श्रीकान्त (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
Shrikant (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay
अध्याय 6
उस दिन फिर मेरा जी न चाहा कि नीचे जाऊँ, इसलिए, नन्द और टगर के युद्ध का अन्त किस तरह हुआ- सन्धि-पत्र में कौन-कौन-सी शर्तें निश्चित हुईं, सो मैं कुछ नहीं जान पाया। परन्तु, बाद में देखा कि शर्तें चाहे जो हों, विपत्ति के समय वह 'स्कैप ऑफ पेपर' (कागज का रद्दी टुकड़ा) किसी काम नहीं आता। जब जिसे जरूरत होती है, खिलवाड़ की तरह उसे फाड़ फेंकता है और दूसरे का ब्यूह भेद कर डालता है। बीस बरस से ये दोनों यही करते आए हैं तथा और भी बीस बरस तक ऐसा न करते रहेंगे, इसकी शपथ स्वयं विधाता भी नहीं ले सकेंगे।
सारे दिन तो आकाश में बादलों के टुकड़े यहाँ से वहाँ घूमते रहे; परन्तु, अब शाम के लगभग एक गहरा काला बादल सारे क्षितिज को ढँककर धीरे-धीरे सिर उठाकर, ऊपर आने लगा। मालूम हुआ कि खलासियों के मुँह और ऑंखों पर मानो घबराहट की छाया आ पड़ी है। उनके चलने-फिरने में भी मानो एक प्रकार के घबराहट के चिह्न नजर आने लगे हैं जो इसके पहले नहीं थे।
एक बूढ़े-से खलासी को बुलाकर पूछा, “अजी चौधरी, आज रात को भी क्या कल ही के समान ऑंधी आवेगी?”
विनय से चौधरीजी वश में हो गये। खड़े होकर बोले, “मालिक, नीचे चले जाइए; कप्तान ने कहा है, साइक्लोन (= बण्ण्डर) उठ सकता है।”
पन्द्रह मिनट बाद ही देखा कि उसका कथन निर्मल नहीं है। ऊपर जितने भी यात्री थे उन सबको खलासी लोग एक तरह से जबरन 'होल्डर' में उतारने लगे। दो-चार लोगों के आपत्ति करने पर सेकण्ड ऑफिसर ने खुद आकर उन्हें धक्के मारकर उठा दिया और उनके बिस्तर वगैरह लातों से हटाना शुरू कर दिया। मेरा ट्रंक, बिस्तर आदि तो खलासी लोग झटपट नीचे उठा ले गये; किन्तु, मैं खुद एक तरफ खिसक गया। मैंने सुना कि सबको- अर्थात् जो हतभागे दस रुपये से अधिक किराया नहीं दे सकते थे उन्हें- उस जहाज के गर्भ-गृह में भर के उसका मुँह बन्द कर दिया जायेगा। उनकी खैरियत के लिए यही एक उपाय था।
किन्तु, मुझे खुद अपने लिए खैरियत की यह व्यवस्था किसी तरह पसन्द नहीं आई। इसके पहले साइक्लोन नामक वस्तु को समुद्र में तो क्या, जमीन पर भी नहीं देखा था। कैसा इसका उपद्रव होता है, कैसा इसका स्वरूप है और अमंगल करने की कितनी इसकी शक्ति है, मैं बिल्कुहल नहीं जानता था। मन ही मन सोचने लगा कि मेरे भाग्य से यदि ऐसी वस्तु का आविर्भाव होना सन्निकट ही है, तो फिर उसे बगैर अच्छी तरह देखे नहीं छोडूँगा। भाग्य में जो बदा हो सो हो। और तूफान में यदि जहाज डूबना ही है, तो इस तरह प्लेग के चूहे की तरह पिंजरे में कैद होकर और सिर पटक-पटककर खारे पानी में क्यों मरूँ? इसकी अपेक्षा जब तक बने, हाथ-पाँव हिलाकर, लहरों के हिंडोले पर झूलते-उतराते हुए एक गोता लगाकर पाताल के राजमहल का अतिथि होना अच्छा। किन्तु, यह उस समय मुझे मालूम न था कि राजा का जहाज आगे-पीछे लाखों-करोड़ों हिंस्र अनुचरों के बगैर काले पानी में एक डग भी नहीं चलता और उन्हें लोगों का कलेवा कर डालने में घड़ी-भर की देर नहीं लगती।
बहुत समय से थोड़ी-थोड़ी वृष्टि हो रही थी। शाम के लगभग हवा और वृष्टि दोनों का ही वेग बढ़ गया। यह हालत हो गयी कि भाग निकलने की भी कोई जुगत न रही। जहाँ भी मिले सुविधानुसार एक आश्रय-स्थान खोजे बगैरे काम नहीं चल सकता। शाम के अंधेरे में जब मैं अपने स्थान पर वापिस आया तब ऊपर का डेक निर्जन हो गया था। मस्तूल के पास उचककर देखा कि ठीक सामने ही बूढ़ा कप्तान हाथ में दूरबीन लिये ब्रिज के ऊपर यहाँ से वहाँ दौड़ रहा है। इस डर से कि एकाएक उसकी शुभ दृष्टि में पड़कर फिर से, इतने कष्ट के बाद भी, दुबारा उसी गव् में न घुसना पड़े, एक ऐसी जगह खोजने लगा जहाँ सुभीते से बैठ सकूँ। खोजते-खोजते आखिर एक जगह मिल गयी जिसकी कि मैंने पहले कभी कल्पना भी नहीं की थी। एक किनारे बहुत-सी भेड़ों, मुर्गियों और बत्तखों के पिंजड़े एक के ऊपर एक गँजे हुए थे। उछलकर मंब उन्हीं के ऊपर बैठ गया। जान पड़ा, ऐसी निरापद जगह शायद जहाज भर में और कहीं नहीं है। किन्तु, तब भी बहुत-सी बातें जानना बाकी थीं।
वृष्टि, हवा अन्धकार और जहाज का झूलना- ये सभी धीरे-धीरे अधिकाधिक बढ़ने लगे। समुद्र की लहरों का आकार देखकर मैंने मन ही मन सोचा, यही है शायद वह साइक्लोन; किन्तु वह सागर के समीप सिर्फ गौ के खुर के गढ़े के समान ही था, इस बात को अच्छी तरह हृदयंगम करने के लिए मुझे और भी थोड़ी देर ठहरना पड़ा।
एकाएक छाती के भीतर तक कँपकँपी पैदा करता हुआ जहाज का भोंपू बज उठा। ऊपर की ओर ताका तो जान पड़ा, मानो किसी मन्त्र के बल से आकाश का चेहरा ही बदल गया है। वे बादल अब नहीं रहे- मालूम हुआ कि सब तरफ से छिन्न-भिन्न होकर जैसे सम्पूर्ण आकाश हलका होकर कहीं ऊपर की ओर उड़ा जा रहा है। दूसरे ही क्षण समुद्र के एक प्रान्त से एक ऐसा विकट शब्द तेजी से आकर कानों में पैठ गया कि मैं नहीं जानता, उसकी किसके साथ तुलना करूँ।
लकड़पन में अंधेरी रातों में दादी की छाती से लगकर एक कहानी सुना करता था। किसी राजपुत्र ने डुबकी लगाकर तालाब के भीतर से एक चाँदी की डिबिया निकाली थी और उसमें बन्द सात सौ राक्षसियों के प्राणरूप एक सोने के भौंरे को चुटकी से मसलकर मार डाला था। फिर वे सात-सौ राक्षसियाँ मृत्यु यन्त्रणा से चीखती चिल्लाती हुईं सारी पृथ्वी को पैरों के बोझ-से कुचलतीं चूर्ण-विचूर्ण करतीं दौड़ आई थीं। वैसा ही यह भी कहीं कोई विप्ल्व-सा हो रहा है, ऐसा जान पड़ा; परन्तु, इस दफे सात सौ करोड़ राक्षसियाँ हैं- वे उन्मत्त भाव से कोलाहल करती हुई इसी ओर दौड़ी आ रही हैं। आ भी पड़ीं- राक्षसियाँ नहीं, परन्तु, तूफानी हवाएँ। तब मैंने सोचा कि इनकी अपेक्षा तो उन राक्षसियों का आना ही कहीं अच्छा था।
इस दुर्जेय वायु की शक्ति का वर्णन करना तो बहुत दूर की बात है, समग्र चेतना से अनुभव करना भी मानो मनुष्य के सामर्थ्य के बाहर है। सम्पूर्ण ज्ञान-बुद्धि को लुप्त करके केवल एक ही धारणा मेरे मन के भीतर अस्पष्ट और निस्संदिग्ध रूप से जागती रह गयी, कि दुनिया की मियाद एकबारगी खत्म होने में अब और कितनी-सी देर है। पास में ही जो एक लोहे का खूँटा था, गले की चादर से मैंने अपने आपको उसी से बाँध रक्खा था। प्रत्येक क्षण मेरे मन में यही खयाल उठने लगा कि बस मुझे यह हवा इस दफे ही खूँटे से छुड़ा देगी और उड़ा ले जाकर समुद्र में जा पटकेगी।
एकाएक जान बड़ा कि काला पानी मानो भीतर के धक्कों से घरघराता हुआ क्रम-क्रम से जहाज के ऊपर चढ़ रहा है। दूर को ऑंख उठाई तो उस तरफ से दृष्टि को पुन: वापस न लौटा सका। एक दफे जान पड़ा वह तो कोई पड़ाव है, किन्तु दूसरे ही क्षण जब भ्रम भंग हुआ तब हाथ जोड़कर मैंने कहा, “भगवान, जैसे तुमने ये दोनों नेत्र दिए थे, वैसे ही आज इन्हें सार्थक भी कर दिया। इतने दिनों तक तो संसार में सर्वत्र ही ऑंखें खोले घूमता फिरा हूँ। किन्तु, तुम्हारी इस सृष्टि की तुलना तो कहीं भी नहीं देखी थी। जहाँ तक दृष्टि पहुँचती है एक अचिन्तनीय विराट्काय महातरंग सिर पर चाँदी-सा शुभ्र किरीट धारण किये तेज चाल से आगे बढ़ती हुई आ रही है। जगत में और भी क्या कोई इतना बड़ा विस्मय है?”
समुद्र में न जाने कितने लोग आया-जाया करते हैं; मैं खुद भी तो कितनी ही दफे इस रास्ते गया-आया हूँ; किन्तु ऐसा दृश्य तो पहले कभी कहीं नहीं देखा था। इसके सिवाय, जिस मनुष्य ने ऑंखों नहीं देखा, उसे समझाकर यह बताना कल्पना के बाप के लिए भी सम्भव नहीं कि पानी की लहर किसी तरह इतनी बड़ी हो सकती है!
मन ही मन बोला, हे तरंग-सम्राट! तुम्हारी टक्कर से हमारा जो कुछ होगा, उसे तो हम जानते ही हैं, किन्तु, अब भी तो तुम्हें यहाँ तक आ पहुँचने में आखिर आधा मिनट की देर है, तब कम से कम उतने समय तक तो मैं अच्छी तरह जी-भरकर तुम्हारे कलेवर को देख लूँ।
यह भाव किसी वस्तु की सुविपुल ऊँचाई और उससे भी अधिक विस्तार देखकर ही इस तरह मन में उत्पन्न नहीं हुआ करता, क्योंकि यदि ऐसा हो तो इसके लिए हिमालय का कोई भी अंग-प्रत्यंग यथेष्ट है। किन्तु, जो यह विराट व्यापार सजीव के समान दौड़ा आ रहा है, उसकी अपरिमेय शक्ति की अनुभूति ने ही मुझे अभिभूत कर डाला।
किन्तु, समुद्र-जल के टकराने से जो एक तरह की ज्वाला सी बार-बार चमक उठती है वह ज्वाला विचित्र रेखाओं में यदि इसके सिर पर न खेलती होती तो गम्भीर कृष्ण जल-राशि की विपुलता को मैं इस अन्धकार में शायद उस तरह न देख पाता। इस समय जितनी भी दूर तक मेरी दृष्टि जाती है उतनी ही दूर तक इस आलोक-माला ने मानो छोटे-छोटे प्रदीपों को जलाकर इस भयंकर सौन्दर्य का चेहरा मेरी ऑंखों के सामने खोल दिया है।
जहाज का भोंपू असीम वायु-वेग से थरथर काँपता हुआ लगातार बजने लगा और भयार्त्त खलासियों का दल अल्लाह के कानों तक अपना आकुल आवेदन पहुँचा देने के लिए गला फाड़-फाड़कर एक साथ चिल्लाने लगा।
जिसके शुभागमन के निमित्त इतना भय, इतनी चीख-पुकार- इतना उद्योग-आयोजन हो रहा था, वह महातरंग आखिर आ पहुँची। एक प्रकाण्ड प्रकार की उलट-पलट के बीच हरवल्लभ के समान मुझे भी पहले जान पड़ा कि निश्चय से ही हम डूब गये हैं; इसलिए, दुर्गा का नाम जपने से अब और क्या हो सकता है। आस-पास ऊपर-नीचे, चारों ओर काला जल ही जल है! जहाज समेत सब लोग पाताल के राजमहल में निमन्त्रण खाने जा रहे हैं, इसमें अब कोई सन्देह नहीं रहा। इस समय चिन्ता केवल यही है कि खाना-पीना आदि वहाँ न जाने किस किस्म का होगा।
किन्तु, करीब मिनट-भर बाद ही दिखाई दिया-नहीं, डूबे नहीं हैं, जहाज समेत हम सब केवल जल के ऊपर उतरा रहे हैं। इसके सिवाय लहर के ऊपर लहर आना भी खत्म नहीं हुआ है, इसलिए हम लोगों का हिंडोला झूलना भी समाप्त नहीं हुआ है। इतनी देर के बाद अब पता लगा कि क्यों कप्तान-साहब ने लोगों को जानवरों के समान गढ़े में डालकर ताला लगवा दिया है। डेक के ऊपर से बीच-बीच में मानो जल की धारा बह जाने लगी। मेरे नीचे की बत्तखें और मुर्गियाँ कितनी ही दफे फड़फड़ाकर और भेड़ें कई बार 'मैं-मैं' करके भव-लीला समाप्त कर गयीं। सिर्फ मैं ही उनके ऊपर आश्रय ग्रहण किये, लोहे के ख्रुंटे को जोर से पकड़े हुए, अपनी भव-लीला सुरक्षित बनाए रहा।
किन्तु, इसी समय एक और प्रकार की आफत आ जुटी। केवल जल के छींटे ही मेरे शरीर में सुई की तरह छिद रहे हों सो बात नहीं- समस्त कपड़े और धोती के भीग जाने से और प्रचण्ड वायु से इतनी ठण्ड लगने लगी कि दाँत कटकट बजने लगे। खयाल आया, कि हाल जल में डूबने से तो किसी तरह बच भी सकता हूँ, किन्तु निमोनिया के हाथ से किस तरह परित्राण पाऊँगा? और, यह तो मैंने नि:संशय अनुभव किया कि इसी तरह यदि और भी कुछ देर बैठा रहूँगा तो परित्राण पाना सचमुच ही असम्भव हो जायेगा। इसलिए जिस तरह भी हो, इस स्थान का परित्याग करके किसी ऐसी जगह आश्रय लेना चाहिए जहाँ कि जल के छींटे बर्छी के फल की तरह शरीर में न चुभें। एक बार सोचा कि भेड़ों के पिंजरे में घुस जाऊँ तो कैसा हो! किन्तु वह भी कितना सुरक्षित है? उसके भीतर यदि खारे जल की धारा प्रवेश कर जाय तो ठीक 'मैं-मैं' करके न सही, पर 'माँ-माँ' करके अन्त में अवश्य ही इह-लीला समाप्त करनी पड़ेगी।
सिर्फ एक उपाय है। जहाज जब पार्श्व-परिवर्तन करता है तब भागने का कुछ मौका मिल जाता है; इसलिए, उस समय यदि कहीं जाकर घुस सकूँ तो शायद जान बच जाय। जो सोचा, वही किया। किन्तु पिंजरों पर से नीचे उतरकर, तीन बार दौड़कर, और तीन बार बैठकर, किसी तरह जब मैं सेकण्ड क्लास के केबिन के द्वार पर पहुँचा, तब देखा, द्वार बन्द है। लोहे के किवाड़ों ने हजार धक्का-मुक्की करने पर भी रास्ता नहीं दिया। इसलिए, वही रास्ता फिर उसी तरह तय करके मैं फर्स्ट क्लास के दरवाजे पर आ उपस्थित हुआ। इस दफे भाग्य देवता ने सुप्रसन्न होकर एक निराले कमरे में आश्रय दे दिया; और जरा भी दुविधा न करके मैं किवाड़ बन्द करके पलंग पर जा सोया।
रात के बारह बजे के भीतर तूफान तो थम गया, किन्तु समुद्र का गुस्सा दूसरे दिन भोर तक भी शान्त न हुआ।
मेरे सामान का और साथी मुसाफिरों का क्या हाल हुआ, और, खास तौर से सपत्नीक मिस्रीजी ने किस तरह रात बितई, यह जानने के लिए सुबह मैं नीचे उतर गया। कल नन्द मिस्री ने जरा दिल्लगी करते हुए कहा था कि “बाबूजी, साढ़े बत्तीस प्रकार के चबेने के समान हम लोग आपस में गड्डमड्ड हो गये थे और अभी ही कुछ देर हुई, सब कोई अपनी-अपनी जगह आकर बैठे हैं।” आज का गड्डमड्ड साढ़े बत्तीस प्रकार में गिना जा सकता है या नहीं, सो मुझे नहीं मालूम; किन्तु, इस समय तक कोई भी अपने निजी स्थान पर लौटकर न आने पाया था यह मैंने अपनी ऑंखों देखा।
उन लोगों की व्यवस्था देखने पर सचमुच ही रुलाई आने लगी। इन तीन-चार-सौ यात्रियों में से किसी के समर्थ रहने की बात तो दूर-शायद, अक्षत भी कोई नहीं बचा था।
औरतें सिल पर जिस तहर लोढ़े से मसाला बाँटती हैं, कल का साइक्लोन इन तीन-चार सौ लोगों का ठीक उसी तरह सारी रात मसाला बाँटता रहा। सारे माल-असबाब के सहित-बक्स-पेटियों आदि के सहित ये सब लोग रात-भर जहाज के इस किनारे से उस किनारे तक लुढ़कते फिरे हैं। वमन तथा अन्य दो क्रियाएँ इतनी अधिक की गयी हैं कि दुर्गन्ध के मारे खड़ा होना भी भारी हो रहा है और इस समय डॉक्टर बाबू जहाज के मेहतर और खलासियों को साथ लिये इन लोगों का 'पंकोद्धार' करने की व्यवस्था कर रहे हैं।
डॉक्टर बाबू ऊपर से नीचे तक मेरा बार-बार निरीक्षण करके शायद मुझे सेकण्ड क्लास का मुसाफिर समझ बैठे थे, फिर भी, अत्यन्त आश्चर्य के साथ बोले, “महाशय तो खूब ताजे दिख रहे हैं; जान पड़ता है कि आराम करने के लिए कोई हैमॉक (भ्उउवबा= जहाज पर रहनेवाला एक तरह का एक झुलन-खटोला) पा गये थे, क्यों न?”
“हैमॉक कहाँ से पाता महाशय, पाया था एक भेड़ों का पिंजरा। इसीलिए तरो-ताजा दीख रहा हूँ।”
डॉक्टर बाबू मुँह फाड़कर मेरी ओर ताकते रह गये। मैं बोला, “डॉक्टर बाबू, यह अधम भी इसी नरक-कुण्ड का यात्री है। किन्तु, कमजोर होने के सबब यहाँ घुस न सका- शुरु से ही डेक के ऊपर रहा आया। कल साइक्लोन की खबर पाकर कुछ देर भेड़ों के पिंजरों के ऊपर बैठकर, और रात को फर्स्ट क्लास के एक कमरे में अनधिकार प्रवेश करके आत्मरक्षा कर सका हूँ। क्या कहते हैं आप, मैंने कुछ अनुचित तो नहीं किया?”
सारा इतिहास सुनकर डॉक्टर बाबू इतने प्रसन्न हुए कि उसी क्षण उन्होंने मुझे अपने निजी कमरे में बाकी दो दिन काटने के लिए सादर निमन्त्रण दे दिया। अवश्य ही उस निमन्त्रण को मैं स्वीकार नहीं कर सका- केवल एक चेयर मैंने उनसे ले ली।
दोपहर को भूख की मार से मुर्दे की तरह चेयर पर पड़ा हुआ ब्रह्माण्ड की समस्त खाद्य-वस्तुओं का ध्या न कर रहा था- कहाँ जाकर क्या कौशल करूँ कि कुछ खाने को मिल जाय। इसी समय, जब कि मैं इस दुश्चिन्ता में डूबा हुआ था, खिदिरपुर के मुसलमान दर्जियों में से एक ने आकर कहा, “बाबू साहब, एक बंगाली औरत आपको बुला रही है।”
“औरत?” समझा कि टगर होगी। क्यों बुला रही है सो भी अनुमान कर लेना मेरे लिए कठिन नहीं था। निश्चय ही मिस्री के साथ स्वामी और स्त्री के स्वत्व सिद्ध करने के व्यापार में फिर मतभेद उपस्थित हो गया है। किन्तु, मेरी जरूरत क्यों आ पड़ी? ज्तपंस इल वतकमंस (अग्नि-परीक्षा के) सिवाय बाहर के किसी आदमी ने आकर किसी दिन इसकी मीमाँसा कर दी हो, यह सोचना भी कठिन है।
मैंने कहा, “घण्टे-भर बाद आऊँगा, कह देना।”
उस मनुष्य ने कुण्ठित होकर कहा, “नहीं बाबू साहब, बड़ी मिन्नत करके बुला रही है...”
“मिन्नत करके?” किन्तु टगर तो मिन्नत करने वाली औरत नहीं है। पूछा “उसके साथ का मर्द क्या कर रहा है?”
वह बोला, “उसी की बीमारी के कारण तो आपको बुला रही है।”
बीमारी होना बिल्कु'ल ही अचरज की बात नहीं थी, इसलिए मैं उठ खड़ा हुआ। वह मुझे अपने साथ नीचे ले गया। काफी दूर पर एक कोने में कुण्डली किये हुए मोटे-मोटे रस्से रखे हुए थे। उन्हीं की आड़ में एक बाईस-तेईस वर्ष की बंगाली स्त्री बैठी थी। पहले कभी उस पर मेरी नजर नहीं पड़ी थी। पास में ही एक मैली शतरंजी के ऊपर करीब-करीब इसी उम्र का एक अत्यन्त क्षीणकाय युवक मुर्दे की तरह ऑंखों मूँदकर पड़ा हुआ है- वही बीमार है।
मेरे निकट आते ही उस औरत ने धीरे-धीरे अपने सिर का वस्त्र आगे खींच लिया, किन्तु मैं उसका मुँह देख चुका था।
वह मुख सन्दर कहा जाय तो बहस उठ सकती है, किन्तु फिर भी उपेक्षा करने योग्य नहीं था। ऊँचा कपाल स्त्रियों की सौन्दर्य-तालिका में कोई स्थान नहीं रखता, यह मुझे मालूम है; फिर भी, इस तरुणी के चौड़े मस्तक पर बुद्धि और विचार-शक्ति की एक ऐसी छाप लगी हुई देखी जिसे मैंने कदाचित् ही देखा है। मेरी अन्नदा जीजी का कपाल भी प्रशस्त था। इसका भी बहुत कुछ उसी तरह का था। माँग में सिन्दूर झलक रहा था, हाथ में लोहे की चूड़ियाँ¹ और शंख के वलयों को छोड़कर और कोई अलंकार नहीं था। ऑंग में एक सीधी-सादी रंगीन साड़ी थी।
परिचय न होने पर भी इतने स्वाभाविक ढंग से उसने बात की कि मैं विस्मित हो गया। वह बोली, “आपके साथ डॉक्टर बाबू का तो परिचय है, क्या एक दफे आप बुला सकते हैं?”
मैंने कहा, “आज ही उनसे परिचय हुआ है। फिर भी, जान पड़ता है, डॉक्टर बाबू भले आदमी हैं। किन्तु, उन्हें क्यों बुलाती हो?”
वह बोली, “यदि बुलाने पर विजिट देनी पड़ती हो, तो फिर जरूरत नहीं है; न होगा, ये ही थोड़ा कष्ट करके ऊपर चले चलेंगे।” इतना कहकर उसने उस रोगी आदमी को दिखा दिया।
मैंने सोचकर कहा, “जहाज के डॉक्टर को शायद कुछ भी देना नहीं होता। किन्तु, इन्हें हो क्या गया है?”
मैंने सोचा था कि रोगी इनका पति है; किन्तु, बातचीत से कुछ सन्देह हुआ। उस मनुष्य के मुँह के ऊपर कुछ झुककर उसने पूछा, “घर से चलते समय से ही तुम्हें पेट की बीमारी थी न?”
उस मनुष्य ने सिर हिला दिया, तब इसने सिर ऊपर उठाकर कहा, “हाँ, इन्हें पेट की बीमारी देश में ही हुई थी, किन्तु कल से बुखार आ गया। इस समय देखती हूँ कि बुखार तेज हो आया है, कुछ दवाई दिए बिना काम न चलेगा।”
मैंने भी स्वयं हाथ डालकर उसके शरीर का ताप देखा, वास्तव में बुखार खूब तेज था। डॉक्टर को बुलाने मैं ऊपर चला गया।
डॉक्टर बाबू नीचे आए, रोग-परीक्षा करके और दवाई का पुरजा देकर बोले, “चलो श्रीकान्त बाबू, कमरे में चलकर गप-शप करें।”
डॉक्टर बाबू खूब रंगीले थे। अपने कमरे में ले जाकर बोले, “चाय पीते हैं?” मैंने कहा, “हाँ, पीता हूँ।”
“और बिस्कुट?”
“सो भी खाता हूँ?”
“अच्छा।”
खाना-पीना समाप्त होने के बाद दोनों आमने-सामने कुर्सियों पर बैठ गये। डॉक्टर बाबू बोले, “आज कैसे जा भिड़े उस औरत से?”
मैंने कहा, “उसने ही मुझे बुला भेजा था।”
डॉक्टर बाबू इस तरह सिर हिलाकर कि मानो सब कुछ जानते हों, बोले, “बुलाना ही चाहिए- शादी-वादी की है या नहीं?”
मैंने कहा, “नहीं।”
डॉक्टर बाबू बोले, “तो बस, भिड़ जाओ। ऐसी कुछ बुरी नहीं है। उस आदमी का चेहरा देखा, उस पर टाईफाइड के लक्षण नजर आते हैं। कुछ भी हो, वह अधिक दिन न टिकेगा, यह निश्चित है। इस बीच उस पर नजर बनाए रखना। कहीं और कोई साला न भिड़ जाय।”
मैं अवाक् होकर बोला, “आप यह सब कह क्या रहे हैं, डॉक्टर बाबू?”
डॉक्टर बाबू जरा भी अप्रतिभ हुए बिना बोले, “अच्छा, वह छोकरा ही उसे घर से निकाल लाया है या उसी को वह बाहर निकाल लाई है- तुम्हें क्या मालूम होता है, श्रीकान्त बाबू? खूब फारवर्ड है। बातचीत तो बहुत अच्छी करती है।”
मैंने कहा, “इस तरह का खयाल आपके मन में क्यों आया?”
डॉक्टर बाबू बोले, “हर एक ट्रीप में तो देखता हूँ कि एक न एक है ही। पिछली दफे भी बेलघर की एक ऐसी ही जोड़ी थी। एक बार बर्मा में जाकर कदम तो रक्खो, तब देखोगे कि मेरी बात सच है या नहीं।”
उनकी बर्मा की बात बहुत कुछ सच है, यह मैंने बाद में अवश्य देखा; किन्तु उस समय तो ऊपर से नीचे तक मेरा सारा मन अरुचि से तीखा हो उठा। डॉक्टर बाबू से बिदा लेकर नन्द मिस्री की खबर लेने नीचे गया। घरवाली सहित मिस्री उस समय फलाहार की तैयारी कर रहा था। नमस्कार करने के बाद सबसे पहले उसने यह प्रश्न किया, “यह औरत कौन है, बाबू?...”
टगर सिर दर्द के कारण अपने सिर पर एक कपड़ा पगड़ी की तरह बाँध रही थी। एकदम फुसकारकर बोल उठी, “यह जानने की तुम्हें क्या गरज पड़ी है, बताओ तो सही?”
मिस्री ने मुझे मध्ययस्थ मानकर कहा, “देखी महाशय, इस औरत की ओछी तबियत? कौन बंगाली औरत रंगून जा रही है, यह पूछना भी जैसे पाप हो!”
टगर अपना सिर-दर्द भूल गयी और पगड़ी को फेंककर मेरी ओर ताकने लगी। उसने अपनी दोनों गोल-गोल ऑंखें फाड़कर कहा, “महाशय, टगर वैष्णवी के हाथ के नीचे से इन सरीखे से न जाने कितने मिस्री आदमी बनकर निकल गये हैं- अब भी क्या यह मेरी ऑंखों में धूल झोंक सकते हैं? अरे, तुम डॉक्टर हो कि वैद्य, जो मैं जरा-सा पानी लेने गयी, कि इतनी ही देर में, चट से दौड़कर वहाँ देखने जा पहुँचे? क्यों, कौन है वह? यह अच्छा नहीं होगा, सो कहे देती हूँ, मिस्री। यदि दुबारा फिर कभी वहाँ जाते देखूँगी तो फिर एक दिन या तो तुम ही हो या मैं ही।”
नन्द मिस्री ने गर्म होकर कहा, “तेरा क्या मैं पालतू बन्दर हूँ जो तू जिस तरफ साँकल पकड़कर ले जायेगी उसी तरह जाऊँगा? मेरी इच्छा होगी तो फिर जाकर उस बेचारे को देखने जाऊँगा। तेरे मन में आवे सो कर।” इतना कहकर उसने फलाहार में चित्त लगाया।
टगर ने भी सिर्फ 'अच्छा' कहकर अपनी पगड़ी बाँधना शुरू कर दिया। मैं भी वहाँ से चल दिया। चलते-चलते मैं सोचता गया- इसी तरह इन दोनों ने बीस बरस काट दिए हैं। अनेक दफे हाथ जलाकर टगर इतना सीखी है कि जहाँ पर सत्य का बन्धन नहीं है वहाँ रास को जरा भी ढीला करना अच्छा नहीं होता। ठगाना ही पड़ता है। या तो रात-दिन सतर्क बने रहकर जोर-जबरदस्ती से अपना दखल जमाए रखना पड़ेगा, नहीं तो, जवानी की तरह नन्द मिस्री भी एक दिन अनजान में खिसक जायेगा।
किन्तु, जिसको लक्ष्य करके टगर के मन में यह विद्वेष उत्पन्न हुआ और डॉक्टर बाबू ने कुत्सित तीव्र कटाक्ष किया, वह है कौन? टगर ने कहा था- यही कार्य करते हुए मैंने अपने बाल पकाए हैं। ऐसी औरत है कहाँ जो मेरी ऑंखों में धूल झोंक सके? डॉक्टर बाबू ने अपना मन्तव्य जाहिर किया था कि ऐसी घटनाएँ नित्य ही देखते रहने के कारण उनकी ऑंखों में दिव्यदृष्टि उत्पन्न हो गयी है। इसमें यदि भूल हो, तो वे ऐसी ऑंखों को निकाल फेंकने के लिए तैयार हैं।
ऐसा ही होता है। दूसरे का विचार करते समय किसी मनुष्य को कभी यह कहते नहीं सुना कि वह अन्तर्यामी नहीं हैं, अथवा कहीं भी उसका कोई भ्रम या प्रमाद हो सकता है। सभी कहते हैं कि मनुष्य को चीन्हने में हम बेजोड़ हैं और इस विषय में हम एक पक्के जौहरी हैं। फिर भी, संसार में मैं नहीं जानता कि कभी किसी ने अपने खुद के भी मन को ठीक तरह से पहिचाना हो। मगर हाँ, मेरे समान जिसने भी कहीं कोई कठिन चोट खाई है, उसे अवश्य ही सावधान होना पड़ा है। यह बात उसे मन ही मन मंजूर करनी ही पड़ती है कि संसार में जब अन्नदा जीजी सरीखी स्त्रियाँ भी हैं, तब बुद्धि के अहंकार से दूसरे को हीन और नासमझ समझकर खुद बुद्धिमान बनने की अपेक्षा, सब-कुछ अच्छी तरह जानते हुए भी, नासमझ बनने में ही एक तरह से अधिक बुद्धिमानी है। इसलिए, इन दो परम विज्ञ स्त्री-पुरुषों के उपदेश की मैं अभ्रान्त न मान सका। किन्तु डॉक्टर बाबू ने जो कहा था कि अत्यन्त 'फॉरवर्ड' है, सो ठीक मालूम हुआ। और, केवल यही बात मुझे रह-रहकर चुभने लगी।
बहुत रात गये मैं फिर बुलाया गया। इस दफे इस औरत का मुझे परिचय प्राप्त हुआ। नाम था अभया। उत्तरराढ़ी कायस्थ है, घर है बालूचर के निकट। जो व्यक्ति बीमार पड़ा है वह गाँव के रिश्ते से भाई होता है, नाम है उसका रोहिणी सिंह। “दवा से रोहिणी बाबू को काफी लाभ पहुँचा है”, इस तरह कहना आरम्भ करके थोड़े ही समय में अभया ने मुझे अपना आत्मीय बना लिया। किन्तु मुझे यह तो स्वीकार करना ही चाहिए कि मेरे मन में, अनिच्छा होते हुए भी, एक कठोर समालोचना का भाव बराबर जाग्रत हो गया था। फिर भी, इस स्त्री की सारी बातचीत और आलोचना के दरम्यायन कहीं भी मैं जरा-सी भी असंगति या अनुचित प्रगल्भता नहीं पकड़ पाया।
अभया में मनुष्य को वश करने की अद्भुत शक्ति है। इस बीच में ही उसने मेरा केवल नाम-धाम ही नहीं जान लिया, वरन् 'मैं उसके लापता पति को, जिस तरह हो सके, खोज दूँगा', यह वचन भी उसने मेरे मुँह से निकलवा लिया। उसका पति आठ वर्ष पहले बर्मा में नौकरी के लिए आया था। दो वर्ष तक उसकी चिट्ठी-पत्री आती रही थी; किन्तु इन छह वर्षों से उसका कोई पता नहीं है। देश में कुटुम्ब-कबीले का और कोई नहीं है। माँ थीं; परन्तु वे भी करीब महीने-भर पहले गुजर गयीं। बाप के घर अभिभावकहीन होकर रहना असम्भव हो जाने से रोहिणी भाई को राजी कर बर्मा आई है।
कुछ देर चुप रहकर एकाएक वह बोल उठी, “अच्छा, इतनी-सी भी कोशिश न करके यदि किसी तरह देश में ही पड़ी रहती तो क्या यह मेरे हक में अच्छा होता? इसके सिवाय इस उम्र में बदनामी मोल लेते कितनी-सी देर लगती है?”
मैंने पूछा, “क्या आप जानती हैं कि इतने दिन तक क्यों आपकी उन्होंने कुछ खबर नहीं ली?”
“नहीं, कुछ नहीं जानती।”
“इसके पहले वे कहाँ थे, सो मालूम है?”
“जानती हूँ। रंगून में ही थे, बर्मा रेलवे में काम करते थे; किन्तु, कितनी ही चिट्ठियाँ दीं, कोई उत्तर नहीं मिला। और, कभी कोई चिट्ठी लौटकर वापिस भी नहीं आई।”
प्रत्येक पत्र अभया के पति को मिला है, यह तो निश्चित था। किन्तु, क्यों उसने जवाब नहीं दिया, इसका सम्भाव्य कारण हाल ही मैंने डॉक्टर बाबू के निकट सुना था। बहुत-से बंगाली वहाँ जाकर किसी ब्रह्मदेश की सुन्दरी को घर बिठाकर नयी गिरस्ती बसा लेते हैं और उनमें ऐसे अनेक हैं जो सारी जिन्दगी फिर लौटकर देश नहीं गये।
मुझे चुप देखकर अभया ने पूछा, “वे जीवित नहीं हैं, यही क्या आपको जान पड़ता है?”
मैंने सिर हिलाकर कहा, “बल्कि, ठीक इससे उल्टा। वे जीवित हैं, यह तो मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ।”
चट से अभया ने मेरे पैरे छूकर प्रणाम किया और कहा, “आपके मुँह में फूल-चन्दन पड़ें। श्रीकान्त बाबू, मैं और कुछ नहीं चाहती। वे जीवित हैं, बस इतना ही मेरे लिए काफी है।”
मैं फिर मौन हो रहा। अभया खुद भी कुछ देर मौन रहकर बोली, “आप क्या सोच रहे हैं, सो मैं जानती हूँ।”
“जानती हो?”
“जानती नहीं तो? आप पुरुष होकर जिसका खयाल कर रहे हैं, स्त्री होकर भी क्या मुझे वह भय नहीं होगा? सो होने दो, मुझे उसका डर नहीं है- मैं अपनी सौत के साथ मजे से गिरस्ती चला सकती हूँ।”
फिर भी मैं चुप ही बना रहा। किन्तु, मेरे मन की बात का अनुमान करने में इस बुद्धिमती स्त्री को जरा-सा भी विलम्ब नहीं हुआ। बोली, “आप सोच रहे हैं कि मेरे गिरिस्ती चलाने के लिए राजी होने से ही तो काम नहीं चलेगा; मेरी सौत को भी तो राजी होना चाहिए?-यही न सोच रहे हैं?”
दरअसल मैं अवाक् हो गया और बोला, “ठीक यदि ऐसा ही हो तो क्या करेंगी?”
इस दफे अभया की दोनों ऑंखें छलछला उठीं। वह मेरे मुँह की ओर अपनी सजल दृष्टि निबद्ध करके बोली, “उस विपत्ति में आप मेरी थोड़ी-सी सहायता कर सकेंगे, श्रीकान्त बाबू, मेरे रोहिणी भइया बड़े सीधे-सादे भोले आदमी हैं, इसलिए उस समय तो इनके द्वारा मेरा कोई उपकार न होगा।”
राजी होकर मैंने कहा, “बन पड़ेगा तो जरूर सहायता करूँगा; किन्तु इन सब कामों में बाहर के लोगों के द्वारा प्राय: काम होता तो कुछ नहीं, उलटा बिगड़ ही जाता है।”
“यह बात सच है” कहकर अभया चुपचाप कुछ सोचने लगी।
दूसरे दिन ग्यारह-बारह बजे के बीच जहाज रंगून पहुँचने वाला था; किन्तु भोर होने के पहले से ही सब लोगों की ऑंखों और चेहरों पर भय और चंचलता के चिह्न नजर आने लगे। चारों ओर से एक अस्फुट शब्द कानों में आने लगा, 'केरेंटिन, केरेंठिन।' पता लगाने से मालूम हुआ कि ठीक शब्द 'कारेंटाइन' ;फनंतंदपजपदमद्ध है। उस समय बर्मा की सरकार प्लेग के डर से अत्यन्त सावधान थी। शहर से आठ-दस मील दूर पर रेत में काँटेदार तारों से थोड़ा-सा स्थान घेरकर उसमें बहुत-सी झोपड़ियाँ खड़ी कर दी गयी थीं- इसमें ही डेक के समस्त यात्रियों को बिना कुछ विचार किये उतार दिया जाता था। यहाँ पर दस दिन ठहरने के बाद उन्हें शहर में जाने दिया जाता था। हाँ, यदि किसी का कोई आत्मीय शहर में होता और वह पोर्ट हेल्थ ऑफिसर के पास जाकर किसी कौशल से 'छोड़पत्र' जुटा सकता तो बात जुदी थी।
डॉक्टर बाबू मुझे अपने कमरे में बुलाकर बोले, “श्रीकान्त बाबू, एक 'छोड़पत्र' जुटाए बगैर आपका यहाँ आना उचित नहीं हुआ; कारेंटाइन में ले जाकर वे लोग मनुष्य को इतना कष्ट देते हैं कि कसाईखाने के गाय-बैल-भेड़ आदि जानवरों को भी उतना कष्ट नहीं सहना पड़ता। साधारण आदमी तो उसे किसी तरह सह लेते हैं, मर्मांन्तिक कष्ट तो केवल भले आदमियों को ही सहना पड़ता है। एक तो यहाँ कोई मजूर नहीं मिलता-अपना सब माल-असबाब अपने ही कन्धों पर लादकर एक सीधी जर्जर सीढ़ी पर से चढ़ना-उतरना होता है, और उतनी दूर ले जाना पड़ता है। इसके बाद, सारा माल-असबाब वहाँ खोलकर बिखेर दिया जाता है और स्टीम में उबालकर बर्बाद किया जाता है। और महाशय, ऐसी कड़ी धूप में तो कष्ट का कोई पार ही नहीं रहता।”
अत्यन्त भयभीत होकर मैंने कहा, “इसका कोई प्रतिकार नहीं है क्या डॉक्टर बाबू?”
उन्होंने सिर हिलाकर कहा, “नहीं-हाँ, जब डॉक्टर साहब जहाज के ऊपर चढ़ आवेंगे तब मैं उनसे कह देखूँगा। उनका क्लर्क यदि आपकी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने को राजी होगा तो...”
किन्तु, उनकी बात अच्छी तरह पूरी न होने पाई थी कि बाहर एक ऐसा काण्ड घटित हुआ जिसकी याद करके मैं खुद भी लाज के मारे मर जाता हूँ। कुछ गोलमाल सुनकर दोनों जनें कमरे से बाहर निकले। देखा कि जहाज का सेकण्ड ऑफिसर छह-सात खलासियों को बेधड़क चाहे जिस तरह लातें मार रहा है, और, उसके बूट की ठोकरें खाकर वे जहाँ बन पड़ता है वहाँ भाग रहे हैं। यह अंगरेज युवक अत्यन्त उद्धत था, इसलिए डॉक्टर बाबू के साथ इसकी पहले भी कहा-सुनी हो चुकी थी, और आज फिर एक झपट हो गयी।
डॉक्टर गुस्सा होकर बोले, “तुम्हारा इस तरह का काम अत्यन्त निन्दनीय है, किसी दिन इसके लिए तुम्हें दु:ख उठाना पड़ेगा, यह मैं कहे देता हूँ।”
वह पलटकर खड़ा हो गया और बोला, “क्यों?”
डॉक्टर बाबू बोले, “इस तरह लातें मारना बड़ा भारी अन्याय है।”
उसने जवाब दिया, “मार खाए बिना क्या ढोर सीधे होते हैं?”
डॉक्टर बाबू कुछ 'स्वदेशी खयाल' के आदमी थे; वे उत्तेजित होकर कहने लगे, “ये लोग जानवर नहीं हैं, गरीब मनुष्य हैं! हमारे देशी आदमी नम्र और शान्त होने के कारण कप्तान साहब के पास जाकर तुम्हारी शिकायत नहीं करते; और इसीलिए, तुम अत्याचार करने का साहस करते हो!”
एकाएक साहब का मुँह अकृत्रिम हँसी से भर गया। डॉक्टर का हाथ खींचकर उसने अंगुली से दिखाते हुए कहा, Look, Doctor, theres your country-men, you ought to be proud of them? (देखो डॉक्टर, वह देखो तुम्हारे देश के आदमी, तुम्हें अवश्य ही इन पर फक्र होना चाहिए।)
मैंने नजर उठाकर देखा, कुछ ऊँचे पीपों की आड़ में खड़े होकर वे खींसे बाहर निकाल कर हँस रहे हैं और शरीर की धूल झाड़ रहे हैं। साहब थोड़ा-सा हँसकर, डॉक्टर बाबू के मुँह पर दोनों हाथों के अंगूठे हिलाकर दाएँ-बाएँ झूमता सीटी देता हुआ चल दिया। विजय का गर्व जैसे उसके सारे शरीर से फूट पड़ने लगा।
डॉक्टर बाबू का मुँह लज्जा से, क्षोभ से और अपमान से काला हो गया। तेजी से कदम आगे रखते हुए क्रुद्ध स्वर से वे बोल उठे, “बेहया सालो, खींसे बाहर निकालकर हँस रहे हो!”
इस दफे, इतनी देर बाद, देशी लोगों का आत्म सम्मान शायद लौट आया। सब लोगों ने एक साथ हँसना बन्द करके तेजी से जवाब दिया, “तुम डॉक्टर बाबू, 'साला' कहने वाले कौन होते हो? किसी का कर्ज खाकर तो हम लोग नहीं हँसते?”
“जबर्दस्ती से डॉक्टर बाबू को खींचकर उनके कमरे में वापिस ले आया। कुर्सी पर धम्म से गिरते हुए उनके मुँह से सिर्फ 'ऊ:-!' निकला।
और कोई दूसरी बात उनके मुँह से बाहर निकलना भी असम्भव थी। ग्यारह बजे के लगभग कॉरेण्टाइन के पास एक छोटा-सा स्टीमर आकर जहाज से सटकर खड़ा हो गया। समस्त डेक के यात्रियों को यही उस भयानक स्थान में ले जाएगा। माल-असबाब बाँधने-छोरने की धूम मच गयी। मुझे जल्दी नहीं थी; क्योंकि, डॉक्टर बाबू का आदमी अभी ही कह गया था कि मुझे वहाँ नहीं जाना पड़ेगा। निश्चिंत होकर यात्रियों और खलासियों की चिल्लाहट और दौड़-धूप कुछ अन्यमनस्क-सा होकर देख रहा था। हठात् पीछे से एक शब्द सुन पड़ा, पलटकर देखा कि अभया खड़ी है। आश्चर्य के साथ पूछा, “आप यहाँ कैसे?”
अभया बोली, “क्यों, क्या आप अपनी चीज-बस्त बाँधोगे नहीं?”
मैंने कहा, “नहीं, मुझे अभी काफी देर है, मुझे वहाँ नहीं जाना पड़ेगा। एकदम शहर में जाकर उतरूँगा।”
अभया बोली, “नहीं, शीघ्र सामान ठीक कर लीजिए।”
मैंने कहा, “मुझे अब भी बहुत समय है।...”
अभया ने प्रबल वेग से सिर हिलाकर कहा, “नहीं, सो नहीं हो सकता, मुझे छोड़कर आप किसी तरह नहीं जाने पाएँगे।”
मैं अवाक् होकर बोला, “यह क्या? मेरा तो वहाँ जाना नहीं हो सकेगा।”
अभया बोली, “तो फिर, मेरा भी नहीं हो सकेगा। मैं पानी में भले ही फाँद पूड़ूँ, परन्तु, निराश्रय होकर इस जगह किसी तरह नहीं जाऊँगी। वहाँ की सब बातें सुन चुकी हूँ।” यह कहते-कहते उसकी ऑंखें छलछला आईं। मैं हतबुद्धि-सा होकर बैठा रहा। “यह कौन है जो मुझे इस तरह धीरे-धीरे जोर डालकर अपने जीवन के साथ जकड़ रही है?
वह ऑंचल से ऑंखें पोंछकर बोली, “मुझे अकेली छोड़कर चले जावेंगे? मैं नहीं सोच सकती कि आप इतने निष्ठुर हो सकते हैं। उठिए, नीचे चलिए। आप न होंगे तो उस बीमार आदमी को साथ लेकर मैं अकेली औरत-जात क्या करूँगी, आप ही बताइए?”
अपना माल-असबाब लेकर जब मैं छोटे स्टीमर पर चढ़ा तब डॉक्टर बाबू ऊपर के डेक पर खड़े थे। हठात् मुझे इस अवस्था में देखकर वे हाथ हिलाते हुए चिल्लाकर कहने लगे, “नहीं नहीं, आपको न जाना होगा। लौट आइए, लौट आइए- आपके लिए हुक्म हो गया है, आप...”
मैंने भी हाथ हिलाते हुए चिल्लाकर कहा, “असंख्य धन्यवाद, किन्तु एक और हुक्म से मुझे जाना पड़ रहा है।”
सहसा उनकी दृष्टि अभया और रोहिणी पर जा पड़ी। वे मुसकराते हुए बोले, “तब मुझे बेकार ही कष्ट दिया?”
“उसके लिए क्षमा चाहता हूँ।”
“नहीं नहीं, उसकी जरूरत नहीं, मैं पहले से ही जानता था, गुड बाई।” यह कहकर डॉक्टर बाबू हँसते चेहरे से चले गये।
'कॉरंटाइन' नामक जेलखाने में भेजने का कानून केवल 'कुलियों' के लिए है- शरीफों के लिए नहीं; और जो जहाज का किराया दस रुपये से अधिक नहीं देता वही 'कुली' है। चाय के बगीचों का कायदा क्या कहता है सो नहीं मालूम; पर जहाजी कानून तो यही है। और अधिकारी या अफसर प्रत्यक्ष ज्ञान से क्या जानते हैं, यह तो वे ही जानें; किन्तु ऑफिशियल इससे अधिक जानने की रीति नहीं है। इसलिए, इस यात्रा में हम सब 'कुली' थे। और, साहब लोग यह भी समझते हैं कि कुली की जीवन-यात्रा के लिए माल-असबाब ऐसा कुछ अधिक नहीं हो सकता- और न होना उचित ही है, कि जिसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक कन्धों पर रखकर वह न ले जा सकता हो। इसलिए, उतरने के घाट पर केरिण्टिन-यात्रियों का माल-असबाब ले जाने के लिए यदि कोई व्यवस्था नहीं है तो इसके लिए क्षुब्ध होने का कोई कारण नहीं। यह सब सच है; फिर भी, यह केवल हमारे ही भाग्य का दोष समझिए कि हम तीन प्राणी, सिर के ऊपर प्रचण्ड सूर्य और पैरों के नीचे उससे भी अधिक उग्र बालुका-राशि से जलते हुए, एक अपरिचित नदी के किनारे बड़े-बड़े गट्ठर सामने रखकर किंकर्तव्यविमूढ़ भाव से एक दूसरे का मुँह देखते खड़े हुए हैं। साथ के यात्रियों का परिचय पहले ही दे चुका हूँ। वे लोग अपने लोटे-कम्बल पीठ पर रखकर, और अपेक्षाकृत अधिक बोझ अपनी गृहलक्ष्मियों के सिर पर लादकर, मजे से गन्तव्य स्थान पर चले गये।
देखते-देखते रोहिणी भइया बिस्तरों के एक बण्डल पर काँपते-काँपते धम से बैठ गये। बुखार, पेट का दर्द और भारी थकावट- इन सब कारणों के एकत्र होने से उनकी अवस्था ऐसी थी कि उनके लिए, चलना बहुत दूर की बात है; बैठना भी असम्भव हो गया। लेट जाने में ही उनकी रक्षा थी। अभया ठहरी औरत-जात। बचा सिर्फ मैं और मेरी तथा पराई छोटी-मोटी गठरियाँ। मेरी दशा एकबारगी सोचकर देखने योग्य थी। एक तो अकारण ही एक अज्ञात अप्रीतिकर स्थान में जा रहा था; दूसरे, एक कन्धों पर तो एक अज्ञात निरुपाय स्त्री का बोझ था और दूसरे कन्धों पर झूल रहा था उतना ही अपरिचित एक बीमार पुरुष और ऊपर से घाते में थीं गठरियाँ। इन सबके बीच में मैं अत्यन्त उग्र प्यास को लिये, जो कि सारे गले को सुखाए देती थी, एक अज्ञात जगह में किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़ा था। मेरे इस चित्र की कल्पना करके बतौर पाठ के लोगों को खूब आनन्द आ सकता है- कुछ सहृदय पाठक, शायद, मेरी इस नि:स्वार्थ परोपकार-वृत्ति की प्रशंसा भी कर सकते हैं; किन्तु, मुझे यह कहते जरा भी शर्म नहीं कि उस उस समय इस हतभागी का मन झुँझलाहट और पश्चात्ताप से एकबारगी परिपूर्ण हो गया था। अपने आपको सैकड़ों धिक्कार देता हुआ मन ही मन कह रहा था, कि इतना बड़ा गधा त्रिलोक में क्या और भी कोई होगा! किन्तु, बड़े अचरज की बात है, कि यद्यपि यह परिचय मेरे शरीर पर लिखा हुआ नहीं था, फिर भी, जहाज-भर के इतने लोगों के बीच में भार-वहन करने के लिए अभया ने मुझे ही क्यों और किस तरह एकदम से पहिचानकर छाँट लिया?
किन्तु, मेरा विस्मय दूर हुआ उसकी हँसी से। उसने मुँह उठाकर जरा-सा हँस दिया। उसके हँसी भरे चेहरे को देखकर मुझे केवल विस्मय ही नहीं हुआ-उसके भयानक दु:ख की छाया भी इस दफे मुझे दिख गयी। किन्तु सबसे अधिक अचरज तो मुझे उस ग्रामीण स्त्री की बात सुनकर हुआ। कहाँ तो लज्जा और कृतज्ञता से धरती में गड़कर उसे भिक्षा माँगना चाहिए था, और कहाँ उसने हँसकर कहा, “कहीं यह खयाल न कर बैठना, कि खूब ठगाए गये! अनायास ही जा सकते थे फिर भी गये नहीं, इसी का नाम है दान। पर, मैं यह कहे रखती हूँ कि इतना बड़ा दान करने का सुयोग जीवन में, शायद, कम ही मिलेगा। किन्तु, जाने दो इन बातों को। माल-असबाब इसी जगह पड़ा रहने दो, और चलो, देखें, इन्हें कहीं छाया में सुलाया जा सकता है या नहीं।”
आखिर, गट्ठर-गठरियों की ममता छोड़कर मैं रोहिणी भइया को पीठ पर लादकर केरिण्टिन की ओर रवाना हुआ। अभया ने केवल एक छोटा-सा हाथ-बॉक्स लेकर मेरा अनुसरण किया और समान वहाँ ही पड़ा रहा। अवश्य ही वह सब खोया नहीं गया- कोई दो घण्टे बाद उसे ले आने का प्रबन्ध हो गया।
अधिकांश स्थानों में देखा जाता है कि सचमुच की विपत्ति काल्पनिक विपत्ति की अपेक्षा अधिक सहज और सह्य होती है। पहिले से ही इस बात का खयाल रखने से अनेक दुश्चिन्ताओं के हाथ से छुटकारा मिल सकता है। इसलिए, यद्यपि कुछ-कुछ क्लेश और असुविधाएँ निश्चय से मुझे भोगनी पड़ीं, फिर भी, यह बात तो स्वीकार करनी ही पड़ती है कि हम लोगों के केरिण्टिन की मियाद के दिन एक तरह से आराम से ही कट गये। इसके सिवाय, पैसा खर्च कर सकने पर यमराज के घर भी जब ससुराल जैसा आदर प्राप्त किया जा सकता है, तब तो यह केरिण्टिन ही थी!
जहाज के डॉक्टर बाबू ने कहा था कि स्त्री खूब 'फारवर्ड' है, किन्तु, जरूरत के समय यह स्त्री कहाँ तक 'फारवर्ड' हो सकती है, इसकी शायद उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी। रोहिणी बाबू को जब पीठ पर से मैंने उतार दिया तब अभया बोली, “बस, अब आपको और कुछ भी नहीं करना होगा श्रीकान्त बाबू, आप विश्राम करें, और जो कुछ करने का है मैं कर लूँगी।”
विश्राम की मुझे वास्तव में जरूरत थी- दोनों पैर थकावट के कारण टूटे जाते थे; फिर भी मैंने अचरज के साथ पूछा, “आप क्या करेंगी?” अभया ने जवाब दिया, “काम क्या कुछ कम है? चीजें-बस्तें लानी होंगी एक अच्छा-सा कमरा तलाश करके आप दोनों के लिए बिस्तर तैयार कर देने होंगे, रसोई करके जो कुछ हो दोनों को खिला देना होगा- तब जाकर मुझे छुट्टी मिलेगी, और तब ही तो थोड़ा-सा बैठकर मैं आराम कर सकूँगी। नहीं-नहीं, मेरे सिर की कसम, उठिएगा नहीं, मैं अभी-अभी सब ठीक-ठाक किये देती हूँ।” फिर थोड़ा-सा हँसकर कहा, “सोचते होओगे कि औरत होकर यह अकेली सब प्रबन्ध किस तरह करेगी, यही न? पर क्यों न कर सकूँगी? अच्छा, आपको ही खोज निकालने वाला कौन था? मैं ही थी न, कि और कोई?” इतना कहकर उसने छोटे बॉक्स को खोला और उसमें से कुछ रुपये निकालकर ऑंचल में बाँध लिये तथा केरेण्टिन के ऑफिस की ओर चल दी।
वह कुछ कर सके चाहे न कर सके, किसी तरह बैठने को मिल जाने से मेरी तो जान बच गयी। आधे घण्टे के भीतर ही एक चपरासी मुझे बुलाने आया। रोहिणी को साथ लेकर उसके पीछे-पीछे गया। देखा, रहने का कमरा तो अच्छा ही है। मेम डॉक्टरिन साहिबा खुद खड़े होकर नौकर से सब साफ करा रही हैं, जरूरी चीजें आ पहुँची हैं और दो खाटों पर दो आदमियों के लिए बिस्तर तक बिछा दिए गये हैं। एक ओर नयी हाँड़ियाँ, चावल, दाल, आलू, घी, मैदा, लकड़ी आदि सब मौजूद हैं। मद्रासी डॉक्टरिन के साथ अभया टूटी-फूटी हिन्दी में बातचीत कर रही है। मुझे देखते ही बोली, “तब तक आप थोड़ी नींद न ले लो, मैं सिर पर दो घड़ा जल डालकर इस वक्त के लिए चावल-दाल मिलाकर थोड़ी-सी खिचड़ी राँध देती हूँ। उस वक्त के लिए फिर देखा जायेगा।” इतना कहकर गमछा-कपड़ा लेकर मेम साहिबा को सलाम कर, एक खलासी को साथ लेकर वह नहाने चली गयी। इस तरह, उसके संरक्षण में हम लोगों के दिन अच्छी तरह से कट गये, यह कहने में मैं निश्चय से जरा भी अत्युक्ति नहीं कर रहा हूँ।
इस अभया में मैं दो बातें अन्त तक लक्ष्य कर रहा था। ऐसी अवस्था में ऐसे स्त्री-पुरुषों में जिनमें परस्पर कोई रिश्ता नहीं होता है, घनिष्ठता स्वत: ही बड़ी तेजी से बढ़ने लगती है। किन्तु इसका उसने कभी मौका ही नहीं दिया। उसके व्यवहार में ऐसा कुछ था जो प्रत्येक क्षण याद दिला दिया करता था कि हम लोग केवल यात्री हैं जो एक जगह ठहर गये हैं- किसी के साथ किसी का सचमुच का कोई सम्बन्ध नहीं है; दो दिन बाद शायद जीवन-भर फिर कहीं किसी की किसी से मुलाकात ही न हो। दूसरी बात यह थी कि ऐसा आनन्दयुक्त परिश्रम भी मैंने कहीं नहीं देखा। दिन-भर वह हम लोगों की सेवा में लगी रहती और काम खुद ही करना चाहती। सहायता करने की कोशिश करते ही वह हँसकर कहती, “यह तो सब मेरा खुद का कार्य है। नहीं तो, रोहिणी भइया को ही क्या जरूरत थी कि वे इतना कष्ट उठाते, और आपको ही क्या पड़ी थी इस जेलखाने में आने की? मेरे लिए ही तो आप लोगों को इतनी सब तकलीफें उठानी पड़ती हैं।”
अक्सर ऐसा होता कि खाने-पीने के बाद थोड़ी-सी गपशप चल रही होती और ऑफिस की घड़ी में दो बज जाते। बस, वह एकदम खड़ी हो जाती और कहने लगती, “जाती हूँ आप लोगों के लिए चाय तैयार कर लाऊँ- दो बज गये।” मन ही मन मैं कहता, “तुम्हारा पति चाहे कितना ही पापी क्यों न हो, मनुष्य तो जरूर होगा। यदि कभी उसे पा लोगी, तो वह तुम्हारा मूल्य अवश्य समझेगा।
इसके बाद एक दिन मियाद खत्म हुई। रोहिणी भी अच्छा हो गया। हम लोग भी सरकारी 'छोड़-पत्र' पाकर गट्ठर-गठरियाँ बाँध रंगून को चल पड़े। निश्चय किया था कि शहर के मुसाफिरखाने में दो-एक दिन के लिए ठहर कर, और इन लोगों के लिए ठहरने का कोई स्थान ठीक करके, मैं अपने स्थान पर चला जाऊँगा; और फिर जहाँ-कहीं भी रहूँगा वहाँ से उसके पति का पता मालूम करके उसे समाचार भेजने की भरसक कोशिश करूँगा।
शहर में जिस दिन हम लोगों ने कदम रखे वह बर्मावासियों का एक त्योहार का दिन था। और, त्योहार तो उनके लगे ही रहते हैं। दल के दल स्त्री-पुरुष रेशमी पोशाक पहने अपने मन्दिरों को जा रहे हैं। स्त्री-स्वातन्त्रय का देश है; इसलिए, वहाँ के आनन्द-उत्सव में स्त्रियों की संख्या भी अधिक होती है। बूढ़ी, युवती, बालिका- सब उम्र की स्त्रियाँ अपूर्व पोशाक-परिच्छद में सज्जित होकर हँसती-बोलती-गाती सारे रास्ते को मुखरित करती हुई चली जा रही हैं। उनमें अधिकांश का रंग खूब गोरा है। मेघ की तरह घने बालों का बोझा सौ में से नब्बे स्त्रियों का घुटनों के नीचे तक लटकता है। जूड़े में फूल, कानों मे फूल और गले में फूलों की माला। घूँघट की झंझट नहीं, पुरुषों को देखकर तेजी से जाने की व्यग्रता से ठोकर खाकर गिरने का अन्देशा नहीं, दुविधा या लाज का लेश नहीं- मानो झरने के मुक्त प्रवाह के समान स्वच्छन्द बेरोक गति से बही जा रही हैं। पहली ही दृष्टि से एकदम मुग्ध हो गया। अपने यहाँ की तुलना में मन ही मन उनकी अशेष प्रशंसा करके बोला, यही तो होना चाहिए! इसके बिना जीवन ही क्या है! उनका सौभाग्य सहसा मानो ईर्ष्याि के समान मेरे हृदय में छिद गया। मैंने कहा, चारों दिशाओं में ये जिस आनन्द की सृष्टि करती जा रही हैं, वह क्या अवहेलना की वस्तु है? रमणियों को इतनी स्वाधीनता देकर इस देश के पुरुष क्या ठगे गये हैं? और, हम लोग क्या उनको नीचे से ऊपर तक जकड़ रखकर और उनके जीवन को लँगड़ा बनाकर लाभ में रहे हैं? हमारी स्त्रियाँ भी यदि किसी ऐसे ही दिन- एकाएक गोलमाल सुनकर मैंने लौटकर जो कुछ देखा वह आज भी मेरे मन पर साफ-साफ अंकित है। झगड़ा हो रहा था घोड़ा-गाड़ी के किराए के सम्बन्ध में। गाड़ीवान हमारे यहाँ का हिन्दुस्तानी मुसलमान था। वह कह रहा था कि आठ आने किराया तय हुआ है और तीन भले घर की बर्मी स्त्रियाँ गाड़ी पर से उतरकर एक साथ चिल्लादकर कह रही थीं कि नहीं, पाँच आना हुआ है। दो-तीन मिनट कहा-सुनी होने के बाद ही बस, 'बलं बलं बाहुबलं।' रास्ते के किनारे एक आदमी मोटे-मोटे गन्नों के टुकड़े करके बेच रहा था। अकस्मात् तीनों ने झपटकर उसके तीन टुकड़े उठा लिये और एक साथ गाड़ीवान पर आक्रमण कर दिया। ओह! वह कैसी बेधड़क मार थी। बेचारा स्त्रियों के शरीर पर हाथ भी नहीं लगा सकता था, आत्मरक्षा करने के लिए यदि एक को अटकाता था तो दूसरी की चोट सिर पर पड़ती, उसको अटकाता तो तीसरी की चोट आ पड़ती। चारों और लोग जमा हो गये- किन्तु केवल तमाशा देखने। उस अभागे का कहाँ गया टोपी-साफा और कहाँ गया हाथ का चाबुक! और अधिक न सह सकने के कारण आखिर वह मैदान छोड़कर 'पुलिस! पुलिस! सिपाही! सिपाही!' चिल्लाता हुआ भाग खड़ा हुआ।
मैं हाल ही बंगाल से आ रहा था और सो भी देहात से। कलकत्ते में स्त्री-स्वाधीनता है- कानों से अवश्य सुनी है, पर ऑंखों नहीं देखी। किन्तु, क्या स्वाधीनता प्राप्त करके भले घर की 'अबलाएँ' भी एक जवान मर्द पर खुले आम सड़क पर आक्रमण करके लट्ठबाजी कर सकती हैं! क्रमश: उनके इतनी अधिक 'सबला' हो उठने की सम्भावना मेरी कल्पना के भी परे की वस्तु थी। बहुत देर तक हतबुद्धि की तरह खड़े रहने के बाद मैंने अपने कार्य के लिए प्रस्थान किया। मन ही मन कहने लगा कि स्त्री-स्वाधीनता भली है या बुरी, समाज के आनन्द की मात्रा इससे घटेगी या बढ़ेगी- यह विचार तो किसी और दिन करूँगा; किन्तु, आज अपनी ऑंखों जो कुछ देखा उससे तो मेरा सारा चित्त एकदम उद्भ्रान्त हो गया।
अभया और रोहिणी को उनके नये वास-स्थान में- नयी घर-गिरिस्ती में प्रतिष्ठित करके जिस दिन मैं अपने जिन के लिए आश्रय खोजने रंगून के राज-मार्ग पर निकल पड़ा, उस दिन यह मैं नहीं कहना चाहता कि उन दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में मेरे मन में बिल्कुाल किसी तरह की ग्लानि छू भी नहीं गयी थी। किन्तु, इस अपवित्र विचार को दूर करने में भी मुझे अधिक देर नहीं लगी। क्योंकि, दो खास उम्र के स्त्री-पुरुषों को किसी खास अवस्था में देखने-मात्र से ही उनके बीच में किसी सम्बन्ध-विशेष की कल्पना कर लेना कितनी भारी भ्रान्ति है, यह शिक्षा मुझे पहले ही मिल चुकी थी। और भविष्यत् की जटिल समस्या को भी भविष्यत् के ही हाथ सौंप देने में मुझे किसी तरह की हिचक नहीं होती, इसलिए, केवल अपना ही भार अपने कन्धों पर लादकर उस दिन प्रभात के समय उनके नये वास-स्थान से बाहर निकला।
आजकल की तरह उस समय किसी भी नये बंगाली के बर्मा में कदम रखते ही पुलिस के प्रकट और अप्रकट कर्मचारियों का दल उनसे सवाल पर सवाल करके, उन पर व्यंग्य कसके और अपमान करके तथा बिना कसूर थाने में खींच ले जाकर और डर दिखाकर हद दर्जे की तकलीफ नहीं देता था। मन में किसी तरह का पाप न हो, तो उन दिनों प्रत्येक परिचित-अपरिचित को निर्भयता से घूमने-फिरने का अधिकार था और आजकल की तरह अपने आपको निर्दोष प्रमाणित करने का अत्यन्त गुरु भार भी नवागत बंगवासी के कन्धों पर नहीं लादा गया था। इसलिए, मुझे खूब याद है कि स्वच्छन्द चित्त से किसी आश्रय-स्थान की खोज में उस दिन सुबह से दोपहर तक राह-राह खूब घूमता फिरा। राह में एक बंगाली से भेंट हुई। वह मजदूर के सिर पर तरकारी का बोझा लिये हुए पसीना पोंछते-पोंछते तेज़ी से चला जा रहा था; मैंने पूछा, “महाशय, नन्द मिस्री का घर कहाँ है, क्या आप बतला सकते हैं?”
वह आदमी रुककर खड़ा हो गया, “कौन नन्द? क्या आप रिबिट-घर के नन्द पागडी को खोज रहे हैं?”
मैंने कहा, “सो तो जानता नहीं महाशय, कि वे किस घर के हैं। उन्होंने केवल यही परिचय दिया था कि वे रंगून के विख्यात नन्द मिस्री हैं।” उस आदमी ने एक प्रकार का असम्मान-सूचक मुँह का भाव बनाकर कहा, “ओ:-मिस्तरी! ऐसे तो सभी अपने को मिस्तरी कहलवाते हैं महाशय, पर मिस्तरी होना सहज नहीं है। मर्कट साहब ने जब मुझसे कहा था कि हरिपद, तुमको छोड़कर मिस्तरी होने लायक आदमी मुझे और कोई नहीं दीख पड़ता, तब क्या आप जानते हैं कि बड़े साहब के समीप कितनी अनिश्चित अर्जियाँ पड़ी हुई थीं? करीब एक सौ के। आरी और बसूले का जोर हो, तो अर्जियों की जरूरत ही क्या है? काटकर जो जोड़ दे सकता हूँ! किन्तु महाशय, आप जानते हैं...”
मैंने देखा, अनजान में ही मैंने इस आदमी के ऐसी जगह पर चोट पहुँचा दी है जिसकी मीमांसा होना कठिन है। इसलिए, चट से मैंने रुकावट डालकर कहा, “फिर, नन्द नाम के किसी भी आदमी को आप नहीं जानते?”
“यह आपने खूब कहा! चालीस वर्ष से रंगून में रह रहा हूँ, मैं जानता किसे नहीं? नन्द क्या एक है? तीन-तीन नन्द हैं! आपने नन्द मिस्तरी कहा न? कहाँ से आ रहे हैं आप? शायद बंगाल से, न? ओह, तब कहो न कि टगर के मर्द को पूछ रहे हैं?”
मैंने सिर हिलाकर कहा, “हाँ, हाँ, जरूर वही!”
वह बोला, “तो फिर यह कहिए। परिचय पाए बगैर पहिचानूँ कैसे? आइए मेरे साथ तकदीर के जोर से नन्द कमा खा रहा है महाशय, नहीं तो नन्द पागड़ी भी क्या कोई मिस्तरी है? महाशय, आप कौन हैं?”
यह सुनकर कि मैं ब्राह्मण हूँ, उस आदमी ने रास्ते पर ही झुककर मुझे प्रणाम किया। बोला, “वह आपकी नौकरी लगा देगा? साहब से कहकर आपकी तजबीज लगवा सकता है जरूर; किन्तु, दो महीने की तनख्वाह उसे पहले ही घूँस में देनी होगी। दे सकेंगे क्या? दे सकें तो अठारह-बीस आने रोज की नौकरी लगा सकता है। इससे अधिक की नहीं।”
मैंने उसे बताया कि फिलहाल तो मैं नौकरी की उम्मेदवारी में नहीं जा रहा हूँ- थोड़े से आश्रय की तजवीज की गरज से ही बाहर निकला हूँ, और, इसकी आशा नन्द मिस्री ने जहाज पर दिलाई थी।
यह सुनकर हरिपद मिस्री ने आश्चर्य से पूछा, “महाशय, आप भले आदमी हैं, तो फिर, भले आदमियों के 'मेस' में क्यों नहीं जाते?” मैंने कहा, “मेस कहाँ है, सो तो जानता ही नहीं।”
उसे भी नहीं मालूम, यह उसने स्वीकार किया। किन्तु, उस जून खोज करके बताने की आशा देकर वह बोला, “किन्तु, इस समय तो नन्द से मुलाकात हो न सकेगी; वह काम पर गया है, टगर साँकल दिए सो रही है और पुकार कर उसकी नींद भंग करने में खैर नहीं!”
यह तो खूब जानता था। इसलिए रास्ते के बीच मुझे वहाँ करते देखकर उसने हिम्मत देकर कहा, “न गये वहाँ तो क्या! दादा ठाकुर का बढ़िया होटल सामने ही है। वहाँ स्नान-भोजन करके नींद ले लीजिए, उस बेला फिर देखा जायेगा।”
हरिपद के साथ बातें करते-करते जब मैं दादा ठाकुर के होटल में पहुँचा तब होटल के डायनिंग रूम में (=भोजन के कमरे में) करीब पन्द्रह आदमी भोजन करने बैठे थे।
अंगरेजी में दरो शब्द हैं 'इन्स्टिक्ट' और “प्रेज्युडिस', किन्तु, हमारे यहाँ, केवल एक ही शब्द है 'संस्कार'। यह समझना कठिन नहीं है कि एक जो है सो दूसरा नहीं। अर्थात् दोनों शब्द अंगरेजी में भिन्न-भिन्न भाववाची हैं। किन्तु दादा ठाकुर के उक्त होटल के सम्पर्क में आकर यह बात आज पहले ही पहल मुझे मालूम हुई कि हम लोगों का जाति-भेद, खान-पान आदि वस्तुएँ 'इन्स्टिक्ट' के हिसाब से 'संस्कार' नहीं है, और यदि ये 'संस्कार' हों भी तो कितने तुच्छ हैं- इनके बन्धन से मुक्त होना कितना सहज है, यह सब प्रत्यक्ष देखकर मैं आश्चर्य से चकित हो गया। हमारे देश में यह जो असंख्य जाति-भेद की श्रृंखला है, इसे दोनों पैरों में पहिनकर झनझनाते हुए विचरण करने में कितना गौरव और मंगल है, इसकी आलोचना तो इस समय रहने दूँगा; किन्तु यह बात मैं निस्सन्देह कह सकता हूँ कि जो लोग इसे अपने छोटे-छोटे-से गाँवों में बिल्कुनल बेखटके जमे हुए पुरखों से चला आता हुआ संस्कार बताकर स्थिर रखे हुए हैं, और इसके शासन-जाल को तोड़ने की दुरूहता के सम्बन्ध में जिन्हें लेशमात्र भी अविश्वास नहीं है, उन लोगों ने इस बड़े भारी भ्रम को जान-बूझकर ही पाल रक्खा है। वास्तव में जिस देश में खाने-पीने में छुआछूत का विचार प्रचलित नहीं है उस देश में कदम रखते ही यह अच्छी तरह देखा जाता है कि यह छप्पन पुश्तों की खाने-पीने में छुआछूत रखने की सांकल न जाने कैसे रातों-रात खुलकर अलग हो जाती है। विलायत जाने से जाति चली जाती है इसका एक मुख्य कारण यह बतलाया जाता है कि वहाँ निषिद्ध माँस खाना पड़ता है। यहाँ तक कि जो लोग अपने देश में भी कभी माँस खाना पड़ता है। यहाँ तक कि जो लोग अपने देश में भी कभी माँस नहीं खाते, उनकी भी चली जाती है; कारण, जिन्होंने जाति मारने का इजारा ले रखा है वे पंच लोग कहते हैं कि वहाँ मांस न खाने पर भी समझ लेना चाहिए कि 'खाया ही है'।
और उनका यह कहना निहायत गलत भी नहीं है। बर्मा तो तीन-चार दिन का ही रास्ता है; फिर भी मैंने देखा है कि पन्द्रह आने बंगाली भले आदमी जिनमें शायद ब्राह्मण ही अधिक होंगे- क्योंकि इस युग में उन्हीं के लोभ ने सबको मात कर दिया है- जहाज के होटल में ही सस्ते दामों में पेट भर लेते हैं तब कहीं सूखी जमीन पर पदार्पण करते हैं। उस होटल में मुसलमान और गोआनीज बावर्ची क्या राँधकर 'सर्व' करते हैं, यह सवाल अप्रिय हो सकता है; किन्तु, वे लोग हविष्यान्न पकाकर केले के पत्तों में नहीं परोसते होंगे, यह अनुमान करना तो भाटपाड़े के भट्टाचार्यों के लिए भी शायद कठिन नहीं है- फिर मैं तो ठहरा साथ का मुसाफिर। जो लोग कम से कम यह सब नहीं खाना चाहते वे भी हार मानकर अन्त में चाह-रोटी, फल फूलादि तो खाते ही हैं! मैंने देखा है कि एकदम निषिद्ध मांस से लेकर मत्तमान और रम्भा (केले की दो जातियाँ) तक सब कुछ एक में ही गड्डमड्ड करके जहाज के कोल्ड-रूम में रक्खा जाता है और यह काम किसी की नजर से छुपाकर करने की पद्धति भी मैंने जहाज के नियम-कानूनों में नहीं देखी। हाँ, फिर भी, आराम की बात यह है कि बर्मा- जाने वाले यात्री की जाति जाने का कानून, शायद, किसी तरह शास्त्रकारों की 'सिविल कोड' की नजर बचा गया है। नहीं तो शायद फिर एक छोटी-मोटी ब्राह्मण-सभा की जरूरत होती! जाने दो, भले लोगों की बात आज यहीं तक रहे।
होटल में जो लोग पंक्तिबद्ध होकर भोजन करने बैठे थे वे भले आदमी नहीं थे- कम से कम हम लोग उन्हें 'भला' नहीं मानते। सब लोग कारीगर थे, साढ़े दस बजे की छुट्टी में भोजन करने आए थे। शहर के इस हिस्से में एक बड़ा मैदान है जिसके तीन तरफ नाना आकार और प्रकार के कारखाने हैं, और इस बस्ती के बीच एक तरफ को दादा ठाकुर का यह होटल है। एक विचित्र बस्ती है। एक कतार में, एक से एक सटी हुई, जीर्ण काठ की छोटी-छोटी कोठरियाँ बनी हुई हैं। इनमें चीनी, बर्मी, मद्रासी, उड़िया, तैलंगी, चटगाँव के हिन्दू और मुसलमान आदि सभी रहते हैं; और, रहते हैं हमारी जाति के बंगाली भी। इनके समीप मैंने पहले ही पहल यह सीखा है कि किसी को भी छोटी जाति का कहकर घृणा करके उसे दूर रखने की बुरी आदत का परित्याग करना कोई बड़ा कठिन काम नहीं है। जो नहीं करते वे अशक्यता के कारण न करते हों सो बात नहीं है; किन्तु, जिस कारण वे नहीं करते उसे प्रकाशित कर देने से झगड़ा बढ़ खड़ा होगा।
दादा ठाकुर ने आकर यत्नपूर्वक मेरा स्वागत किया और एक छोटा-सा कमरा दिखाकर कहा, “जितने दिन आपकी इच्छा हो इस कमरे में रहें और हमारे यहाँ भोजन करें। नौकरी-चाकरी लगने की बाद दाम चुका देना।”
मैंने कहा, “मुझे तो आप पहिचानते नहीं हैं, एक महीने रहकर और खा-पीकर बिना दाम दिये भी तो चला जा सकता हूँ।”
दादा ठाकुर ने अपना कपाल दिखाते हुए हँसकर कहा, “इसे तो आप साथ में ले नहीं जा सकते महाशय!”
मैंने कहा, “जी नहीं, उस पर मुझे जरा भी लोभ नहीं है।”
दादा ठाकुर सिर हिलाते-हिलाते इस दफे परम गम्भीर भाव बनाकर बोले, “देखिए, तकदीर भी है महाशय! इसके सिवाय और कोई रास्ता ही नहीं, यही मैं सब लोगों से कहा करता हूँ।”
वास्तव में केवल उनका जबानी जमाखर्च नहीं था। इस सत्य पर वे स्वयं किस कदर अकपट रूप से विश्वास करते थे यह हाथों-हाथ प्रमाणित करने के लिए चार-पाँच महीने के बाद, एक दिन वे प्रात:काल बहुतों की धरोहर-रुपये-पैसे अंगूठी, घड़ी इत्यादि साथ लेकर केवल उनके निराट कपालों को बर्मा में उस शून्य होटल के भेज पर जोर से पटकने के लिए छोड़कर अपने देश चले गये।
जो भी हो, उस समय दादा ठाकुर की बात सुनने में बुरी नहीं लगी और मैं भी उनका एक नया मुवक्किल बनकर एक टूटा-सा कमरा दखल करके बैठ गया। रात को एक कच्ची उम्र की बंगालिन दासी मेरे कमरे में आसन बिछाकर भोजन के लिए जगह करने आई; पास में ही डायनिंग रूम में से लोगों के भोजन का शोर सुनाई दे रहा था। मैंने पूछा, “मुझे भी वहाँ ही न कराके यहाँ भोजन कराने क्यों लाई?”
वह बोली, “वे लोग तो हल के दर्जे के लोहा काटने-पीटनेवाले मजदूर हैं बाबू, उनके साथ आपको कैसे खिलाया जा सकता है?”
अर्थात् वे थे 'वर्कमेन' और मैं था 'भला आदमी'। मैंने हँसकर कहा, “मुझे भी यहाँ क्या-क्या काटना-पीटना पड़ेगा सो तो अब भी निश्चित नहीं हुआ है। जो भी हो, आज खिलाती हो तो खिला जाओ, किन्तु, कल से मुझे भी उन्हीं के साथ उसी कमरे में खिलाना।”
दासी बोली, “आप बाम्हन हैं, आपको वहाँ खाने की जरूरत नहीं।”
“क्यों? वे सब बंगाली तो हैं?”
दासी ने गले को जरा धीमा करके कहा, “बंगाली जरूर हैं, किन्तु उनमें एक डोम भी है।”
डोम! देश में यह जाति अस्पृश्य-अछूत है। छू जाने पर स्नान करना 'कम्पलसरी' (=अनिवार्य) है या नहीं सो तो नहीं मालूम; किन्तु यह जानता हूँ कि कपड़े बदलकर गंगाजल सिर पर छिड़कना पड़ता है। अत्यन्त अचरज से मैंने पूछा, “और सब?”
दासी बोली, “और सब अच्छी जाति के हैं। कायथ हैं, कैवर्त (=केवट) हैं, अहीर हैं, लुहार...”
“ये लोग कोई आपत्ति नहीं करते?”
दासी अब कुछ हँसकर बोली, “इस पर देश में सात समुन्दर पार आकर क्या इतनी बमहनयी चल सकती है बाबू? वे कहते हैं, देश लौटकर गंगा-स्नान करके एक अंग-प्रायश्चित कर लेंगे।
भले ही कर लें किन्तु, मुझे मालूम है कि जो दो-चार आदमी बीच-बीच में देश जाते हैं वे चलते-चलाते कलकत्ते की गंगा में एकाध दफे गंगा-स्नान तो शायद कर लेते हों; किन्तु, अंग-प्रायश्चित कभी कोई नहीं करता। परदेश की आब-हवा के प्रभाव से ये लोग उस पर विश्वास नहीं रखते।
देखा कि होटल में सिर्फ दो हुक्के हैं। एक तो ब्राह्मणों के लिए, दूसरा जो ब्राह्मण नहीं हैं उनके लिए। भोजनादि के बाद कैवर्त के हाथ से डोम और डोम के हाथ से लुहार महाशय ने हाथ बढ़ाकर हुक्का ग्रहण किया और स्वच्छन्दता से पिया। दुविधा का लेश भी नहीं। दो दिन बाद उस लुहार के साथ बातचीत करते हुए मैंने पूछा, “अच्छा, इस तरह तुम्हारी जाति नहीं जाती?”
लुहार बोला, “जाती क्यों नहीं महाशय, जाती तो है ही!”
“तब?”
“उसने पहिले डोम कहकर अपना परिचय थोड़े ही दिया था; कहा था कि मैं कैवर्त हूँ। इसके बाद ही सब मालूम पड़ा।”
“तब तुम लोगों ने कुछ नहीं कहा?”
“कहते और क्या महाशय, काम तो बहुत ही बुरा हुआ, यह तो मंजूर करना ही पड़ता है। लेकिन कहीं उसे शर्मिन्दगी न उठानी पड़े, यह सोचकर सबने जान-बूझकर मामले को दबा दिया।”
“किन्तु देश में होते तो क्या होता?”
वह आदमी जैसे सिहर उठा। बोला, “तो, क्या फिर किसी की रक्षा हो सकती थी?” इसके बाद जरा-सा चुप रहकर वह खुद ही बोलने लगा, “किन्तु आप जानते हैं बाबू मैं ब्राह्मनों की बात नहीं कहता- वे ठहरे वर्णों के गुरु, उनकी बात ही अलहदा है। नहीं तो, बाकी और सब जात समान हैं। चाहे तेली, माली, तमोली, अहीर, नाई, बढ़ई, लुहार, कुम्हार और गंधी इन नौ शाखाओं के हिन्दू हों, चाहे हाड़ी-डोम आदि हों- किसी के शरीर पर कुछ लिखा तो है नहीं; सभी भगवान के बनाए हैं, सब एक हैं, सभी पेट की ज्वाला से जलकर परदेश में आए हैं और लोहा पीट रहे हैं। और सोचिए तो बाबू, हरि मोडल डोम है तो क्या हुआ? शराब पीता नहीं, गाँजा छूता नहीं- आचार-विचार को देखकर कौन कह सकता है कि वह अच्छी जात का नहीं है- डोम का लड़का है! और लक्ष्मण- वह तो भले कायथ का लड़का है, पर उसके आचार-विचार को देखो न एक बार, बच्चू दो-दो बार जेल जाते-जाते बचे हैं। हम सब नहीं होते तो अब तक जेल में पड़े-पड़े मेहतर के हाथ की रोटियाँ खाते होते।”
न तो मुझे लक्ष्मण के सम्बन्ध में ही किसी तरह का कुतूहल हुआ और न हरि मोडल ने अपने डोमत्व को छिपाकर कितना बड़ा अन्याय किया इसकी मीमांसा करने की ही मेरी प्रवृत्ति हुई। मैं सिर्फ यही सोचने लगा कि जिस देश में भले आदमी तक जासूस लगाकर अपने जन्म के पड़ोसी के छिद्र ढूँढ़कर और उसके पितृ-श्राद्ध को बिगाड़कर आत्म-तुष्टि लाभ करते हैं, उसी देश के अक्षिक्षित, नीच जातीय होने पर भी इन लोगों ने एक अपरिचित बंगाली का इतना बड़ा भयंकर अपराध भी माफ कर दिया! और- केवल इतना ही नहीं, पीछे से इस परदेश में कहीं उसे लज्जित और दीन होकर न रहना पड़े, इस आशंका से उस प्रसंग को उठाया तक नहीं! यह सब असम्भव कार्य किस तरह सम्भव हुआ, विदेशी आदमी भले ही न समझ सकें, परन्तु, हम तो समझ सकते हैं कि हृदय की कितनी विशालता और मन की कितनी बड़ी उदारता इसके लिए आवश्यक है! यह केवल उनके देश छोड़कर विदेश आने का फल है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। खयाल हुआ कि इसी शिक्षा की हमारे देश को इस समय सबसे अधिक जरूरत है। सारी जिन्दगी अपने छोटे से गाँव में ही बैठकर बिता देने से बढ़कर मनुष्यों को सब विषयों में छोटा, संकुचित कर देने वाला बड़ा शत्रु और कोई नहीं है। खैर, जाने दो इस बात को।
इन लोगों के साथ मैं बहुत दिनों तक रहा। किन्तु जब तक उन्हें यह न मालूम हुआ कि मैं पढ़ा-लिखा हूँ, केवल तब तक ही मुझे इनके साथ घनिष्ठता से मिलने-जुलने का सुयोग मिलता रहा- उनके सब तरह के सुख-दु:खों में मैं भी हिस्सेदार बनता रहा, किन्तु जिस क्षण ही उन्हें मालूम हुआ कि मैं भला आदमी हूँ और मुझे अंगरेजी आती है, उसी क्षण से उन्होंने मुझे गैर समझना शुरू कर दिया। अंगरेजी जानने वाले शिक्षित भले आदमियों के समीप ये लोग आपद्-विपद् के समय जाते जरूर हैं, उनसे सलाह-मशविरा भी करते हैं- यह भी सच है, परन्तु, ये लोग न तो उन पर विश्वास ही करते हैं और न उन्हें अपना आदमी ही समझते हैं। देश के इस कुसंस्कार को वे आज भी दूर नहीं कर पाए हैं कि मैं उन्हें छोटा समझकर मन ही मन घृणा नहीं करता हैं,- पीछे-पीछे उनका उपहास नहीं करता हूँ। केवल इसी कारण मेरे कितने सत्संकल्प इन लोगों के बीच विफल हो गये हैं। मैं समझता हूँ, उनकी कोई सीमा नहीं। किन्तु खैर, आज इस बात को जाने दो।
मैंने देखा कि बंगाली स्त्रियों की संख्या भी इस ओर कुछ कम नहीं है। यद्यपि उनके कुलों का परिचय न देना ही अच्छा है; किन्तु, आज वे किसी और दूसरे ही रूप में परिवर्तित होकर एकदम शुद्ध गृहस्थों की धर्मपत्नियाँ बन गयी हैं। पुरुषों के मनों में तो शायद आज भी 'जाति' की पुरानी स्मृति बाकी बनी हुई है। किन्तु, स्त्रियाँ तो न कभी देश आती हैं और न देश के साथ कोई सम्पर्क ही रखती हैं। उनके बच्चे-बच्चियों से पूछा जाय तो वे यही कहते हैं कि “हम बंगाली हैं'- अर्थात् मुसलमान, क्रिस्तान, बर्मी आदि नहीं हैं- बंगाली हिन्दू हैं। आपस में विवाहादि, आदान-प्रदान, स्वच्छन्दता से होता है- केवल 'बंगाली' होना ही यथेष्ट है, और चटगाँव के किसी बंगाली ब्राह्मण द्वारा मन्त्र पढ़ाकर दोनों के हाथ मिलाकर एक कर दिया जाना ही बस है। विधवा हो जाने पर विधवा-विवाह का रिवाज नहीं है- सो शायद इसलिए कि पुरोहित मन्त्र पढ़ने को राजी नहीं होता। परन्तु वैधव्य भी ये पसन्द नहीं करतीं और फिर एक नयी गृहस्थी बना लेती हैं। उनके लड़के-बच्चे होते हैं और वे भी कहते हैं कि 'हम बंगाली हैं', तथा उनके विवाह में वही पुरोहित आकर वैदिक मन्त्र पढ़ाकर विवाह करा जाते हैं- इस दफे उन्हें तिल-भर भी आपत्ति नहीं होती। पति के द्वारा अत्यन्त दु:ख-यन्त्रणा पाने पर ये दूसरे का आश्रय भी ग्रहण करती हैं जरूर, किन्तु, यह अत्यन्त लज्जा की बात समझी जाती है और इसके लिए दु:ख-यन्त्रणा का परिमाण भी अत्यधिक होना चाहिए। परन्तु फिर भी, ये वास्तव में हिन्दू हैं और दुर्गा-पूजा से शुरू करके षष्टी महाकाली आदि कोई भी पूजा नहीं छोड़तीं।