श्रीमती की कुमति (बांग्ला कहानी) : शिवराम चक्रवर्ती
Shrimati Ki Kumati (Bangla Story) : Shibram Chakraborty
डालू मौसी के घर गया था। चाय की प्याली उठाते ही टेलीफोन की घंटी बजी। 'तुम्हारा फ़ोन है शिवराम दा। बिनि दी ने कीया है।' रिसीवर को टेबल पर रखते हुए पल्लव ने कहा।
'हेलो बिनि, कहां से बोल रही हो?'
‘घर से, बड़ी समस्या उठ खड़ी हुई है। गज़ब हो गया है।'
'बोल जल्दी, क्या हुआ है?'
'तुम्हारे पलंग के ऊपर ...।'
'मेरे पलंग पर... क्या हुआ है? बोल न।'
'कैसे बतलाऊं, मुझे डर लग रहा है। तुम्हारे पलंग पर बैठी है।'
'क्या बिल्ली? जल्दी भगा दे, नहीं तो कुछ कर बैठेगी।'
'चार पैर वाली नहीं।'
'ठीक से समझाकर बोल न बिनि।'
मुझे डर लगता है। इसके अलावा मुझे फुर्सत भी नहीं है। मैं कॉलेज जा रही हूँ।' कह कर बिनि ने फ़ोन रख दिया।
डालू मौसी से बिदा लेकर, मेनरोड से टैक्सी लेकर घर पहुंचकर डरते डरते सीढ़ी से ऊपर चढ़कर अपने शयन कक्ष की ओर चला। दरवाजे के पास पहुँचते ही खर्राटे की आवाज़ आयी। पैर दबा दबा कर कमरे में घुसा। देखा मेरे कमरे में ही मेरे ही पलंग पर मेरा ही कम्बल ओढ़कर कोई सोया हुआ है। सिर से पैर तक कम्बल से ढका हुआ था।
लेकिन यह है कोई नारी ही, यह मुझ जैसा अनाड़ी भी समझ गया। लेकिन है कौन? संपूर्ण शरीर कम्बल से ढका हुआ था, केवल पैर के ही दोनों गोरे गोरे तलवे ही बाहर सुशोभित हो रहे थे। शास्त्रों के अनुसार पहले देवियों का पदरचन कर के ही कृपा पात्र बना जा सकता है, सो मैंने भी उसी सिद्धांत का पालन कर पैरों के तालु मैं हलकी गुदगुदी की। कम्बल के राज्य में भूकंप होने लगा। झटपट उठ कर वह बिस्तरे पर बैठ गयी।
'शिवराम दा तुम?'
'लेकिन तुम कौन हो?'
'तुमने मुझे पहचाना नहीं? मैं हूँ प्रेमिला। भूल गए मेरे जन्म दिन पर तुमने मुझे....।'
'अरे प्रमिला, तू इतनी बड़ी हो गयी है?'
'और क्या? अब में उस दिन की नन्हीं सी बच्ची नहीं हूँ, मेरी उम्र १४ साल की हो चुकी है। अगर साड़ी पहन लू तो फिर देखो मुझे, है साड़ी? दो न, पहन कर तुम्हें दिखलाऊँ।'
'मेरे पास तो नहीं है, बिनि के बक्से में होगी, उसे कॉलेज से आने दो। अब बतलाओ कैसे आना हुआ? क्या इधर कहीं कोई काम था? '
'नहीं, में हॉस्टल से भाग कर आयी हूँ।'
'किसके साथ?'
'किसी के साथ नहीं, अकेले ही भाग आयी हूँ।'
'लड़कियां अकेली भाग सकती हैं इसपर मैं विश्वास नहीं करता, लड़के घर से अकेले ही भागते हैं, पर लड़कियां किसी को साथ लिए बिना एक कदम भी बाहर नहीं रख सकती है। '
देवताओं के टो-टोक अकेले ही घूमने पर देवबिवीयों ने हर एक के कोई न कोई बहाने अवश्य ही है।' यहां तक कि बसंत (चेचक) की देवी शीतला के लिए भी एक गधा चाहिए। मेरे पूछने का मतलब था, गधा कहां है? बिचारा वह लड़का क्या गली के मोड़ पर ही खड़ा है?'
'लड़का? कौन लड़का? लड़का तो तुम ही हो, तुम्हारे लिए तो मैं हॉस्टल से भाग आयी हूँ। अब वहां लौट कर नहीं जाउंगी।'
'यह क्या कह रही हो?'
'मैं सच कह रही हूँ। तुमसे मैं शादी करना चाहती हूँ शिवराम दा। '
'तुम पागल तो नहीं हो गयी हो? क्या भाई - बहन में कभी शादी हो सकती है?'
'सगे भाई - बहन में नहीं हो सकती है, पर मैं तो....।'
'यह नहीं हो सकता।‘
'शिवराम दा, तुम मुसलमान बन जाओ।'
'क्यों, किस लिए?'
'मैं भी हो जाउंगी। उन लोगों में तो यह झंझट नहीं है।'
'यह सब पागलपन की बातें छोड़ो और हॉस्टल जाकर मन लगा कर पढ़ो।'
'मैं हरगिज़ हॉस्टल नहीं लौटूंगी।'
'तो क्या तुम सचमुच शादी किये बिना छोड़ोगी नहीं? अच्छा ठीक है। पर उसकी सारी व्यवस्था भी तो करनी होगी। फिर जाऊँ काली घाट जाकर इसकी सारी व्यवस्था कर आऊं।'
'काली घाट! काली घाट क्यों? '
'हमलोगों कि शादी तो कन्यादान करके हिन्दू रीति से नहीं हो सकती है। होगा गन्धर्व विवाह। ऐसी शादियां काली घाट में ही होती हैं।'
'कोई बात नहीं, शादी तो हो जाएगी न?'
'पर मंत्र पढ़ कर नहीं, माथे में सिन्दूर डाल कर।'
'उससे क्या? केवल शादी होने से ही मतलब है।'
'इस तरह की शादी के रीति रिवाज़ तो मुझे मालूम नहीं, काली घाट में पंडितजी को फ़ोन करके पता लगाना होगा।'
कह कर मैंने टेलीफोन का रिसीवर उठाया 'हेलो, पंडितजी? नमस्कार! आज आप एक शादी कि वयवस्था कर सकते हैं? हाँ आज ही। होगी न? क्या क्या करना होगा? हाँ, हाँ, हाँ, हाँ, अच्छा।'
'पंडितजी ने कहा - पहले प्रायश्चित करना होगा, पांच गव्य खा कर।'
'क्यों, प्रायश्चित क्यों?'
'भाई - बहन की शादी होना पाप जो है। इसलिए पहले प्रायश्चित करके, उस पाप का खंडन करके ही शादी हो सकती है, वरना नहीं।'
'तुम्हें भी करना होगा?'
'मुझे क्यों करना होगा? मैं तो तुम से शादी नहीं कर रहा हूं। तुम मुझसे जबरदस्ती शादी कर रही हो। पाप तो तुम्हारा है, इसलिए प्रायश्चित तुम्हें ही करना होगा।'
'ठीक है, मैं प्रायश्चित करने के लिए तैयार हूं। क्या-क्या करना होगा?'
'हेलो पंडितजी, प्रायश्चित कैसे करना होगा? पंचगव्य खा कर? पंचगव्य शादी से पहले ही खाना होगा? दही, दूध, घी, गोबर और गोरचन? मात्रा क्या होनी चाहिए? कितना-कितना खाना होगा? अच्छा।'
'हा सुनो, पंडितजी ने कहा है यह सब एक-एक छटांक के परिमाण में मिला कर तुम्हें खाना होगा।'
'गोबर खाना होगा?'
'अधिक नहीं, केवल एक ही छटांक तो, दही, दूध, घी के साथ मिला कर किसी तरह नाक बंद करके निगल जाना।
'आयाक...।'
'अरे, अभी से तुम्हें उलटी आ रही है? उलटी आने से तुम्हें प्रायश्चित नहीं होगा।'
'हेलो पंडितजी, खाते-खाते अगर उलटी कर दें तो?' अच्छा, फिर से खाना होगा? अच्छा फिर दो-दो छटांक कर के, मतलब आप कह रहे हैं कि आधा पाव गोबर खाना होगा। अच्छा पंडितजी, और क्या-क्या करना होगा? विवाह के पूर्व लड़की का नए उस्तरे से मुंडन करना होगा। जी, क्या कहा? नयी चोली पहननी होगी? और क्या-क्या? गले और हाथ में रुद्राक्ष कि मालाएं पहननी होगी!'
'क्या, मुझे भैरवी का रूप धारण करना होगा?'
'काली घाट कि शादी कोई ऐसी वैसी शादी नहीं हैं, माँ को चढ़ाकर ही शादी होगी।'
'हेलो पंडितजी, सब ठीक है। मैं सारी व्यवस्था करके शाम को लड़की को संग ले कर ही आ जाऊंगा। नया उस्तरा तो मैं कहीं से ले आऊंगा, पर आप जरा एक नाई की व्यवस्था कर लीजियेगा, अच्छा, नमस्कार!'
'क्या मुझे बेलमुंडा होना पड़ेगा?'
'क्या पंडितजी ने झूठ कहा है? बाल उगने में कितनी देर लगती है? अच्छा तुम नहा धोकर खाना खाकर तैयार हो जाओ। में झटपट बाजार चला जाता हूं। सारी चीज़ें जुटा लाऊँ। दही, दूध, घी तो मिल जायेगा, पर गोबर मिलना ही मुश्किल है। गोबर न मिलने से गोहरी खाने से काम चलेगा या नहीं, पंडितजी से पूछना भूल गया। जब कॉलेज से बिनि आ जाये, तुम उसके साथ जाकर ठन-ठन के बाजार से लाल चोली ले आना। यह तो नई मार्किट में ही मिलेगी। अच्छा अब मैं जाता हूं।' कह कर जल्दी से मैं निकल गया। रात होने से पहले ही घर लौटा। सीढ़ी पर बिनि से भेंट हो गयी। डरते -डरते पूछा - 'कहां है वह?'
'कौन प्रमिला? वह तो उसी समय हॉस्टल चली गयी।'
(अनुवाद : डॉ. शोभा घोष)