊपर से उनके सभी बिम्ब खंडित और असम्बद्ध दीखते हैं। किन्तु, विशेषज्ञों का कहना है कि उनकी एकता नीचे कहीं मनोवैज्ञानिक भूमि पर है। यह स्थिति उस प्रयोग की पूर्णता की स्थिति है, जो मलार्मे आदि की रचनाओं में चलता आया था। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि यह सुररियलिज्म का आरम्भ था। साहित्य परम्परा से टूटकर अलग होने के प्रयास में था, किन्तु, रोमांसवाद और वस्तुवाद, दोनों आन्दोलन परम्परा से जुड़े हुए थे। परम्परा से अपनी गाँठ खोलने की कोशिश बोदलेयर, मलार्मे और वर्लेन ने भी की थी, किन्तु, गाँठ पूरी तरह खुली नहीं थी। उस गाँठ को तोड़कर रेम्बू ने नई कविता को परम्परा से छिन्न कर दिया। वे कला के क्षेत्र में प्रचंड विद्रोही बनकर प्रकट हुए थे और जो कुछ उन्हें करना था, उसे उन्होंने केवल चार वर्षों में सम्पन्न कर दिया।

रेम्बू के पत्रों और रचनाओं में से उनके कला-विषयक सिद्धान्तों का जो परिचय मिलता है, वह बड़ा ही रोचक और महत्त्वपूर्ण है। रोमांसवादियों को लक्ष्य करके उन्होंने कहा है कि कवि के लिए क्रान्ति का कोई भी कार्यक्रम गलत कार्यक्रम है। तुक्कड़ों को गलत किस्म की कविता लिखने की आदत हो गई है। हमें इस आदत के खिलाफ बगावत करनी चाहिए।

कविता लिखने का अर्थ एक नई दुनिया बसाने के जोश में सामने के संसार का त्याग करना है। कविता लिखने का अर्थ एक ऐसी भाषा तैयार करना है जो सभी संवेदनाओं, सभी रंगों, सभी गन्धों और सभी स्वरों को अभिव्यक्ति दे सके। “मुझे इस बात पर नाज है कि मैंने एक ऐसी भाषा का आविष्कार किया है, जो किसी समय सभी इन्द्रियों की भाषा बन जाएगी। मैंने नीरवता का अंकन किया है, मैंने रात्रि को वाणी दी है। मैंने उसे लिखा है, जो अगदित और अकथ्य है।"

कविता का प्रयोजन अगम और अगोचर की स्वरलिपि तैयार करना है, मानव-मन की अथाह गहराइयों को साँचे में ढालना है।

कविता अपरिभाषेय है। कविता की परिभाषा इसलिए नहीं दी जा सकती, क्योंकि उसका जन्म मानव-मन की उस गहराई में होता है, जो स्वभाव से ही अविज्ञेय है।

कवि के शब्द कविता के शब्द नहीं होते, अधिक-से-अधिक, वे कविता के अत्यन्त समीप के शब्द माने जा सकते हैं। कविता कहकर जितना कहती है, न कहकर उससे बहुत अधिक कह जाती है।

प्रत्येक कवि अपने भीतर एक अज्ञात, असाधारण लोक की यात्रा करता है, और इस यात्रा में उसके साथ और कोई नहीं होता। कविता एक अन्य प्रकार की सृष्टि है। उसकी सड़कों पर चलने के लिए पाठकों को एक नई चाल सीखनी पड़ेगी।

प्रत्येक कवि अद्वितीय होता है, प्रत्येक बड़ी कविता अतुलनीय होती है। इसीलिए, सामान्य भाषा से कविता का काम नहीं चलता। वह नई भाषा का आविष्कार करती है। इसीलिए, कविता को हृदयंगम करने के निमित्त विश्व की शान्ति अपेक्षित है। कोलाहल अथवा मौखरी की अवस्था में कविता नहीं समझी जा सकती।

कविता अन्धकार में पकड़ी जाती है, जहाँ कवि को वास्तविक विश्व का स्मरण नहीं रहता।

कवि के रूप में सफल होने का अर्थ यह है कि आदमी प्रतिक्रियाओं, प्रवृत्तियों और चीजों को देखने की उन दृष्टियों को खतरे में डाल दे जिन्हें संसार सहज और स्वाभाविक मानता है।

बौद्धिक ज्ञान कवि के उपयोग की वस्तु नहीं है। ज्ञान उसे अपनी आत्मा का चाहिए, अपनी संवेदना का चाहिए, अपने भीतर छिपे अन्धकार और प्रकाश का चाहिए। इस आत्म-ज्ञान तक जाने की राह प्रेम की राह है, दर्द और वेदना की राह है, विक्षिप्तता और उन्माद की राह है।

आत्मानुसन्धान का उद्देश्य, असल में, अज्ञात का अनुसन्धान है। और ज्ञान वह है, जो हमें यह बताता है कि हमारे अवचेतन में क्या छिपा है, हमारी स्मृतियों के नीचे कौन-सी स्मृतियाँ दबी हैं तथा जीवन के आरम्भ के पूर्व तक उनकी लड़ी पहुँचती है या नहीं।

कविता के शब्दों में सनसनाहट होती है, खशबू होती है, ध्वनि और रंग होता है। शब्द, स्वभावतः ही, सत्यवादी और ईमानदार होते हैं अगर उन पर ऐतिहासिक सत्यों के धब्बे नहीं लगे हों।

काव्यात्मक सत्य तक जाने का अभिनव मार्ग ऊँचा और खतरनाक है। उस पर चलने के लिए श्रृंखला, परम्परा, उदाहरण, रिवाज, नजीर और नियमों का उल्लंघन आवश्यक होता है।

कविता कला का वह रूप है, जिस पर भाषा की असमर्थता अंकित होती है। कवि वह अभागा प्राणी है, जो भाव और शब्द के बीच की दूरी में भटकता रहता है।

बिम्ब शब्दों से बनते हैं, लेकिन, वे भूचाल के समान शक्तिशाली होते हैं जिसके धक्कों से पहाड़ अपनी जड़ से उखड़ जाता है।

रेम्बू ने लिखा है कि ज्ञान ने उनकी कोई सहायता नहीं की। क्लासिक ग्रन्थों ने उन्हें कुछ नहीं दिया। वे सस्ती, सनसनीखेज कहानियाँ अथवा चर्च का पौराणिक साहित्य अधिक पढ़ते थे और इन्हीं से उन्हें प्रेरणा भी मिलती थी।

रेम्बू का जीवन दुराचारमय था और उनका अन्त भी अत्यन्त कारुणिक हुआ। किन्तु, अब मनोवैज्ञानिकों का विचार यह बना है कि रेम्बू का दुराचार उनके साधुत्व का ही परिवर्तित रूप था।

नैतिकता को रेम्बू दिमाग की कमजोरी कहते थे और नारियों के वे घोर रूप से विरुद्ध थे। "मैं नारियों को पसन्द नहीं करता। प्रेम का आविष्कार फिर से किया जाना चाहिए। नारियों का स्वभाव है कि सुरक्षा छोड़कर वे और कोई भी चीज नहीं चाहतीं। और सुरक्षा की स्थिति के प्राप्त होते ही उनका हृदय उनके सौन्दर्य को छोड़ देता है।" - सभ्यता के वृत्त से रेम्बू अपने को बाहर समझते थे। “पुरोहितो, धर्माचार्यो, मालिको, तुम मुझे कानून के हवाले करके गलती कर रहे हो। मैं इन लोगों के बीच का आदमी नहीं हूँ। मैं ईसाई तो कभी था भी नहीं। मैं उस कौम का हूँ, जो अत्याचार और पीड़ाओ के बोझ के नीचे गान करती है। कानून को मैं नहीं जानता। मेरे भीतर नैतिक विचार नहीं हैं। मैं जानवर हूँ। तुम गलती कर रहे हो।"

"मुझे इन्द्रधनुष का शाप लगा है। कर्म जीवन नहीं है। वह शक्ति के अपव्यय का एक साधन मात्र है जो आदमी को कमजोर बनाता है। और नैतिकता दिमागी कमजोरी का नाम है।"

शुद्ध कविता की खोज के सिलसिले में जो बात हमें दिखाई पड़ी है, वह यह है कि विषय उतना उपेक्षणीय नहीं है, जितना शुद्धतावादी लोग उसे बताना चाहते हैं। यही नहीं, समकालीन जीवन उनके भीतर भी खलबली पैदा कर सकता है, जो शुद्धता की उपासना में लगे हुए हैं अथवा जिन्होंने यह विश्वास कर लिया है कि साहित्य जीवन से मुक्त है। रेम्बू के असम्बद्ध उद्गार भी, कभी-कभी दूर पर, कहीं उस पीड़ा से सम्पृक्त मिलते हैं, जिसकी अनुभूति उन्हें समकालीन जीवन में हुई थी।

"बिक्री के लिए वह चीज, जिसे यहूदियों ने नहीं बेचा है, जिसके मजे अमीर और अपराधी नहीं उठा सके हैं, जिसे घातक प्रेम और जनता की नारकीय सचाई नहीं जानती, जिसे समय और विज्ञान पहचानते भी नहीं हैं।"

"फिर से अस्तित्व में आई हुई आवाजें; मूंगे और वाद्यवृन्द की शक्तियाँ, जो सहेली बनकर जगी हैं और उन शक्तियों के उपयोग की विधिः इन्द्रियों की मक्ति का अद्वितीय अवसर।"

"बिक्री के लिए बेशकीमती जिस्म, जो न तो किसी जाति का है, न दुनिया का, न औरत का, न मर्द का। कदम-कदम पर बढ़नेवाला कोष । उन हीरों की बिक्री जिन पर नियन्त्रण नहीं है।"

“बिक्री के लिए अराजकता, जिसे जनता खरीदेगी; जो शौक में आकर अपने को बड़ा समझ रहे हैं, उनके लिए अदमनीय सन्तोष; और उनके लिए खौफनाक मौत, जो प्रेमी और वफादार हैं।"

"बिक्री के लिए जिस्म, आवाजें, अपार धन, जो आगे और नहीं बिकेगा। बेचनेवालों का माल अभी खत्म नहीं हुआ और मुसाफिरों को तुरन्त रोकड़ मिलाने की भी कोई जरूरत नहीं है।"

अर्थ और सुसम्बद्धता की तलाश में रहनेवाले लोग रेम्बू से हमेशा निराश हुए हैं और.आगे भी निराश होंगे। किन्तु, रेम्बू की मुट्ठी भर कविताओं से जो चिनगारियाँ छिटकीं, वे अनेक स्थानों पर आज भी ज्वाला बनकर जल रही हैं। रेम्बू की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि परम्परा के टूटने की आवाज उन्हें सबसे पहले सुनाई पड़ी थी और आगामी पीढ़ियों को इसकी सूचना उन्होंने इस आत्मविश्वास से प्रदान की, मानो, वे 18-20 साल के लड़के नहीं, कला के अवतारी पुरुष रहे हों।

9. अन्तर्मुखी यात्रा का दंड

बोदलेयर, मलार्मे और रेम्बू ने साहित्य में जिस आन्दोलन का प्रवर्तन किया, वह अन्तर्मुखी यात्रा का आन्दोलन था और यह आन्दोलन उन्होंने फ्रायड के अनुसन्धानों से प्रेरित होकर नहीं उठाया था। फ्रायड उस समय कहीं भी नहीं थे। सन् 1914-15 तक भी साहित्य पर फ्रायड का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। वे केवल उन लोगों के काम के थे, जो मनोवैज्ञानिक रोगों का इलाज करते हैं।

साहित्य में अन्तर्मुखी यात्रा का प्रवर्तन स्वयं साहित्यिकों ने किया था और इसके कारण भी मनोवैज्ञानिक न होकर साहित्यिक थे। रोमांसवादी कवि भावना, राग और कल्पना के कवि थे, अतएव, स्वभावतः ही, भावनाओं के मूल तक जाने के लिए वे कल्पना के सहारे चेतन मन के परे भी झाँका करते थे। बुद्धि जब अतिचिन्तन के कारण संबुद्धि हो जाती है, आदमी उस लोक की झाँकी लेने लगता है, जो बुद्धि की सीमा के पार है, जो कदाचित् अचेतन अथवा अवचेतन से सम्बद्ध है। इस लोक का संकेत क्लासिक युग के भी कोई-कोई कवि देते रहे थे, किन्तु, उस युग में यह संकेत सुस्पष्ट होता था। जो संकेत सुस्पष्ट नहीं बनाए जा सकते थे, उनके कथन का रिवाज साहित्य में नहीं था। किन्तु, रोमांटिक युग में आकर धुंधले संकेतों का भी आदर होने लगा था, बल्कि इस धुंधलेपन के कारण कवि के गाम्भीर्य की कुछ अधिक ही प्रशंसा की जाती थी। प्रतीकवादियों में आकर यह गुण और वृद्धि पा गया। रोमांटिक कवि जिस लोक का संकेत दूर से देते थे, प्रतीकवादी कलाकार उसी लोक को अपने विहार की प्रमुख भूमि समझने लगे। शुद्धतावादी आन्दोलन का हरएक कदम काव्य के विशिष्टीकरण की ओर पड़नेवाला कदम रहा है। प्रतीकवादियों का भी प्रयास इसी विशिष्टीकरण की ओर था।

कविता की अन्तर्मुखी यात्रा को समर्थन समकालीन वस्तुवाद या प्रकृतवाद से भी मिला। प्रकृतवादियों का उद्देश्य मनुष्य का अध्ययन काफी कठोरता के साथ करना था। वे नैतिकता के रस्म-रिवाजों को मनुष्य का ऊपरी खोल समझते थे और अध्ययन वे उन मूल प्रवृत्तियों और आवेगों का करना चाहते थे, जो मनुष्य के आचरण की असली प्रेरणा हैं। प्रकृतवादी कलाकार मनुष्य के भीतर छिपे जीव का जितना ही अध्ययन करते गए, मनुष्य के अन्तश्चेतन की प्रवृत्तियाँ उतनी ही अन्धी दिखाई देने लगीं, उसके आवेग उतने ही अदमनीय दिखाई देने लगे। ये आवेग और ये प्रवृत्तियाँ केवल अन्धी और धूमिल ही नहीं थीं, बल्कि वे खट्टी भी थीं, और उनकी मूल-शिराएँ बुद्धि में नहीं, लहू और मांस में गड़ी थीं। वस्तुवादी की इस दुनिया से प्रतीकवादियों का दुनिया का मेल था क्योंकि प्रतीकवादियों का संसार प्रभावों, मनोदशाओं और स्वप्नों का संसार था तथा इस संसार में बुद्धि की प्रमुखता नहीं थी।

इस समय प्रतीकवादी और वस्तुवादी कलाकार जिस दिशा की ओर जा रहे थे, उसका समर्थन बर्सी के दार्शनिक सिद्धान्त ने भी किया। पहले के दार्शनिक बुद्धि को अपनी मार्गदर्शिका मानते आए थे। बौं ने कहा, मनुष्य का व्यक्तित्व बुद्धि से नहीं, सम्बुद्धि से समझा जा सकता है; वह तर्क से नहीं, भावना से चालित होता है। हमारी अनुभूतियों की जड़ें चेतन मन में नहीं होतीं, वे अवचेतन से लगी हैं। अतएव, कोरी बुद्धि उनका पता पाने में असमर्थ है।

फ्रायड से प्रभावित होने के पूर्व प्राउस्ट बर्सी से प्रभावित हुए थे। कहते हैं, उनके सोलह जिल्दों वाले विशाल उपन्यास की शैली मनोवैज्ञानिक शैली है। उपन्यास में आनेवाली, एक के बाद दूसरी, घटनाओं को उन्होंने अलग-अलग प्रतीकवादी शीर्षकों । के अधीन सजाया है और पूरे उपन्यास की सम्बद्धता काफी सामंजस्यपूर्ण नहीं है। यह कदाचित् उस शैली का पूर्वाभाव है, जिसका पूर्ण विकास हम जेम्स ज्वायस के उपन्यासों में देखते हैं। ज्वायस उस शैली के प्रवर्तक माने जाते हैं, जिसे चेतना-प्रवाह (स्ट्रीम-ऑफ-कांशसनेस) की शैली कहा जाता है। लगता है, इस चेतना-प्रवाह-शैली के बीज प्राउस्ट के ही उपन्यास में थे। प्राउस्ट की विशेषता यह है कि मनुष्य के आचरण को प्रेरित करनेवाली भावनाओं का पता लगाते हुए वे उसके अन्तर्मन के भीतर बहुत दूर तक उतर जाते हैं, जहाँ अन्धकार है, कुरूपता है, मनुष्य की पाशविक इच्छाएँ किलोल करती हैं और जहाँ पहुँचकर चेतन मन को अपनी असमर्थता पर निराशा होती है, मनुष्य को अपने ऊपर ग्लानि होती है।

साहित्य के अन्तर्मुखी प्रयोग और मनोविज्ञान के अन्तर्भेदी अनुसन्धान से जिस सत्य का पता चला है, वह सुखदायी नहीं है। आदमी के भीतर जितनी ही खुदाई की गई है, उतनी ही उससे दुर्गन्ध पैदा हुई है। आदमी जब तक गोपो-तोपो की नीति पर चलता था, तभी तक वह सुखी था। जब से उसने अपने मन का पर्दा उघार दिया, वह चिन्तित और विषण्ण हो गया है। आग से खेलने का अधिकार वैसे तो बहुत बड़ा अधिकार है, मगर, जो आग से खेलता है, उसे जलना भी पड़ता है। कला जीवन से जन्म लेती है, मगर वह जीवन को बनाती और बिगाड़ती भी है। प्रकृतवाद ने जब मनुष्य को यह बताया कि तू अब भी जीवधारी है, तू अब भी पशु है, तब मनुष्य में यह घबराहट नहीं जगी कि वह पशुता से ऊपर उठकर, असली मायनों में, मनुष्य बनने का प्रयास करे। बल्कि, अपने स्खलनों को स्वाभाविक मानकर उसने नियन्त्रण की लगाम कुछ और ढीली कर दी। विज्ञान का प्रभाव सर्वत्र एक ही रूप में पड़ रहा है। उससे हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है, मगर, आचरण में सुधार नहीं होता। उससे

हमारी शक्ति बढ़ती है, लेकिन, उस शक्ति के दुरुपयोग का लोभ हममें क्षीण नहीं ... होता। धर्म, नैतिकता तथा जीवन-सम्बन्धी दृष्टिबोध शायद उतने उपेक्षणीय नहीं हैं, जितने साहित्य में वे अब माने जा रहे हैं। - यह सब साहित्य में क्यों हुआ, इसे ठीक से समझ सकना बड़ा ही कठिन कार्य है। रोमांटिक युग तक साहित्य के भीतर, कहीं-न-कहीं, यह मान्यता मौजूद थी कि सौन्दर्य का सेवन वहीं तक उचित है, जहाँ तक स्वास्थ्य पर उसका दुष्प्रभाव नहीं पड़ता हो। किन्तु, रोमांसवादी युग के बाद साहित्य में मानवता के स्वास्थ्य की चिन्ता क्षीण होने लगी और यह ध्येय खुलकर मान लिया गया कि नए सौन्दर्य की खोज में कलाकार को कहीं भी जाने का नैसर्गिक अधिकार है। बोदलेयर ने लिखा था कि नवीनता की तलाश में हम स्वर्ग में घूमने, नरक में डूबने और अज्ञात में भटकने को तैयार हैं।

That we would roam through Heaven, descend to Hell, Deep in the unknown of find something New.

तब से कविता दिनों-दिन अज्ञात मन के स्वर्ग और नरक में, अधिक-से-अधिक दूर तक, डूबती रही है, यद्यपि स्वर्ग रिल्के और इलियट का है, जो अपेक्षाकृत रक्तहीन है और नरक उनका है, जो 'रूह को खाबीदा' और 'बदन को बेदार' करके संसार में यश लूट रहे हैं, बल्कि कई तो 'नोबुल-प्राइज-लौरियेट' कहला रहे हैं।

मार्क्सवादी विद्वानों की राय है कि साहित्य हमेशा समाज के अनुसार बदला करता है और इसमें सन्देह नहीं कि साहित्य को समझने में यह सिद्धान्त बहुधा हमारी सहायता करता है। किन्तु बोदलेयर, रेम्बू, मलार्मे आदि का आविर्भाव क्यों हुआ, यह रहस्य समाज की पृष्ठभूमि पर पूरी तरह नहीं खुलता। सबसे बड़ी सामाजिक घटना तो यह थी कि सन् 1848 ई. में पेरिस में समाजवादी क्रान्ति हुई थी। इसका स्वाभाविक प्रभाव यह होना चाहिए था कि कवि समाज की ओर जोर से मुड़ जाते। लेकिन परिणाम इसके ठीक प्रतिकूल हुआ-कविगण समाज से और भी दूर चले गए।

यदि विज्ञान की दृष्टि से देखें तो धरती सृष्टि का केन्द्र नहीं है, यह ज्ञान कोपरनिकस के समय से चला आ रहा था। हाँ, उन्नीसवीं सदी में दो घटनाएँ ऐसी अवश्य घटी, जिसका प्रभाव युग की पूरी विचारधारा पर पड़ सकता था। पहली घटना यह थी कि डारविन ने आदमी पर यह इलजाम लगाया कि वह बन्दर की सन्तान है। और दूसरी बड़ी घटना यह थी कि फ्रायड ने मनुष्य को यह बताया कि तुम्हारा अहम् (ईगो) अपने घर में भी स्वतन्त्र नहीं है। वह उन घटनाओं की अधूरी सूचनाओं से चालित होता है, जो तुम्हारे भीतर के देशों में अज्ञात रूप से घटित हो रही हैं। - साहित्य पर फ्रायड का प्रभाव उन्नीसवीं सदी में नहीं पड़ा था। लेकिन, प्रकृतवादी उपन्यासकार जिस दृष्टि से मनुष्य के आभ्यन्तर रूपों का अध्ययन कर रहे थे, उसका प्रभाव कवियों पर भी पड़ा होगा। लेकिन यह प्रभाव इतना अनिष्टकारी क्यों हुआ कि कविगण समाज से दूर चले गए? प्रकृतवादी उपन्यासकार तो अपने पाठकों को ध्यान में रखकर लिखते थे। फिर कवियों ने ही अपने श्रोताओं की उपेक्षा क्यों की?

यूरोप के कई आलोचकों का अनुमान है कि रोमांटिक कविता अभिजातीय। भावना की कविता थी। वैसी कविता लिखकर कवि समाज के अग्रणी तभी तक रह सकते थे, जब तक आभिजात्य का आदर और प्रभाव था। किन्तु जैसे-जैसे औद्योगिक क्रान्ति का प्रसार हुआ, समाज में सब कुछ लुढ़ककर जनसाधारण की ओर जाने लगा तथा जिस ऊँचाई पर पहले जमींदार घरानों के शिष्ट और सम्भ्रान्त लोग अवस्थित थे, उस पर, धन के बल से, व्यापारी वर्ग पहुँचने लगा। अब कवियों के सामने दो ही मार्ग थे। या तो वे अपनी ऊँचाई से उतरकर जनसाधारण के बीच आएँ अथवा व्यापारियों को अपना श्रोता समझें, जिनके भीतर अभी शिष्ट रुचि का विकास नहीं हुआ था। किन्तु, कवि ने इन दोनों में से कोई भी रास्ता पसन्द नहीं किया। जनसाधारण के बीच जाकर वह अपना आभिजात्य गँवाना नहीं चाहता था, न वह उन्हें अपने समकक्ष समझने को तैयार था, जो केवल धन के बल पर समाज में आदरणीय बनते जा रहे थे।

जैसे-जैसे समाज साधारणता से आक्रान्त होने लगा, वैसे ही वैसे, कवि अपने को और भी अभिजातीय समझने लगे। उनकी गजदन्त की मीनार. कुछ और ऊँची हो गई। अपनी रचना के विषय के लिए उन्होंने समाज की ओर देखना छोड़ दिया और ध्यान उनका प्रत्येक विषय के ऐसे पहलू पर जाने लगा, जिससे कला और कारीगरी में चमत्कार पैदा किया जा सकता था, जीवन से भले ही वह दूर अथवा असम्बद्ध हो। शैली उन्होंने एक खोज निकाली थी। विषय का महत्त्व उनके लिए उतना ही रह गया जितना कमीज टाँगने के लिए खूटी का होता है। धीरे-धीरे वे इस सिद्धान्त पर पहुँच गए कि सामान्य मानवीय चेष्टाओं की उपेक्षा करके हमें सौन्दर्य का एक नया लोक, भाषा और शब्द से, तैयार करना चाहिए, जो जनता के कर्म-लोक से श्रेष्ठ हो। कवियों में जब यह शक्ति नहीं रही. कि बदलते हुए समाज में वे अपने नीति-विधायक पद को अक्षुण्ण रख सकें, तब उन्होंने ठान लिया कि हम जादूगर बनकर समाज के मस्तक पर रहेंगे। मलार्म, वर्लन, रेम्बू और लफूर्ज भाषा और शब्दों की इसी जादूगरी को कविता का पर्याय समझते थे।

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में केवल वे ही साहित्यकार नहीं हुए, जो 'कला के लिए कला' वाले सिद्धान्त में विश्वास करते थे अथवा शैली पर जिनका विषय की अपेक्षा अधिक मोह था। इस काल में इंग्लैंड में मैथ्यू आर्नाल्ड का जन्म हुआ था, जो कविता को समाज की आलोचना बनाना चाहते थे, जो यह मानते थे कि कविता की रीढ़ शैली नहीं, विचार है। इसी काल में टॉलस्टॉय हुए, जो काल को नैतिकता के वृत्त से बाहर जाने देने को तैयार नहीं थे। और इसी युग में बर्नार्ड शॉ का भी जन्म हुआ, जिन्होंने अपने साहित्य में विचारों के आगे भावों को कभी कोई स्थान नहीं दिया। किन्तु, लगता है, ये महापुरुष परम्परा की सेना के सेनापति थे। उनकी ऊँचाई बहुत बड़ी और उनका आकार विशाल था, किन्तु, वे उस समय घटित होनेवाली कलात्मक क्रान्तियों के प्रतिनिधि नहीं हैं। क्रान्ति उस धारा के खिलाफ आई थी, जिस धारा ने टॉलस्टॉय, आर्नाल्ड और बर्नार्ड शॉ को जन्म दिया था। क्रान्ति की इस धारा ने असली प्रतिनिधि प्राउस्ट, फ्लाउबेयर, इशेन, जोला और नीत्शे थे।

बोदलेयर के साथ साहित्य में जो क्रान्ति उठी, उसका मुख्य उद्देश्य नवीनता की खोज, सौन्दर्य की रचना और आनन्द का उपभोग था। नैतिकता मुक्त आनन्द में बाधक थी, अतएव, कलाकारों ने प्रचलित नैतिक रिवाजों को मानने से इनकार कर दिया। वे अपरिचित और अछूते सौन्दर्य की सृष्टि करना चाहते थे, अतएव, उन्होंने उन सभी विषयों से मुँह मोड़ लिया, जो साहित्य के परिचित विषय रहे थे। कवियों में से कुछ ने तो शारीरिक सौन्दर्य को प्रमुखता दी और कविताओं में वे चित्रकारी करने लगे और कुछ ने काव्य के भीतर चिन्तन को प्रतिष्ठित करना आरम्भ किया। यह चिन्तन विचारों की स्थापना के लिए नहीं था क्योंकि विचार कविता से निष्कासित किए जा रहे थे प्रत्युत वह चिन्तन भावों के साथ लिपटी सूक्ष्म छायाओं के सन्धान के निमित्त था, उसका ध्येय अनुभूतियों के साथ लिपटी उन झंकारों को पकड़ना था, जो ध्वनि और संकेत के सिवा अन्य किसी भी यन्त्र से पकड़ी नहीं जा सकतीं।

भावों और विचारों के बीच कठोरता से विभाजन करने की जो प्रथा चली, उससे कविता दिनों-दिन अधिक अमूर्त होने लगी। विचार खूटे के समान होते हैं। उनसे बँधा कवि उतनी ही दूर तक जा सकता है, जितनी लम्बी जंजीर का उसने प्रबन्ध किया हो। किन्तु, भावना हवा में तैरनेवाली चीज है। केवल भावना के बल पर चलनेवाला मनुष्य कहाँ से कहाँ पहुँचेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं है। नवीन दर्शन में 'एब्सर्डिटी' का सिद्धान्त कदाचित् विचार और भावना के बीच इसी अति विभाजन से उत्पन्न हुआ है और कविता जो उतनी अधिक बौद्धिक हो गई, उसका भी कारण यही है कि विचारों के त्याग के बाद कविता के भीतर जो जगह खाली हुई, उसे भरने को कवियों को अत्यन्त कठोर चिन्तन करना पड़ा है।

जिस पस्ती और घोर नैराश्य के स्वर आज के बीटनिक और ऋद्ध युवकों के मुख से सुनाई देते हैं, उनसे मिलते-जुलते स्वर उन्नीसवीं सदी में भी सुनाई पड़े थे। अपने एक मित्र को पत्र लिखते हुए इब्सेन ने लिखा था कि "कभी-कभी मानवता का सारा इतिहास मुझे ऐसा दिखाई देता है, मानो, भरा जहाज बीच समुद्र में डूब रहा हो। ऐसी अवस्था में दूसरों के बचाने की बात नहीं उठती। असली चिन्ता यही होती है कि हम बचते हैं या नहीं।" इसी प्रकार का एक अन्य लेखक हरमैन कोनरेडी ने लिखा था, "हमारे युग की मृत्यु हो गई। महापुरुषों का समय समाप्त हो गया। हम सबके सब कमीने और छोटे लोग हैं। हम जो कुछ करते हैं स्वार्थ से करते हैं, किसी योजना के अधीन करते हैं और हमारी आत्मा हर समय कामिनी और कंचन के लिए तड़पती रहती है।"

नैतिकता का बन्धन तोड़ने में मजा तो है मगर, जब उसका फल सामने आता है, क्रान्तिकारी दर्शन उससे हमारी रक्षा नहीं कर सकता। नीत्शे ने बड़ी वीरता से घोषणा की थी कि ईश्वर की मृत्यु हो गई। किन्तु, बाद को चिन्तित होकर उन्होंने भी कहा था कि “ईश्वर की मृत्यु उस हस्ती की मौत है, जो संसार में सबसे बड़ी और सबसे पवित्र थी। मगर, इस घटना की महत्ता हम नहीं समझ रहे हैं क्योंकि उसकी तुलना में हमारा कद बहुत छोटा है। इस घटना की बराबरी हम तभी कर सकते हैं, यदि हम सबके सब ईश्वर बन जाएँ।"

जब तक जीवन साहित्य का ध्येय था, साहित्यिकों में निराशा की मात्रा न्यून, आशा और उमंग का भाव अधिक था। किन्तु, जीवन से मुख मोड़ते ही उनकी समस्या विकराल हो उठी। अब वे अपना सारा चमत्कार शब्दों के प्रयोग में दिखलाने लगे, अरूप भावों को रूपायित करने में प्रदर्शित करने लगे। भाषा या तो उनका साध्य बन गई अथवा उसका प्रयोग वे अतल में डूबी भावनाओं को पकड़ने के लिए करने लगे, जैसे झग्गड़ को कुएँ में डालकर खोई हुई बाल्टी निकाली जाती है। मलार्मे, वर्लेन, रेम्बू, नीत्शे और कार्ल क्रौस को पढ़ते समय यह स्पष्ट भासित होता है कि जिस वास्तविकता को अभिव्यक्त करने का ये कलाकार प्रयास कर रहे हैं, वह शब्दों से भागती है, भाषा में आने से इनकार करती है। किन्तु, तब भी ये कवि अपनी कल्पना को तानते हैं, अपने दिमाग पर जोर डालते हैं और अपनी शक्ति को वहाँ तक खींचते हैं, जहाँ उसके टूट जाने का खतरा हो सकता है। इन कवियों में जो असम्बद्धता दिखाई देती है, उसका भी एक कारण यही है कि इस रस्साकशी में भाषा चरमराकर टूट गई और पूर्वापर सम्बन्ध की कड़ियाँ विलुप्त हो गईं। यदि बात यहीं तक रुकती, तो वह उतनी दुखदायी नहीं होती। किन्तु, भाषा के साथ-साथ अनेक कवि खुद टूट गए, उनकी चेतना विलुप्त हो गई अथवा उसमें दरारें पड़ गईं, जिसके कारण उनमें से अनेक को जीवन-भर कष्ट भोगना पड़ा।

जर्मन कवि होल्डरलीन पागल हो गए थे। डॉक्टरों ने कहा था कि वे केवल तीन वर्ष और जिएँगे, किन्तु, पागलपन के साथ उन्हें 36 वर्ष जीना पड़ा।

फ्रांसीसी कवि जेरार द नेर्वाल को उन्माद की बीमारी हो गई और उसी अवस्था में उन्होंने आत्मघात किया।

चित्रकार वान गाग भी पागल हो गए थे और उसी अवस्था में उनकी मृत्यु हुई। नीत्शे सारे जीवन अर्ध-विक्षिप्तता से ग्रस्त रहे।

बोदलेयर जीवन-भर दरिद्रता, कर्ज, रोग और शोक से घिरे रहे। हूल वाल्टन ने उनके एक फोटो का उल्लेख किया है, जिसमें वे सनकी दिखाई देते हैं तथा जिसमें उनकी आकृति कड़वाहट और निराशा से भरी हुई है।

संसार के इतिहास में कविता के लिए रोटी, वस्त्र, भवन और परिवार के सुखों से वंचित रहने वाले लोग बहुत हुए थे। किन्तु, उन्नीसवीं सदी में आकर कला की ऊँची चढ़ाई को पार करने की कोशिश में कलाकारों ने अपनी चेतना का बलिदान दिया, अपनी कीर्ति की कुर्बानी दी, अपने जीवन का अपने ही हाथों अन्त कर डाला।

मन की दुनिया जहाँ तक छानी हुई है, वहीं तक सीमित रहनेवाले कलाकार सुखी और सकुशल रहते हैं। किन्तु, मन की जो गलियाँ अनुसन्धानित और अन्धकारपूर्ण हैं, उनके भीतर धंसनेवाले कलाकार का वही हाल होता है, जो कभी-कभी मोती खोजनेवाले गोताखोरों का होता है अथवा जो हाल पहले उन नाविकों का होता था, जो धरती के अज्ञात भागों का पता लगाने के लिए अपरिचित दिशाओं में निकल पड़ते । थे। जो भी चिन्तक संसार को परिचित से उठाकर सर्वथा अपरिचित धरातल पर ले जाना चाहता है, उसे इस अमानवीय कर्म का मूल्य चुकाना ही पड़ता है और जो चिन्तक कई पीढ़ियों का काम एक ही पीढ़ी में पूरा करना चाहता है, उसे यह मूल्य कुछ अधिक चुकाना पड़ता है। मानव-मन के निगूढ़ अन्तराल में छिपी जिस नई वास्तविकता को काबू में लाने के लिए इन कलाकारों ने भाषा के साथ बलात्कार किया, अपनी चेतना पर घातक वार झेले और अपने प्राणों का उत्सर्ग किया, वह वास्तविकता बीसवीं सदी के पूर्व ही साहित्य के अधिकार में आ गई। कवि और उपन्यास-लेखक, दोनों इस अनुमान . पर आगे बढ़े थे कि वास्तविकता का असली रूप मानसिक है, आभ्यन्तरिक है।

बीसवीं सदी के मनोवैज्ञानिकों की खोजों ने इस अनुमान को और भी पुष्ट बना दिया। यही नहीं, जब से परमाणु तोड़े गए हैं, तब से विज्ञान भी मानसिकता की ही ओर अग्रसर हो रहा है। सम्भव है, आगे चलकर यह प्रमाणित हो जाए कि जो कुछ हम देख रहे हैं, वह वास्तव में शून्य है, पोला है, कुछ नहीं के भीतर कुछ के होने का आभास है। सृष्टि कोई ठोस वस्तु नहीं, केवल कल्पना है।

विज्ञान की सफलता से भौतिकवादियों का यह विश्वास बढ़ गया था कि, चूंकि बाहर का आधिभौतिक जगत ठोस अणुओं का बना हुआ है, इसलिए, मन भी आधिभौतिक है और चेतना सूक्ष्म अणुओं की क्रिया का परिणाम है। किन्तु, परमाणुभंजन के बाद पता यह चला कि परमाणु ठोस नहीं हैं, वे पोले हैं। वे ऊर्जा हैं अथवा तरंग हैं। यह घटना संकेत देती है कि विज्ञान में भी हमारी प्रगति मानसिकता की ओर है।

भौतिकवादी लोग यह भी मानते थे कि देश और काल की सत्ताएँ अलग-अलग और स्वतन्त्र हैं। किन्तु, नई भौतिकी समझती है कि बात ऐसी नहीं है। देश और काल मिलकर, कहीं-न-कहीं, एकाकार हैं। उसी एकता से हमारे मन ने, अपनी सुविधा के लिए, देश और काल को तोड़कर अलग-अलग कर लिया है। यह भी विज्ञान के मानसिकता की ओर गमन करने का ही संकेत है।

भौतिकवादी मानते थे कि शून्य ठोस कणों से पूर्ण है। ये कण विद्युत्, चुम्बक अथवा गुरुत्वाकर्षण से परस्पर खिंचे हुए हैं और यही खिंचाव उनकी गतियों का निर्धारण करता है। किन्तु, सापेक्षवाद का सिद्धान्त अब यह बतलाता है कि विद्युत् और चुम्बक की शक्तियाँ वास्तविक नहीं हैं। वे हमारी अपनी कल्पना के निर्माण हैं। गुरुत्वाकर्षण की शक्ति और मोमेंट्स के सिद्धान्त हमारे मन की रचनाएँ हैं। संसार अगर केवल यान्त्रिक और आधिभौतिक होता, तो विज्ञान की भाषा इंजीनियर और मैकेनिक की भाषा होती, जैसा आज तक होता आया था। मगर, नई भौतिकी की हर ऊँची बात अब गणित के फार्मूलों में कही जा रही है। यह मानसिकता की ओर गमन नहीं तो और क्या है? विज्ञान का हर कदम अब कण से तरंग की ओर उठ रहा है, आधिभौतिकता से मानसिकता की ओर जा रहा है। ब्रह्मांड का जो नया चित्र भौतिकी ने खींचा है, उसमें तरंग ही प्रधान है तथा उस तरंग के अवयवों के विषय में हमारी जो धारणा बनी है, वह मानसिक है। . नई कविता इसी वैज्ञानिक युग की कविता है और उन्नीसवीं सदी के फ्रांसीसी कवि इस श्रेय के अधिकारी हैं कि अपनी सम्बुद्धि के बल से वास्तविकता के मानसिक अथवा आन्तरिक रूप पर उन्होंने उस समय जोर देना आरम्भ किया, जब विज्ञान निरा यान्त्रिक था और संसार को वह यन्त्र समझता था। संसार यन्त्र तो शायद अब भी है, किन्तु, अब यह नहीं कहा जा सकता कि यह यन्त्र ठोस है अथवा उसके भीतर ऐसी घटनाएँ नहीं घटतीं, जो बुद्धि और यन्त्र की पहुँच के पार न हों। - तब भी उन्नीसवीं सदी में ये कवि शंका से देखे जाते थे। बेलजाक के साथ एक काल्पनिक वार्तालाप में हाफमेंस्थाल के बेलजाक के मुख से कहलवाया था__“सन् 1890 ई. के आसपास हम कवियों की मानसिक विक्षिप्तता के दृश्य देखेंगे। उनकी संवेदनशीलता अत्यन्त विकराल हो उठेगी। वे ऐसी घड़ियों से गुजरेंगे, जो भयानक निराशा और पस्ती की घड़ियाँ होंगी। तुच्छ से तुच्छ वस्तुओं के भीतर उन्हें बड़े-बड़े प्रतीक दिखाई देंगे और अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए उन्हें कोई शब्द उपयुक्त नहीं प्रतीत होगा। और इस सबका परिणाम होगा एक सार्वभौम अस्वास्थ्य, जिसमें उच्च वर्ग के युवक और युवतियाँ गिरफ्तार हो जाएँगे।"

इस सार्वभौम अस्वास्थ्य का सारा जहर होल्डरलीन, नेर्वाल, वान गाग, बोदलेयर, मलार्मे, रेम्बू और नीत्शे ने खुद पी लिया। अपने उत्तराधिकारियों के पास भेजने के पूर्व ही उन्होंने इस नई वास्तविकता पर पूरा अधिकार पा लिया था। अब उस वास्तविकता पर काम करने के लिए किसी भी कवि या कलाकार को पागल होने की जरूरत नहीं होगी।

कहानियाँ और अन्य गद्य कृतियाँ : रामधारी सिंह दिनकर

संपूर्ण काव्य रचनाएँ : रामधारी सिंह दिनकर